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________________ 420 जीतकल्प सभाष्य 1441, 1442. साधुओं ने कहा-'हम तुम्हारी शक्ति देखेंगे।' वह विद्या से अभिमंत्रित होकर वहां गया और भिक्षु उपासक को कहा-'तुम क्या दोगे?' साधु के द्वारा पूछने पर उसने घृत, गुड़, वस्त्र आदि दिए। मुनि ने विद्या का संहरण किया। अन्य लोगों ने भिक्षु उपासक को कहा-'तुमने भक्त-पान आदि कैसे दिया?' तब वह रुष्ट होकर बोला-'किसने मेरी वस्तु चुराई तथा किसके द्वारा मैं ठगा गया हूं?' 1443. विद्या से अभिमंत्रित वह व्यक्ति अथवा अन्य कोई व्यक्ति स्तम्भन आदि प्रतिविद्या से मुनि का अनिष्ट कर सकता है। लोगों में यह अपवाद होता है कि ये मुनि पापजीवी, मायावी तथा कार्मणकारी हैं। इस अपवाद से उनका राजपुरुषों द्वारा निग्रह अथवा अनिष्ट भी हो सकता है। 1444. मंत्र में पाटलिपुत्र के मुरुंड राजा का उदाहरण है। शीर्ष वेदना उत्पन्न होने पर उन्होंने पादलिप्त आचार्य को कहा। उन्होंने स्पर्श किया। 1445. जैसे-जैसे पादलिप्त आचार्य ने घुटने पर प्रदेशिनी अंगुलि को घुमाया, वैसे-वैसें मुरुंड राजा की शीर्ष-वेदना समाप्त हो गई। 1446. मंत्र से अभिमंत्रित करके कोई मुनि विद्या-प्रयोग की भांति किसी को वस्तु दिलाता है या देता है तो वहां भी वे ही दोष होते हैं। प्रतिमंत्र आदि के दोष इस प्रकार हैं१४४७. मंत्र से अभिमंत्रित वह व्यक्ति अथवा अन्य कोई व्यक्ति प्रतिमंत्र से साधु को स्तम्भित कर सकता है। (लोगों में यह अपवाद होता है कि) ये साधु पापजीवी, मायावी और कार्मणकारी हैं। राजपुरुष उसका. निग्रह आदि कर सकते हैं। 1448. विद्यापिण्ड और मंत्रपिण्ड के बारे में वर्णन किया, अब मैं चूर्णपिण्ड और योगपिण्ड के बारे में कहूंगा। अन्तर्धान करने वाले अञ्जन आदि तथा वशीकरण करने वाले चूर्ण हैं। 1449. चूर्णपिण्ड और योगपिण्ड ग्रहण करने पर चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल प्राप्त होता है। अब मैं इन दोनों के उदाहरण कहंगा।। 1450. चूर्णयोग में कुसुमपुर के किसी आचार्य का दृष्टान्त है। जंघाबल क्षीण होने से दुर्भिक्ष में उन्होंने एकान्त में अपने शिष्य को चूर्णयोग तथा अदृश्य होने की विद्या के बारे में वाचना दी। प्रच्छन्न रूप से दो क्षुल्लक मुनियों ने अदृश्य होने की विद्या सुनी। उनमें से एक क्षुल्लक ने वह विद्या ग्रहण कर ली। 1451, 1452. दुर्भिक्ष होने के कारण गुरु ने सभी शिष्यों को देशान्तर में भेज दिया लेकिन वे दोनों क्षुल्लक मुनि गुरु के पास पुनः लौट आए। आचार्य ने कहा-'तुमने लौटकर अच्छा कार्य नहीं किया।' 1453, 1454. दुर्भिक्ष में भिक्षा की कमी होने पर भी आचार्य क्षुल्लकद्वय को बांटकर आहार करते थे। इस दुर्भिक्ष में गुरु के लिए क्या करें? दोनों क्षुल्लक मुनियों ने इस विषय में चिन्तन किया। उन्होंने सोचा १.कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 48 / 2. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 49 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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