________________ अनुवाद-जी-३५ 411 1341. निमित्त त्रिकाल विषयक होता है, इसके छह भेदों में जो दोष होते हैं, उनमें वर्तमानकाल विषयक निमित्त-कथन तत्क्षण परघातकारी होता है, इसका यह उदाहरण है। 1342. किसी लिंगवेशधारी संन्यासी ने निमित्त के द्वारा गृहस्वामिनी को आकृष्ट किया। गृहस्वामिनी ने चिरकाल से गए हुए अपने पति के बारे में पूछा कि वे कब तक घर आएंगे? 1343. नैमित्तिक ने कहा-'कल ही तुम्हारा पति आ जाएगा।' गृहस्वामिनी ने कहा-'इसका विश्वास कैसे हो?' नैमित्तिक ने कहा-'तुम्हारे गुह्य प्रदेश में तिल है।' प्रत्यय के लिए नैमित्तिक ने स्वप्न आदि के बारे में भी बताया। 1344, 1345. गृहस्वामिनी ने उपयोग लगाया और पति के सम्मुख परिजनों को भेज दिया। इधर पति ने सोचा कि बिना सूचना के घर में प्रवेश करूंगा और घर के वृत्तान्त को देखूगा। पति ने मित्रवर्ग एवं परिजनों को सम्मुख देखकर पूछा-'तुम लोगों को मेरे आगमन की बात कैसे ज्ञात हुई?' परिजनों ने कहा–'तुम्हारी पत्नी ने हमें भेजा है।' 1346. यात्रा से आए हुए पति ने इसका कारण पूछा। पत्नी ने प्रशंसा करते हुए पति को कहा कि श्रमण नैमित्तिक ने तिल आदि के बारे में बताया तथा वह अतीत और भविष्य के बारे में भी जानता है। 1347. कोप से गृहनायक ने पूछा-'घोड़ी के गर्भ में क्या है?' नैमित्तिक साधु ने कहा-'पंचपुंड्र-पांच तिलक वाला किशोर (घोड़ी का बच्चा) है।' घोड़ी का पेट फाड़ने पर वही निकला। (पति बोला-)यदि ऐसा नहीं होता तो तुम्हारा भी वध हो जाता। ऐसे कितने नैमित्तिक हैं, जो यथार्थ निमित्त का कथन करते हैं। 1348, 1349. इसलिए साधु को निमित्त का कथन नहीं करना चाहिए। यह मैंने निमित्तपिंड का वर्णन किया। अतीत का निमित्त-कथन करने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल होता है। वर्तमान और अनागत का निमित्त-कथन करने पर चतुर्लघु जिसका तप रूप प्रायश्चित्त उपवास प्राप्त होता है। अब मैं संक्षेप में आजीवपिंड के बारे में कहूंगा। 1350. आजीवना के पांच प्रकार हैं-जाति, कुल, गण, कर्म और शिल्प। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैंसूचा से कहना अर्थात् विशेष शब्दों से कहना अथवा असूचा-स्फुट वचनों से कहना। 1351. जाति, कुल, गण, कर्म और शिल्प-ये पंचविध आजीव (आजीविका के साधन) हैं। इनका प्रयोग करके आहार लेने पर प्रत्येक का प्रायश्चित्त चतुर्लघु है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल है। 1352. मातृ समुत्थ ब्राह्मण आदि जाति कहलाती है। वहां मुनि सूचा-स्पष्ट रूप से प्रकट करता है। 1. निमित्त दोष के विस्तार हेतु देखें पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 93 / / 2. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.४१। 3. आजीवना दोष के विस्तार हेतु देखें पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 93-95 / * 4. मल्ल आदि के समूह को गण कहा जाता है।' १.पिनि 207; गणो उ मल्लादि।