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तीर्थकर महावीर
भाग २
जैनाचार्य विजयेन्द्र सूरि
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ग्रन्थ और ग्रन्थकार के विषय में विजयेन्द्रसूरि जैन-जगत् में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। वे चलते-फिरते पुस्तकालय हैं । भारतीय विद्या के अनेक विषय के साथ उन्हें प्रेम है। उनकी जानकारी कितनी विस्तृत है यह उनके ग्रन्थों से विदित होता है। भगवान् महावीर के अब तक जितने जीवन-चरित निकले हैं, वर्तमान ग्रन्थ उनमें बहुत ही उच्चकोटि का है। इसके निर्माण में सूरि जी ने दीर्घकालीन अनुसंधान-कार्य के परिणाम भर दिये हैं। तीर्थङ्कर महावीर के संबंध में जैन साहित्य में और बौद्ध-साहित्य में भी जो कुछ परिचय पाया जाता है, उस सबको एक ही स्थानपर उपलब्ध कराना इस ग्रंथ की विशेषता है ।
डा० वासुदेवशरण अग्रवाल
श्राचार्यश्री ने इस उम्र में इतनी मेहनत करके इस प्रामाणिक पुस्तक की रचना की है, यह समाज के लिए गौरव की वस्तु है ही, लेकिन ऐतिहासिक विद्वानों के सामने महावीर के जीवन का पूरा साधन उपस्थित हुआ है। अगर आचार्यश्री का उदाहरण हमारे सब जैन-साधु कार्य में लाते तो जैन-परम्परा का स्थान आज विश्व में कहाँ पहुँच जाता। विजयसिंह नाहर एम.ए., एम्. एल्. ए.
(कलकत्ता)
इस ग्रंथ के प्रणयन और प्रकाशन के लिए मेरी परम श्रद्धापूर्ण बधाइयाँ हैं।
करतूरमल वाँठिया (अजमेर)
Education International
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तीर्थङ्कर महावीर
भाग २
लेखक विद्यावल्लभ, विद्याभूषण, इतिहासतत्त्वमहोदधि
जैनाचार्य श्री विजयेन्द्र सूरि
भूमिका लेखक डा. वासुदेवशरण अग्रवाल
प्रकाशक : काशीनाथ सराक
यशोधर्म मन्दिर, १६६ मर्जबान रोड, अंधेरी,
बम्बई ५८
(GMI
कलामलागर मृरे ज्ञान मदिर भी महावीर जेन आराधना केंद्र, कोबा
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( सर्वाधिकार काशीनाथ सराक के आधीन सुरक्षित )
प्रथम आवृत्ति १९६२
मूल्य ( दोनों भाग का ) २०)
• वीर संवत् २४८८
• विक्रम संवत् २०१८
धर्म संवत् ४०
मुद्रक :
बलदेवदास
संसार प्रेस,
संसार लिमिटेड, काशीपुरा, वाराणसी
स्व० अरविंद भोगीलाल झवेरी ( पाटन ) की स्मृति में
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स्वर्गीय अरविंद भोगीलाल झवेरी
For Private & Personal use !
जिनकी स्मृति में यह ग्रन्थ प्रकाशित हुआ )
in Education sternational
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भूमिका
प्राक्कथन
दो शब्द सहायक ग्रंथ
तीर्थ स्थापना
विषय सूची
डा० वासुदेवशरण अग्रवाल ( लेखक )
( प्रकाशक )
तीर्थ स्थापना
१३वाँ वर्षावास भगवान् राजगृह में
मेघकुमार की दीक्षा
मेघकुमार की स्थिरता १३, मेघकुमार का पूर्व भव १३,
नन्दिषेण की प्रवज्या
कुत्रिकाप
१५ - वाँ वर्षावास
१५ वाँ वर्षावास जयन्ती की प्रव्रज्या
तीर्थंकर जीवन
ऋषभदत्त, देवानन्दा की प्रव्रज्या
जमालि की प्रवज्या
सुमनोभद्र और सुप्रतिष्ठ की दीक्षा आनन्द का श्रावक होना
१८
२१
४६
५.१
११
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m
१३
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२०
२०
२४
४ (४
२८
२८
३२ ३२
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१६-वाँ वर्षावास धान्यों की अंकुरोत्पत्ति-शक्ति शालिभद्र की दीक्षा धन्य की दीक्षा धन्य-शालिभद्र का साधु-जीवन १७-वाँ वर्षावास भगवान् चम्पा में महाचन्द्र की दीक्षा भावान् सिन्धु-सौवीर में १८-वाँ वर्षावास भगवान् वाराणसी में चुल्लिनीपिता और सुरादेव का श्रावक होना पुद्गल की प्रव्रज्या चुल्लशतक श्रावक हुत्रा भगवान् राजगृह में मंकाती की दीक्षा किंक्रम की दीक्षा अर्जुनमाली की दीक्षा काश्यप की दीक्षा वारत्त की दीक्षा १९-वाँ वर्षावास श्रेणिक को भावी तीर्थकर होने की सूचना श्रेलिक के पुत्रों की दीक्षा आईककुमार और गोशालक श्राईककुमार और बौद्ध
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श्राईककुमार और वेदवादी श्राई ककुमार और वेदान्ती आर्द्रककुमार और हस्तितापस वनैले हाथी का शमन आई ककुमार का पूर्वप्रसंग २०-वाँ वर्षावास भगवान् श्रालभिया में मृगावती की दीक्षा २१-वाँ वर्षावास धन्य की प्रव्रज्या सुनक्षत्र की दीक्षा कुण्डकोलिक का श्रावक होना सद्दालपुत्र श्रावक हुआ प्रायं बिल संसट्ट २२-वाँ वर्षावास महाशतक का श्रावक होना पार्श्वपत्यों का शंका-समाधान रोह के प्रश्न लोक-सम्बन्धी शंकाओं का समाधान २३-वाँ वर्षावास स्कंदक की प्रवज्या नन्दिनीपिता का श्रावक होना २४-वाँ वर्षावास जमालि का पृथक होना
७४
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चन्द्र-सूर्य की वन्दना पार्श्वपत्यों का समर्थन
२५- वाँ वर्षावास
बेहास अभय आदि की देवपद-प्राप्ति भगवान् चम्पा में
भगवान् पर कूणिक की निष्ठा का प्रमाण श्रेणिक के पौत्रों की दीक्षा
२६- वाँ वर्षावास
खेमकादि की दीक्षा श्रेणिक की रानियों की दीक्षा
२७-वाँ वर्षावास
गोशाला - काण्ड
तेजोलेश्या
निमित्तों का अध्ययन
निमित्त
( ६ )
पूर्व
गोशाला जिन बना
भगवान् श्रावस्ती में
मंखलिपुत्र का जीवन
पणियभूमि
गोशाला को तेजोलेश्या का ज्ञान
गोशाला आनन्द-वार्ता
दृष्टिविष सर्प
आनंद द्वारा भगवान् को सूचना भगवान की चेतावनी
62
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९१
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६३
६३
९४
६४
६४
९८
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१०१
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१०४
५०६
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१०७
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११३
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११२
११२
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( ७ )
गोशाला का आगमन गोशाला को भगवान् का उत्तर गोशाला द्वारा तेजोलेश्या का प्रमाण एक शंका और उसका समाधान भगवान पर तेजोलेश्या छोड़ना भगवान् की भविष्यवाणी गोशाला तेजहीन हो गया गोशाला की बीमारी
पुल और गोशाला
गोशाला की मरणेच्छा गोशाला की मृत्यु
गोशाला देवता हुआ भगवान् मंढियग्राम में
रेवतीदान
रेवती ने दान में क्या दिया
एक भिन्न प्रसंग में रेवती-दान
भगवती के पाठ पर विचार
अभयदेव को शंकाशील मानने वाले स्वयं भ्रम में
श्रयमाणमेवार्थ के चिन्मन्यन्ते
शब्द और अर्थ भिन्न हैं
युक्तिप्रबोध-नाटक का स्पष्टीकरण
आमिष का अर्थ
जैन-धर्म में हिंसा निन्द्य है
मांसाहार से नरक - प्राप्ति
नरक-प्राप्ति के कुछ उदाहरण
मांसाहार से किंचित् सम्बंध रखने वाला पाप का भागी
११६
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१२१
१२१
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१३५
१३६
१३७
१४०
१४०
६४३
૧૪૨
१४१
१४८
१५०
.१५३
૬×૪
१२४
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as
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५५८
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w
५६४
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अन्य धर्म-ग्रन्थों में जैनियों की अहिंसा मांसाहार से मृत्यु अच्छी जैन अहिंसा-व्रत में खरे थे घो-दूध भी विकृतियाँ दान का दाता कौन रेवती तीर्थङ्कर होगी भगवान् किस रोग से पीड़ित थे पित्तज्वर का निदान मांस की प्रकृति मांस शब्द का अर्थ श्रायुर्वेद में मांस का प्रयोग वैदिक-ग्रंथों के प्रमाण वनस्पतियों के प्राणिवाचक नाम कचोय का अर्थ कुक्कुट का अर्थ 'मज्जार कडए' परियासिए पहली भिक्षा अग्राह्य क्यों याकोबी का स्पष्टीकरण स्टेनकोनो का मत मत्स्य-मांस परक अर्थ श्रागम-विरोधियों की देन प्रथम निह्नव : जमालि सुदर्शना वायस लौठी २८-वाँ वर्षावास केशीगौतम-संवाद
w
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9
9
9
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१० १६३
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शिवराजर्षि की दीक्षा पोहिल की दीक्षा भगवान् मोका-नगरी में
२९- वाँ वर्षावास
गौतम स्वामी के प्रश्नों का उत्तर
३० वाँ वर्षावास
शाल - महाशाल की दीक्षा
कामदेव प्रसंग
दशाfभद्र की दीक्षा सोमिल का श्रावक होना
३१ - वाँ वर्षावास श्रम्बड परिवाजक
'चैत्य' शब्द पर विचार भगवती वाले पाठ पर विचार
कुछ अन्य सदाचारी परिवाजक
अम्बड परिव्राजक का अंतिम जीवन
( ६ )
३२- वाँ वर्षावास
गांगेय की शंकाओं का समाधान
३३- वाँ वर्षावास
चार प्रकार के पुरुष
श्राराधना
पुद्गल-परिणाम
मद्दुक और अन्यतीर्थिक ३४ - वाँ वर्षावास
कालोदायी का शंका-समधान
२०२
२०२
२०३
२०५
२०५
२१४
२१४
२१४
२१४
२१४
२२०
२२०
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२२८
२२६
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२३८
२३८
૨૪૨
२४२
२४३
२४१
२४७
२५०
२१०
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२७४
२७४
( १० ) उदक को उत्तर ३५-वाँ वर्षावास काल चार प्रकार के ३६-वाँ वर्षावास चिलात् साधु हुआ ३७-वाँ वर्षावास अन्यतीर्थिकों का शंका-समाधान गतिप्रपात कितने प्रकार का कालोदायी की शंका का समाधान ३८-वाँ वर्षावास पुद्गल परिणामों के विषय में भाषा-सम्बन्धी स्पष्टीकरण ३९-वाँ वर्षावास ज्योतिष-सम्बंधी प्रश्न ४०-वाँ वर्षावास भगवान् विदेह-भूमि में ४१-वाँ वर्षावास महाशतक का अनशन गरम पानी का ह्रद अायुप्य कर्म-सम्बन्धी स्पष्टीकरण मनुष्य-लोक में मानव-बस्ती सुख-दुःख-परिणाम एकान्त दुःख-वेदना-सम्बन्धी स्पष्टीकरण ४२-वाँ वर्षावास छठे थारे का विवरण
२८१
२८१
२८॥ २८२
२८३ २८४
२८५
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२६२ ३०५
वम्तियों का वर्गीकरण भगवान् श्रपापापुर में भगवान् का निर्वाण कल्याणक नन्दिवद्धन को सूचना इन्द्रभूति को केवलज्ञान भगवान का परिवार
साधु
सुधर्मास्वामी पाट पर भगवान् महावीर की सर्वायु निर्वाण-तिथि १८ गणराजे महावीर निर्वाण-संवत
३१६ बौद्ध-ग्रंथों का एक भ्रामक उल्लेख
३२४ श्रमण-श्रमणी श्रमण-श्रमणी
३२९ अकम्पित ३२६, अग्निभूति ३२६, अचलभ्राता ३२६, अतिमुक्तक ३२६, अनाथी ३२६ अभय ३३०, अर्जुनमाली ३३०, अलक्ष्य ३३०, अानंद ३३०, अानंद थेर ३३०, प्राक ३३०, इन्द्रभूति ३३०, उद्रायण ३३२, उववाली ३३२, उसुयार ३३२, ऋषभदत्त ३३४, ऋषिदास ३३४, कपिल ३३४, कमलावती ३३६, काली ३३६, कालोदायी ३३६, काश्यप ३३६, किंक्रम ३३६, केलास ३३६, केसीकुमार ३३६, कृष्णा ३३६, खेमक ३३६, गग्ग थेर ३३६, गृइदंत ३३६, चंदना ३३६, चंदिमा ३३६, चिलात ३३७, जमालि ३३७, जयघोष ३३७, जयंती ३३६, जाली
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( १२ )
३३९, जिलदास ३४०, जिनपालित ३४०, तेतलीपुत्र ३४०, दशार्णभद्र ३४५, दीर्घदन्त ३४५, दीर्घसेन ३४५, द्रुम ३४५, द्रुमसे ३४५, देवानन्दा ३४६, धन्य ३४६, धन्य ३४६, धन्य ३४६, धन्य ३४८, धर्मघोष ३५०, धृतिधर ३५०, नंदमार ३५१, नंदमती ३२१, नन्दन ३५१, नंदसेशिया ३५१, नंदघेण ३५१, नन्दा ३५१, नन्दोत्तरा ३५१, नलिनीगुल्म ३५१, नारदपुत्र ३५१, नियंठिपुत्र ३५१, पद्म ३५१, पद्मगुल्म ३५१ पद्मभग ३५१, पद्मसेन ३५१, प्रभास ३५१, पिंगल ३५१, पितृसेनकृष्ण ३५१, पिट्टिमा ३२१, पुद्गल ३५२, पुरिसेन ३५२, पुरुषसेन ३५२, पुरोहित ३५२, पूर्णभद्र ३५२, पूर्णसेन ३५२, पेढाल - पुत्र ३५२, पेल्ल ३५२, पोहिला ३५२, पोट्ठिल ३५२, बलश्री ३५२, भूतदत्ता ३५३, भद्र ३५३, भद्रनन्दी ३५३, भद्रनन्दी ३५३, भद्रा ३५३, मंकाती ३५३, मंडिक ३५४, मयाली ३५४, मरुदेवा ३५४, महचंद्र ३५४, महब्बल ३५४, महया ३५४, महाकाली ३५४, महाकृष्णा ३५४, महाद्र ुमसेण ३५४ महापद्म ३५४, महाभद्र ३१४, महामरुता ३५४, महासिंहसेन ३५४, महासेन ३५४, महासेनकृष्ण ३५४, माकन्दिपुत्र ३५४, मृगापुत्र ३५४, मेघ ३१४, मेघ ३५४, मृगावती ३५५, मेतार्य ३५५, मौर्यपुत्र ३५५, यशा ३५५, रामकृष्ण ३५५, रामापुत्र ३५५, रोह ३१५, लट्ठदंत ३५५, व्यक्त ३५५, वरदत्त ३५५, वरुण ३५५, वायुभूति ३५६, वारत ३५६, वारिसेण ३५६, विजयघोष ३५६, वीरकृष्णा ३५६, वीरभद्र ३५६, वेसमण ३५६, बेहल्ल ३५६, वेहल्ल ३५६, वेहास ३५७, शालिभद्र ३५७, शालिभद्र ३५७, शिव ३५७, स्कंदक ३५७, समुद्रपाल ३५७, सर्वानुभूति ३५७, साल ३५८, सिंह ३५८, सिंह ३५८, सिंह
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सेन ३५८, सुकाली ३५८, सुकृष्णा,सुजात ३५८, सुजाता ३५८, सुदंसण ३५८, सुदर्शन ३५८, सुद्धदंत ३५८, सुधर्मा ३५८, सुनक्षत्र ३५८, सुनक्षत्र ३५८, सुप्रतिष्ट ३५८, सुबाहुकुमार ३५८, सुभद्र ३५६, सुभद्रा ३५६, सुमना ३५६, सुमनभद्र ३५६, सुमरुता ३५६, सुव्रता ३५६, सुवासव ३५६, हरिकेसबल ३५६, हरिचन्दन ३६०, हल्ल ३६० ।
श्रावक-श्राविका श्रावकधर्म
___अणुव्रत ३६६, गुणव्रत ३६७, शिक्षाबत ३६६, प्रतिमा ३७०, अतिचार ३७४, अणुव्रतों के अतिचार ३७५, गुणवतों के अतिचार ३६२, कर्म-संबंधी १५ अतिचार ३६४, वाणिज्यसम्बन्धी ५ अतिचार ३६५, सामान्य ५ अतिचार ३६६, शिक्षा व्रतों के अतिचार ३६७, संलेखना के ५ अतिचार ४०३, ज्ञान के ८ अतिचार ४०४, दर्शन के ८ अतिचार ४०५, चरित्र के ८ अतिचार ४०६, तप के १२ अतिचार ४०६, अनशन ४१०, उणोदरीतप ४१२, वृत्तिसंक्षेप ४१५, रसपरित्यागतप ४१६, कायक्लेश-तप ४१६, संलीनता तप ४१६, प्रायश्चित ४१७, विनयतप ४१६, वैयावृत्य ४१६, स्वाध्यायतप ४२०, ध्यानतप ४२०, कायोत्सर्ग तप ४२०, वीर्य के ३ अतिचार
४२१, सम्यक्त्व के ५ अतिचार ४२१ । आनन्द
४२२ चैत्य-शब्द पर विचार ४४२, धार्मिक साहित्य (संस्कृत) ४४४, बौद्ध-साहित्य ४४५, पाली ४४५, इतर साहित्य ४४६,
कुछ आधुनिक विद्वान ४५३ । कामदेव
४५६ चुलनीपिता
४५९
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४६४
१८९
( १४ ) सुरादेव चुल्लशतक कुण्डकोलिक पृथ्वीशिलापटक ४६८ सद्दालपुत्र
स्नानोत्तर क्रियाएँ ४७२, भगवान के पास जाना ४७३ सहालपुत्र को प्रतिबोध ४७४, महाशतक
४.३ नंदिनीपिता
४८८ सालिहीपिया मुख्य श्रावकों का संक्षिप्त परिचय श्रावक-श्राविका
__ अग्निमित्रा ४६३, अम्बड ४१३, अभीति ४६३, अश्विनी ४६३, आनन्द ४६३, आनन्द ४६३, ऋषिभद्रपुत्र ४६३, उत्पला ४६३, कामदेव ४६४, कुंडकोलिक ४६४, चुलणीपिया ४६४, चुल्लशतक ४६४, धन्या ४६४, नंदमणिकार ४६४, नंदिनीपिया ४६८, पालिय ४६८, पुष्कली ४६८, पुप्या ४६८, फाल्गुनी ४६६, बहुल.४६६, वहुला ४६६, भद्रा ३६६, मद्दुक ४६६, महाशतक ४६६, रेवती ४६६, रेवती ४६६, लेप ४६६, विजय ४६६, शंख ४६६, शिवानन्दा ५०१, श्यामा ५०१, सदालपुत्र ५०१, सालिहीपिया ५०१, सुदंसण ५०१, सुनन्द ५०१, सुरादेव ५०१, सुलसा ५०१ ।
भगवान् महावीर के भक्त राजे अदीनशत्रु अप्रतिहत
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अर्जुन
श्रलक्ख
उद्रायण
कनकध्वज
करकडू कृणिक
गागलि
चंडप्रद्योत
चेटक
परिवार ५१४, राज्यारोहण ५१५, कूणिक और भगवान् महावीर ५१५, वैशाली से युद्ध २१६, स्तूप के सम्बंध में कुछ विचार ५२२,
जय
जितशत्रु
दत्त
दधिवाहन
दशार्णभद्र
दशार्ण ५४३
द्विमुख
( १५ )
धनावह
नग्गति
नमि
वणियागाम १३६, चम्पा ५३६, वाराणसी ५३६, चालभिया २३७, कंपिलपुर ५३७, पोलासपुर ५३७, सावत्थी ५३७, काकंडी ५३७, लोहार्गला ५३८ ।
५०७
५०७
५०८
२१३
११३
२१३
५२६
५२७
૨૨૭
५३१
५३२
५३८
५३६
**
५५४
***
५५४
५५५
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________________
पुष्पपाल प्रत्येकबुद्ध
करकडू ५५७, द्विमुख ५६३, नमि ५६४, डाक्टर रायचौधरी की एक भूल ५७४ ।
प्रदेशी
चण्डप्रद्योत
प्रसन्नचन्द्र
प्रियचंद्र
चल
महाचन्द्र
महाबल
मित्र
मित्रनंदी
वासवदत्त
विजय
विजय
विजय मित्र
वीरकृष्णमित्र
( १६ )
वीरङ्गय
वीरयश
वैश्रमणदत्त
शंख
चण्डप्रद्योत और राजगृह १८८, चंडप्रद्योत और वत्स ५६२, चंडप्रद्योत और वीतभय ५६७, चंडप्रयोत और
पांचाल ६०१ /
***
१५५
नग्गति ५६६
५७५
१८३
६०२
६०५
६०६
६०६
६०७
६०७
६०७
६०८
६०८
६१२
६१२
६१३
६१३
६१४
६१४
६१४
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शिवराजर्षि
शौरिकदत्त
श्रीदाम
श्रेणिक भंभासार
साल
सिद्धार्थ
सेय
संजय
काम्पिल्प
हस्तिपाल
वंशनिर्णय ६२५, नाम ६२६, माता-पिता ६३३, राजधानी ६३५, श्रेणिक का परिवार ६३८, वेण्णातट ६४०, पुत्र ६४५, श्रेणिक किस धर्म का अवलम्बी था ६४८, श्रेणिक का अंत ६५४,
सूक्तिमाला
( १७ )
२ प्र०
सूक्तिमाश
अनुयोगद्वार ६१७, दशाश्रुतस्कंध ६१७, उत्तराध्ययन दशवैकालिक ७०४ |
६६७
धर्मकथा ६६७, आचारांग सूत्र ६७३, सूत्रकृतांग ६८० ठाणांगसूत्र ६८६, समवायांगसूत्र ६, भगवतीसूत्र ६८८, ज्ञाताधर्मकथा ६८६ प्रश्नव्याकरण ६११, श्रपपातिकसूत्र ६६६
>
६६८,
६१६
६२०
६२०
६२०
६५६
६१८
६५८
६६०
६६३
६६४
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भूमिका
जैनाचार्य श्री विजयेन्द्र सूरि द्वारा निर्मित उत्तम ग्रंथ 'तीर्थङ्कर महावीर' का मैं सहर्ष स्वागत करता हूँ । इस ग्रंथ का पहला भाग जिसमें ३७० पृष्ठ और कई चित्र थे, १९६० में प्रकाशित हुआ था। अब इसका दूसरा भाग जिसमें ७०० पृष्ठ हैं इतनी शीघ्र प्रकाशित हो रहा है, इससे लेखक का एकनिष्ठपरिश्रम सूचित होता है । विजयेन्द्र सूरि जी जैन-जगत् में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। वे चलते-फिरते पुस्तकालय हैं । भारतीय विद्या के अनेक विषयों के साथ उन्हें प्रेम है । उनकी जानकारी कितनी विस्तृत है, यह उनके इन दो ग्रंथों से विदित होता है । भगवान् महावीर के अबतक जितने जीवन-चरित निकले हैं, वर्तमान ग्रंथ उनमें बहुत ही उच्चकोटि का है। इसके निर्माण में सूरि जी ने दार्घकालीन अनुसंधान कार्य के परिणाम भर दिये हैं । तीर्थङ्कर महावीर के संबंध में जैन - साहित्य में और बौद्ध साहित्य में भी जो कुछ परिचय पाया जाता है, उस सबको एक ही स्थान पर उपलब्ध कराना इस ग्रंथ को विशेषता है । महावीर का जन्म जिस प्रदेश और जिस युग में हुआ उसके संबंध की सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक सामग्री का पूरा कोश ही लेखक ने इस ग्रंथ में संग्रहीत कर दिया है। सौभाग्य से महावीर के संबंध में ऊपर के दोनों तथ्य कुछ प्रामाणिकता के साथ हमें उपलब्ध हैं । प्रथम तो यह कि, विदेह जनपद की राजधानी वैशाली ( आधुनिक बसाढ़) के निकट प्राचीन कुण्डपुर नामक स्थान में ( वर्त्तमान वासुकुण्ड ) महावीर ने जन्म लिया
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( १६ ) था। महावीर 'वेसालिय' भी कहे जाते हैं। किन्तु, उसका अर्थ इतना ही है कि वे वैशाली-क्षेत्र में जन्मे थे, जिसमें कुण्डपुर स्थित था। दूसरा तथ्य यह है कि, महावीर का जन्म 'ज्ञातृक' या 'जातिक' कुल में हुआ था और वैशाली के लिच्छिवियों से उनका पारिवारिक संबंध था। महावीर के पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का त्रिशाला था । लेखक ने सप्रमाण सिद्ध किया है कि, महावीर का विवाह भी हुआ था और उनकी पत्नी का नाम यशोदा था। २८ वर्ष की आयु में उन्होंने दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की और लगभग दो वर्ष के समय में गृहस्थ-जीवन का त्याग करके ३० वर्ष की आयु में वे साधु बन गये।।
निष्क्रमण से केवलज्ञान-प्राप्ति तक वे कठोर तपस्या में लगे रहे। लगभग १२३ वर्ष तप करने के बाद आयु के ४३-वें वर्ष में उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। ये १३ वर्ष उन्होंने किस प्रकार बिताए और कहाँ-कहाँ वर्षावास किया, इसका विस्तृत वर्णन लेखक ने अपनी पुस्तक के पहले भाग में दिया था, जो पठनीय है। इस अवधि में जो व्यक्ति उनके सम्पर्क में आये उनका भी वर्णन किया गया है। इनमें इन्द्रभूति आदि महापंडित ब्राह्मणों का चरित्र भी है जो महावीर से प्रभावित हुए और उन्होंने उनसे दीक्षा ली। केवलज्ञान प्राप्त करने के अनन्तर भगवान् महावीर तीर्थङ्कर हुए और वे विविध क्षेत्रों में घूमकर उपदेश करने लगे और उन्होंने अपने संघ का संगठन किया। तेरहवाँ वर्षा-वास राजगृह में व्यतीत हुआ। इस प्रकार ३० वर्ष गृहस्थ रहकर, साढ़े बारह वर्ष तक तपस्वी-जीवन व्यतीत कर, और २९३ वर्ष तक केवली के रूप में उपदेश देकर, सब मिलाकर ७२ वर्ष की आयु में वे निर्वाण को प्राप्त हुए। महावीर-निर्वाण की तिथि ५२७ ई० पू० (४७० वि० पू० ) निश्चित होती है। कुल मिलाकर
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( २० )
महावीर के ४१ वर्षावासों का ब्यौरेवार वर्णन लेखक ने ३५० पृष्ठों में दिया है, जिसमें बहुविधि ऐतिहासिक सामग्री का संकलन है । अन्तिम वर्षावास राजगृह में बिताकर अपापापुरी में महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया । महावीर के समकालीन राजाओं का भी लेखक ने इस भाग में सविस्तर वर्णन किया है, जिनमें श्रेणिक और कुणिक अर्थात् बिम्बसार और अजातशत्रु मुख्य थे | बिम्बसार का नाम लेखक के अनुसार 'भम्भासार' था
श्री आचार्य विजयेन्द्रसूरि का लिखा तीर्थङ्कर महावीर का यह जीवनचरित अनेक प्रकार की सूचनाओं का भण्डार है और इस रूप में उसका बहुत मूल्य है । सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्य, तप और अपरिग्रह - रूपी महान आदर्शों के प्रतीक भगवान् महावीर हैं । इन महाव्रतों की अखण्ड साधना से उन्होंने जीवन का बुद्धिगम्य मार्ग निर्धारित किया था और भौतिक शरीर के प्रलोभनों से ऊपर उठकर अध्यात्म भावों की शाश्वत विजय स्थापित की थी । मन, वाणी, और कर्म की साधना उच्च अनंत जीवन के लिए कितनी दूर तक संभव है, इसका उदाहरण तीर्थंकर महावीर का जीवन है । इस गम्भीर प्रज्ञा के कारण आगमों में महावीर को दीर्घप्रज्ञ कहा गया है । ऐसे तीर्थङ्कर का चरित धन्य है ।
वासुदेवशरण अग्रवाल काशी-विश्वविद्यालय
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Education International
विद्रमरित
Ppma
12913.55
श्री काशीनाथ सराक, पं० जवाहरलाल नेहरू ,आचार्य विजयेन्द्र सूरि, श्री गुलाबचन्द जैन
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प्राक्कथन
जैनों के मूलभूत धर्मग्रंथों को 'आगम' कहते हैं। 'आगम' शब्द पर कलिकाल-सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य ने अभिधान-चिन्तामणि की स्वोपज्ञ-टीका ( देवकाण्ड, श्लोक १५६, पृष्ठ १०४ ) में लिखा है---
आगम्यतः आगमः और, अभिधान राजेन्द्र ( भाग २, पृष्ठ ५१ ) में वाचस्पत्यकोष का उद्धरण इस रूप में दिया गया है
आ गम्-घन-प्रागतो, प्राप्तौ। उत्पत्ती सामाधुपाये च आगम्यते स्वत्वमनेन स्वत्वप्रापके क्रयप्रतिग्रहादौ।।
इन आगमों की रचना कैसे हुई, यह हम इसी ग्रंथ में पृष्ठ ५ पर लिख चुके हैं। अणुयोगद्वार की टीका ( पत्र ३८-२) में मलधारी हेमचन्द्राचार्य ने आगम को
प्राप्त वचनं वाऽऽगम इति कहा है।
विशेषावश्यक भाष्य की टीका ( पत्र ४१६ ) में आगम में निम्नलिखित पर्याय बताये गये हैं :। श्रुत १, सूत्र २, ग्रंथ ३, सिद्धांत ४, प्रवचन ५-ऽऽझोपदेशा
-ऽऽगमादीनि ७ श्रुतैकार्थिकनामानि ।
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( २२ )
- श्रुत, सूत्र, ग्रंथ, सिद्धांत, प्रवचन, अज्ञोपदेश, आगम ये सब श्रुत के एकार्थिक नाम हैं ।
विशेषावश्यकभाष्य ( पत्र ५९१ ) में आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने 'आगम' अथवा 'सूत्र' के निम्नलिखित पर्यायवाची बताये हैं
.
सुयधम्म तित्थ मग्गो पावयणं पवयणं च एगट्ठा । सुप्तं, तंतं, गंथो, पाठो, सत्थं, च
एगट्ठा ॥
श्रुतधर्म, तीर्थ, मार्ग, प्रावचनं, प्रवचनं एतानि प्रवचनैकार्थिकानि । सूत्रं, तंत्रं, ग्रन्थः, पाठः, शास्त्रं च, इत्येतानि सूत्रे कार्थिकानि ॥
- श्रुतधर्म, तीर्थ, मार्ग, प्रावचन और प्रवचन ये पांच प्रवचन के एकाधिक नाथ हैं और सूत्र, तन्त्र, ग्रंथ, पाठ और शास्त्र ये पाँच सूत्र के एकाधिक नाम हैं ।
'आगम' शब्द की टीका ठाणांगसूत्र सटीक ( पत्र २६२-२ ) में इस प्रकार की गयी है :
अनेनेत्यागमः - श्राप्त
-आगम अर्थात् आप्त पुरुष के वचन के रूप में प्राप्त करने
,
श्रर्था
श्रागम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते वचन सम्पाद्यो विप्रकृष्टार्थ प्रत्ययः ।
योग्य अगम्य पदार्थ का निर्णय रूप |
इन आगमों की संख्या ८४ बतायी गयी है । उनमें निम्नलिखित ग्रन्थ गिनाये गये हैं
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( २३ )
११ अंग १ आचार, २ सूत्रकृत्, ३ स्थान, ४ समवाय, ५ भगवती, ६ ज्ञाताधर्मकथा, ६ उपासकदशा, ८ अंतकृत्, ९ अनुत्तरोपपातिक, १० प्रश्नव्याकरण, ११ विपाक ।
१२ उपांग १ औपपातिक, २ राजप्रश्नीय, ३ जीवाजीवाभिगम, ४ प्रज्ञापना, ५ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ६ चन्द्रप्रज्ञप्ति, ७ सूर्यप्रज्ञप्ति, ८-१२ निरयावलिका ( कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुप्पचूलिका, वह्निदशा ।।
५ छेद १ निशीथ, २ वृहत्कल्प, ३ व्यवहार, ४ दशाश्रुतस्कंध, ५ महानिशीथ ( छठाँ छेदसूत्र पंचकल्प अब मिलता नहीं )
५ मूल १ आवश्यक, २ दशवैकालिक, ३ उत्तराध्ययन, ४ नंदि, ५ अनुयोगद्वार।
८टक १ कल्पमूत्र, २ जीतकल्प, ३ यतिजीतकल्प, ४ श्राद्धजीतकल्प, ५ पाक्षिक, ६ क्षामणा, ७ वंदित्तु, ८ ऋषिभापित ।
३० प्रकोणक पहली गणत्री
१ चतुःसारण, २ आतुरप्रत्याख्यान, ३ भक्तपरिज्ञा, ४ संस्तारक, ५ तंदुलवैचारिक, ६ चंद्रवेध्यक, ७ देवेन्द्रस्तव, ८ गणिविद्या, ९ महाप्रत्याख्यान, १० वीरस्तव ।
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( २४ ) दूसरी गणत्री
१ अजीवकल्प, २ गच्छाचार, ३ मरणसमाधि, ४ सिद्धप्राभृत, ५ तीर्थोद्गार, ६ आराधनापताका, ७ द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, ८ ज्योतिष्करंडक, ९ अंगविद्या, १० तिथिप्रकीर्णक ।
तीसरी गणत्री
१ पिंडनियुक्ति, २ सारावली, ३ पर्यंताराधना, ४ जीवविभक्ति, ५ कवच, ६ योनिप्राभृत, ७ अंगचूलिया, ८ वंगचूलिया, ९ वृद्धचतुःशरण, १० जंबूपयन्ना।
१२ नियुक्ति १ आवश्यक, २ दशवैकालिक, ३ उत्तराध्ययन, ४ आचारांग, ५ सूत्रकृत्, ६ वृहत्कल्प, ७ व्यवहार, ८ दशाश्रुत, ९ कल्पसूत्र, १० पिंडनियुक्ति, ११ ओघनियुक्ति, १२ संसक्तनियुक्ति, (सूर्यप्रज्ञाप्तिनियुक्ति और ऋषिभाषित की नियुक्तियाँ मिलती नहीं)
ये सब मिलाकर ८३ हुए । विशेषावश्यक मिलाने से उनकी संख्या ८४ हो जाती है।
नंदीसूत्र में ३७ कालिक और २९ उत्कालिक सूत्रों के नाम मिलते हैं । १ आवश्यक और १२ अंगों का भी उल्लेख नंदी में है। इस प्रकार उनकी संख्या ७९ होती है । ठाणांगसूत्र (सूत्र ७५५) में १० दशाओं का उल्लेख है, जिनमें ५ तो उपर्युक्त गणना में आ जाते हैं, पर १ आचारदशा, २ बंधदशा, ३ द्विगृद्धिदशा, ' ४ दीर्घदशा और ५ संक्षेपितदशा ये ५ नये हैं। इनको जोड़ देने से संख्या ८४ हो जाती है।
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( २५ )
यहाँ बता दूं कि, प्रकीर्णकों की संख्या बताते हुए नंदीसूत्र टीक ( पत्र २०३-१ ) में पाठ आता है चोद्दसपइन्नगसहस्साणि भगवो वद्धमाण सामिस्स -वर्द्धमान स्वामी के १४ हजार प्रकीर्णक हैं।
जैन-आगमों की संख्या के सम्बन्ध में दूसरी मान्यता ४५ की है । हीरालाल रसिकलाल कापड़िया ने 'द' कैनानिकल लिटरेचर आव द' जैनाज' ( पृष्ठ ५८ ) में लिखा है कि, कम से कम 'विचारसार के निर्माण तक जैन-आगमों की संख्या ४५ हो चुकी थी। समाचारी-शतक ( समयसुन्दर-विरचित ) में ४५ आगमों की गणना निम्नलिखित रूप में करायी गयी हैइक्कारस अंगाई ११, बारसउवंगाई २३, दस पइराणा २३ य । छ च्छे ३६, मूलचउरो ४३ नंदी ४४ अणुयोगदाराई ४५॥
-पत्र ७६-१ उसी ग्रंथ में समयसुन्दर ने जिनप्रभसूरि-रचित 'सिद्धान्तस्तव' को उद्धृत करके ४५ आगमों के नाम भी गिनाये हैं। पर, कापड़िया का यह कथन कि विचारसार तक ४५ की संख्या . निश्चित हो चुकी थी, सर्वथा भ्रामक है। समयसुन्दर गणिविरचित 'श्रीगाथासहस्री' में धनपाल-कृत श्रावक-विधि का उद्धरण है। उसमें पाठ आता है
१-विचारसार के समय के सम्बन्ध में जैन-ग्रन्थावलि में लिखा है
प्रद्युम्नसूरि ते सं० १२६४ मां थयेला धर्मघोषसूरि ना शिष्य देव प्रभसूरि ना शिष्य हता। एटले तेत्रो सं० १३२५ ना अरसा मां थया गणी शकाय । ( पृष्ठ १२८)
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( २६ ) पणयालोसं आगम .....
(श्लोक २९७, पृष्ट १८) धनपाल राजा भोज का समकालीन था। इसका समय विक्रम की ११-वीं शताब्दि है। ४५ आगमों के नाम इस प्रकार हैं :
११ अंग दुवालस गणिपिडगे प० तं०-१ अायार, २ सूयगडे, ३ ठाणे, ४ समवाए, ५ विवाहपन्नत्ती, ६ णायाधम्मकहानो, ७ उवासगदसानो, ८ अंतगडदसायो, ६ अणुत्तरोववाइयदसायो १० पण्हवागरणाई, ११ विवागसुए, १२ दिट्टिवाए
-~-~~-समवायांगपत्र सटीक, समवाय १३६, पत्र ९९-२ दृष्टिवाद के अन्तर्गत पूर्व थे । उन पूवों के नाम नंदीसूत्र सटीक पत्र २३६-२ में इस प्रकार दिये हैं :
से किं तं० पुव्वगए ? चउद्दस विहे पगणत्ते. तंजहा उपाय पुव्व १, अग्गाणीयं २, वीरिग्रं ३, अत्थिनथिप्पवायं ४, नाणप्पवायं ५, सच्चप्पवायं ६, प्रायःपवायं ७, कम्मापवायं ८, पञ्चक्खाणप्पवायं ६, विज्जापवायं १०, आवंझ ११, पाणाऊ १२, किरियाविसालं १३, लोकबिन्दुसार १४
अंतिम चतुर्दश पूर्वी स्थूलभद्र हए। फिर अंतिम ४ पूवों का उच्छेद हो गया। उनके बाद बज्रस्वामी तक १० पूर्वी हुए । देवद्धि गणि क्षमाश्रमण ने श्री पार्श्वनाथ संतानीय देवगुप से १ पूर्व अर्थ सहित और १ पूर्व मूल-मूल पढ़ा था। ( देखिए आत्मप्रबोध, पत्र ३३-१ ) और अंतिम पूर्वधारी सत्यमित्र हुए । वे एक पूर्व धारण करनेवाले थे। उनके स्वर्गवास के पश्चात्
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( २७ ) पूर्वो का सर्वथा उच्छेद हो गया। धर्मसागर गणि-लिखित तपागच्छ पट्टावलि में (देखिए पट्टावलि समुच्चय, भाग १, पृष्ठ ५१) में पाठ आता है :श्री वीरान् वर्ष सहस्रे १००० गते सत्यमित्रे पूर्वव्यवच्छेदः
१२ उपांग श्रीचन्द्रचार्य-संकलित श्री सुबोधासमाचारी ( पत्र ३१-२, ३२-१ ) में उपांगों की गणना इस प्रकार करायी गयी है। उसमें उन्होंने यह भी बताया है कि, कौन उपांग किस अंग का उपांग है
इयाणि उबंगा-अायारे उवाइयं उवंग १, सूयगडे रायपसेणइयं २, ठाणे जीवाभिगमो ३, समवाए पन्नवणा ४, भगवईए सूरपन्नती ५, नायाणं जम्बूद्दीवपन्नत्ती ६, उवासगदसाणं चंद. पन्नत्ती ७, तिहिं तिहिं आयंबिलेहिं एक्केक्कं उवंगं वच्चइ, नवरं तयो पन्नत्तीओ कालियानो संघट्ट च कीरइ, सेसाण पंचण्हमंगाणं मयंतरेण निरावलिया सुयखंधो उबंगं, तत्थ पंच वग्गा निरयावलियाउ कप्पडिसियाऊ, पुल्फियाउ, पुष्फचूलियाउ, वहीदसाउ....
( कुछ लोग वण्हिदसा का स्थान पर द्वीपसागरप्रज्ञप्ति को १२-वाँ उपांग मानते हैं)
-आचारांग का १ औपपातिक, सूत्रकृतका २ राजप्रश्नीय, ठाणा का ३ जीवाभिगम, समवाय का ५ प्रज्ञापना, भगवती का ५ सूर्यप्रज्ञप्ति, ज्ञाता का ६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, उपासकदशा का ७ चन्द्रप्रज्ञप्ति और शेष ५ अंगों का निरयावलिया।
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( २८ )
१० प्रकीर्णक
१ चउसरण, २ चंदाविज्जग, ३
आउरपच्चक्खाण, ४ महपुव्वपच्चक्खाण ( महाप्रत्याख्यान ), ५ भक्तपरिज्ञा, ६ तंदुलवियालियं, ७ गणिविज्जा ८ मरणसमाहि ९ देवेन्द्रस्तव १० संस्तारक ( कुछ ग्रंथों में मरणसमाहि के स्थान पर वीरस्तव का नाम मिलता है )
६ छेद
१ निशीथ, २ वृहत्कल्प, ३ व्यवहार, ४ जीतकल्प, ५ दशाश्रुतस्कंध, ६ महानिशीथ, ( पंचकल्प उपलब्ध नहीं है )
४ मूल
१ उत्तराध्ययन, २ आवश्यक, ३ दशवैकालिक, ४ पिंडनिर्युक्ति ( ओघनियुक्ति और पाक्षिकसूत्र की भी गणना कुछ लोग 'मूल' में करते हैं । )
२ चूलिका
१ नंदी, २ अनुयोगद्वार
१२४-१ और नंदीसूत्र सटीक सूत्र २४६ - २ में विभिन्न अंग ग्रंथों की गयी है :
समवायांगसूत्र सटीक समवाय १३६ - १४८ पत्र ९९-२– ४५-५७ पत्र २०९-१पद संख्या इस प्रकार दी
१. आचारांग
२. सूत्रकृतांग
३. स्थानांग
१८ हजार
३६ हजार
७२ हजार
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( रह )
४. समवायांग ५. भगवती
६. ज्ञाता
७. उपासकदशा
८. अंतकृत
९. अणुत्तरोपपातिक
४६ लाख ८ हजार
९२ लाख १६ हजार
१०. प्रश्नव्याकरण ११. विपाक
१ करोड़ ८४ लाख ३२ हजार 'पद' की टीका करते हुए समवायांगसूत्र की टीका में अभयदेवसूरि ने ( पत्र १०१ - १ ) लिखा है -
१ लाख ४४ हजार
२ लाख ८८ हजार
५ लाख ७६ हजार
५२ हजार
२३ लाख ४ हजार
पदाग्रेण प्रज्ञप्तः इह यत्रार्थोपलब्धिस्तत्पदं
और, नंदी के वृत्तिकार मलयगिरि ने नंदी की टीका ( पत्र २११-२ ) में पद की टीका निम्नलिखित रूप में की है-
यत्रार्थोपलब्धिस्तत् पदम्
ऐसा ही हरिभद्रसूरि ने भी अपनी टीका में लिखा है ( पत्र ९८-२ )
आगम साहित्य का वर्तमान रूप
आगमों के सम्बन्ध में आवश्यकता - नियुक्ति ( आवश्यक नियुक्ति दीपिका, भाग १, पत्र ३५ - २ ) में गाथा आती है:गणहरा निउणं । पवते इ ॥ ६२॥ किया और उनके
अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति सासणस्स हिडाए, तो सुत्तं — अर्हत् भगवान् ने अर्थ का प्ररूपण गणधरों ने उसे सूत्ररूप में निबद्ध किया ।
www.co
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भगवान् के पाट पर उनके महापरिनिर्वाण के बाद सुधर्मा स्वामी बैठे। उन्होंने भगवान् के उपदेशों को अपने शिष्यों से कहा । अतः वर्तमान काल में आगमों का जो रूप मिलता है, उसमें पाठ आता.है कि, सुधर्मास्वामी ने कहा कि, जैसा भगवान् ने कहा था, वैसा मैं तुमको कहता हूँ।
भगवान् महावीर-निर्वाण की दूसरी शताब्दि में भयंकर अकाल पड़ा । साधु लोग अपने निर्वाह के लिए समुद्रतटवर्ती ग्रामों में चले गये। उस समय पठन-पाठन शिथिल होने के कारण श्रुतज्ञान विस्मृत होने लगा-कारण कि बारम्बार आवृत्ति न होने से बुद्धिमान का अभ्यास भी नष्ट हो जाता है। दुष्काल समाप्त होने पर जब समुद्र-तट पर गये लोग भी वापस आ गये तो पाटलिपुत्र में समस्त संघ एकत्र हुआ। जिनके पास अंगअध्ययन और उद्देशादिक जो उपस्थित थे, उनके पास से वे अंश ले लिये गये। इन प्रकार ११ अंग संघ को मिले ।
दृष्टिवाद के निमित्त विचार किया जाने लगा। यह जानकर कि भद्रबाहु स्वामी पूर्वधर हैं, श्रीसंघ ने उन्हें बुलाने के लिए २ साधु नेपाल भेजे । वहाँ जाकर साधु भद्रबाहु स्वामी से बोले"हे भगवन् ! आपको बुलाने के लिए श्रीसंघ ने आदेश किया है।' यह सुनकर भद्रबाहु स्वामी ने कहा-"मैंने महाप्राण-ध्यान आरम्भ किया है । वह १२ वर्षों में पूरा होगा। महाप्राण-व्रत की सिद्धि होने पर मैं सब पूर्वो के सूत्र और अर्थ को एक मुहूर्त मात्र में कह सकूगा।"
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( ३६ )
इस पर संघ
मुनियों ने जाकर यह उत्तर श्रीसंघ से कहा । ने दो अन्य साधुओं को आदेश दिया - "तुम लोग जाकर आचार्य से कहो - " जो श्रीसंघ की आज्ञा न माने उसे क्या दंड दिया जाये ?" इस पर यदि भद्रबाहु स्वामी कहें कि - " उसे संघ से बाहर कर देना चाहिए," तो कहना - " आप स्वयं उस दंड के भागी हैं ।" उन मुनियों ने जाकर तद्रूप सभी बातें कहीं । सुनकर भद्रबाहु स्वामी ने कहा- “मेरे व्रत को ध्यान में रखकर श्रीमान संघ बुद्धिमान शिष्यों को यहीं भेज दे तो अच्छा । मैं उन्हें प्रतिदिन सात वाचनाएं दूँगा । एक वाचना भिक्षाचर्या से लौट कर तीनं वाचनाएं तीसरे प्रहर और संध्या समय प्रतिक्रमण के पश्चात् तीन वाचनाएँ दूंगा । इस प्रकार मेरी व्रत-साधना में वाधा भी न आयेगी और श्रीसंघ का भी काम हो जायेगा ।" श्रीसंघ ने स्थूलभद्र के साथ पाँच सौ साधु नेपाल भेजे । आचार्य उनको वाचना देने लगे । 'वाचना बहुत कम मिलती है,' इस विचार से उद्वेग पाकर वे सब साधु लौट गये । एक स्थूलभद्र मात्र बचे रहे । महामति स्थूलभद्र ने आचार्य भद्रबाहु के पास आठ वर्षो में आठ पूर्व सम्पूर्ण रीति से पढ़े । एक दिन आचार्य ने उनसे कहा - "हे वत्स ! तुम हतोत्साह क्यों हो गये ?” स्थूलभद्र ने उत्तर दिया- "हे भगवंत ! मैं हतोत्साहित तो नहीं हूँ, पर मुझे वाचना अत्यल्प लगती हैं ।" इस पर आचार्य ने कहा - " मेरा ध्यान लगभग पूरा होने को आया है । उसे समाप्त होने पर मैं तुम्हें यथेच्छ वाचना दूँगा ।" इस पर स्थूलभद्र ने पूछा - " हे प्रभो ! अभी मुझे कितना पढ़ना शेष
.
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( ३२ ) है।' गुरु ने उत्तर दिया-“एक बिन्धु के इतना पढ़ा है और अभी समुद्र-परिमाण पढ़ना शेष है।'' बाद में महाप्राण-व्रत समाप्त होने तक आचार्य भद्रबाहु ने स्थूलभद्र को दो वस्तु कम दश पूर्व तक पढ़ाया।
एक बार भद्रबाहु स्वामी विहार करते हुए पाटलिपुत्र नगर के बाहर उद्यान में पधारे । आचार्य महाराज के आगमन का समाचार सुनकर स्थूलभद्र की बहिन यक्षादि साध्वियाँ उन्हें वंदन करने पायी । गुरु महाराज का वंदन करके उन साध्वियों ने पूछा-“हे प्रभो ! स्थूलभद्र कहाँ हैं ?'' गुरु ने उत्तर दिया-"निकट के जीर्ण देवकुल में हैं।" वे साध्वियाँ देवकुल में गयीं । उन्हें आता देखकर स्थूलभद्र ने सिंह का रूप धारण कर लिया। सिंह देखकर भीत साध्वियाँ गुरु के पास गयीं और उन्होंने सारी बातें उनसे कहीं। आचार्य ने कहा-“वह तुम्हारा ज्येष्ठ भाई है। उसका वंदन करो। वह सिंह नहीं है।"
उसके बाद जब स्थूलभद्र गुरु के पास गये तो गुरु ने कहा"तुम वाचना के लिए अयोग्य हो।" और, उन्होंने वाचना नहीं दी। स्थूलभद्र ने क्षमा माँगी, पर जब तब भी भद्रबाहु तैयार न हुए तो स्थूलभद्र ने गुरु से अनुरोध करने के लिए श्रीसंघ से आग्रह किया । श्रीसंघ के कहने से भद्रबाहु ने शेष पूर्व मूल-मूल पढ़ाये और यह आदेश दिया कि, इनको किसी को 'न पढ़ाना ।
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( ३३ ) जैन-आगमों की यह प्रथम वाचना पाटलिपुत्र-वाचना के नाम से विख्यात है। यह प्रथम वाचना महावीर-निर्वाण-संवत् १६० के लगभग हुई ।
उसके कुछ समय बाद, भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के ८२७ अथवा ८४० वर्ष के बीच फिर आर्य स्कंदिल के नेतृत्व में मथुरा में आगमों के संरक्षण का दूसरा प्रयास हुआ।
इसी समय के लगभग आचार्य नागार्जुन के नेतृत्य में वल्लभी में सूत्रों की रक्षा का प्रयास हुआ। यह वल्लभी-वाचना कहलायी।
और, उसके लगभग १५० वर्षों के बाद वल्लभी में देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में आगमों को लिपिबद्ध किया गया।
कुछ लोग नंदिसूत्र के लेखक देववाचक और देवद्धिगणि को एक मानते हैं; पर यह उनकी भूल है। देववाचक नंदि के सूत्रकार थे और देवद्धि गणि ने आगमों को लिपिवद्ध मात्र किया । निचित है कि, देववाचक देवद्धिगणि से पूर्ववर्ती थे।
___ आगमों का वर्तमान रूप वस्तुतः देवद्धिगणि श्रमाश्रमण के प्रयास का रूप है। पर, यह कहीं नहीं मिलता कि आगम महावीर स्वामी के बाद किसी ने लिखे। जो कुछ भी प्रयास था, वह तीर्थंकर भगवान् के उपदेशों को विस्मृत होने देने से बचाने का ही प्रयास था । __'आगम' शब्द का जहाँ भी स्पष्टीकरण है, वहाँ इसे गुरुपरम्परा से आया हुआ ही बताया गया है। हम उनमें से कुछ का उल्लेख यहाँ कर रहे हैं :
३ प्र०
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( ३४ )
(१) श्रागच्छति गुरु पारम्पर्येणेत्यागमः ।
(२) आचार्य चाऽऽगम इति ।
(४) गुरु
- अणुयोगद्वार सटीक पत्र ३८-२ । (३) गुरुपारम्पर्येणागच्छतीत्यागमः श्र--समन्ताद्गभ्यन्तेज्ञायन्ते जीवादयः पदार्था अनेनेति वा ।
समीपे श्रूयत
- अणुयोगद्वार सटीक, पत्र २१९-१ । इति श्रयत्, अर्थान्तं सूचनात् सूत्रं । - अणुयोगद्वार सर्टोक, पत्र ३८-२ । जैन जगत को अनादि और अनन्त मानते हैं । अतः ये आगम भी अनादि और अनन्त है ।
इन आगमों के लिए नन्दीसूत्र सटीक ( सूत्र ५८ पत्र २४७- १ ) में पाठ आता है।
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: - भगवती सूत्र सटीक, श०५, उ०४, पत्र ४०१ । परम्पर्येणा गच्छतीत्यागमः आत वचनं
इच्चेइयं दुवालसँगं गणिपिडगं न कयाइ नासी, न कयाइ न भवद्द, न कधाइ न भविस्सइ, भुविं च भवइ च भविस्सइ य, धुवे, नियए, सासए' अक्खए, अव्यए, श्रवट्टिए निच्चे ।
"
- यह द्वादशांगी गणिपिटक कभी नहीं था, ऐसा नहीं, कभी नहीं है ऐसा भी कोई समय नहीं, तथा कभी नहीं होगा यह भी नहीं, गतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्य में भी रहेगा, यह द्वादशांगी ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अवस्थित तथा नित्य है ।
अव्यय ( व्यय रहित )
सूत्रों के अर्थ अति गहन - गम्भीर है । उनके अध्ययन के लिए नंदीमूत्र ( पत्र २४९-२ ) में आता है
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( ३५ ) सुत्तथो खलु पढमो, बीयो निज्जुत्ति मीसियो भणियो। तइओ य निरवसेसो, एस विही होइ अणु प्रोगे ॥
पहला अनुयोग, सूत्रार्थ मूल और अर्थरूप से, दूसरा अनुयोग नियुक्ति सहित कहा गया है, और तीसरा अनुयोग प्रसंगानुप्रसंग के कथन से निरवशेष कहा जाता है ।
सूत्रों के स्पष्ट होने के लिए विचारामृत-संग्रह ( पत्र १४-२) में कुलमंडन सूरि ने नियुक्ति भाष्य संग्रहणि चूर्णि पंजिकादि ।।
का आश्रय लेने का विधान किया है । और, इसके समर्थन में उन्होंने उक्त ग्रंथ में उसी स्थल पर विशेष विचार किया है।
मैंने ऊपर कहा है कि, जैन-आगमों को देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने लिपिबद्ध किया। जैन-आगम तो अपने प्रारम्भ से ही व्यवस्थित थे। ये वाचनाएँ वस्तुतः आगमों को विस्मृत न होने देने के प्रयास मात्र थे; क्योंकि वैदिकों के समान जैनों में भी पहले शास्त्रों को कण्ठ करने की प्रथा थी और लिपि-शास्त्र के परिचय के बावजूद शास्त्र लिखे नहीं जाते थे। जैन-साहित्य में कितने ही स्थलों पर लिपियों के उल्लेख हैं। स्वयं व्याख्याप्रज्ञप्ति के प्रारम्भ में
____णभो वंभीए लिविए कहा गया है । समवायांग सूत्र के १८-वें समवाय में लिपियों के नाम गिनाये गये हैं :
बंभीए णं लिवीए अट्ठारसविहे लेखविहाणे पं० तं०-१ बंभी, २ जवणो, ३ लियादासा, ४ ऊरिया, ५ खरोट्टिा , ६ खर
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सावित्रा, ७ पहाराइया, ८ उच्चत्तरिया, ६ अक्खरपुट्टिया, १० भोगवयता, ११ वेणतिया, १२ णिण्हइया, १३ अंकलिवि, १४ गणिअलिबि, १५ गंधवलिवी, १६ भूयलिवि, प्रादंसलिवी, १७. माहेसरीलिवी, १८ दामिलिवी, १६ बोलिदिलिवो।
-१ ब्राह्मी, २ यावनी, ३ दोषउपरिका, ४ खरोष्टिका, ५ खरशाविका, ६ पहारातिगा, ७ उच्चत्तरिका, ८ अक्षरपृष्टिका ९ भोगवतिका, १० वैणकिया, ११ निण्हविका, १२ अंकलिपि, १३ गणितलिपि, १४ गंधर्वलिपि, १५ आदर्शलिपि, १६ माहेश्वरी, १७ दामिलिपि, १८ बोलिदलिपि ।
विशेषावश्यक भाष्य टीका ( गाथा ४६४, पत्र २५६ ) में १८ लिपियों के नाम इस प्रकार दिये गये हैं :
१ हंसलिवि, २ भूअलिवि, ३ जक्खी तह, ४ रक्खसी य बोधन्वा, ५ उड्डो, ६ जवणि, ७ तुरुको, ८ कीरी, ९ दविड़ीय १० सिंधविया, ११ मालविणी, १२ नाड, १३ नागरि, १४ लाडलिवि, १५ पारसी य बोधन्वा । त ह १६ अनिमित्ती य लिवी, १७ चाणक्की, १८ मूलदेवो य ।
__ अठारह लिपियों के नाम प्रज्ञापनासूत्र सटीक पत्र ५६-१ में भी आये हैं।
जैनों के लिपि-ज्ञान का अकाट्य प्रमाण उनके शिलालेख हैं। भगवान् महावीर के महानिर्वाण के ८४ वर्ष बाद के एक शिलालेख का चर्वा-चित्र और उसका पाठ हमने इसी पुस्तक में दिया है। उसके बाद के तो अशोक, खारवेल तथा मथुरा आदि के शिलालेख बहुज्ञात हैं।
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श्री काशीनाथ सराक, आचार्य विजयेन्द्रसूरि, श्री ज्ञानचन्द्र
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हमने पहले अंगों के पदों की जो संख्या दी है, उस रूप में आज हमारा आगम-साहित्य हमें उपलब्ध नहीं है । उसका बहुतसा भाग आज विलुप्त हो गया है। मालवणिया ने जैन-संस्कृतिसंशोधन-मंडल की पत्रिका १७ ( जैन-आगम ) में जैनों को इसका दोषी ठहराया है और ब्राह्मणों की प्रशंसा करते हुए कहा है कि, ब्राह्मणों ने वेदों को अक्षुण्ण बनाये रखा । पर, मालवणिया की यह भूल है । काल सभी वस्तुओं पर पर्दा डाला करता हैयह उसका स्वभाव है। वर्तमान शासन के जैन-आगमों ने लगभग ढाई हजार वर्ष का समय देखा है। उसमें अधिकांश समय वह अलिखित रहा । फिर उसमें से कुछ अंश विलुप्त हो जाना, क्या आश्चर्य की बात है। जिन ब्राह्मणों की प्रशंसा मालवणिया करते हैं, उन ब्राह्मणों का भी साहित्य अक्षुण्ण नहीं है। स्वयं वेदों को लीजिए-ऋग्वेद की २१ शाखाएं थीं, अब केवल १२ शाखाएं मिलती हैं। यह भी वस्तुतः काल का ही प्रभाव है। काल के प्रभाव की सर्वथा उपेक्षा करके इस प्रकार दोषारोपण करना मालवणिया की उद्धृत-वृत्ति है। मालवणियाँ ने उसी जैन-आगम ( पृष्ट २५ ) में लिखा है
"कुछ में कल्पित कथाएं देकर उपदेश दिया गया है जैसे ज्ञाताधर्मकथा आदि ।" ज्ञाता को यदि कल्पित माना जाये तो श्रेणिक, अभयकुमार आदि सभी कल्पित हो जायेंगे। ज्ञाता की कथावस्तु की ओर डा० जगदीशचन्द्र जैन ने भी संकेत किया है। उन्होंने 'प्राकृत साहित्य का इतिहास' पृष्ठ ७५ में लिखा है
..."इसकी वर्णन-शैली एक विशिष्ट प्रकार भी है। विभिन्न
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( ३८ )
उदाहरणों, दृष्टान्तों और लोक में प्रचलित कथाओं के द्वारा बड़े प्रभावशाली और रोचक ढंग से यहाँ संयम, तप और त्याग का प्रतिपादन किया गया है ।"
डाक्टर जैन ने उसका जहाँ इतना शिष्ट परिचय दिया है, वहाँ मालवणियाँ ने कल्पित लिखकर सारे ग्रंथ के ऐतिहासिक महत्त्व को नष्ट कर दिया है ।
इसी जैन आगम में ( पृष्ठ २६ ) पर उन्होंने पयेसी को श्रावस्ती का राजा बताया गया है । यह पयेसी श्वेताम्बिका का राजा था, श्रावस्ती का नहीं । रायपसेणी में पाठ आता हैतत्थणं सेयवियाए णगरीएपएसीणामं राया होत्था । – सूत्र १४२, पत्र २७४
यह मालवणियाँ का जैन आगमों के अध्ययन का नमूना है । जैनों पर प्रमाद का दोषारोपण करने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि, जैन लोग 'ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः' के मानने वाले रहे हैं और उनकी क्रियावादिता में निष्ठा का ही यह फल था श्रमणों की पाँच' संस्थाओं में से केवल जैन ही भारत में बच रहे तावस, गेरुय, आजीवक तो नष्ट ही हो गये और बौद्ध भारत से विलुप्त हो गये ।
जैनों की यह क्रियावादिता उन्हें परम्परा से मिली थी । कई वर्ष पूर्व अर्नेस्ट ल्यूमैन ने 'बुद्ध और महावीर' शीर्षक से एक
१ – निगंध १ सक्क २, तावस ३ गेरुय ४ श्रजीव ५ पंचहासमा
-
- प्रवचनसारद्वार सटीक, पत्र २१२-२
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बड़ा लेख लिखा था। उसमें उन्होंने बुद्ध और महावीर का तुलनात्मक विवेचन किया है। उक्त लेख में ( गुजराती-अनुवाद, पृष्ठ १९ ) एक स्थल पर ल्यूमैन ने लिखा है
"ये महावीर सम्पूर्ण पुरुषार्थ आत्मा के ऊपर दिखाते थे । ये साधु मात्र नहीं थे । पर, तपस्वी थे । पर, बुद्ध सत्य के बोध प्राप्त करने के बाद, तपस्वी नहीं रह गये-मात्र साधु रह गये और उन्होंने अपना पूरा पुरुषार्थ जीवन-धर्म पर दिखलाया। एक का उद्देश्य आत्मधर्म था, दूसरे का लोकधर्म ।'
और, रही बौद्धिक स्तर पर तार्किक दृष्टि से विचारणा । इस सम्बन्ध में ल्यूमैन ने लिखा है (गुजराती अनुवाद, पृष्ठ ३५)
"......महावीर के सम्बन्ध में हमने देखा कि समर्थ दार्शनिक के रूप में अपने समय में उठे हुए प्रश्नों के सम्बन्ध में ध्यान देकर वह परिपूर्ण रूप से उत्तर देते हैं और अपना जो दर्शन उन्होंने योजित किया है, उसमें पूरा खुलासा मिल जाता है।... पर बुद्ध तो पृथक प्रकार के पुरुष थे 1......"
और, बुद्ध की प्रकृति की विवेचना करते हुए ल्यूमैन ने लिखा है-"जिन विषयों को वह बुद्धिगम्य नहीं समझते थे उसका उत्तर टाल जाते थे ।'
इन उद्धरणों से उन कारणों की ओर सहज ही ध्यान चला जाता है, जिसके फलस्वरूप श्रमण-सम्प्रदायों में अकेले जैन ही अब तक जीवित बचे रहे ।
भगवत्दत्त ने अपनी पुस्तक 'वैदिक वाङ्गमय का इतिहास' में ( पृष्ठ ३९ ) लिखा है
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( ४० ) "भला पश्चिमीय विचारों के मानने वाले आधुनिक अध्यापकों से पूछो तो सही कि क्या प्रसेनजित, कोसल, चण्डप्रद्योत, बिम्बसार आदि के कोई शिलालेख अभी तक मिले हैं या नहीं। यदि नहीं मिले तो पुनः आप बौद्ध और जैन-साहित्य में उल्लेखमात्र होने से इनका अस्तित्व क्यों मानते हो । यदि सहस्रों गप्पों के होते हुए भी बौद्ध और जैन-साहित्य इतना प्रामाणिक है, तो दो-चार असम्भव बातों के आ जाने से महाभारत और दूसरे आर्ष-ग्रंथ क्यों प्रमाण नहीं ?'
हमें यहाँ ऐतिहासिक दृष्टि से महाभारत की प्रामाणिकता पर कुछ विचार नहीं करना है। प्राचीन भारतीय इतिहास के एक मूल आधार के रूप में महाभारत तो प्रायः सभी को मान्य है; पर जैन-ग्रन्थों में गप्पों का जो उल्लेख भगवत्दत्त ने किया, उस पर मुझे आपत्ति अवश्य है।
डाक्टर हजारीप्रसाद द्विवेदी ने "जैन-ज्योतिष और उसका महत्व' शीर्षक से एक लेख लिखा है। उक्त लेख में प्राचीन ग्रंथों के मूल्यांकन के लिए सिद्धान्त निरूपण करते हुए डा० द्विवेदी ने लिखा है
__"यह बात हमें भूल नहीं जाना चाहिए कि, प्राचीनकाल के आविष्कृत तथ्यों की महत्ता को वर्तमान युग के मानदंड से न नापकर उसी युग के मानदंड से जाँचना चाहिए । ...."
इस मानदंड को ताक पर रखकर जैन-साहित्य में ‘गप्प' मात्र देखनेवाले भगवत्दत्त से इस प्रस्तावना में इसके सिवा कि
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( ४१ )
कुछ
अधिक कह सकना
आप उसे पढ़े और उस पर विचार करें, कठिन है । पर, यहाँ इतना मात्र अवश्य कह देना चाहता हूँ कि, जैन - साहित्य का कुछ ऐसा अपना महत्व भी है कि यदि निष्पक्ष इतिहास लिखा जाये तो विश्व को जैन साहित्य का कितने ही बातों में ऋणी होना पड़ेगा ।
उदाहरण के लिए हम ल्यूमैन के लेख ( पृष्ठ ३४ ) से ही एक उद्धरण देना चाहेंगे :
उदाहरण लें - परिध और व्यास के बीच सम्बन्ध प्रकट करने के अंक का ठीक निर्णय करना बहुत कठिन है । पर वह उसमें दिया है और लगभग यह भी कहा जा सअता है कि इसने ही (स्वयं) विधान किया है । वह इस प्रकार है परिध = व्यास
X १० का वर्गमूल । अपने में प्रचलित यह अंक ३१1७ है ।" इससे हम यह मान सकते हैं कि महावीर ने स्वयं परिध = व्यास १० यह समीकरण शोध निकाला होगा । परिधि के अनेक हिसाबों से यह समीकरण सच आता है ।"
जैन - ज्योतिष के सम्बंध में डाक्टर हजारीप्रसाद का कथन है कि
"इस बात से स्पष्ट ही प्रमाणित होता है कि सूर्यप्रज्ञप्ति ग्रीक आगमन के पूर्व की रचना है "जो हो सूर्य आदि को द्वित्व प्रदान अन्य किसी जाति ने किया हो या नहीं, इसमें कोई सन्देह नहीं कि जैन - परम्परा में हो इसको वैज्ञानिक रूप दिया गया है । शायद इस प्रकार का प्राचीनतम उल्लेख भी जैन-शास्त्रों में ही
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( ४२ )
है । ..... जैनधर्म कई बातों में आर्य पूर्व जातियों के धर्म और विश्वास का उत्तराधिकारी है ।"
और, रही ऐतिहासिक दृष्टि से जैन ग्रन्थों के महत्त्व की वात, तो मैं कहूंगा कि जैन साहित्य ही भारतीय साहित्य की उस कड़ी की पूर्ति करता है जिसे पुराण छोड़ गये हैं । एक निश्चित अवधि के बाद पुराणों की गतिविधि मृत हो गयी । उस समय का इतिहास जैन ग्रंथों में ही है। उदाहरण के लिए श्रेणिक का नाम ही लें । वैदिक ग्रंथों में तो उसका नाम मात्र है- वह कौन था, उसने क्या किया, इन सबका उत्तर तो एक मात्र जैनसाहित्य में ही मिलने वाला है । जैन साहित्य के इस महत्त्व से परिचित भगवत्दत्त जैसे इतिहासज्ञ जब उस पर 'गप्प' का आरोप लगाते हैं तो इस पर दुःख प्रकट करने के सिवा और क्या कहा जा सकता है ।
I
भगवान् महावीर की जीवन कथा का पूरा आधार वर्तमान उपलब्ध आगम ही है । हमारे पास महावीर - कथा के लिए और कोई ऐसा साधन नहीं है, जिसे हम मूल प्रमाण कह सकें । हिन्दूग्रंथों में वर्द्धमान महावीर का कोई उल्लेख नहीं मिलता और जो मिलता भी है, उसे धार्मिक मतभेद के कारण हिन्दुओं ने विकृत कर दिया है । उदाहरण के लिए कहें विष्णु के सहस्त्र नामों में एक नाम 'वर्द्धमान' भी है, पर उसकी टीका शंकराचार्य ने अति विकृत रूप में की है । आगमों के बाद साधनों में दूसरा स्थान नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, टीका, आदि का है ।
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इन आगमों तथा तत् आधारित ग्रंथों के अतिरिक्त हमारे सम्मुख पाँच चरित्र-ग्रंथ हैं
१-नेमिचन्द्र-रचित महावीरचरियं । २-हेमचन्द्राचार्य-रचित त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र पर्व १० ३-गुणचन्द्र-रचित महावीरचरियं '४-शीलांकाचार्य-रचित चउपनमहापुरिसचरियं ५-अमरचन्द्रसूरि-कृत पद्मानन्दमहाकाव्य
पर, इन चरित्र-ग्रंथों में महाकाव्य के गुण अधिक हैं। चरित्र-ग्रंथों के अतिरिक्त कथावलि, उपदेशमाला सटीक, ऋषिमण्डल वृत्ति, भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति, उपदेश प्रासाद, कथाकोष आदि अनेक कथा-ग्रंथों में भगवान् महावीर के छिटफुट संदर्भ मिलते हैं।
भगवान् महावीर जब वर्तमान शासन के स्थापक थे, तो उनके जीवन पर और ग्रन्थ लिखे ही न गये हों, यह मानना ठीक नहीं है। पर कितने ग्रन्थ कितनी अनमोल सामग्री अपने गर्भ छिपाये विलुप्त हो गये, यह कहना कठिन है। __अतः आज जितनी भी सामग्री हमें उपलब्ध है, अनुशीलक को उन्हीं पर संतोष करके अपना कार्य करना पड़ता है। अभी तक जो महावीर-चरित्र लिखे गये या तो वह साधारण पाठक को दृष्टि में रखकर लिखे गये थे या अपने-अपने सम्प्रदाय की मान्यता को ध्यान में रख कर लिखे गये थे। इसका फल यह था कि, विद्वत्-समाज बराबर यह उलाहना दिया करता था कि, आज एक भी ऐसा महावीर-चरित्र नहीं है, जो अनुशीलनकर्ता
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अथवा गम्भीर पाठक को सन्तोष दे सके। इस चुनौती की ओर मेरा ध्यान २५-३० वर्ष पहले गया था। मेरे मन में तभी से महावीर-चरित्र लिखने की इच्छा थी और मैंने अपना खोज-कार्य तभी प्रारम्भ कर दिया था। पर सुविधा के अभाव में, तथा अन्य कामों में व्यस्त रहने के कारण इस कार्य की ओर मैं अधिक समय न दे सका।
यहाँ बम्बई आने पर सेठ भोगीलाल लहरेचन्द झवेरी की वसति में निश्चित रहने का अवसर मिलने पर मैंने अपने मन में महावीर-चरित्र लिखने की दबी इच्छा पूर्ण कर लेने का निश्चय किया। वर्तमान ग्रन्थ 'तीर्थकर महावीर' वस्तुतः लगभग ६ वर्षों के प्रयास का फल है।
इस ग्रंथ का प्रथम भाग विजयादशमी २०१७ वि० को प्रकाशित हुआ । केवलज्ञान-प्राप्ति तक का भगवान् का जीवन उस ग्रंथ में है। प्रथम भाग के प्रकाशन के बाद समाचारपत्रों, अनुशीलन-पत्रिकाओं और विद्वानों ने उसका अच्छा सत्कार किया। उससे मुझे तुष्टि भी हुई और कार्य करने का मेरा उत्साह भी बढ़ा । यह द्वितीय भाग अब आपके हाथों में है। यह कैसा बन पड़ा है, इसके निर्णय का भी भार आप ही पर है। इस भाग में भगवान् के तीर्थंकर-जीवन, उनके मुख्य श्रमण-श्रमणियों, मुख्य श्रावक-श्राविकाओं तथा उनके भक्त राजाओं का वर्णन है। महावीर-चरित्र की शृंखला में ही इस ग्रन्थ में हमने रेवती-दान का भी विस्तारपूर्वक स्पष्टीकरण करने का प्रयास किया है। ऐसे तो भगवान् के उपदेश अति अगम-अथाह हैं; पर साधारण व्यक्ति
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( ४५ )
को भगवान् की देशनाओं के निकट पहुँचने के निमित्त मैंने भगवान् के वचनामृत की १०८ सूक्तियाँ अन्त में दे दी हैं ।
हमारे पास यद्यपि पुस्तकों का संग्रह था, फिर भी वह संग्रह ही अलम् सिद्ध न हो सका । मुझे पुस्तकों की आवश्यकता पड़ती । इस कार्य में जैन साहित्य विकास मंडल के पुस्तकालय ने मेरी सहायता की। पर, इस बीच मुझे एक कटु अनुभव यह हुआ कि, सरकारी अथवा सार्वजनिक पुस्तकालयों से ग्रंथ प्राप्त करना तो सहज है, पर जैन - भंडारों से ( जो जैनों में धर्मप्रचार की दृष्टि से ही स्थापित हुए हैं । ) ग्रंथ प्राप्त करना अपेक्षाकृत दुष्कर है । अपने साहित्य के प्रचार के लिए जैनों को भी अब हिन्दू, बौद्ध अथवा ईसाई धर्मावलंबियों से शिक्षा लेनी चाहिए और अपने साहित्य की ओर आकृष्ट करने के लिए अधिक से अधिक सुविधा जैन और अजैन विद्वानों को उपलब्ध करानी चाहिए । पुस्तकालय - संरक्षण- शास्त्र में अब बड़ी उन्नति हो गयी है फोटोस्टैट और माइक्रोफिल्मिंग की व्यवस्था आज सम्भव है। जैन समाज में इतने कोट्याधिपति और लक्ष्याधिपति हैं । जैन संघ के पास ज्ञानखाताओं में प्रचुर साधन हैं । ऐसी स्थिति में भी जब पुस्तकों को देखने तक की सुविधा नहीं मिलती तो दुःख होता है |
विद्या दान सबसे बड़ा दान है । उसका फल कभी-न-कभी किसी न किसी रूप में अवश्य होता है । हमारे गुरु महाराज परम पूज्य जगत्प्रसिद्ध शास्त्र विशारद स्वर्गीय विजय धर्म सूरीश्वर जी ने विदेशी विद्वानों को किस उदारता से ग्रन्थों
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को देखने की सुविधा प्राप्त करायी, यह बात किसी से छिपी नहीं है। यूरोप, अमेरिका आदि देशों में जैन-साहित्य पर जो कुछ काम हुआ, उसका श्रेय बहुत-कुछ गुरु महाराज के विद्या-दान को ही है।
उनके उदाहरण पर ही मैं भी आजीवन देशी-विदेशी विद्वानों की सहायता करता रहा। जापान में जैनशास्त्रों के अध्यापन की कोई व्यपस्था नहीं थी, यद्यपि वहाँ डाक्टर शूब्रिग के एक प्राकृतभिज्ञ शिष्य एक विश्वविद्यालय में थे। डाक्टर शूबिंग के आग्रह पर मैंने उनको पुस्तकों की सहायता की और अब वहाँ भी क्यूश-विश्वविद्यालय में डाक्टर मत्सुनायी की अध्यक्षता में जैन- साहित्य पढ़ाने की व्यवस्था हो गयी।
अपने शास्त्रों और विचारों को अधिक प्रचारित और प्रसारित न करने का ही यह फल है कि, अभी भी हमारे साहित्य का प्रचार अन्य धर्मों से कम है और तथाकथित साक्षर लोग भी ऐसी-ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें कर बैठते हैं, जिसे कहते लज्जा लगती है । साहित्य-अकेडमी से प्रकाशित एक पुस्तक में भगवान् महावीर को लेखक ने 'नट' लिखा है। मैं तो कहूँगा कि ऐसी अकेडमी और ऐसे उसके लेखक रहे तो भारत के नाम पर धब्बा लगाने के अतिरिक्त ये और क्या करेंगे।
अकेडमी की एक अन्य पुस्तक धर्मानंद कोसाम्बी का 'भगवान् बुद्ध' है। यह बुद्ध का जीवन-चरित्र है। बुद्ध पर छोटे-बड़े कितने ही चरित्र-ग्रंथ हैं। कितने ही मूल ग्रंथ हैं। जिनके प्रकाशन की अतीव आवश्यकता आज भी थी। पर
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( ४७ ) अकेडमी की दृष्टि और किसी ओर न जाकर इसी पुस्तक पर क्यों पड़ी ? धर्म-निरपेक्ष राज्य में सरकार से सहायता प्राप्त करने वाली संस्था ऐसी पुस्तक क्यों प्रकाशित करती है, जिसमें दूमरे धर्म की भावना पर आघात पड़े। धर्मानन्द बुद्ध का जीवनचरित्र लिख रहे थे । उसमें जैनों का ऐसा निन्दनीय उद्धरण न तो अपेक्षित था और न वर्णनक्रम से उसकी कोई आवश्यकता थी। धर्मानन्द ने इसे खाहमख्वाह इसमें धुसेड़ दिया। और, अकेडमी के सम्पादकों को क्या कहें जिन्होंने अनपेक्षित खंड अविकल रहने दिये।
__ इस पुस्तक की सामग्री जुटाने के लिए दौड़-धूप करने में, तथा मेरी सेवा-सुश्रुषा में जैनरत्न काशीनाथ सराक ने जो निस्वार्थ सहायता की वह स्तुत्य है। २४ वर्षों से वह निरन्तर मेरी सेवा में संलग्न हैं और यहाँ तक कि अपना सब कुछ छोड़कर मेरे साथ पाद-विहार तक करते रहे । अब तो मेरी दोनों आँखों में मोतिया है और शरीर वृद्धावस्था का है । काशीनाथ ही वस्तुतः इस उम्र में मेरे हाथ-पाँव हैं।
विद्याविनोद ज्ञानचन्द्रजी ने इस पुस्तक को रूप-रंग देने में सर्व प्रकार से प्रयत्न किया और समय-समय पर उपयोगी सूचनाएं देने में उन्होंने किसी प्रकार का संकोच न रखा। - इस ग्रंथ की तैयारी में श्री काशीनाथ सराक और ज्ञानचन्द्र मेरे दोनों हाथ-सरीखे रहें । यदि ये दोनों हाथ न होते तो यह पुस्तक पाठकों के हाथों में कभी न आती। अतएव मैं अंतःकरणपूर्वक इन दोनों को विशेष रूप से धर्मलाभ और धन्यवाद देता हूँ।
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( ४८ )
इस बीच मैं कई बार बीमार पड़ा । वैद्य -मारतण्ड कन्हैया लाल भेड़ा ने जिस लगन और निस्पृहता से मेरी चिकित्सा आदि की व्यवस्था की उसके लिए उन्हें आशीर्वाद |
मेरे लिखने में मतिभ्रम से अथवा प्रेस की असावधानी से यदि कोई त्रुटि रह गयी हो तो आशा है वाचकवर्ग मुझे क्षमा करेगा ।
अंत में मैं परमोपासक भोगीलाल लहेरचन्द झवेरी को भी अंतःकरणपूर्वक धर्मलाभ कहना चाहता हूँ । उनकी ही वसति में यह ग्रंथ निर्विघ्न रीत्या समाप्त हो सका । उनके सहायक होने से ही यह ग्रंथ इतनी जल्दी तैयार हो सका है ।
वसन्तपंचिमी
संवत् २०१८ वि० धर्म संवत् ४०
विजयेन्द्र सूरि ( जैनाचार्य )
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दो शब्द
तीर्थङ्कर महावीर का प्रथम भाग आपके सम्मुख पहुंच चुका है और अब यह उसका द्वितीय भाग अापके हाथों में है। यह भाग कैसा बना, इसके निर्णय का भार आप पर है। इस भाग में पृष्ट-संख्या प्रथम भाग की अपेक्षा अधिक है। पुस्तक के स्थायी महत्त्व को ध्यान में रखकर इस भाग में हमने अच्छे कागज का भी उपयोग किया है।
प्रस्तुत पुस्तक के लेखक का परिचय कराने की आवश्यकता नहीं है। दीक्षा की दृष्टि से श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन-साधुनों में प्रस्तुत पुस्तक के लेखक जैनाचार्य श्री विजयेन्द्र सूरि जी महाराज ज्येष्टतम प्राचार्य हैं। आपकी साहित्य-सेवा से प्रभावित होकर चेकोस्लोवाकिया की अोरियंटलसोसाइटी ने आपको अपना मानद सदस्य निर्वाचित किया था। प्राण नागरी प्रचारिणी सभा के भी मानद आजीवन सदस्य हैं और प्राकृत टेक्सट सोसाइटी के संस्थापक सदस्य हैं। प्राचार्यश्री का यथातथ्य परिचय तो पाठकों का 'लेटर्स टु विजयेन्द्र सूरि' देखने से ही प्राप्त होगा, जिसमें विदेशों से उनके पास आये कुछ पत्रों का संकलन है। ___इस पूरी पुस्तक की तैयारी तथा छपाई में लगभग २४॥ हजार व्यय पड़ा । इतना व्यय होने पर भी हमने घाटा सहकर सबको सुलभ होने की दृष्टि से पुस्तक का मूल्य २०) मात्र रखा है। पुस्तक के मूल्य को दृष्टि में रखकर एक जैन-संस्था ने हमें सहाएता देने से इनकार कर दिया था। हमारे पास उसी संस्था की एक पुस्तक है-भगवतीसूत्र का १५-चौ शतक और उसकी टीका । उस पुस्तक में कुल ८० पृष्ट हैं और उसका मूल्य ढाई रुपये हैं। उस पुस्तक का पाठ तो भगवती के छ पत्र दे देने मात्र से कम्पोज हो सकता था। और, इस पुस्तक के व्यय
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में तो अनुसंधान, पुस्तकों की व्यवस्था श्रादि सभी खर्चे सम्मिलित हैं। एक जैन-संस्था द्वारा ऐसे उत्तर दिये जाने का हमें घोर दुःख है ।
तीर्थकर महावीर का अंग्रेजी अनुवाद हो रहा है और यथासमय प्रकाशित हो जायेगा। इसके अतिरिक्त इसका गुजराती और साधारण संस्करण निकालने की भी हमारी योजना है। प्राशा है, जैन-समाज तथा पाठकगण अपनी कृपा बनाये रखकर हमें प्रोत्साहित करेंगे।
अहमदाबाद की अानन्दजी कल्याणजी की पीढ़ी ने प्रथम भाग की २०० पुस्तकें खरीद कर हमारी बड़ी सहायता की।
प्रस्तुत पुस्तक के तैयार करने में स्वर्गीय श्री वाडीलाल मनसुखराम पारेख कपड़वंज, श्रीमती मैनाबेन वाडीलाल पारेख कपड़वंज, श्रीपोपटलाल भीखाचंद झवेरी पाटन, श्री चमनलाल मोहनलाल झवेरी बम्बई, श्री मानिकलाल स्वरूपचंद पाटन, श्रीखूबचंद स्वरूपचंद पाटन, श्रीमती सुशीला शान्तिलाल झवेरी पालनपुर, अं. हिन्दूमल दोलाजी खीवांदी, श्री रघुवीरचंद जैन जालंधर (पंजाब), शाह सरदारमल माणिकचंद खीवांदी, श्री जयसिंह मोतीलाल पाटन ने अग्रिम सहायक बनकर हमें जो उत्साह दिलाया उसके लिए हम उनके श्राभारी हैं ।
श्री गोपीचंद धाड़ीबाल के भी हम विशेष रूप से कृतज्ञ हैं। उन्होंने हमें सहायता तो दी ही और उसी के साथ साथ पुस्तक में लगा कागज भी मिल-रेट से दिलाने की कृपा उन्होंने की।
हमें अपने काम में वस्तुतः पूज्य आचार्य श्री विजयेन्द्र सूरि जी महाराज के आशीर्वाद और सेठ भोगीलाल लहेरचन्द झवेरी की कृपा का ही पाश्रय रहा है । हम उन दो में से किसी से भी उऋण नहीं हो सकते । यशोधर्म मंदिर,
काशीनाथ सराक १६६ मर्जबान रोड,
(जैन-रत्न) अंधेरी, बम्बई ५८
प्रकाशक
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सहायक ग्रंथ
हम तीर्थंकर महावीर भाग १ में सहायक ग्रंथों की सूची दे चुके हैं। उनके अतिरिक्त कुछ अन्य ग्रन्थों की सहायता लेनी पड़ी है | हम उनके नाम यहाँ दे रहे हैं
:
जैन-ग्रन्थ
योगशास्त्र - हेमचन्द्राचार्य लिखित, स्वोपज्ञ टीका सहित । युक्तिप्रबोध नाटक मेघविजय उपाध्याय रचित |
विचार - रत्नाकर | उपदेशपद सटीक |
उपदेश प्रासाद सटीक |
बृहत् कथाकोश (सिंघी - जैन-ग्रंथमाला )
निर्गंथ सम्प्रदाय (जैन- संस्कृति - संशोधक - मण्डल, वाराणसी) ।
दिगम्बर ग्रन्थ
उत्तर पुराण ( भारतीय ज्ञानपीठ, काशी ) ।
वैदिक ग्रन्थ
अग्निपुराण |
मारकण्डेय पुराण (पार्जिटर कृत अंग्रेजी अनुवाद ) ।
मत्स्यपुराण ।
बृहत्संहिता । योगिनी तन्त्र |
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( ५२ )
निरुक्तम, आनन्दाश्रम मुद्रणालय पूना । वाक्यपदीय |
लेक्चर्स आन पतंजलीज महाभाष्य- पी. एस. सुब्रह्मण्य शास्त्री मीमांसा दर्शन, एशियादिक सोसाइटी आव बंगाल, कलकत्ता १८७३ ।
बौधायन सूत्र ( चौखम्भा सिरीज ) ।
चतुर्वर्ग चिंतामणि, हेमाद्रि-रचित ( भरतचन्द्र शिरोमणिसम्पादित, एशियाटिक सोसाइटी आव बेंगाल १८७३ ) । आधुनिक ग्रन्थ
आर्यालाजिकल सिरीज आव इण्डिया, न्यू इम्पीरियल सिरीज, वाल्यूम ५१-लिस्ट आव मानूमेंट्स इन द' प्राविस आव विहार ऐंड उड़ीसा | मौलवी मुहम्मद हमीद कुरैशी - लिखित, १९३९ ।
भारत की नदियाँ ।
इपिग्राफिका इंडिका, वाल्यूम २०, संख्या ७ ।
ऐन इम्पीरियल हिस्ट्री आव इंडिया, मंजुश्रीमूलकल्प काशीप्रसाद जायसवाल - सम्पादित |
आन युवान् च्वाङ् ट्रैवेल्स इन इंडिया (वाटर्स - कृत अनुवाद) कार्पोरेट लाइफ इन ऐंशेंट इंडिया । डा० मजूमदार लिखित
पत्र-पत्रिकाएं
इण्डियन हिस्टारिकल काटल, खंड १४, अंक २ खंड ५
अंक ४
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शास्त्रविशारद जैनाचार्य स्वर्गीय श्री विजयधर्म सूरीश्वर जी
विश्वाभिरूपगण सत्कृत मेधिरत्व ! विद्याप्रचारक ! मुनीन्द्र ! जगद्धितैषिन ! भक्तयाऽर्पयामि भगवन् ! भवतेऽभिवन्द्य, स्वल्पामिमां कृतिमनल्प ऋणानुबद्धः ॥
- विजयेन्द्र सूरि
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तीर्थ-स्थापना
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मईमं
सव्वाहिं गुजुत्तीहिं, पडिलेहिया । सव्वे कन्तदुक्खा य, प्रश्र सव्वे न हिंसया ॥ ७ ॥
बुद्धिमान् मनुष्य छहों जीव- निकायों का सब प्रकार की युक्तियों से सम्यक्ज्ञान प्राप्त करे और 'सभी जीव दुःख से घबराते हैं' - ऐसा जानकर उन्हें दुःख न पहुँचाये |
[ सूत्र ०, श्रु० १ ० ११, गा० ६ ]
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भगवान् महावीर Jan Educatin लखनऊ संग्रहालय में संगृहीत एक कुषाण कालीन मूर्ति ]ww
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श्रीमदर्हते नमः जगत्पूज्य श्री विजयधर्मसूरि गुरुदेवेभ्यो नमः तीर्थकर महावीर
भाग २
तीर्थस्थापना
हम पिछले भाग में यह बता चुके हैं कि, भगवान् ने किस प्रकार इन्द्रभूति आदि ग्यारह ब्राह्मणों की शंकाओं का निवारण किया और किस प्रकार वैदिक धर्मावलम्बी उन महापंडितों ने श्रमण-धर्म स्वीकार किया। इस प्रकार उत्तम कुल में उत्पन्न, महाप्रज्ञ, संवेगप्राप्त ये प्रसिद्ध ११ विद्वान् भगवान् महावीर के मूल शिष्य हुए।'
पिछले भाग में ही हम सविस्तार आर्य चन्दना का उल्लेख कर आये हैं। कौशाम्बी में उसने आकाश में आते-जाते हुए देवताओं को देखा।
१-महाकुलाः महाप्राज्ञाः संविग्ना विश्ववंदिता । एकादशापि तेऽभूवन्मूलशिष्या जगद्गुरो ।।
~~~~त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ५, पत्र ७०-१ २-तीर्थंकर महावीर, भाग १, पृष्ठ २३७-२४२
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तीर्थङ्कर महावीर
देवों के इस आने-जाने को देखकर वह यह बात जान गयी कि, भगवान् को केवल ज्ञान हो गया । और, उसके मन में दीक्षा लेने की इच्छा हुई | उसकी इच्छा देखकर देवता लोग उसे भगवान् की पर्षदा में ले आये। भगवान् की तीन बार प्रदक्षिणा करके और वंदना करके वह सती दीक्षा लेने के लिए खड़ी हुई । भगवान् ने चंदना को दीक्षित किया और उसे साध्वी समुदाय का अग्रणी बनाया ।"
उसके पश्चात् भगवान् ने सहस्त्रों नर-नारियों को श्रावकइस प्रकार भगवान् ने चतुर्विध संघ रूपी तीर्थ की स्थापना की ।
संघ की स्थापना के बाद भगवान् ने 'उप्पन्नेइ वा विगएइ वा धुवे वा' त्रिपदी (निषद्या ) का उपदेश किया ।
- दिया ।
१- त्रिषष्टिशालाका पुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ५० श्लोक १६४, पत्र ७०-१ गुणचन्द्र - रचित 'महावीर चरियं', प्रस्ताव ८, पत्र २५७-२
२ - कल्पसूत्र सुबोधिका टीका सहित, सूत्र १३५, पत्र ३५६
३ – त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र, पर्व १०, सर्ग ५, श्लोक १६४, पत्र ७०-१
४ - ( अ ) चउविहे संघे पं० तं० समणा, समणीश्रो, सावगा, साविया
।
- ठाणांगसूत्र सटीक, पूर्वाद्ध, ठा० ४, उ० ४, सू० ३६३, पत्र २८१-२ (आ) तित्थं पुरा चाउवन्नाइन्ने समणसंघो तं ० - समण, समणीश्रो, सावया, सावियात्री
- भगवती सूत्र सटीक शतक २०, उ० ८, सूत्र ६८२, पत्र १४६१ ५ - तीर्थं नाम प्रवचनं तच्च निराधारं न भवति, तेन साधु-साध्वी
श्रावक-श्राविकारूपः चतुर्वर्णः संघः
-सत्तरिसयठाणा वृत्ति १०० द्वार, आ० म०
राजेन्द्राभिधान, भाग ४, पृष्ठ २२७६
६ - (आ) भगवतीसूत्र सटीक, शतक ५, उद्देशः ६, सूत्र २२५, पत्र ४४९ में यह पाठ इस रूप में है :
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तीर्थस्थापना उसके बाद भगवान् ने उन्हें द्वादशांगी-रचना का आदेश दिया।' इसी त्रिपदी से गणधरों के द्वादशांग और दृष्टिवाद के अन्तर्गत १४ पूर्वो की रचना की । उन द्वादशांगों के नाम नन्दी-सूत्र में इस प्रकार गिनाये गये हैं। (पृष्ठ ४ की पाद टिप्पणि का शेषांश )
उप्पन्ने विगए परिणए (अ) गुणचन्द्र-रचित 'महावीर-चरियं', प्रस्ताव ८, पत्र २५७-१ (इ) उप्पन्न विगम धुवपयतियम्मि कहिए जणेण तो तेहिं ।
सव्वेहिं वि य बुद्धीहिं बारस अङ्गाई रइयाई ॥१५६४॥ -नेमिचन्द्र-रचित 'महावीर चरियं', पत्र ६६-२ (ई) तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५ का २९-वाँ सूत्र है
उत्पाद व्यय ध्रौव्ययुक्तं सत् (उ) ठाणांगसूत्र के ठाणा १०, उ० ३, सूत्र ७२७ में 'माउयाणुओगे' शब्द आता है। उसकी टीका में लिखा है :--
'माउयाणु ओगे' त्ति मातृकेव मातृका-प्रवचन पुरुषस्योत्पादव्यय ध्रौव्य लक्षणा पदत्रयी तस्या...
-पत्र ४८१-१ (ऊ) समवायांग की टीका में ऊसका विवरण इस प्रकार है :-- दृष्टिवादार्थप्रसवनिबन्धनत्वेन मातृका पदानि
-समवायांगसूत्र सटीक, समवाय ४६, पत्र ६५-२ ७-जाते संघे चतुर्थैवं ध्रौव्योत्पादव्ययात्मिकाम् । इन्द्रभूतिं प्रभृतानां त्रिपदी व्याहरत् प्रभुः ॥१६॥
-त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, पर्व १०, सर्ग ५ पत्र ७०-१
१-कल्पसूत्र सुबोधिका-टीका सहित, पत्र ३४०
२-(अ) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ५, श्लोक १६५-१५८ पत्र ७०-१
(ओ) गुणचन्द्र-रचित 'महावीर चरियं' प्रस्ताव ८, पत्र २५७-२ (इ) दर्शन-रत्न-रत्नाकर में पाठ आता है।
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तीर्थङ्कर महावीर से किं तं अंगपविट्ठ ? अंगपविट्ठ दुवालसविहं पण्णत्तं तं जहा-आयारो १, सूयगडो २, ठाणे ३, समवाओ ४ विवाहपन्नत्ती ५, नायाधम्मकहाणो ६, उवासगदसाओ ७, अंतगडदसाओ ८, अणुत्तरोववाइअदसाओ ६, पण्हवागरणाई १०, विवागसुअं ११, दिट्टिवायो'
पूर्वो के नाम भी नंदीसूत्र में दिये हैं :
से किं तं पुच गए ? २ चउद्दसविहे पण्णत्ते. तं जहा उप्पायपुवं १, अग्गाणीयं २, वीरिगं ३, अत्थिनत्थिप्पवायं ४, नाणप्पवायं ५, सच्चप्पवायं ६, पायप्पवायं ७, कम्मप्पवायं ८, पच्चक्खाणप्पायं ६, विज्जाणुप्पवायं १०, अवंझ ११, पाणाउ १२, किरिबाविसालं १३, लोकबिंदुसारं १४. ... ......
सात गणधरों की सूत्र-वाचना पृथक-पृथक थी; पर अकम्पित और अचलभ्राता की एक वाचना हुई तथा मेतार्य और प्रभास की एक वाचना हुई। इस प्रकार भगवान् के ११ गणधरों में ९ गण हुए। (पष्ट ५ की पादटिप्पणि का शेषांश )
प्राणिपत्य पृच्छति गौतम स्वामी कथय भगवस्त त्वं ततो भगवाना चाष्ट 'उप्पन्नेइ वा' पुनस्तथैव पृष्टे 'विगमेइ वा' 'धुवेइ वा' । एतास्तिस्रो निषिधा आभ्य एवोत्पादादि त्रय युक्त सर्व मिति प्रतीतिस्तेषां स्यात् । ततश्च ते पूर्वभवभावितमतयो बीज बुद्धि त्वात् द्वादशांगी रचयन्ति....
-पत्र ४०३-१
१-नन्दीसूत्र सटीक, सूत्र ४५, पत्र २०६-१ २-नन्दीसूत्र सटीक, सूत्र ५७ पत्र २३७-१ इन १४ पूर्वी के नाम समवायांगसूत्र सटीक, समवाय १४, पत्र २५-१ में भी आये है।
३-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग '५, श्लोक १७४, पत्र ९०-२ गुणचन्द्र-रचित 'महावीर-चरियं,' प्रस्ताव ८, पत्र २५७-२
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तीर्थस्थापना समयज्ञ इन्द्र रत्न के थाल में वासक्षेप लेकर भगवान् के पार्श्व में खड़े थे। इस समय इन्द्रभूति आदि प्रभु की अनुज्ञा लेने के लिए अनुक्रम की परिपाटी से मस्तक नत करके खड़े रहे । “द्रव्य, गुण और पर्याय की तुम्हें अनुज्ञा है"--ऐसा कहते हुए पहले प्रभु ने इन्द्रभूति के मस्तक पर चूर्ण डाला और फिर अनुक्रम से शेष सभी के मस्तक पर चूर्ण डाले।
इस समय आनन्दित देवतागणों ने भी प्रसन्न होकर ग्यारहों गणधरों पर चूर्ण और पुष्प की वृष्टि की।
"यह चिरंजीवि होकर चिरकाल तक धर्म का उद्योग करेंगे"-ऐसा कहते हुए, भगवान् ने सुधर्मा स्वामी को सभी मुनियों में मुख्य किया । बाद में, साध्वियों में संयम के उद्योग की घटना के लिए चंदना को प्रवर्तिनीपद पर स्थापित किया ।
इस प्रकार पौरुषी' समाप्त होने पर प्रभु ने अपनी देशना समाप्त की।
इसी समय राजा द्वारा तैयम् की गयी बलि लेकर सेबक-पुरुष पूर्व द्वार से आया। वह बलि आकाश में फेंकी गयी। उसमें आधी बलि ( पृष्ठ ६ की पादटिप्पणि का शेषांश)
४-तेणं कालेजं तेणं समएणं समणस्स भगवो महावीरस्स नव गणा इक्कारस गणहरा हुत्था
-कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका सहित व्याख्यान८, सूत्र १ पत्र ४७४ 'गण' शब्द पर टीका करते हुए अभिधान-चिन्तामणि स्वोपज्ञ टीका सहित, देवाधिदेव-काण्ड, श्लोक ३१ में लिखा है---''गणा नवास्यपि संघाः" और फिर 'गण' पर टीका करते हुए लिखा है "ऋषीणां संघाः समृहाः गणाः" (पृष्ठ १३)। औपपातिक सूत्रसटीक, पत्र ८१ में आता है :
कुलं गच्छ समुदायः, गणाः कुलानां समुदायः, संघो गण समुदायः
१-प्रहर
२-विषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ५, श्लोक १७६-१८१, पत्र पत्र ७०-२ । .
३-श्रावश्यकचूणि, पूर्वार्द्ध, पत्र ३३३ में राजा का नाम देवमल्ल दिया है ।
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तीर्थङ्कर महावीर आकाश में देवताओं ने लोक लिया। आधी भूमि पर गिरी। उसमें से आधा भाग राजा ने ले लिया और शेष आधा लोगों ने बाँट लिया।
उसके पश्चात् प्रभु सिंहासन पर से उठे और उत्तर द्वार से निकलकर द्वितीय प्राकार के बीच में स्थित देवच्छन्दक में विश्राम करने गये। भगवान् के चले जाने के बाद गौतम गणधर ने उनके चरण-पीट पर बैटकर उपदेश किया। दूसरी पौरुपी समाप्त होने पर गौतम स्वामी ने उपदेश समात किया ।
इस प्रकार तीर्थ की स्थापना करके भगवान् तीर्थकर हुए। तीर्थकर शब्द को व्याख्या करते हुए कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य ने लिखा है :
तीर्यते संसार समुद्रोऽनेनेति तीर्थं प्रवचनाधारश्चतुर्विधः संघः प्रथम गणधरोवा । यदाहु :-"तित्थं भन्ते तित्थं तित्थयरे तित्थं गोयमा अरिहा तावनियमा तित्थंकरे तित्थं पुण चाउवण्णे समण संघे पठम गणहरे" 'तत्करोति तीर्थङ्कारः..
उसके बाद कुछ काल तक वहाँ ठह्रने के पश्चात् भगवान् ने राजगृही की ओर प्रस्थान किया।
( पष्ठ ७ की पादटिप्पणि का शेषांश) ४-आवश्यकचूर्णि, पूर्वार्द्ध पत्र ३३३ में 'बलि' को 'तंदुलाणं सिद्धं' लिखा है। 9-तत्रैवेशान कोणे प्रभोर्विश्रामार्थं देवच्छन्दको रत्नमयः
धर्मघोष सरि-रचित 'समवसरण-स्तव' अवचूरी सहित (आत्मानंद जैन सभा, भावनगर ), पत्र
समवसरण-रचना का विस्तृत वृत्तांत त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र, पर्व १, सर्ग ३, श्लोक ४२३-५५८ पत्र ८१.२ से ८६-२ तक में है । जिज्ञासु पाठक वहाँ देख लें। २-त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०,सर्ग ५, श्लोक १८२-१८५। पत्र ७०.२
-अभिधान-चिंतामणि स्वोपश टीका सहित, देवाधिदेव क्रांड श्लोक २५ की टीका, पृष्ठ १०
४-यह पाठ भगवतीसूत्र सटीक शतक, २०, उद्देश ८, सूत्र ६८२, १४६१ में आता है।
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तीर्थङ्कर-जीवन
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मंगलं अरिहंता मंगलं । सिद्धा मंगलं ।
साहू मंगलं । केवलिपन्नत्तो धम्मो मंगलं ।
मङ्गल अर्हन्त मङ्गल हैं; सिद्ध मङ्गल हैं;
साधु मङ्गल हैं; केवली-प्ररूपित अर्थात सर्वज्ञ-कथित धर्म नङ्गल है।
[पंचप्रतिः संथारा० सू०]
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१३ - वाँ वर्षावास
भगवान् राजगृह में
मध्यम पात्रा से ग्रामानुग्राम विहार करते हुए, अपने परिवार के साथ, भगवान् महावीर राजगृह पधारे। उस राजगृह नगर में पार्श्वनाथ भगवान् के सम्प्रदाय के बहुत-सी श्रावक-श्राविकाएं रहती थीं । राजगृह नगर के उत्तर-पूर्व दिशा में गुणशिलक नामक चैत्य था । भगवान् अपनी पर्षदा के साथ उसी गुणशिलक चैत्य में ठहरे ।
भगवान् के आने की सूचना जब राजा श्रेणिक' को मिली तो वह पूरी राजसी मर्यादा से अपने मंत्रियों, अनुचरों और पुत्रों को लेकर भगवान् की वन्दना करने चला ।
भगवान् के समक्ष पहुँचकर, श्रेणिक ने भगवान् की प्रदक्षिणा की, वन्दना की तथा स्तुति की ।
उनके बाद भगवान् ने धर्म देशना दी। प्रभु की धर्म देशना सुनकर श्रेणिक ने समकित ग्रहण किया और अभयकुमार आदि ने श्रावक-धर्म अंगीकार किया ।
3
१--- रायगिहे नाम नयरे होत्या. रायगिहस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए गुणसिलए नाम चेइए होत्था, सेखिए राया, चेल्ला देवी
- भगवतीसूत्र सटीक, शतक १, उदेश : १ सूत्र ४ पत्र १०-२ २- श्रेणिक पर राजाओं के प्रसंग में हमने विशेष विचार किया है । पाठक वहीँ देख लें ।
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१२
तीर्थङ्कर महावीर देशना समाप्त होने के बाद श्रेणिक राजा अपने समस्त परिवार सहित राजमहल में वापस लौट आया ।
मेषकुमार की प्रव्रज्या श्रेणिक राजा के राजमहल में आने के पश्चात्, मेघकु मार' ने श्रेणिक और धारिणी देवी को हाथ जोड़कर कहा-"आप लोगों ने चिरकाल तक मेरा लालन-पालन किया । मैं आप लोगों को केवल श्रम देने वाला ही रहा । पर, मैं इतनी प्रार्थना करता हूँ कि, मैं दुःखदायी जगत से थक गया हूँ । भगवान् महावीर स्वामी पधारे हैं। यदि अनुमति दें तो मैं साधु-धर्म स्वीकार कर लूँ।" माता-पिता ने मेघकुमार को बहुत समझाया 'पर मेघकुमार अपने विचार पर दृढ़ रहा ।।
हारकर श्रेणिक ने कहा--"हे वत्स ! तुम संसार से उद्विग्न हो गये हो; फिर भी मेरा राज्य कम-से-कम एक दिन के लिए, ग्रहण करके मेरी दृष्टि को शांति दो।” मेघकुमार ने पिता की बात स्वीकार कर ली ! बड़े समारोह से मेघकुमार का राज्याभिषेक हुआ। फिर, श्रेणिक ने पूछा"हे पुत्र, मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ?” इस पर मेघकुमार बोला"पिताजी, यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो कुत्रिकापण' से मुझे रजोहरण( पृष्ठ ११ की पादटिप्पणि का शेषांश ) ३-श्रुत्वा तां देशना भतु : सभ्यक्त्वं श्रेणिकोऽश्रयत् । श्रावक धर्म त्वभय कुमाराद्याः प्रपेदिरे ॥ ३७६॥
-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०सर्ग ६, पत्र ८४-६ एमाई धम्मकहं सोउ सेणिय निवाइया भव्वा । संमत्तं पडिवन्ना केई पुण देस विरयाइ ॥ १२६४ ॥
-नेमिचन्द्र-रचित महावीर-चरियं, पत्र ७३-२ १-मेघकुमार का वर्णन ज्ञाताधर्मकथा के प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन में विस्तार से आता है । जिज्ञासु पाठक वहाँ देख सकते हैं।
२-देखिए पृष्ठ १७
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मेघकुमार की प्रव्रज्या पात्रादि मँगा दें।" श्रेणिक ने समस्त व्यवस्था कर दी और फिर बड़े धूमधाम से मेघकुमार ने दीक्षा ग्रहण की।
मेघकुमार की अस्थिरता दीक्षा लेने के बाद मेघकुमार मुनि रात को बड़े-छोटे साधुओं के क्रम से शैया पर लेटे थे, तो आते-जाते मुनियों के चरण बार-बार उसे स्पर्श होते । इस पर उसे विचार हुआ, मैं वैभव वाला व्यक्ति हूँ फिर भी ये मुनि मुझे चरण स्पर्श कराते जाते हैं । कल प्रातःकाल प्रभु की आज्ञा लेकर मैं व्रत छोड़ दूंगा।" यह विचार करते-करते उसने बड़ी कठिनाई से रात्रि व्यतीत की । प्रातःकाल व्रत छोड़ने की इच्छा से वह भगवान् के पास गया । उसके मन की बात, अपने केवल ज्ञान से जानकर, भगवान् बोले- "हे मेघकुमार ! संयम के भार से भग्न चित्त वाला होने पर तुम अपने पूर्व भव पर ध्यान क्यों नहीं देते ?
मेषकुमार के पूर्वभव "इस भव से पूर्व तीसरे भव में वैताब्य्-गिरि पर तुम मेरु-नामक हाथी थे । एक बार बन में आग लगी। प्यास से व्याकुल होकर तुम सरोवर में पानी पीने गये । वहाँ तुम दलदल में फँस गये। तुम्हें निर्बल देखकर, शत्रु हाथियों ने तुम पर दाँतों से प्रहार किया। दंत-प्रहार से सात दिनों तक पीड़ा सहन करने के बाद, मृत्युको प्राप्त करके तुम विन्ध्याचल में हाथी हुए । वहाँ भी वन में आग लगी देखकर तुम्हें जातिस्मरणज्ञान होने से, तृण वृक्ष आदि का उन्मूलन करके; यूथ की रक्षा के लिए, नदी के किनारे तुमने तीन मंडल (घेरे) बना दिये। अन्य अवसर पर दावानल लगी देखकर, तुम स्व-निर्मित मंडल की ओर दौड़े। पर, प्रथम मंडल में मृगादि पशुओं के आ जाने से वह भर गया था। तुम दूसरे मण्डल की ओर गये । पर, वह भी भरा था । दो मण्डलों को पूर्ण
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૧૩
तीर्थङ्कर महावीर
देखकर तुम तीसरे मंडल में गये । वहाँ खड़े-खड़े तुम्हारे शरीर में खुजली हुई । खुजली मिटाने के विचार से तुमने एक पैर ऊपर उठाया । प्राणियों के आधिक्य के कारण एक शशक तुम्हारे पाँव के नीचे आकर खड़ा हो गया | पग रखने से शशक दबकर मर जायेगा, इस विचार से तुम में दया उत्पन्न हुई और तुम तीन पाँव पर खड़े रहे ।
"ढाई दिन में दावानल शांत हुई । शशक आदि सभी प्राणी अपनेअपने स्थान पर चले गये । क्षुधा से पीड़ित तुम पानी पीने के लिए बढ़े । अधिक देर तक एक पग ऊँचा किये रहने से, तुम्हारा चौथा पैर बँध गया था । इससे तीन पैर से चलने में तुम्हें कठिनाई हो रही थी । चल न सकने के कारण, तुम भूमि पर गिर पड़े और प्यास के कारण तीसरे दिन बाद तुम मृत्यु को प्राप्त हुए ।
" शशक पर की गयी दया के कारण, तुम मर कर राजपुत्र हुए । इस • प्रकार मनुष्य-भव प्राप्त करने पर तुम उसे वृथा क्यों गँवाते हो ।”
भगवान् महावीर का वचन सुनकर मेघकुमार अपने व्रत में पुनः स्थिर हो गया । उसने नाना तप किये और मृत्यु पाकर विजय नामक अणुत्तर विमान में उत्पन्न हुआ । वहाँ से महाविदेह में जन्म लेने के बाद वह मोक्ष प्राप्त करेगा ।
१. - त्रिषष्टिशला कापुरुषचरित्र पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक ३६२-४०६, पत्र ८३२ से ८५-१ । - विजये १,
--
२ – उड्ड लोगे णं पंच अणुत्तरा महतिमहालता पं० तं विजयंते २ जयंते ३, अपराजिते ४, सब्बट्ठसिद्धे ५ ।
- ठाणांगसूत्र सटीक, ठा०५, उ०३, सू० ४५१ पत्र ३४१-२
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नन्दिषेण की प्रव्रज्या नन्दिषेण की प्रवज्या
भगवान् महावीर की धर्मदेशना से प्रभावित होकर, एक दिन नन्दिषेण ने प्रवज्या ग्रहण करने के लिए अपने पिता से अनुज्ञा माँगी । श्रेणिक की अनुमति मिलते ही व्रत लेने के लिए वह घर से निकला ।
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उस समय किसी देवता ने अन्तरिक्ष से कहा - " हे वत्स ! व्रत लेने के लिए उत्सुक होकर तुम कहाँ जाते हो ? अभी तुम्हारे चरित्र का आवरण करने वाले भोगफल कर्म शेष हैं । जब तक उन कर्मों का क्षय नहीं हो जाता, तब तक थोड़े समय तक तुम घर में ही रहो । उनके क्षय होने के बाद दीक्षा लो; क्योंकि अकाल में की हुई क्रिया फलीभूत नहीं होती । " उसे सुनकर नन्दिषेण ने कहा - " मैं साधुपने में निमग्न हूँ । चरित्र - को आवरण करने वाले कर्म मेरा क्या करेंगे ?"
9
ऐसा कहकर वह भगवान् महावीर के पास आया और प्रभु के चरणकमल के निकट उसने दीक्षा ले ली। छह अहम आदि तप करता हुआ वह प्रभु के साथ विहार करने लगा ।
गुरु के पास बैठकर उसने सूत्रों का अध्ययन किया और परिषदों को सहन करता रहा । प्रतिदिन वह आतापना लेता और विकट तप करता । इसकी विकट तपस्या से वह देवता बड़ा उद्विग्न होता। एक बार वह देवता बोला - " हे नन्दिषेण ? तुम मेरी बात क्यों नहीं सुनते ? हे दुराग्रही ! भोगफल भोगे बिना त्राण नहीं है । तुम यह वृथा प्रयत्न क्यों करते हो ?"
१ - यह नंदिपेण श्रेणिक के हाथी सेचनक की देख-रेख करता था - भावश्यकचूं, उत्तरार्द्ध, पत्र १७१, आवश्यक हारिभद्रीय टीका, पत्र ६८२–२ २ - आवश्यकचूर्णि, पूर्वार्द्ध, पत्र ५५६;
आवश्यक हारिभद्रीय टीका, पत्र ४३० --- १
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तीर्थङ्कर महावीर
इस प्रकार देवता ने बार-बार कहा । पर, नन्दिषेण ने इस पर किंचित् मात्र ध्यान नहीं दिया ।
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एक बार एकाकी विहार करने वाला नंदिषेण छट्ट की पारणा के लिए. भिक्षा लेने के निमित्त निकला और भोगों के दोष की प्रेरणा से वह वेश्या के घर में घुसा । वहाँ जाकर उसने 'धर्मलाभ' कहा। इस पर वह वेश्या बोली -- "मुझे तो केवल 'अर्थलाभ' अपेक्षित है । 'धर्मलाभ' की मुझे आवश्यकता नहीं है ।" इस प्रकार कहती हुई विकार चित्त वाली वह वेश्या हँस पड़ी ।
"यह विकारी मुझ पर हँसती क्यों है ?” – ऐसा विचार करते हुए, नन्दिषेण ने एक तृण खींचकर रत्नों का ढेर लगा दिया। और, "ले 'अर्थलाभ " - कहता हुआ, नन्दिषेण उसके घर से बाहर निकल पड़ा ।
वेश्या संभ्रम उसके पीछे दौड़ी और कहने लगी- - " हे प्राणनाथ ! यह दुष्कर व्रत त्याग दो !! मेरे साथ भोग भोगो, अन्यथा मैं अपना प्राण त्याग दूँगी ।"
बारम्बार इस विनती के फलस्वरूप, व्रत तजने के दोष को जानते हुए भी, भोग्य कर्म के वश होकर नंदिषेण ने उसके वचन को स्वीकार कर लिया । पर यह प्रतिज्ञा की - " मैं प्रतिदिन १० अथवा उससे अधिक मनुष्यों को प्रतिबोध कराऊँगा । यदि किसी दिन मैं इतने व्यक्ति को प्रतिबोध न करा सका, तो उसी दिन मैं फिर दीक्षा ले लूँगा ।" का वेश त्याग कर, नंदिषेण वेश्या के घर रहने लगा और दीक्षा लेने से पूर्व की देवता की बात स्मरण करने लगा । भोगों को भोगता हुआ, वेश्या के पास रहते हुए, वह प्रतिदिन १० व्यक्तियों को प्रतिबोध करा महावीरस्वामी के पास दीक्षा के लिए भेजने के
बाद भोजन करता । भोग्य कर्म के क्षीण होने से, एक दिन नंदिषेण ने प्रतिबोध को प्रतिबोध कराया, पर १० - वें व्यक्ति ( जो किसी भी रूप में प्रतिबोध नहीं पाया। उसके प्रतिबोध
९ व्यक्तियों को सोनार था ) ने कराने के प्रयास
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नन्दिषेण की प्रव्रज्या
१७
में बहुत समय लग गया । वेश्या रसोई तैयार करके बैठी थी । बारम्बार बुलावा भेजने लगी । पर, अभिग्रह पूर्ण न होने के कारण नंदिषेण न उठा । कुछ देर बाद वेश्या स्वयं आकर बोली - "स्वामी ! कब से रसोई तैयार है । बड़ी देर से प्रतीक्षा कर रही थी । रसोई निरस हो गयी । "
नंदिपेण बोला- “अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार आज मैं १० व्यक्तियों को प्रतिबोध नहीं करा सका । ९ व्यक्ति ही प्रतिबोध पा सके और १० - वाँ व्यक्ति अब मैं स्वयंहूँ ।"
इस प्रकार वेश्या के घर से निकलकर नंदिषेण ने भगवान् के पास जाकर पुनः दीक्षा ले ली । और, अपने दुष्कृत्य की आलोचना करके महावीर स्वामी के साथ ग्रामानुग्राम विहार करता रहा और तीक्ष्ण व्रतों को पालते हुए मरकर देवता हुआ ।
भगवान् ने अपनी १३ वीं वर्षा राजगृह में ही बितायी ।
कुत्रिकापण
कुत्रिकापण का उल्लेख ज्ञाताधर्मकथा श्रुतस्कंध १, अध्ययन १, सूत्र २८, ( सटीक, पत्र ५७- १ ) में आया है । वहाँ उसकी टीका इस प्रकार दी हुई है
:--
देवताधिष्ठितत्वेन स्वर्गमपाताल लक्षण भूत्रितय संभवि वस्तु सम्पादक आपणो
-पत्र ६१-१
ज्ञाताधर्मकथा के अतिरिक्त इसका उल्लेख भगवतीसूत्र सटीक शतक २, उद्देशः ५ सूत्र १०७ पत्र २४० तथा शतक है सूत्र ३८५ पत्र ८६७; औपपातिक सूत्र सटीक सूत्र १६ पत्र ६२, ठाणांग सूत्र सटीक
१ – त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक ४०८ - ४३६ पत्र ८५-१--८६-१
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तीर्थङ्कर महावीर
( सूत्र ८५७ की टीका ) पत्र ४१३ - २, निशीथ सूत्र सभाष्य चूर्णि विभाग ४ पृष्ठ १०२, १५१ तथा उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका सहित पत्र ७३ - १ में भी है ।
वृहत्कल्पसूत्र-निर्युक्ति-भाष्य सहित ( विभाग ४, पृष्ठ ११४४ गाथा ४२१४ ) में कुत्रिकापण की परिभाषा इस रूप में दी हुई है:
कुत्ति पुढ़वीय सण्णा जं विज्जति तत्थ चेदण मचेयं । गहणुवभोगे य खमं न तं तहि श्रवणे णत्थि ॥
अर्थात् तीनों लोकों में मिलनेवाले जीव-अजीव सभी पदार्थ जहाँ मिलते हों, उसे कुत्रिकापण कहते हैं । विशेषावश्यक की टीका ( देखिये गाथा २४८६, पत्र ९९४ - २ ) में भी यही अर्थ दिया है ।
कुत्रिकापण में मूल्य तीन तरह से लगता था । बृहत्कल्प भाष्य ( विभाग ४, पृष्ठ ११४४ ) में गाथा ४२१५ में आता है
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पणती पागतियाणं, साहस्सो होति इब्भमादीणं । उक्कोस सतसहस्सं, उत्तम पुरिसाण उवधी व ॥
-- प्राकृतपुरुषाणां प्रव्रजतामुपधिः कुत्रिकापणसत्कः, 'पञ्चकः ' पञ्चरूपक मूल्यो भवति । 'इभ्यादिनां' इव्भ श्रेष्ठि-सार्थ वाहादीनां मध्यमपुरुषाणां 'साहस्रः ' सहस्रमूल्य उपाधिः । 'उत्तम पुरुपाणां चक्रवर्ति-माण्ड लिकप्रभृतीनामुपधिः शतसहस्रमूल्यो भवति । एतच्च मूल्यमानं जघन्यतो मन्तव्यम्, उत्कर्षतः पुनस्त्रयाणामप्यनियतम् । अत्र च पञ्चकं जघन्यम्, सहस्रं मध्यमम्, शत सहस्रकमुत्कृष्टतम् ॥
अर्थात् इस दूकान पर साधारण व्यक्ति से जिसका मूल्य पाँच रुपया लिया जाता था, इन्भ श्रेष्ठि आदि से उसी का मूल्य सहस्र रुपया और चक्रवर्ती आदि से लाख रुपया लिया जाता था । इस सम्बन्ध में विशेषावश्यक की टीका लिखा है :
( पत्र ९९४ - २ ) में
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कुत्रिकापण
१६ (१) अस्मिश्च कुत्रिकापणे वणिजः कस्यापि मन्त्रयाद्याराधितः सिद्धो व्यन्तर सुरः क्रायक जन समीहितं सर्वमपि वस्तु कुतोऽप्यानीय संपादयति....।
(२) अन्येतु वदन्ति–'वणिग् रहितः सुराधिष्ठिता एव तं आपणा भवन्ति । ततो मूल्य द्रव्यमपि एवं व्यन्तर सुरः स्वीकारोति ।
(१) दूकान का मालिक किसी व्यन्तर को सिद्ध कर लेता था। वही व्यन्तर वस्तुओं की व्यवस्था कर देता था ।
(२) पर, अन्य लोगों का कहना है कि ये दूकानें वणिक-रहित होती थीं । व्यन्तर ही उनको चलाते थे और द्रव्य का मूल्य भी वे ही स्वीकार करते थे।
वृहत्कल्पसूत्र सभाष्य (विभाग ४, पृष्ठ ११४५) में उज्जैनी में चण्डप्रद्योत के काल में ९ कुत्रिकापण होने का उल्लेख है -
- पजोएं णरसीहे णव उज्जेणीय कुत्तिया आसी
उज्जैनी के, अतिरिक्त राजगृह में भी कुत्रिकापण था ( वृहत् कल्पसूत्र सभाष्य, विभाग ४, गाथा ४२२३, पृष्ठ ११४६ )।
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१४-वाँ वर्षावास ऋषिभदत्त-देवानन्दा की प्रव्रज्या
वर्षावास समाप्त होने के बाद, अपने परिवार के साथ ग्रामानुग्राम में विहार करते हुए, भगवान् महावीर ने विदेह की ओर प्रस्थान किया और ब्राह्मणकुण्ड ग्राम पहुँचे, इसके निकट ही बहुशाल-चैत्य था । भगवान् अपनी परिषदा के साथ इसी बहुशाल्य चैत्य में ठहरे ।
इसी ग्राम में, ऋषभदत्त-नाम का ब्राह्मण रहता था। उसका उल्लेख हम 'तीर्थंकर महावीर' ( भाग १, पृष्ठ १०२) में गर्भपरिवर्तन के प्रसंग में कर आये हैं। आचारांग सूत्र (बाबू धनपत सिंह वाला, द्वितीय श्रतस्कंध, पृष्ठ २४३ ) में तथा कल्पसूत्र सुबोधिका-टीका सहित, सूत्र ७ (पत्र ३२) में उसका ब्राह्मण होना लिखा है। केवल इतना ही उल्लेख आवश्यक चूर्णि (पूर्वार्द्ध, पत्र २३६ ) में भी है । पर, भगवतीसूत्र सटीक ( शतक ९, उद्देशः ६, सूत्र ३८० पत्र ८३७ ) में उसका उल्लेख इस प्रकार किया गया है :
तेणं कालेणं तेणं समएणं माहणकुण्डग्गामे नयरे होत्था, वन्नो, बहुसालए चेतिए, वन्नओ, तत्थ णं माहण
१. इस ब्राह्मणकुण्ड ग्राम की स्थिति के सम्बन्ध में हमने 'तीर्थकर महावीर' भाग १, पृष्ठ ६०-८६ पर विषद् रूप से विचार किया हैं। जिज्ञासु पाठक वहाँ देख सकते हैं। राजेन्द्राभिधान भाग ६, पृष्ठ २६८ तथा पाइप्रसद्दमहएणवो, पृष्ठ ८५३ में उसे मगध देश में बताया गया है। यह वस्तुत उन कोषकारों की भूल है ।
२. पुप्फ भिक्खु ( फूलचन्द जी )-सम्पादित 'जीवन-श्रेयस्कर-पाठमाला' भाग २ ( भगवई--विवाह पण्णत्ती ) पृष्ठ ५९३ पर सम्पादकने 'चेतिये' पाठ बदल कर
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ऋषभदत्त-देवानन्दा की प्रव्रज्या २१ कुंडग्गामे नयरे उसमदत्ते नामं माहणे परिवसति अढे दित्ते वित्ते जाव अपरिभूए रिउवेद, जजुवेद, सामवेद अथव्वणवेद जहाँ खंदओ जाव अन्नेसु य बहुसु बभन्नएसु नएसु सुपरिनि?ए समणोवासए.....
भगवतीसूत्र के इस उद्धरण से स्पष्ट है कि, जहाँ वह चारों वेदों आदि का पंडित था, वहीं वह 'श्रावक' भी था। कल्पसूत्र आदि तथा भगवतीसूत्र के पाठ की तुलना से यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि, वह ऋषभदत्त बाद में श्रमणोपासक हो गया था।
इस ऋषभदत्त की पत्नी देवानंदा थी।
भगवान् के आने की सूचना समस्त ग्राम में फैल गयी। सूचना पाते ही, ऋषभदत्त अपनी पत्नी देवानंदा के साथ भगवान् का वंदन करने चला। . जब ऋषभदत्त भगवान् महावीर स्वामी के निकट पहुँचा तो वह पाँच अभिगमों ( मर्यादा) से युक्त होकर [१ सचित्त वस्तुओं
( पृष्ठ २० की पादटिप्पणि का शेषांश) 'उज्नाणे' कर दिया है। स्थानकवासी साधु अमोलक ऋषि ने जो भगवती छपवायी थी उसमें पत्र १३३४ पर 'चेइए' ही पाठ है और उसके आगे वर्णक जोड़ने को लिखा है । स्थानकासी विद्वान शतावधानी जैनमुनि रत्नचन्द्र जी ने भी अर्द्धमागधी कोष, भाग २, पृष्ठ ७३८ पर 'चेइए' शब्द में 'बहुसाल चेइए' दिया है।
भगवती के प्रारम्भ में ही राजगृह के गुणशिलक चैत्य, का उल्लेख है। वहाँ वर्णक जोड़ने की बात नहीं कही गयी है । चैत्य के वर्णक का पूरा पाठ औपपातिकसूत्र सटीक सूत्र २ ( पत्र ८ ) में आता है। अतः यहाँ बहुसाल चैत्य के प्रसंग में उसका अर्थ उद्यान कदापि नहीं हो सकता।
पुष्प भिक्खु ने ऐसे और कितने ही अनधिकार परिवर्तन पाठ में किये हैं ।
१. भगवतीसूत्र, शतक ६, उद्देशः ६, सूत्र ३८० पत्र ८४० में पाँच अभिगमों क़ा उल्लेख है । उसका पूरा पाठ भगवती सूत्र शतक २, उद्देशः ५ सूत्र १०८ (सटीक पत्र २४२) में इस प्रकार है :
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२२
तीर्थङ्कर महावीर
का त्याग, २ वस्त्रों को व्यवस्थित मर्यादा में रखना, ३ दुपट्टे का उत्तरा संग करना, ४ दोनों हाथ जोड़ना, ५ मनोवृत्तियों को एकाग्र करना ] वह भगवान् के पास गया। तीन बार उनकी परिक्रमा करके, उसने भगवान् का वंदना की और देशना सुनने बैठा ! वंदन करने के बाद देवानन्दा भी बैठी। उस समय वह रोमांचित हो गयी और उसके स्तन से दूध की धारा बह निकली । उसके दोनों नेत्रों में आनन्दाश्रु आ गये !
उस समय गौतम स्वामी ने भगवान् की वंदना करके पूछा - "हे भगवान् ! देवानंदा रोमांचित क्यों हो गयी ? उसके स्तन से क्यों दूध की धारा वह निकली ?"
इसके उत्तर में भगवान् महावीर ने कहा- " हे गौतम ? देवानंदा
( पृष्ठ २१ की पादटिप्पणि का शेषांश )
पंच विहेणं अभिगमेणं श्रभिगच्छन्ति तं जहा - सचित्ताणं दव्वाणं विसरण्याए १, अचित्ताणं दव्वाणं अविसरण्याए २, एगसाडिए उत्तरासंगकरणं ३ चक्खुप्फासे अंजलिप्पगहेणं ४ मणसो एगत्ती करणेणं ५........
'सच्चित्ताणं' त्ति पुष्पताम्बूलादीनां 'विउसरण्याए' त्ति 'व्यवसर्जनया" त्यागेन १, 'अच्चित्ताणं' ति वस्त्रमुद्रिकादीनाम् 'अविउसरण्याए' त्ति अत्यागेनर, ' एगसाडिएणं' ति अनेकोत्तरीय शाटकानां निषेधार्थमुक्तम् 'उत्तरासंग करणेन ' त्ति उत्तरासङ्ग उत्तरीयस्य देहे न्यासविशेषः ३, 'चक्षुः स्पर्पः' दृष्टिपाते 'एगतीकरणेन' ४ चि अनेक त्वस्य अनेकालम्बन त्वस्यएकत्व करणम् - एकालम्बनत्व करण मेकत्रीकरणं तेन ५......
इन अभिगमों का विस्तृत वर्णन धर्मसंग्रह ( गुजराती भाषान्तर, भाग १, पृष्ठ ३७१-३७२ ) में है ।
पपातिकसूत्र सटीक सूत्र १२, पत्र ४४ में राजा के भगवान् के पास जाने का उल्लेख है । जब राजा भगवान् के पास जाता है तो वह पंच राजचिह्न का भी त्याग करता है : -खग्गं १, छत्तं २, उप्फेस ३, वाहणाओ ४, वालवी अणं ५, ( २ खङ्ग, २ छत्र, ३ मुकुट, ४ वाहन, ५ चामर ) ।
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H
ऋषभदत्त-देवानन्दा की प्रव्रज्या ब्राह्मणी मेरी माता है । मैं इस देवानंदा ब्राह्मणी का पुत्र हूँ । पुत्रस्नेह के कारण देवानन्दा रोमांचित हुई।'
तब तक भगवान् के गर्भपरिवर्तन की बात किसी को भी ज्ञात नहीं थी। भगवान् के इस कथन पर ऋषभदत्त-देवानन्दा सहित पूरी पर्षदा को आश्चर्य हुआ।
भगवान् महावीर ने ऋषभदत्त ब्राह्मण, देवानन्दा ब्राह्मणी तथा उपस्थित विशाल पर्षदा को धर्मदेशना दी। उसके बाद लोग वापस चले गये ।
१- (अ) भगवती सूत्र सटीक में इसका उल्लेख इस प्रकार है :
गो यमा ! देवाणंदा माहणी ममं अम्मगा, अहं णं देवाणंदाए माहणीए अत्तए, तए णं सा देवाणंदा माहणी तेणं पुच्च पुत्तसिहेणरागेणं आगयपणहया जाव समूसवियरोमक्खा...'
-शतक ६, उद्देशः ६, सूत्र ३८१, पत्र ८४० इसकी टीका इस प्रकार दी हैं :
प्रथम गर्भाधान काल सम्भवो यः पुत्रस्नेह लक्षणोऽनुरागः स पूर्व पुत्रस्नेहानुरागस्तेन -~-पत्र ८४५
(श्रा ) त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र पर्व १०, सर्ग ८ में इससे अधिक स्पष्ट रूप में वर्णन है :
अथाख्यद्भगवान् वीरो गिरा स्तनितधीरया । देवानां प्रिय भो देवानन्दायाः कुक्षिजोऽस्म्यहम् ॥१०॥ दिवश्चयुतोऽहमुषितः कुक्षावस्या द्वयशीत्यहम् ।
अज्ञात परमार्थापि तेनैषा वत्सला मयि ॥११॥ -पत्र ६६-१ २-(अ) देवानन्दर्षभदत्तौ मुमुदाते निशम्य तत् । सर्वा विसिप्मिये पर्षत्तागपूर्विणी ॥१२॥
–त्रिषष्टि शलाका परुष चरित्र, पर्व १०, सर्ग ८, पत्र ६६-" अस्सुयपुब्वे सुणिए को वा नो विम्हयं वहइ ॥२॥
__-महावीर-चरियं, गुणचन्द्र-रचित, पत्र २५६-२
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तीर्थङ्कर महावीर ____ अंत में ऋषभदत्त ने भगवान् महावीर के पास जाकर दीक्षा लेने की अनुमति माँगी। फिर, ऋषभदत्त ईशान दिशा में गया। वहाँ आभरण, माला, अलंकार आदि सब उतार कर उसने पंच मुष्टि लोच किया और प्रभु के निकट आकर तीन बार प्रदक्षिणा की और प्रव्रज्या ले ली।
उसने सामायिक आदि तथा ११ अंगों का अध्ययन किया। छहअहम-दशम आदि अनेक उपवास किये और विचित्र तप-कर्मों से बहुत वर्षों तक आत्मा को भावित करता हुआ साधु-जीवन व्यतीत करता रहा अंत में एक मास की संलेखना करके ६० बेला का अनशन किया और मर कर मोक्ष प्राप्त किया।
उसी समय देवानन्दा ब्राह्मणी ने भी दीक्षा ले ली और आर्यचन्दना के साथ रहने लगी। उसने भी सामायिक आदि तथा ११ अंगों का अध्ययन किया तथा विभिन्न तपस्याएँ की। अंत में वह भी सर्व दुःखों से मुक्त हुई।'
जमालि की प्रव्रज्या ब्राह्मणकुंड के पश्चिम में क्षत्रियकुंड-नामक नगर था। उस ग्राम में जमालि-नामक राजकुमार रहता था। यह जमालि भगवान् की बहन सुदंसणा' का पुत्र था-ऐसा उल्लेख कितने ही जैन-शास्त्रों में आता है ।
(१) इहैव भरत क्षेत्रे कुण्डपुरं नामं नगरम् । तत्र भगवतः श्री महावीरस्य भागिनेयो जामालि म राजपुत्र आलीत्...
-सटीक विशेषावश्यक भाष्य, पत्र ६३५ १-भगवती सूत्र सटीक, शतक ६. उद्देशा ६, पत्र ८३७-८४५ । यह कथा त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र पर्व १०, सर्ग ८ श्लोक १-२७ पत्र ६६-१-११-२ में तथा गुणचन्द्र रचित महावीरचरियं, अष्टम् प्रस्ताव, पत्र २५५-१--२६०-१ में भी आती है। २-भगिणी सुदंसणा'..
-कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, सत्र १०६, पत्र २६१
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जमालि की प्रव्रज्या
२५
(२) कुण्डपुरं नगरं, तत्थ जमाली सामिस्स भाइणिज्जो ... - आवश्यक हरिभद्रीय टीका, पत्र ३१२-२
(३) महावीरस्य भगिनेयो
-ठाणांग सूत्र सटीक, उत्तरार्द्ध, पत्र ४१०-२ (४) तेणं कालेणं तेणं समरणं कुंडपुरं नयरं । तत्थ सामिस्स जेट्ठा भगिणी सुदंसणा नाम । तीए पुत्तो जमालि - उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका सहित, पत्र ६६-१, उत्तराध्ययन शान्त्या - चार्य की टीका पत्र १५३-१
जमालि का विवाह भगवान की पुत्री से हुआ था । इसका भी जैनशास्त्रों में कितने ही स्थलों पर उल्लेख है :
( १ ) तस्य भार्या श्रीमन्महावीरस्य दुहिता...
( २ ) तस्स भज्जा सामिणो
( ३ ) तस्य भार्या स्वामिनो दुहिता...
- आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र ३१२-२ विशेषावश्यक भाष्य सटीक में भगवान् की पुत्री के तीन नाम
दिये हैं :
- सटीक विशेषावश्यक भाष्य, पत्र ९३५ धूया...
उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका सहित, पत्र ६६ - १
:--
ज्येष्ठा, सुदर्शना तथा अनवद्या'
( १ ) - पत्र ६१५
पर कल्पसूत्र ( घूत्र १०९, ) मैं महावीर स्वामी भी पुत्री के केवल दो नाम दिये हैं— अणोज्जा और पियदसणा
जमालि ने एक दिन देखा कि, बहुत बड़ा जन समुदाय क्षत्रियकुण्ड
१ - आवश्यक की हारिभद्रीय टीका में भी ये तीन नाम दिये हैं । पर नेमिचन्द्रकी उत्तराध्ययन की टीका में ( पत्र ६६ - १ ) नाम अशुद्ध रूप में अज्जंगी छप गया है ।
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तीर्थकर महावीर ग्राप से निकल ब्राह्मणकुण्ड की ओर जा रहा है। उस भीड़ को देख कर उसके मन विचार उठा कि क्या आज कोई उत्सव है । उसने कंचुकि को बुलाकर कारण पूछा तो उसे भगवान् के आने की बात ज्ञात हुई।
जमालि पूरी तैयारी के साथ भगवान् का दर्शन करने ब्राह्मणकुण्ड' की ओर चल पड़ा । बहुशालचैत्य के निकट पहुँच कर उसने रथ के घोड़े को रोक दिया और रथ से उतर कर पुष्प, ताम्बूल, आयुध, उपानह आदि को वहीं छोड़ कर भगवान् के पास आया । वहाँ आकर उसने तीन बार प्रदक्षिणा की और उनका बन्दन किया ।
उसके बाद भगवान् ने धर्म-देशना दी। धर्म-देशना सुन कर जमालि बड़ा प्रसन्न हुआ और बोला-'हे भगवन् ! मैं निर्गन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा रखता हूँ। मुझे उस पर विश्वास है । मैं तद्रूप आचरण करने को तैयार हूँ। अपने माता-पिता की अनुमति लेकर मैं साधु-व्रत लेना चाहता हूँ।" ऐसा कहकर पुनः उसने भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा की और वंदना की।
वहाँ से लौट कर वह अपने घर क्षत्रियकुण्ड आया और अपने मातापिता के पास जाकर उसने दीक्षा लेने की अनुज्ञा माँगी। माता-पिता ने.
१-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र पर्व १०, सर्ग ८ श्लोक २८-२६ पत्र १००-१ में हेमचन्द्राचार्य ने तथा महाबीरचरियं प्रस्ताव ८ पत्रा २६०-२ श्लोक १-२ में गुणचन्द्र ने भगवान् महावीर का क्षत्रियकुंड आना लिखा है और वहाँ जमालि के दीक्षा प्रसंग का उल्लेख किया है; पर भगवती सूत्र से इसका मेल नहीं बैठता।
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र पर्व १०, सर्ग ८, श्लोक ३० पा १००-१ में उस समय उनके समवसरण में क्षत्रियकुंड में राजा, भगवान् के सांसारिक बड़े भाई नन्दिवर्द्धन के आने और भगवान् की बंदना करने का उल्लेख है :
स्वामिनं समवस्मृतं नृपतिर्नन्दिवद्धन :
ऋद्ध्या महत्या भक्त्या च तत्रोपेयाय वन्दितुम् ॥ ऐसा ही उल्लेख गुणचन्द्र-रचित 'महावीरचारियं' में प्रस्ताव = पर्व २६१-१ तथा २६१-२ में भी है।
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२७
जमालि की प्रव्रज्या जमालि को बहुत समझाया, पर वह अपने विचार पर दृढ़ रहा और अन्त में माता-पिता की आज्ञा लेकर जमालि बड़ी धूमधाम से भगवान् के पास आया और ५०० व्यक्तियों के साथ उसने दीक्षा ले ली।
उस जमालि ने सामायिक आदि तथा ११ अंगों का अध्ययन किया और चतुर्थभक्त, छछ, अट्टम, मासार्द्ध और मास क्षमण-रूप विचित्र तप करता हुआ अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विहार करने लगा।' ___ इसी सभा में भगवान् की पुत्री ( जमालि की पत्नी) प्रियदर्शना ने भी १००० स्त्रियों के साथ दीक्षा ली।
कालान्तर में ( भगवान् के केवल ज्ञान के १४ वर्ष पश्चात् ) यही जमालि प्रथम निह्नव हुआ और भगवान् के संघ से पृथक हो गया । 'निह्नव' की टीका जैन-शास्त्रों में इस प्रकार की गयी है :निहनुवते अपलपन्त्यन्यथा प्ररूपयन्तीति प्रवचन निह्नवा
ठाणांग सूत्रा सटीक, उच रार्द्ध, पत्रा ४१०-१ हम इस मतभेद आदि का उल्लेख आगे इसी खण्ड में यथास्थान करेंगे। वह वर्षावास भगवान् ने वैशाली में बिताया।
१ भगवतीसूत्र सटीक, शतक ६, उद्देशः ६, सूत्र ३८३-३८७ पत्र ८४६-८६३।
२-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ८, श्लोक ३६ पत्र १००-१; गुणचन्द्र-रचित 'महावीरचरियं' प्रस्ताव ८, पत्र २६५-२
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१५-वाँ वर्षावास जयन्ती की प्रव्रज्या
वैशाली से विहार करके भगवान् महावीर वत्स-देश की ओर गये । वत्स-देश की राजधानी कौशाम्बी थी। वहाँ चन्द्रावतरण नामका चैत्य था। उस समय कौशाम्बी-नगरी में राजा सहस्रनीक का पौत्र, शतानीक' का पुत्र, वैशाली के राजा चेटक की पुत्री मृगावती देवी का पुत्र उदयन -नामक राजा राज्य करता था। उदयन की बूआ (शतानीक की बहन ) जयन्ती श्रमणोपासिका थी।
भगवान् के आगमन का समाचार सुनकर मृगावती अपने पुत्र उदयन के साथ भगवान् का वन्दन करने आयी। भगवान् ने धर्मदेशना दी।
भगवान् का धर्मापदेश सुनने के बाद जयन्ती ने भगवान् से पूछा"भगवन् ! जीव गुरुत्व को कैसे प्राप्त होता है ?" । भगवान् ने कहा-“हे जयन्ती, १ प्राणातिपात, २ मृपावाद, ३ अदत्ता दान, ४ मैथुन, ५ परिग्रह, ६ क्रोध, ७ मान, ८ माया, ९ लोभ, १० प्रेम, ११ द्वेष, १२ कलह, १३ दोषारोपण, १४ चाड़ी-चुगली, १५ रति और अरति, १६ अन्य की निन्दा, १७ कपट पूर्वक मिथ्या भाषण, १८ मिथ्यादर्शन अठारह दोष हैं । इनके सेवन से जीव भारीपने को प्रात होता है । और चारों गतियों में भटकता है।"
जवन्ती-"भगवान् , आत्मा लघुपने को कैसे प्राप्त होती है ?'
१-वितृत विवरण राजाओं के प्रसंग में देखिये। २-विस्तृत विवरण राजाओं के प्रसंग में देखिये।
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जयन्ती की प्रव्रज्या
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भगवान् - " प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन के अटकाव से जीव
इल्केपने को प्राप्त होता है । इस प्राणातिपात जीव संसार को बढ़ाता है, लम्बा करता है, प्रकार प्राणातिपात आदि की निवृत्ति से वह करता है और उलंघन कर जाता है ।" "
आदि करने से जिस प्रकार भ्रमता है, उसी घटाता है, छोटय
जयन्ती - "भगवन् ! मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता जीव को स्वभाव से प्राप्त होती है या परिणाम से ?"
भगवान् - "मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता स्वभाव से है, परिणाम से नहीं ।"
जयन्ती - "क्या सब भवसिद्ध मोक्षगामी हैं ?" भगवान् — “हाँ! जो भवसिद्धक हैं, वे सब मोक्षगामी हैं ।"
जयन्ती -- "भगवन् ! यदि सब भवसिद्धक जीवों की मुक्ति हो जायेगी, तो क्या यह संसार भवसिद्धक जीवों से रहित हो जायेगा ?”
संसार में संसार को
भगवान् — “हे जयन्ती, ऐसा तुम क्यों कहती हो ? जैसे सर्वाकाश की श्रेणी हो, वह आदि अनन्त हो, वह दोनों ओर से परिमित और दूसरी श्रेणियों से परिवृत हो, उसमें समय-समय पर एक परमाणु पुद्गल खंड
१- इसका पूरा पाठ भगवतीसूत्र सटीक शतक १, उद्देशः ६, सूत्र ७३ पत्र १६७ में आता है । उस सूत्र के अन्त में ( पत्र १६८ ) पाठ आता है:
पसत्या चत्तारि अपसत्था चत्तारि
अर्थात् चार १ हलकापन, २ और ४ संसार का उलंघन करना भारीपन २ संसारपने को बढ़ाना, भ्रमना अप्रशस्त हैं; क्योंकि वे
इसकी टीका करते हुए अभयदेव सूरि ने लिखा है: - 'पसत्या चत्तारि चि लघुत्वपरीतत्वहस्वत्वव्यतित्रजनदंडकाः प्रशस्ताः मोक्षङ्गत्वात्, 'अपसत्था चचारि ' ति गुरुत्वाकुलत्व दीर्घत्वानुपरिवर्त्तन दण्डकाः अप्रशस्ता श्रमोक्षाङ्ग त्वादिति
संसार का घटाना, ३ प्रशस्त है; क्योंकि वे ३ संसार का लम्बा अमोक्ष के अंग हैं ।
--c
संसार का छोटा करना मोक्ष के अंग हैं और १ करना और ४ संसार में
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३०
तीर्थंकर महावीर
काढता काढता अनन्त उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी व्यतीत कर दे; पर फिर भी वह श्रेणी खाली नहीं होने की, इसी प्रकार, हे जयन्ती, भवसिद्धक जीवों के सिद्ध होने पर भी यहाँ संसार भवसिद्धकों से खाली नहीं होने का ।"
जयन्ती — "सोता हुआ अच्छा है या जागता हुआ अच्छा है ?"
भगवान् - "कितने जीवों का सोना अच्छा है और कितने जीवों का जागना अच्छा है ।"
जयन्ती - "यह आप कैसे कहते हैं कि, कितने जीवों का सोना अच्छा दे और कितने जीवों का जागना अच्छा है ?”
भगवान् — “हे जयन्ती ! जो जीव अधार्मिक है, अधर्म का अनुसरण करता है, अधर्म जिसे प्रिय है, अधर्म कहनेवाला है, अधर्म का देखनेवाला है, अधर्म में आसक्त है, अधर्माचरण करनेवाला है, अधर्मयुक्त जिसका आचरण है, उसका सोना अच्छा है । ऐसा जीव जब सोता रहता है तो बहुत से प्राणों के, भूतों के, जीवों के, और सत्त्वों के शोक और परिताप का कारण नहीं बनता । जो ऐसा जीव सोता हो, तो उसकी अपनी और दूसरों की बहुत-सी अधार्मिक संयोजना नहीं होती । इसलिए ऐसे जीवों का सोना अच्छा है ।
"और, हे जयन्ती ! जो जीव धार्मिक और धर्मानुसारी हैं तथा धर्मयुक्त जिसका आचरण है, ऐसे जीवों का जागना ही अच्छा है । जो ऐसा जीव जागता है तो बहुत-से प्राणियों के अदुःख और अपरिताप के लिए कार्य करता है । जो ऐसा जीव जागता हो तो अपना और अन्य लोगों के लिए धार्मिक संयोजना का कारण बनता है । ऐसे जीव का जागता रहना अच्छा है ।
" इसीलिए मैं कहता हूँ कि कुछ जीवों का सोता रहना अच्छा है और कुछ का जागता रहना ।”
जयन्ती — “भगवन् ! जीवों की दुर्बलता अच्छी है या सबलता ?”
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जयन्ती की प्रत्रज्या
३१ भगवान्-"कुछ जीवों की सबलता अच्छी है, और कुछ जीवों की दुर्बलता अच्छी है ।" ___ जयन्ती-“हे भगवन् ! यह आप कैसे कहते हैं कि, कुछ जीवों की दुर्बलता अच्छी है और कुछ की सबलता ?"
भगवान् - "हे जयन्ती ! जो जीव अधार्मिक हैं और जो अधर्म से जीविकोपार्जन करते हैं, उन जीवों के लिए दुर्बलता अच्छी है । जो यह दुर्बल हो तो दुःख का कारण नहीं बनता।
__ "जो जीव धार्मिक है उसका सबल होना अच्छा है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि कुछ की दुर्बलता अच्छी है, कुछ को सबलता !"
जयन्ती- "हे भगवन् ! जीवों का दक्ष और उद्यमी होना अच्छा है या आलसी होना ?"
भगवान्-"कुछ जीवों का उद्यमी होना अच्छा है और कुछ का आलसी होना ।"
जयन्ती--"हे भगवन् ! यह आप कैसे कहते हैं कि कुछ का उद्यमी होना अच्छा है और कुछ का आलसी होना ?"
भगवान्--"जो जीव अधार्मिक है और अधर्मानुसार विचरण करता है उसका आलसी होना अच्छा है । जो जीव धर्माचरण करते हैं उनका उद्यमी होना अच्छा है; क्योंकि धर्मपरायण जीव सावधान होता है, तो वह आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान ( रुग्ण), शैक्ष, गण, संघ और सधार्मिक का बड़ा वैयावृत्य ( सेवा-सुश्रुषा) करता है ।' ___ जयन्ती- "हे भगवान् ! श्रोत्रेन्द्रिय के वशीभूत पीड़ित जोव क्या कर्म बाँधता है ?" - भगवान्-"क्रोध के वश में हुए के सम्बन्ध में मैं बता चुका हूँ कि वह संसार में भ्रमण करता है। इसी प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय के वशीभूत जीव
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३२
तीर्थकर महावीर
ही नहीं, चक्षुइन्द्रिय से स्पर्श इन्द्रिय तक पाँचों इन्द्रियों का वशीभूत
जीव संसार में भ्रमता है ।"
भगवान् के उत्तर से सन्तुष्ट होकर जयन्ती ने प्रव्रज्या ले ली ।
सुमनोभद्र और सुप्रतिष्ठ की दीक्षा
वहाँ से ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भगवान् श्रावस्ती आये । इसी. अवसर पर सुमनोभद्र और सुप्रतिष्ठ ने दीक्षा ली ।
सुमनोभद्र ने वर्षों तक साधु-धर्म का पालन किया और विपुल पर्वत ( राजगृह ) पर मुक्ति प्राप्त की ।
सुप्रतिष्ठ ने २७ वर्षों तक साधु-धर्म पाल कर विपुल पर्वत ( राजगृह ) पर मोक्ष प्राप्त किया । ३
आनन्द का श्रावक होना
वहाँ से ग्रामानुग्राम विहार कर भगवान् वाणिज्य ग्राम गये । वहाँ आनन्द-नामक गृहपति ने श्रावकक-धर्म स्वीकार किया । उसका विस्तृत वर्णन हमने मुख्य श्रावकों के प्रसंग में किया है । भगवान् ने अपना चातुर्मास वाणिज्यग्राम में बिताया ।
१- पंच इंदियत्था पं० तं० – सोर्तिदियत्थे जाव फासिदियत्थे
-ठाणांगसूत्र, ठाणा ५, उद्देशः ३, सूत्र ४४३ पत्र ३३४-२ इन्द्रियों के विषय पाँच हैं:- १ श्रोत्रेन्द्रिय का विषय - शब्द, २ चक्षुरिन्द्रिय का विषय रूप, ३ घ्राणेन्द्रिय का विषय गन्ध, ४ जिह्वेन्द्रिय का विषय रस और स्पर्शनेन्द्रिय का विषय स्पर्श ।
२ - भगवतीसूत्र सटीक, शतक १२, उद्देशः २, पत्र १०२० -१०२८ ।
३ - अन्तगढ श्रणुत्तरोववाइयदसाओ ( एन्० वी० वैद्य - सम्पादित ) पृष्ठ ३४
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१६-वाँ वर्षावास धान्यों की अंकुरोत्पत्ति-शक्ति
वर्षावास बीतने के पश्चात् भगवान् ने वाणिज्यग्राम से मगध-देश को ओर विहार किया और ग्रामानुग्राम रुकते हुए तथा धर्मोपदेश देते हुए राजगृह के गुणशिलक-चैत्य में पधारे । राजा आदि उनका धर्मोपदेश सुनने गये। __इस अवसर पर गौतम स्वामी ने भगवान् से पूछा- "हे भगवन् ! शालि', व्रीहि', गोधूम (गेहूँ), यव और यवयव धान्य यदि कोठले में हों ( 'कोहाउत्ताणं' त्ति कोष्ठे-कुशूले, आगुप्तानि-तत्प्रेक्षेपणेन संरक्षणेन
१-'सालीणं' ति कलमादीनां-भगवतीसूत्र सटीक शतक ६, उ० ७ पत्र ४६६ । 'कलम' का अर्थ करते हुए 'आप्टेज संस्कृत-इंग्लिश-डिक्शनरी, भाग १, पृष्ठ ५४५ पर लिखा है कि यह चावल मई-जून में बोया जाता है तथा दिसम्बरजनवरी में तैयार होता है। श्रीमद्वालमीकीय रामायण, किष्किन्धाकांड, सर्ग १४, श्लोक १५ में आता है
प्रसूतं कलमं क्षेत्रे वर्षेणेव शतक्रतुः' (पृष्ट ३४२)
अभिधान-चिन्तामणि सटीक भूमिकाण्ड, श्लोक २३५ पष्ठ ४७१ में शालि और कलम समानार्थी बताये गये हैं । वहाँ आता है :
शालयः कलमाद्यासुः कलमस्तु कलामकः ।
लोहितो रक्तशालिः स्याद् महा शालि सुगन्धिकः ॥ २- 'व्रीहि' ति सामान्यतः-भगवतीसूत्र सटीक, पत्र ४६६ । साधारण धान
३-'जवजवाणं' ति यवविशेषणाम्-भगवतीसूत्र सटीक पत्र ४६६, अमोलक ऋषि ने इसका अर्थ ज्वार लिखा है ( भगवती सूत्र, पत्र ८२२)
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तीर्थङ्कर महावीर संरक्षितानि कोष्ठागुतानि), बाँस की बनी डाल में हों ('पल्लाउत्ताणं' त्ति इह पल्यो-वंशादिमयो धान्याधारविशेषः) मचान पर हों, मकान के ऊपर के भाग में हों ( 'मंचाउत्ताणं मालाउत्ताणं' मित्यत्र मञ्चमालयोर्भेदः "अक्कुड्ड होइ मंचो, य घरोवरि होति"-अभित्तिको मञ्चो मालश्च गृहोपरि भवति) अंदर रख कर द्वार पर गोबर से लीप दिया गया हो ('ओलित्ताणं' ति द्वारदेशे पिधानेन सह गोमयादिनाऽवलिप्तानाम् ), रखकर पूरा गोबर से लीप दिया गया हो ('लित्ताणं' तिसर्वतो गोमयादिनैव लिप्तानां), रखकर ढंक दिया गया हो ('पिहियाणं' ति स्थगितानां तथा विधाच्छादनेन ), मुद्रित कर दिया गया हो ( 'मुद्दियाणं' ति मृत्तिकादि मुद्रावतां), लांछित कर दिया गया हो ('लंछियाणं' ति रेखादि कृत लाञ्छनानां) तो उनमें अंकुरोत्पत्ति की हेतुभूत शक्ति कितने समय तक कायम रहेगी ?" .. भगवान्-“हे गौतम ! उनकी योनि कम-से-कम एक अन्तर्मुहूर्त तक कायम रहती है और अधिक-से-अधिक तीन वर्ष तक कायम रहती है । उसके बाद उनकी योनि म्लान हो जाती है, प्रतिध्वंस हो जाती है
और वह बीज अबीज हो जाता है । उसके बाद, हे श्रमणायुष्मन् ! उसकी उत्पादन-शक्तिव्युच्छेद हुई कही जाती है।" ___ गौतम- "हे भन्ते ! कलाय', मसूर, मूंग, उड़द, निष्फाव', कलत्थी, आलिसंदर्ग, अरहर, गोल काला चना ये धान्य पूर्वोक्त विशेषण वाले हों तो उनकी योनि-शक्ति कितने समय तक कायम रहेगी।"
१-'कलाय' त्तिकलाया वृत्तचनकाः इत्यन्ये-भगवतीसूत्र सटीक, पत्र ४६६ २-निफाव' न्ति वल्ला:- भगवतीसूत्र सटीक, पत्र ४६६ एक प्रकारकी दाल
३–'आलिसन्दग' त्ति चंवलक प्रकाराः, चवलका एवान्ये-भगवतीसूत्र सटीक पत्र ४६६
४-'सईण' त्ति तुवरी-भगवती सूत्र सटीक, पत्र ४१६ ५-'पलिमंथग' त्ति वृत्तचनकाः काल चनका इत्यन्ये-भगवतीसूत्र सटीक,
पत्र ४९९
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धान्यों का अंकुरोत्पत्ति-शक्ति
३५
भगवान् - "जो कुछ शालि के लिए कहा, वही इसका भी उत्तर है । इनकी अवधि ५ वर्ष जाननी चाहिए । शेष पूर्व सदृश्य ही है । " गौतम - "अलसी, कुसुंभग, कोदव, कंगु, वरग, राग, कोदूसण, राग, सरसो, मूलगीय ये पूर्वोक्त विशेषण वाले हों तो इनकी योनि कितने काल तक रहेगी ?
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भगवान् - " सात वर्ष तक । शेष उत्तर पूर्व सदृश्य ही है ।
शालिभद्र की दीक्षा
राजगृह में शालिभद्र नामक एक व्यक्ति था । उसके पिता का नाम गोभद्र और माता का नाम भद्रा था । गोभद्र ने भगवान् महावीर के पास दीक्षा ले ली थी औ विधिपूर्वक अनशन करके देवलोक गया था । इस शालिभद्र को ३२ पत्नियाँ थीं और वह बड़े ऐश्वर्य से अपना
१ - ' कुसुंभग' त्ति लट्टा - भगवतीसूत्र सटीक, पत्र ४६६
२ - 'वरग' त्ति वरट्टो - भगवतीसूत्र सटीक, पत्र ४६६ बरें – संस्कृत - शब्दार्थ कौस्तुभ, पृष्ठ ७३८
३- - रालग' ति कङ्ग विशेषः - भगवतीसूत्र सटीक, पत्र ४६६
४ - ' कोदूसरा ' त्ति कोद्रव विशेषः -- भगवतीसूत्र सटीक, पत्र ४६६ ५- 'मूलगबीय' त्ति मूलक बीजानि शाक विशेष बीजानीत्यर्थः - भगवतीसूत्र सटीक, पत्र ४६६
६ - बीजों की योनि-शक्ति का उल्लेख प्रवचन - सारोद्धार सटीक ( उत्तरार्द्ध ) -द्वार १५४, गाथा १६५ - १००० पत्र २६६ - १ से २६७- १ में भी है । धान्यों के सम्बन्ध में श्रावकों के प्रकरण में धन-धान्य के प्रसंग में हमने विशेष विचार किया है । जिज्ञासु पाठक वहाँ देख लें ।
पत्र
- त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र पर्व १०, सर्ग १०, श्लोक ८४ १३३-१, उपदेशमाला सटीक गाथा २० पत्र २५६ तथा भरतेश्वर बाहुबलि - वृत्तिभाग १, पत्र १०७-१ में भी गोभद्र के साधु होने का उल्लेख है ।
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३६
तीर्थङ्कर महावीर दिन व्यतीत करता था। एक बार कोई व्यापारी रत्नकम्बल बेचने आया। वह उन्हें बेचने श्रेणिक के पास ले गया। उन रत्नकम्बलों का मूल्य अधिक होने से श्रोणिक ने उन्हें खरीदने से इनकार कर दिया। घूमताघामता वह व्यापारी शालिभद्र के घर पहुँचा । भद्रा ने सारे रत्नकम्बल खरीद लिये।
दूसरे दिन चिल्लणा ने श्रेणिक से अपने लिए रत्नकम्बल खरीदने को कहा । राजा ने व्यापारी को बुलवाया तो व्यापारी ने भद्रा द्वारा सारे रत्नकम्बल खरीदे जाने की बात कह दी । राजा ने भद्रा के यहाँ आदमी भेजा तो भद्रा ने बताया कि उन समस्त रत्नकम्बलों का शालिभद्र की पत्नियों के लिए पैर-पोंछना बनाया जा चुका है।
राजा को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। राजा ने शालिभद्र को अपने यहाँ बुलवाया; पर शालिभद्र को भेजने के बजाय भद्रा ने 'श्रेणिक को अपने यहाँ आमन्त्रित किया ।
भद्रा ने राजा के स्वागत-सत्कार की पूरी व्यवस्था कर दी।
राजा शालिभद्र के घर पहुँचा। चौथे महले पर वह सिंहासन पर बैठा । राजा शालिभद्र का ऐश्वर्य देखकर चकित रह गया।
शालिभद्र की माता श्रेणिक के आगमन की सूचना देने शालिभद्र के पास सातवें महले पर गयी और बोली-"श्रेणिक यहाँ आया है, उसे देखने चलो।" शालिभद्र ने उत्तर दिया- "इस सम्बन्ध में तुम सब कुछ जानती हो । जो योग्य मूल्य हो दे दो। मेरे आने का क्या काम है ?' इस पर भद्रा ने कहा-"पुत्र, श्रेणिक कोई खरीदने की चीज नहीं है। वह लोगों का और तुम्हारा स्वामी है।"
८-वह नेपाल से आया था-पूर्णभद्र-रचित 'धन्य-शालिभद्र महाकाव्य, पत्र ५५, गद्यबद्ध धन्यचरित्र पत्र २१६-२
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शालिभद्रकी दीक्षा "उसका भी कोई अधिपति है", यह जानकर शालिभद्र बड़ा दुःखी हुआ और उसने महावीर स्वामी से व्रत लेने का निश्चय कर लिया।
पर, माता के अनुरोध पर वह श्रेणिक के निकट आया और उसने विनयपूर्वक राजा को प्रणाम किया । राजा ने उससे पुत्रवत् स्नेह दर्शाया और उसे गोद में बैठा लिया।
भद्रा बोली- "हे देव ! आप इसे छोड़ दें। यह मनुष्य है; पर मनुष्य की गन्ध से इसे कष्ट होता है। उसका पिता देवता हो गया है और वह अपने पुत्र और पुत्रवधुओं को दिव्य वेश अंगराग आदि प्रतिदिन देता है।"
यह सुन कर राजा ने शालिभद्र को विदा किया और वह सातवीं मंजिल पर चला गया। ___शालिभद्र को ग्लानी थी ही, उसी बीच धर्मघोष-नाम के मुनि के उद्यान में आने की सूचना मिली। शालिभद्र उनकी वन्दना करने गया । वहाँ उसने साधु होने का निश्चय कर लिया और अपनी माता से अनुमति लेने घर आया ।
माता ने उसे सलाह दी कि, यदि साधु होना हो तो धीरे-धीरे त्याग करना प्रारम्भ करो।
अतः, वह नित्य एक पत्नी और एक शैया का त्याग करने लगा।
जब इस बार भगवान् महावीर राजगृह आये तो शालिभद्र ने दीक्षा ले ली।'
१-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग १० श्लोक ५७-१८१ पत्र १३२-५-१३६-१; भरतेश्वर-बाहुबलि-वृत्ति, भाग १, पत्र १०६-१११; उपदेशमाला सटीक, तृतीय विश्राम, पत्र २५५-२६१ __इनके अतिरिक्त ठाणांगसूत्र सटीक, उत्तराद्ध पत्र ५१०-१-५१०-२ में भी शालिभद्र की कथा आती है । शालिभद्रके सम्बन्ध में दो चरित्र-ग्रन्थ भी हैं—(१) पूर्णभद्र-रचित 'धन्य-शालिभद्र-महाकाव्य' और ( २ ) शानसागर गणि-रचित गयबद्ध धन्य-चरित्र
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तीर्थङ्कर महावीर
धन्य की दीक्षा
उसी नगर में शालिभद्र की छोटी बहन का विवाह धन्य' - नामक व्यक्ति से हुआ था । उसकी बहन को अपने भाई के वैराग्य और एक-एक पत्नी तथा एक-एक शैय्या के त्याग का समाचार मिला तो वह बहुत दुःखित हुई । उसकी आँखों में आँसू आ गये । उस समय वह अपने पति को स्नान करा रहीं थीं । अपनी पत्नी की आँखों में आँसू देख कर धन्य ने कारण पूछा तो वह बोली - "मेरा भाई शालिभद्र व्रत लेने के विचार से प्रतिदिन एक-एक पत्नी और एक-एक शैया का त्याग कर रहा है ।" सुनकर धन्य ने मजाक में कहा- - "तुम्हारा भाई हीनसत्व लगता है ।" इस पर उसकी पत्नी ने उत्तर दिया – “यदि व्रत लेना सहज है तो आप व्रत क्यों नहीं ले लेते ।”
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धन्य बोला -- "मेरे व्रत लेने में तुम विघ्न-रूप हो । आज वह पूर्ण योग अनुकूल हुआ है । अब मैं भी सत्वर व्रत लूँगा ।" यह सुनकर उसकी पत्नी को बड़ा दुःख हुआ । वह कहने लगी- " नाथ ! मैंने तो मजाक में कहा था । "
पर, धन्य अपने वचन पर दृढ़ रहा । बोला - "स्त्री, धन आदि सत्र अनित्य हैं और त्याज्य हैं। मैं तो अवश्य दीक्षा लूँगा ।"
१ - धन्य - चरित्र (गद्य) में धन्य के पिता का नाम धनसार और माता का नाम शीलवती दिया है ( पत्र १५-२, १६-२ )
२- जगदीशलाल शास्त्री - सम्पादित 'कथा- कोश' ( पृष्ठ ६० ) में धन्य की पत्नी का नाम सुभद्रा लिखा है । पूर्णभद्रगणि-रचित 'धन्यशालिभद्र महाकाव्य' में धन्य की पत्नी का नाम सुन्दरी लिखा है ( पत्र २२ - २ )
३ - श्रीधन्य चरित्र ( गद्य ) पत्र २७३ -२ में धन्य की पत्नी की आँखों से धन्य के कन्धे पर आँसू गिरने का उल्लेख है
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"उष्णा अश्रु विन्दवो धन्यस्य स्कन्ध द्वये पतुः '
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धन्य की दीक्षा
३६ और, भगवान् के राजगृह आने पर धन्य ने भी शालिभद्र के साथ दीक्षा ले ली।
धन्य-शालिभद्र का साधु-जीवन धन्य और शालिभद्र दोनों ही बहुश्रुत हुए और महातप करने लगे। शरीर को किञ्चित् मात्र चिन्ता किये बिना वे पक्ष, मास, द्विमासिक, त्रैमासिक तपस्या करके पारणा करते ।
__ भगवान् महावीर के साथ विहार करते हुए वे एक बार फिर राजगृह आये। उस समय उन दोनों ने एक मास का उपवास कर रखा था। भिक्षा लेने जाने के लिए अनुमति लेने के विचार से वे भगवान् के निकट गये । भगवान् ने कहा-"आज अपनी माता से आहार लेकर पारणा करो।"
शालिभद्र मुनि धन्य के साथ नगर में गये। दोनों भद्रा के द्वार पर जाकर खड़े हो गये। उपवास के कारण वे इतने कृषकाय हो गये थे कि पहचाने भी नहीं जा सकते थे।
भगवान् के दर्शन करने के विचार में भद्रा व्यस्त थी। उसका ध्यान मुनियों की ओर नहीं गया।
उसी समय शालिभद्र को पूर्वभव को माता धन्या नगर में दही और घी बेचती निकली । शालिभद्र को देखकर उसके स्तन से दूध निकलने लगा। उसने मुनियों को वन्दना की और उन्हें भिक्षा में दही दिया ।
वहाँ से लौट कर शालिभद्र भगवान् के पास आये और उन्होंने पूछा-"आप की आज्ञानुसार मैं माता के पास गया। पर, गोचरी क्यों नहीं मिली ?' तब भगवान् ने बताया कि दही देनेवाली वह नारी तुम्हारे पूर्वभव की माता थी।
१-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग १०, श्लोक १३६-१४८ पत्र १३४-२--१३५-१
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तीर्थङ्कर महावीर
. उसके बाद भद्रा भी भगवान् के पास आयी और उसने अपने पुत्र को भिक्षा लेने घर न आने का कारण पूछा। भगवान् ने उसे सारी बात बता दी ।
भद्रा, श्रेणिक राजा के साथ, अपने पुत्र को देखने, वैभारगिरि पर गयी। अपने पुत्र की दशा देखकर वह दहाड़ मार-मार कर रोने लगी । श्रेणिक ने भद्रा को समझाया । श्रेणिकके समझाने पर भद्रा को प्रतिबोध हुआ और भद्रा तथा श्रेणिक दोनों अपने-अपने घर लौट आये ।
४०
धन्य और शालिभद्र दोनों मुनि काल को प्राप्त करके सर्वार्थसिद्धनामक विमान में प्रमोद-रूपी सागर में निमग्न हुए और ३३ सागरोपम के आयुष्य वाले देवता हुए । '
अपना वह वर्षावास भगवान् ने राजगृह में बिताया ।
*:--
१ - त्रिषष्टिशला कापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग १०, श्लोक १४६ - १८१ पत्र १३५-१ से १३६-१
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१७-वाँ वर्षावास भगवान चम्पा में
वर्षावास समाप्त होने के बाद भगवान् ने चम्पा की ओर विहार किया । चम्पा में पूर्णभद्र-नामक यक्षायतन था। भगवान् उस यक्षायतन के उद्यान में टहरे ।
उस समय चम्पा में दत्त-नामक राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम रक्तवती था । दत्त-रक्तवती को महांचन्द्र-नामक पुत्र था। वहीं युवराज था। महाचन्द्र को ५०० पत्नियाँ थी, उनमें श्रीकान्ता प्रमुख थी।
भगवान् के आगमन का समाचार सुनकर राजा दत्त सपरिवार भगवान् की वन्दना करने गया । भगवान् ने धर्मदेशना दी। धर्मदेशना से महाचन्द्र बड़ा प्रभावित हुआ और उसने श्रावकों के व्रतों को स्वीकार किया।
महाचन्द्र बड़ी निष्ठा से श्रावक-व्रतों का पालन करता। एक बार पौषधशाला में धर्मजागरण करते हुए महाचन्द्र को विचार हुआ कि यदि भगवान् चम्पा पधारें तो मैं प्रवजित हो जाऊँ ।
महाचन्द्र की दीक्षा महाचन्द्र का विचार जानकर भगवान् महावीर पुनः चम्पा आये। महाचन्द्र अपने माता-पिता के समझाने पर भी दृढ़ रहा और भगवान् के निकट जाकर उसने प्रव्रज्या ले ली।
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तीर्थङ्कर महावीर प्रव्रज्या लेने के बाद उसने सामायिक आदि तथा ११ अंगों का अभ्यास किया और नाना प्रकार के तप किये। अन्त में एक मास का अनशन करके वह मृत्यु को प्राप्त हुआ और सौधर्मकल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ।'
भगवान् सिन्धु-सौवीर में । उस समय सिन्धु-सौवीर की राजधानी वीतभय में उद्रायण-नामक राजा राज्य करता था। एक दिन पौषधशाला में वह धर्मजागरण कर रहा था, तो उसे विचार हुआ--"धन्य हैं, वे नगर, जहाँ भगवान् पधारते हैं । और, वहाँ के लोगों को भगवान् के वन्दन-पूजन का अवसर मिलता है । भगवान् यदि आते तो मुझे भी उनके दर्शन-वन्दन का अवसर मिलता। उद्रायन के मन का विचार जानकर भगवान् चम्पा से वीतभय गये।
वहाँ जाते समय गर्मी के मौसम और साथी यात्रा में भगवान् के शिष्यों को बड़े कष्ट झेलने पड़े । कोसों तक बस्ती न मिलती। उस समय जब भगवान् अपने भुखे-प्यासे शिष्यों के साथ जा रहे थे, उन्हें तिलों से लदो गाड़ियाँ नजर आयी। साधु-समुदाय देखकर तिलों के मालिक ने तिल देते हुए कहा-"इसे खाकर आप लोग क्षुधा शान्त करें।" पर, भगवान् ने तिल लेने की अनुमति साधुओं को नहीं दी। भगवान् को ज्ञात था कि, वे तिल अचित्त है; पर अचित्त-सचित्त के इस भेद से तो छद्मस्थ साधु अपरिचित थे । अतः आशंका इस आत थी कि यदि तिल.
१-विपाक सूत्र ( डा० पी० एल० वैद्य-सम्पादित) द्वितीय श्रुतस्कंध, अध्ययन ६, पृष्ठ-३
२-उद्रायन के सम्बन्ध में राजाओं के प्रसंग में विशेष सूचनाएँ हैं।
३-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १० सर्ग ११, श्लोक ६१२-६२६ पत्र १५७-१, १५७-२।
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भगवान् सिन्धु-सौवीर में
४३
खाने की अनुमति दे दी जाती तो कालान्तर में छद्मस्थ साधु सचित्त तिल भी खाने लगते ।
इसी विहार में प्यास से व्याकुल साधुओं को एक ह्रद दिखलायी पड़ा। उस हद का जल अचित्त था। पर, भगवान ने उस ह्रद का जल पीने की अनुमति साधुओं को नहीं दी; क्योंकि इसमें भी भय था कि, सचित्तअचित्त का भेद न जानने वाले छद्मस्थ साधुओं में हृद-जल पीने की प्रथा चल पड़ेगी।
अंत में विहार करते हुए भगवान् वाणिज्यग्राम आये और अपना वर्षावास उन्होंने वहीं बिताया।
१-वृहत्कल्पसूत्र साभाष्य वृत्ति सहित, विभाग २, गाथा ६६७-६६६पष्ठ ३१४-३१५
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१८ - वाँ वर्षावास
भगवान् वाराणसी में
वाणिज्यग्राम में वर्षावास पूरा करके भगवान् महावीर ने वाराणसी की ओर प्रस्थान किया । वाराणसी में कोष्ठक चैत्य था । भगवान् उसी चैत्य ठहरे | भगवान् के आने का समाचार सुनकर वाराणसी का राजा जितशत्रु उनकी वन्दना करने गया । हमने राजाओं वाले प्रकरण में इसका उल्लेख किया है ।
चुल्लिनी- पिता और सुरादेव का श्रावक होना
भगवान् के उपदेश से प्रभावित होकर चुल्लिनी-पिता और उसकी पत्नी श्यामा तथा सुरादेव और उसकी पत्नी धन्या ने श्रावक व्रत ग्रहण किये । ये दोनों ही भगवान् के मुख्य श्रावकों में थे प्रकरण में हमने में हमने उनके सम्बन्ध में विशेष प्रकाश डाला हैं ।
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मुख्य श्रावकों के
पुद्गल की प्रव्रज्या
वाराणसी से भगवान् आलभिया गये । आलभिया में शंखवन- नामक
१—उवासगदसाओ ( पी० एल० वैद्य - सम्पादित ) पृष्ठ ३२
२ - वही,
पृष्ठ ३२-३७
३ - वही, पृष्ठ ३८-४०
3- आलभिया की स्थिति के सम्बन्ध में हमने 'तीर्थकर महावीर, भाग १, पृष्ठ २०७ पर विचार किया है।
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पुद्गल को प्रवज्या
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उद्यान था । आलभिया के राजा का भी नाम जितशत्रु था। शंखवन में भगवान् के आने का समाचार सुनकर जितशत्रु भगवान् की वन्दना करने गया ।' ... आलभिया के शंखवन के निकट ही पुद्गल-नामक परिव्राजक रहता था। वह ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि ब्राह्मण-ग्रन्थों में पारंगत था। निरन्तर ६ टंक का उपवास करने से तथा हाथ ऊँचा करके आतापना लेते रहने रहने से शिव राजर्पि के समान उसे विभंग ज्ञान (विपरीत ज्ञाना) उत्पन्न हो गया। ____उस विभंग ज्ञान के कारण वह ब्रह्मलोक कल्प में स्थित देवों की स्थिति जानने और देखने लगा । अपनी ऐसी स्थिति देखकर उसे यह विचार उत्पन्न हुआ--"मुझे अतिशय वाले ज्ञान और दर्शन उत्पन्न हो गये हैं । देवों की जवन्य स्थिति १० हजार वर्षों की है और पीछे एक समय अधिक दो समय अधिक यावत् असंख्य समय अधिक करते उनकी १० सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति होती है। उसके आगे न देवता हैं और न देवलोक ।'
ऐसा विचार कर आतापना-भूमि से नीचे उतर त्रिदंड, कुंडिका • तथा भगवा वस्त्र ग्रहण करके वह आलमिया नगरी में तापसों के आश्रम में गया ।
और, वूम-घूमकर सर्वत्र कहने लगा- "हे देवानुप्रियों! मुझे अति. शय वाले ज्ञान और दर्शन उत्पन्न हुए हैं।" ऐसा कहकर वह अपने मत का प्रचार करने लगा।
___१-उवासगदसाओ [ पी० एल० बैद्य-सम्पादित ] पृष्ठ ४१ । इसका वर्णन हमने राजाओं के प्रकरण में किया है। . . २-तापसों का विस्तृत वर्णन हमने 'तीर्थंकर महावीर', भाग १, पष्ठ ३३६-३४४ में किया हैं। ..
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तीर्थङ्कर महावीर गौतम स्वामी जब भिक्षाटन के लिए गये, तो उन्होंने पुद्गल-सम्बन्धी चर्चा सुनी । भिक्षाटन से लौटकर गौतम स्वामी ने पुद्गल के प्रचार की चर्चा भगवान् से की।
भगवान् ने पुद्गल का प्रतिवाद करते हुए कहा--'देवों की आयुष्यस्थिति कम-से-कम १० हजार वर्ष और अधिक-से-अधिक ३३ हजार सागरोपम की है। उसके उपरान्त देव और देवलोक का अभाव है।
भगवान् महावीर की बात पुद्गल के कानों तक पहुँची तो उसे अपने ज्ञान पर शंका उत्पन्न हो गयी। वह भगवान् के पास शंखवन-उद्यान में गया। उसने उनकी वन्दना की तथा भगवान् का प्रवचन सुनकर संघ में सम्मिलित हो गया।
अन्त में शिवराजर्षि के समान तपस्या करके पुद्गल ने मुक्ति प्रात की।
चुल्लशतक श्रावक हुआ इसी विहार में चुल्लशतक और उसकी स्त्री बहुला ने श्रावक धर्म स्वीकार किया। उनका सविस्तार वर्णन हमने श्रावकों के प्रसंग में किया है। वहाँ से विहार कर भगवान् राजगृह आये ।
भगवान् राजगृह में राजगृह की अपनी इसी यात्रा में भगवान् महावीर ने मंकाती, किंक्रम, अर्जुन, काश्यप को दीक्षित किया। इनका वर्णन अंतगडदसा में..
आता है । अंतगड शब्द की टीका कल्पसूत्र की सुबोधिका-टीका में इस प्रकार दी है :
१-भगवतीसूत्र सटीक शतक ११, उद्देशा १२, सूत्र ४३६ पत्र १०११-१०१३ १-उवासगदसाओ ( पी० एल० वैद्य-सम्पादित ) पंचम अध्ययन, पष्ठ ४१-४२
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भगवान् राजगृह में
अन्तकृत् सर्वदुखानाम् '
समवायांगसूत्र सटीक समवाय १४३ में 'अंतगड " शब्द पर बड़े विपद् रूप में प्रकाश डाला गया है और तद्रूप ही उसकी टीका ठाणांगसूत्र सटीक में की गयी है ।
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૪૭
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अंतो- - विनाशः स च कर्मणस्तत्फल भूतस्य वा संसारस्य कृतो यैस्तेऽन्तकृतः ते च तीर्थकरादयास्तेषां दशाः श्रन्तकृदृशाः । --अर्थात् जो कर्म और उसके फलभूत संसार का विनाश करता है, वह अंतकृत तीर्थंकरादि हैं। और उनकी दशा अंतकृदृशा है । * मंकाती की दीक्षा
यह मंकाती गृहपति था । गंगादत्त के समान इसने अपने सबसे बड़े पुत्र को गृहभार सौंप दिया और स्वयं भगवान् के निकट जाकर साधु हो गया । उसने अन्य साधुओं के साथ सामायिक आदि ११ अंगों का अध्ययन किया । गुणरत्न-संवत्सर- तपकर्म किया । इसे केवल -ज्ञान प्राप्त हुआ । १६ वर्ष पर्याय पालकर विपुल पर्वत पर पादपोपगमन करके सिद्ध हुआ
१ - कल्पसूत्र सुबोधिका टीका सहित, व्याख्यान ६, सूत्र १२४ पत्र ३४४ २ - समवायांगसूत्र सटीक, समवाय १४३, पत्र १११ ११२
३ - ठाणांगसूत्र सटीक, ठाणा १०, उद्देशः ३, सूत्र ७५५ पत्र ५०५-२ तथा ५०७-१
४ -- ठाणांगसूत्र टीका के अनुवाद सहित, विभाग, ४, पत्र १७६-१
५- एल० डी० बानेंट ने अन्तगड अगुत्तरोववाइय के अंग्रेजी अनुवाद में 'गाहा'ई' का अर्थ 'जेंटलमैन' लिखा है । मैंने आनन्द श्रावक के प्रसंग में इस शब्द पर विस्तृत रूप में विचार किया है ।
६ - देखिये समवायांग सटीक, समवाय १४३ पत्र ११२-१, तथा नंदीसूत्र सटीक सूत्र ५३ पत्र २३२-२
७- अंतगड- अरगुत्तरोववाइयदसाओ ( एन०पी० वैद्य सम्पादित )
अंतगड, अध्याय ६, सूत्र ६४-६६ पृष्ठ २६
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तीर्थङ्कर महावीर
किंक्रम की दीक्षा किंक्रम भी राजगृह का निवासी था । इसने भी अपने पुत्र को गृहस्थी सौंपकर भगवान् के निकट जाकर साधु-धर्म स्वीकार किया। सामायिक आदि और ११ अंगों का अध्ययन करके विभिन्न तप किये। केवल ज्ञान प्राप्त किया और विपुल पर्वत पर पादपोपगमन करके सिद्ध हुआ ।'
अर्जुन माली की दीक्षा उसी नगर में अर्जुन-नामक एक मालाकार रहता था। उसकी पत्नी का नाम बन्धुमती था। नगर के बाहर अर्जुन की एक पुष्प-वाटिका थी। उस वाटिका में मुद्गरपाणि ( मुद्गर हाथ में है जिसके, वह यक्ष ) नामक यक्ष का यक्षायतन था । अर्जुन वहाँ नित्य फूल चढ़ाता और मुद्गरपाणि की वंदना करता।
एक दिन अर्जुन अपनी पत्नी के साथ फूल तोड़ने पुष्प वाटिका में गया । उस दिन ६ व्यक्ति पहले से ही मंदिर में छिप गये थे। जब अर्जुन फूल लेकर अपनी पत्नी के साथ लौटा तो उन लोगों ने अर्जुन को पकड़ लिया और उसकी पत्नी के साथ भोग भोगा । अर्जुन को बड़ा दुःख हुआ कि इतने समय से मुद्गरपाणि की पूजा करने के बावजूद में असमर्थ हूँ। मुद्गरपाणि अर्जुन के शरीर में प्रवेश कर गया और यक्ष के बल से अर्जुन ने उन ६ को मार डाला । फिर वह नित्य ६ पुरुषों और १ नारी की हत्या करता । उसके उपद्रव से सभी तंग आ गये ।
अर्जुन माली के इस कृत्य से नगर में आतंक छा गया । पर, उसका कोई उपचार न था ।
उस समय राजगृह में सुदर्शन-नामक श्रेष्ठी रहता था। यह सुदर्शन श्रमणोपासक था । भगवान् के आगमन का समाचार सुनकर सुदर्शन
१-वही, अध्ययन ६, सूत्र ६७ पृष्ठ ३६
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अर्जुन माली की दीक्षा का विचार भगवान् की वन्दना करने के लिए जाने को हुआ। घर वालों ने मुद्गरपाणि यक्ष के भय के मारे उसे मना किया पर वह अपने विचार पर अडिग रहा।
स्नानादि से निवृत्त होकर वह भगवान् का दर्शन करने जा रहा था कि, उसे मुद्गरपाणि यक्ष के प्रभाव से युक्त अर्जुन माली दिखायी पड़ा। अर्जुन मुद्गर लेकर उसे मारने चला; पर उसके आघात का श्रमणोपासक अजुन पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा।
इस घटना के बाद मुद्रपाणि अर्जुन माली को छोड़कर चला गया। मुद्गरपाणि का अर्जुन के शरीर से निकलना था कि, अर्जुन माली भूमि पर गिर पड़ा।
होश में आने पर अर्जुन ने सुदर्शन से पूछा- "आप कौन हैं ?" सुदर्शन ने उसे अपना परिचय देते हुए कहा- "मैं भगवान् का दर्शन करने जा रहा हूँ।”
अर्जुन भी भगवान् को वन्दना करने चल पड़ा और गुणशिलकचैत्य में पहुँचकर उसने भगवान् को परिक्रमा करके उनका वन्दन किया।
भगवान् की धर्मदर्शना से प्रभावित होकर अर्जुन ने दीक्षा ले ली। सामायिक आदि ११ अंगों का अध्ययन किया । वह साधु-धर्म पालना तथा तप करता रहा। उसने केवल-ज्ञान प्राप्त किया और अन्त में पादपोपगमन करके मोक्ष को प्राप्त किया ।'
काश्यप की दीक्षा उसी राजगृह नगर में काश्यप-नामक गृहपति रहता था। उसने भी मंकाती की तरह साधु-व्रत ग्रहण किया और सामायिक आदि तथा ११ अंगों का अध्ययन करके विभिन्न तप करता रहा । केवल-ज्ञान प्राप्त किया
१-वही, सूत्र ६६-१२१, पृष्ठ २६-३३
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५०
तीर्थङ्कर महावीर
और १६ वर्षों तक साधु-धर्म पालकर अंत में विपुल पर्वत पर पादयोपगमन करके मोक्ष गया । "
वारत की दीक्षा
राजगृह में वारत- नामक गृहपति रहता था । अन्यों के समान उसने भी साधु-धर्म ग्रहण किया । सामायिक तथा ११ अंगों का अध्ययन किया और विभिन्न तप किये । केवल-ज्ञान प्राप्त किया । १२ वर्षो तक सांधुधर्म पाल कर मोक्ष को गया । *
भगवान् ने अपना वह वर्षावास राजगृह में बिताया ।
१ - वही, सूत्र १२२, पृष्ठ ३४ २ - वही, सूत्र १२३ पृष्ठ ३४
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१६-वाँ वर्षावास श्रेणिक को भावी तीर्थङ्कर
होने की सूचना
वर्षावास के बाद भी भगवान् धर्म प्रचार के लिए राजगृह में ही ठहरे । एक दिन श्रेणिक भगवान् के पास बैठा था। उसके निकट ही एक कुष्ठी बैठा था। इतने में भगवान् को छींक आ गयी । वह कोढ़ी बोला--"तुम मृत्यु को प्राप्त होगे।” फिर श्रेणिक को छींक आयी, तो कोढ़ी बोला"बहुत दिन जीओगे।" थोड़ी देर बाद अभयकुमार को छींक आयी तो कोढ़ी ने कहा-"जीओ या मरो।" इतने में कालशौरिक छीका । तब कुष्ठी ने कहा-"जीओगे नहीं, पर मरोगे भी नहीं।"
उस कोढ़ी ने भगवान् के लिए मरने की बात कह दी थी, इस पर श्रेणिक को बड़ा क्रोध आया। उसने अपने सुभटों को आज्ञा दी कि कोढ़ी जब उठकर चले तो पकड़ लें । देशना समाप्त हो जाने पर राजा के कर्मचारियों ने उसे घेर लिया; पर क्षण भर में वह आकाश में उड़ गया।
विस्मित होकर श्रेणिक ने भगवान् से पूछा-"यह कुष्ठी कौन था ?" भगवान् ने उस कुष्ठी का परिचय बताया और उसकी छींक-सम्बन्धी टिप्पणियों का विवेचन करते हुए कहा--"उसने मुझसे कहा कि अब तक संसार में रहकर क्या कर रहे हो । शीघ्र मोक्ष जाओ।
"तुम्हें कहा-'जीओ', इसका अर्थ है कि तुम्हें जीते जी ही सुख है। मरने के बाद तो तुम्हें नरक जाना है।
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तीर्थङ्कर महावीर
" अभयकुमार को कहा- -'जीयो या मरो' इसका अर्थ था कि जीतेजी अभयकुमार धर्म कर रहा है, मर कर वह अणुत्तरविमान में जायेगा | "काल - शौरिक को कहा - 'जीओ नहीं; पर मरो भी नहीं, इसका अर्थ था कि, वह अभी तो पाप कर्म कर ही रहा है, मर कर वह ७ - वें नरक में जायेगा ।”
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चिन्ता हुई
श्रेणिक को अपने नरक में जाने की सूचना से बड़ी उसने भगवान् से कहा- "आप - सरीखा मेरा स्वामी और मैं नरक में जाऊँगा ?" भगवान् ने उत्तर दिया - " जो कर्म व्यक्ति बाँधता है, उसे भोगना अवश्य पड़ता है । पर इस पर चिन्ता करने की कोई बात नहीं है । भावी चौत्रीशी में तुम महापद्म-नामके प्रथम तीर्थंकर होगे ।'
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श्रेणिक ने भगवान् से पूछा - "नरक जाने से बचने का कोई उपाय है ?" तो, भगवान् बोले - "हे राजन् कपिला - ब्राह्मणी के हाथ हर्ष पूर्वक साधुओं को भिक्षा दिलवाओ और कालशौरिक से कसाई का काम छुड़वा दो तो नरक से तुम्हारी मुक्ति हो सकती है ।
श्रेणिक ने लौट कर कपिला ब्राह्मणी को बुलाया और दान देने के लिए धन देने को कहा । पर, कपिला ने धन मिलने पर भी भिक्षा देना स्वीकार नहीं किया ।
१ – श्रेणिक के उस भव का विस्तृत विवरण ठाणांगसूत्र सटीक, उत्तरार्द्ध, ठाणा ६, ३०३ सूत्र ६६३ पत्र ४५८-२ से ४६८-२ तक मिलता है ।
ठाणांग के उसी सूत्र में उसके दो अन्य नाम भी दिये हैं- (१) देवसेन और (२) विमल वाहन, प्रवचनसारोद्धार सटीक, द्वार ७, गाथा २६३ पत्र ८० - १ तथा त्रिपष्टिशला कापुरुषचरित्र पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक १४२ पत्र १२३ - २ में उसका नाम पद्मनाभ दिया है ।
२ - आवश्यक चूर्णि उत्तराद्ध पत्र १६६ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक ४४४-१४५ पत्र १२३ - २ तथा योगशास्त्र सटीक, प्रकाश २, पत्र ६१-१-६४-२ में भी इसका उल्लेख है ।
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श्रेणिक को भावी तीर्थकर होने की सूचना ५३ राजा ने कालशौरिक को बुलाया; पर उसने भी कसाई का काम छोड़ना अस्वीकार कर दिया । राजा ने उसे अंधकूप में डलवा दिया; पर वहाँ भी मिट्टी के ५०० भैसे बनाकर उसने हिंसा की। ___इसी काल में इन्द्र ने एक दिन अपनी सभा में कहा- "इस समय श्रेणिक से श्रद्धालु श्रावक कोई नहीं है। एक देव उसकी परीक्षा लेने आया और श्रेणिक की निष्ठा से प्रसन्न होकर उसने १८ लड़ी का हार आदि श्रेणिक राजा को अर्पित किये। वैशाली पर कृणिक के आक्रमण के कारणों में ये देवता प्रदत्त वस्तुएँ ही थीं। हमने राजाओं के प्रकरण में इनका वर्णन किया है।
श्रेणिक राजा ने इसी बीच राजपरिवार में तथा मंत्रियों और सामन्तों के बीच घोषणा की-"जो कोई भगवान् के पास प्रव्रज्या लेगा, उसे मैं रोऊँगा नहीं।
श्रेणिक के पुत्रों की दीक्षा श्रेणिक की इस घोषणा का यह प्रभाव पड़ा कि, कितने ही नागरिकों के साथ-साथ जालि, मयालि, उववालि, पुरुषसेन, वारिषेण, दीर्घदन्त, लदन्त, वेहल्ल, वेहास, अभय, दीर्घसेन, महासेन, लष्ठदंत, गूढ़दन्त, शुद्ध दन्त, हल्ल, द्रुम, द्रुमसेन, महाद्रुमसेन, सिंह, सिंहसेन, महासिंहसेन, घृणसेन श्रेणिक के २३ पुत्रों ने तथा नंदा, नंदमति, नंदोत्तरा, नंदसेणिया,
१-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक १५८-१६५ पत्र २२४.१
२-चउपन्नमहापुरिसचरियं, पृष्ठ ३१७-३२०
आवश्यकचूर्णि, उत्तराद्ध, पत्र १७०, योगशास्त्र सटीक, प्रकाश २, श्लोक १०१ पत्र ९४-१
३-गुणचन्द्र-रचित 'महावीर चरियं', पत्र ३३४.१ ४-अणुत्तरोववाइय ( मोदी-सम्पादित ), पष्ठ ६६ ५-अरगुत्तरोववाश्य ( मोदी-सम्पादित ), पष्ठ ६६
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तीर्थकर महावीर महया, सुमरुता, महामरुता, मरुदेवा, भद्रा, सुभद्रा, सुजाता, सुमना,, भूतदत्ता--नामक श्रेणिक की १३ रानियों ने प्रव्रजित होकर भगवान् के संघ में प्रवेश किया ।'
आर्द्रककुमार और गोशालक उसी समय आर्द्रक मुनि भगवान् का वंदन करने गुणशिलक-चैत्य की ओर आ रहे थे । रास्ते में उसकी भेंट विभिन्न धर्मावलम्बियों से हुई । सबसे पहले आजीवक-सम्प्रदाय का तत्कालीन आचार्य गोशालक मिला। गोशालक ने आर्द्रककुमार से कहा
"हे आर्द्रक ! श्रमण (महावीर स्वामी ) ने पहले क्या किया है, उसे सुन लो । वह पहले एकान्त में विचरने वाले थे। अब वह अनेक भिक्षुओं को एकत्र करके धर्मोपदेश देने निकले हैं। इस प्रकार उस अस्थिर व्यक्ति का वर्तमान आचरण उनके पूर्वव्रत से विरुद्ध है।"
यह सुनकर आर्द्रककुमार बोला-"भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों स्थितियों में उनका अकेलापन तो है ही । संसार का सम्पूर्ण स्वरूप समझ कर त्रस-स्थावर जीवों के कल्याण के लिए हजारों के बीच उपदेश देने वाला श्रमण या ब्राह्मण एकान्त ही साधता है ; क्योंकि उसकी आन्तरिक वृत्ति तो समान ही रहती है ।” और, फिर आर्द्रककुमार ने श्रमण के सम्बन्ध में अपनी मान्यता गोशालक को बताते हुए कहा-"यदि कोई स्वयं क्षान्त (क्षमाशील), दान्त ( इन्द्रियों को दमन करने वाला), जितेन्द्रिय हो, वाणी के दोष को जानने वाला और गुणयुक्त भाषा का प्रयोग करने वाला हो तो उसे धर्मोपदेश देने मात्र से कोई दोष नहीं लगता। जो महाव्रतों (साधु-धर्म), अणुव्रतों (श्रावक-धर्म), कर्म-प्रवेश के पाँच
१-अंतगडदसाओ (मोदी-सम्पादित) पृष्ठ ५१
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आर्द्रकुमार और गोशालक
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आश्रव-द्वार ( पाँच महा पाप ) और सँवर - विरति आदि श्रमणधर्मों को जानकर कर्म के लेश मात्र से दूर रहता है, उसे मैं श्रमण कहता हूँ ।"
गोशालक — "हमारे सिद्धान्त के अनुसार ठंडा पानी पीने में, बीज आदि धान्य खाने में, अपने लिए तैयार किये आहार खाने में और स्त्रीसम्भोग में अकेले विचरने वाले साधु को दोष नहीं लगता ।”
आर्द्रक - "यदि ऐसा हो तो वह व्यक्ति गृहस्थ से भिन्न नहीं होगा । गृहस्थ भी इन सब कामों को करते हैं । इन कर्मों को करने वाला वस्तुतः श्रमण ही न होगा । सचित्त धान्य खानेवाले और सचित्त जल पीने वाले भिक्षुओं को तो मात्र आजीविका के लिए भिक्षु समझना चाहिए। मैं ऐसा मानता हूँ कि संसार का त्याग कर चुकने पर भी वे संसार का अंत नहीं कर सके । "
गोशालक - " ऐसा कहकर तो तुम समस्त वादियों का तिरस्कार करते हो ।"
आर्द्रक — "सभी वादी अपने मत की प्रशंसा करते हैं । श्रमण और ब्राह्मण जब उपदेश करते हैं तो एक दूसरे पर आक्षेप करते हैं । उनका कहना है कि तत्त्व उन्हीं के पास है । पर, हम लोग तो केवल मिथ्या मान्यताओं का प्रतिवाद करते हैं । जैन-निर्गथ दूसरे वादियों के समान किसी के रूप का परिहास करके अपने मत का मंडन नहीं करते । किसी भी स-स्थावर जीव को कष्ट न हो, इसका विचार करके जो संयमी अति सावधानी से अपना जीवन व्यतीत कर रहा हो, वह किसी का तिरस्कार क्यों करेगा ?"
गोशालक - " आगंतगार ( धर्मशाला ) और आरामगार ( बगीचे में बने मकान ) में अनेक दक्ष तथा ऊँच अथवा नीच कुल के बातूनी तथा चुप्पे लोग होंगे, ऐसा विचार करके तुम्हारा श्रमण वहाँ नहीं ठहरता है I श्रमण को भय बना रहता है कि, शायद वे सब मेधावी, शिक्षित और
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तीर्थङ्कर महावीर
बुद्धिमान हों । उनमें सूत्रों और उनके अर्थ के जानने वाले भिक्षु यदि कोई प्रश्न पूछ देंगे तो उनका मैं क्या उत्तर दूँगा ?"
आर्द्रक - "वह श्रमण प्रयोजन अथवा विचार के बिना कुछ नहीं करते । राजा आदि का बल उनके लिए निःफल है । ऐसा मनुष्य भा किसका भय मानेगा ? ऐसे स्थानों पर श्रद्धा-अनार्य लोग अधिक होते हैं, ऐसी शंका से हमारे श्रमण भगवान् वहाँ नहीं जाते । परन्तु आवश्यकता पड़ने पर वह श्रमण आर्यपुरुषों के प्रश्नों का उत्तर देते हैं ।”
गोशालक - "जैसे कोई व्यापारी लाभ की इच्छा से माल बिछाकर मोड़ एकत्र कर लेता है, मुझे तो तुम्हारा ज्ञातपुत्र भी उसी तरह का व्यक्ति लगता है ।"
आर्द्रक — " वणिक्-व्यापारी तो जीवों की हिंसा करते हैं । वे ममत्व युक्त परिग्रह वाले होते हैं और आसक्ति रखते हैं। धन की इच्छा वाले, स्त्री- भोग में तल्लीन और काम-रस में लोलुप अनार्य भोजन के लिए दूरदूर विचरते हैं । अपने व्यापार के अर्थ वे भीड़ एकत्र करते हैं; पर उनका लाभ तो चार गतियों वाला जगत है; क्योंकि आसक्ति का फल तो दुःख ही होता है । उनको सदा लाभ ही होता हो, ऐसा भी नहीं देवा जाता । जो लाभ होता भी है, तो वह भी स्थायी नहीं होता है । उनके व्यापार में सफलता और असफलता दोनों होती है ।
"पर, ज्ञानी श्रमण तो ऐसे लाभ के लिए साधना करते हैं, जिसका आदि होता है, पर अंत नहीं होता । सब जीवों पर अनुकम्पा करने वाले, धर्म में स्थित और कर्मों का विवेक प्रकट करने वाले, भगवान् की जो तुम व्यापारी से तुलना करते हो, यह तुम्हारा अज्ञान है ।
"नये कर्म को न करना, अबुद्धि का त्याग करके पुराने कर्मों को नष्ट कर देना - ऐसा उपदेश भगवान् करते हैं । इसी लाभ की इच्छा वाले, वे श्रमण हैं, ऐसा मैं मानता हूँ ।
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आर्द्रककुमार और बौद्ध
आर्द्रकुमार और बौद्ध
गोशालक के बाद आर्द्रककुमार को बौद्ध मिला । बौद्ध भिक्षु ने कहा- - "खोल के पिंड को मनुष्य जानकर यदि कोई व्यक्ति उसे भाले से छेद डाले और अग्नि पर पकाये अथवा कुम्हड़े को कुमार मानकर ऐसा करे तो मेरे विचार से उसे प्राणिव का पाप लगता है । परन्तु, खोल का पिंड जान कर यदि कोई श्रावक उसे भाले से छेड़े अथवा कुम्हड़ा मानकर किसी कुमार को छेदे और उसे आग पर सेंके तो मेरे विचार से उसे पाप नहीं लगेगा । बुद्ध दर्शन में विश्वास रखनेवाले को ऐसा मांस कल्पता है । हमारे शास्त्र का ऐसा मत है कि, नित्य दो हजार स्नातकभिक्षुओं को भोजन करानेवाले मनुष्य महान् पुण्य स्कंधों का उपार्जन करके महासत्त्ववेत आरोग्य देव' होते हैं ।
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आर्द्रक-जीवों की इस प्रकार हिंसा तो किसी सुसंयमी पुरुष को शोभा नहीं देती । जो ऐसा उपदेश देते हैं और जो ऐसा स्वीकार करते हैं, वे दोनों अज्ञान और अकल्याण को प्राप्त होते हैं । जिसे संयम से प्रमाद - रहित रूप में अहिंसा-धर्म-पालन करना है, और जो त्रस - स्थावर जीवों को ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक - लोक में समझता है, वह क्या तुम्हारे कथनानुसार करेगा अथवा कहेगा ? जो तुम कहते हो वह संभव नहीं है—खोल के पिंड को कौन मनुष्य मान लेगा ?
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ही ऐसा कह सकते हैं । पिंड से कहना ही असत्य है । ऐसी वाणी हो । ऐसे वचन गुणहीन होते हैं
" क्या किसी पिंड को मनुष्य मान लेना सम्भव है ? अनार्य पुरुष मनुष्य की कल्पना कैसे होगी — ऐसा नहीं बोलनी चाहिए, जिससे बुरायी कोई दीक्षित व्यक्ति उन्हें नहीं बोलता ।
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१ - बौद्ध मतानुसार 'अरूपधातु' सर्वोच्च स्वर्ग है । दीर्घनिकाय ( हिन्दी ) में पृष्ठ १११, अरूप भव का अर्थ निराकार लोक दिया है ।
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तीर्थकर महावीर "हे शाक्यदार्शनिक ! तुम पूरे ज्ञाता दिखलायी पड़ते हो। तुमने कर्म-विपाक पर पूरी तरह विचार कर लिया है। इसी विज्ञान के फलस्वरूप तुम्हारा यश पूर्व और पश्चिम समुद्र तक विस्तार प्राप्त कर चुका है। तुम तो (ब्राह्माण्ड को) हथेली पर देखते हो।
___“जीव का जो अणुभाग है, उन्हें जो पीड़ा-रूप दुःख हो सकता है, उस पर भली प्रकार विचार करके (जैन-साधु ) अन्न-पानी के सम्बन्ध में विशुद्धता का ध्यान रखते हैं। तीर्थकर के सिद्धान्तों को मानने वाले साधुओं का ऐसा अणुधर्म है कि, वह गुप्त रूप में भी पाप नहीं करते ।
"जो व्यक्ति २ हजार स्नातक साधुओं को नित्य जिमाता है, तुम कहते हो, उसे पुण्य होता है; पर वह तो रक्त लगे हाथों वाला है। उसे इस लोक में निन्दा मिलती है और परभव में उसकी दुर्गति होती है।
"मोटे-मेढ़े को मार कर उसके मांस में नमक डाल कर, तेल में तलकर, पोपल डालकर तुम्हारे लिए भोजन तैयार किया जाता है।
"तुम लोग इस प्रकार भोजन करते थके, भोग भोगते थके और फिर भी कहते हो कि तुम्हें पाप-रूप रज स्पर्श नहीं होता । यह अनार्य-धर्मी है । अनाचारी बाल और अज्ञानी रसगृद्ध ऐसी बातें करते हैं ।
"जो अज्ञानी इस प्रकार मांस भोजन करते हैं, वे केवल पाप का सेवन करते हैं । कुशल पंडित ऐसा कोई कार्य नहीं करते । इस प्रकार की बालें ही असत्य हैं।
"एकेन्द्रियादिक सभी जीवों के प्रति दया के निमित्त उसे महादोषरूप जानकर ऐसा कार्य नहीं करते। हमारे धर्म के साधुओं का ऐसा आचरण है।
"ज्ञातपुत्र के अनुयायी, जो पाप है, उसका त्याग करते हैं । इसलिए वे अपने लिए बनाये भोजन को ग्रहण नहीं करते ।”
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आर्द्रककुमार और वेदवादी
आर्द्रककुमार और वेदवादी उसके बाद आद्रककुमार को वेदवादी द्विज मिला । वेदवादी द्विज ने कहा-"जो हमेशा दो हजार स्नातक-ब्राह्मणों को जिमाता है, वह पुण्य राशि प्राप्त करके देव बनता है, ऐसा वेद-वाक्य है।"
आर्द्रक-बिल्ली की भाँति खाने की इच्छा से घर-घर भटकने वाले दो हजार स्नातकों को जो खिलाता है, वह नरकवासी होकर फाड़ने चीरने को तड़पते हुए जीवों से भरे हुए नरक को प्राप्त होता है—देवलोक को नहीं । दयाधर्म को त्याग कर हिंसा-धर्म स्वीकार करने वाले शील से रहित ब्राह्मण को भी जो मनुष्य भोजन कराये, वह एक नरक से दूसरे नरक में भटकता फिरता है । उसे देवगति नहीं प्राप्त होगी।"
___ आर्द्रककुमार और वेदान्ती वेदवादी के पश्चात् आईककुमार को वेदान्ती मिला। उस वेदान्ती ने कहा- "हम दोनों एक ही समान धर्म को मानते हैं, पहले भी मानते थे और भविष्य में भी मानेंगे। हम दोनों के धर्म में आचार-प्रधान शील और ज्ञान को आवश्यक कहा गया है। पुनर्जन्म के सम्बन्ध में भी हम दोनों में मतभेद नहीं है।
"परन्तु हम एक लोक व्यापी, सनातन, अक्षय और अव्यय आत्मा को मानते हैं । वही सब भूतों में व्याप रहा है, जैसे चन्द्र तारों को।"
आर्द्रक-"यदि ऐसा ही हो तो फिर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और प्रेष्य [ दास ], इसी प्रकार, कोड़े, पक्षी, साँप, मनुष्य और देव-सरीखे भेद न रहेंगे । इसी प्रकार विभिन्न सुखों और दुःखों का अनुभव करते हुए वे इस संसार में भटके ही क्यों ?
"केवल ( सम्पूर्ण) ज्ञान से लोक का स्वरूप स्वयं जाने बिना जो दूसरों को धर्म का उपदेश देते हैं, वे स्वयं अपने को और दूसरों को क्षति
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तीर्थङ्कर महावीर
पहुचाते हैं । सम्पूर्ण ज्ञान - लोक का स्वरूप समझ कर और पूर्ण ज्ञान से समाधि युक्त होकर जो सम्पूर्ण धर्म का उपदेश देते हैं, वे स्वयं तरते हैं और दूसरों को भी तारते हैं ।
" हे आयुष्मन् ! इस प्रकार तिरस्कार करके योग्य ज्ञान वाले वेदान्तियों को और सम्पूर्ण ज्ञान, दर्शन तथा चरित्र से सम्पन्न जिनों को अपनी समझ से - समान कह कर, तुम स्वयं अपनी ही विपरीतता प्रकट कर रहे हो ।
आर्द्रककुमार और हस्तितापस
उसके बाद उसे हस्तितापस मिला । हस्तितापस ने कहा- - "एक वर्ष में एक महाराज को मार कर शेत्र जीवों पर अनुकम्पा करके हम एक वर्ष -तक निर्वाह करते हैं ।"
आर्द्रक - एक वर्ष में एक जीव को मारते हो, तो तुम दोष से निवृत्त नहीं माने जा सकते, चाहे भले ही तुम अन्य जीवों को न मारो। अपने लिए एक जीव का वध करने वाले तुम और गृहस्थों में क्या भेद है ? तुम्हारे समान अहित करने वाले व्यक्ति केवल- ज्ञानी नहीं हो सकते । "
वनैले हाथी का शमन
हस्तिपसों को निरुत्तर करके स्वप्रति बोधित ५०० चोरों आदि को साथ लिये आर्द्रक मुनि आगे बढ़ रहे थे कि रास्ते में एक जंगली हाथी मिला । सब बहुत घबड़ाये; पर वह हाथी आर्द्रककुमार के निकट पहुँच कर विनीत शिष्य की भाँति नतमस्तक हो बन की ओर भाग गया ।
उक्त घटना को सुनकर राजा श्रेणिक आर्द्रककुमार के पास गया और हाथी के बन्धन तोड़ने का कारण पूछा। उत्तर में आर्द्रक मुनि ने कहा——“हे श्रेणिक ! वनहस्ती का बन्धन मुक्त होना मुझको उतना दुष्कर नहीं लगता, जितना तकुये के सूत का ( स्नेह-पाश ) पाश तोड़ना । "
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बनैले हाथी का शमनं श्रेणिक ने इसका कारण पूछा तो आद्रक कुमार ने तत्सम्बन्धी पूरी कथा कड् मुनायी।
- उसके बाद आद्रकमुनि भगवान् महावीर के पास गये और उन्होंने भक्ति पूर्वक उनका वंदन किया। भगवान् के आर्द्रक मुनि द्वारा प्रतिबोधित राजपुत्रों और तापसादि को प्रव्रज्या देकर उन्हीं के सुपुर्द किया । अपना वह वर्षावास भगवान् ने राजगृह में बिताया।
आर्द्रककुमार का पूर्व प्रसंग समुद्र के मध्य में अनाय देश में, आईक-नाम का एक देश था। उसी नामकी उसकी राजधानी थी । उस देश में आर्द्रक नामक राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम आर्द्रका था। और, उसके पुत्र का नाम आर्द्रककुमार था।
अनुक्रम से आद्रककुमार युवा हुआ। एक बार श्रेणिक राजा ने पूर्व परम्परा के अनुसार आर्द्र क राजा को भेंट भेजी। उस समय आर्द्रककुमार अपने पिता के पास बैटा था । श्रेणिक की भेंट देखकर आर्द्रककुमार विचार करने लगा--"यह श्रेणिक राजा एक बड़े राज्य का मालिक है। यह मेरे पिता का मित्र है । यदि उसे कोई पुत्र हो तो मैं उसके साथ मैत्री करूँ।" उसने भेंट लाने वाले राजदूतों की महल में बुलवाकर पूछा-- "श्रेणिक राजा को क्या कोई ऐसा सद्गुणी पुत्र है, जिसके साथ मैं मैत्री कर सकूँ ?" आर्द्रककुमार की बात सुन कर वे बोले- "श्रेणिक राजा को बहुत से महाबलवंत पुत्र हैं । उनमें सबसे गुणवान् और श्रेष्ठ अभय
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१-तत्सम्बंधी पूरी कथा 'आर्द्रककुमार के पूर्व प्रसंग' में दी हुई है।
२- सूत्रकृतांगनियुक्ति; टीका-सहित, श्रू० २, अ२ ६, पत्र १३६-१ त्रिाष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ७, श्लोक १७७-१७६ पत्र ६२-२, पर्दूषणाऽष्टाहिका व्याख्यान, श्लोक ५, पत्र ६-१
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६२
तीर्थकर महावीर कुमार हैं।" पूर्वजन्म के अनुराग के कारण अभयकुमार का नाम सुनकर आर्द्रककुमार को बड़ा आनन्द आया ।
आर्द्रककुमार ने उनसे कहा-"जब आप लोग अपने नगर वापस जाने लगे तो अभयकुमार के लिए मेरी भेंट तथा मेरा पत्र लेते जाइयेगा।"
जब वे वापस लौटने लगे तो आर्द्रककुमार ने उनके द्वारा अपनी भेट भेजी, राजगृह पहुँचकर दूतों ने अभयकुमार को आर्द्रककुमार का पत्र और भेंट दिये। अभयकुमार ने पहले भेंट देखी । भेंट में मुक्तादि देखकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुई । फिर, उसने पत्र पढ़ा। पत्र पढ़कर अभयकुमार को लगा-- "निश्चय ही पत्र भेजने वाला कोई आसन्नसिद्धि वाला व्यक्ति है कारण कि, बहुल-कर्मी जीव तो मेरे साथ मैत्री करने से रहा । लगता है कि, पूर्व जन्म में इसने व्रत की विराधना की है । इस कारण अनार्य-देश में इसने जन्म लिया है ।" ऐसा विचार करके अभयकुमार यह विचार करने लगा कि किस प्रकार आर्द्रककुमार को प्रतिबोध हो ।
ऐसा विचार कर अभयकुमार ने भगवान् आदिनाथ की सोने की प्रतिमा तैयार करायी और धूपदानी घंटा आदि अनेक उपकरणों के साथ उसे एक पेटी में रख कर आर्द्रककुमार से पास भेजा और कहलाया कि इस पेटी को एकांत में खोल कर देखें।
राजदूत उस भेंट को लेकर आर्द्रककुमार के पास गये और अभयकुमार की भेंट उसे दी। आर्द्रककुमार भेंट पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ । आर्द्रककुमार ने अन्न-वस्त्र आभूषणादि से सत्कार करने के पश्चात् दूतों को विदा किया।
एकान्त में आर्द्रककुमार ने जब पेटी खोली तो पूजा-सामग्री युक्त आदिनाथ की प्रतिभा देखकर उसके मन में जो उहापोह हुआ, उससे उसे
३-आर्द्रककुमार के पूर्वभव की कथा सूत्रकृतांग आदि ग्रंथों में आती है। अपने पूर्वभव में वह बसंतपुर (मगध ) में था। देखिये सूत्रकृतांग-नियुक्ति-टीका सहित, भाग २ पत्र १३७-२
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आर्द्रककुमार का पूर्व प्रसंग
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जातिस्मरण ज्ञान हो गया और वह विचार करने लगा-"अहो ! मैं व्रत भंग होने के कारण अनार्य- देश में पैदा हुआ । अरिहंत की प्रतिमा भेजकर अभयकुमार ने मेरे ऊपर बड़ा उपकार किया । "
अब अभयकुमार से मिलने की उसे बड़ी तीव्र उत्कंठा जागी । राजगृह जाने के लिए उसने अपने पिता से अनुमति माँगी । उसके पिता ने उत्तर दिया- "हमारे राज्य के शत्रु पग-पग पर हैं । अतः तुम्हारी इतनी लम्बी यात्रा उचित नहीं है ।" पिता की बात से आर्द्रककुमार बड़ा दुःखी हुआ ।
आर्द्रककुमार के पिता ने आर्द्रककुमार की रक्षा के लिए ५०० सामन्त नियुक्त कर दिये ।
आर्द्रककुमार उन ५०० सामन्तों के साथ नगर के बाहर घोड़े पर नित्य जाया करता । अभयकुमार से मिलने को अति उत्सुक आर्द्रककुमार घोड़े पर घूमने के समय नित्य अपनी दूरी बढ़ाया करता । इस प्रकार अवसर पाकर आर्द्रककुमार वहाँ से भाग निकला। समुद्र यात्रा के बाद वह लक्ष्मीपुर नामक नगर में पहुँचा । वहाँ पहुँच कर आर्द्रककुमार ने पाँच मुष्टि लोच किया ।
""
पर,
उस समय शासन- देवी ने कहा - " हे आर्द्रककुमार ! अभी तुम्हारे भोग - कर्म शेष हैं । तुम अभी व्रत मत स्वीकार करो । आर्द्रककुमार अपने विचार पर दृढ़ रहा और साधु-वेश में राजगृह की ओर चला । रास्ते में बसन्तपुर पड़ा । आर्द्रककुमार उस नगर के बाहर एक मंदिर में कायोत्सर्ग में खड़ा हो गया ।
उस समय वहाँ की श्रेष्ठिपुत्री धनश्री जो पूर्वभव में आर्द्रककुमार की पत्नी थी अपनी सखियों के साथ खेल रही थी । अंधकार में वे मंदिरके स्तम्भ पकड़तीं और कहतीं — "यह मेरा पति है ।" अंधकार में धनश्री को
१- भरतेश्वर बाहुबलि-वृत्ति सटीक, भाग २, पत्र २०७ - १
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तीर्थकर महावीर कोई स्तम्भ नहीं मिला और आर्द्रककुमार को ही स्पर्श कर वह बोली"यह मेरा पति है।" ___इसी समय आकाश में एक देवता बोला-"सभी कन्याएँ तो स्तम्भ का ही वरण करती रहीं, पर धनश्री ने तो ऐसे का वरण किया जो तीनों भुवनों में श्रेष्ठ है । देवताओं ने आकाश में दुंदुभी बजायी और रत्नों की वर्षा की।
। देवदुंदुभी सुनकर धनश्री आर्द्रकमुनि के चरणों पर गिर पड़ी और बड़ी दृढ़ता से आर्द्रककुमार का चरण पकड़ लिया। आद्रककुमार ने धनश्री के हाथ से अपना पैर छुड़ाकर वहाँ से विहार कर दिया ।
वसन्तपुर का राजा रत्नादि की वृष्टि का समाचार सुनकर रत्नों को संग्रह करने वहाँ पहुँचा; पर शासन-देवी ने उसे मना कर दिया ।
कुछ समय बाद धनश्री के पिता ने धनश्री के विवाह की बात अन्यत्र चलायी; पर धनश्री ने कहा-"उत्तम कुल में उत्पन्न कन्या एक ही बार वरण करती है । जिसके वरण के समय देवताओं ने रत्नों की वृष्टि की वही मेरा पति है ।' सुनकर धनश्री के पिता ने पूछा--"पर, वह साधु तुम्हें मिलेगा कहाँ ?' इस पर धनश्री बोली-"बिजली की चमक में उस साधु के चरण में मैंने पद्म देखे हैं । मैं उन्हें पहचान जाऊँगी।” उसके पिता ने कहा--"तुम नित्य दानशाला में दान दिया करो। जो साधु आयें, उनके चरण देखा करो । सम्भव है, वह साधु कभी आ जाये।"
धनश्री पिता के कथनानुसार नित्य दान देती।
दिशाभ्रम होने से एकवार आर्द्रककुमार पुनः वसन्तपुर में आ पहुँचे। उन्हें देखकर धनश्री ने अपने पिता को बुला भेजा। मुनि को देखकर धनश्री के पिता ने कहा-“हे मुनि, यदि आप मेरी पुत्री का पाणिक-ग्रहण नहीं करेंगे, तो वह प्राण त्याग देगी।" आर्द्रककुमार को अपनी भोगावलि शेष रहने की बात स्मरण आयी और उन्होंने धनश्री से विवाह करना स्वीकार कर लिया ।
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श्रा ककुमार का पूर्व प्रसंग धनश्री से विवाह करके आर्द्रककुमार बड़े सुख से जीवन व्यतीत करने लगे । कुछ काल बाद धनश्री को पुत्र हुआ। जब वह पुत्र ५ वर्ष का हो गया तो आर्द्रककुमार ने उ.पनी पत्नी से साधु होने की अनुमति माँगी। यह सुनकर उसकी पत्नी चरखा लेकर सूत कातने लगी। माँ को साधारण नारी की भाँति सूत कातते देखकर उसके पुत्र ने पूछा-"माँ सूत क्यों कात रही हो ?" माँ ने कहा- "तुम्हारे पिता साधु होनेवाले हैं। फिर तो सूत कातना ही पड़ेगा।” यह सुनकर पुत्र ने तकुए से सूत लेकर धागे से अपने पिता के पाँव बाँध दिये और बोला-"अब कैसे जायेंगे, मैंने उनके पैर बाँध दिये हैं।” आर्द्रककुमार ने कहा—"जितनी बार सूत लपेटा गया है, उतने वर्ष मैं गृहस्थावास में और रहूँगा।” आर्द्रककुमार ने गिना सूत १२ बार लपेटा गया था। अतः, उसने १२ वर्षी तक गृहस्थावास में और रहना स्वीकार कर लिया।
बारह वर्ष बीतने पर आर्द्रककुमार ने अपनी पत्नी की आज्ञा लेकर व्रत अंगीकार करके राजगृह की ओर प्रस्थान किया। रास्ते में एक घोर जंगल पड़ा। उस जंगल में वे ५०० सामंत भी रहते थे, जो आर्द्रककुमार की रक्षा के लिए नियुक्त किये गये थे। आर्द्रककुमार के भाग जाने के पश्चात् वे डर के मारे आर्द्रकपुर न लौट कर यहाँ भाग आये थे
और चोरी करके जीवन-निर्वाह करते थे। आर्द्र ककुमार ने उन्हें प्रति बोधित किया और वे सब भी आईक कुमार के साथ चल पड़े। ___आई ककुमार की इसी यात्रा में गोशालक आदि उसे मिले थे, जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है।'
१-आर्द्रककुमार का चरित्र सूत्रकृतांग-नियुक्ति-टीका-सहित (गौड़ी जी, बम्बई ), श्र० २, अ० ६, पत्र १३५-१ से १५८-१, ऋषिमंडलप्रकरण सटीक पत्र ११४-१-११७-२, भरतेश्वर-बाहुबलि-वृत्ति-सटीक, भाग २, पत्र २०४-२-२११-२, पर्युषणाऽष्टाहिका व्याख्यान (यशोविजय-ग्रन्थमाला) पत्र ५-२-६-२ आदि ग्रन्थों में आता है।
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२०- वाँ वर्षावास भगवान् आलभिया में
वर्षावास समाप्त होने के बाद भगवान् ने राजगृह से कौशाम्बी की की ओर विहार किया ।
रास्ते में आलभिया - नामक नगरी पड़ी । उस आलभिया में अनेक श्रमणोपासक रहते थे । उनमें मुख्य ऋषिभद्रपुत्र था । एक समय श्रमणोपासकों में इस प्रसंग पर वार्ता चल रही थी कि, देवलोक में देवताओं की स्थिति कितने काल की कही गयी है । इस पर ऋषिभद्रपुत्र ने उत्तर दिया—“देवलोक में देवताओं की स्थिति कम-से-कम १० हजार वर्ष और अधिक-से-अधिक ३३ सागरोपम बतायी गयी है । इससे अधिक काल तक देवता की स्थिति देवलोक में नहीं रह सकती ।" परन्तु श्रावकों को उसके कथन पर विश्वास नहीं हुआ ।
जब भगवान् विहार करते, इस बार आलभिया आये तो श्रावकों ने उनसे पूछा । भगवान् ने भी ऋषिभद्रपुत्र की बात का समर्थन किया । भगवान् द्वारा पुष्टि हो जाने पर श्रावकों ने ऋषिभद्र पुत्र से क्षमायाचना की ।
वह ऋषिभद्रपुत्र बहुत वर्षों तक शीलव्रत का पालन करके, बहुत वर्षों तक साधु-धर्म पाल कर ६० टंक का उपवास कर मृत्यु को प्राप्त करने के बाद सौधर्मकल्प में अरुणाभ - नामक विमान में देवता - रूप में उत्पन्न हुआ ।
१ -- भगवती सूत्र सटीक, शतक १२, उद्दे शा १२ सूत्र ४३३ - ४३५ पत्र १००९१०११ ।
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मृगावती की दीक्षा
मृगावती की दीक्षा आलभिया से विहार कर भगवान् कौशाम्बी पधारे। कौशाम्बी का राजा उदयन उस समय तक कम उम्र का था। उसकी माता मृगावती देवी अपने बहनोई उज्जयिनीपति चंडप्रद्योत की क्षत्र-छाया में अपना राज्य चला रही थी।
__ भगवान् के समवसरण में वह भी आयी और भगवान् के उपदेश से प्रभावित होकर, चंडप्रद्योत से आज्ञा प्राप्त करके उसने भगवान् से सावी होने की अनुमति मांगी।
मृगावती के साथ ही चंडप्रद्योत की अंगारवती आदि आठ रानियों ने भी सावी-व्रत ग्रहण किया ।' हमने राजाओं के प्रकरण में इनका विशेष वर्णन किया है।
कुछ काल तक भगवान् कौशाम्बी के निकट विहार करते रहे । फिर उन्होंने विदेह देश को ओर विहार किया।
भगवान् ने अपना वह वर्षावास वैशाली में बिताया।
१-आवश्यकचूर्णि, भाग १. पत्र ६१ ।
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२१-वाँ वर्षावास धन्य की प्रवज्या
वर्षावास समाप्त होने पर भगवान् मिथिला' होते हुए काकंदी आये। उस नगरी के राजा का नाम जितशत्रु था। उस नगरी के बाहर सहस्राम्रकनामक उद्यन था। ___ उस नगरी में भद्रा नामक सार्थवाह-पत्नी रहती थी। उसे एक पुत्र था । उसका नाम धन्य था । उसने ७२ कलाओं का अध्ययन किया । युवा होने पर उसका विवाह ३२ इब्भ-कन्याओं से हुआ। उनके लिए ३२ भवन बनवा दिये गये। उनमें धन्य अपनी पत्नियों के साथ सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा।
भगवान् के काकन्दी आने पर समवसरण हुआ। भगवान् के आगमन की सूचना समस्त नगर में फैल गयी। राजा जितशत्रु भी समवसरण में
१-भगवान् की मिथिला-यात्रा का उल्लेख भगवतीसूत्र सटीक, शतक ६, उद्देशा १, पत्र ७७६ में आया है। यहाँ गौतम स्वामी ने जम्बूद्वीप के सम्बन्ध में भगवान् से प्रश्न पूछा था और भगवान् ने जम्बूद्वीप-सम्बन्धी विवरण बताया था। इस मिथिला के राजा का नाम जितशत्रु था, ( देखिये, सूर्यप्रज्ञप्ति सटीक, पत्र १)
२-जितशत्रु राजा का नाम अणुत्तरोववाश्य ( म० चि० मोदी-सम्पादित) पष्ठ ७१ में आता है।
३-धन्य का उल्लेख ठाणांगसूत्र सटीक, ठाणा १०, उ० ३, सूत्र ७५५ पत्र ५०६-१ तथा ५१०-१ में आया है। ऋषिमंडलप्रकरण सटीक पत्र १३७ में भी उसकी कथा आती है।
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धन्य का प्रव्रज्या
गया । भगवान् का उपदेश सुनकर धन्य बड़ा सन्तुष्ट हुआ और उसने भगवान् से साधु-धर्म ग्रहण करने की अनुमति मागी।
समवसरण के बाद जमालि के समान अपने माता-पिता से अनुमति माँगने वह घर लौटा । महब्बल की कथा के अनुरूप ही उसकी वार्ता हुई । राजा ने भी उसे समझाने की चेष्टा की। राजा से उसकी वार्ता थावच्या-पुत्र के समान हुई।
धन्य की वार्ता से प्रभावित होकर जितशत्रु ने उसी प्रकार घोषणा करायी, जैसी थावच्चा-पुत्र के प्रसंग में आती है
"जो लोग मृत्यु के नाश की इच्छा रखते हों और इस हेतु विषयकषाय त्याग करने को उद्यत हो परन्तु केवल मित्र, जाति तथा सम्बन्धियों को इच्छा से रुके हों, वे प्रसन्नतापूर्वक दीक्षा ले लें। उनके सम्बन्धियों के योग-क्षेम की देख-रेख बाद में मैं अपने ऊपर लेता हूँ।”
१-इस घोषणा का मूल पाठ ज्ञाताधर्मकथा सटीक श्रु० १, अ० ८ पत्र १०६. १ में इस प्रकार है
"एवं खलु देवा. थावच्चापुत्ते संसार भउबिग्गे भीए जम्मणमरणाणं इच्छति अरहतो अरिट्टनेमिस्स अन्तिए मुण्डे भवित्ता पव्वइतए, तं जो खलु देवाणुप्पिया ! राया वा, जुवराया वा, देवी वा, कुमारे वा, ईसरे वा तलवरे वा, कोडुम्बिय०, माडंबिय० इब्भसेठिसेणावइ सत्थवाहे वा थावच्चापुत्तं पन्वायतमणुपव्वयति तस्स णं कण्हे वासुदेवे अणुजाणाति पच्छा तुरस्तविय से मित्त नाति नियग संबंधि परिजणस्स जोगखेम वहमा पडिवहति त्ति कट्ट घोसणं घोसेह जाव घोसन्ति......
__'योगक्षेम' की टीका ज्ञाताधर्मकथा में इस प्रकार दी हुई है"तत्रालब्धस्येष्पितस्य वस्तुनो लाभो योगो लब्धस्य परिपालन क्षेमस्ताभ्यां वर्तमानकालभवा वार्तमानी वार्ता योगक्षेमवार्तमानी"पत्र ११०-१
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तीर्थङ्कर महावीर
उसके बाद बड़े धूमधाम से धन्य ने दीक्षा लेली । दीक्षा के बाद वह संयम पालन करते हुए तप कर्म करने लगा और भगवान् के स्थविरों के पास रहकर उसने सामायिक आदि और ग्यारह अंगों का अध्ययन किया ।
So
एक दिन उसने भगवान् से कहा - भगवान् मुझे यावज्जीवन छठछठ उपवास करने और छठ व्रत के अंत में आयम्बिल' करने की अनुमति दीजिए । उस समय भी संसट्र' अन्न ही मुझे स्वीकार होगा ।
भगवान् की अनुमति मिल जाने पर धन्य ने छट-छठ की तपस्या प्रारम्भ की । विकट तपस्या से सूखकर धन्य हड्डी- हड्डी रह गये ।
भगवान् एक बार जब राजगृह पधारे तो श्रेणिक राजा उनकी वन्दना करने गया । समवसरण समाप्त होने के बाद श्रेणिक ने भगवान् से कहा"भंते, क्या ऐसा है कि गौतम इन्द्रभूति सहित आपके
१४ हजार साधुओं
में धन्य अनगार महादुष्कर कार्य के कर्ता और ( महानिर्जरा ) कर्म - पुद्गलों को आत्मा से पृथक करते हैं । "
भगवान् बोले - " मेरे साधुओं में धन्य सब से अधिक दुष्कर कर्म करने वाले हैं। "
श्रेणिक फिर धन्य के पास गया । उसने धन्य की वन्दना की ।
उसके बाद धन्य ने विपुल पर्वत पर मरणांतिक संलेखना स्वीकार करके एक मास का उपवास करके देहत्याग किया और स्वर्ग गये । धन्य का साधु - जीवन कुल ९ मास का रहा ।
- इस प्रसंग के अन्त में दी गयी टिप्पणि देखें । ( देखिये पृष्ठ ७२ ) २ - इस प्रसंग के अन्त में दी गयी टिप्पणि देखें । ( देखिये पृष्ठ ७३ ) ३–धन्य का नख-शिख वर्णन अणुत्तरोववाइयसूत्र ( मोदी - सम्पादित ) पृष्ट ७४-७८ में विस्तार से दिया है ।
४ - वही, वर्ग ३, पृष्ठ ७१ -
८२
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सद्दालपुत्र श्रावक हुआ
७१
सुनक्षत्र को दीक्षा काकन्दी की भगवान् की इसी यात्रा में सुनक्षत्र ने भी दीक्षा ली। इसकी माता का नाम भद्रा था। दीक्षा लेने के बाद इसने भी सामायिक आदि तथा ११ अंगों का अध्ययन किया और वर्षों तक साधु-धर्म पाल कर अनशन करके मृत्यु को प्राप्त हुआ और सार्थसिद्ध विमान पर गया ।'
कुण्डकोलिक का श्रावक होना काकंदी से विहार कर भगवान् काम्पिल्यपुर पधारे। उनके समक्ष कुण्डकोलिक ने श्रावक-व्रत ग्रहण किया। इसका विस्तृत विवरण हमने मुख्य श्रावकों के प्रसंग में किया है ।
सद्दालपुत्र श्रावक हुआ वहाँ से ग्रामानुग्राम विहार कर भगवान् पोलासपुर आये और उनके समक्ष सद्दालपुत्र ने श्रावक-व्रत ग्रहण किया। मुख्य श्रावकों के प्रसंग में उसका विस्तृत विवरण है।
पोलासपुर से ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भगवान् वाणिज्यग्राम आये और अपना वर्षावास भगवान् ने वैशाली में बिताया ।
आयंबिल ऊपर के विवरण में 'आयंबिल' शब्द आया है। इसका संस्कृत रूप आचाम्ल होता है। आचार्य हरिभद् सूरि ने अपने ग्रंथ संबोध-प्रकरण में उसके निम्नलिखित पर्याय किये हैं :
अंबिलं नीरस जलं दुप्यायं धाउ सोसणं
कामग्घं मंगलं सोय एगट्ठा अंबिलस्सावि ॥ १-अणुत्तरोववाइयसूत्र ( मोदी-सम्पादित ) वर्ग ३, पृष्ठ ८२-८३ । इसका उल्लेख ठाणांगमूत्र सटीक ठाणा १०, उद्दशा ३ सूत्र ७५५ पत्र ५०६-१ तथा ५१०-१ में भी आता है।
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तीर्थंकर महावीर --अर्थात् अंबिल, नीरस जल, दुष्प्राप्य, धातु-शोषण, कामान, मंगल, शीत ये आयंबिल शब्द के समानार्थी हैं ।
इस शब्द पर टीका करते हुए औषपातिकसूत्र में आचार्य अभयदेव रसूरि ने लिखा है'आयंबिलए' त्ति आयाम्नम् ओदन कुल्माषादि
–औपपातिकसूत्र सटीक, सूत्र १९, पत्र ७५ पंचाशक की टीका में उसका विवरण इस प्रकार है
आयाममवश्रावणं अम्लं च सौवीरकं, ते एव प्रायेण व्यंजने यत्र भोजने उदन कुल्माष सक्तु प्रभृतिके तदायामाम्लं समय भाषयोच्यते —पंचाशक अभयदेवसूरि की टीका सहित, पं० ५, गा० ९, पत्र ९३-१
आवश्यक की टीका में हरिभद्रहरि ने पत्र ८५५-१ से ८५६-१ तक इस शब्द पर विशेष रूप से विचार किया है। उसमें आता है----
'एत्थ आयंबिलं च भवति आयंबिल पाउण्णं च, तत्थोदणे प्रायम्बिलं आयंबिल पाउग्गं च, आयंबिला सकूरा, जाणि कृर विहाणाणि, आयंबिलं पाउग्गं, तंदुलकणि याउ कुंडतो पीटुं पिहुगा पिट्ठपोबलियारो रालगा मंडगादि, कुम्मासा पुग्वं पाणिरण कुड्डिजति पच्छा उखलिए पोसंति, ते तिविहासराहा, मज्झिमा, थूला, ऐते आयंबिलं .......
—पत्र ८५५-१ आवश्यक-नियुक्ति-दीपिका (तृतीय विभाग ) में माणिक्यशेखर सूरि ने लिखा है
आयामोऽव श्रामणं आम्लं चतुर्थरसः ताभ्यां निर्वत्त आयामाम्लं । इदं चोपाधिभेदा त्रिधा-प्रोदनः धवल धान्य इत्यर्थः, कुल्माषाः काष्ठ द्विदल मित्यर्थः, सक्तवो लोट्ट इत्यर्थः, प्रोदनादीनधिकृत्य जीरकादियुक् करोरादि फलानि च धान्य
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आयंबिल स्थानीयानि, पृथक लवणं चाकल्प्यं उत्प्तर्गेऽनुक्तत्वात् । एकैकं ओदनादि त्रिविधं स्यात् । जघन्यं, मध्यम, उत्कृष्ट स्यात्
___-पत्र ४०-२ इस आचाम्ल-व्रत में विकृति-रहित सूखा उबला हुआ अथवा भुना हुआ अन खाया जाता है । 'हिस्ट्री आव जैन मोनाचिज्म' में डाक्टर शान्ताराम बालचन्द्र देव ने (पृष्ठ १९५ ) केवल 'उबला हुआ' लिखा है । यह भूल जैन-शास्त्रों से उनके अपरिचित होने के कारण हुई। इसी प्रकार उन्होंने केवल 'चावल' का उल्लेख किया है । ऊपर की टीकाओं में चावल, कुल्माष, सत्त आदि का स्पष्ट उल्लेख है। विकृतियाँ दूध, दही, घी, गुड़, पक्कान आदि हैं।
संसट्टा दूसरा शब्द 'संसट्ट' आया है।
प्रवचन-सारोद्धार-सटीक, द्वार ९६ गाथा ७४० पत्र २१५-२ में भिक्षा के प्रकार दिये हैं। उसमें आता है--
तं मि य संसट्ठा हत्थमत्तएहिं इमा पढम भिक्खा इसकी टीका इस प्रकार की गयी है
'तं मि' ति प्राकृतत्वात्तासु भिक्षासु मध्ये संसृष्टा हस्तमात्रकाभ्यां भवति, कोऽर्थः ? संसृष्टेन-तक्रतीमनादिना खरण्टितेन हस्तेन संसृष्टेनैव च मात्रकेण--करोटिकादीना गृह्णतः साधो संसृष्टा नाम भिक्षा भवति, इयं च द्वितीयाऽपि मूल गाथोक्तक्रमापेक्षया प्रथमा, अत्र च संसृष्टासंसृष्ट सावशेष निरवशेषद्रव्यैरष्टौ भङ्गाः तेषु चाष्टमो भङ्गः संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्रं सावशेपं द्रव्यमित्येपगच्छनिर्गतानां सूत्रार्थहान्यादिकं कारणमाश्रित्य कल्पन्त इतिः .....
-खरंटित हाथ अथवा कलछुल से दी गयी भिक्षा
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२२-वाँ वर्षावास महाशतक का श्रावक होना
वर्षाकाल बीतने पर भगवान् ने मगध-भूमि की ओर विहार किया और राजगृह पहुँचे । भगवान् के उपदेश से प्रभावित होकर महाशतक गाथापति ने श्रमणोपासक धर्म स्वीकार किया। उसका विस्तृत वर्णन. हमने मुख्य श्रावकों के प्रकरण में प्रकरण में किया है ।
पार्श्वपत्यों का शंका-समाधान इसी अवसर पर बहुत-से पार्श्वपत्य (पार्श्व-संतानीय) स्थविर भगवान् के समवसरण में आये । दूर खड़े होकर उन्होंने भगवान् से पूछा--"हे भगवन् ! असंख्य जगत में अनन्त दिन-रात्रि उत्पन्न हुए, उत्पन्न होते हैं
और उत्पन्न होंगे ? नष्ट हुए हैं, नष्ट होते हैं और नष्ट होगे ? अथवा नियत परिणाम वाले रात्रि-दिवस उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं अथवा उत्पन्न होंगे ? और नष्ट हुए हैं, नष्ट होते हैं अथवा नष्ट होंगे?
इस पर भगवान् ने कहा--"हाँ, असंख्य लोक में अनन्त दिन-रात उत्पन्न हुए हैं, होते हैं और होंगे।"
पार्श्वपत्य—"हे भगवान् ! वे किस कारण उत्पन्न हुए हैं, होते हैं और होंगे?"
भगवान्" हे आय ! पुरुषादानीय पार्श्व ने कहा है कि, लोक. शाश्वत अनादि है और अनन्त है । वह अनादि, अनन्त, परिमित, आलोकाकाश से परिवृत्त, नीचे विस्तीर्ण, बीच में सँकड़ा, ऊपर विशाल; नीचे पल्यंक के आकार वाला, बीच में उत्तम वज्र के आकार वाला और ऊपरी
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पार्श्वपत्यों का शंका-समाधान भाग में ऊर्ध्व मृदंग-जैसा है । इस अनादि-अनन्त लोक में अनन्त जीवपिंड उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं। परिणाम वाले जीव-पिंड भी उत्पन्न हो होकर नष्ट होते हैं-वह लोक भूत है, उत्पन्न है, विगत हैं
और परिणत है । कारण यह है कि, अजीवों द्वारा वह देखने में आता है, निश्चित होता है और अधिक निश्चित होता है। जो दिखलायी पड़ता है और जाना जाता है वह लोक कहलाता है ( यो लोक्यते स लोकः )। । भगवान् के उत्तर के पश्चात् पार्श्वपत्यों ने भगवान् को सवज्ञ और सर्वदर्शी स्वीकार कर लिया और उनकी वन्दना करके पार्श्वनाथ भगवान् के चतुर्याम-धर्म के स्थान पर पंचमहाव्रत स्वीकार करने की अनुमति माँगी। अनुमति मिल जाने पर उन लोगों ने भगवान् के पास दीक्षा ग्रहण कर ली और मरने के बाद उनमें से कितने ही देवलोक में उत्पन्न हुए।
रोह के प्रश्न उस समय रोह ने भगवान् से पूछा- "पहले लोक है, पीछे अलोक. यो पहले अलोक है पीछे लोक ?
भगवान्---"इस लोक-अलोक में दोनों ही पहले भी कहे जा सकते है और पीछे भी । इनमें पहले-पीछे का क्रम नहीं है ।
रोद-जीव पहले है, अजीव पीछे है या अजीव पहले है जीव पीछे है ?
भगवान्-रोह ! लोक-अलोक के विषय में जो कहा है, वही जीवअजीव के सम्बन्ध में भी है। उसी प्रकार भवसिद्ध-अभवसिद्ध, सिद्ध
१-'जे लोकइ से लोके–' भगवतीमत्र सटीक, शतक ५, उदेशा ६, सूत्र २२६ पत्र ४४६ उसी सूत्र की टीका में एक अन्य स्थल पर टीका करते हुए अभयदेव सूरि ने लिखा-“यत्र जीवघना उत्पद्य २ विलीयन्ते स लोकोभूत"--पत्र ४५१ ।
२-भगवतीसूत्र सटीक शतक ५, उद्देशः ६, पत्र ४४८-४५० ।
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तीर्थंकर महावीर
संसार असिद्धसंसार तथा सिद्ध और सांसारिक प्राणी के विषय में भी जानना चाहिए ।
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रोह- 'हे भगवन् ! पहले अंडा है फिर मुर्गी या पहले मुर्गी है पीछे अंडा ?"
भगवान् - "वह अंडा कहाँ से उत्पन्न हुआ ?" रोह - " वह मुर्गी से उत्पन्न हुआ । भगवान् — "वह मुर्गी कहाँ से उत्पन्न हुई ?" रोह - वह मुर्गी अण्डे से ऊत्पन्न हुई ।
भगवान्—“इसलिए अंडा और मुर्गी में कौन आगे है, कौन पीछे यह नहीं कहा जा सकता । इन में शाश्वत-भाव है । इनमें पहले पीछे का कोई क्रम नहीं है ।
दोह- हे भगवन् ! पहले लोकान्त है, पीछे. अलोकान्त अथवा पहले अलोकान्त है पीछे लोकान्त ?
भगवान् – “लोकान्त - अलोकान्त में पहले पीछे का कोई क्रम नहीं है । रोह - "पहले लोक पीछे सतम अवकाशान्तर या पहले सतम अवकाशान्तर और पीछे लोक ?
भगवान् - "लोक और सनम अवकाशान्तर इनमें दोनों पहले हैं । हे रोह ! इन दोनों में किसी प्रकार का क्रम नहीं है । लोकान्त, सातवाँ तनुवात, धनत्रात, धनोदधि और पृथ्वी - इस प्रकार एक-एक के साथ लोकान्त और नीचे लिखे के विषय में भी प्रमाण जोड़ लेना चाहिए :
अवकाशान्तर, वात, धनोदधि, पृथ्वी, द्वीप, सागर, वर्ष-क्षेत्र, नैरथि - कारिक जीव, अस्तिकाय, समय, कर्म, लेश्या, दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, संख्या, शरीर, योग, उपभोग, द्रव्य-प्रदेश और पर्यव तथा काल पहले हैं या लोकान्त ।
रोह - "हे भगवन् ! पहले लोकान्त है और पीछे सर्वाद्धा ( अतीत आदि सब समय ) है ?
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७७
रोह के प्रश्न भगवान्-“हे रोह ? जिस प्रकार लोकान्त के साथ यह सम्पूर्ण स्थान जुड़ा है, उसे भी इसी प्रकार जान लेना चाहिए।"
इस प्रकार रोह के प्रश्नों का उत्तर देकर भगवान् ने उसकी शंकाओं का समाधान कर दिया ।
लोक-सम्बन्धी शंकाओं का समाधान उसी अवसर गौतम स्वामी ने पूछा- "हे भगवन् ! लोक की स्थिति कितने प्रकार की है ?"
भगवान्-हे गौतम ! लोक की स्थिति ८ प्रकार की कही है :१-वायु आकाश के आधार पर है। २-~-पानी वायु के आधार पर है। ३-पृथ्वी जल के आधार पर है । ४-त्रस जीव तथा स्थावर जीव पृथ्वी के आधार पर हैं। ५-अजीव जीव के आधार पर रहते हैं। ६–जीव कर्म के आधार पर रहते हैं। ७-जीव-अजीव संगृहीत हैं । ८-जीव कर्म संगृहीत हैं।
गौतम स्वामी हे भगवन् ! किस कारण लोक की स्थिति ८ प्रकार की कही गयी है ? वायु-आकाश आदि के आधार की बातें कैसे हैं ?
भगवान्-जैसे किसी मशक को हवा से पूर्ण भर कर उसका मुँह बंद कर दे । फिर बीच से मशक बाँध कर मुँह की गाँठ खोलकर हवा निकाल कर उसमें पानी भर कर फिर मुँह पर गाँठ लगा दे। और, फिर बीच का बंधन खोल दे तो वह पानी नीचे की हवा पर ठहरेगा?"
गौतम-"हाँ भगवन् ! पानी हवा के ऊपर ठहरेगा ?"
१-भगवतीसूत्र सटीक, शतक१, उद्देशः ६ पत्र १३६-१४०
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तीर्थंकर महावीर
भगवान् — " आकाश के ऊपर हवा, हवा के ऊपर पानी आदि इसी क्रम से रहते हैं । हे गौतम ! कोई आदमी मशक को हवा से भर कर उसे अपनी कमर में बाँधे हुए अथाह जल को अवगाहन करे तो वह ऊपर ठहरेगा या नहीं ?”
गौतम -“हाँ भगवन् ! ठहरेगा ।"
उद
भगवान् - " इसी प्रकार लोक की स्थिति ८ प्रकार की है से लेकर जीव के कर्म-सम्बन्ध तक सम्पूर्ण बात समझ लेनी चाहिए ।
गौतम - " हे भगवन् ! जीव और पुद्गल क्या परस्पर सम्बद्ध ? परस्पर सटे हुए है ? परस्पर एक दूसरे से मिल गये हैं ? परस्पर स्नेहप्रतिबद्ध हैं और मिले हुए रहते हैं ?"
भगवान् - "हाँ गौतम |
गौतम - "हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ?"
भगवान् - "जैसे कोई पानी का हद हो, वह पानी से भरा हो, पानी से छलछला रहा हो, पानी छलछला रहा हो, ऐसा हो जैसे घड़े में पूरा-पूरा पानी भरा हो और उस हद में कोई छिद्र वाली डोंगी लेकर प्रवेश करे । छिद्र से आये जल के कारण नाव भरे घड़े के समान नीचे बैठेगी न ?
गौतम -“हाँ भगवन् बैठेगी ।"
भगवान् - " गौतम ! जीव और पुद्गल ऐसे ही परस्पर बँधे हुए हैंमिले हुए हैं।"
गौतम - “हे भगवन् ! सूक्ष्म स्नेहकार्य ( अप्काय ) क्या सदा मापपूर्वक पड़ता है ?
१ - द्रहोऽगाध जलो हदः - अभिधानचिंतामणि सटीक, भूमिकांड, श्लोक १५८, पृष्ठ ४३७
२ - अप्काय विशेष - भगवती सूत्र सटीक पत्र १४५
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लोक-सम्बन्धी शंकाओं का समाधान
७६ भगवान्-"हाँ पड़ता है।" गौतम-वह ऊँचे पड़ता है, नीचे पड़ता या तिरछे पड़ता है ?
भगवान्----"वह ऊँचे पड़ता है, नीचे पड़ता है और तिरछे पड़ता है।
गौतम-“वह सूक्ष्म अप्काय इस स्थूल अप्काय के समान परस्पर समायुक्त ( संयुक्त ) होकर दीर्घ काल तक रहता है ?
भगवान्- "इस दृष्टि से समर्थ नहीं है-वह नहीं रहता। वह सूक्ष्म अप्काय शीघ्र ही नाश को प्राप्त होता है।
अपना वह वर्षावास भगवान् ने राजगृह में बिताया ।
२-भगवतीसूत्र सटीक, शतक १, उद्देशः ६, पत्र १४०-१४५
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२३ वाँ वर्ष वास स्कंदक की प्रव्रज्या
वर्षावास समाप्त होने के बाद, भगवान् राजगृह के बाहर स्थित गुणशिलक-चैत्य से निकले और ग्रामानुग्राम बिहार करते हुए कृतंगला-नामक. नगरी में पहुँचे । उस नगरी के ईशान कोण में छत्रपलाशक-नामक चैत्य था, वहाँ ही भगवान् ठहरे और उनका समवसरण हुआ।
उस कृतंगला के निकट ही श्रावस्ती-नामक नगर था। उस श्रावस्ती नगरी में कात्यायन-गोत्रीय गर्दभाल नामक परिव्राजक का शिष्य स्कंदक नामक परिव्राजक रहता था । वह चारों वेद, पाँचवाँ इतिहास, छठाँ निघंटु का ज्ञाता था और षष्टितंत्र ( कापिलीय-शास्त्र) का विशारद था। वह गणितशास्त्र, शिक्षा-शास्त्र, आचार-शास्त्र, व्याकरण-शास्त्र, छंदशास्त्र, व्युत्पत्तिशास्त्र, ज्योतिषशात्र तथा अन्य ब्राह्मण-नीति और दर्शन-शास्त्रों में पारंगत था।
उस नगरी में भगवान् महावीर के वचन में रस लेने वाला पिंगल' नामका निर्गथ ( साधु ) रहता था।
१-'पाइअसणमहणणओ' में पृष्ठ ७३५ पर पिंगल को 'एक जैन-उपासक', लिखा है । यह पिंगल उपासक नहीं था, साधु था। मूल पाठ-'पिंगलाए णामं नियंठे वेसालिय सावए' है । कोषकार को 'सावए' शब्द पर भ्रम हुआ। इसका कारण यह था कि कोषकार ने टीका नहीं देखी । भगवती की टीका (पत्र २०१) में 'वेसा लिए. सावए' को टीका इस प्रकार दी हुई है-"विशाला--महावीर जननी तस्या अपत्यमिति वैशालिक:-भगवांस्तस्य वचनं शृणोति तद्रसिकत्वादिति वैशालिक श्रावकः तद्वचनामृत पाननिरत इत्यर्थः" । और, 'निर्गथ' की ठीका में "निर्गथः श्रमण इत्यर्थः। स्पष्ट लिखा है।
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स्कंदक की प्रव्रज्या
८१
एक दिन पिंगल स्कंदक-तापस के वासस्थान की ओर जा निकला । स्कंदक के निकट जाकर उसने पूछा-" हे मागध ! यह लोक अंत वाला है या बिना अंत वाला है ! जीव अन्त वाला है या बिना अन्त वाला है ? सिद्धि अंत वाली है या बिना अन्त वाली है ? सिद्ध अन्त वाला है या बिना
अन्त वाला है ? किस मरण से मरता हुआ जीव घटता अथवा बढ़ता है ? जीव किस प्रकार मरे तो उसका संसार बढ़े अथवा घटे ? इन प्रश्नों का तुम उत्तर बताओ।" ___ इन प्रश्नों को सुनकर उनके उत्तर के सम्बन्ध में स्कंदक शंकाशील हो गया । और, विचारने लगा-"इनका क्या उत्तर दूँ ? और, जो उत्तर दूंगा उससे प्रश्नकर्ता संतुष्ट होगा या नहीं ?" शंकाशील स्कंदक उनका उत्तर न दे सका।
पिंगल ने कई बार अपने प्रश्न दुहराये। पर, शंकावाला कांक्षावाला स्कंदक कुछ न बोल सका; क्योंकि उसे स्वयं अविश्वास हो गया था और उसकी बुद्धि भंग हो गयी थी।
यह कथा उसी समय की है, जब भगवान् छत्रपलासक-चैत्य में ठहरे हुए थे । लोगों के मुख से स्कंदक ने भगवान् के आगमन की बात सुनी तो स्कंदक को भी भगवान् के पास जाकर उन्हे वन्दन करके, अर्थों के, हेतुओं के, प्रश्नों के, व्याकरणों के पूछने की इच्छा हुई।
ऐसा विचार कर वह स्कंदक परिव्राजक मठ की ओर गया और वहाँ जाकर उसने त्रिदंड, कुंडी, (कंचणिअं) रुद्राक्ष की माला, ( करोटिका) मिट्टी का बरतन, आसन, ( केसरिका ) बरतनों को साफ-सुथरा करने का कपड़ा, (छणणालयं) त्रिकाष्ठिका, अंकुश ( पत्र आदि तोड़ने का अंकुश), पवित्रकं (कुश की अंगूठी-सरीखी वस्तु), ( गणेत्तियं ) कलायी का एक प्रकार का आभूषण, छत्र, ( वाहणाइ) पगरखा, (धाउरत्ताऔ) गेरुए रंग में रंगा कपड़ा आदि यथास्थान धारण करके कृतंगला-नगरी की ओर चला ।
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तीर्थंकर महावीर
उधर भगवान् ने गौतम स्वामी से कहा - " हे गौतम ! आज तुम अपने एक पूर्वपरिचित को देखोगे ।"
८२
भगवान् की बात सुनकर गौतम स्वामी ने पूछा - " मैं किस पूर्व परिचित से मिलूँगा ?"
भगवान् - " कात्यायन स्कंदक परिवाजक से !"
गौतम - " कैसे ? यह स्कंदक परिव्राजक कैसे मिलेगा ? ”
भगवान् — “ श्रावस्ती में पिंगल नामक निर्गथ ने स्कंदक से कुछ प्रश्न पूछे । पर, वह उनका उत्तर नहीं दे सका । फिर वह आश्रम में गया और कुंडी आदि लेकर गेरुआ वस्त्र पहन कर यहाँ आने के लिए अब वह प्रस्थान कर चुका है । थोड़े ही समय बाद वह यहाँ आ पहुँचेगा । ” गौतम -- "क्या उसमें अपका शिष्य होने की योग्यता है ?"
भगवान् — "स्कंदक में शिष्य होने की योग्यता है और वह निश्चय ही मेरा शिष्य हो जायेगा ।'
इतने में स्कंदक दृष्टिगोचर हुआ । उसे देखकर गौतम स्वामी उसके पास गये और उन्होंने पूछा - "हे मागध ! क्या यह सच है कि, पिंगलनिर्गंध ने आपसे कुछ प्रश्न पूछे ? और क्या आप उसका उत्तर न दे सके ? इसीलिए क्या आपका यहाँ आना हुआ ?"
गौतम स्वामी के इन प्रश्नों को सुनकर स्कंदक बड़ा चकित हुआ और उसने पूछा - " हे गौतम! ऐसा कौन ज्ञानी तथा तपस्वी है जिसने हमारी गुप्त बात इतनी जल्दी बता दी ?"
गौतम - "हे स्कंदक ! हमारे धर्मगुरु, धर्मोपदेशक श्रमण भगवंत महावीर ज्ञान तथा दर्शन को धारण करनेवाले हैं । वे अर्हत् हैं, जिन हैं, केवली हैं, भूत वर्तमान भविष्य के जानने वाले हैं । वह सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं । उनको तुम्हारी बात ज्ञात हो गयी । "
फिर, स्कंदक ने भगवान् की वंदना करने का विचार गौतम स्वामी से प्रकट किया ।
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स्कंदक की प्रव्रज्या
८३ गौतम स्वामी स्कंदकको भगवान् के पास ले गये। ,
भगवान के दर्शन मात्र से स्कंदक संतुष्ट हो गया। उसने भगवान् की प्रदक्षिणा की और उनकी वंदना की। . भगवान् ने स्कंद से कहा-“हे मागध ! श्रावस्ती नगरी में रहने वाले पिंगल-नामक निगंथ ने तुमसे पूछा था-'यह लोक अंतवाला है या इसका अंत नहीं है ?' इस प्रकार के और भी प्रश्न उसने तुमसे पूछे थे। इन प्रश्नों के ही लिए तुम मेरे पास आये हो ? यह बात सच है न ?”
स्कंदक ने भगवान् की बात स्वीकार कर ली। फिर, भगवान् ने कहना प्रारम्भ किया- "हे स्कंदक ! यह लोक चार प्रकार का है। द्रव्य से द्रव्यलोक, क्षेत्र से क्षेत्रलोक, काल से काललोक और भाव से भावलोक ।
"इनमें जो द्रव्यलोक है, वह एक है और अंतवाला है । जो क्षेत्रलोक है, वह असंख्य कोटाकोटि योजन की लम्बाई-चौड़ाईवाला है। उसकी परिधि असंख्य कोटाकोटि योजन कही गयी है। उसका अंत अर्थात् छोर है। जो कालकोक है, वह किसी दिन न होता हो, ऐसा कोई दिन नहीं है; वह किसी दिन नहीं था, ऐसा भी नहीं था; और किसी दिन न रहेगा, ऐसा भी नहीं है। वह सदैव रहा है, सदैव रहता है और सदैव रहेगा। वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षत, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। उसका अंत नहीं है । जो भावलोक है वह अनंत वर्णपर्यवरूप है। अनंत गंध, रस, स्पर्श-पर्यवरूप है; अनंत संस्थान ( आकार ) पर्यवरूप है। अनन्त गुरु-लघु-पर्यवरूप है तथा अनंत अगुरु लघु पर्यवरूप है।
"हे स्कंदक ! इस प्रमाण से द्रव्यलोक अंतवाला है; क्षेत्रलोक अंतवाला है, काललोक बिना अंत का है और भावलोक बिना अंत का है।
यह लोक अंतवाला भी है और बिना अंतवाला भी है। . "हे स्कंदक ! तुम्हें जो यह विकल्प हुआ कि जीव अंतवाला है
या बिना अंतवाला तो उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है। यावत् द्रव से जीव एक है और अंतवाला है, क्षेत्र से जीव असंख्य प्रदेश वाला है और
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८४
तीर्थकर महावीर असंख्य प्रादेशिक है; पर उसका भी अंत है; काल के विचार से 'जीव किसी दिवस न रहा हो', ऐसा नहीं है इस रूप में वह नित्य है और उसका अंत नहीं है; भाव से जीव ज्ञान-पर्याय-रूप है, अनन्त दर्शनरूप अनंत गरुलधुपर्याय रूप है और उसका अंत नहीं है। इस प्रकार, हे स्कंदक! द्रव्य जीव अंतवाला है, क्षेत्रजीव अंतवाला है, काल जीव बिना अंत का है और भावजीव बिना अंतवाला है।
"हे स्कंदक ! तुम्हें यह विकल्प हुआ कि, सिद्धि अंतवाली है या बिना अंतवाली है। इसका उत्तर यह है-द्रव्य से सिद्धि एक है और अंतवाली है, क्षेत्र से सिद्धि की लम्बाई-चौड़ाई ४५ लाख योजन है और उसकी परिधि १ करोड ४२ लाख ३० हजार २४९ योजन से थोड़ा अधिक है। पर, उसका छोर है, अंत है। काल की दृष्टि से यह नहीं कह सकते कि किसी दिन सिद्धि नहीं थी, नहीं है अथवा नहीं रहेगी। और, भाव से भी वह अंत वाली नहीं है। अतः द्रव्य तथा क्षेत्र सिद्धि अंतवाली है और काल तथा भाव-सिद्धि अनन्तवाली है। ___ "हे स्कंदक ! तुम्हें शंका हुई थी कि सिद्ध अंतवाला है या बिना अंतवाला है। द्रव्यसिद्ध एक है और अंतवाला है, क्षेत्रसिद्ध असंख्य प्रदेश में अवगाढ़ होने के बावजूद अंतवाला है, कालसिद्ध आदिवाला तो है पर बिना अंतवाला है, भावसिद्ध ज्ञानपर्यवरूप और दर्शनपर्यवरूप है और उसका अंत नहीं है।
"हे स्कंदक ! तुम्हें शंका थी कि किस रीति से मरे कि उसका संसार घटे या बढ़े। हे स्कंदक ! उसका उत्तर इस प्रकार है। मरण दो प्रकार का है-(१) बालमरण और (२) पंडितमरण ।"
१-समवायांग सूत्र सटीक समवाय १७ पत्र ३१-१ तथा उत्तराध्ययन ( शांत्याचार्य की टीका ) नियुक्ति गाथा २१२-२१३ पत्र २३०-२ में भी मरण के प्रकार दिये हैं।
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स्कंदक की प्रव्रज्या
८५ स्कंदक--"बालमरण क्या है ?" भगवान्-"बालमरण के १२ भेद हैं।" (१) बलन-मरण-तड़पता हुआ मरना । (२) वसट्ट-मरण-पराधीनता पूर्वक मरना ।
(३) अंतःशल्य-मरण-शरीर में शस्त्रादि जाने से अथवा सन्मार्ग से पथभ्रष्ट होकर मरना ।
(४) तद्भव-मरण—जिस गति में मरे फिर उसी में आयुष्य बाँधना। (५) पहाड़ से गिर कर मरना । (६) पेड़ से गिर कर मरना । (७) पानी में डूबकर मरना । (८) आग में जल कर मरना । (९) विष खा कर मरना । (१०) शस्त्र प्रयोग से मरना । (११) फाँसी लगाकर मरना । (१२) गृद्ध आदि पक्षियों से नुचवा कर मरना ।
"हे रूंदक ! इन १२ प्रकारों से मरकर जीव अनन्त बार नैरयिक भव को प्राप्त होता है। वह तिर्यक्-गति का अधिकारी होता है और चतुर्गत्यात्मक संसार को बढ़ाता है। मरण से बढ़ना इसी को कहते हैं ।
स्कंदक-"पंडित मरण क्या है ?" भगवान्-"पंडित मरण दो प्रकार का है(१) पादपोपगमन (२) भक्तप्रत्याख्यान ।" कंदक-“पारपोपगमन क्या है ?”
भगवान्–“पादपोपगमन दो प्रकार का है—(१) निर्हारिमजिस प्रकार मृतक का शव अंतिम संस्कार में ले जाते हैं, उस प्रकार मरना निभरिम-पादपोपगमन है और उसका उलटा अनिर्हारिम पादपोपगमन है । इन दोनों प्रकारों का पादपोपगमन मरण प्रतिकर्म बिना है।
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८६
तीर्थङ्कर महावीर स्कंदक-"भक्त-प्रत्याख्यान क्या है ?
भगवान्-'भक्तप्रत्याख्यान-मरण दो प्रकार का है--(१) निर्हारिम और (२) अनिभरिम । इन दोनों प्रकारों का भक्तप्रत्याख्यान मरण प्रीति कर्मवाला है।
"हे स्कन्दक ! इन प्रकारों से जो मरते हैं वह नैरयिक नहीं होते और न अनन्त भवों को प्राप्त होते हैं । ये दोघं संसार को कम करते हैं।" . इसके पश्चात् स्कंदक ने भगवान् महावीर के वचन पर अपनी आस्था प्रकट की और प्रबजित होने की इच्छा प्रकट की। भगवान् ने स्कंदक को प्रजित कर लिया और तत्सम्बन्धी शिक्षा और समाचारी से परिचय कराया।
भगवान् की सेवा में रहते स्कंदक ने एकादशांगी का अध्ययन किया । १२ वर्षों तक साधु-धर्म पालकर स्कंदक ने भिक्षु-प्रतिमा और गुणरत्न-संवत्सर' आदि विविध तप किये और अंत में विपुलाचल पर जाकर समाधि पूर्वक अनशन करके देह छोड़ अच्युतकल्प नामक स्वर्ग में उसने देवपद प्राप्त किया।
नंदिनीपिता का श्रावक होना छत्रपलाशक-चैत्य से विहार कर भगवान् श्रावस्ती के कोष्ठक-चैत्य में घधारे । उनकी इसी यात्रा में गाथापति नन्दिनी-पिता आदि ने गृहस्थधर्म स्वीकार किया। उसकी चर्चा हमने मुख्य श्रावकों के प्रसंग में सविस्तार की है।
श्रावस्ती से भगवान् वाणिज्यग्राम आये और अपना वर्षावास भगवान् ने वहीं बिताया।
१-इन व्रतों का उल्लेख भगवतीसूत्र में विस्तार से आया हैं । २-भगवतीसूत्र सटीक, शतक २, उद्देशा १ पत्र १६७-२२७
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२४-वाँ वर्षावास जमालि का पृथक होना
वर्षाकाल समाप्त होने के बाद भगवान् ने विहार किया और ब्राह्मणकुंडके बहुशाल- चैत्य में पधारे । यहाँ जमालि की इच्छा अपने ५०० शिष्यों को लेकर पृथक होने की हुई । उसने भगवान् के सम्मुख जाकर उनका वंदन किया और पूछा - "भगवन् ! आपकी आज्ञा से मैं अपने परिवारसहित पृथक विहार करना चाहता हूँ ।" भगवान् ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया ।
जमाल ने दूसरी और तीसरी बार भी इसी प्रकार अनुमति माँगी, पर भगवान् दूसरी और तीसरी बार भी मौन रहे । उसके बाद भगवान् को नमन करके और उनकी वंदना करके जमालि बहुशाल- चैत्य से निकल कर अपने परिवार सहित स्वतंत्र विहार करने लगा ।
चन्द्र-सूर्य की वन्दना
वहाँ से भगवान् ने वत्स देश की ओर विहार किया और कौशाम्बी पधारे । यहाँ सूर्य और चन्द्र अपने मूल विमानों के साथ आपकी वंदना करने आये । इसे जैनशास्त्रों में आश्चर्य कहा गया है ।
१- भगवतीसूत्र सटीक, शतक ६, उद्देशा ६, सूत्र ३८६ पत्र ८८६
२- त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ८, श्लोक ३३७-३५३ पत्र ११०-२ तथा १११-१
३--- ठाणांगसूत्र सटीक, ठाणा १०, उ०३, सूत्र ७७७ पत्र ५२३-२; कल्पसूत्र सुबोधिका टीका पत्र ६७, प्रवचनसारोद्धार सटीक गाथा ८८५ पत्र २५६०१
२५८-२
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८८
तीर्थङ्कर महावीर
पार्श्वपत्यों का समर्थन कौशाम्बी से विहार कर भगवान् राजगृह के गुणशिलक-चैत्य में पधारे । गौतम स्वामी भिक्षा के लिए नगर में गये तो उन्होंने बहुत-से आदमियों से सुना---'हे देवानुप्रिय ! तुंगिका-नगरी' के बाहर पुष्पवती-नामक चैत्य में पार्श्वनाथ भगवान् के शिष्य स्थविर आये हैं। उनसे श्रावकों ने इस प्रकार प्रश्न पूछे-'हे भगवन् ! संयम का क्या फल है ? हे भगवन् ! तप का क्या फल है ?' इसका उन्होंने उत्तर दिया--'संयम का फल आश्रवरहित होना है और तप का फल कर्म का नाश है।'
__ "इसे सुनकर गृहस्थों ने पूछा-'हम लोगों ने सुना है कि संयम से देवलोक की प्राप्ति होती है और लोग देव होते हैं ? यह क्या बात है ?
"साधुओं ने इसका उत्तर दिया-'सराग अवस्था में आचारित तप से और सराग अवस्था में पाले गये संयम से मनुष्य जब मृत्यु से पहिले कर्मों का नाश नहीं कर पाता तो बाह्य संयम होने के कारण और अन्तर की बची आसक्ति के कारण मुक्ति के बदले देवत्व प्राप्त होता है।"
गौतम स्वामी को यह वार्ता सुनकर बड़ा कुतूहल हुआ और भिक्षा लेकर जब वे लौटे तो उन्होंने भगवान् से पूछा--"भगवान् पार्श्वपत्य साधुओं का दिया उत्तर क्या सत्य है ? क्या वे इस प्रकार उत्तर देने में समर्थ हैं ? क्या वे विपरीत ज्ञान से मुक्त हैं ? क्या वे अच्छे प्रकृति वाले हैं ? क्या वे अभ्यासी हैं और विशेष ज्ञानी हैं ?"
१-यह तुंगिका नगरी राजगृह के निकट थी। प्राचीन तीर्थमाला, भाग १, पृष्ठ १६ ( भूमिका ) में इसकी पहचान बिहार-शरीफ से की गयी है। बिहार शरीफ से ४ मील की दूरी पर तुंगी-नामक गाँव है, उसे तुंगिका मानना अधिक उपयुक्त ज्ञात होता है ( देखिये सर्वे आव इण्डिया का नकशा संख्या ७२ G १ इंच =४ मील ) इसके अतिरिक्त एक और तुंगिका थी। वह वत्स-देश में थी। महावीर स्वामी के गणधर मेतार्य यहाँ के रहने वाले थे ( आवश्य कनियुक्ति-दीपिका, भाग १, गा० ६४६ पत्र १२२-१)
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पार्श्वत्यों का समर्थन
८६ इस पर भगवान् ने उत्तर दिया- "हे गौतम ! वे स्थविर उन श्रमणोपासकों को उत्तर देने में समर्थ हैं--असमर्थ नहीं हैं। उस प्रकार का उत्तर देने के लिए वे साधु अभ्यासवाले हैं, उपयोग वाले हैं तथा विशेष ज्ञानी हैं । उन्होंने सच बात कही । केवल अपनी बड़ाई के लिए नहीं कहा । मेरा भी यही मत है कि, पूर्व तप और संयम के कारण और कर्म के शेष रहने पर देवलोक में मनुष्य जन्म लेता है।"
फिर गौतम स्वामी ने पूछा-"उस प्रकार के श्रमण अथवा ब्राह्मण की पर्युपासना करने वाले मनुष्य को उनकी सेवा का क्या फल मिलता है ?"
भगवान्--" हे गौतम ! उनकी पर्युपासना का फल श्रवण है अर्थात् उनकी पर्युपासना करने से सत्शास्त्र सुनने को मिलते हैं ?”
गौतम स्वामी-"उस श्रवण का क्या फल है ?”
भगवान्-"उसका फल ज्ञान है अर्थात् सुनने से उनका ज्ञान होता है।"
गौतम स्वमी-"उस जानने का क्या फल है ?" भगवान्-"उस जानने का फल विज्ञान है ।” । गौतम स्वामी-“उस विज्ञान का क्या फल है ?" ।
भगवान्-“हे गौतम ! उसका फल प्रत्याख्यान है अर्थात विशेष जानने के बाद सब प्रकार की वृत्तियाँ अपने आप शांत पड़ जाती है।"
गौतम स्वमी-“हे भगवन् ! उस प्रत्याख्यान का क्या फल है ?'
भगवान्-“हे गौतम ! उसका फल संयम है अर्थात् प्रत्याख्यान प्राप्त होने के पश्चात् सर्वस्व त्याग रूप संयम होता है।"
गौतम स्वामी- "हे भगवान् ! उस संयम का क्या फल है ?"
भगवान्-"उसका फल आश्रवरहितपना है अर्थात् विशुद्ध संयम प्राप्त होने के पश्चात् पुण्य अथवा पाप का स्पर्श नहीं होता । आत्मा अपने मूल रूप में रमण करता है।"
गौतम स्वामी-"उस आश्रवरहितपने का क्या फल है ?"
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So
तीर्थङ्कर महावीर भगवान्-" हे गौतम ! उसका फल तप है।" गौतम स्वामी--"उस तप का क्या फल है ? भगवान्-"उसका फल कर्म-रूप मैल साफ करना है।" गौतम स्वामी-"कर्म-रूप मैल साफ होने का क्या फल है ?" भगवान्---"उससे निष्क्रियपना प्राप्त होती है।" गौतम स्वामी-"उस निष्क्रियपन से क्या लाभ है ?"
भगवान्-"उसका फल सिद्धि है अर्थात् अक्रियपन प्राप्ति के पश्चात् सिद्धि प्राप्त होती है। कहा गया है
सवणे णाणे य विन्नाणे पच्चक्खाणे ‘य संजमे । अणराहये तवे चेव अकिरिया सिद्धि ॥
-(उपासना से ) श्रवण, श्रवण से ज्ञान, ज्ञान से विज्ञान, विज्ञान से प्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान से संयम, संयम से अनाश्रय, अनाव से तप, तप, से कर्ननाश, कर्मनाश से निष्क्रियता और निष्क्रियता से सिद्धिअजरामरत्व प्राप्त होती है।'
१-भगवतीसूत्र सटीक, शतक २, उद्देशा ५, पत्र २३७-२४६
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२५.वाँ वर्षावास बेहास-अभय आदि की देवपद-प्राप्ति
इसी वर्ष भगवान के शिष्य बेहास-अभय आदि साधुओं ने राजगृह के पाश्र्ववर्ती विपुल पर्वत पर अनशन करके देवपद प्राप्त किया ।' भगवान् ने अपना वर्षावास भी राजगृह में बिताया ।
__भगवान् चम्पा में वर्षावास समाप्त होते ही भगवान् ने चम्पा की ओर विहार किया। श्रेणिक की मृत्यु के पश्चात् कृणिक ने अपनी राजधानी चम्पा में बना ली थी। इसका सविस्तार वर्णन हमने राजाओं के प्रसंग में किया है !
भगवान् चम्पा मैं पूण भद्र-चैत्य में ठहरे । राजा कूणिक बड़ी सजधज से भगवान का वंदन करने गया । कृणिक के भगवान् की वंदना करने जाने का बड़ा विस्तृत वर्णन औपपातिकसूत्र में आता है ।
भगवान पर कूणिक की निष्ठा का प्रमाण कूणिक के सम्बन्ध में औपपातिक में उल्लेख आता है
१–अणुत्तरोववाइयासूत्र (एन० वी० वैद्य, सम्पादित ) १, पृष्ठ ४८
२-औपपातिकसूत्र सटीक (सूत्र १, पत्र १-७ ) में चम्पा-नगर का बड़ा विस्तृत वर्णन आता है। जैनमृत्रों में जहाँ भी नगर का वर्णन मिलता है वहाँ प्रायः करके 'जहा चम्पा' का उल्लेख मिलता है।
३--औपपातिकसूत्र सटीक सूत्र २ पत्र ८-६ में चैत्य का बड़ा विस्तृत वर्णन है। चैत्य का एक मात्र यही वर्णक जैन-साहित्य में है । जहाँ भी 'चैत्य' शब्द के बाद
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तीर्थङ्कर महावीर
तस्सणं कोणिस्स रण्णो एक्के पुरिसे विउलकयवित्तिए भगवओो पचित्तिवाउए भगवओ तद्देवसि पविति णिवेद तस्स णं पुरिसस्स बहवे अण्णे पुरिसा दिण्णभतिभत्तवेश्रणा भगवो पवित्तिवाडश्रा भगवओ तद्देवसियं पविति णिवेदेति ॥ -औपपातिक सूत्र, सटीक, सूत्र ८ पत्र २४-२५
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इसकी टीका इस प्रकार की गयी है
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'तस्स गं' मित्यादौ 'विउलकयवित्तिए' ति विहित प्रभूतजीविक इत्यर्थः, वृत्ति प्रमाणं चेदम्-श्रद्ध त्रयोदशरजतसहस्राणि यदाह'मंडलियाण सहस्सा पीईदाणं सयसहस्सा' 'पवित्ति वाउए' त्ति प्रवृत्ति व्यापृतो वार्ता व्यापारवान् वार्तानिवेदक इत्यर्थः । ' तद्देवसिनं' ति दिवसे भवा दैवसिकी सा चासौ विवक्षिता - प्रमुत्र नागरादावागतो विहरति भगवानित्यादिरूपा, दैवसिकी चेति तद् दैवसिकी, अतस्तां निवेदयति । 'तस्स ण' मित्यादि अत्र 'दिरणभतिभत्तवेयण' ति दत्तं भृतिभक्त रूपं वेतनं — मूल्यं येषां ते तथा, तत्रभृतिः कार्षापणादिका भक्त च भोजनमिति ।
उस कोणिक राजा ने एक पुरुष की विस्तीर्ण वृत्ति - आजीविका भोजनादि का भाग वृत्ति — निकाली थी, वह पुरुष भगवंत महावीरस्वामी की सदैव ( रोज-रोज ) की वार्ता- समाचार कहने वाला था । उस पुरुष के हाथ नीचे और भी बहुत-से पुरुष थे । उनको इस पुरुष ने बहुवृत्ति भोजनादिक का विभाग दिया था, जिससे वे जहाँ भगवंत विचरते रहते
(पृष्ठ ११ पी पाद टिप्पण का शेशांष )
'वरणओ' जैन- साहित्य में मिलता है, वहाँ यही वर्णक जोड़ा जाता है । इस वर्णक को ध्यान में रखकर उसका अर्थ 'उद्यान' आदि किया ही नहीं जा सकता । अनजान श्रावकों को भ्रम में डालने के लिए फिर भी कुछ लोग ऐसी अनधिकार चेष्टा करते हैं ।
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भगवान् पर कूणिक की निष्ठा प्रमाण
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उनके समाचार उस प्रवर्तिक बादुक पुरुष को कहते थे और वह प्रवर्तिक प्रवादुक पुरुष उन समाचारों को महाराज कोणिक को कहता था ।
इस कथन से ही स्पष्ट है कि, कूणिक भगवान् का कितना बड़ा भक्त था ।
श्रेणिक के पौत्रों की दीक्षा
भगवान् ने कूणिक राजा और नगर निवासियों को जिससे प्रभावित होकर अनेक गृहस्थों ने अनगार-व्रत श्रेणिक के १० पौत्र पद्म, महापद्म, भद्र, सुभद्र, महाभद्र, पद्मसेन, पद्मगुल्म, नलिनीगुल्म, आनंद और नंदन ने भी साधु- व्रत स्वीकार किया । ' इनके अतिरिक्त जिनपालित' आदि अनेक समृद्ध नागरिकों ने निर्गथ श्रमण-धर्म अंगीकार किया तथा पालित आदि ने श्रावक-धर्म स्वीकार किया |
::
१ - निरयावलिका ( कप्पवडिसियाओ ) ( डा० पी० एल० वैद्य - सम्पादित ) पृष्ठ ३१ ।
२- ज्ञाताधर्मकथा ( एन० वी० वैद्य-सम्पादित ) १-६ पृष्ठ १२२-१३२ । ३ - उत्तराध्ययन ( नेमिचंद्र की टीका सहित ) अध्ययन २१ पत्र २७३ - २२ श
धर्मोपदेश दिया, अंगीकार किया ।
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२६-वाँ वर्षावास खेमक आदि की दीक्षा
चम्पा से भगवान महावीर विदेह-भूमि की ओर गये। रास्ते में काकन्दीनगरी पड़ी । यहाँ भगवान् ने खेमक और धृतिधर को दीक्षित किया ।
खेमक ने १६ वषों तक साधु-धर्म पालक कर विपुल पर अनशन किया और सिद्ध-पद प्राप्त किया।
धृतिधर ने भी १६ वर्षों तक साधु-धर्म पाला और विपुल पर अनशन करके सिद्ध-पद प्राप्त किया। इस वर्ष का वर्षावास भगवान् ने मिथिला में बिताया।
श्रेणिक की रानियों की दीक्षा चातुर्मास समाप्त होने के बाद भगवान् ने अंग-देश की ओर विहार किया । इन दिनों विदेह को राजधानी वैशाली में युद्ध चल रहा था। कारणों सहित इस युद्ध का विस्तृत वर्णन हमने राजाओं के प्रसंग में किया है। इस युद्ध मैं वैशाली की ओर से काशी-कोशल के १८ गणराजे
और कूणिक की ओर से १ काल, २ सुकाल, ३ महाकाल, ४ कण्ह, ५ सुकण्ह, ६ महाकण्ह, ७ वीरकण्ह, ८ रामकण्ह, ९ पिउसेण और १० महसेणकण्ह कूणिक के दस भाई लड़ रहे थे।
१-अंतगडदसाओ (एन० वी० वैद्य-सम्पादित ) सूत्र ५-६ पृष्ठ ३४ २-निरयावलिया ( पी० एल० वैद्य-सम्पादित ) पृष्ठ ४ ।
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खेमक आदि की दीक्षा इन्हीं दिनों भगवान् चम्पा-नगरी के पूर्णभद्र चैत्य में पधारे । उनके दर्शन के लिए नगर के लोग गये । राजपरिवार की महिलाएँ भी गयीं।
जब उपदेश समाप्त हुआ तो श्रेणिक की पत्नी ( कूणिक की विमाता ) काली रानी ने भगवान् से पूछा कि युद्ध में कालकुमार का क्या हुआ ? भगवान् ने उसकी मृत्यु की सूचना दी ।
उसी प्रकार निरन्तर प्रतिदिन १ सुकाली, २ महाकाली, ३ कृष्णा ४ सुकृष्णा, ५ महाकृष्णा, ६ वीरकृष्णा, ७ रामकृष्णा, ८ पितृसेनकृष्णा और ९ महासेनकृष्णा-नामक श्रेणिक की अन्य रानियाँ भी अपने पुत्रों का समाचार पूछती गयीं और भगवान् उनकी मृत्यु की सूचना देते गये। ___ भगवान ने उन राजमाताओं को उपदेश दिया और संसार की असारता बतायी । भगवान के उपदेश से प्रतिबोध पाकर काली आदि दसो रानियों ने भगवान से दीक्षा लेकर साध्वी-व्रत धारण कर लिया ।' ।
साध्वी-व्रत ग्रहण करने के बाद काली आदि ने सामायिक आदि तथा ११ अंगों का अध्ययन किया ।
एक दिन काली ने आर्यचन्दना से पूछा--"यदि आप आज्ञा दें तो मैं रत्नावलि-तपस्या करूँ। आर्यचंदना की अनुमति प्राप्त होने पर उन्होंने पहले रत्नावलि-तप किया । इस तपस्या में उन्हें कुल १ वर्ष ३ महीना २२ अहोरात्र लगे । इस एक परिपाटी में कुल ३८४ दिन तपस्या के और ८८ दिन पारणा के रहे।
प्रथम लड़ी पूरी करने के बाद उन्होंने ३ लड़ियाँ और पूरी की। इन चारों परिपाटियों में उन्हें ५ वर्ष ६ माह २८ दिन लगे।
इन विकट तपस्याओं से उनका शरीर मांस तथा रक्त से हीन हो गया । उठते-बैठते उनकी हड्डियों से कड़-कड़ की आवाज निकलती।
१-अंतगड ( एन० वी० वैद्य-सम्पादित ) पृष्ठ ३८
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तीर्थङ्कर महावीर
अपना शरीर इतना कृप देखकर उन्होंने संलेखना आदि करने की आर्य चंदना से अनुमति माँगी । आर्य चंदना ने उन्हें अनुमति दे दी ।
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पूरे ८ वर्षों तक श्रामण्य पर्याय पालकर अंत में मासिक संलेखना आत्मा को सेवित करती हुई ६० भक्तों को अनशन से छेदित कर मृत्यु को प्राप्त कर उसने सिद्ध-पद प्राप्त किया ।
काली ने कनकावलि -तप किया । इसकी एक परिपाटी में १ वर्ष ५ माह १८ दिन लगते हैं । सुकाली ने ९ वर्षों तक चारित्र पर्याय पाल कर मोक्ष प्राप्त किया ।
महाकाली ने लघुसिंह- निष्क्रीडित-नामक तप किया । इसके एक क्रम में ३३ दिन पारणे के और ५ महीने ४ दिन की तपस्या होती है । इस प्रकार की ४ परिपाटी उसने २ वर्ष २८ दिनों में पूरी की। इसके अतिरिक्त भी उसने अन्य तपस्याएँ कीं और अन्तिम समय में संथारा करके कर्मों के सम्पूर्ण नाश हो जाने पर मोक्ष गयी ।
कृष्णा ने महासिंह - निष्क्रीडित-तप आर्य चन्दना की अनुमति लेकर किया । इसमें ६१ दिन पारणे के और ४७९ दिन तपस्या के थे। ऐसी ४ परिपाटी उसने ६ वर्ष २ महीने १२ दिन में पूरी की । अन्त में संथारा करके वह मोक्ष गयी ।
सुकृष्णा ने सतसप्तिका भिक्षु प्रतिमा-तप आर्य चन्दना की अनुमति से किया । उसकी समाप्ति पर उसने फिर अष्ट- अष्टमिका भिक्षु प्रतिमा-तप किया । उसे समाप्त कर उसने नव-नवमिका भिक्षु प्रतिभा तप की अनुमति चाही | अनुमति मिलने पर उसने वह तप भी पूरा किया । अन्त में संथारा अनशन करके मोक्ष गयी ।
महाकृष्ण ने लघु सर्वतोभद्र की चार परिपाटियाँ पूरी की। इस तपस्या मैं उसे १ वर्ष १ मास १० दिन लगे । अन्त में उसने भी सिद्ध-पद प्राप्त
किया 1
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श्रेणिक की रानियों की दीक्षा वीरकृष्णा ने महासर्वतोभद्र-तपस्या की और अपने सभी कर्म खपा कर वह भी मोक्ष गयी।
रामकृष्णा ने भद्रोत्तर-प्रतिमा-नामक तपस्या की । उसकी चार परिपाटी में उसे २ वर्ष २ मास २० दिन लगे । कर्मों का क्षय कर उसने भी सिद्धपद प्राप्त किया।
पितृसेणा ने कितने ही उपवास किये और कर्मों का क्षय करके मोक्षपद प्राप्त किया।
महासेणकृष्णा ने आयंबिल-वद्ध मान-नामक तप किया। इसमें उसे १४ वर्ष ३ मास २० दिन लगे । १७ वर्षों तक चरित्र-पर्याय पालकर अन्त में मासिक संलेखना से आत्मा को भावित करती हुई वह भी मोक्ष गयी।'
१-अन्तकृतदशांग ( एन० वी० वैद्य-सम्पादित ) अ० ८, पृष्ठ ६८-४७ ।
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२७-वाँ वर्षावास गोशाला - काण्ड
भगवान् महावीर और गोशाला' से भगवान् की छद्मावस्था के दूसरे वर्षावास में नालंदा में भेंट हुई थी । हम उसका वर्णन प्रथम भाग में ( पृष्ठ १८९ ) कर चुके हैं। वहीं ( पृष्ठ १९० १९१ ) पादटिप्पणियों में हमने उसका परिचय और पूर्व जीवन भी दे दिया है । गोशाला भगवान् की छद्मावस्था के १० - वें वर्षावास तक भगवान् के साथ रहा । भगवान् के साथ ही रहकर उसे तेजोलेश्या का ज्ञान हुआ था और भगवान् ने हो उसे तेजोलेश्या - प्राप्ति की विधि बतायी थी । हम इसका भी उल्लेख प्रथम भाग में ही (पृष्ठ २१८ ) कर चुके हैं । उसके बाद गोशाला स्वतंत्र रूप से तेजोलेश्या प्राप्ति के लिए तप करने लगा । भगवान् को छद्मावस्था में २-रे से १० वें वर्षावास के बीच में गोशाला केवल एक बार भगवाद् की छद्मावस्था के ६-ठें वर्षावास में कूपियसन्निवेश से पृथक् हुआ था ( देखिये 'तीर्थंकर महावीर', भाग १ पृष्ठ २०४ ) और ६ मास बाद शालीशीर्ष में पुनः भगवान् से आ मिला था ( देखिये 'तीर्थंकर महावीर', भाग १, पृष्ठ २०६ ) ।
गोशाला ने तेजोलेश्या - प्राप्ति के लिए श्रावस्ती में एक कुम्भकार की शाला ( आवश्यकचूर्णि, पूर्वार्द्ध, पत्र २९९ ) में तप किया था । उस तप
१ - गोशाला के पूर्वभव का उल्लेख महानिशीथ अ० ६ में आता है - देखिये 'स्टडीन जेन महानिसीह' कैपिटेल ६-८ [ जर्मन भाषा में टिप्पणि सहित ] फ्रैंक रिचार्ड हैं और वाल्थर शुक्रिंग- सम्पादित, गाथा १५३-१६८ पृष्ठ २४.२६,
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गोशाला - काण्ड
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और तप के फल की प्राप्ति तथा उसके प्रथम प्रयोग का भी उल्लेख हम प्रथक भाग में ही कर चुके हैं ( देखिये पृष्ठ २१८ ) । डाक्टर बाशम ने अपनी पुस्तक 'आजीवक' में ( पृष्ठ ५० ) लिखा है कि, गोशाला ने झील 'के तट पर तेजोलेश्या के लिए तप किया था और संदर्भरूप में भगवती का नाम दिया है। पर, झील का उल्लेख न तो भगवतीसूत्र ( शतक १५, सूत्र ५४४ ) में है, न आवश्यकचूर्णि (पूर्वार्द्ध, पत्र २९९ ) न आवश्यक मलयगिरि - टीका ( पत्र २८७ - १ ), न आवश्यक हरिभद्रीय टीका ( पत्र २१४ - २ ) न कल्पसूत्र ( सुबोधिका टीका सहित, पत्र ३०५ ) में और न चरित्र ग्रन्थों में ।
बाराम को सूत्र में आये 'वियडासएणं' शब्द से और उसकी टीका देखकर भ्रम हुआ । टीकाकार ने 'विटक' का अर्थ 'जल' किया है । पर, बाराम ने यह समझने की चेष्टा नहीं कि, इस 'विकट' का प्रयोग कैसे अर्थ में हुआ है । यह शब्द जैन-साहित्य में कितने स्थलों पर प्रयुक्त हुआ है । हम उनमें से कुछ उद्धरण सप्रमाण दे रहे हैं :
( १ ) शुद्ध विकटं - प्रासुकमुकदम् - आचारांग सटीक पत्र ३१५-२ (२) वियडेण - 'विकटेन' विगत जीवेनाप्युदकेन
— सूत्रकृतांग सटीक १, ९, १९ पत्र १८१ (३) शुद्ध विकटं - शुद्ध विकटम् - उष्णोदकं
- ठाणांगसूत्र सटीक ३, ३, १८२, पत्र १४८-२ ( ४ ) सुद्ध वियडे - उष्णोदकं
- कल्पसूत्र सुबोधिका टीका सहित, पत्र ५४८
तो इस जल से झील का अर्थ तो लग ही नहीं सकता । भगवान् ने जहाँ तेजोलेश्या प्राप्ति की विधि बतायी है, वहाँ उसे ' कुम्मासपिंडियाए' और 'विड' का आश्रय लेने को कहा है । यहाँ मूल शब्द 'आसणं' है ।
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तीर्थङ्कर महावीर 'वियडासएणं' का संस्कृत टीकाकार ने 'विकटाश्रयो किया है—अर्थात् इन दो वस्तुओं का सहारा लेकर । 'कुम्मासपिंडियाए' के लिए टीकाकार ने लिखा है- 'अर्द्धस्विन्ना' अर्थात् आधा उबला हुआ। और, कितनी मात्रा में यह बताते हुए भगवान् ने कहा 'सनहाए' अर्थात् बँधी मुट्ठी के ऊपर जितना कुल्माष रखा जा सके, उतना मात्र खाकर ।
'आश्रय' की टीका टीकाकार ने 'स्थानं' किया है। 'ठाण' का अर्थ है-अंक का स्थान अर्थात् परिमाण | यह शब्द मर्यादाद्योतन के लिए प्रयुक्त हुआ है । इसे टीकाकार ने और स्पष्ट कर दिया है
प्रस्तावाच्चुलुकमाहुवृद्धा -अर्थात् एक चिल्लू मात्र पानी
डाक्टर बाशम ने गोशाल के तेजोलेश्या-प्रप्ति का समय मंख का व्यवसाय छोड़ने के लगभग ७ वर्ष बाद माना है।' इस गणना का मूल आधार यह है कि उन्होंने ६ वर्षों तक गोशाला का भगवान के साथ रहना माना है । कल्याणविजय जी ने भी अपनी पुस्तक 'भगवान् महावीर' में लिखा है-“लगभग ६ वर्षों तक साथ रहने के बाद वह उनसे पृथक हो गया । "ऐसा ही गोपालदास जीवाभाई पटेल ने 'महावीर-कथा' में लिखा है। कल्याणविजय और गोपालदास ने अपने ग्रन्थों में गोशाला का भगवान् की छद्मावस्थ के दूसरे वर्ष में भगवान के साथ आना और १०-वें वर्ष में पृथक होना लिखा है। ऐसा ही क्रम 'आवश्यकचूर्णि' में भी है। प्रथम भाग में हम इन सब का विस्तृत विवरण सप्रमाण दे चुके हैं । अतः हम उनकी यहाँ आवृत्ति नहीं करना चाहते ।
भगवती में ६ वर्ष का पाठ देखकर वस्तुतः लोग भ्रम में पड़ जाते हैं । और, स्वयं अपने पूर्व लिखे पर ध्यान न रखकर ६ वर्ष लिखकर भ्रम पैदा करते हैं।
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१--आजीवक, पष्ठ ५० २-पृष्ठ १२३ ३-पृष्ठ-३८०
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गोशाला-काण्ड गोशाला दूसरे वर्षावास में भगवान् से मिला और ६-वाँ वर्षावास भगवान् ने अनार्यभूमि में बिताया । इस प्रकार भगवान के साथ का उसका वह ७-वाँ वर्ष था—अर्थात् ६वर्ष पूरा हो चुका था और कुछ मास अधिक हो चुके थे। अनार्य भूमि से गोशाला भगवान के साथ लौटा और तेजोलेश्या को विधि जानने तक भगवान के साथ रहा । अतः यह बात निर्विवाद है कि वह भगवान के साथ ६ वर्ष से अधिक ही रहा ।
तेजोलेश्या जैन-ग्रंथों में लेश्या की परिभाषा बताते हुए लिखा हैलिश्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या'
लेश्याओं का सविस्तार वर्णन द्रव्यलोक प्रकाश में आता है। उसी स्थल पर उनके रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि का भी विस्तार से वर्णन है। ठाणांग सूत्र तथा समवयाांग सूत्र में ६ लेश्याएँ बतायी गयी हैं
१ कृष्णलेश्या, २ नोललेश्या, ३ कापोतलेश्या, ४ तेजोलेश्या, ५ पद्मलेश्या और ६ शुल्कलेश्या । . तेजोलेश्या को टीका करते हुए प्रवचनसारोद्धार के टीकाकार ने लिखा है
तत्र तेजोलेश्या लब्धि क्रोधाधिक्यात्प्रतिपन्थिनं प्रति मुखेनानेक योजन प्रमाणक्षेत्राश्रित वस्तु दहन दक्षतीव्रतर तेजो निसर्जन शक्तिः।
१-ठणांगसूत्र सटीक, ठा० १, सूत्र ५१ पत्र ३१-२
२-~-द्रव्यलोक-प्रकाश गुजराती अनुवाद सहित ( आगमोदय-समिति ) सर्ग ३, पृष्ठ ११२-१२६
३-ठाणांग सूत्र सटीक, उत्तरार्ध, ठा० ६, उ० ३, सूत्र ५०४ पत्र ३६१-२ ४-समवायांग सूत्र सटीक, समवाय ६, पत्र ११-१। ५---प्रवचनसारोद्धार सटीक, द्वार २७० पत्र ४३२-१ ।
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तीर्थङ्कर महावीर __तेजोलेश्या किन परिस्थितियों में काम करती है, इसका उल्लेख सटीक ठाणांगसूत्र में सविस्तार है।'
निमित्तों का अध्ययन तेजोलेश्या के लिए तप में सफलता प्राप्त होने के बाद गोशाला ने दिसाचारों से निमित्त सीखे । इसका भी वर्णन हम पहले कर चुके हैं।
"दिशाचर' शब्द पर टीका करते हुए अभयदेव सूरि ने लिखा है
"दिसाचर' त्ति दिशं मेरां चरन्ति-यान्ति मन्यते भगवतो वयं शिष्या इति दिकचराः।
भगवच्छिष्याः पार्श्वस्थी भूता इति टीकाकारः 'पासावचिज' त्ति चूर्णिकारः। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इसका वर्णन अधिक स्पष्ट है । उपदेशमाला सटीक में स्पष्ट 'पासाऽवच्चिज्जा' लिखा है।
१-ठाणांगसूत्र सटीक, ठाणा १०, उ० ३, सूत्र ७७६ पत्र ५२०-२ उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन ३४ [ नेमिचन्द की सटीक सहित ] पत्र ३६८-१-३७३-१ में भी लेश्याओं की सविस्तार वर्णन है।
२-तीर्थकर महावीर, भाग १, पृष्ठ २१८ । ३-भगवतीसूत्र सटीक, श० १५, उ० १, सूत्र-५३६ पत्र १२१० । ४-श्री पार्श्व शिष्या अष्टांगनिमित्त ज्ञान पंडिताः,
गोशालसस्य मिलिताः षडमी प्रोज्जितव्रताः ॥१३४॥ नाम्राः शोणः कलिन्दो ऽन्यः कर्णिकारोऽपरः पुनः । अच्छिद्रोऽथाग्निवेशामोऽथार्जुनः पञ्चमोत्तरः ॥१३॥ तेऽप्याख्युरष्टांग महानिमित्तं तस्य सौहृदात्....... .
-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र पर्व १०, सर्ग ४, पत्र ४५-२ ५-उपदेशमाला दोघट्टी विशेष वृत्ति, पत्र ३२०
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निमित्तों का अध्ययन
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बाराम ने लिखा है कि दिशाचरों ने पूर्वो से ८ निमित्त और २ मग्ग निकाले । गोशाला ने उन पर विचार किया और स्वीकार कर लिया । बाराम ने भगवती का जो यह अर्थ निकाला वह विकृत है । वस्तुतः तथ्य यह है कि गोशाला ने उन दिसाचरों से निमित्त आदि सीखे ।
अपने 'उवासगदसाओ' के परिशिष्ट में हार्नेल ने भगवतीसूत्र के १५ वें शतक का अनुवाद दिया है । उनके लिखे का तात्पर्य इस प्रकार है
" ६ दिसाचर गोशाला के पास आये। उनसे गोशाला ने उनके सिद्धान्तों के सम्बन्ध में विचार-विमर्ष किया । गोशाला ने अपने निज के सिद्धान्तों में जो ८ महानिमित्तों से निकाले गये थे ( जो पूर्वों के एक अंश थे ) – उनसे उसने निम्नलिखित ६ सिद्धान्त स्वीकार किये ।
.255
हार्नेल का यह अनुवाद न भगवती से मेल खाता है और न चरित्रों से । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में कैसा उल्लेख है, यह हम प्रथम भाग में दे चुके हैं । नेमिचन्द्र और गुणचन्द्र ने भी अपने ग्रंथों में इसे स्पष्ट कर दिया है । तद्रूप ही उल्लेख आवश्यकचूर्णि, आवश्यक की हरिभद्रीय टीका तथा मलयगिरि की टीका में भी है ।
जो पार्श्व संतानी साधु दीक्षा छोड़ देते थे, वे प्रायः करके निमित्त से जीविकोपार्जन करते थे । ऐसे कितने ही उदाहरण जैन- शास्त्रों में मिलते
१ - आजीवक, पृष्ठ २१३
२-उवासगदसाओ, परिशिष्ट, खंड
३- तीर्थंकर महावीर, भाग १, पृष्ठ २१८,
४ – नेमिचन्द्र-रचित 'महावीर चरियं', श्लोक ६३, पत्र ४६-१
५ - गुणचन्द्र - रचित 'महावीर चरियं', प्रस्ताव ६, पत्र २६३-२ ६ - पूर्वार्द्ध, पत्र २६६
७- पत्र २१५-२
८- पत्र २८७-१
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तीर्थङ्कर महावीर हैं । प्रसंगवश हम पाठकों का ध्यान उत्पल की ओर आकृष्ट करना चाहते हैं । उसका वर्णन हम पहले कर चुके हैं।'
निमित्त जैन-शास्त्रों में ८ निमित्त बताये गये हैं। ठाणांगसूत्र में उनके नाम इस प्रकार गिनाये गये हैं :
अट्टविहे महानिमित्त पं० तं०-भोमे १, उप्पाते २, सुविणे३ अंतलिक्खे ४, अंगे ५, सरे ६, लक्खणे ७, वंजणे ८।'
ये ही नाम भगवतीसूत्र की टीका मैं तथा कल्पसूत्र की सुबोधिका टीका मैं भी दिये हैं।
इन अष्टांग निमित्तों के अतिरिक्त गोशाला ने नवाँ गीतमार्ग और दसवाँ नृत्यमार्ग ( जो पूर्वो के अंग थे) दिसाचरों (घुमक्कड़) से सीखे । इनके आधार पर वह १ लाभ, २ अलाभ, ३ सुत्र, ४ दुःख, ५ जीवन और ६ मरण बता सकने में समर्थ था ।
जैन-शास्त्रों में 'पूर्व' अथवा 'पूर्वगत' का उल्लेख दृष्टिवाद-नामक १२-वें अंग में किया गया है। 'पूर्व' शब्द पर टीका करते हुए समवायांगसूत्र के टीकाकार ने लिखा है
पूर्वगंत? उच्यते, यस्मा त्तीर्थकरः तीर्थ-प्रवर्तनाकाले गणधरानां सर्वसूत्र धारत्वेन पूर्वं पूर्वगतं सूत्रार्थ भाषते तस्मा
१-तीर्थकर महावीर, भाग १, पृष्ठ १७१ २-ठाणगसूत्र सटीक, ठाणा ८, उ० सूत्र ६०८ पत्र ४२७-१ ३-भगवतीसूत्र सटीक, पत्र १२१० ४-पत्र १७१ ५-भगवतीसूत्र सटीक, श० १५, उ० १ सूत्र ५३६ पत्र १२०६-१२१०
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पूर्व
स्पूर्वाणीति भणितानि, गणधराः पुनः आचार क्रमेण रचयन्ति स्थापयन्ति च - सूत्रार्थः पूर्वमर्हता भाषितो गणधरैरपि रचितं पश्चादाचारादि'
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श्रुत रचनां विदधाना मान्तरेण तु पूर्वगतपूर्वगत श्रुतमेव पूर्व
इसी आशय की टीका नन्दीसूत्र की टीका में भी दी हुई है ।" ठाणांग सूत्र में दृष्टिवाद के १० नाम दिये हुए हैं वहाँ 'पूर्वगत' की टीका में आता है
सर्व श्रुतात्पूर्व क्रियत इति पूर्वाणि - उत्पाद पूर्वादीनि चतुर्दश तेषु गतः - अभ्यन्तरीभूतस्तत्स्वभाव इत्यर्थः पूर्वगतः...
जैन शास्त्रों में पूर्वो की संख्या १४ बतायी गयी है और उनके नाम इस प्रकार बताये गये हैं: - १ - उत्पादपूर्व, २ अग्रायणीयपूर्व, ३ वीर्यप्रवाद पूर्वं, ४ अस्तिनास्ति प्रवादपूर्व, ५ ज्ञानप्रवादपूर्व, ६ सत्यप्रवादपूर्व, ७ आत्मप्रवादपूर्व, ८ कर्मप्रवादपूर्व, ९ प्रत्याख्यान, १० विद्या-नुप्रवाद पूर्व, ११ अबंधपूर्व, १२ प्राणायुः पूर्व, १३ क्रियाविशालपूर्व -१४ लोकबिन्दुसारपूर्व * ।
यह 'पूर्व' शब्द जैन - साहित्य में पारिभाषिक शब्द है । इस रूप में ""पूर्व' का व्यवहार न तो वैदिकों में मिलता है और न बौद्धों में । डाक्टर - बरुआ ने 'पूर्व' का अर्थ परम्परागत किया है। पर, यह उनकी भूल है ।
१ - समवायांग सूत्र सटीक, समवाय १४७ पत्र १२१-२
२ - नंदीसूत्र सटीक, पत्र २४०-२
३ --ठाणांगसूत्र सटीक, ठाणा १०, उद्देशा ३, सूत्र ७४२ पत्र ४६१-२
४ - समवायांग सूत्र सटीक, समवाय १४, पत्र २५ - १, समवाय १४७ पत्र११६१ तथा नन्दीसूत्र सटीक, सूत्र ५७, पत्र २३६ - २ -- २३७-१
पष्ठ
५ - जर्नल आव द' डिपार्टमेंट आव लेटर्स, कलकत्ता विश्वविद्यालय, ii, ४१, आजीवक ( बाशम - लिखित ) पृष्ठ २१४
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तीर्थकर महावीर
'पूर्वो' के सम्बंध में हम जो कुछ ऊपर लिख आये हैं, उससे अधिक कुछ स्पष्टीकरण के लिए अपेक्षित नहीं है ।
गोशाला जिन बना श्रावस्ती में ही गोशाला ने तेजोलेश्या की प्राप्ति की और वहीं निमित्तादि का ज्ञान प्राप्त करके गोशाला अपने को " 'मैं जिन' हूँ,' 'मैं अर्हत्' हूँ,' 'मैं केवली हूँ,' 'मैं सर्वज्ञ हूँ' " कहकर विचरने लगा और आजीवक-सम्प्रदाय का धर्माचार्य बन गया ।
उसने अपना चौमासा श्रावस्ती में बिताया था । वह उसका चौबीसवाँ चौमासा था । चौमासे के बाद भी गोशाला हालाला कुम्भकारिन की भांडशाला में ठहरा था।
भगवान् श्रावस्ती में इसी समय भगवान् विहार करते हुए श्रावस्ती पहुँचे और श्रावस्ती के ईशान-कोण में स्थित कोष्ठक-चैत्य में ठहरे । भगवान् की आज्ञा लेकर भगवान् के मुख्य गणधर इन्दभूति गौतम गोचरी के लिए श्रावस्ती नगरी में गये । श्रावस्ती-नगरी में विचरते हुए इन्द्रभूति ने लोगों के मुख से सुना-"गोशालक अपने को 'जिन' कहता हुआ विचर रहा है।" १-राग-द्वेष-जेता
-कल्पसूत्र सुबोधिका टीका सहित, पत्र ३२२ २-अंरिहननात् रजोहननात् रहस्याभावाच्चेति वा पृषोदरादित्वात्
-अभिधान चिंतामणि सटीक, देवाधिदेव कांड, श्लोक २४, पष्ठ 8 ३-सर्वथावरण विलये चेतनस्वरूपाविर्भावः केवलं तदस्यास्ति केवली
-अभिधान चिन्तामणि सटीक, पृष्ठ १०. ४-सर्व जानाति इति सर्वज्ञः
-अभिधानचिंतामणि, सटीक पृष्ठ १० ५-सभष्य-चूर्णि निशीथ में कुम्भकार की पाँच शालाओं का उल्लेख पाता है:
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भगवान् श्रावस्ती में लौटकर इन्द्रभूति जब आये तो समवसरण के बाद पर्षदा वापस चली जाने पर इन्द्रभूति ने भगवान् से पूछा-“हे देवानुप्रिय ! मंखलीपुत्र गोशालक अपने को 'जिन' कहता है और 'जिन' शब्द का प्रकाश करता विचर रहा है । यह किस प्रकार माना जा सकता है ? यह कैसे सम्भव है ? मंखलिपुत्र गोशालक के जन्म से लेकर अंत तक का वृतांत आपसे सुनना चाहता हूँ।”
मंखलिपुत्र का जीवन इस प्रश्न को सुनकर भगवान् बोले- "हे गौतम ! तुमने बहुत-से मनुष्यों से सुना कि मंखलिपुत्र अपने को 'जिन' कहकर विचरता है। वह मिथ्या है । मैं इसे इस रूप मैं कहता हूँ कि मंखलिपुत्र गोशाला का पिता मंख जाति का मंखलि' नामक व्यक्ति था। मंखलि को भद्रा-नामकी भार्या थी। एक बार भद्रा गर्भवती हुई थी।
(पृष्ठ १०६ की पादटिप्पणि का शेषांश )
(१) पणिय साला-जत्थ भायणाणि विक्केति, वणिय, कुंभकारो वा एसा पणियसाला
-जहाँ भांड बेचे जाँये वह पणियसाला (२) भंडशाला–जहिं भयणाणि संगोवियाणि अच्छंति -~-जहाँ भांडसुरक्षित रखे जायें (३) कम्मसाला-जत्थकम्मं करेति कुम्भकारो -जहाँ कुंभकार भांड बनाता है (४) पयणसाला जहिं पच्चंति भायणाणि -जहाँ भांड पकाये जाते हैं (५) इंधणसाला जत्थ तण करिसभारा अच्छति
-जहाँ वह ईंधन संग्रह करता है--निशीथ समाष्य चूर्णि, भाग ४, पृष्ठ ६२ १-'विश्वोद्धारक महावीर', भाग १ ( पृष्ठ ११२ ) में गोशाला के पिता का नाम गोबाहुल लिखा है, जो सर्वथा अशुद्ध और शास्त्रों में आये प्रसंगों से प्रसिद्ध हैं ( देखिये आवश्यकचूर्णि, पूर्वार्द्ध, पत्र २८२ ) ।
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तीर्थंकर महावीर
" उस समय सरवण - नामक सन्निवेश था । उस सरवण सन्निवेश में गोहुल नामका ब्राह्मण रहा था । वह ऋद्धिवाला और अपरिभूत था, ऋग्वेदादि का पंडित था और सुपरिनिष्ठ था । गोशाला थी ।
उस गोबहुल की
"मंखली चित्र - फलक हाथ में लेकर अपनी गर्भवती पत्नी के साथ ग्रामानुग्राम भिक्षाटन करता हुआ सरवण - नामक ग्राम में आया और गोबहुल की गोशाला के एक विभाग में अपने भंडोपकरण उसने रख दिये । गर्भ के ९। मास पूरे हो रहे थे । अतः यहीं भद्रा को पुत्र पैदा हो गया । ११ दिन बीतने पर बारहवें दिन उस पुत्र का गुगनिष्पन्न नाम गोशाला रखा गया ( क्योंकि वह गोशाला में पैदा हुआ था । ' )
" बचपन पार कर चुकने के बाद गोशाला स्वयं चित्रफलक लेकर भिक्षाटन करने लगा ।
"उस समय ३० वर्ष गृहवास में बिताकर, माता-पिता के स्वर्ग-गमन के पश्चात् एक देवदूष्य लेकर मैंने साधु-त्रत स्वीकार किया । उस समय अर्द्ध मास खमण की तपस्या करता हुआ, अस्थिकग्राम को निश्रा में
१०८
( पृष्ठ १०७ पाद टीप्पणि का शेषांश )
बौद्ध ग्रंथों में उसका नाम मक्खली-गोशाला मिलता है। सामञ्जफल - सुत्त की टीका में बुद्धघोष ने लिखा है कि गोशाला दास था । फिसलन वाली भूमि में तेल का घड़ा लेकर जा रहा था । उसके मालिक ने उसे चेतावनी दी - 'तात मा खलं इति ।' इसके बावजूद उसने तेल नष्ट कर दिया । तेल नष्ट होने के बाद मालिक के डर से वह भागा | पर, मालिक ने उसके दास-करण का टोका पकड़ लिया। अपना वस्त्र छोड़कर गोशाला नंगा ही भागा । इस प्रकार वह नग्न साधु हो गया और - मालिक द्वारा कहे गये 'मा खलि' शब्द के आधार पर वह 'मक्खी' कहा जाने - डिक्शनरी आव पाली प्रापर नेम्स, भाग २, पृष्ठ ४००
लगा ।
१ - गोशालक का जन्म गोशाला में हुआ था, ऐसा सामज्ज फलसुत्त की टीका में बुद्धघोष ने भी लिखा है - सुमंगल विलासिनी - पृष्ठ १४३-४; आजीवक ( बारामलिखित) पृष्ठ ३७
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मंखलिपुत्र का जीवन
१०६ प्रथम वर्षावास बिताने में आया । दूसरे वर्ष में मास खमण की तपस्या करके पूर्वानुपूर्वी विचरता हुआ, ग्रामानुग्राम में विहार करता हुआ राजगृह-नगर के नालंदापाड़ा के बाहर यथाप्रतिरूप अवग्रह मात्र कर तंतुवायशाला के एक भाग में वर्षावास बिताने के लिए रुका।
__"अन्यत्र स्थान न मिलने के कारण गोशालक भी उसी तंतुवायशाला में आकर टहरा । मास-खमण की पारणा के लिए मैं तंतुवायशाला से निकला और नालंदा के मध्य भाग में होता हुआ राजगृह पहुँचा। राजगृह में विजय-नामक गाथापति रहता था। उसने बड़े आदर से मुझे भिक्षा दी । उस समय उसके घर में पाँच दिव्य प्रकट हुए- १ वसुधारा की वृष्टि, २ पाँच वर्णों के पुष्पों की वृष्टि, ३ ध्वजा-रूप वस्त्र की वृष्टि, ४ देवदुंदुभी बजी और ५५ 'आश्चर्यकारी दान', 'आश्चर्यकारी दान' की ध्वनि स्वर्ग से आने लगी। राजमार्ग में भी लोग उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। बहुत-से लोगों से विजय की प्रशंसा सुन गोशाला को कुतूहल उत्पन्न हुआ और वह विजय के घर आया। फिर मेरे पास आकर उसने कहा-'हे भगवन् ! आप हमारे धर्माचार्य हैं और मैं आपका अंतेवासी।'' उस समय मैंने गोशाला के इस कथन का आदर नहीं किया ।
"दूसरा मास-क्षमण पूरा करके भिक्षा के लिए मैं निकला और आनंद गाथापति के घर की भिक्षा से मैंने पारणा की। तीसरा मास-क्षमण करके मैंने सुनन्द के घर भिक्षा ग्रहण की। इन दोनों को भी बड़ी प्रशंसा हुई
१-अभिधान चिन्तामणि स्वोपज्ञ टीका सहित, देवाधिदेव कांड, श्लोक ७६ (पृष्ठ २५ ) में अंतेवासी के पर्याय इस रूप में दिये हैं :
शिष्यो विनेयोऽन्तेवासी । ओर, 'अन्तेवासी' की टीका इस प्रकार दी हुई है
गुरोरन्ते वसत्यवश्यं इति अन्तेवासी शयवासिवासेष्व कालात् ।
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११०
तीर्थकर महावीर और दोनों के घर पंचदिव्य प्रकट हुए। चौथे मास क्षमण के अन्त में मैंने नालंदा के निकट स्थित कोल्लाग-सन्निवेश में बहुल-नामक ब्राह्मण के 'घर भिक्षा ग्रहण की।
__ "मुझे तंतुवामशाला में न पाकर गोशाला मुंडित होकर, अपना वस्त्र आदि त्याग कर कोल्लाग में आया । गली-कूचे में खोजता-खोजता कोल्लाग सन्निवेश के बाहर पणियभूमि' मैं वह मुझे मिला।
__ "वहाँ तीन बार मेरी प्रदक्षिणा करके वह बोला-'हे भगवन् ! आप हमारे धर्माचार्य हैं और मैं आपका शिष्य हूँ ।' हे गौतम ! इस बार मैंने गोशाला की बात स्वीकार कर ली। उसके बाद ६ वर्षों तक पणियभूमि तक वह मेरे साथ विहार करता रहा ।”
पणियभूमि 'पणियभूमि' शब्द पर टीका करते हुए भगवतीसूत्र की टीका में लिखा है__ पणितभूमेरारभ्य प्रणीतभूमौ वा मनोज्ञभूमौ विहृत वानिति योगः। ___ कल्पसूत्र में जहाँ भगवान् के वर्षावास गिनाये गये हैं, वहाँ भी एक वर्षावास ‘पणिअभूमि' में बिताने का उल्लेख है। सुबोधिका-टीका में उसकी टीका इस प्रकार दी है :१- 'पणिय भूमि' की टीका करते हुए भगवतीसूत्र के टीकाकार ने लिखा है'भाण्ड विश्राम स्थाने प्रणीत भूमौ वा मनोज्ञ भूमौ (पत्र १२१६) 'पणिय' शब्द सभाष्यचूर्णि निशीथ में भी आया है। हम उसका उल्लेख पष्ठ १०७ पर पादटिप्पणी में कर चुके हैं। यहाँ पण्यिभूमि वह भूमि है, जहाँ भगवान् ठहरे थे ।
आप्टेज 'संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी' में 'प्रणीत' का अर्थ डेलिवर्ड', 'गिवेन', 'प्राफर्ड', 'प्रेजेंटेड' दिया है अर्थात् वह भूमि जो भगवान् को ठहरने के लिए दी गयी थी।
२-~भगवतीसूत्र सटीक पत्र १२१६ । ३-कल्पसूत्र सुबोधिका टीका सहित, व्याख्यान ६, सूत्र १२२, पत्र ३४२ ।
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पणियभूमि
वज्र भूम्याख्यानार्य देशे इत्यर्थः ।
इसी प्रकार की टीका संदेह - विपौषधि- टीका में आचार्य जिनप्रभसूरि
दी है
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वज्रभूमाख्येऽनार्य देशे ।
वज्रभूमि अनार्यदेश के चौमासे का वर्णन आचारांग में आया है । वहाँ उसे "दुच्चर लाढ़माचारी वज्जभूमिं च सुब्भभूमिं च " लिखा है । आचारांग के टीकाकार ने 'सुब्भभूमि' को 'शुभ्रभूमि' कर दिया है; पर यह दोनों ही किसी लिपिकार की भूल है । मूल शब्द वह 'सुम्ह' भूमि होना चाहिए । इसका उल्लेख आर्य और बौद्ध दोनों ही ग्रन्थों में मिलता है । हम यहाँ उसके कुछ प्रमाण दे रहे हैं :
१११
( १ ) महाभारत के टीकाकार नीलकंठ ने 'सुम्ह' और 'राढ़' को एक ही देश माना है ।
( २ ) 'दिग्विजय - प्रकाश' में राढ़ देश को वीरभूमि से पूर्व और - दामोदर घाटी से उत्तर में बताया गया है ।
( ३ ) इसका उल्लेख बौद्ध ग्रन्थों में भी आता है। संयुक्त निकार्य और 'उसकी टीका सारत्थपकासिनी तथा तेलपत्त- जातक में इसका नाम आता है ।
१ - वही, पत्र वही ।
२- संदेह - विषौषधि - टीका, पत्र ११० ।
३ - आचारांग सूत्र सटीक, १-६-३ पत्र २८१ ।
४ - महाभारत की टीका २, ३०, १६, हिस्ट्री श्राव बेंगाल ( आर० सी० - मजूमदार लिखित ) भाग १, पृष्ठ १०
५ - ' वसुमति' माघ १३४०, पृष्ठ ६१०; हिस्ट्री आव बेंगाल ( मजूमदार - लिखित) भाग १, पृष्ठ १०
६ - संयुक्त निकाय ( हिन्दी अनुवाद ) भाग २, पृष्ठ ६६१, ६६५, ६६६ ७ - सारत्थप्पकासिनी ३, १८, १
८ - जातक ( हिन्दी अनुवाद) भाग १, तेलपत्त जातक (१६) पृष्ठ ५५६, जातक कथा ( मूल ) पृष्ठ २८७
ह - 'डिक्शनरी श्राव पाली प्रापर नेम्स' भाग २, पृष्ठ १२५२
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तीर्थङ्कर महावीर
दशकुमारचरित्र में भी सुम्भ देश का उल्लेख आया है । '
लिखने की यह भूल आवश्यकचूर्णि पूर्वार्द्ध ( पत्र २९६ ), आवश्यक हारिभद्रीय टीका ( भाग १, पत्र २११ - १ ) तथा मलयगिरि की टीका ( भाग १, पत्र २८५ - २ ) में भी है । वहाँ भी सुद्धभूमि लिखा है, जब कि उसे 'सुम्ह भूमि' होना चाहिए था । सुद्धभूमि वाली यह भूल त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र ( पर्व १०, सर्ग ४, श्लोक ५४, पत्र ४२ - २ ) तथा गुणचन्द्र - रचित महावीर - चारियं ( प्रस्ताव ६, पत्र २१८ - १ ) में भी है ।
११२
इस देश के सम्बन्ध में हमने अपनी पुस्तक 'प्राचीन भारतवर्ष नू सिंहावलोकन' में विस्तृत विचार किया है और उसकी स्थिति के संबंध में तीर्थंकर महावीर ( भाग १ ) में प्रकाश डाल चुका हूँ ।
गोशाला को तेजोलेश्या का ज्ञान
उसके बाद भगवान् ने कहा- "अनार्य देश के विहार के बाद प्रथम शरद्-काल में सिद्धार्थ ग्राम से कूर्मग्राम की ओर जाता हुआ तिल के पौदों वाला प्रसंग हुआ और फिर कूर्मग्राम में बालतपस्वी और तेजोलेश्या वाली घटना घटी। वहीं उसने मुझसे तेजोलेश्या की विधि पूछी और मैंने उसे बता दी । "
भगवान् ने अपने साथ की पूरी कथा कहने के बाद बाद गोशाला मुझसे पृथक हो गया और तपस्या करके ६ तेजोलेश्या प्राप्त की ।
"फिर दिशाचरों से उसने निमित्त सीखे और उसके बाद 'जिन' न होता हुआ भी वह अपने को 'जिन' कहता हुआ विचर रहा है ।
१ - दशकुमारचरित्र ( रामचन्द्र काले सम्पादित ) उच्छवास ६, पृष्ठ १४६ २- पृष्ठ १८६ - १६६
३ - तीर्थंकर महावीर, भाग १, पृष्ठ २०२, २११-२१३
कहा - "उसके मास में उसने
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गोशाला - आनन्द की वार्ता
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हे गौतम! मंगलिपुत्र गोशालक 'जिन' नहीं है; परन्तु 'जिन' शब्द का प्रलाप करता है ।"
पर्षदा जब लौटी तो उसने सर्वत्र कहना प्रारम्भ किया - "हे देवानुप्रियो ! श्रमण भगवान् महावीर कहते हैं कि, मंखलिपुत्र गोशालक 'जिन' नहीं है और 'जिन' का प्रलाप करता हुआ विचर रहा है ।"
गोशाला - आनन्द की वार्ता
उस समय भगवान् महावीर के एक शिष्य आनन्द' थे जो छह-छट्ट की तपस्या कर रहे थे । पारणा के दिन उन्होंने गौतम स्वामी के समान अनुमति ली और उच्च-नीच और मध्यम कुलों में गोचरी के लिए गये। उस समय गोशाला ने उन्हें देखा । और बुलाकर कहा
"हे आनन्द यहाँ आओ और मेरा एक दृष्टान्त सुनो। आज से कितने काल पहले धन के अर्थी, धन में लुब्ध, धन की गवेषणा करने वाले कितने ही छोटे-बड़े वणि विविध प्रकार के बहुत-से भंड' गाड़ी में डालकर और
१ - एक आनन्द का उल्लेख निरयावलिया के कप्पवडिसियाओ के ह-वं अध्ययन में मिलता है । उसकी माता का नाम आनन्दा था । २ वर्षं साधु-धर्म पाल का वह काल करके १० - वें देवलोक प्राणत में गया और महाविदेह में सिद्ध होगा ( गोपाणी-चौकसी सम्पादित निरयावलिया, पृष्ठ ३२-३३ तथा ६० ]
२ - यहाँ पाठ हैं
पढमाए पोरिलिए एवं जहा गोयम सामी
इसका पूरा पाठ उवास गुदसाओ ( पी० एल० वैद्य - सम्पादित ) अध्ययन १, सूत्र ७६ में दिया है ।
३ - टीकाकार ने 'पणिय भंड' की टीका में लिखा है
'पणिय भंडे' त्ति पणितं व्यवहारस्तदर्थं भांडं पणितं वा क्रयाणकम् तद्रूपं भाण्डं न तु भाजनमिति पणित भाण्डं - भगवतीसूत्र सटीक, पत्र १२३४ हिन्दी में इसे कहिये - क्रमाणक, पण्य, बेचने की वस्तु
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तीर्थंकर महावीर
बहुत भोजन-पानी की व्यवस्था करके एक जंगल में गये। ग्रामरहित और मार्गरहित उस जंगल में कुछ दूर जाने पर उनका जल समाप्त हो गया । पास में जल न होने के कारण तृषा से पीड़ित वे कहने लगे-'हे देवानुप्रियो ! इस ग्रामरहित जंगल में हमारे पास का पानी तो समाप्त हो गया। अतः अब इस जंगल में चारों ओर पानी की गवेषणा करनी चाहिए।' वे सभी चारों ओर पानी की गवेषणा करने गये। घूमते-फिरते वे एक ऐसे स्थल पर पहुँचे जहाँ उन्हें चार बाँबियाँ दिखलायी पड़ी। व्यापारियों ने एक बाँबी खोदा तो उन्हें स्वच्छ जल मिला। सबने जल पिया और अपने बर्तनों में भर लिया। जल मिल जाने पर उनमें से एक सुबुद्धि वणिक ने लौट चलने की सलाह दी। पर, शेष लोभी वणिकों ने अन्य बाँबियाँ खोदने के लिए आग्रह किया । दूसरी बाँबी तोड़ने पर उन्हें सोना मिला । तीसरी बाँबी तोड़ने पर मणि-रत्नों का खजाना मिला। लोभी वणिकों की तृष्णा न बुझी। उन्होंने चौथी बाँबी तोड़ी। उसमें दृष्टिविष सर्प निकला और सब के सब भस्म हो गये।'
"हे आनन्द ! यह उपमा तेरे धर्माचार्य पर भी लागू होती है । तेरे धर्माचार्य को सम्पूर्ण लाभ प्राप्त हो चुकने पर भी संतोष नहीं है। के मेरे सम्बन्ध में कहते फिरते हैं 'गोशाला मेरा शिष्य है ! वह छद्मस्थ है !! वह मंखली पुत्र है !!!' तू जा अपने धर्माचार्य को सावधान कर दे अन्यथा मैं स्वयं आकर उनकी दशा दुबुद्धि वणिकों-सी करता हूँ।"
दृष्टिविष सर्प प्रज्ञापना सूत्र सटीक में 'दृष्टिविष' की टीका करते हुए लिखा है
१-बाशम का मत है कि यह कथा आजीवकों के शास्त्र में रही होगी और वहीं से यहाँ ऊद्धृत हुई है।
-देखिये 'आजीवक', पष्ठ २१६ यह कथा कल्पसूत्र सुबोधिका-टीका सहित, पत्र ६५ में 'उपसर्ग' आश्चर्य के प्रसंग में भी आयी है।
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गोशाला - आनन्द की वार्ता
दृष्टौ विषं येषां ते दृष्टिविषाः '
प्रज्ञापनासूत्र में सर्पों का बड़ा विस्तृत विवेचन और वर्गीकरण किया गया है । 'परिसप्पथलयर पंचिदियति रक्खयोनी' के दो भेद १ उपरि
सप्प और २ भुयपरिसप्प किये गये हैं । 'उरपरिसप्प' के ४ भेद हैं-१ अही, २ अयगरा, ३ आसालिया ४ महोरगा । 'अही' के दो भेद हैं१ दव्वीकरा २ मउलिणो । 'दव्वीकरा' के अनेक भेद हैं । यथा- -१ आसीविस २ दिििवस ३ उग्गविस ४ भोगविस ५ तयाविस ६ लालाविस, ७ निसासविस, ८ कविस ९ सेदसम्प १० काओदरा, ११ दज्झपुप्फा, १२ कोलाहा, १३ मेलिविंदा, १४ सेसिंदा । मउलिणो के भी अनेक भेद हैं-१ दिव्यागा, २ गोणसा, ३ कसाहीया ४ वइउला, ५ चित्तलिणो, ६ मंडलिणो, ७ मालिणो ८ अही, ९ अहिसलागा, १० वासपंडगा । इस प्रकार कितनी ही शाखा प्रशाखाएँ सर्पों की उस ग्रंथ में बतायी गयी हैं । "
"
आनन्द द्वारा भगवान् को सूचना
गोचरी से लौटकर आनन्द ने सारी बात भगवान् से कही और पूछा""हे भगवान् ! मंखलिपुत्र गोशालक क्या अपने तपः तेज से भस्म करने में समर्थ है ?" ऐसे कितने ही प्रश्न भीत आनन्द ने भगवान् से पूछे ।
भगवान् की चेतावानी
भगवान् ने कहा- "हाँ, मंखलीपुत्र समर्थ है; परन्तु अरिहंत को भस्म करने में वह समर्थ नहीं है । वह अरिहंत को परितातना मात्र कर सकता है । जितना तपः तेज गोशाला का है, उससे अनन्तगुणा विशिष्टतर सामान्य में होता है, उससे अनन्त गुणा तपः तेज स्थविरों में होता है, और
साधु
१ - प्रज्ञापनासूत्र सटीक, पत्र ४७ - १ ।
२ - वही, पत्र ४५–२–४६-१ ।
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तीर्थङ्कर महावीर जितना तपःतेज स्थविरों में होता है, उससे अनन्तगुणा अरिहन्त भगवन्त में होता है; क्योंकि वह क्षान्ति (क्षमा) वाले होते हैं ।
_ "इसलिए हे आनन्द ! तुम गौतमादि श्रमण-निर्गथों के पास जाओ. और कहो कि मंखलिपुत्र गोशालक ने श्रमण-निर्गथों के साथ अनार्यपना. अंगीकार किया है । इसलिए उसके यहाँ आने पर उसके साथ धर्मसम्बन्धी प्रतिचोदना ( उसके मत से प्रतिकूल वचन) मत करना, प्रतिसारणा ( उसके मत से प्रतिकूल अर्थ का स्मरण) मत कराना और उसका प्रत्युपचार (तिरस्कार) मत करना ।” आनन्द ने जाकर सप्रसंग सब बातें गौतमादि से कहीं।
गोशाला का आगमन इधर ये बातें चल रही थी कि, उधर गोशालक आजीवक-संघ के साथ हालाहला-कुम्भकारिन को भांडशाला से निकला और श्रावस्ती-नगरी के मध्य से होता हुआ कोष्ठक चैत्य में आया । भगवान् के सम्मुख जाकर वह बोला-"ठीक है, आयुष्मान काश्यप ! अच्छा है, तुमने मेरे बारे में यह कहा है कि, 'मंखलिपुत्र गोशाला मेरा शिष्य है। जो मंस्खलिपुत्र गोशाला तेरा धर्म का शिष्य था, वह शुक्लशुक्लाभिजात बनकर काल के अवसर मैं कालकर किसी देवलोक में देव-रूप उत्पन्न हुआ है । कुंडियायन-गोत्रीय उदायी नामवाले मैंने अर्जुन गौतमपुत्र का शरीर छोड़कर मंखलिपुत्र गोशाला के शरीर में प्रवेश किया है । इस तरह प्रवेश करते मैंने सातवाँ शरीर धारण किया है । आयुष्मान् काश्यप ! जो कोई गत काल में सिद्ध हुए, वर्तमान में सोझते हैं और अनागत में सीझेंगे, वे सब हमारे शास्त्रानुसार वहाँ पर चौरासी लाख महाकल्प पर्यन्त सुख भोगते हैं। ऐसे ही सात देव, सात संज्ञी मनुष्य के भव भोगकर-शरीरान्तर में प्रवेश करते हैं । सात संज्ञी गर्भान्तर पश्चात्
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गोशाला का आगमन
कर्म के पाँच लाख साठ हजार छः सौ तीन भेद अनुक्रम से क्षय करके सिद्ध हुए, मुक्त हुए यावत् अन्त किया, करते हैं और करेंगे।
"अब महाकल्प का प्रमाण कहते हैं :
"जैसे गंगा नदी जहाँ से निकलकर जहाँ जाकर समस्त प्रकार से समाप्तपने को प्राप्त होती है, वह गंगा ५०० योजन लम्बी, आधा योजन चौड़ी तथा ५०० धनुष ऊँची है । ऐसी
"७ गंगा = १ महागंगा “७ महागंगा = १ सादीनगंगा "७ सादीनगंगा = १ मृत्युगंगा "७ मृत्युगंगा = १ लोहितगंगा "७ लोहितगंगा = १ अवंतीगंगा
"७ अवंतीगंगा = १ परमावतीगंगा "इस प्रकार पूर्वापर एकत्र करने से १ लाख ७० हजार ६४९ गंगाओं के बराबर हुआ।
"उस गंगा में रही हुई बालुका के दो भेद हैं -(१) सूक्ष्म बोदिकलेवररूप और ( २) बादरबोंदिकलेवररूप ।।
"हम यहाँ सूक्ष्म शरीर कण की परिभाषा नहीं करते ।
"उक्त गंगाओं में से एक-एक कण निकालते जितने काल में वे सब क्षीण-रजरहित--निलेप व अवयवरहित हो उसे सरप्रमाणकाल कहते हैं ।
"ऐसे ३ लाख सरप्रमाणकाल = १ महाकल्प । "८४ लाख महाकल्प = १ महामानस अथवा मानसोत्तर । "अब सात दिव्यादिक् की प्ररूपणा करते हैं ।
"अनन्त संयूथ-अनन्त जीव के समुदाय-रूप निकाय से जीव च्यव करके संयूथ देवभव में एक मानस सरप्रमाण का आयुष्य प्राप्त करता है। वहाँ देवलोक में दिव्य भोगों को भोगता हुआ विचरण करता
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तीर्थकर महावीर है । उस देवलोक का आयुष्य समाप्त करके वह गर्भज पंचेन्द्रिय मनुष्यपने को प्राप्त होता है।
'उसके बाद वहाँ से च्यव कर मध्यम मानससरप्रमाण आयुष्य वाले देवसंयूथ में जाता है । वहाँ दिव्य भोग भोगकर दूसरा मनुष्य भव प्राप्त करता है। ___ "इसके बाद वह मानसप्रमाण आयुष्य वाले नीचे के देवसंयूथ में देवगति को प्राप्त होता है । वहाँ से निकलकर तीसरा मनुष्य जन्म ग्रहण करता है।
"फिर वह मानसोत्तर देवसंयूथ मैं मानसोत्तर आयुष्य वाला देव होकर फिर चौथा मनुष्य जन्म ग्रहण करता है।
“उसके बाद वह मानसोत्तरसंयूथ में देव होता है, फिर पाँचवाँ मनुष्य-जन्म ग्रहण करता है।
"वह मानसोत्तरदेवसंयूथ में देवपद प्राप्त करता है और वहाँ दिव्य सुख भोग कर वह फिर मनुष्य होता है ।
"वहाँ से निकल कर ब्रह्मलोक-नामक कल्पदेवलोक में उत्पन्न होता है । वह पूर्व-पश्चिम लम्बाई वाला है और उत्तर-दक्षिण विस्तार वाला है (जिस प्रकार प्रज्ञापना-सूत्र में स्थानपद प्रकरण में कहा गया है)। उसमें पाँच अवतंसकविमान कहे गये हैं।' वह अशोकावतंसक विमान में उत्पन्न होता है।
"वहाँ १० सागरोपम तक दिव्य भोग भोगकर वहाँ से च्यवकर सातवाँ गर्भज मनुष्य उत्पन्न होता है । वहाँ ९ मास ७|| दिन व्यतीत होने के बाद सुकुमाल, भंद्र, मृदु, दर्भ की कुंडली के समान संकुचित केशवाला देवकुमार के समान बालक-रूप जन्म लेता है।
१-प्रज्ञापनासूत्र सटीक, पूर्वार्द्ध, स्थान २, पत्र १०२-२ तथा १०३-१ में ब्रह्मदेवलोक का वर्णन है।
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गोशाला का आगमन
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"हे काश्यप ! मैं वही हूँ । हे काश्यप ! कुमारावस्था में ब्रह्मचर्य धारण करने से, अविद्धकर्ण, व्युत्पन्न बुद्धि वाला होने से, प्रव्रज्या ग्रहण करने की मुझमें इच्छा हुई । सात प्रवृत्तिपरिहार शरीरांत प्रवेश भी मैं कर चुका हूँ । वे इस प्रकार हैं-१ ऐणेयक, २ मल्लराम, ३ मंडित, ४ रोह, ५ भरद्वाज, ६ गौतमपुत्र अर्जुन और तत्र ७ मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में प्रवेश किया ।
"१ - सातवें मनुष्य भव मैं मैं उदायी कुंडियायन था । राजगृह नगर के बाहर मंडिकुक्षि- चैत्य' में उदायी कुंडियायन का शरीर छोड़ कर मैंने ऐणेयक के शरीर में प्रवेश किया और २२ वर्ष उसमें रहा ।
“२ – उद्दंडपुर नगर के चन्द्रावतरण चैत्य में ऐणेयक का शरीर छोड़ा और मल्लराम के शरीर में प्रवेश किया । २० वर्ष उसमें रहा ।
३- - चम्पा - नगर के अंगमंदिर- चैत्य में मल्लराम का शरीर छोड़कर मंडित के शरीर में प्रवेश किया और १८ वर्ष उसमें रहा ।
" ४ - वाराणसी नगरी में काममहावन में माल्यमंडित का शरीर छोड़कर रोह के शरीर में प्रवेश किया और १९ वर्ष उसमें रहा
“५ – आलभिया -नगरी के पत्तकलाय - चैत्य में रोह के शरीर से निकल कर भरद्वाज के शरीर में प्रवेश किया और १८ वर्ष वहाँ रहा ।
“६ – वैशाली नगरी के कोण्डिन्यायन चैत्य में गौतमपुत्र अर्जुन के शरीर में प्रवेश करके १७ वर्ष उसमें रहा ।
“७ - - श्रावस्ती में हालाहला की भांडशाला में निकल कर इस गोशालक के शरीर में प्रवेश किया । वर्ष रहने के पश्चात् सर्व दुःखों का अंत करके मुक्त हो जाऊँगा ।
१ - मंडिकुक्षि- चैत्य की स्थिति के सम्बन्ध में राजाओं वाले प्रसंग में श्रेणिक राजा के प्रसंग में विचार किया गया है ।
अर्जुन के शरीर से
इस शरीर में १६
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१२०
तीर्थंकर महावीर
"इस प्रकार हे आयुष्मान् काश्यप ! १२३ वर्षों में मैंने ७ शरीरांतरपरावर्तन किया है।''
गोशाला को भगवान का उत्तर गोशाला के इस प्रकार कहने पर भगवान् बोले- "हे गोशालक ! जिस प्रकार कोई चोर हो, वह ग्राम-वासियों से पराभव पाता जैसे गड्ढ, दरी, दुर्ग, निम्नस्थल, पर्वत या विषम स्थान न मिलने से एकाध ऊन के रेशे से, सन के रेशे से अथवा रुई के रेशे से या तृण के अग्रभाग से अपने को हँक कर-न हुँका हुआ होने पर भी यह मान ले कि, मैं ढंका हुआ हूँ; उसी प्रकार तू भी दूसरा न होता हुआ—'मैं दूसरा हूँ,' कहकर अपने को छिपाना चाहता है । हे गोशालक ! अन्य न होने पर भी तुम अपने को अन्य कह रहे हो। ऐसा मत करो । ऐसा करना योग्य नहीं है।" ___श्रमण भगवान् महावीर के इस प्रकार के कथन से गोशाला एक दम क्रुद्ध हो गया और अनेक प्रकार के अनुचित वचन कहता हुआ बोला"मैं ऐसा मानता हूँ कि तुम नष्ट हो गये हो अथवा विनष्ट हो गये हो अथवा भ्रष्ट हो गये हो और कदाचित् तुम नष्ट, विनष्ट और भ्रष्ट तीनों ही हो गये हो । कदाचित् तुम आज नहीं होगे। तुम्हें मुझसे कोई सुख नहीं होनेवाला है।"
गोशाला के ऐसे कहने पर पूर्व देश में जन्में भगवान् के शिष्य . १-बाशम ने इनको गोशाला से पूर्व के श्राजीवक आचार्य माना है, ( आजीवक, पृष्ठ ३२)। ऐसा ही मत कल्याणविजय ने 'भगवान् महावीर' [ पृष्ठ २६५ ] में व्यक्त किया है । भगवती में आता है कि गोशाला अपने को इस अवसर्पिणी का २४-वाँ तीर्थकर मानता है । इसका अर्थ हुआ कि २३ तीर्थकर उससे पहले हो चुके थे। ये जो ७ बताये गये हैं, वे वस्तुतः गोशाला के पूर्वभव थे। भगवती में ही सात भवों के बाद सिद्धि-प्राप्ति की बात कही गयो है। ___ २-यहाँ मूल शब्द 'पाईण जणवए' है। इसकी टीका करते हुए टीकाकार ने लिखा है
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गोशाला को भगवान् का उत्तर
१२१
सर्वानुभूति - नामक अनगार उठकर गोशाला के पास गये और बोले— “जो श्रमण अथवा ब्राह्मण के पास एक भी धार्मिक सुवचन सुनता है, वह उसका वंदन और नमस्कार करता है और देव के चैत्य ( मंदिर ) के समान उसकी पर्युपासना करता है । पर गोशाला तुमने तो भगवान् से दीक्षा ग्रहण की। उन्हीं से तुमने व्रत समाचार सीखे । भगवान् ने तुम्हें शिक्षित किया और बहुश्रुत किया। पर, तुमने भगवान् के साथ अनार्यपने का व्यवहार किया । हे गोशालक ! तुम ऐसा मत करो। ऐसा करना उचित नहीं है।"
गोशाला द्वारा तेजोलेश्या का प्रयोग सर्वानुभूति मुनि की बात से गोशालक का क्रोध और भड़का और तेजोलेश्या से उसने सर्वानुभूति को भस्म कर दिया । '
( पृष्ठ १२० की पादटिप्पणि का शेषांश )
'पाई जणवए' ति प्राचीन जनपदः प्राच्य इत्यर्थः '
- भगवती सूत्र १५ - वां शतक ( गौड़ी जी) पृष्ठ ६१ । पाईण- प्राचीन - का अर्थ पूर्व है, ऐसा ठाणांग की टीका ( ठाणांगसूत्र सटीक, उत्तरार्द्ध, पत्र ३५१-१ सूत्र ४६६ ) में भी लिखा हैं ।
'प्राच्य' के अर्थ में प्राचीन शब्द का प्रयोग कितने ही स्थलों पर जैन - साहित्य में हुआ है । इस 'प्राच्य जनपद' शब्द का व्यवहार कितने ही अन्य स्थलों पर भी हुआ है। 'काशिका' के अनुसार पंचाल, विदेह, और बंग इसके अन्तर्गत थे ( हिन्दूसभ्यता, पृष्ठ १२१ ) | काव्य-मीमांसा ( गायकवाड़, सिरीज ) पृष्ठ ६३ में वाराणसी से पूर्वी भाग को पूर्व देश बताया गया हैं यही परिभाषा काव्यानुशासन ( महावीर जैन विद्यालय, भाग १ ) पृष्ठ १८२ में दी हुई है । अमरकोष - टीका (का० २ भूमिवर्ग श्लोक ८ ) में सरस्वती नदी के दक्षिण-पूर्व का भाग प्राच्य जनपद बताया गया है । ओल्डेनबर्ग ने काशी, कोशल, विदेह और मगध को प्राच्य जनपद में माना है । [ नंदलाल दे लिखित ज्यागरैफिकल - डिक्शनरी, पृष्ठ १५८ ]
।
भी
१ - सर्वानुभूति मृत्यु के बाद सहस्रारकल्प [ ८-वाँ देवलोक ] में देव-रूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ वह १८ सारारोपम रहने के बाद - महाविदेह में जन्म लेने के बाद सिद्ध होगा - उपदेशमाला दोघट्टी- टीका सहित, पत्र २८३ ।
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१२२
- तीर्थंकर महावीर इसके पश्चात् अयोध्या में उत्पन्न हुआ सुनक्षत्र-नामक अनगार गोशालक को हितवचन कहने लगा। गोशालक ने उस पर भी तेजोलेश्या छोड़ी और उसे भी जलाया । मंलिपुत्र गोशालक के तपःतेज से जला हुआ सुनक्षत्र उस स्थान पर आया, जहाँ भगवान् महावीर थे। वहाँ आकर सुनक्षत्र ने तीन बार भगवान् की प्रदक्षिणा की और वंदन-नमस्कार किया । वंदन-नमस्कार के पश्चात् सुनक्षत्र ने स्वयमेव पाँच महाव्रतों का उच्चारण किया, साधु-साध्वियों को खमाया, खमा कर आलोचना और प्रतिक्रमण करके समाधिपने को प्राप्त हुआ और अनुक्रम से काल धर्म को प्राप्त हुआ।
एक शंका और उसका समाधान कुछ लोग कहते हैं कि पहले तो भगवान् ने गोशाला को तेजोलेश्या से बचाया था ( तीर्थंकर महावीर, भाग १, पृष्ठ २१७ ) पर सर्वानुभूति
और सुनक्षत्र को उन्होंने क्यों नहीं बचाया। इसका उत्तर भगवतीसूत्र की टीका में अभयदेवसूरि ने इस प्रकार दिया है
'मेयं भगवं ! गयगयमेयं भगवं' ति अथ गतं-अवगतमेतन्यया हे भगवन् ! यथा भगवतः प्रसादादायं न दग्धः, सम्भ्रमार्थत्वाच्च गतशब्दस्य पुनः पुनरुच्चारणम् , इह च यद् गोशालकस्य संरक्षणं भगवता कृतं तत्सरागत्वेन दयैकर सत्वाद्भगवतः, यञ्च सुनक्षत्र-सर्वानुभूति मुनिपुङ्गवयोन करिष्यति तद्वीतरागत्वेन लब्ध्यनुपजीकत्वावश्यंभाविभावत्वाइत्य वसेयमिति
-भगवतीसूत्र सटीक, पत्र १२२६ ।
१-सुनक्षत्र मरकर अच्युत-नामक १२ वें देवलोक में देव-रूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ २२ सागरोपम रहने के बाद वह महाविदेह में जन्म लेगा । उसके बाद सिद्ध होगा-उपदे शमाला दोघट्टी टीका सहित, पत्र २८३ ।
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एक शंका और उसका समाधान
१२३
दानशेखर गणि ने भी इसी रूप में अपनी टीका (पत्र २१८-२ ) में इस प्रश्न का समाधान किया है।
अपनी छद्मावस्था में भगवान् ने किस कारण से गोशाला की तेजोलेश्या से रक्षा की थी, इसका उत्तर भगवती सूत्र में स्वयं भगवान् ने ही दिया है । भगवान् ने उसका कारण बताते हुए कहामंखलिपुत्तस्स अणुकंपणट्टयाए
-भगवतीसूत्र सटीक, पत्र १२२२. अर्थात् मखलिपुत्र पर अनुकम्पा के कारण उसकी रक्षा की। वह तो छमावस्था थी । पर, केवल-ज्ञान के बाद भगवान् वीतराग थे। सरागपन समाप्त हो गया था और भूत, वर्तमान तथा भविष्य का ज्ञाता होने के कारण तथा सभी बात जानने के करण वह अवश्यम्भावी घटने वाली घटना से भी पूर्व परिचित थे । पर, रागहीन होने के कारण भगवान् ने इस बार तेजोलेश्या का कोई प्रतिकार नहीं किया !
कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि भगवान् ने गोशाला पर पहले अनुकम्पा दिखाकर भूल की । पर, यह वस्तुतः कहने वाले की भूल है । भगवान् ने अपने तपस्वी-जीवन में भी कभी प्रमाद अथवा पाप कर्म न किया; न किसी से कराया और न करने वाले का अनुमोदन किया।
णच्चाण से महावीरे, णोचिय पावगं सय मकासी अन्नेहिं वा ण कारित्था कीरंतंपि णाणु जाणित्था ॥८॥ अकसाती विगयगेही य, सहरूवेसु अमुच्छिए झाति; छउमत्थोवि विपरक्कममाणो, ण पमायं सइंपि कुवित्था ॥१५॥
--आचारांग सूत्र, श्रुतस्कन्ध १, अध्ययन ९, उद्देशा ४ -तत्त्व के ज्ञाता महावीर स्वयं पाप करते नहीं, दूसरे से पाप कराते नहीं और करने वाले का अनुमोदन नहीं करते।
कषायरहित होकर, गृद्धिपरिहार करके, शब्दादिक विषयों पर
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-१२४
तीर्थङ्कर महावीर
आकृष्ट न होते हुए, भगवान् सदा ध्यानमग्न रहते और इस प्रकार छद्मावस्था में प्रबल पराक्रम प्रदर्शित करने में भगवान् ने कभी प्रमाद नहीं किया ।
हम ऊपर लिख चुके हैं कि, भगवान् ने स्वयं अनुकम्पा भी बात कही है । 'अनुकम्पा' के विरोधीजनों को भगवान् के वचन से सीख लेनी चाहिए ।
भगवान् पर तेजोलेश्या छोड़ना
उसके बाद भगवान् ने भी गोशाला को समझाने की चेष्टा की । भगवान् के समझाने का और भी विपरीत परिणाम हुआ । तैजस्- समुद्घात ' करके गोशाला ७-८ पग पछे की ओर हटा और भगवान् महावीर का वध करने के लिए उसने तेजोलेश्या बाहर निकाली । तेजोलेश्या भगवान् - का चक्कर काटती हुई ऊपर आकाश में उछली और वापस गोशाला के शरीर में प्रविष्ट कर गयी । आकुल होता गोशालक बोला - " हे आयुष्मान् काश्यप ! मेरे तपःतेज से तेरा शरीर व्याप्त हो गया है । तू ६ महीने में पित्तज्वर से और दाह से पीड़ित होकर छद्मस्थावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा ।”
१ - समुद्घात -सम् = एकत्रपना, उत् = प्रबलता से कर्म की निर्जरा अर्थात् एक साथ प्रबलता से जीव-प्रदेशों से कर्मपुल को उदीरणादिक से आकृष्ट करके भोगना समुद्धात है; वेदनादि निमित्तों से जीवन के प्रदेशों का शरीर के भीतर रहते हुए भी बाहर निकलना, वेदना आदि सात समुद्धात... अर्धमागधी कोप ( रतन चन्द्र ), भाग ४, पृष्ठ ६३७
ये समुद्धात सात हैं- - १ वेदना, २ कषाय, ३ मरण, ४ वैक्रिय, ५ तैजस्. ६ आहारक, ७ केवलिक | इनका उल्लेख ठाणांगसूत्र सटीक उत्तरार्द्ध ठाणा ७, उ० ३, - सूत्र ५८६ पत्र ४०६ - २; समवायांगसूत्र, समवाय ७; तथा प्रज्ञापनसूत्र सटीक ( बाबू वाला ) पत्र ७६३ - १ - ७९४ - २ में आया हैं ।
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भगवान् की भविष्यवाणी भगवान् की भविष्यवाणी
इस पर भगवान् ने कहा - " हे गोशालक ! मैं तपोजन्य तेजोलेश्या के पराभव से ६ महीने में काल नहीं करूँगा; पर १६ वर्षों तक तीर्थंकररूप में गंधहस्ती की तरह विचरूँगा । परन्तु, हे गोशालक ! तू सात रात्रि में पित्तज्वर से पीड़ित होकर छद्मावस्था में ही काल कर जायेगा ।"
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गोशाला तेजहीन हो गया
फिर भगवान् ने निर्ग्रथों को बुलाकर कहा - "हे आर्यो ! जैसे तृण राशि आदि जलकर निस्तेज हो जाती है, इसी प्रकार तेजोलेश्या निकाल देने से गोशाला तेजरहित और विनष्ट तेजवाला हो गया है ।
उसके बाद गोशाला के पास जाकर भगवान् के अनागार नाना प्रकार के प्रश्न पूछने लगे । प्रश्नों से वह निरुत्तर होकर क्रोध करने लगा । अपने धर्माचार्य को निरुत्तर देख गोशाला के कितने ही आजीवक साधु भगवान् के भक्त हो गये ।
गोशाला की बीमारी
हताश और पीड़ित गोशाला 'हाय मरा', 'हाय मरा' कहता हुआ हालाहला कुम्भकारिन के घर आया और आम्रफल - सहित मद्यपान करता हुआ, बारम्बार गाता हुआ, बारम्बार नृत्य करता हुआ, हालाहला कुम्भकारिन को अंजलि-कर्म करता हुआ शीतल मृत्तिका के पानी से अपने गात्रों को सींचता हुआ रहने लगा ।
श्रमण भगवान् महावीर ने निर्ग्रथों को बुलाकर कहा - "अहो आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशाला ने मेरे बध के लिए जो तेजोलेश्या निकाली थी, वह यदि अपने पूर्णरूप में प्रकट होती तो १ अंग, २ वंग, ३ मगध, ४ मलय, ५ मालव ६ अच्छ, ७ वच्छ, ८ कोच्छ, ९ पाढ़, १० लाढ़, ११ वज्जी, १२ मोली (मल्ल), १३ काशी, १४ कोशल, १५ अबाध, १६ संभुत्तर (सुमहोत्तर)
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१२६
तीर्थङ्कर महावीर
इन सोलह देशों के घात के लिए, वध के लिए तथा भस्म करने के लिए समर्थ होती । आज वही गोशालक हाथ में आम्र सहित मद्यपान करता हुआ अंजलि कर्मकरता हुआ विचरता है । उस पाप को छिपाने के लिए वह आठ चरम की प्ररूपणा करता है:
9
"१ - चरम पान
“ २ – चरम गान
“३ – चरम नाटक
61
- चरम अंजलिकर्म
-चरम पुष्कलसंवर्त मेध
- चरम सेचनक गंधहस्ति
- चरम महाशिलाकंटक संग्राम
- इस अवसर्पिणी में चौबीस तीर्थकरों में मैं ( गोशाल ) चरम • तीर्थंकर रूप में सिद्ध हूँ ।
" हे आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशालक मिट्टी के पात्र में से ठंडा जल मिली मिट्टी का अपने शरीर पर लेप कर रहा है ।
" अपने पाप को छिपाने के लिए वह चार प्रकार के पानक
651x
“६.
66
66
१ 'चरमे' त्ति न पुनरिदं भविष्यतीति कृत्वा चरमं
-भगवतीसूत्र सटीक, श० १५, सूत्र ५५३ पत्र १२५७ २ - चत्तारि मेहा पं० तं० - पुक्खलसंवट्टते, पज्जुने जीमूते जिन्हे पुक्खल वट्टए णं महामेहे एगेणं वासेणं दस वास सहस्साई भावेति - ठाणांगसूत्र सटीक, ठाणा ४, उद्देशा ४, सूत्र ३४७ पत्र २७०-२ - महामेघ चार है
[१] पुष्कल संवर्त महा मेघ -- एक बार बरसे तो -अन्नोत्पादन करती रहे ।
दस हजार वर्ष तक पृथ्वी
[२] प्रद्युम्न महामेध - एक बार बरसे तो एकहजार वर्ष तक अन्नोत्पादन होता रहे। [३] जीमूत महामेघ – एक बार बरसे तो १० बरस तक अन्नोत्पादन हो ।
[४] जिह्न महामेघ - एक बार बरसे तो एक वर्ष तक अन्नोत्पादन हो और -न भी हो ।
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भगवान् को भविष्यवाणी १२७ (पीने योग्य ) और चार प्रकार के अपानक (न पीने योग्य) बताता है ।
"चार पानक१-गौ की पीट से पड़ा पानी २-हाथ में मसला हुआ पानी ३.-सूर्य के ताप से तपाया हुआ पानी ४-शिला से पड़ा पानी "चार अपानक१–थाल पानी २-त्वचा-पानी ३-सिंबलि-जल' ४-शुद्ध जल वह उनकी परिभाषा इस रूप में बताता है :
“१-पानी से भीगा हुआ थाल, पानी से भीगा हुआ कुल्हड़, पानी से भीगा हुआ कुंभा और पानी से भीगा कलश उक्त पानी से भीगा हुआ मृत्तिकापात्र विशेष को हस्त से स्पर्श करना परन्तु पानी नहीं पीना। यह थाल पानी हुआ।
२-आम्र, अम्बड आदि का जैसा पन्नवना' के १६-4 पद में कहा १-सिंबलिः' त्ति मुद्गादीनां विध्वम्ता फलिः
-आचारांगसूत्र सटीक २, १, १०, २८१ पत्र ३२३-२ । दशवकालिकसूत्र हारिभद्रीय टीका सहित ५-१ गाथा ७३ पत्र १७६-२ में उसकी टीका दी है
'वल्लादि फलिं' २--देवहस्त स्पर्श इति
-भगवतीसूत्र सटीक, पत्र १२५८ ३-जएणं अंबाण वा अंबाडणाण वा माउलुगाण वा बिल्लाण वा कविट्ठाण वा [ भव्वाण वा ] फणसाण वा दालिमाण वा पारेवताण वा 'अक्खोलाण वा चाराण वा वोराण वा तिडुयाण वा पक्काणं परियागयाणं
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१२८
तीर्थङ्कर महावीर है, वैसे बेर का, तिंदुरुक का त्वचा मुख में रखे। थोड़ा चबाये, विशेष चबाये पर पानी न पीये । यह त्वचा पानी है । __"३--चने की फली, मूंग की फली, उड़द की फली, सिंबलि की फली को तरुणपना में, अभिनवपना में, मुख में रखकर थोड़ा चबाये, विशेष चबाये पर पानी न पिये।
___ "x—जो कोई ६ मास पर्यन्त शुद्ध खादिम खाये, दो मास तक भूमि पर शयन करे, दो मास पर्यन्त काष्ठ पर शयन करे, दो मास पर्यन्त दर्भ पर शयन करे, इस तरह करते ६ मास में पूर्णभद्र -मणिभद्र ऐसे दो महद्धिक यावत् महासुख वाले देव उत्पन्न होवें । वे देवता शीतल अथवा आर्द्र हस्त से गात्रों को स्पर्श करे।
"यदि उन देवताओं का अनुमोदन करे कि वे अच्छा करते हैं, तो वह आशीविष पानी का काम करता है। ___“यदि देवताओं का अनुमोदन न करे तो उनके शरीर में अग्निकाम उत्पन्न होवे । अपने तेज से अपने शरीर को जलावे और पीछे सीझे-बुझे यावत् सब दुःखों का अंत करे । यह शुद्ध पानी कहा जाता है।"
अयंपुल और गोशालक उस श्रावस्ती नगरी में अयंपुल-नामक आजीविकोपासक रहता था। वह हालाहला कुम्भकारिन सरीखा ऋद्धिवान् था।
एक बार अयंपुल श्रमणोपासक को पूर्व रात्रि में कुटुम्ब-जागरण करते हुए यह प्रश्न उठा कि 'हल्ला' का आकार क्या है ? उसने गोशाला
( पष्ठ १२७ की पादटिप्पणि का शेषांश ) बंधणातो विप्पु विप्प मुक्काणं निवाघातेणं अधे वीससाए गती पवत्तइ, से तं बंधणविमोयणगती
-प्रज्ञापनासूत्र सटीक, पत्र ३२८-१ १.-इसकी टीका इस प्रकार दी है :गोवालिका तृणसमानाकारः कीटक विशेषः
---भगवतीमूत्र सटीक, पत्र १२५८
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अयंपुल और गोशालक
१२६ के पास जाकर अपनी शंका मिटाने का निश्चय किया। ऐसा विचार कर उसने स्नान किया, उत्तम कपड़े पहने और पैदल चलकर हालाहला कुम्भकारिन को शाला में आया । वहाँ उसने गोशाला को आम्रफल लिए यावत् गात्र को शीतल जल से सिंचित करते और हालाहला को अंजलिकर्म करते देखा । देखकर वह लजित हो गया और पीछे लौटने लगा। उसे देखकर आजीवक-स्थविरों ने उसे बुलाया । अयंपुल उनके पास गया और उनसे उसने अपनी शंका कह दी। ___ उन आजीवक साधुओं' ने कहा-"अयंपुल ! अपने धर्माचार्य ने . ८ चरम, ४ पेय और ४ अपेय जलों की प्ररूपणा की है । ये चरम हैं, इनके बाद वह सिद्ध होने वाले हैं। तुम स्वयं जाकर उनसे अपना प्रश्न
पूछ लो।"
अयंपुल जब गोशाला की ओर चला तो गोशाला के शिष्यों ने आम्रफल गिरा देने के लिए संकेत कर दिया । संकेत पाकर गोशाला ने आम्रफल गिरा दिया।
इसके बाद आकर अयंपुल ने तीन बार प्रदक्षिणा की। उसके बैठते ही गोशाला ने अयंपुल का प्रश्न उससे कह दिया और पूछा--"क्या यह सत्य है ?" अयंपुल ने स्वीकार कर लिया।
तब गोशाला ने कहा-“यह आम्रफल गुठली सहित नहीं है । प्रत्येक को ग्रहण करने योग्य है । यह आम्र नहीं आम्र की छाल है। इसे लेना तीर्थंकर को निर्वाण-काल में कल्पता है । तुम्हारा प्रश्न है-"किस आकार का हल्ला होता है ?" इसका उत्तर यह है कि वह बाँस के मूल के आकार का होता है ।
१-श्रमण ५ थे-निग्गंथ १, सक्क २, तावस ३, गेरुय ४, अजीव ५ पंचहा समणा ।-प्रवचनसारोद्धार सटीक, पूर्वाद्ध गाथा ७३१ पत्र १२१-१ । आजीवक नग्न रहते थे--सूत्रकृतांग सटीक भाग १, पत्र १२-२ में आता है-आजीविकादीनां परतीथिकानां दिगम्बराणां ।
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१३०
तीर्थकर महावीर फिर गोशाला उन्माद में बोला- "हे वीरक ! बीणा बजा !! हे वीरक ! वीणा बजा !!” उसके बाद मंखलिपुत्र गोशालक ने ऐसा उत्तर दिया जिससे संतुष्ट होकर अयं पुल अपने घर वापस चला गया ।
गोशाला की मरणेच्छा अपना मरण जानकर गोशाला ने आजीवक-स्थविरों को बुलाया और कहा--"अहो देवानुप्रियो ! जब मुझे मृत्यु प्राप्त हुआ जानो, तब सुगंधित पानी से मुझे स्नान कराना, पक्ष समान सुकोमल कषाय रंग वाले वस्त्रों से गात्र को स्वच्छ करना, सरस गोशीर्ष चन्दन का गात्र पर लेपन करना, बहुमूल्य वाला हंस-सा श्वेत वस्त्र पहिनाना, सर्वालंकार से विभूषित कराना, सहस्रपुरुष-वाहिनी शिविका पर बैठाना और श्रावस्ती नगर के मार्गों पर चिल्लाना-"मंखलिपुत्र गोशालक 'जिन' प्रलापी और 'जिन' शब्द पर प्रकाश करते हुए इस अवसर्पिणी के २४ तीर्थकरों में चरम सिद्ध बुद्ध यावत् अंतकर्ता हुए।”
स्थविरों ने उसकी बात स्वीकार कर ली।
सात रात्रि बीतते हुए मंखलिपुत्र गोशालक को सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई और उसे ऐसा विचार हुआ--
“मैं जिन प्रलापी यावत् जिन शब्द का प्रलाप करके विचरने वाला नहीं हूँ। मैं श्रमणों का घात करने वाला, श्रमणों को मारने वाला, श्रमणों का प्रत्यनीक (विरोधी ), आचार्य-उपाध्याय का अपयश करने वाला मंखलिपुत्र गोशाला हूँ यावत् छद्मावस्था में काल कर रहा हूँ श्रमण भगवान् महावीर जिन यावत् जिन शब्द पर प्रकाश करते विहरते हैं।''
। अतः उसने फिर अपने स्थविरों को बुलाया और कहा-"इसलिए हे देवानुप्रियो ? मुझे मरा जानकर मेरे बायें पैर में रस्सी बाँधकर तीन बार मेरे मुख में थूकना । उसके बाद श्रावस्ती नगरी के राजमार्गों पर मुझे घसीटना और यह उद्घोषणा करना- "हे देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र गोशालक
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गोशालक की मृत्यु जिन नहीं था लेकिन वह जिन कहता हुआ विचरता था। श्रमणों का घात करने वाला वह मंखलिपुत्र गोशालक छद्मावस्था में ही कालकर गया । श्रमण भगवान् महावीर जिन हैं। इस प्रकार ऋद्धि-सत्कार से हीन मेरा शव निकालना।”
गोशालक की मृत्यु उसके बाद गोशालक मर गया । गोशाला के स्थविरों ने कमरे का द्वार बन्द कर दिया । उस कमरे में ही श्रावस्ती नगरी का आलेखन किया । उसीके चौराहों आदि में उसकी टाँग में रस्सी बाँधकर उसे खींचा और उसके मुख में थूका ।
उसके पश्चात् हालाला कुम्भकारिन के कमरे का दरवाजा खोला । सुगंधित जल से गोशालक को स्नान कराया तथा उसके पूर्व कहे के अनुसार बड़े धूमधाम से गोशालक का शव निकाला ।
गोशालक देवता हुआ . मृत्यु को प्राप्त कर गोशालक-अच्युत-नामक १२-वें देवलोक में देव-रूप में उत्पन्न हुआ । वहाँ उसकी स्थिति २२ सागरोपम की होगी।'
भगवान मेंढियग्राम में श्रावस्ती के कोष्ठक-चैत्य से निकलकर ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भगवान् मेंढियग्राम पहुँचे और उसके उत्तर-पूर्व दिशा में स्थित साणकोष्ठक चैत्य ( देव-स्थान) में ठहरे । उस चैत्य में पृथ्वीशिलापट्टक था। उस चैत्य के निकट ही मालुया-कच्छ था।
१-भगवतीसूत्र सटीक, श० १५, उ० १, सूत्र ५५६ पत्र १२६४ ।
२-'मालुया' शब्द पर टीका करते हुए भगवतीसूत्र के टीकाकार ने लिखा है
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१३२
तीर्थङ्कर महावीर
उस मेंढिय ग्राम में रेवती - नामक गाहावइणी ( गृहपति की पत्नी )
रहती थी । वह बड़ी ऋद्धिवाली थी ।
भगवान् जब साणकोष्ठक चैत्य में थे, उसी समय पीड़ाकारी अत्यन्त दाह करने वाला पित्तज्वर हुआ,
( पृष्ठ १३१ की पादटिप्पणि का शेषांश ) मालुका नाम एकास्थिका वृक्षविशेषाः ।
- पत्र १२६६
'मालुया कच्छ' शब्द ज्ञाताधर्मकथा सटीक में भी आया हैं । वहाँ 'माया' की टीका करते हुए लिखा है
एकास्थि फलाः वृक्ष विशेषाः मालुकाः प्रज्ञापनाभिहितास्तेषां कक्षो गहनं मालुका कक्षः, चिर्भटिका कच्छुकः इति ।
वृक्ष है
-:
-२, ३७ पत्र ८४-१
प्रज्ञापनासूत्र सटीक [ पत्र ३१-२ ] में लिखा है कि यह देश-विशेष का
" मालुको देश विशेष प्रतीतौ ।”
२ - ' कक्ष' पर टीका करते हुए भगवती के टीकाकार ने लिखा है
यत्कक्षं गहनं तत्तथा
भगवान् को महान् जिसकी पीड़ा सहन
- पत्र १२६६
वह ' कक्ष' शब्द भगवतीसूत्र [ शतक १,३०८ ] में भी आया है । वहाँ टीकाकार ने लिखा है
'कच्छे' नदी जलपरिवेष्टिते वृत्तादिमति प्रदेशे ।
दानशेखरगणि ने अपनी टीका में लिखा है"नदी जल परिवेष्टिते वल्ल्यादि मिति प्रदेशे "
-
:
आचारांग सूत्र श्रु० २ ० ३ में कक्ष की टीका इस प्रकार दी है नद्यासन्न निम्नप्रदेशे मूलकवालुङ्कादिवाटिकायां ।
- पत्र १६२
— पत्र ३६
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भगवान् मेंढियग्राम में
१३३
करना कठिन था । उसीके साथ भगवान् को रक्तातिसार ( खून की पेचिश ) हो गया ।
उनकी स्थिति देखकर चारो वर्णों के लोग कहने लगे - " मंखलिपुत्र गोशाला के तपः तेज से पराभव पाये हुए महावीर स्वामी पित्तज्वर तथा दाह से ६ मास में ही छद्मास्थ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त होंगे ।"
उस समय भगवान् महावीर के अंतेवासी भद्र प्रकृति के तथा विनीत सीह - नामक अनगार मालुयाकच्छ के पास निरन्तर छठ-छठ की तपस्या करते हुए बाँहों वे उर्ध्व किये हुए 'विचरते थे ।
ध्यान करते-करते एक दिन सीह को ऐसा अध्यवसाय हुआ कि मेरे धर्माचार्य के शरीर में विपुल रोग उत्पन्न हुआ है । वे काल कर जायेंगे तो अन्यतीर्थिक कहेंगे कि वे छद्मस्थावस्था में ही काल कर गये ।
इस प्रकार मानसिंक दुःख से पराभव पाये हुए सीह आतापना - भूमि से निकलकर माझ्याकच्छ में आये और रुदन करने लगे ।
उस समय भगवान् महावीर ने श्रमण-निर्गयों को बुलाकर कहा" भद्र प्रकृति वाला अंतेवासी सीह-नामक अनगार मालुयाकच्छ में रुदन कर रहा है । उसे तुम बुला लाओ ।"
भगवान् का वंदन करके निर्गन्थ मालुयाकच्छ में गये और सीह को भगवान् द्वारा बुलाये जाने की सूचना दी। सीह साणकोष्ठक - चैत्य में आये । भगवान् ने सीह को सम्बोधित करके कहावत्स सीह, मेरे भावी अनिष्ट की कल्पना से तू रो पड़ा ।"
("
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सीह द्वारा स्वीकार कर लिये जाने पर भगवान् ने कहा - "सीह ! यह बात पूर्णतः सत्य है कि मंखलिपुत्र गोशाला के तपः तेज के पराभव
१ -- इस सम्बन्ध में पूरा पाठ निरयावलिया [ गोपाणी-चौकसी- सम्पादित ] पृष्ठ ३६ पर आया है। उसका अंग्रेजी अनुवाद पृष्ठ ७५ पर दिया है ।
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१३४
तीर्थङ्कर महावीर से मैं ६ मास में काल नहीं करूँगा । मैं गंधहस्ति के समान जिनरूप में अभी १६ वर्षों तक विचरूँगा।
- 'हे सीह ! तुम मेंढियग्राम में रेवती गृहपत्नी के घर जाओ। उसने मेरे लिए दो कुम्हड़े का पाक तैयार किया है। मुझे उसकी आवश्यकता नहीं है। उसने अपने लिए' बिजौरे का पाक तैयार किया है। उसे ले आओ । मुझे उसकी आवश्यकता है।”
भगवान् की आज्ञा पाकर सौह उन्हें वन्दन-नमस्कार करके त्वरा-चपलता और उतावलापना-रहित होकर सीह ने मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना' की और प्रतिलेखना के बाद पुनः भगवान् की वन्दना की। वह रेवती के घर आये । साधु को आता देखकर गृहपत्नी खड़ी हो गयी और वंदननमस्कार करके उसने साधु से आने का प्रयोजन पूछा।
सीह ने कहा-"तुमने भगवान् के लिए कुम्हड़े की जो औषधी तैयार की है, उसकी आवश्यकता नहीं है। परन्तु, जो विजौरापाक है, उसकी भगवान् को आवश्यकता है।"
१-'नवभारत टाइम्स' (दैनिक] २६ मार्च १९६१ में मुनि महेन्द्रकुमार ने 'भगवान् महावीर के कुछ जीवन प्रसंग" लेख में लिखा है कि रेवती ने वह दवा अपने घोड़े के लिए बनायी थी पर किसी जैन-शास्त्र में ऐसा उल्लेख नहीं मिलता।
२-यहाँ मूल पाठ है 'मुहपत्तियं पडिलेहेति पडिलेहेत्ता' इसका अर्थ अमोलक ऋषि ने [भगवतीसूत्र, पत्र २१२४] किया हैं 'मुखपत्ति की प्रतिलेखना कर' । इससे स्पष्ट है कि सीह ने मुखपत्ति को मुँह में बाँध नहीर खा था। मुखपत्ती की प्रतिलेखना सम्बन्धी पाठ भगवतीसूत्र सठीक शतक २, उ० ५, सूत्र ११०, पत्र २४६; उत्तराध्ययन [नेमिचन्द्र की टीका सहित] अ० २६, गाथा २३ पत्रा ३२१-१ उवासगदसाओ [पी० एल० वैद्य-सम्पादित] अ० १, सूत्रा ७७ पष्ठ १७ में भी है। उपासकदशांक घासीलाल जी ने भी वृत्तिसहित प्रकाशित कराया है। उसमें पष्ठ ३७२ पर यह पाठ आया है। उसका अर्थ पृष्ठ ३७६ पर उन्होंने भी दिया है"मुखवस्त्रिका की पडिलेहणा की।"
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भगवान् मेंढियग्राम में
१३५ इसे सुनकर रेवती की बड़ा आश्चर्य हुआ । उसने सीह से पूछा कि किस ज्ञानी-तपस्वी ने यह बात आपको बतायो ।
भगवान् द्वारा बताये जाने की बात सुनकर रेवती बड़ी संतुष्ट हुई । वह रसोई पर में गयी और छीके से तपेली उतारकर खोला और मुनि के पात्र में सब बिजौरापाक रख दिया। उस शुभदान से रेवती का मनुष्य-जन्म सफल हुआ और उसने देवगति का आयुष्य बाँधा ।
उसके प्रयोग से भगवान् के रोग का शमन हो गया और उनके स्वास्थ्य-लाभ से श्रम-श्रमणियों को कौन कहे देव-मनुष्य और असुरों सहित समग्र विश्व को सन्तोष प्राप्त हुआ।'
रेवती-दान
भगवान् की बीमारी और उस बीमारी के काल में सीह अनागार को बुलाने और रेवती के घर भेजने की बात हम पहले संक्षेप में लिख चुके हैं। सीह को रेवती के घर भेजने का उल्लेख भगवती-सूत्र में इस प्रकार है:
तुम सीहा ! मेढिय गाम नगरं रेवतीए गाहावतिणीए गिहे, तत्थ णं रेवतीए गाहावतिणीए ममं अट्टाए दुवे कवोय सरीरा उवक्खडिया तेहि नो अट्रो, अत्थि से अन्ने परियासियाए मज्जारकडए कुक्कुडमंसए तमाहराहि एएणं अट्ठो
१-- भगवतीसूत्र सटीक शतक १५ उदेशा १ [गौड़ी जी, बम्बई] २- भगवतीसूत्र सटीक, शतक १५, उद्देशा १, सूत्र ५५७, पत्र १२६१
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तीर्थंकर महावीर इस सूत्र में आये 'कवोयसरीरा', 'मजार कडए', 'कुक्कुडमंसए' शब्दों को लेकर जैन-परम्परा और इतिहास से अपरिचित लोग तरह-तरह की अनर्गल और असम्बद्ध बातें किया करते हैं। इन शब्दों पर अधिक विचार करने से पूर्व हम यह कह दें कि, वे 'औषधियाँ'' थीं। इनका साधारण रूप में अर्थ करना किंचित् मात्र उचित नहीं है ।
रेवती ने दान में क्या दिया ? और, रेवती ने औषधि-रूप में दान में क्या दिया, इसका भी बहुत स्पष्ट उल्लेख जैन ग्रन्थों में है। ऊपर के प्रसंगों के स्पष्टीकरण करने और उनके विवाद में जाने से पूर्व, हम यहाँ उन उद्धरणों को दे देना चाहेंगे, जिसमें रेवती के दान को स्पष्ट रूप में व्यक्त किया गया है ।।
(१) तत्र रेवत्याभिधानया गृहपति-पत्न्या मदर्थ द्वे कुष्माण्ड फलं शरीरे उपस्कृते, न च ताभ्यां प्रयोजनं, तथाऽन्यदस्ति तद्गृहे परिवासितं मार्जाराभिधानस्य वायोनिवृत्तिकारक कुक्कुट मांसकं बीजपूरककटाह मित्यर्थः..
१--[अ] नेमिचन्द्र-रचित 'महावीर चरियं' [ पत्र ८४०२, श्लोक १९३०, १६३२ १६३४ में 'पोसह' शब्द आता हैं।
[] कल्पसूत्र [संधेह विषौषधि टीका, पत्र ११५] में रेवती-प्रकरण में आता हैभगवस्तथा विधौषधिदानेनारोग्यदातृ
[३] ऐसा ही उल्लेख कल्पसूत्र-किरणावलि, पत्र १२७-१ में भी है।
[३] कल्पसूत्र सुबोधिका-टीका [ व्याख्यान ६, सूत्र १३७, पत्र ३५% ] में भी ऐसा ही उल्लेख है।
[3] लोकप्रकाश, विभाग ४, सर्ग ३४, श्लोक ३८३ पत्र ५५५-२ में भी स्पष्ट 'औषध' शब्द है।
[3] गुण चन्द्र के महावीर-चरियं [ पत्र २८०-१ ] में 'पोसह' लिखा है । [ए] भरतेश्वर-वाहुबलि-वृत्ति ( भाग २ पत्र ३२९-१ ) में भी ऐसा ही है । [ऐ] उपदेशप्रासाद भाग ३, पत्र १६६-२ में भी 'औषध' शब्द आया है।
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रेवती ने दान में दिया
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-ठाणांगसूत्र ( उत्तरार्द्ध ) सटीक, ठा० ९, उ० ३, सू० ६९२ पत्र ४५७-१
पक्कः कुष्मांड कटाहो यो मह्य तं तु मा ग्रही ॥५५०॥ बीजपूर कटाहोऽस्ति यः पक्को गृह हेतवे । तं गृहीत्वा समागच्छ करिष्ये तेन वो धृतिम् ।।५५१॥
-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ८, पत्र ११८-१ (२) द्वे कूष्मांडफले ये च, मदर्थ संस्कृते तया ॥१॥
ताभ्यां नार्थ किन्तु बीजपूर पाकः कृतस्तया । स्वीकृते तं च निर्दोषमेषणीयं समाहार ॥२॥
-लोकप्रकाश ( काल-लोकप्रकाश ) सर्ग ३४, पत्र ५५५ (४) यद्यस्य परमेश्वरस्यातीसार स्फेटन समर्थ बीजपूरकावलेह भेषजं दीयते तदाऽतीसार रोगः प्रशाम्यति । तया रेवत्या त्रिभुवनगुरो रोगोपशान्ति निमित्तं भावोल्लास पूर्वमौषधंदत्तम्।
-भरतेश्वर-बाहुबलि-वृत्ति, द्वितीय विभाग, पत्र ३२९-१ (५) ततो गच्छ त्वं नगर मध्ये, तत्र रेवत्यभिधानया गृहपतिपत्न्या मदर्थ द्वे कुष्माण्ड फल शरीरे उपस्कृते न च ताभ्यां प्रयोजनं, तथाऽन्यनिर्दोषमस्ति तद्गृहे परं पर्युषितं मार्जाराभिधानस्य वायोनिर्वृत्तिकारकं कुक्कुटमांसकं बीजपूरैक कटाह मित्यर्थः तदानय तेन प्रयोजनं
. --उपदेशप्रासाद, भाग ३, पत्र १९९-१
एक भिन्न प्रसंग में रेवती-दान जैन-शास्त्रों में एक भिन्न-प्रसंग में भी रेवती के दान का उल्लेख है । धर्मरत्नप्रकरण में दान तीन प्रकार के बताये गये हैं--(१) ज्ञान-दान (२)
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तीर्थंकर महावीर अभयदान और (३) धर्मोपग्रहदान ।' दानप्रदीप' में धर्मोपग्रह दान के ८ प्रकार बताते हुए उपदेशमाला का निम्नलिखित पाठ दिया है:
१ वसही २-३ सयणासण ४ भत्त ५ पाण ६ भेसज्ज ७ वत्थ ८ पत्ताई।
-१वसति, २ सयन, ३ असन, ४ भत्त, '५ पान, ६ भेसज्ज, ७. वस्त्र और ८ पात्र ।
मेरे पास किसी हस्तलिखित पोथी के कुछ पत्र हैं। उसका प्रारम्भ का पत्र साथ में न होने के कारण, उसका नाम बिलकुल ज्ञात न हो सका । उसमें धर्मोपग्रह दानों का विवरण देते हुए भेषज-दान के प्रकरण में निम्नलिखित पाठ दिया है। उससे भी यह स्पष्ट हो जाता है कि, रेवती ने दान में क्या दिया था । उक्त पाठ इस प्रकार है:__भेषजं पुदितो सुह पत्ते लहई उत्तमं लाहं जह तहाण वीरस्स रेवई सावई परमा। तथाहि भगवान् श्री महावीरो गोशालक तेजोलेश्या व्यतिकरानन्तरम् मेंढिक ग्रामे पानकोष्ठ कानि चैत्ये समवसृत । तत्र दाघज्वरातिसारेण पीड़ित दुर्बलो जातः । तत्र भगवन्तम् वन्दित्वा देवा गच्छन्तो परस्परम् इति वदन्तियथा भगवन् श्री महावीर स्तोक दिन मध्ये कालं करिष्यति यत् प्रतिकाराय भेषजं ना दत्ते । एवं श्रुत्वा मालुकाकच्छासन्न भुवि कायोत्सर्ग स्थितेन जिन शिष्येण सिंह साधुना चिन्तितम् ।
१-दाणं च तत्थ तिविहं, नाण्ययाणं च अभयदाणं च ।
धम्मो वग्गह दाणं च, नाण दाणं इमं तत्थ ॥
-धर्मरत्न प्रकरण, देवेन्द्र सूरि की टीका सहित, गाथा ५२, पत्र २२३-२ २-दानप्रदीप सटीक पत्र ६४-२। ३-उपदेशमाला दोघट्टी-टीका सहित, गाथा २४० पत्र ४२०-२।
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एक भिन्न प्रसंग मे रेवती नान
१३६. अहो सत्य एते वदन्ति । गोशालेन इति-उक्तमस्ति-यन्मम तेजोलेश्याद् छद्मस्थ एवं च मकाले कालं करिष्यति इति विचित्य मालुकच्छान्तरे प्रविष्य उच्चैः स्वरे विललाप । भगवान् ज्ञानेन तद् ज्ञात्वा साधु स आहूतः। आगतश्च स्वामिनः पादयोः शिर गाढ़लगित्वा रोदितुं प्रवृत्त । स्वामिना उक्तं भद्र मा ताम्य ! अह मत परम केवलि पर्यायेण षोडष वर्षाणि विचरिष्यामि । रोगोपि कालेन स्वयमेव निवर्तयिष्यते । तेनोक्तं तथापि रोगोपशमनोपाय कोप्यादिश्यतां । स्वाम्युक्तं यद्येवं ततो गच्छ । तत्रैव रेवती श्राविका गृहे । तत्रैकं कुष्मांडी फले कटोह औषधमनेक द्रव्य योजितमदर्थं कृतमस्ति । तत् त्वया नानेतव्यः । द्वितीयं बीजपूर कटाह अोषधं कुटम्ब कार्य पक्तमस्ते । तत् प्राशुक मानयेथाः। इति तथेति प्रतिपद्य सिंहो गतवान् तद् गृहम् । तयाभ्युत्थानं कृतम् । वंदित्वा योजितकर संपुद्या आगमन कारणम् पृष्टः । तेनोक्तं रोगोपशमनाय भेषजाय ग्रहमाययो। परम प्रासुक बीजपूरकटाह श्रोषधं दीयताम् । यत् भगवन् निमित्तं कृतं अस्ति तन्न देयम् । ततस्तया सविस्मयोक्त"भो मुने! कथमेतद् भवता ज्ञातम।" तेनोक्त-"भगवत् मुखात् ।” ततस्तया प्रचुर प्रमोदा प्रादुर्भूत पुलकया धन्याह मिति चिन्तयन्त्या तत् दत्तम् । तत पुण्यात् तीर्थकर नाम कर्मार्जितम् । तदङ्गणे सार्धद्वादश सुवर्ण कोटि वृष्टिर्जाता। दुंदुभि निनादः। चेलोत्क्षेप। अहोमहादान मिति प्रघोष कृत क्रमेण मृत्वा स्वर्ग गता । ततः च्युत्वा भरते उत्सर्पिण्यां सप्तदश तीर्थकर समाधि नामा भविता। तस्मात् औषधात् श्री वीरो निरामयः जातः । इति भेषजदाने कथा । __संदर्भ रूप में हम यहाँ इस कथा वाले अंश का ब्लाक ही दे दे रहे हैं।
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१४०
तीर्थङ्कर महावीर
भगवती के पाठ पर विचार इन प्रसंगों को ध्यान में रखकर अब हम भगवतीसूत्र वाले पाठ पर विचार करेंगे । अभयदेव सूरि ने उक्त पाट की टीका इस प्रकार की है :_ 'दुवे कवोया' इत्यादेः श्रयमाणमेवार्थ केचिन्मन्यते, अन्ये त्वाहुः-कपोतका-पक्षि विशेषस्तद्वद् ये फले वर्ण साधर्म्यात्ते कपोते, कूष्मांडे ह्रस्वे कपोते कपोतके ते च ते शरीरे वनस्पतिजीवदेहत्वात् कपोतकशरीरे अथवा कपोतकशरीरे इव धूसरवर्णसाधादेव कपोतक शरीरे-कूष्मांड फले 'परिश्रासिए' त्ति परिवासितं ह्यस्तन मित्यर्थः, 'मज्जारकडए' इत्यादेरपि केचित् श्रूयमाणमेवार्थ मन्यन्ते, अन्ये त्वाहु:-मार्जारो वायुविशेषस्तदुपशमनाय कृतं-संस्कृतं मार्जारकृतम्, अपरे त्वाहुः-मार्जारो विरालिकाभिधानो वनस्पति विशेषस्तेन कृतं-भावितं यत्तत्तथा किं तत् इति ? प्राह 'कुर्कुटक मांसकं' बीजपूरक कटाहम्"
लगभग इसी प्रकार की टीका दानशेखर गणि ने भी की है। अभयदेव को शंकाशील मानने वाले स्वयं भ्रम में
यहाँ टीकाकार ने भी 'कवोय' से 'कुष्माण्ड' और 'कुक्कुट' से 'बीजपूरक' अर्थ लेने की बात कही है। टीका में 'श्रूयमाणमेवार्थ केचिन्मन्यन्ते' पाठ आया है । इस पर जोर देकर कुछ लोग कहते हैं कि, इस अर्थ के सम्बन्ध में अभयदेव सूरि शंकाशील थे। पर, ऐसी शंका करना भी निरर्थक है । भगवती सूत्र की टीका अभयदेव सूरि ने वि० सं० ११२८ में लिखी। इससे पूर्व ११२० में ही वह तृतीय अंग ठाणांग की टीका लिख
१–भगवतीसूत्र सटीक, पत्र १२७० २–भगवतीसूत्र दानशेखर की टीका, पत्र २२३-१, २२३-२ ३-जैन-ग्रन्थावलि ( जैन श्वेताम्बर कानफरेंस, बम्बई ) पष्ठ ४
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श्रूयमाणमेवार्थ के चिन्मन्यन्ते चुके थे ।' और, वहाँ उन्होंने पूर्ण रूप से उक्त प्रसंग का स्पष्टीकरण कर दिया था। हमने उसका पाठ पृष्ठ १३६ पर दे दिया है ।
तथाकथित 'जैन संस्कृति संशोधक मंडल, वाराणसी' द्वारा प्रकाशित ( पत्रिका संख्या १४) 'निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय' नामक पुस्तिका में उसके लेखक ने लिखा है__". • 'जब कि चूर्णिकार , आचार्य हरिभद्र और आचार्य अभयदेव ने अमुक वाक्यों का मांस-मत्स्यादिपरक अर्थ भी अपनी आगमिक व्याख्याओं में लिखा है।"
जैन-संस्कृति के इन संशोधकों को मैं क्या कहूँ, जो जैन होकर भी जैन-धर्म पर कीचड़ उछालने को उद्यत हैं; जब कि, अन्य धर्मावलम्बी धर्म-ग्रन्थों ने भी जैनियों की अहिंसा-प्रियता स्वीकार किया है।
और, यदि इन संशोधकों ने दोनों टीकाएँ और उनके काल पर विचार किया होता तो वे कदापि न तो स्वयं भ्रम के शिकार होते और न औरों को भ्रम में डालने का दुष्प्रयास करते ।
श्रयमाणमेवार्थ केचिन्मन्यन्ते हमने अभी 'श्रूयमाणमेवार्थ केचिन्मन्यन्ते (कुछ लोग मानते हैं कि जो सुना जाता है, वही अर्थ है ) का उल्लेख किया । इसी वाक्यांश को लेकर लोग नाना प्रकार की कल्पनाएँ करते हैं। ___यहाँ जिस रूप में टीका में यह वाक्यांश आया है । उससे भी अभयदेव सूरि का भाव स्पष्ट है । पहले 'श्रूयमाणमेवार्थ केचिन्मन्यन्ते' कहकर उन्होंने दो चार शब्द उपेक्षा से लिख दिये और फिर दूसरे मत को सविस्तार
१-जैन-ग्रन्थावलि, पृष्ठ ३
२-निर्गन्थ सम्प्रदाय, पृष्ठ १३ । यह लेख सुखलाल के लेखों के संग्रह 'दर्शन और चिंतन' (हिन्दी) में पृष्ठ ६१ पर उद्धृत है।
३-भगवतीसूत्र सटीक, पत्र १२७०
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१४२
तीर्थंकर महावीर
लिखा । इससे स्पष्ट है कि यहाँ भी उन्होंने अपनी टाणांग की टीका की पुष्टि ही की है ।
'शब्द' और 'अर्थ' भिन्न हैं
'जो सुना जाता है, वही अर्थ है' ऐसी धारणा वालों को मैं बता देना 'चाहता हूँ कि 'अर्थ' 'शब्द' से भिन्न है । 'शब्द' स्वयं अर्थ नहीं है । "अर्थ' की टीका करते हुए नेमिचन्द्र सूरि ने लिखा है
अर्थञ्च तस्यैवाभिधेयं
- उत्तराध्ययन सटीक, अ० १, गा० २३, 'राजेन्द्राभिधान' में 'अर्थ' की टीका इस प्रकार की ऋ - गतौ, अर्यते गम्यते ज्ञायते इत्यर्थः
- अभिधान राजेन्द्र, भाग १, पृष्ठ ५०६ इसी प्रकार की टीका ठाणांग में भी है :अर्यतेऽधिगम्यतेऽर्थ्य ते याच्यते बुभुत्सुभिरित्यर्थः व्याख्याने -- 'जो सुत्तभिपाओ, सो अत्थो अज्जए जम्हति -ठाणांग सूत्र सटीक, पूर्वार्द्ध, ठा० २, उ० १, सू० ७१ पत्र ५१-१
वा
इन टीकाओं से स्पष्ट है कि, जो सुना जाता है, वही अर्थ कदापि नहीं होता है । और, बिना अर्थ के सुने हुए का कुछ भी प्रयोजन नहीं है । वैपेशिकों ने यह प्रश्न उठाया है
" शब्द मुख में और अर्थ अन्यत्र होता है ?' जैसे ग्रंथ कहने से उसका रूप गुण हमारी हृद्रय बुद्धि में आता है और तब हम यथावश्यकता यथास्थान उसकी प्राप्ति उसके भौतिक रूप में करते हैं । इसीलिए
पत्र ९-१ गयी है
१ - मुखे हि शब्दमुपलभामहे भूयावर्थं
मीमांसा दर्शन, वाल्यूम १, दि एशियाटिक सोसाइटी व बंगाल,
-सन् १८७३
कलकत्ता
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शब्द और अर्थ भिन्न हैं
१४३
प्राचीन भाषाशास्त्री अर्थ को प्रधान और शब्द को गौण मानते हैं ।' वाक्यपदीय में आता है :
लोकेऽर्थरूपतां शब्दः प्रतिपन्न प्रवर्तते ' इसकी टीका करते हुए पुण्यराज लिखा है
अथ रूपतां प्रतिपन्नोऽर्थेन सहैकत्वमिव प्राप्तः शब्दः प्रवर्तते । श्रयं गौरित्यादि । तत्रार्थं एव बाह्यतया प्रधानमवसीयते शब्द का अर्थ भी सर्वत्र समान नहीं होता । वैशेषिक दर्शन में आता हैसामायिकः शब्दादर्थः प्रत्ययः
:–
इस पर उदाहरण देते हुए 'शब्द और अर्थ " में लिखा है
संस्कृत और हिन्दी में 'राग' का अर्थ 'प्रेम' है; किन्तु बंगला और मराठी में 'क्रोध' के अर्थ में यह प्रयुक्त होता है । इस प्रकार 'शब्द' से अर्थ का बोध सामयिक मानना चाहिए। ऐसा प्राचीन उदाहरण भी है
'शव' धातु कम्बोज देश में 'जाना' अर्थ में प्रयुक्त होता है; किन्तु आर्य 'विकार' के अर्थ में 'शव' का प्रयोग करते हैं । अर्थ किस रूप में लेना है, इस दृष्टि से स्वयं शब्द के भेद हो जाते हैं । हेमचन्द्राचार्य ने काव्यानुशासन ( सटीक ) में लिखा है -
:-―
१ - र्थी हि प्रधानं तद् गुणभूतः शब्दः
- निरुक्तम् आनंदाश्रम मुद्रणालय, पूना १९२१ २- वाक्यपदीयम्- २ - २३२ ( ब्रजविलास ऐंड कम्पनी ) १८८७ ई० ३ - वाक्यपदीय
४--७-२-२०
५-डा० शिवनाथ-लिखित 'शब्द और अर्थ' ना० प्र० प० ६३, ३-४ पृष्ठ ३१३ ६ - एतमिंश्चाति महती शब्दस्य प्रयोग विषय ते ते शब्दास्तत्र तत्र नियत विषया दृष्यंते-तद्यशा शवतिर्गं ति कर्मा कव्योजष्वेव भाषितो भवति विकार एवमार्या भाषन्ते शव इव
-पी० ० एस० सुब्रह्मण्य शास्त्री - लेक्यर्स आन पंतजलीज महाभाष्य, वाल्यूम १,
पृष्ठ ६५
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१४४
तीर्थङ्कर महावीर मुख्य गौण लक्ष्य व्यंगार्थ भेदात् मुख्य गौण लक्षक व्यञ्जकाः शब्दाः'
अर्थ लेने में क्या-क्या ध्यान में रखना चाहिए, इस सम्बन्ध में कहा है
शक्तिग्रहं व्याकरणोपमा न कोशाप्त वाक्याद् व्यवहारतश्च । वाक्यस्य शेषाद् विवृतेर्वदंति सानिध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धा ॥
बिना इन सभी दृष्टियों को ध्यान में रखे जो भी अर्थ करने का प्रयास होता है, वह वस्तुतः अर्थ नहीं अनर्थ होता है । एक श्लोक है
देवराजो मया दृष्टो वारिवारण मंस्तके ।
भक्षयित्वार्कपर्णानि विष पीत्वा क्षयं गतः॥ यहाँ यदि 'विष' का अर्थ 'जहर' और 'क्षयं' का अर्थ 'नष्ट होना' किया जाये तो वस्तुतः अर्थ का अनर्थ हो जायेगा ।
१-काव्यानुशासन सटीक [ महावीर विद्यालय, बम्बई ] १-१५ पृष्ठ ४२ । ऐसा ही उल्लेख साहित्य-दर्पण में भी आता है
अर्थो वाच्यश्च लक्ष्यश्च व्यङ्ग्यश्चेति विधायतः वाच्योर्थोऽभिधवा वोध्योलच्योलक्षणयामतः ॥ व्यङ्ग्योव्यजनयातास्तु तिस्त्रः शब्दस्य शक्तय । इति साहित्य दर्पणः
शब्दार्थ-चिंतामणि, भाग १, पृष्ठ १७२ २-हे देवरः ! मया जः मेषः वारिवारण ३-सेतुः तस्य मस्तके उदरिभागे दृष्टः ४–अर्को-वृक्ष विशेषः तस्य पर्णानि-पत्राणि ५-जलम् ६-स्थानम्-सुभाषित सुधारत्न भाण्डागार, पृष्ठ ५३५
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युक्तिप्रबोध नाटक का स्पष्टीकरण १४५
युक्तिप्रबोध-नाटक का स्पष्टीकरण अर्थ सप्रसंग और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर लेना चाहिए। इसका बड़ा तर्कपूर्ण तथा बुद्धिगम्य स्पष्टीकरण मेघविजय उपाध्याय ने 'युक्तिप्रबोध' नाटक में किया है :
साधोसिं ग्रहणं तदपि मुग्धप्रतारण मात्रं श्रीदशवैकालिके-'अमजमंसासियऽमच्छरीया" इति सूत्रकृदङ्गे-'अमज्जमंसासिणों" इत्यागमे मुनिस्वरूपे तन्निषेधभणनात्, यत्तुं कुत्रचिच्छब्देन मांसाहारो दृष्यते, तत्र दशवैकालिके 'महुघयं व भुजिज्जा संजएँ' इत्यादौ 'मधु' शब्देन खण्डिकादिकमिति व्याख्यानात् सर्वत्र अर्थान्तरमेव प्रतिपादितं, दृश्यते प्राचीना नूचानः न चार्थान्तरकरणमसङ्गतं, रत्नमाला ग्रंन्थे ज्योतिषिकैरपि अर्थान्तरकरणात् तथाहिअष्टम्यादिषु नाद्यात् ऊर्ध्वगतीच्छुः कदाचिदपि विद्वान् । शीर्ष कपाला न्त्राणि नख चर्म तिलास्तथा क्रमशः ॥१॥
अत्र शीर्ष तुम्बकं, अन्त्राणि महत्यो मुद्रिकाः नखा चल्लाश्चर्माणि सेल्लर कानि इत्यर्थः समर्थ्यते।
आगमेऽपि प्रज्ञापनायाम् ‘एगट्टिया य बहुबीयगा य" इत्यत्र एकमस्थि बीजमित्यर्थः तथा 'वत्थल पोरग मजार पोई बिल्ली य पालक्का, ॥४१॥ दगपिप्पली य दवी मच्छिय ( सोत्तिय ) १-दशवैका लिक हारिभद्रीय टीका सहित, चू० २, गा० ७, पत्र २८०-१ २-सूत्रकृतांग [ बाबूवाला] २-२७२ पृष्ठ ७५६ ३-दशवैकालिक सटीक अ० ५, उ० १, गाथा ६७ पत्र १८०-२
४--'मधु' शब्द पर हमने 'तीर्थकर महावीर', भाग १, पृष्ठ १६६ पर विस्तार से विचार किया है।
५-प्रज्ञापनासूत्र सटीक, गा० १२, पत्र ३१-१ ६-प्रज्ञापनासूत्र सटीक गा ० ३७, पत्र ३३-१
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तीर्थङ्कर महावीर साए तहेव मंडुकी' । तथा 'विटं मंसं कडाहं .एयाइं हवंति एग जीवस्सेति (६५) सूत्रलेशः स्पष्ट एव, न चात्र वनस्पत्य
कारात्तथैवार्थः उपपद्यते नान्यत्रेति वाच्यम्, अन्यत्रापि यत्या हाराधिकारात् तथैव युक्तत्वात् यतीनामाहार विशेषणानि'अरसाहारे विरसाहारे अंताहारे पंताहारे' इत्येव प्रवचने भण्यंते, घृतादि विकृतीनामपि परिभोगः कारणिकः तर्हि स्थानाङ्ग सूत्रे महाविकृतित्वेनोक्तस्य 'कुणिमाहारेण' त्यागमवचनेन नारकायुर्बन्ध हेतो सम्यक्तवतोऽपि त्याज्यस्य सर्वांगदयामय श्रीमन्मौनीन्द्र शासन प्रतिषिद्धस्य मुनीनां सर्वजगज्जीवहितानां मांसाहारस्य कदापि न युक्तियुक्ततेत्युत्तंभितहस्ता व्याचक्षमहे, न च शुद्धाहार गवेषणावतां मांसस्यापि शुद्धत्वेनोपलम्भे तदाहतिर्न विरुद्धति चित्यं, द्रव्यस्यैव
आमासु य पक्कासु य विपच्चमाणासु मंसपेसीसु । उपजंति अणंता तव्वराणा तत्थ जंतुणो ॥१॥
Meamstiment
इत्यागमादशुद्धत्वात् , तेन लाघवान्मद्यमांसादि शब्दस्य क्वचित् कथनेऽपि न भ्रमणीयं 'पिट्टमंसं न खाइज्जा" इति दशवैकालिके निन्दावाक्यस्य, तथा सरसाहारस्यापि मांस शब्दाभिधेयत्वात् , यद्गौडः "आमिष भोज्यवस्तूनि" प्रास्तामाहारः प्रास्तामाहारः 'सामिसं कुललं दिस्स वझमाणं
१-प्रज्ञापनासूत्र सटीक, गा ० ३८, पत्र ३३-१ २-प्रज्ञापनासूत्र गाथा ६१, पत्र ३६-२ ३-ठाणांगसूत्र सटीक, ठा०५; उ० १, सूत्र ३६७ पत्र २६६-१ ४-संबोधप्रकरण, गुजराती अनुवाद, गाथा ७५, पृष्ठ १६६ ५-दशवैकालिक हारिभद्रीय टीका सहित, अ० ८, उ० २ गा० ४७ पत्र २३४-२
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युक्तिप्रबोध-नाटक का स्पष्टोकरण
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निरामिसं । ग्रामिसं सव्वमुज्झित्ता विहरिस्लामो निरामिसा ॥' इत्युत्तराध्ययने अभिष्वङ्गहेतोर्धनधान्यादेरपि श्रमिषत्वेन भणनं, तेन भ्रमस्यास्य भवभ्रमणहेतु तेत्यन्यत्र विस्तरः ॥’
૨
- यह मांस प्रकरण भोले-भोले जीवों को ठगने मात्र के लिए है । 'दशवैकालिक' में आता है— 'अमज्जमंसासिय मच्छरीया' । सूत्रकृतांग में लिखा है— अमज्जमंसासिगो' ऐसा आगम में है । मुनि का स्वरूप जहाँ वर्णित है, वहाँ उसका निषेध कहा गया है । फिर भी किसी ठिकाने मांसाहार दिखायी देता है । वहाँ दशवैकालिक में आये 'महु घयं व भुजिज्जा संजये' इत्यादि प्रकरण में 'मधु' शब्द से खांड आदि के समान सर्वत्र अर्थान्तर ही प्रतिपादित दिखलायी पड़ता है—ऐसा प्राचीन पंडितों ने कहा है । अर्थान्तर न करना असंगत है । 'रत्नमाला' ग्रन्थ में ज्योतिषियों ने भी अर्थान्तर करण किया है । वहाँ आता है
अष्टम्यादिषु नद्या व ऊर्ध्वगतीच्छुः कदाचिदपि विद्वान् । शीर्षकपालान्त्राणि नखचर्म तिलस्था
क्रमशः ॥
यहाँ 'शीर्ष' से अर्थ 'तुम्बी', 'अंत्राणि' से 'महती मुद्गरिका', 'नख' से 'वाल', 'चर्म' से 'सेल्लरक' (निर्मटिका ) अर्थ लेना ही समर्थित है। आगम में भी प्रज्ञापना में आये 'एगडिया य बहुबीयगा' में अस्थि का अर्थ बीज है ।
तथा 'वत्थल पोरग मजार पोई बिल्ली व पालका दगपिप्पली य दवी मच्छिय ( सोत्तिय ) साए तब मडुंकी' तथा 'विंटं मंसं कडाई एआई हवन्ति एग जोवस्सेति' सूत्र के ये अंश बिलकुल स्पष्ट हैं । वनस्पति का अधिकार होने से यहाँ वैसा अर्थ नहीं है ( जैसा कि प्रकटतः लगता है ) ।
१ – उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका सहित श्र० १४, गा० ४६, पत्र २१२-२ २- युक्तिप्रबोध पत्र १९६ - २००
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१४८
तीर्थकर महावीर
अन्य स्थल पर भी साधु के आहार का अधिकार होने से उसी प्रकार ( वनस्पतिबोधक ) अर्थ लगेगा। यति के आहार के विशेषण हैं-'अरसाहारे, विरसाहारे, अंताहारे, पंताहारे' ऐसा प्रवचन है । घृतादि विकृतियों का परिभोग भी कारण से है। उस स्थिति में उसे स्थानांगसूत्र में महाविकृति के रूप में कहा गया है। ऐसा आगम में लिखा है-कुणिमाहार नरक का आयु बाँधने का हेतु है । सम्यक् वाले को उसका त्याग होने से श्रीयुत् मौनीन्द्र-शासन में प्रतिषेध होने से मांसाहार कदापि युक्तियुक्त नहीं हो सकता-ऐसा हाथ ऊँचा करके हम कहते हैं । “शुद्ध आहार की गवेपगा करने वाले के लिए मांस की भी शुद्धता से उपालम्भ में हानि नहीं है"..-इसमें भी विरोध नहीं आता-ऐसे लोग कहते हैं कि द्रव्य का भी
आमासु य पकासु य विपच्च माणासु मेसपेसीसु । उप्पज्जन्ति अगंता तव्वण्णा तत्थ जंतुणो॥ आगम से शुद्ध होने के कारण । उस कारण से लाघव से मद्य-मांस आदि के सम्बन्ध में किसी के कहने पर भी भ्रम करने योग्य नहीं है।
'पिट्ठमंसं न खाइज्जा' दशवैकालिक में ऐसा निन्दा वाक्य है । तथा 'सरसाहार' से भी मांस शब्द के अभिधेय होने से जैसा कि गौड़ ने कहा है---"आमिष का अर्थ खाद्य-पदार्थ है।" उत्तराध्ययन में आता है
सामिसं कुललं दिस्स, वज्झमाणं निरामिसे। आमिसं सव्वमुज्झित्ता, विहरिस्सामो निरामिसा॥
___'आमिष' का अर्थ शब्द को प्रसंगवश लेना चाहिए, इस सम्बन्ध में 'आमिष' शब्द ही लें । जिस प्रकार का उसका अर्थ गौड़ ने किया है, वैसा ही अर्थ अन्य
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'आमिष' का अर्थ
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जैन-आचार्यों तथा ग्रन्थों ने भी किया है । हम यहाँ कुछ प्रमाण दे
(१) योगशास्त्र (स्वोपज्ञटीका-सहित, प्रकाश ३, श्लोक १२३) में आये 'आमिष' की टीका हेमचन्द्राचार्य ने इस प्रकार की है
आमिषं भक्ष्यं पेयं च, तच्च पक्कान फलाक्षत दीपजलघृतपूर्णपात्रादि रूपं ।
–पत्र २१०-२ (२) आमिषमाहार इहापि तथैव फलादि सकल नैवेद्य परिग्रहो दृश्यः
-पंचाशक सटीक, पं० ६, गा०२६, पत्र ११–१ (३) 'आमिषं' धनधान्यादि
-उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका, अ० १४ गा ४८ पत्र २१३-१ (४) 'अमिषाद्'—विषयादेः :
-~-वही, अ० १४, गा ४१, पत्र २१२-२ (५) अब हम यहाँ संस्कृत-कोष' से भी 'आमिष' का अर्थ दे
(अ) डिजायर, लस्ट- यथा - निरामिषो विनिर्मुक्तः प्रशान्तः सुसुखी भव
महाभारत १२-१७-२ निरपेक्षो निरामिषः
-मनुस्मृति ६-४९
१-प्राप्टेज संस्कृत-इंगलिश डिक्शनरी, भाग १, पृष्ठ २४५-३४६ । २-३स पर कल्लूक भट्ट ने टीका में लिखा हैनिरामिषः आमिषं विषयस्तदभिलाष रहितः
-~-मनुस्मृति कल्लूक भट्ट की टीका सहित, पृष्ठ २२०
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तीर्थकर महावीर
(आ) फूड
(इ) एंज्वायनेंट-प्लीजिंग आर लल्ली आर अट्रैक्टिव आंब्जेक्ट यथा नामिषेषु प्रसंगोस्ति
-महाभारत १२, १५८, २३ (इ) क्रूट आव जम्बीर ( ई ) मीसं आव लिवलीहुड यथा
आमिषं यच्च पूर्वेषां राजसं च मलं भृशम् । अनृतं नाम तद्भूतं क्षिप्तेन पृथ्वीतले ॥
---रामायण ७, ७४, १६ जैन-धर्म में हिंसा निंद्य है इन प्रसंगों से यह स्पष्ट हो गया होगा कि, प्रसंग तथा संदर्भ पर बिना विचार किये अर्थ करना वस्तुतः अनर्थ है। जो लोग जैन-ग्रंथों के पाटो का अनर्गल अर्थ करते हैं, उन्हें यह ध्यान में रखना चाहिए कि जैन-धर्म में श्रावकों के लिए प्रथम व्रत स्थूलप्राणातिपातविरमण है। हमने उसका मविस्तार वर्णन श्रावकों के प्रसंग में किया है। जब श्रावक के लिए यह व्रत है, तो फिर साधु-साध्वी के सम्बन्ध में क्या कहना !
हिंसा की निन्दा स्थल-स्थल पर जैन-शास्त्रों में की गयी है। हम उनमें से कुछ यहाँ दे रहे हैं। (१) अमज्ज मंसासि अमच्छरीश्रा,
अभिक्खणं निविगई गया य । अभिक्खणं काउस्सग्गकारी,
सज्भाय जोगे पयो हविज्जा ॥
-दशवैकालिक सूत्र सटीक, चू० २, गा० ७ पत्र २८०-१ - यदि सच्चा साधु बनना है तो मद्य-मांस से घृणा करे, किसी से ईप्या
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जैन-धर्म में हिंसा निंद्य है। न करे, बारम्बार पौष्टिक भोजन का परित्याग और कोयोत्सर्ग करता रहे तथा स्वाध्याय-योग में प्रयत्नवान बने । (२) हिंसे बाले मुसावई, माइल्ले पिसुणे सढे ।
भुंजमाणे सुरं मंसं, सेयमेयं ति मन्नइ ॥ -उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका सहित, अ० ५, गा० ९, पत्र १०३-२
-हिंसा करनेवाला, झूट बोलनेवाला, छल-कपट करनेवाला, चुगली करनेवाला और धूर्तता करनेवाला तथा मदिरा और मांस खाने वाला मूर्ख अज्ञानी जीव इन उक्त कामों को श्रेष्ठ समझता है । (३)...............
...............................। भुजमाणे सुरं मंसं परिवूढ़े परंदमे ॥ प्रयकर भोई य, दिल्ले चिय लोहिए । आउयं नरए कंखे, जहाऽऽएसं व एलए ॥
__--उत्तराध्ययन सटीक, अ० ७, गा० ६-७ पत्र ११७-१ -मदिरा और मांस का सेवन करने वाला, बलवान होकर दूसरे का दमन करता है । जैसे पुष्ट हुआ वह बकरा अतिथि को चाहता है; उसी प्रकार कर्कर करके बकरे के मांस के खाने वाला तथा जिसका पेट रुधिर
और मांस के उपचय से बढ़ा हुआ है, ऐसा जीव अपना वास नरक में चाहता है। (४) तुहं पियाई मंसाई, खंडाई सोल्लगाणिय । खाइयो मि समसाई अग्गिवराणइ रणेगसो॥
-उत्तराध्ययन सटीक, अ० १९, गा० ६९, पत्र २६३.२ -मुझे मांस अत्यन्त प्रिय था, इस प्रकार कह कर उन यमपुरुषों ने मेरे शरीर के मांस को काटकर, भूनकर और अग्नि के समान लाल करके मुझे अनेक बार खिलाया ।
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तीर्थङ्कर महावीर ते मज्ज मंसं लसणं च भोच्चा,
अन्नच्छ वासं परिकप्पयंति । -सूत्रकृतांग ( बाबू वाला ) श्रु० १, अ० ७, गा० १३ पृष्ठ ३३७
- वे मूर्ख मद्य-मांस तथा लहसुन का उपभोग करके मोक्ष नहीं वरन् अपना संसार बढ़ाते हैं । मोक्ष तो शील के बिना नहीं होता। (६)............ अमज्ज मंसाससिणो...."
-सूत्रकृतांग (बाबू वाला ) श्रु० २, अ० २, सू० ७२ पृष्ठ ७५९ --वे मद्य-मांस का प्रयोग नहीं करते । (७) जे यावि भ॑जति तहप्पगारं सेवंति ते पावम जातमाणा ।
मणं न एयं कुसला करेंति वायावि एसा वुइयाउ मिच्छा ॥ -सूत्रकृतांग (बाबू वाला) श्रु० २, अ०६, गा० ३९ पृष्ठ ९३६
-जो रसगृद्ध होकर मांस का भोजन करता है, वह अज्ञानी पुरुष केवल पाप का सेवन करता है। जो कुशल पण्डित है, वह ऐसा नहीं करता। 'मांस-भक्षण से दोष नहीं है', ऐसा वाणी पंडित नहीं बोलता ।
'आचारांग-सूत्र' में तो साधु को उस स्थल पर जाने का ही निषेध किया गया है, जहाँ मांसादि मिलने की आशंका हो। वहाँ पाठ आता है
से भिक्खू वा० जाव समाणे से जं पुण जाणेजा मंसाई वा मच्छाई मंस खलं वा मच्छखलं वा ... - 'नो अभिसंधारिज्ज गमणाए
-आचारांगसूत्र सटीक, श्रु० २, अ० १, उ० ४, सूत्र २४५ पत्र ३०४-१
१-दे ड्र नाट ड्रिंक लिकर्स पार ईट मीट
-सेक्रेड बुक्स आव द' ईस्ट, वाल्यूम ४५, सूत्रकृतांग बुक २, लेक्चर २, सूत्र ७२, पृष्ठ ३७६
'प्रश्नव्याकरण' अभयदेव सूरि की टीकासहित पत्र १००.१ में भी 'प्रमजमंसासिएहिं' पाठ आता है।
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मांसाहार से नरक-प्राप्ति
१५३ -गृहस्थ के घर भिक्षा के लिए जाते हुए मुनि को यदि ज्ञात हो जाये कि यहाँ मांस वा मत्स्य अथवा मद्य वाले भोजन मिलेंगे तो...'मुनि को उधर जाने का इरादा नहीं करना चाहिए ।
हेमचन्द्राचार्य ने अपने योगशास्त्र में बड़े विस्तार से हिंसा ली निंदा की है । विस्तारभय से हम यहाँ पूरा पाठ नहीं दे रहे हैं।'
मांसाहार से नरक-प्राप्ति जैन-शास्त्रों में मांसाहार नरक-प्राप्ति का एक कारण बताया गया है । हम यहाँ तत्सम्बन्धी कुछ प्रमाण दे रहे हैं:
(१) चउहि ठाणेहिं रतियत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा महारंभताते, महापरिग्गहयाते, पंचिदिय वहेणं, कुणिमाहारण -ठाणांगसूत्र सटीक (पूर्वार्द्ध) ठा० ४, उ० ४ सूत्र ३७३ पत्र २८५-२
इन चार कारणों से जीव नारक योग्य कर्म बाँधता है-१ महारंभ २महापरिग्रह, ३ पंचेन्द्रियवध और ४ मांसाहार ( कुणिम' मिति मांसं तदेवाहारो-भोजनंतेन-टीका)
(२) गोयमा ! महारंभायाए, महापरिग्गहयारा, कुणिमाहारेणं, पंचिदिय वहेणं नेरइया उयकम्मा सरीरप्प योगनामाये कम्मरस उदएणं नेरइयाउयकम्मा सरीर जाव पयोग बंधे
-भगवतीसूत्र सटीक, शतक ८, उद्देशा ९, सूत्र ३५० पत्र ७५२ (३) चउहिं ठाणेहिं जीवाणेरइयत्ताए कम्मं पकरति गेरहताए कम्मं पकरेत्ता णेरइएसु उववजंति तंजहा महारंभयाए, महापरिग्गहयाय, पंचदिय वहणं, कुणिमाहारेणं
-औपपातिकसूत्र ( सुरू-सम्पादित), सूत्र ५६, पृष्ठ ५४
१-योगशास्त्र स्वोपज्ञ टीका सहित, प्रकाश २ श्लोक १६-३८ पत्र ६६-२ से १७-१ तथा प्रकाश ३, श्लोक १८-३३, पत्र १५६-१-१६४-१
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१५४
तीर्थकर महावीर
नरक-प्राप्ति के कुछ उदाहरण मांसाहार से नरक-प्राप्ति होती है, तत्सम्बन्धी कितने ही उदाहरण जैनशास्त्रों में मिलते हैं । हम उनमें से कुछ यहाँ दे रहे हैं :
(१) विपाकसूत्र ( पी ० एल० वैद्य सम्पादित, १-८, पृष्ट ६०) में उल्लेख है कि मांसभोजी रसोइया काल करके ६-टें नरक में गया ।
(२) सूक्तमुक्तावलि में व्यसन-सम्बन्धी सूनों में एक श्लोक इम प्रकार है :
मांसाच्छोणिक भूपतिश्च नरके चौर्याद्विनष्टानके वेश्यातः कृतपुण्यको गतधनोऽन्यस्मी हतो रावण ॥' -अर्थात् मांस के कारण श्रेणिक राजा नरक गया ।
(३) सतव्यसन-कथा में इसी प्रकार बककुमार का उदाहरण दिया है।'
(४) हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र स्वोपज्ञ टीका सहित में मांसाहार के सम्बन्ध में सुभूम और ब्रह्मदत्त का उदाहरण दिया है। वहाँ पाट है
श्रूयते प्राणिघातेन रौद्रध्यान परायणौ ।
सुभूमो ब्रह्मदत्तश्च सप्तमं नरकं गतौ ॥ अपनी टीका में उन्होंने सुभूम की कथा पत्र ७२.२ से ७५-२ तक तथा ब्रह्मदत्त की कथा पत्र ७५-२ से ९०-२ तक बड़े विस्तार से दी है। मांसाहार से किंचित् सम्बन्ध रखने वाला पाप का भोगी हिंसा अथवा मांसाहार तो दूर रहा—उससे सम्बन्धित पुरुप भी
१-सूक्तमुक्तावलि, पत्र ८४-१ २---प्राचार्य सोमकी ति रचित सप्तव्यसनकथा, पत्र १३.२-१७-२ ३-योगशास्त्र स्वोपज्ञ टीका सहित, प्रकाश २, श्लोक ३७ पत्र ७२.२
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अन्य धर्म-ग्रन्थों में जैनियों को अहिंसा १५५ जैन-शास्त्रों में पाप का भोगी बताया गया है। हेमचन्द्राचार्य-रचित योगशास्त्र में एक श्लोक आता है---
हन्ता, पलस्य, विक्रेता, संस्कर्ता, भक्षकस्तथा । क्रेताऽनुमन्ता दाता च घाता एव यन्मनुः ॥'
-योगशात्र स्वोपज्ञ टीका-सहित, ३-२०, पत्र १६०-१ -मारने वाला, मांस का बेचने वाला, पकाने वाला, खाने वाला, खरीदने वाला, अनुमति देने वाला तथा दाता ये सभी घातक ( मारने वाले ) है-- ऐसा मनु का वचन है ।
__ अन्य धर्म-ग्रर्था में जैनियों की अहिंसा अहिंसा जैन धर्म का मूल तत्त्व रहा है, ऐसा उल्लेख बौद्ध-ग्रन्थों में भी भरा पड़ा है । संयुक्तनिकाय में असिबन्धकपुत्र ग्रामणी का उल्लेख आता है । उससे बुद्ध ने पूछा कि, महावीर स्वामी श्रावकों को क्या उपदेश देते हैं। इसके उत्तर में असिबंधक ने भगवान् महावीर के जिन उपदेशों की सूचना बुद्ध को दी, उनमें प्रथम उपदेश का उल्लेख इस प्रकार है"जो कोई प्राणि-हिंसा करता है, वह नरक में पड़ता है ।"*
मांसाहार से मृत्यु अच्छी जैन-लोग मांसाहार से मृत्यु अच्छी समझते रहे हैं । इस सम्बन्ध में एक बड़ी अच्छी कथा आती है।
द्वारमती में अरहमित्त नामक एक श्रोष्ठि रहता था। उसकी पत्नी
१-मनु का मूल श्लोक इस प्रकार हैअनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रय विक्रयी संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः ।
--मनुस्मृति ( हिन्दी-अनुवाद सहित ) अ० ५, श्लोक ५१ पृष्ठ १२३ २-संयुक्तनिकाय ( हिन्दी-अनुवाद ), भाग २ पृष्ठ ५८४
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१५६
तीर्थकर महावीर
का नाम अणुधरी था। वे दोनों श्रावक थे। उन्हें एक पुत्र था। उसका नाम जिनदत्त था । एक बार जिनदत्त बीमार पड़ा । वैद्य ने उससे कहा"मांस खाओ तो अच्छे हो जाओगे।" इस पर जिनदत्त ने उत्तर दिया
वरं प्रविष्ट ज्वलितं हुताशनं,
न चापि भग्नं चिरसंचितं व्रतम् । वरं हि मृत्युः परिशुद्ध कर्मणा,
न शोल वृत्तस्खलितस्य जीवितम् ॥ -जलती आग में प्रवेश करना मुझे स्वीकार है; पर चिरसंचित व्रत भग्न करना मुझे स्वीकार नहीं है। परिशुद्ध कर्म करते हुए मर जाना मुझे स्वीकार्य है, पर शील व्रत का स्खलन करके जीना स्वीकार नहीं है ।
इस प्रकार जिनदत्त ने मांसाहार पूर्णतः अस्वीकार कर दिया । बाद में जिनदत्त को ज्ञान उत्पन्न हुआ और वह सिद्ध हो गया।'
जैन अहिंसा-व्रत में खरे थे __ आर्द्रककुमार की जो वार्ता बौद्धों' और हस्तितापसों से हुई, उससे भी स्पष्ट है कि जैन-लोग अहिंसा-व्रत में कितने खरे थे ।
१-आवश्यकचूणि उत्तगद्ध, पत्र २०२ आवश्यककथा [ राजेन्द्राभिधान, भाग १, पृष्ठ ५०३ 'अत्तदोसोवसंहार' शब्द देखिये ] तथा आवश्यक की हारिभद्रीय टीका पत्र ७१४-१ में भी यह कथा आती है। हरिभद्र जब इस प्रकार की टीका करते हैं तो भला वह मांसपरक अर्थ कहीं अन्यत्र क्यों करने लगे ? सुखलाल ने 'जैन-संस्कृति-मंडल' को पत्रिका संख्या १४ के पष्ठ १३ पर हरिभद्र पर जो आरोप लगाया है, वह मनगढन्त तथा निराधार है। आवश्यकनियुक्ति दीपिका, भाग २, पत्र ११६-१ की १३०३-री गाथा है
वारवइ अरहमित्ते अणुद्धरी चेव तहय जिणदेवो ।
रोगस्स य उप्पत्ती पडिसेहो अत्तसंहारो ॥ २-सूत्रकृतांग सटीक (गौड़ी जो, पम्बई ) भाग २, पत्र १५१-१ ( देखिए पृष्ठ ३-वही, पत्र १५६-२-(देखिए पष्ठ ६० )।
५७-५८)।
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घी-दूध भी विकृतियाँ घी-दूध भी विकृतियाँ
मांस को कौन कहे, जैन साधु के लिए तो घी-दूध आदि भी मना है । इस सम्बन्ध में कुछ प्रमाण हम यहाँ दे रहे हैं:
पत्र १००-१
( १ ) प्रश्नव्याकरण में पाठ आता है:
खीर महु सपिएहिं ...
- प्रश्नव्याकरण अभयदेव की टीका सहित, संवरद्वार १, सूत्र २२:
इसकी टीका में स्पष्ट लिखा है
अक्षीर मधुसर्पिष्कैः- दुग्ध क्षौद्र घृत वर्ज कैः
वही, पत्र १०७ -१
( २ ) इसी प्रकार का उल्लेख सूत्रकृतांग में भी है । वहाँ भी 'विगइया' का निषेध किया गया है। उसकी दीपिका में लिखा हैनिर्विकृत्तिकाः घृतादि विकृतित्यागिनः
-
- सूत्रकृतांग ( बाबू वाला ) पृष्ठ ७६५
( ३ ) विकृतियों का बड़ा विस्तृत उल्लेख ठाणांगसूत्र में आता है । णव विगतीतो पं० तं० - खीरं, दधि, णवणीतं, सप्पि, तेलं, गुलो, महुं, मज्जं, मंसं
१५७
ठाणांगसूत्र सटीक, उत्तरार्द्ध, टा० ९, उ०३, सूत्र ६७४ पत्र ४५० - २ - विगतियाँ ९ हैं—१ दूध, २ दही, ३ नवनीत, ४ घी, ५ तेल, ६ गुड़, ७ मधु, ८ मद्य और ९ मांस
ठाणांग में ही अन्यत्र आता है:
―
चत्तारि गोरस विगतीओ पं० तं खीरं, दहि, सपि, णवणीतं, चत्तारि सिणेह विगतीओ पं० तं० - तेलं, घयं, वसा,
१ - सूत्रकृतांग ( बाबू वाला ) श्रु० २, अ०२, सूत्र ७२, पृष्ट ७५६
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varayan
१५८
तीर्थङ्कर महावीर णवणीतं, चत्तारि महाविगतीयो पं० तं०-महुं, मंसं, मजं, णवणीतं -टाणांगसूत्र सटीक, पूर्वार्द्ध , ठा० ४, उ० १, सत्र २७४ पत्र २०४-२
इन प्रसंगों से यह बात भली प्रकार समझी जा सकती है कि, जैनशास्त्रों में मांस कितना निषिद्ध है ।
कुछ भी कहने से पूर्व और किसी भी प्रकार का उलटा-सीधा अनुमान लगाने से पूर्व, हर व्यक्ति को इन बातों को स्मरण रखनी चाहिए और यह ध्यान रखना चाहिए कि वह जो बात कह रहा है, वह परमोत्कृष्ट अहिंसा के पालन करने वाले, पालन कराने वाले भगवान् महावीर के लिए कह रहा है जिसने आजीवन दुरूह से दुरूह तपस्या को ही अपना संकल्प माना।
दान का दाता कौन ? यहाँ यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि उस दान का दाता कौन था ?
दानदातृ रेवती व्रतधारिणी श्राविका थी। कल्पसूत्र में रेवती और मुलसा को भगवान्के संघ की श्राविकाओं में मुख्य श्राविका लिखा गया है।' श्रावकों के व्रत आदि का विस्तृत उल्लेख हमने श्रावकों के प्रसंग में किया है । यहाँ केवल महाश्रावक की हेमचन्द्राचार्य द्वारा दी हुई परिभाषा मात्र दे देना उचित समझता हूँ।
एवं व्रतस्थितो भक्त्या सप्त क्षेत्र्यां धनं वपन् । दयया चाति दीनेषु महाश्रावक उच्यते ।
-~--योगशास्त्र स्वोयज्ञ टीका सहित, पत्र २०४२ से २०९-२ १-कल्पसूत्र सुबोधिका टीका सहित, सूत्र १३७, पत्र ३.७ । ऐसा ही उल्लेख 'दानप्रदीप' में भी है । वहाँ आता हैश्रूयते रेवती नाम श्रमणोपासिकाग्रणी
-प्रकाश ६, श्लोक १२०, पत्र २०४-२
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रेवती तीर्थकर होगी
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- इस प्रकार व्रतों में स्थित जो सप्त क्षेत्रों में धन को बोता है और दीनों पर दया करता है, उसे महाश्रावक कहते हैं ।
१
,
सत क्षेत्रों के नाम हेमचन्द्राचार्य ने इस प्रकार गिनाये हैं: -- जैनविम्व १, भवन २, आगम ३, साधु ४, साध्वी ५, श्रावक ६ श्राविका ७ हमने रेवती के लिए व्रतधारिणी श्राविका कहा है । अतः इसे भी यहाँ समझ लेना चाहिए ।
श्रावक अथवा उपासक' के दो भेद जैन - शास्त्रों में बताये गये हैं । निशीथ में आता है
-
उवासगो दुविहो-वती श्रवती वा ? जो अवती सो परदंसण संपरणो । एक्के को पुणो दुविहो-नायगो अनायगो वा अणुवासगो पि नायगमनायगो य । एते चेव दो विकप्पा'
- निशीथसूत्र सभाष्य चूर्णि उद्देशा ११ ( गा० ३५०२ की टीका, पृष्ठ २२९
"
रेवती के व्रतधारिणी श्राविका होने का उल्लेख उन समस्त स्थलों पर है, जहाँ उसका नाम आता है ।
अतः रेवती से हिंसा की कल्पना करना एक बड़ी भारी भूल और जैन - साहित्य तथा परम्परा के प्रति अज्ञानता करना है ।
रेवती तीर्थङ्कर होगी
हम ऊपर कह आये हैं कि, हिंसा नरक-प्राप्ति का कारण है । पर,
१ - योगशास्त्र सटीक, पत्र २०४-२
२. -उपासकाः श्रावकाः
-- अभिधानचिंतामणि, स्वोपज्ञ टीका सहित, २ देवकांड, श्लोक १५८, पृष्ठ १०४
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१६०
तीर्थकर महावीर अपने दान के फलस्वरूप रेवती ने भावी तीर्थंकरों में आयुष्य बाँधा ।' अतः उसके दान का मांसपरक अर्थ लिया ही नहीं जा सकता ।
भगवान किस रोग से पीड़ित थे एक दृष्टि से यह विचार कर लेने के बाद कि, वह दान मांस नहीं हो सकता, अन्य दृष्टियाँ भी हैं, जिनसे यह गुत्थी और अधिक स्पष्ट रूप में सुलझ सकती है । हम यह पहले कह चुके हैं कि रेवती ने भगवान् को औषधि दी। अब यहाँ समझ लेना चाहिए कि भगवान् किस रोग से पीड़ित थे। इस सम्बन्ध के कुछ उल्लेख हम यहाँ दे रहे हैं:--
(१) समणस्स भगवो महावीरस्स सरीरगंसि विपुले रोगायंके पाउन्भूए उजले जाव दुरहिया से पित्तजर परिगय सरीरे दाहवतीए यावि विहरति अवियाई लोहियवच्चाइंपि पकरेइ
-भगवती सूत्र सटीक, श० १५, उ० १, सूत्र ५५७, पत्र १२६० इसकी टीका इस प्रकार दी गयी है
'विउले' त्ति शरीरव्यापकत्त्वात् 'रोगायंके' त्ति रोगःपीड़ाकारी स चासावातङ्कश्च व्याधिरिति रोगातङ्कः 'उजले' त्ति उज्ज्वलः पीड़ापोहलक्षणविपक्षलेशेनाप्यकलङ्कितः यावत्करणादिदं दृष्यः-'तिउले' त्ति त्रीन् -मनोवाक्कायलक्षणानांस्तुल यति-जयतीति त्रितुलः 'पगाढ़े' प्रकर्षवान् 'ककसे' कर्कश द्रव्यमिवानिष्ट इत्यर्थः 'कडुए' तथैव 'चंडे' रौद्रः 'तिव्वे'
१.-समवायांगसूत्र सटीक, समवाय १५६, पत्र १४३-१; ठाणांगसूत्र सटीक, उत्तराद्ध, ठाणा ६, उद्देशा ३, सूत्र ६६१, पत्र ४५५:२; प्रवचनसारोद्धार, गाथा ४६६ पत्र १११-१; विविध तीर्थकल्प (अपापावृहत्कल्प ) पष्ठ ४१; सप्ततिशतस्थानं प्सटीक गाथा ३३७ पत्र ८०-१; लोकप्रकाश ( देवचंद लालभाई ) भाग ४, सर्ग ३४, श्लोक ३७७-३८५ पत्र ५५५-२-५५६-१
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भगवान् किस रोग से पीड़ित थे
१६१ सामान्यस्य झगितिमरणहेतुः 'दुक्खे' त्ति दुःखो दुःखहेतुस्वात् 'दुग्गे' त्ति क्वचित् तत्र च दुर्गमिवानभिभव नीयत्वात् किमुक्त' भवति ? 'दुरहियासे' त्ति दुरधिसाः सोढुमशक्यः इत्यर्थ 'दाहवकंतीए' त्तिदाहो व्युत्क्रान्तः- उत्पन्नो यस्य स स्वार्थिककप्रत्यये दाहव्युत्क्रान्तिकः 'अवियाई' ति
पिचेत्यभ्युच्चये 'श्राई' त्ति वाक्यालंकारे 'लोहियवच्चापि ' त्ति लोहित वर्चास्यपि — रुधिरात्मकपुरीषाण्यपि करोति, किम-न्येन पीडावर्णनेनेति भावः तानि हि किलात्यन्तवेदनोत्पाद के रोगे सति भवन्ति ...
- भगवती सूत्र सटीक, पत्र १२६९–१२७० ( २ ) ठाणांगसूत्र की टीका में भगवान् के रोग का वर्णन इस प्रकार है
मेडिक ग्राम नगरे विहरतः पित्तज्वरो दाह बहुलो बभूव लोहित वर्चश्च प्रावर्ततः ।
- ठाणांगसूत्र सटीक, उत्तरार्द्ध', पत्र ४५७–१ । (३) नेमिचन्द्रसूरि-रचित 'महावीर चरियं' में पाठ आता है । ( पत्र ८४ - १ ) सामिस्स तदा जानो रोगायङ्को सक्कम्माश्री || १६२२|| तिब्बो उदरहियासो जिणस्स वोरस्स पित्तजर जुतो । लोहिय वच्चायं पिय करेइ जायइ य अबलतरणू ॥१६२३॥ (४) 'त्रिषष्टिशला कापुरुषचरित्र' में हेमचन्द्राचार्य ने लिखा हैस्वामी तु रक्तातीसार पित्तज्वर वशात् कृशः -पर्व १०, सर्ग ८, श्लोक ५४३, पत्र ११७-२ (५) गुणचन्द्र गणि-रचित 'महावीर - चरियं' में इस प्रसंग का उल्लेख इस प्रकार है
११
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१६२
तीर्थङ्कर महावीर समुप्पन्नो पित्तजरो तब्बसेण य पाउब्भूओ रुहिराइसारो
--पत्र २८२-२. (६) 'भारतेश्वर-बाहुबलि वृत्ति' में पाठ है
ततः प्रभो षण्मासी यावदतीसारोऽजनि । तस्मिन्नतीसारेडत्यर्थ जायमाने ।
__-भारतेश्वर-बाहुबलि-वृत्ति, भाग २, पत्र ३२९-१ . (७) 'दानप्रदीप' में भगवान् के रोग का उल्लेख इस प्रकार है
गोशालक विनिर्मुक्त तेजोलेश्याऽतिसारिणः ।
-नवम् प्रकाश, श्लोक ४९९, पत्र १५३-१ इन प्रसंगों से भगवान् के रोग का बड़ा स्पष्ट ज्ञान हो जाता है-१ पित्तज्वर, २–दाह, ३-लोहू की टट्टी । लोहू की टट्टी का स्पष्टीकरण त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र आदि ग्रन्थों में 'अतिसार' (डीसेंट्री' ) कह कर किया गया है । वह अतिसार रक्त का था । अतः उसे रक्तातिसार कहना अधिक उपयुक्त होगा।
पित्तज्वर का निदान अब हमें यह जान लेना चाहिए कि, पित्तज्वर में होता क्या है । निघण्टुरत्नाकर में पित्तज्वर के ये लक्षण बताये गये हैं।
वेगस्तीक्ष्णोऽतिसारश्च निद्राल्पत्वं तथा वमिः । कण्ठोष्ठमुखनासानां पाकः स्वेदश्च जायते ॥ प्रलापो वक्र कटुता मूर्छा दाहो मदस्तृषा । पीतविण्मूत्रनेत्रत्वक्पैत्तिके श्रम एव च ॥ —निघण्टु रत्नाकर ( निर्णय सागर प्रेस ) भाग २, पृष्ठ ८
१–आप्टेज-संस्कृत-इंगलिश डिक्शनरी, भाग १ पष्ट ४८ ।
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मांस की प्रकृति
१६३ इन रोगों के प्रसंग में हमें अब यह देखना चाहिए कि, क्या मांस उनकी दवा हो सकती है अथवा क्या मांस दिया जा सकता है।
मांस की प्रकृति निघण्टु रत्नाकर', शब्दार्थ-चिन्तामणि-कोष, वैद्यक-शब्द-सिंधु आदि ग्रन्थों में मांस को गरम, देर में हजम होने वाला, और वायुनाशक बताया गया है। उसका पित्तज्वर से कोई सम्बन्ध नहीं है और न वह पित्तज्वर में दिया जा सकता है ।
इसी प्रकार मुर्गे का मांस भी भारी और गरम है।
अतः वैद्यक की दृष्टि से भी पचने में भारी और उष्ण प्रकृति वाले पदार्थ को कोई अतिसार तथा दाह-प्रधान पित्तज्वर में देने को बात नहीं कर सकता।
'मांस' शब्द का अर्थ 'मांस' शब्द से भ्रम में न पड़ना चाहिए । मांस का एक अर्थ 'गूदा' भी होता है । आप्टेज संस्कृत-इंगलिश डिक्शनरी में उसका एक अर्थ 'फ्लेशी पार्ट आव फ्रूट' भी दिया है ।
१-निघण्टुरत्नाकर, भाग १, पृष्ठ १५२ २-शब्दार्थचिन्तामणि कोष, भाग ३, पृष्ठ ५७४ ३-वैद्यक-शब्द-सिंधु कोष, पष्ठ ७३६ ४-सुश्रुत-संहिता ( मुरलीधर-सम्पादित) पृष्ठ ४१४
५-आप्टेज संस्कृत-इंग्लिश-डिक्शनरी, भाग २, पष्ठ १२५५ । ऐसा ही अर्थ संस्कृत-शब्दार्थ-कौस्तुभ ( चतुर्वेदी द्वारिकाप्रसाद शर्मा-सम्पादित ) ६५५ तथा वृहत् हिन्दी-कोश ( ज्ञानमंडल, काशी ) पष्ठ १०२० में भी दिया है।
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१६४
तीर्थकर महावीर __इसी अर्थ में 'मांस' का प्रयोग जैन ग्रन्थों में भी हुआ है । और, प्रसंग को देखते हुए उनका स्पष्ट अर्थ फल का गूदा ही है। हम ऐसे कुछ प्रसंग यहाँ दे रहे हैं:
(१) विंट स मंस कडाहं एयाइं हवंति एग जीवस्त
-प्रज्ञापनासूत्र सटीक ( समिति वाला), १, ९१ पत्र ६२-२; (बाबू वाला ) पत्र ४०-२
इसकी टीका वहाँ इस प्रकार दी है
'सकडाह' त्ति समासं सगिरं यथा कटाह एतानि त्रीण्यकस्य जीवस्य भवन्ति, एक जीवात्मकान्येतानि त्रीणि भवन्तीत्यर्थः
___-~वही, पत्र ३७-२ 'मांस' के समान ही जैन-शास्त्रों में 'अहि' का भी प्रयोग हुआ हैवहाँ 'अट्ठि' से तात्पर्य 'हड्डी' नहीं वरन् 'बीज' से है। हम यहाँ इस सम्बन्ध में कुछ उद्धरण दे रहे हैं :
(१) से किं तं रुक्खा ? रुक्खा दुविहा पन्नता, तं जहाएगट्टिया य बहुबीयगा। से किं तं एट्टिया? एगट्टिया अणेग विहा पन्नत्ता।
-प्रज्ञापनासूत्र सटीक, पत्र ३१-१ (२) से किं तं रुक्खा ? दुविहा पण्णत्ता तंजहा-एगट्टिया य बहुबीयगा य । से किं तं एगट्टिया ?.........
-जीवाजीवाभिगमसूत्र सटीक, पत्र २६-१
आयुर्वेद में 'मांस' का प्रयोग जैन-शास्त्रों के अनुरूप ही आयुर्वेद में भी 'मांस' का प्रयोग फल के गूदे के लिए हुआ है। ऐसे कितने ही उदाहरण मिलेंगे । हम उनमें से कुछ यहाँ दे रहे हैं :
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वैदिक ग्रंथों का प्रमाण
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(१) लध्वम्लं दीपनं हृद्यं मातुलुंग मुदाहृतम् । त्वक् तिक्ता दुर्जरा तस्य वातकृमि कफापहा ॥ स्वादु शीतं गुरु स्निग्धं मांसं मारूत पित्तजित् । मेध्यं शूलानि लछर्दिकफारोचक नाशनम् ॥
- मुश्रुत्-संहिता, सूत्र स्थान, अ० ४६, श्लोक १९ २०, पृष्ठ ४२९ (२) चूत् फले परिपक्के केशर मांसास्थिमज्जानः पृथक-पृथक दृश्यन्ते, काल प्रकर्षात् । तान्येव तरुणे नोपलभ्यन्ते सूक्ष्मत्वात् तेषां सूक्ष्माणं केशरादीनां कालः प्रव्यक्तां करोति ।
- सुश्रुत संहिता
(३) खर्जूर मांसान्यथा नारिकेलम्
- चरक संहिता
वैदिक ग्रंथों का प्रमाण
वैदिक ग्रन्थों में भी इस प्रकार के प्रसंग मिलते हैं :यथा वृक्षो वनस्पतिस्तथैव पुरुषोऽमृषा । तस्य लोमानि पर्णानि त्वगस्योत्पाटिका वहिः ॥ त्वच एवास्य रुधिरं, प्रस्यन्दि त्वच उत्पटः । तस्मात्तृणात्तदा प्रैति, रसो वृक्षादि वाहतात् ॥ मांसस्य शकराणि, किनाटं स्त्रावतत्स्थिरम् । अस्थीन्यन्तरतो दारुणि मज्जा मज्जोपमाकृता ॥ यद् वृक्षो वृकणो रोहति मूलान्नवतरः पुनः । - वृहदारण्यक उपनिषद् अ० ३, ब्रा० ९ मंत्र २८,
( ईशादिदशोपनिषद्भाष्यं, निर्णय सागर ) पृष्ठ २०२, -वनस्पति वृक्ष जैसा होता है, पुरुष भी वैसा ही होता है—यह चात बिलकुल सत्य है | वृक्ष के पत्ते होते हैं और पुरुष के शरीर में पत्तों को जगह रोम होते हैं; पुरुष के शरीर में जो त्वचा है, उसकी समता में
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१६६
तीर्थंकर महावीर
वृक्ष के बाहरी भाग में छाल है । पुरुष की त्वचा से ही रक्त निकलता है, वृक्ष की त्वचा से गोंद निकलती है । पुरुष और वृक्ष की इस समानता के ही कारण, जिस प्रकार आघात लगने पर वृक्ष से रस निकलता है, उसी प्रकार चोट खाये पुरुष शरीर से रक्त प्रवाहित होता है पुरुष के शरीर में मांस होता है । वैसा ही वनस्पति में भी होता है । पुरुष में स्नायु होते हैं और वृक्षों में किनाट । वह किनाट स्नायु की भाँति स्थिर होता है ।
।
1
पुरुष के स्नायु-जाल के भीतर जैसे हड्डियाँ होती हैं, वैसे ही वृक्ष के किनार के भीतर काष्ठ है तथा मजा तो दोनों ही में एक समान ही है । किन्तु, यदि वृक्ष को काट दिया जाये तो वह अपने मूल से पुनः और नवीन होकर अंकुरित होता है, पर यदि मनुष्य को मृत्यु काट डाले तो वह किस मूल से उत्पन्न होगा ।
- कल्याण, उपनिषद्-अंक, पृष्ठ ४८५ वैदिक ग्रंथों में इस प्रकार के अनन्त प्रयोग मिलेंगे । पाण्डेय रामनारायण शास्त्री ने अपने एक लेख में ऐसे कई प्रसंग दिये हैं । शतपथब्राह्मण का उदाहरण देते हुए उन्होंने निम्नलिखित अंश उद्धृत किया है
यदा पिष्टान्यथ लोमानि भवन्ति । यदाय श्रानयत्यथ त्वग् भवति । यदा स यौत्यथ मांसं भवति । संतत इव हि तहिं भवति संततमिव हि मांसम् । यदा शृतोऽथास्थि भवति । दारुण इव तहिं भवति । दारुण मित्यस्थि । अथ यदुद्वासयन्नभिघारयति तं मज्जानं ददाति । एषा सा संपद् यदाहुः । पाक्तः पशुरिति ।
-केवल पिसा हुआ सूखा आटा 'लोम' है । पानी मिलाने पर वह 'चर्म' कहलाता है | गूँथने पर उसकी संज्ञा 'मांस' होती है । तपाने पर
१ - कल्याण ( वर्ष २३, अंक १ ) उपनिषद् अंक, पृष्ठ १२५
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बनस्पतियों के प्राणिवाचक नाम उसे अस्थि कहते हैं। घी डालने पर उसी का नाम 'मजा' होता है। इस प्रकार पक कर जो पदार्थ बनता है, उसका नाम पाक्त पशु होता है ।
ऐतरेय-ब्राह्मण में भी इसी प्रकार का स्पष्टीकरण मिलता है
स वा एष पशुरेवालभ्यते यत्पुरोडाशस्तस्य यानि किंशारूपाणि तानि रोमाणि । ते तुषाः सा त्वक। ये फलीकरणस्तद् असृग थपिष्ठं सन्मांसम् । एष पशूनामेधेन यजते.
-इम मंत्र में पुरोडाश के अन्तर्गत जो अन्न के दाने हैं, उन्हें अन्न - मय पशु का रोम, भूसी को त्वचा, टुकड़ों को सींग और आटे को मांस नाम दिया गया है।
वनस्पतियों के प्राणिवाचक नाम तथ्य यह है कि, उतावली प्रकृति के लोग प्रसंग में आयी वनस्पतियों के प्राणिवाचक-नापों से भ्रम में पड़ जाते हैं। पर, वैद्यक-ग्रंथों में और कोषों में ऐसी कितनी ही वनस्पतियाँ मिलेंगी, जिनके नाम प्राणिवाचक हैं । यह इतना लम्बा प्रकरण है कि, यदि सबको संग्रह करना हो तो वस्तुतः कोष-निर्माण-सरीखा काम हो जाये । पर, उदाहरण के रूप में हम कुछ नाम यहाँ दे रहे हैं:मार्जारि
= कस्तूरी'
माजारिका
मृगनाभि हस्ति
= मुश्क = अजमोद
१-निघंटु-रत्नाकर ( मराठी-अनुवाद सहित-निर्णयसागर प्रेस) शब्दकोष
खंड पृष्ठ १५१ २-वही, पष्ठ १५५ ३--वही, पृष्ठ २१८
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१६८
मर्कटी
वानरी
वनसूकरी
तीर्थंकर महावीर
करंज, कुहिली, अजमोद'
कुहिली
कुहिली 'कवोय' का अर्थ
=
*
'कोय' का संस्कृत रूप 'कपोत' है । टीकाकार ने इसकी टीका इस प्रकार की है :
-
'फले वर्ण साधर्म्यात्ते कपोते कुष्माण्डे हस्त्रे कपोते कपोतके ते च शरीर वनस्पति जीव देहत्त्वात् कपोतक शरीरे अथवा कपोतकशरीरे इव धूसर वर्ण साधर्म्यादेव कपोतकशरीरे कुष्माण्ड फले.
..१४
हम पहले ही लिख चुके हैं कि, कुष्माण्ड के ही अर्थ में 'कपोत' चरित्र-ग्रन्थों में भी लिया गया है । ' कपोत' शब्द वैद्यक-ग्रंथों में कितने ही अप्राणिवाचक अर्थों में आया है— जैसे नीला सुरमा, लाल सुरमा, साजोखार, एक प्रकार की वनस्पति, पारीस पीपर आदि। और, कपोतिका का अर्थ वैद्यक-ग्रन्थों में कुष्माण्ड भी दिया है । कुष्माण्ड का गुण सुश्रुत संहिता में इस प्रकार दिया है ।
पित्तघ्नं तेषु कुष्माण्डं वालं मध्यं कफाहरम् | पक्क लघुष्णं सक्षारं दीपनं वास्ति शोधनम् ॥
१ - वही, पृष्ट १४५
२ – वही, पृष्ठ १७६
३ -- वही, पृष्ठ १७२
४ - भगवतीसूत्र सटीक, पत्र १२७०
५ - निघण्टु रत्नाकर, कोष-खंड,
- वैद्यक शब्द सिंधु
पृष्ठ २७
७ - सुश्रुत संहिता
- निघण्टु रत्नाकर, कोष-खंड, पृष्ठ २७
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१६६
कुक्कुट का अर्थ सर्व दोषहरं हृद्य पथ्यं चेतो विकारिणाम् ।'
-उनमें छोटा पेटा पित्तनाशक है और मध्य (अधपका ) कफकारक है तथा खूब पका हुआ गरम कुछ-कुछ खरोंहा होता है, दीपन है और वस्ति ( मूत्रस्थान ) को शोधन करता है और सब दोषों ( वायु-पित्तका ) को शांत करता है। हृदय को हित है और पित्त के विकार को ( मृगी, उन्माद आदि ) के रोगबालों को पथ्य ( सेवन करने योग्य ) है।
कुक्कुट का अर्थ भगवती के मूल पाठ में दूसरा शब्द 'कुक्कुट' है। वैद्यक-शब्द-सिंधु मधुकुक्कुटी शब्द आता है। वहाँ उसका अर्थ मातुलिंग और बिजौरा दिया है। मधुकुक्कुटी का यह अर्थ बहुत-से कोषों में मिलेगा। वैजयन्ती कोष में आता है :- .
मातुलुंगे तु रुचको वराम्लः केसरी शठः । बीजपूरे मातुलुंगो लुंगस्सुफल पूरकौ ॥
देविकायां महाशल्का दूष्यांगी मधुकुक्कुटी अथात्यमूला मातुलुंगी पूति पुष्पी वृकाम्लिका ॥ इसके अतिरिक्त अब कुछ अन्य कोषकारों का मत देखिये(१) मधुकुक्कुटी = मातुलुंगायाम्
(२) मधुकुक्कुटी = ए काइण्ड आव साइट्रन ट्री विथ इल स्पेलिंग ब्लासम
१-सुश्रुत संहिता, सूत्र-स्थान, शाक-वर्ग, श्लोक ३, पृष्ठ ४३८ २-वैद्यक-शब्द-सिंधु
३-वैजयन्ती-कोष ( मद्रास संस्कृत ऐंड बर्नाक्यूलर टेक्स्ट पब्लिकेशन सोसाइटी, १८६३ ई० ) भूमिकांड, वनध्याय, श्लोक ३३-३४ पष्ठ ४७
४-शब्दार्थ चिंतामणि कोष, भाग ३, पष्ठ ५०६ ५-मोन्योर-मोन्योर विलियम्स् संस्कृत-इंग्लिश-डिक्शनरी, पृष्ठ ७७६
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तीर्थंकर महावीर
(३) मधुकुक्कुटिका, मधुकुक्कुटी = नीबू का पेड़ विशेष ' (४) मधुकुक्कुट टी = ए सार्ट आव साइटून ट्री
यहाँ कुक्कुटी के पूर्व 'मधु' शब्द जुटने से किसी प्रकार भ्रम में न पड़ना चाहिए । 'मधु' शब्द कुक्कुटी का विशेषण है । विशेषण को हटाकर भी प्रयोग संस्कृत में हुआ करते हैं । अब मातुलुंग का गुण देखिए :
१७०
लध्वम्लं दीपनं हृद्यं मातुलुंगमुदाहृतम् । त्वक् तिक्ता दुर्जरा तस्य वातकृमिकफापहा ॥ स्वादु शीतं गुरु स्निग्धं मांसं माहत पित्तजित् । मेध्यं शूलानिलच्छद्दिकं फारोचक नाशनम् ॥ दीपनं लघु संग्राहि गुल्मार्शोघ्नं तु केसरम् । शूलाजीर्ण विबंधेषु मन्दाग्नौ कफमारुते ।
चौ च विशेषणरसस्तस्योपदिश्यते पित्त निलकरं बालं पित्तलं बद्ध केशरम् ॥
3
— मातुलुंग हल्का है, खट्टा है, दीपन है, हृदय को हित है । उसका छिलका कड़वा है, दुर्जर है, तथा वायु कृमि-कफ नाशक है । उसका मांस ( गूदा ) मधुर, शीतल, गुरु, स्निग्ध है । वायु और पित्त को जीतने वाला है, मेधाजनक है, और शूल, वायु, कफ और अरुचिनाशक है । उसका केसर दीपन है, हल्का है, ग्राही है, गुल्म - बवासीर - नाशक है । शूल, अजीर्ण, चिबंध और मंदाग्नि तथा कफ-वायु के रोगों में और विशेष कर अरुचि में इसका रस लेना श्रेष्ठ कहा है और कच्चा बिजौरा जिसका जीरा खिला न हो, पित्त-वातकर्ता तथा पित्तल है ।
छर्दि,
१ - संस्कृत शब्दार्थ - कौस्तुभ, पृष्ठ ६३७
२– आप्टेज संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी, भाग २, पृष्ठ १२३९ ३ - सुश्रुत संहिता, सूत्र स्थान, अ० ४६, श्लोक ११-१४ पृष्ठ ४२६
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'मज्जार कडए'
१७१ वागभट्ट में उसका गुण इस प्रकार बताया गया है.त्वतिक्त कटुका स्निग्धा मातुलुंग्स्य वातजित् । वृहणं मधुरं मांसं वात पित्त हरं गुरु ॥
-वागभट्ट भाव प्रकाश में उसका गुण इस प्रकार बताया गया है:बोजपुरो मातुलुंगो रुचकः फल पूरकः । बोजपुर फलं स्वादु रसेऽम्लं दीपनं लघु ।। १३१ ॥ . रक्त पित्त हरं कण्ठ जिह्वा हृदय शोधनम् । श्वास कासाऽरुचिहरं हृद्यं तृष्णा हरं स्मृतम् ।। १६२॥ बीजपुरोऽपरः प्रोक्तो मधुरो मधु कर्कटी। मधुकर्कटिका स्वादी रोचनी शीतला गुरुः ।। १३३ ॥ रक्त पित्त क्षय श्वास कास हिक्का भ्रमाऽपहा ॥ १३४ ॥ -भावप्रकाश-निघण्टु ( व्यंकटेश्वर प्रेस, सं० १९८८) पृष्ठ १०३
-बिजौरा रक्त-पिक्त नाशक है, कण्ठ-जिह्वा हृदय शोधक है !! श्वास, कास, अरुचि का दमन कारता है और तृष्णाहारक है।
'मज्जार कडए' भगवती के पाट में तीसरा शब्द 'मज्जार कडए' है । इसका संस्कृत रूप 'मार्जार कृत' हुआ । 'कृत' से भ्रामक अर्थ लेकर कुछ लोग उसका अर्थ 'बिल्ली का मारा हुआ' करते हैं। पर पशु से कटा हुआ अथवा बिधा हुआ मांस वैद्यक ग्रंथों में भी दूषित बताया गया है और मांसाहारियों के लिए भी निषिद्ध है।' फिर, इस प्रकार अर्थ करना सर्वथा भ्रामक न कहा जाये तो क्या कहा जाये। टीका की सर्वथा उपेक्षा करके 'मार्जार' से 'बिल्ली' और 'कृत' से मारा हुआ अर्थ करना मात्र उच्छृखलता है।
१-सुश्चुत-संहिता, सूत्र स्थान, अ० ४६, श्लोक ७५, पृष्ट ४२४
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१७२
तीर्थकर महावीर 'मज्जार' शब्द भी वनस्पति-वाचक ही है। जैन-शास्त्रों से उसका स्पष्टीकरण कितने ही स्थलों से हो जाता है ।
प्रज्ञापनासूत्र में 'हरित' वर्ग में उसका उल्लेख इस प्रकार है:मज्जारयाइ बिल्ली य पालका
-प्रज्ञापनासूत्र सटीक ( समिति वाला) पत्र ३३-१ ( गाथा ३७) भगवती सूत्र में इसका इसी रूप में उल्लेख है-- (१)"वत्थुल चोरग मजारयाई
-भगवतीसूत्र सटीक श० २१, उ० ७, पत्र १४८० (२) भगवतीसूत्र शतक १५ में जो 'मज्जार' आया है, उसकी टीका टीकाकार ने इस प्रकार की हैविरालिकाभिधानो वनस्पति विशेषस्तेन कृतं
-भगवतीसूत्र सटीक, पत्र १२७० यह 'विडालिका' शब्द भी जैन-शास्त्रों में और कोपों में वनस्पति के रूप में आया है । हम यहाँ कुछ प्रसंग दे रहे हैं:--
(१) विरालिय'--विरालिकां पलाशकन्द रूपां' (२) विडालिया-इतिकन्दएव स्थलजः (३) विराली (४) विराली
कोषों आदि में भी विडालिया शब्द वनस्पति-वाचक रूप में आया है । हम यहाँ कुछ प्रयोग दे रहे हैं:
१-दशवैकालिकसूत्र सटीक अ० ५, उ० २, गा० १८ पत्र १८४-२ २-दशवकालिक सूत्र सटीक पत्र १८५-१ ३-आचारांगसूत्र सटीक श्रु० २, अ० १०, उ० ८, पत्र ३१७-२ ४---भगवतीसूत्र सटीक, श० २३ पत्र १४८-२ ५--प्रवचनसारोद्धार सटीक, पूर्वार्द्ध, गा०२३७ पत्र ५७-१
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'परियासिए'
१ वृक्षादनी चर्मकषा, भू कुष्माण्डयश्व वल्लभा ।
विडालिका वृक्षपर्णी, महाश्वेता परा तु सा ।' (२) विडालिका अथवा विडाली = भुइकोइला' (३) विडालो = भूमि कुष्माण्डे (४) विडाल = ए स्पिसीज प्राव प्लांट
मार्जार के साथ जो 'कृत' शब्द लगा है, इससे अर्थ और भी स्पष्ट हो जाता है; क्योंकि हम पहले ही कह चुके हैं कि पशुविद्ध जंतु आयुर्वेद में भी अभक्ष्य कहा गया है। . इन प्रमाणों से स्पष्ट हो गया कि भगवती वाले पाठ का मांसपरक. अर्थ लग ही नहीं सकता।
'परियासिए' भगवती के पाठ में 'परियासिए' शब्द आया है । इसका संस्कृत रूप 'परिवासित' हुआ। इसकी टोका अभयदेवसूरि ने 'ह्यस्तनमित्यर्थः' किया है :( भगवतीसूत्र सटीक, पत्र १२७० )। 'ह्यस्तन' शब्द का अर्थ. शब्दार्थ-चिन्तामणिकोप में दिया हैह्योभूते अतीतेह्नि जाते
__ -भाग ४, पृष्ठ:१०३७ ऐसा ही अर्थ आप्टेज संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी, भाग ३, पृष्ठ १७७६ में भी है । यह शब्द वृहत्कल्पसूत्र में भी आया है। वहाँ उसकी टीका इस प्रकार की गयी है :
१- निधण्टशेष हेमचन्द्राचार्य-रचित (दे० ला० जै० ग्र० ६२, ) श्लोक २०८. पृष्ठ २६६
२-निधण्टु-रत्नाकर, भाग १, कोष खंड, पृष्ठ १७६ ३-शब्दार्थ-चिंतामणि, भाग ४, पष्ठ ३२२ ४-मोन्योर-मोन्योर विलियम्स संस्कृत-इंग्लिश-डिक्शनरी, पष्ठ ७३१
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२७४
तीर्थंकर महावीर परिवासितस्य रजन्यां स्थापितस्याहारस्य
___ ---वृहत्कल्पसूत्र सभाष्य सटीक, विभाग ५, पृष्ठ १९८४ ठाणांगसूत्र में आहार चार प्रकार का बताया गया हैचउविहे आहारे पं० २०-असणे, पाणे, खाइमे, साइमे
ठाणांगसूत्र सटीक, टा० ४, उ० २, सूत्र २९५ पत्र२१९-२ (१) असण शब्द की टीका करते हुए ठाणांग के टीकाकार ने लिखा हैअश्यत इति अशनम्-ओदनादि
-टाणांगसूत्र सटीक, पत्र २२०-१ वृहत्कल्प में उसकी टीका इस प्रकार की गयी हैअशने कूरः 'एकाङ्गिकः' शुद्ध एव सुद्धं नाशयति
-वृहत्कल्प सभाष्य सटीक, विभाग ५, पृष्ठ १५८४ प्रवचनसारोद्धार, 'असण' के सम्बन्ध में लिखा हैअसणं ओयणं सत्थुग सुग्ग जगाराइ खज्जगविही य । खीराह सूरणाई मंडगपभिई य विन्नेयं ।
—प्रवचनसारोद्धार सटीक, द्वार ४, गाथा २०७, पत्र ५१-१ धर्मसंग्रह में उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है
भक्तं राधान्यं सुखभक्षिकाऽऽपि -धर्मसंग्रह, (यशोविजय की टिप्पन सहित) अधि० २, पत्र ८१-१ (२)पाण शब्द की टीका ठाणांग में इस प्रकार लिखी हैपीयत इति पानं सौवीरादिक
-ठाणांगसूत्र सटीक, पूर्वार्द्ध, पत्र २२०-१ उदक के सम्बन्ध में वृहत्कल्पसूत्र में इस प्रकार आता हैउदए कप्पूराई फलि सुत्ताईणि सिंगबेर गुले । न य ताणि खविंति खुहं उवगारित्ता उ आहारो॥ और, उसकी टीका इस प्रकार दी गयी है...
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१७५
उदके कपूरादिकमुपयुज्यते श्राम्रादिफलेषु सुत्तादीनि द्रव्याणि 'शृंगवेरे च' शुण्ठयां गुल उपज्यते । न चैतानि कर्पूरादीनि क्षुधां क्षपयन्ति, परमुपकारित्वादाहार उच्यते ।
- वृहत्कल्पसूत्र सटीक सभाष्य, विभाग ५, पृष्ठ १५८४ ( ३ ) खाइम की टीका करते हुए टागांग सूत्र में लिखा हैखादः प्रयोजनमस्येति खादिमं फल वर्गादि -टाणांग सूत्र सटीक, पूर्वार्द्ध, पत्र २२० - १ 'खाइम्' का स्पष्टीकरण प्रवचनसारोद्वार में इस प्रकार किया गया है । भत्तोसं दंताई खज्जूरंग नालिकेर दक्खाई ।
कक्कडि बग फणसाइ बहुविहं खाइयं ने यं ॥ २०६ ॥ इसकी टीका उक्त ग्रंथ में इस प्रकार दी है
'भत्तोस' मित्यादि भक्तं च तद्भोजनमोषं च - दाह्यं भक्तौषं, रूढ़ितः परिभ्रष्टचनक गोधूमादि 'दन्त्यादि' दन्तेभ्यो हितं दन्यंगुन्दादि आदि शब्दाच्चारु कुलिका खण्डेनु शर्करादि परिग्रहः यद्वा दन्तादि देश विशेष प्रसिद्धं गुड संस्कृत दन्त पचनादि तथा खर्जूरनालिकेर द्राक्षादिः आदि शब्दादक्षोटक बदामादि परिग्रहः तथा कर्कटिकाम्रपनसादि श्रादि शब्दात्कदल्यादि फलं पटल परिग्रहः बहुविधं खादिम् ज्ञेयम् ।
'परियासिए'
- प्रवचनसारोद्वार, पत्र ५१-१ इस 'खाइम्' के सम्बन्ध में वृहत्कल्पसूत्र में एक गाथा आती है— श्रहवा जं भुक्खत्तो, कमउवमाइ पक्खिवर कोट्टे । सव्वो सो आहारो, श्रसहभाई पुणो भइतो ॥ २९०२ ॥ - वृहत् कल्पसूत्र सभाष्य सटीक विभाग ५, पृष्ठ १५८४ इसमें ओषधि को भी 'खाइम्' में गिना है । वहाँ टीका में आता है—
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तीर्थकर महावीर . ... ... ... . 'ओषधादिकं पुनः 'भक्त' विकल्पितम्, किं चिदाहारः किंचिदानाहारः इत्यर्थः। तत्र शर्करादिकमौषधमाहारः सर्पदष्टादेर्मृत्तिकादिकमौषधमनाहारः
-अर्थात् जो खाने वाली शर्करा आदि ओषधि है, वह आहार है, जो बाहर लगायी जाये वह अनाहार है।
(४) स्वादिम की टीका ठाणांगसूत्र ( पत्र २२०-१) में ताम्बूलादि दी है । प्रवचनसारोद्धार में उसके सम्बध में गाथा आती है
दंतवणं तंबोलं तुलसी कुडेह गाईयं ।
महुपिप्पलि सुंठाई अणेगहा साइमने यं ॥२१०॥ यहाँ यह जान लेना चाहिए कि बासी आहार साधु को नहीं कल्पता है। वृहत्कल्प में पाठ हैनो कप्पइ निग्गंथाण वा निगंथीण वा पारियासियस्स...
-वृहत्कल्प सभाष्य सटीक, विभाग ५, पृष्ठ १५८३ पर, यह नियम सब प्रकार के खाद्य के लिए नहीं है। पर्युषित भोजन दो प्रकार का होता है। उसमें एक प्रकार का पर्युपित साधु को कल्पता है और एक प्रकार का नहीं कल्पता । ____ जो राँधा हुआ हो, उसे साधु बासी नहीं खाता और जिसमें जल का अंश न हो, सूखा हो, चूर्ण हो, घृत में बना हो, वह बासी भी खाया जा सकता है।
पर्युषित भोजन के सम्बन्ध में कहा गया हैवासासु पन्नर दिवसं, सि-उण्ह कालेसु मास दिण वीसं । उग्गहियं जोईणं, कप्पइ प्रारब्भ पढम दिण्णा ॥
-धर्मसंग्रह यशोविजय की टिप्पण सहित, पत्र ७६-१ —पकानादि पकायो तथा तली हुई वस्तु उस दिन को गिनकर वर्षा काल में १५ दिन, शीतकाल में १ मास और उष्ण काल में २० दिवस तक साधु को कल्पता है।
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पहली भिक्षा क्यों अग्राह्य
१७७ -~धर्मसंग्रह (गुजराती-अनुवाद ) पृष्ठ २११-२१२ ऐसा ही उल्लेख श्राद्धविधि (गुजराती-अनुवादक, पृष्ठ ४४) में भी है।
पर्युषित के नियम का स्पष्ट उल्लेख धर्मसंग्रह (टिप्पणि-सहित )
चलितो-विनष्टो रसः-स्वाद उपलक्षणत्वाद्वर्णादिर्यस्य तच्चलितरसं, कुथितान्नपर्युषितद्विदल पूपिकादि केवल जलराद्ध करायनेक जंतु संसक्तत्वात् ......।
-धर्मसंग्रह ( टिप्पन-सहित ) पत्र ७६-१ ___--चलित रस की परिभाषा बताते हुए कहा गया है कि जिसका रस और स्वाद बिगड़ गया हो और उपलक्षण से रूप-रस-गंध-स्पर्श में बदल गया हो, वह सभी वस्तुएँ चलितरस कही जाती हैं। (पानी में) राधा अन्न, बासी रखी दाल, नरम पूरी, पानी में राधा चावल आदि में अनेक जीव उत्पन्न हो जाते हैं।
पर, यहाँ तो भोजन का प्रसंग ही नहीं है। हम पहले प्रमाण दे आये हैं कि, भगवान् ने दान में जो लिया वह तो ओषधि थी। ओषधि में ताजे-बासी का प्रश्न ही नहीं उठता ।
। भगवान् ने पर्युषित वस्तु ली, इससे भी स्पष्ट है कि वह पानी में पकायी वस्तु नहीं थी और मांस कदापि नहीं हो सकता ।
पहली मिक्षा अग्राह्य क्यों ? भगवान् ने पहली भिक्षा को मना क्यों किया और दूसरी वस्तु क्यों मँगवायी ? इस प्रश्न का उत्तर भगवती में ही दिया । पहली भिक्षा (कुष्मांड वाली) को भगवती में भगवान् ने कहा है
मम अटाए अर्थात् वह मेरे निमित्त है । तो उसके लिए कहा कि--
१२
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१७८
तीर्थंकर महावीर तेहिं नो अट्ठो-भगवतीसूत्र सटीक, पत्र १२६१
अर्थात् उसकी आवश्यकता नहीं है। तो क्यों, तेहिं नो अहो' इस पर टीकाकार ने लिखा है
बहुपापत्वात् और, बहुत पाप क्यों ? इसका स्पष्टीकरण टाणांगसूत्र में किया गया हैं । वहाँ साधु की भिक्षा में तीन प्रकार के दोष बताये गये हैं:
तिविहे उवघाते पं० तं०-उग्गभोवघाते, उघायणोवघाते, एसणोवघाते एवं विसोही --ठाणांगसूत्र सटीक पूर्वाद्ध, टा० ३, उ०४, सृ० १९४ पत्र १५९-१
इसकी टीका में उद्गम के १६, उत्पादन के १६ और ऐपणा दोष के १० भेद, इस प्रकार भिक्षा के कुल ४२ दोष बताये गये हैं । हेमचन्द्राचार्य ने 'योगशास्त्र में लिखा है-- द्विचत्वारिंशता भिक्षादोर्नित्यमदूषितम् । मुनिर्यदन्नमादत्ते सैषणासमितिर्मता ॥
-योगशास्त्र स्वोपज्ञ-टीका सहित, प्रकाश १, श्लो० ३८ पत्र ४५-१ इसमें उद्गम-दोप का पहला दोप आधाकर्म है। इसकी टीका हेमचन्द्राचार्य ने इस प्रकार दी है-- सचित्तस्या चित्तीकरणमचित्तस्यवापाको निरुक्तादाधाकर्म
-योगशास्त्र स्वोपज्ञ टीका सहित, पत्र ४५-२ अर्थात् साधु के निमित्त बनायी गयी भिक्षा लेना आधाकर्म है ।
साधु-धर्म में आधाधर्म कितना बड़ा पाप है, इसका वर्णन पिण्डनियुक्ति में इस प्रकार है:--
आहाकम्मं भुंजइ न पडिक्कमए यतस्स ठाणस्स । एमेव अउइ बोडो लुक्कविलुक्का जह कवोडो ॥२१७॥
—पिंडनियुक्ति सटीक, पत्र ७९-२
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याकोवी का स्पष्टीकरण
१७६ -आधाकर्म ग्रहण करने से जिनाज्ञा भंग होती है और शिरोलुंचन आदि निष्फल हो जाते हैं।
याकोबी का स्पष्टीकरण जैनियों के अहिंसा प्रेम पर प्रथम प्रहार डाक्टर हर्मन याकोबी के आचारांग के अंग्रेजी अनु वाद से हुआ, जो 'सेक्रेड-बुक्स आव द'ईस्ट' ग्रंथमाला में (सन् १८८४ ई०) प्रकाशित हुआ था। उस समय खीमजी हीरजी क्यानी ने उस पर आपत्ति उठायी और फिर सागरानंद सूरि तथा विजय नेमिसूरी ने उसका प्रतिवाद किया । इनके अतिरिक्त पूरा जैनसमाज याकोबी के अर्थ के विरुद्ध था। याकोबी के पास इतने प्रमाण
और विरोध-पत्र पहुँचे कि उन्हें अपना मत परिर्वतन करना पड़ा । अपने १४-२-२८ के पत्र में याकोबी ने अपनी भूल स्वीकार की और अपनी नयी मान्यता की पुष्टि की। उक्त पत्र का उल्लेख 'हिस्ट्री आव कैनानिकल लिटरेचर आव जैनाज' में हीरालाल रसिकलाल कापड़िया ने इस रूप में किया है।
There he has said that 'बहुअद्विएण मंसेण वा मच्छेग वा चहुकण्टएण' has been used in the metaphorical sense as can be seen from the illustration of नन्तरीयकत्व given by Patanjali in discussiog a vartika ad Panini (11', 3,9 ) and from Vachaspati's com. on Nyayasutra (iv, 1,54) He has conoluded : "This meaning of the passage is therefore, thata monk should not acoept in alm3 any substance of which only a purt oin be eaten and a greater part must be rejected.'
१ पष्ठ ११७, ११८
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तीर्थङ्कर महावीर
".. ऐसी परिस्थिति में हम पतंजलि - महाभाष्य और न्यायसूत्र के वाचस्पति कृत तात्पर्य-मीमांसा के आधार पर नीचे दिये रूप में सम्बन्ध जोड़ सकते हैं :--
१८०
"पतंजलि और उनके पीछे कम-से-कम ९०० वर्ष बाद हुए, वाचस्पति ने जिसका अधिकांश भाग त्याज्य हो, उसके साथ नान्तरीयकत्व-भाव धारण करनेवाले पदार्थ के रूप में मत्स्य का उदाहरण दिया है; क्योंकि मत्स्य ऐसा पदार्थ है कि जिसका मांस तो खाया जा सकता है, पर काँटा आदि खाया नहीं जा सकता ।
"आचारांग के इस पाठ में इसी उदाहरण के रूप में प्रयोग हुआ है । इस पाठ को देखते हुए यहाँ यही अर्थ करना विशेष अनुकूल दिखायी देता है, क्योंकि जब गृहस्थ पूछता है कि - 'बहुत अस्थि वाला मांस आप लेते हैं ?' तो साधु उत्तर देता है— 'बहु अस्थि वाला मांस मुझे नहीं कल्पता ।' यदि गृहस्थ प्रकट रूप में मांस ही देता होता तो साधु तो यही कहता कि, "मुझे नहीं चाहिए; क्योंकि मैं मांसाहारी नहीं हूँ ।" परन्तु, ऐसा न कहकर वह कहता है कि, 'बहुत अस्थिमय मांस मुझे मत दो यदि तुम्हें मुझे वही देना ही हो तो पुझे मुद्गल मात्र दो । अस्थि मत दो ।' यहाँ इस बात की ओर विशेष ध्यान देना उचित समझायी पड़ता है कि, गृहस्थ द्वारा दी जाती वस्तु का निषेध करते हुए साधु उदाहरण रूप प्रचलित 'बहु कंटकमय मांस का प्रयोग नहीं करता है । परन्तु भिक्षा-रूप में वह क्या ग्रहण कर सकता है, इसे सूचित करते हुए वह अलंकारिक प्रयोग न करके वस्तुवाचक 'पुद्गल' शब्द का प्रयोग करता है । इस रूप में भिन्न शब्द का प्रयोग करने का तात्पर्य यह है कि, प्रथम प्रयोग अलंकारिक है और वह भ्रम उत्पन्न कर सकता है, यह बात वह जानता है ।
"इस कारण इस विवादग्रस्त पाठ का अर्थ मैं यह करता हूँ कि जिस
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स्टेन कोनो का मत
१८१ पदार्थ का थोड़ा भाग खाया जा सके, और अधिक भाग त्याग कर देना पड़े, उस पदार्थ को साधु को भिक्षा रूप में ग्रहण नहीं करना चाहिए ।
"मेरे विचार से इस मांस और मत्स्य पाट द्वारा गन्ने के समान अन्य पदार्थों का सूचन कराया गया है ।
स्टेन कोनो का मत हर्मन याकोबी के स्पष्टीकरण के बाद ओस्लो के विद्वान् डाक्टर स्टेन कोनो ने मुझे एक पत्र भेजा । उक्त पत्र का पाठ इस प्रकार है :
Prof. Jacobi bas done & great service to scholars in clearing up the much discussed question about meat-eating among Jainas. On the face of it. it has always seemed incredible to me that it had at any time, been allowed in a relgion where ahima and also ascetism play such a prominent role...Prof Jacobi's short remarks on the other hand make the whole matter clear, My reason for mentioning it was that I wanted to bring his explanation to the knowledge of so many scholars as possible. But there will still, no doubt, be people who stick to the old theory. It is always difficult, to do away with falee ditthi but in the end truth always prevails. ___-"जैनों के मांस खाने की बहुविवादग्रस्त बात का स्पष्टीकरण करके प्रोफेसर याकोबी ने विद्वानों का बड़ा हित किया है। प्रकट रूप में यह बात मुझे कभी स्वीकार्य नहीं लगी कि जिस धर्म में अहिंसा और साधुत्व का इतना महत्वपूर्ण अंश हो, उसमें मांस खाना किसी काल में भी धर्म संगत माना जाता रहा होगा। प्रोफेसर याकोबी की छोटी-सी टिप्पणि से सभी
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१८२
तीर्थकर महावीर
बात स्पष्ट हो जाती है । उसकी चर्चा करने का मेरा उदेश्य यह है कि मैं उनके स्पष्टीकरण की ओर जितना संम्भव हो, उतने अधिक विद्वानों का ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ । पर, निश्चय ही अभी भी ऐसे लोग होंगे जो पुराने सिद्धान्त पर दृढ़ रहेंगे । मिथ्यादृष्टि से मुक्त होना बड़ा कठिन है, पर अंत में सदा सत्य की विजय होती है ।"
डाक्टर स्टेन कोनो अपने विचारों पर आजीवन दृढ़ रहे और जब किसी ने जैन - पाठों का अनर्गल अर्थ किया तो स्टेन कोनो ने उसकी निन्दा की । डाक्टर वाल्थेर शूविंग की जर्मन भाषा में प्रकाशित पुस्तक 'दाई लेह देर जैनाज' की आलोचना करते हुए डाक्टर स्टेन कोनो ने लिखा था
......I shall only mention one detail, because the common European view has here been largly resented by the Jainas. The mention of 'bahuyattbiya manɛa' and 'bahukantaga maccha' "meat" cr "fish" with many bones in Ayarang has usually been interpreted so as to imply that it was in olden times, allowed to eat meat and fish, and this interpretation is given on p. 137, In the 'Review of Philosophy and Religion' vol. IV No. 2. Poona, 1933, pp.75. Professor Kapadia has however published a letter from Prof Jacobi of the 14th. Feb. 1928. which in my opinion settles the matter. Fish of which the flesh may be eaten, but the scales and bones must be taken out was a school example of an object containing the substance which is wanted in intimate connexion with much
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स्टेन कोनो का मत
१८३ that must be rejected. The words of the Ayaranga are consequently tachnical terms and do not imply that meat and fish might be eaten.
-"मैं केवल एक ही तफसील का उल्लेख करूँगा; क्योंकि यूरोपियनों के साधारण विचार का जैन लोग बड़ा विरोध करते हैं । 'बहु अद्विय मंस'.
और 'बहुकंटग मच्छ' का उल्लेख आचारांग में आया है । उससे लोग यह तात्पर्य निकालते हैं कि, पुराने समय में इनकी अनुमति थी। यह विचार पृष्ठ १३७ पर दिया है। 'रिव्यू आव फिलासफी ऐंड रेलिजन' वाल्यूम १४, संख्या २,पूना १९३३ में प्रोफेसर कापड़िया ने याकोबी का १४ फरवरी १९२८ का एक पत्र प्रकाशित किया है । मेरे विचार से उक्त पत्र से सारा मामला खतम हो गया। मछली में मांस ही खाया जा सकता है, उसका सेहरा और उसकी हड्डियाँ खायी नहीं जा सकती । यह एक प्रयोग है, जिससे व्यक्त होता है कि, जिसका अधिकांश भाग का परित्याग कर देना पड़े , उसे नहीं लेना चाहिए । आचारांग के ये शब्द 'टेकनिकल' शब्द है । इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि, मांस अथवा मछली खाने की अनुमति थी।"
याकोबी के बाद इस प्रश्न को धर्मानंद कौसाम्बी ने उठाया। उन्होंने पुरातत्त्व (खंड ३ अंक ४, पृष्ठ ३२३, आश्विन सं० १९८१ वि०) में एक लेख लिखा, जिसमें आचारांग आदि का पाट देकर उन्होंने जैनों पर मांसाहार का आरोप लगाया। उसका भी जैनों ने खुलकर विरोध किया । उस समय तो नहीं, पर जब कौशाम्बी ने 'भगवान् बुद्ध' पुस्तक लिखी तो उसमें उन्होंने स्पष्ट लिखा कि
".. 'वास्तव में उनकी खोज मैंने नहीं की थी। मांसाहार के विषय
१- देखिये 'लैटर्स टु विजयेन्द्र मूरि', पृष्ठ २६१ ।
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१८४
तीर्थङ्कर महावीर में चची चलते समय प्रसिद्ध जैन-पंडितों ने ही उनकी ओर मेरा ध्यान आकृष्ट किया और मैंने उक्त लेख में उनका प्रयोग किया था ।”
उस समय वहाँ कौन-कौन था, इसका उल्लेख करते हुए काका कालेलकर ने 'भगवान् बुद्ध' की भूमिका में लिखा है
"गुजरात विद्यापीठ से बुलावा आने पर उन्होंने वहाँ जाकर कई ग्रन्थ लिखे । और, पंडित सुखलाल, मुनि जिनविजय जी, श्री बेचरदास जी और रसिकलाल पारिख-जैसे जैन-विद्वानों के साथ सहयोग करके जैन और बौद्ध साहित्य का तुलनात्मक अभ्यास करने में बड़ी सहायता की !”
उस समय वहाँ कौन-कौन था, इसकी जानकारी का साधन 'पुरातत्त्व' मैं प्रकाशित प्रबंध समिति के सदस्यों की नामावलि भी है। उसमें निम्नलिखित नाम दिये हैं-१ मुनि जिनविजय, २ .........३ सुखलाल,
हम यहाँ कुछ न कहेंगे। ये सूचियाँ स्वयं अपनी कहानी कहने में समर्थ हैं। ___'जैन साहित्य प्रकाशन-ट्रस्ट' द्वारा प्रकाशित श्री भगवतीसूत्र के चौथे भाग में बेचरदास ने एक लम्बी भूमिका लिखी है। उस भूमिका में एक शीर्षक है- 'व्याख्याप्रज्ञप्ति माँ आवेला केटलाक विवादास्पद स्थानों ।' उसमें (पृष्ठ २३ ) पर उन्होंने लिखा है__ "गोशालक ना १५-मा शतक भगवान् महावीर माटे सिंह अनगार ने आहार लाववायूँ कहेवा माँ आव्युं छे । ते प्रसंगे बे-त्रण शब्दो घणा विवादास्पद छे-कवोय सरीरा--कपोत-शरीर-मजार कडए-मार्जार कृतकुक्कुड मंसए-कुक्कुट-मांस । आ त्रण शब्द ना अर्थ माँ विशेष गोटाळो मालूम पड़े छे। कोई टीकाकारो अहिं 'कपोत' नो अर्थ 'कपोत पक्षी', 'मार्जार' नो अर्थ प्रसिद्ध 'मार्जार' अने कुक्कुट नो अर्थ प्रसिद्ध 'कुकड़ो' कहे छे । आ माँ कयो अर्थ बराबर छे ते कही शकात न थी..."
व्याख्याप्रज्ञप्ति की दो टीकाएं हैं-अभयदेवसूरि की और दानशेखर गणि की । उन दो में से किसी में भी प्राणिवाचक टीका नहीं की गयी
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मत्स्य-मांस परक अथ आगम-विरोधियों की देन १८५ है । अपने पांडित्य के भ्रम में डालने की बेचरदास की यह अनधिकार
चेष्टा है। यदि बेचरदास ने कोई नयी टीका देखी हो तो उन्हें उसका नाम लिखना चाहिए था। और, तभी उनकी उक्ति विचारणीय मानी जा सकती थी। ___यह सब वस्तुतः गुजरात विद्यापीठ की फसल है, जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है।
उसके बाद तीसरी बार यह बावेला गोपालदास पटेल ने उठाया । गुजरात विद्यापीठ की जैन साहित्य-प्रकाशन-समिति से पटेल की पुस्तक 'भगवतीसार' ( सन् १९३८ ई०) प्रकाशित हुई। उसी समय उन्होंने 'प्रस्थान' ( वर्ष १४, अंक १ कार्तिक संवत् १९९५ वि०) में एक लेख भी लिखा । उस समय भी जैन-जगत ने उसका डट कर विरोध किया। __ उस विरोध से पटेल का हृदय-परिवर्तन हुआ या नहीं, यह तो नहीं कह सकते, पर उससे वे प्रभावित अवश्य हुए । और, अगस्त १९४१ मैं प्रकाशित अपनी 'महावीर-कथा' में उन्होंने उक्त प्रसंग को इस प्रकार लिखा___..... तेणे मारे माटे राँधी ने भोजन तैयार करेलँ छे। तेने कहे जे के मारे ते भोजन नु काम नथी; परन्तु तेणे पोताने माटे जे भोजन तैयार करेलूँ छे ते मारे माटे लई आव. . . . .” (पृष्ठ ३८८)
सुलझाने के प्रयास में भी गोपालदास ने अपना विचार एक अति छद्म रूप में प्रकट किया। उन्होंने वहाँ 'भोजन' लिखा, जब कि वह ओषधि थी।
मत्स्य-मांस परक अर्थ आगम-विरोधियों की देन
मत्स्य-मांस परक अर्थ की प्राचीनता की ओर ध्यान दिलाने के निमित्त सुखलाल ने बड़े छद्म रूप में एक नाम लिया है-और वह है, पूज्यपाद
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तीर्थंकर महावीर
देवनंदी' । सुखलाल ने उनका काल ६-टीं शताब्दी बताया है । हम यहाँ देवनंदी के समय आदि पर विवाद न उठा कर, केवल इतना मात्र कहेंगे कि, जैन आगम तो उससे शताब्दियों पहले के हैं । फिर देवनंदि से पुराना कोई उदाहरण सुखलाल ने क्यों नहीं दिया ।
66.....
देवनंदी सम्बन्धी सुखलाल के विचार कैसे हैं, इसे ही हम पहले यहाँ लिख देना चाहेंगे। अपनी तत्त्वार्थसूत्र ( हिन्दी अनुवाद सहित ) की भूमिका में सुखलाल ने देवनंदी का उल्लेख करते हुए लिखा है :'कालतत्त्व, केवलिकवलाहार, अचेलकत्व और स्त्री-मोक्ष-जैसे विषयों के तीव्र मतभेद धारण करने के बाद और इन बातों पर साम्प्रदायिक आग्रह बँध जाने के बाद ही सर्वार्थसिद्धि लिखी गयी है; जब कि भाष्य मैं साम्प्रदायिक अभिनिवेश का यह तत्त्व दिखायी नहीं देता । जिन-जिन बातों में रूढ़ श्वेताम्बर- सम्प्रदाय के साथ दिगम्बर-सम्प्रदाय का विरोध है, उन सभी बातों को सर्वार्थसिद्धि के प्रणेता ने सूत्रों में फेरफार करके या उनके अर्थ में खींचातान करके या असंगत अध्याहार आदि करके चाहे जिस रीति से दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुकूल पड़े उस प्रकार सूत्रों में से उत्पन्न करके निकालने का साम्प्रदायिक प्रयत्न किया है;
'सर्वार्थसिद्धि के कर्त्ता को जिन बातों में श्वेताम्बर सम्प्रदाय का खंडन करना था • और बहुत से स्थानों पर तो वह उल्टा दिगम्बर- परम्परा से बहुत विरुद्ध जाता था । इससे पूज्यपाद ने भाष्य को एक तरफ रख सूत्रों पर स्वतंत्र टीका लिखी और ऐसा करते हुए सूत्रपाठ मैं इष्ट सुधार तथा वृद्धि की .....१,३
(6......
१ - निर्गंध समुदाय, पृष्ठ १२, १३ २ -- तत्त्वार्थसूत्र, भूमिका पृष्ठ ८८ ३ - वही, पृष्ठ ८८-दई
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मत्स्य-मांस परक अर्थ अागम विरोधियों की देन १८७
पूज्यपाद देवनंदि पर इस तरह मत रखने वाले सुखलाल को उनका आश्रय लेने की क्या आवश्यकता थी! पृज्यपाद पर यह मत केवल सुखलाल का नहीं ही है।
हीरालाल रसिकलाल कापड़िया ने भी (देवचंद लालभाई ग्रंथांक ७६) तत्त्वार्थ की भूमिका में यह प्रश्न उठाया है कि, जब तत्त्वार्थसूत्र पर स्वोपज्ञ भाष्य पहले से वर्तमान था, तो पृज्यपाद ने उससे भिन्न रूप में टीका क्यों की। इसका उत्तर देते हुए उन्होंने लिखा है :
"......it should not be forgotten that not only do many statements therein not support the Digambar doctrins but they directly go aginst their very system. So as there was no alternative, he took an independent course and attempted to interpret the original sutras probably after alternating them at times so as to suit the Digambar stand point......"
( यह भूल न जाना चाहिए कि भाष्य के कितने ही स्थल दिगम्बरसिद्धान्तों का समर्थन नहीं करते थे और कितने ही स्थलों पर उनके विरुद्ध पड़ते थे। उनके पास और कोई चारा नहीं था। अतः उन्होंने स्वतंत्र रूप से टीका करने का प्रयास किया और जहाँ दिगम्बर-दृष्टि से उसका मेल नहीं बैठता था वहाँ परिवर्तन भी किये )
- तत्त्वार्थ की जो सर्वार्थसिद्धि-टीका ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुई है, उसमें उसके सम्पादक फूलचंद सिद्धान्तशास्त्री ने लम्बी-चौड़ी भूमिका लिखी है । उस भूमिका के सम्बंध में उक्त ग्रंथमाला के सम्पादक हीरालाल तथा आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय ने लिखा है :
१-तत्वार्थसूत्र, खंड २. भूमिका, पृष्ठ ४८
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तीर्थंकर महावीर
" उसमें मल्ली तीर्थकर, श्वेताम्बर, आगम की प्रामाणिकता आदि - विचार पंडित जी ( फूलचंद ) के अपने निजी हैं और पाठकों को उन्हें उसी रूप में देखना चाहिए । हमारी दृष्टि से वे कथन यदि इस ग्रंथ में न होते तो क्या अच्छा था; क्योंकि जैसा हम ऊपर कह आये हैं, यह रचना जैन समाज भर में लोकप्रिय है । उसका एक सम्प्रदाय - विशेष सीमित क्षेत्र नहीं है ।"
१८८
और, देवनन्दी का आश्रय ही क्या ? जब कि, दिगम्बर होने के नाते वह आगम-विरोधी थे और न तो आगमों के पंडित थे और न आगमों के सम्बंध में उनकी कोई कृति ही है ।
सुखलाल ने आगमों की प्राचीनता का प्रमाण देते हुए लिखा है"अगर आगम भगवान् महावीर से अनेक शताब्दियों के बाद किसी एक फिरके द्वारा नये रचे गये होते तो उनमें ऐसे सामिष आहार ग्रहणसूचक सूत्र आने का कोई सबब न था ।
याकोबी ने बुद्ध और महावीर को बौद्धों से प्राचीन सिद्ध किया, इसका उल्लेख उसी पुस्तिका में लिखा है
पाठक इस अंतर का रहस्य स्वयमेव समझ सकते हैं कि, याकोबी उपलब्ध ऐतिहासिक साधनों के बलाबल की परीक्षा करके कहते हैं जब कि साम्प्रदायिक जैन -विद्वान् केवल साम्प्रदायिक मान्यता को किसी भी प्रकार की परीक्षा किये बिना प्रकट करते हैं ।" ( पृष्ठ ६ )
"
- निर्गथ सम्प्रदाय, पृष्ठ २५ पृथक सिद्ध करके जैन-धर्म को करते हुए सुखलाल ने अपनी
१ - तत्वार्थ सूत्र भूमिका ।
२- सेक्रेड बुक्स व द' ईस्ट वाल्यूम २२, की भूमिका में डाक्टर याकोबी ने लिखा है, कि जैनों के धार्मिक ग्रंथ 'क्लासिकल' कहे जाने वाले समस्त संस्कृत साहित्य से पुराना है
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मत्स्य-मांस परक अर्थ आगम-विरोधियों की देन १८९ हम यहाँ यह कहना चाहेंगे कि, याकोबी ने जैन-आगमों की प्राचीनता तर्कों से और भाषा के परीक्षण से सिद्ध किया; जब कि सुखलाल को न तो भाषा का महत्त्व समझ पड़ा, न शैली का; उन्हें एक ऐसा तर्क समझ पड़ा जो तर्क ही नहीं है । हम लिख चुके हैं कि, न केवल जैनों के बल्कि अन्य धर्मों की पुस्तकों में भी जैनों की अहिंसा का उल्लेख मिलता है और मांसाहार का निषेध न केवल जैन-आगमों में आता है बल्कि अन्य मतावलम्बियों के ग्रंथों में भी आता है कि जैन मांसाहार को घृणित समझते थे। यदि जैनों के व्यवहार में जरा भी कचाई होती तो जब बुद्ध सिंह सेनापति के घर मांसाहार करने गये, तो जैन खुले आम उसका विरोध करने की हिम्मत न करते। ( देखिए विनयापिटक, हिन्दी-अनुवाद, पृष्ठ २४४ वही पृष्ठ १२, १३ की पादटिप्पणि)।
हम यहाँ इतना मात्र कहेंगे कि, सुखलाल ने इन अनर्गल तर्कों को उपस्थित करके गैर जानकार लोगों में भ्रम फैलाने का प्रयास कर कुछ अच्छा नहीं किया।
सुखलाल के मन का मांसाहार वाला पाप काफी पुराना है। वस्तुतः तथ्य यह है कि, जिस समय उन्होंने तत्वार्थसूत्र का हिन्दी-अनुवाद संवत् २००० में प्रकाशित कराया, उस समय उन्होंने पूज्यपाद के श्रुतावण में मांस-प्रकरण छोड़कर केवल अन्यों की ही गिनती करायी। यह वस्तुतः भूल नहीं थी; पर सुखलाल ने उसे जान बूझ कर छोड़ा था। तत्वार्थसूत्र जैन-संस्था प्रकाशित करने वाली थी। अतः सुखलाल की यह हिम्मत नहीं पड़ी कि वहाँ मांस-प्रकरण का कुछ उल्लेख करते । जब उन्हें अपनी स्वयं की संस्था मिली तो १९४७ में उन्होंने अपने मन का गलीज उलटा ।
उनके मन का यह पाप पुराना है, यह १५ जुलाई १९४७ के प्रबुद्धजैन में प्रकाशित एक लेख से भी व्यक्त है। कौशाम्बी जी के मतके विरुद्ध
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तीर्थकर महावीर दिगम्बरों ने जो आन्दोलन किया, उसके लिए सुखलाल ने 'हिटलरी' शब्द का प्रयोग किया और अन्यों को चैलेंज करते हुए लिखते हैं कि “कौशाम्बी जी कहते हैं कि यदि कोई ऐतिहासिक अथवा दलील से मेरी भूल समझा दे तो मैं आज मानने को तैयार हूँ।”
कोई समझाए, क्या जब कोई समझने को ही तैयार न हो ? और, मुग्वलाल यह चैलेंज सुनाते किसको है— स्वयं भी जैन थे, जैन परम्परा से परिचित थे, स्वयं ही क्यों नहीं समझा दिया। .. हम पहले लिख आये हैं कि बौद्ध-ग्रंथों में ही जैनों की अहिंसा वर्णित है और लिखा है बौद्ध मांस खाते थे, पर जैन नहीं खाते थे तो फिर और कहाँ का ऐतिहासिक प्रमाण और दलील उन्हें चाहिए था ।
असल बात तो यह है कि यही सुखलाल उन्हें बरगलाने वाला था और उसके बहाने अपने मन की बात कहता था।
उसी लेख में सुखलाल ने लिखा--"इस कौशाम्बी-विरोधी-आन्दोलन का छींटा मुझ पर स्पर्श करने लगा।" जब आपने ही यह सब किया था, तो फिर छींटा लगने पर आपको क्या आपत्ति !
मुम्बलाल के सम्बन्ध में मैंने जो कहा है, वह सब लिखते मुझे दुःख हुआ। कारण कि सुखलाल को आँखें थी नहीं, जब वे काशी पाठशाला में आये तो मैंने उसे सिद्धहेमव्याकरण हस्त लिखित पोथी से पढ़-पढ़ कर सुनाकर स्मरण कराया। पंडित बनाने का यह तात्पय नहीं कि. मुग्वलाल उसी पेड़ पर कुल्हाड़ा चलाये जिस पर वह बैठा है ।
प्रथम निन्हव : जमालि हम पहले बता आये हैं कि, किस प्रकार जमालि भगवान से पृथक हुआ और स्वतंत्र रूप से विचरण करने लगा। एक बार जमालि
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प्रथम निन्हव: जमालि
१६१ विहार करता हुआ श्रावस्ती पहुँचा और श्रावस्ती के निकट स्थित कोष्ठकचैत्य' में टहरा।
रुखा-सूखा आहार खाने से वहाँ जमालि पित्तज्वर से बीमार पड़ गया । उसे भयंकर कष्ट था । उसने अपने श्रमणों से बुला। कर कहा"मेरे लिए शय्या लगा दो।उसके श्रमण शय्या लगाने लगे । वेदना से पीड़ित जमालि ने फिर पूछा- "मेरे लिए संस्तारक कर चुके या कर रहे हो ?' शिष्यों ने कहा-"संस्तारक कर नहीं चुका कर रहा हूँ।' यह मुनकर जमालि को विचार हुआ-"श्रमण भगवान् महावीर कहते हैंकरेमाणे कड़े ( जो किया जाने लगा सो किया ) ऐसा सिद्धान्त है; पर यह मिथ्या है । कारण यह है कि, मैं देखता हूँ कि जब तक शय्या की जा रही है, वह 'की जा चुकी है' नहीं है ।” ऐसा विचार करके उसने अपने शिष्यों को बुलाकर कहा--"देवानुप्रियो ! श्रमण भगवान् महावीर कहते हैं—'चलेमाणे चलिए,' पर मैं कहता हूँ कि जो निर्जरित होता हो, वह निर्जरित नहीं है 'अनिर्जरित' है । कुछ ने जमालि के तर्क को ठीक समझा, पर कितने ही स्थविरों ने उसका विरोध किया। और, वे जमालि से पृथक हो ग्रामानुग्राम विहार करते भगवान् महावीर के पास चले गये।
जिन साधुओं ने विरोध किया, उन्होंने तर्क उपस्थित किया-"भगवान् महावीर का 'करेमाणे कड़े' का कथन निश्चयनय की अपेक्षा से सत्य है।
१-ठाणांगसूत्र सटीक ठा० ७, उ० ३, पत्र ४१० में तेदंक-चैत्य लिखा है, पर उत्तराध्ययन की शांत्याचार्य की टीका पत्र १५३-२, नेमिचन्द्र की टीका पत्र ६६-५ तथा विशेषावश्यक गाथा २३०७ की टीका में तेंदुक-उद्यान और कोष्ठक-चैत्य लिखा है।
२- मूल पाठ भगवती सूत्र सटीक शतक १, उद्देशा १, सूत्र ८, पत्र २१-२२ में इस प्रकार है-"चलमाणे चलिए १ उदीरिज्जमाणे उदीरिए २ वेज्जमाणे वेइए ३ पहिज्जमाणे पहीणे ४, छिज्जमाणे छिन्ने ५, भिज्जमाणे भिन्ने ६, दड्ढेमाणे दड्ढे ७, मिजप्रमाणे मए ८ निज्जरिमाणे निज्जिन्मे है ।
टीका में पत्र २४ से २७ तक इस सिद्धान्त पर विषद् रूपसे विचार किया गया है ।
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तीर्थंकर महावीर
निश्चयनय क्रियाकाल और निष्ठाकाल को अभिन्न मानता है । इसके मत से कोई भी क्रिया अपने समय में कुछ भी करके ही निवृत्त होती है । तात्पर्य यह कि, यदि क्रियाकाल में कार्य न होगा, तो उसकी निवृत्ति के बाद वह किस कारण होगा ? अतः निश्चयनय का सिद्धान्त तर्कसंगत है और इसी निश्चयात्मकनय को लक्ष्य में रख कर भगवान् का 'करेमाणे कड़े ' का कथन सिद्ध हुआ हैं । जो तार्किक दृष्टि से बिलकुल ठीक है ।" दूसरी भी अनेक दृष्टियों से स्थविरों ने जमालि को समझाने का प्रयास किया पर वह अपने हठ पर दृढ़ रहा ।
कुछ काल बाद रोगयुक्त होकर कोष्ठक चैत्य से विहार कर जमालि चम्पा में भगवान् के पास आया । और, उनके सम्मुख खड़ा होकर बोला"हे देवानुप्रिय ! आपके बहुत से शिष्य छद्मस्थ विहार कर रहे हैं; पर मैं छद्मस्थ नहीं हूँ | मैं केवल -ज्ञान और केवल दर्शन धारण करने वाला और अर्हन्- केवली रूप में विचर रहा हूँ ।'
यह सुनकर भगवान् के ज्येष्ठ शिष्य इंद्रभूति गौतम जमालि को सम्बोधित करके बोले – “हे जमालि ! यदि तुम्हें केवल - ज्ञान और केवल - दर्शन उत्पन्न हुए हैं तो मेरे दो प्रश्नों का उत्तर दो। 'लोक शाश्वत है या अशाश्वत' 'जीव शाश्वत है या अशाश्वत' ?" इन प्रश्नों को सुनकर जमालि शंकित, कांक्षित और कलुषित परिणाम वाला हो गया | वह उनका उत्तर न दे सका ।
फिर भगवान् बोले – “मेरे बहुत से शिष्य छद्मस्थ है; पर वह भी मेरे समान इन प्रश्नों का उत्तर दे सकते हैं । तुम जो यह कहते हो कि 'मैं सर्वज्ञ हूँ' 'जिन हूँ', ऐसा कोई कहता नहीं फिरता ।
" हे जमालि ! लोक शाश्वत है, कारण कि 'लोक कदापि नहीं था', ऐसा कभी नहीं था । 'लोक कदापि नहीं है, ऐसा भी नहीं है ।
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सुदर्शना वापस लौटी
१६३ "पर, हे जमाशि ! लोक अशाश्वत है । कारण कि, अवसर्पिणी होकर उत्सर्पिणी होती है । उत्सर्पिणी होकर अवसर्पिणी होती है। "
"इसी प्रकार जीव शाश्वत है । कारण कि, ऐसा कदापि नहीं था कि, 'जीव कदापि न रहा हो' और, वह अशाश्वत है कारण कि, वह नैरयिक तिर्यंच आदि का रूप धारण करता है।"
भगवान् ने जमालि को समझाने का प्रयास किया; पर जमालि ने अपना कदाग्रह न छोड़ा और वर्षों तक अपने मत का प्रचार करता विचरता रहा । उसके ५०० साधुओं में से उसके कितने ही साधु तथा प्रियदर्शना और उसकी १००० साध्वियों में कितनी ही साध्वियाँ जमालि के साथ हो गयीं।
अंत में, १५ दिनों का निराहार व्रत करके मृत्यु को प्राप्त होकर जमालि लान्तक-देवलोक (६-वाँ देवलोक ) में किल्विष-नामक देव हुआ।
विशेषावश्यक माष्य में इस निह्नव का काल बताते हुए लिखा हैचोद्दस वाभाणि तया जिणेण उप्पडियस्स नाणस्स । तो बहुरयाण दिठी सावत्भीए समुप्पन्ना ॥२३०७॥
सुदर्शना वापस लौटी जमालि के जीवन-काल में. ही एक समय सुदर्शना साध्वी समुदाय के साथ विचरती हुई श्चावस्ती में हंक कुम्हार की भाण्डशाला में ठहरी थी।
१-किल्विषिक देवों के सम्बन्ध में भगवतीसूत्र सटीक शतक ६, उद्देशा ६, सूत्र ३८ ६ पत्र ८६७-८६८ में प्रकाश डाला गया है।
२-भगवतीसूत्र सटीक शतक ६, उद्देशा ६ सूत्र ३८६.३८७ पत्र ८८६-८६६ ।
भगवान् के १४ वें वर्षावास में हम उन ग्रंथों का नाम दे चुके हैं, जहाँ जमालि का नाम आता है।
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तीर्थङ्कर महावीर
टंक भगवान् महावीर का भक्त श्रावक था । जमालि के तर्क को गलती की ओर सुदर्शना का ध्यान आकृष्ट करने के लिए ढंक ने सुदर्शना की संघाटी ( चादर ) पर अग्निकरण फेंका संघाटी जलने लगी तो सुदर्शना बोली" आर्य ! यह क्या किया । मेरी चादर जब दी !" ढंक ने उत्तर दिया"संघाटी जली नहीं अभी जल रही है । आपका मत जले हुए को जला कहना है, आप जलती हुई संघाटी को 'जली' क्यों कहती हैं ?"
सुदर्शना ढंकका लक्ष्य समझ गयी और अपने समुदाय के साथ भगवान् के संघ में पुनः सम्मिलित हो गयी । '
भगवान् ने अपना वह वर्षावास मिथिला में बिताया ।
१ - विशेषावश्यक भाषा सटीक, गाथा २३२५ – २३३२ । उत्तराध्ययन नेमिचंद्र की टीका सहित, पत्र ६६ - २
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२८-वाँ वर्षावास
केशी-गौतम संवाद मिथिला से ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भगवान् हस्तिनापुर की ओर चले।
इसी बीच गौतम-स्वामी अपने शिष्यों के साथ श्रावस्ती आये और उसके निकट स्थित कोष्ठक-उद्यान में ठहरे।
... उसी नगर के बाहर तिदुक-उद्यान में पार्श्व-संतानीय साधु केशीकुमार अपने शिष्य समुदाय के साथ ठहरे हुए थे। वह केशी कुमार कुमारावस्था में ही साधु हो गये थे । ज्ञान तथा चरित्र के पारगामी थे तथा मति, श्रुति और अवधि तीन ज्ञानों से पदार्थों के स्वरूप को जानने बाले थे।
दोनों के शिष्य-समूह मैं यह शंका उत्पन्न हुई कि, हमारा धर्म कैसा और इनका धर्म कैसा ? आचार, धर्म, प्रणिधि हमारी कैसी और इनकी कैसी? महामुनि पार्श्वनाथ ने चतुर्याम धर्म का उपदेश किया है
और वर्द्धमान स्वामी पाँच शिक्षारूप धर्म का उपदेश करते हैं। एक लक्ष्य वालों में यह भेद कैसा ? एक ने चेलक-धर्म का उपदेश दिया और दूसरा अचेलक-भाव का उपदेश करता है। ___ अपने शिष्यों की शंकाएँ जानकर दोनों आचार्यों ने परस्पर मिलने का विचार किया। विनय-धर्म जानकर गौतम मुनि अपने शिष्य-मंडल के साथ तिंदुक-वन में, जहाँ केशीकुमार ठहरे हुए थे, पधारे। गौतम मुनि
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१६६
तीर्थङ्कर महावीर को आते हुए देखकर, केशीकुमार श्रमण ने भक्ति-बहुमान पुरस्सर उनका स्वागत किया।
उस वन में जो प्रासुक निर्दोष पलाल, कुश और तृणादि' थे, वे गौतम स्वामी को बैठने के लिए शीघ्र ही प्रस्तुत कर दिये गये।।
उस समय वहाँ बहुत-से पाखंडी और कुतूहली लोग भी उस वन में एकत्र हो गये।
केशीकुमार ने गौतम-मुनि से कहा- "हे महाभाग्य ! मैं तुम से पूछता हूँ।" और, गौतम स्वामी की अनुमति मिल जाने पर केशी मुनि ने पूछा--"वर्द्धमान स्वामी ने पाँच शिक्षा रूप धर्म का कथन किया है और महामुनि पार्श्वनाथ ने चातुर्यामधर्म का प्रतिपादन किया है। हे मेधाविन् ! एक कार्य में प्रवृत्त होने वालों के धर्म में विशेष भेद होने में कारण क्या है ? और, धर्म के दो भेद हो जाने पर आपको संशय क्यों नहीं होता ?
केशीकुमार के प्रश्न को सुनकर गौतम स्वामी ने कहा-"जीवादि तत्वों का विनिश्चय जिसमें किया जाता है, ऐसे धर्मतत्त्व को प्रज्ञा ही देख सकती है।
"प्रथम तीर्थंकर के मुनि ऋजुजड़ और चरम तीर्थंकर के मुनि
१-तृण पाँच प्रकार के कहे गये हैं :
तृण पंचकं पुनर्भणितं जिनैः कर्माष्टप्रन्थि मथनैः । शालिीहिः कोद्रवो रालकोऽरण्य तृणानि च ॥१॥
-उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका सहित, पत्र २६६.२ ३--श्री ऋषभ तीर्थ जीवा ऋजु जड़ास्तेषां धर्मस्य अवबोधो दुर्लभो जड़त्वात्कल्पसूत्र सुबोधिका टीका सहित, पत्र ६
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केशी- गौतम संवाद
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चक्रजड़ हैं; किन्तु मध्यम तीर्थकरों के मुनि ऋजुप्राज्ञ होते हैं। इस कारण से धर्म के दो भेद किये गये । प्रथम तीर्थकर के मुनियों का कल्प दुर्विशोध्य और चरम तीर्थकर के मुनियों का कप ( आचार ) दुरनुपालक होता है; पर मध्यवर्ती तीर्थंकरों के मुनियों का कल्प सुविशोध्य और सुपालक है ।"
यह सुनकर केशीकुमार ने कहा - "आपने इस सम्बंध में मेरी शंका मिय दी । अब आप से एक और प्रश्न पूछता हूँ । वर्द्धमान स्वामी ने अचेलक-धर्म का उपदेश दिया और महामुनि पार्श्वनाथ ने सचेलक-धर्म का प्रतिपादन किया । हे गौतम! एक कार्य में प्रवृत्त हुओं में विशेषता क्या है ? इनमें हेतु क्या है ? हे मेधाविन् ! लिंग-प में दो भेद हो जाने पर क्या आप के मन में विप्रत्यय ( संशय ) उत्पन्न नहीं होता ?"
गौतम स्वामी बोले – “लोक मैं प्रत्यय के लिए, वर्षादिकाल में संयम की रक्षा के लिए, संयम - यात्रा के निर्वाह के लिए, ज्ञानादि ग्रहण के लिए
१ - वीर तीर्थं साधूनां च धर्मस्य पालने दुष्करं वक्रजड़त्वात - वही, पत्र
२ - श्रजितादि जिन तीर्थं साधूनां तु धर्मस्य अवबोधः पालनं च द्वयं श्रपि सुकरं ऋजु प्राज्ञत्वात् - वही, पत्र 8
३ - श्वेतमानोपेत वस्त्रधारित्वेन अचेलकत्वमपि - वही, पत्र ३
'अ' शब्द का एक अर्थ 'अल्प' भी होता है । ( देखिये श्राप्टेज संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी, भाग १, पृष्ट १ । वहाँ उसका उदाहरण भी दिया है जैसे अनुदरा । ) इसी अर्थ में 'अचेल : ' में 'अ' शब्द का प्रयोग हुआ है । आचारांग की टीका में आता है 'अचेल : ' ' अल्पचेलः ( पत्र २२१ - २ ) ऐसा ही अर्थ उत्तराध्ययन में भी किया है । स्वादिना चेलानि वस्त्राण्यस्येत्यवम चेलकः ।
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लघुत्व जीणं
( उत्तराध्ययन वृहत्वृत्ति, पत्र ३५६ - १ ) ४ - श्रजितादिद्वाविंशति जिनतीर्थ साधूनां ऋजु प्रज्ञानां बहुमूल्य विविधवर्ण वस्त्र परिभोगानु ज्ञासद्भावेन सचेलकत्वमेव - कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, पत्र ३
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तीर्थङ्कर महावीर
अथवा 'यह साधु है', ऐसी पहचान के लिए लोक में लिंग का प्रयोजन है । हे भगवन् ! वस्तुतः दोनों ही तीर्थकरों की प्रतिज्ञा तो यही है कि निश्चय मैं मोक्ष के सद्भूत साधन तो ज्ञान, दर्शन और चरित्र रूप ही हैं ।"
फिर केशीकुमार ने पूछा - "हे गौतम ! तू अनेक सहस्र शत्रुओं के मध्य में खड़ा है, वे शत्रु तुम्हें जीतने को तेरे सम्मुख आ रहे हैं । तूने किस प्रकार उन शत्रुओं को जीता है ?"
गौतम स्वामी - "एक के जीतने पर पाँच जोते गये। पाँच के जीतने पर दस जीते गये तथा दस प्रकार के शत्रुओं को जीतकर मैंने सभी प्रकार के शत्रुओं को जीत लिया है ।"
केश कुमार - "वे शत्रु कौन कहे गये हैं ?"
गौतम स्वामी - " हे महामुने ! वशीभूत न किया हुआ एक आत्मा शत्रुरूप है एवं कषाय और इन्द्रियाएँ भी शत्रुरूप हैं । उनको जीतकर मैं विचरता हूँ ।"
केशीकुमार - "हे मुने ! लोक में बहुत-से जीव पाश से बँधे हुए देखे जाते हैं। परन्तु तुम कैसे पाश से मुक्त और लघुभूत होकर विचरते देखे जाते हो ?”
गौतमस्वामी - "हे मुने ! मैं उन पाशों को सर्वप्रकार से छेदन कर तथा उपाय से विनष्ट कर मुक्तपाय और लघुभूत होकर विचरता हूँ ।" केशीकुमार - "वह पाश कौन है ?"
गौतम स्वामी - "हे भगवन् ! रागद्वेषादि' और तीव्र स्नेह-रूप
- 'आदि' शब्द से मोहपरिग्रह लेना चाहिए - उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका, पत्र २६६ - १
२– – 'नेह' त्ति स्नेहाः पुत्रादि सम्बन्धाः - उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका
पत्र २६६-१
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केशी-गौतम संवाद पाश बड़े भयंकर हैं। इनको यथान्याय छेदन करके मैं यथाक्रम विचरता हूँ।"
केशीकुमार- "हे गौतम ! हृदय के भीतर उत्पन्न हुई लता उसी स्थान पर ठहरती है, जिसका फल विष के समान ( परिणाम दारुण ) है। आपने उस लता को किस प्रकार उत्पाटित किया ?"
गौतम स्वामी-"मैंने उस लता को सर्व प्रकार से छेदन तथा खंडखंड करके मूल सहित उखाड़ कर फेंक दिया है। अतः मैं न्यायपूर्वक विचरता हूँ। और, विषभक्षण (विष-रूप फलों के भक्षण) से मुक्त हो गया हूँ।"
केशीकुमार-"वह लता कौन सी है ?'
गौतम स्वामी- "हे महामुने ! संसार में तृष्णा-रूप जो लता है, वह बड़ी भयंकर है और भयंकर फल उदय कराने वाली लता है। उसको न्यायपूर्वक उच्छेदन करके मैं विचरता हूँ।"
केशीकुमार-''शरीर में स्थित घोर तथा प्रचंड अग्नि, जो प्रज्वलित हो रही है और जो शरीर को भस्म करने वाली है, उसको आपने कैसे शान्त किया ? उसको आपने कैसे बुझाया है ?" __ गौतम स्वामी-"महामेघ के प्रसूत से उत्तम और पवित्र जल का ग्रहण करके मैं उन अग्नियों को सींचता रहता हूँ। अतः सिंचित की गयी अग्नियाँ मुझे नहीं जलाती ।
केशी कुमार-हे गौतम ! वे अग्नियाँ कौन-सी कही गयी हैं ?"
गौतम स्वामी-“हे मुने ! कषाय अग्नियाँ है । श्रुत, शील और तपरूप जल कहा जाता है तथा श्रुत-रूप जलधारा से ताडित किये जाने पर भेदन को प्राप्त हुई वे अग्नियाँ मुझे नहीं जाती।"
केशी कुमार-~"हे गौतम ! यह साहसिक और भीम दुष्ट घोड़ा चारों ओर भाग रहा है। उस पर चढ़े हुए आप उसके द्वारा कैसे उन्मार्ग में नहीं ले जाये गये ?"
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२००
तीर्थङ्कर महावीर गौतम स्वामी-- "हे मुने ! भागते हुए दुष्ट अश्व को पकड़ कर मैं अत-रूप रस्सी से बाँध कर रखता हूँ। इसलिए मेरा अश्व उन मार्गों में नहीं जाता; किन्तु सन्मार्ग को ग्रहण करता है।"
केशी कुमार"हे गौतम ! आप अश्व किसको कहते हैं ?"
गौतम स्वामी-" हे मुने ! मन ही साहसी और रौद्र दुष्टाश्व है। वहीं चारों ओर भागता है। मैं कंथक अश्व की तरह उसको धर्म-शिक्षा के द्वारा निग्रह करता हूँ।
केशी कुमार-हे गौतम ! संसार में ऐसे बहुत-से कुमार्ग हैं, जिन पर चलने से जीव सन्मार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं, परन्तु आप सन्मार्ग में चलते हुए उससे भ्रष्ट क्यों नहीं होते ?”
गौतम स्वामी" हे महामुने ! सन्मार्ग से जो जाते हैं तथा जो उन्मार्ग में प्रस्थान कर रहे हैं, उन सबको मैं जानता हूँ । अतः मैं सन्मार्ग से च्युत नहीं होता।
केशीकुमार--- "हे गौतम ! वह सन्मार्ग और कुमार्ग कौन-सा है ?
गौतम स्वामी-“कुप्रवचन के मानने वाले पाखंडी लोग सभी उन्मार्ग में प्रस्थित हैं। सन्मार्ग तो जिनभाषित है। और, यह मार्ग निश्चय रूप में उत्तम है।
केशीकुमार-- "हे मुने ? महान् उदक के वेग में बहते हुए प्राणियों को शरणागति और प्रतिष्ठारूप द्वीप आप किसको कहते हैं ।
गौतम स्वामी-"एक महाद्वीप है। वह बड़े विस्तार वाला है। जल के महान् वेग की वहाँ पर गति नहीं है।
केशीकुमार—'हे गौतम ? वह महाद्वीप कौन-सा कहा गया है ?
गौतम स्वामी--"जरा-मरण के वेग से डूबते हुए प्राणियों के लिए धर्मद्वीप प्रतिष्ठा रूप है और उसमें जाना उत्तम शरणरूप है।"
केशीकुमार--- "हे गौतम ? महाप्रवाह वाले समुद्र में एक नौका
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केशी गौतम संवाद
२०१ विपरीत रूप से चारों ओर भाग रही है, जिसमें आप आरुढ़ हो रहे हो तो फिर आप कैसे पार जा सकेंगे ?”
गौतम स्वामी-"जो नौका छिद्रों वाली होती हैं, वह पार ले जाने वाली नहीं होती; किन्तु जो नौका छिद्रों से रहित है वह पार ले जाने में समर्थ होती है।"
केशीकुमार--''वह नौका कौन-सी है ?"
गौतम स्वामी-"तीर्थकर देव ने इस शरीर को नौका के समान कहा है । जीव नाविक है । यह संसार ही समुद्र है, जिसको महर्षि लोग पार कर जाते हैं।”
केशीकुमार-“हे गौतम ? बहुत से प्राणी घोर अंधकार में स्थित हैं । सो इन प्राणियों को लोक में कौन उद्योत करता है ?"
गौतम स्वामी- "हे भगवान् ? सर्वलोक में प्रकाश करने वाला उदय हुआ निर्मल सूर्य सर्व प्राणियों को प्रकाश करने वाला है।" ___ केशीकुमार-''वह सूर्य कौन सा है !"
गौतम स्वामी----क्षीण हो गया है संसार-जिनका--ऐसे सर्वज्ञ जिनरूप भास्कर का उदय हुआ है। वही सर्व लोकों में प्राणियों का उद्योत करने वाले हैं ।',
केशीकुमार-“हे मुने ! शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित प्राणियों के लिए क्षेम और शिवरूप तथा बाधाओं से रहित आप कौनस्थान मानते हैं ?"
गौतम स्वामी"लोक के अग्रभाग में एक अवस्थान है, जहाँ पर जरा, मृत्यु, व्याधि और वेदनाएँ नहीं हैं । परन्तु उस पर आरोहण करना नितांत कठिन है।"
केशीकुमार - "वह कौन-सा स्थान है ?" गौतम स्वामी- "हे मुने ! जिस स्थान को महर्षि लोग प्राप्त करते
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२०२
तीर्थङ्कर महावीर हैं, वह स्थान निर्वाण, अव्याबाध, सिद्धि, लोकाग्र, ओम, शिव और अनाबाध इन नामों से विख्यात है ।
"हे मुने ! वह स्थान शाश्वत वासरूप है, लोकाग्र के अग्रभाग में स्थित है, परन्तु दुरारोह है तथा जिसको प्राप्त करके भव-परम्परा का अंत करने वाले मुनिजन सोच नहीं करते ।”
केशीकुमार—'हे गौतम ! आपकी प्रज्ञा साधु है । आपने मेरे संशयों को नष्ट कर दिया । अतः हे संशयातीत ! हे सर्व सूत्र के पारगामी ! आपको नमस्कार है। __ संशयों के दूर हो जाने पर केशीकुमार ने गौतम स्वामी की वन्दना करके पंच महाव्रत रूप धर्म को भाव से ग्रहण किया ।
उन दोनों मुनियों के संवाद को सुनकर पूरी परिपद् संमार्ग में प्रवृत्त हुई। .
शिव-राजर्षि की दीक्षा भगवान् की हस्तिनापुर की इसी यात्रा में शिवराजर्षि को प्रतिबोध हुआ और उसने दीक्षा ग्रहण की । उसका सविस्तार वर्णन हमने राजाओं वाले प्रकरण में दिया है।
पोट्ठिल की दीक्षा भगवान् की इसी यात्रा में पोहिल ने भी साधु-व्रत ग्रहण किया । उसका जन्म हस्तिनापुर में हुआ था। उसकी माता का नाम भद्रा था। इसे ३२ पत्नियाँ थीं । वर्षों तक साधु-धर्म पाल कर अंत में एक मास का अनशन कर उसने अणुत्तर-विमान में देवगति प्राप्त की।
१- उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका सहित, अध्ययन २३ पत्र २८५-१-३०२-१ २-अणुत्तरोववाइय ( अंतगडगुत्तरोववाइय-मोदी-सम्पादित ) पृष्ठ ७० ८३
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भगवान् मोक -नगरी में
भगवान् मोका-नगरी में
वहाँ से विहार कर भगवान् मोका-नामक नगरी में पधारे । वहाँ नन्दन नामक चैत्य वर्ष था । भगवान् उसी चैत्य में ठहरे । यहाँ भगवान् के दूसरे शिष्य श्रग्निभूति ने भगवान् से पूछा - "हे भगवन् ! असुरराज चमर कितनी ऋद्धि, कान्ति, बल, कीर्ति, सुख, प्रभाव तथा विकुर्वण-शक्ति वाला है ?”
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इस पर भगवान् ने उत्तर दिया- "हे गौतम ! वह ३४ लाख भवन वासी, ६४ हजार सामानिक देव, ३३ त्रायस्त्रिंशक देव, ४ लोकपाल, ५ पटरानी, ७ सेना तथा २लाख ५६ हजार आत्मरक्षकों और अन्य नगर वासी देवों के ऊपर सत्ताधीश के रूप में भोग भोगता हुआ विचरता हैं । वैक्रिय शरीर करने के लिए वह विशेष प्रयत्न करता है ।
वह सम्पूर्ण जम्बूद्वीप तो क्या पर इस तिरक्षे लोक मैं असंख्य द्वीपों और समुद्रों तक स्थल असुरकुमार देव और देवियों से भर जाये उतना रूप विकुर्वित कर सकता है । "
अनगार ने भगवान्
फिर, वायुभूति - नामक असुरराज बलि के सम्बंध में पूछा । भगवान् ने उन्हें बताया कि बलिको भवनवासी ३० लाख, सामानिक ६० हजार हैं और शेष सत्र चमर के सदृश्य ही है । अग्निभूति ने नागराज के सम्बंध में पूछा तो भगवान् ने बताया कि, उसे भवनवासी ४४ लाख, सामानिक ६ हजार, त्रायस्त्रिंशक ३३, लोकपाल ४, पटरानी ६, आत्मरक्षक २४ हजार हैं और शेष पूर्ववत् ही है ।
इसी प्रकार स्तनितकुमार, व्यन्तरदेव तथा ज्योतिष्कों के सम्बंध में किये गये प्रश्नों के भी उत्तर भगवान् ने दिये और बताया कि व्यन्तरों तथा ज्योतिष्कों के त्रायस्त्रिंश तथा लोकपाल नहीं होते । उन्हें ४ हजार
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૨૦૪
सामानिक तथा १६ हजार रानियाँ होती हैं । '
भगवान् वहाँ से विहार करके वाणिज्यग्राम आये और उन्होंने अपना वर्षावास वहीं बिताया ।
तीर्थङ्कर महावीर
आत्मरक्षक होते हैं । हर एक को चार-चार
१ - भगवती सूत्र सटीक, शतक ३ उद्देश १, पत्र २७०-२८३
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२६ - वाँ वर्षावास
गौतम स्वामी के प्रश्नों का उत्तर
वर्षाकाल समाप्त होने के बाद, भगवान् ने विदेह - भूमि से राजगृह की ओर विहार किया और राजगृह में गुणशिलक - चैत्य में ठहरे |
यहाँ एक दिन गौतम स्वामी ने भगवान् से पूछा - " हे भगवन् ! आजीविकों' के स्थविरों ने भगवान् से ऐसा प्रश्न किया कि श्रमण के उपाश्रय में सामायिक व्रत अंगीकार करके बैठे हुए श्रावक के भंडोपकरण कोई पुरुष ले जावे फिर सामायिक पूर्ण होने पर पीछे उस भंडोपकरण को वह खोजे तो क्या वह अपने भंडोपकरण को खोजता है, या दूसरे के भंडोपकरण को खोजता है ?
रण
भगवान् - " हे गौतम ! वह सामायिक व्रत वाला अपना मंडोपकर खोजता है; अन्य का भंडोपकरण नहीं खोजता |
गौतम स्वामी - " शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, ( रागादि विरतय: ) प्रत्याख्यान और पौषधोपवास में श्रावक का भांड क्या अभांड नहीं होता ?
भगवान् - " हे गौतम ! वह अभांड हो जाता है । "
१ औपपातिकसूत्र सटीक, सूत्र ४१, पत्र १६६ में निम्नलिखित ७ प्रकार के श्राजीवकों का उल्लेख है -
१ दुघरंतरिया २ तिघरंतरिया, ३ सत्तघरंतरिया, ४ उप्पल बेटिया, ५ घर समुद्राणिर या ६ - विज्जु अंतरिया ७ उट्टिया समणा
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२०६
तीर्थकर महावीर गौतम स्वामी-" हे भगवन् ? फिर ऐसा किस कारण कहते हैं कि वह अपना भांड खोजता है ? दूसरे का भांड नहीं खोजता ?" । __भगवान्-" हे गौतम ! सामायिक करने वाले उस श्रावक के मन में यह परिणाम होता है कि-'यह मेरा हिरण्य नहीं है; और मेरा स्वर्ण नहीं; मेरा काँसा नहीं है; मेरा वस्त्र नहीं है; और मेरा विपुल धन, कनकरत्न, मणि, मोती, शंख, शील, प्रवाल, विद्रु म, स्फटिक और प्रधान द्रव्य मेरे नहीं है, फिर समायिक व्रत पूर्ण होने के बाद ममत्व भाव से अपरिज्ञात बनता है। इसलिए, अहो गौतम ! ऐसा कहा गया है कि, स्वकीय भंड की ही वह अनुगवेषणा करता है। परन्तु, परकीय भंड की अनुगवेशणा नहीं करता।
गौतम- "हे भगवन् ! उपाश्रय में सामायिकवत से बैठा हुआ श्रमणोपासक की स्त्री से कोई भोग भोगे तो क्या वह उसकी स्त्री से भोग भोगता है या अस्त्री से ?
भगवान् - "हे गौतम ! वह उसकी स्त्री से भोग करता है।
गौतम-“हे भगवन् ! शीलव्रत, गुणवत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास के समय स्त्री अ-स्त्री हो जाती है ?
भगवान्----"हाँ ठीक है।"
गौतम-- "हे भगवान् ! तो यह किस प्रकार कहते हैं कि, वह उसकी पत्नी का सेवन करता है और अ-स्त्री का सेवन नहीं करता ? ___भगवान्—'शीलवत आदि के समय श्रावक के मन में यह विचार होता है कि यह मेरी माता नहीं है, यह मेरा पिता नहीं है, भाई नहीं है, बहन नहीं है, स्त्री नहीं है, पुत्र नहीं है, पुत्री नहीं है और पुत्रवधु नहीं है। परन्तु, उनका प्रेमबन्धन टूटा नहीं रहता । इस कारण वह उसकी स्त्री का सेवन करता है।"
गौतम--"हे भगवन् ! जिस श्रमणोपासक को पहिले स्थूल प्राणाति
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गौतम स्वामी के प्रश्नों का उत्तर
२०७
पात का अप्रत्याख्यान नहीं होता है फिर तो बाद में प्रत्याख्यान करते हुए वह क्या करता है ? |
भगवान्–“हे गौतम ! अतीत काल में किये प्राणातिपात को प्रतिक्रमता (निन्दा करता) है, प्रत्युत्पन्न (वर्तमान) काल को संवरता ( रोध करता) है और अनागत काल का प्रत्याख्यान करता है।
गौतम-हे भगवान् ! अतीत काल के प्राणातिपात को प्रतिक्रमता हुआ, वह श्रावक क्या १ त्रिविध विविध प्रतिक्रमता है २ त्रिविध-द्विविध, ३ त्रिविध-एकविध, ४ द्विविध-त्रिविध ५ द्विविध-द्विविध, ६ द्विविध-एकविध ७ एकविव-त्रिविध ८ एकविध-द्विविध अथवा ९ एकविध-एकविध प्रतिक्रमता है ?
भगवान्–“हे गौतम ! १ त्रिविध-त्रिविध प्रतिक्रमता है, २ द्विविधद्विविध प्रतिक्रमता है इत्यादि पूर्व कहे अनुसार यावत् एकविध-एकविध प्रतिक्रमता है । १-त्रिविध-त्रिविध प्रतिक्रमते हुए मन, वचन और काया से करता नहीं, कराता नहीं, और करने वाला का अनुमोदन नहीं करता ।
२-"द्विविध-त्रिविध प्रतिक्रमता हुआ मन और वचन से करता नहीं, कराता नहीं और करने वाले का अनुमोदन नहीं करता ।
३-"अथवा मन और काया से करता नहीं, कराता नहीं और करने वाले का अनुमोदन नहीं करता।
. ४-"अथवा वचन और काया से करता नहीं कराता नहीं, और करने वाले का अनुमोदन नहीं करता ।
५-"त्रिविध-एकविध प्रतिक्रमता हुआ मन से करता नहीं, कराता नहीं और करने वाले का अनुमोदन नहीं करता ।
६-"अथवा वचन से करता नहीं, कराता नहीं और करने वाले का अनुमोदन नहीं करता ।
७--"अथवा काया से करता नहीं, कराता नहीं और करने वाले का अनुमोदन नहीं कराता ।
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तीर्थकर महावीर ८--"द्विविध-त्रिविध प्रतिक्रमते हुए मन-वचन और काया से करता नहीं और कराता नहीं।
९.---"अथवा मन-वचन और काया से करता नहीं और करने वाले को अनुमोदन नहीं करता ।
१०-"मन-वचन और काया से करता नहीं और करने वाले को अनुमति नहीं देता।
११-"द्विविध-द्विविध प्रतिक्रमता हुआ मन और वचन से करता नहीं और कराता नहीं।
१२-"अथवा मन और काया से करता नहीं कराता नहीं । १३-"अथवा वचन और काया से करता नहीं और कराता नहीं।
१४--"अथवा मन और वचन से करता नहीं और करने वाले को अनुमति नहीं देता।
१५---"अथवा मन और काया से करता नहीं और करने वाले को अनुमति नहीं देता।
१६.-"अथवा वचन और काया से करता नहीं और करने वाले को अनुमति नहीं देता।
१७--"अथवा मन और वचन से कराता नहीं और करने वाले को अनुमति नहीं देता।
१८-"अथवा मन और काया से कराता नहीं और करने वाले को अनुमति नहीं देता।
१९-"अथवा वचन और काया से कराता नहीं और करने वाले को अनुमति नहीं देता।
२०-"द्विविध-एकविध प्रतिक्रमता मन से करता नहीं और कराता नहीं।
२१---"अथवा वचन से करता नहीं और कराता नहीं । २२-"अथवा काय से करता नहीं और कराता नहीं ।
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गौतम स्वामी के प्रश्नों का उत्तर २०६ २३-"अथवा मन से करता नहीं और करने वाले को अनुमति नहीं देता।
२४---"अथवा वचन से करता नहीं और करने वाले को अनुमति नहीं देता।
२५--"अथवा काया से करता नहीं और करने वाले को अनुमति नहीं देता।
२६-"अथवा मन से करता नहीं और करने वाले को अनुमति नहीं देता।
२७--"अथवा वचन से करता नहीं और करने वाले को अनुमति नहीं देता।
२८-"अथवा काया से करता नहीं और करने वाले को अनुमति नहीं देता।
२६-"एकविध-त्रिविध प्रतिक्रमता हुआ मन, वचन काया से करता नहीं।
३०--"अथवा मन-वचन-काया से कराता नहीं।
३१--"अथवा मन, वचन और काया से करने वाले को अनुमति नहीं देता।
३२—'एकविध-द्विविध प्रतिक्रमता मन और वचन से करता नहीं । ३३--"अथवा मन और काया से करता नहीं । ३४-"अथवा वचन और काया से करता नहीं । ३५-"अथवा मन और वचन से कराता नहीं । ३६-"अथवा मन और काया से कराता नहीं । ३७-"अथवा वचन और काया से कराता नहीं। ३८--"अथवा मन और वचन से करने वाले को अनुमति नहीं देता । ३९-"अथवा मन और काया से करने वाले को अनुमति नहीं देता।
१४
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तीर्थङ्कर महावीर ४०-"अथवा वचन और काया से करने वालेको अनुमति नहीं देता। ४१--"एकविध-एकविध प्रतिक्रमता मन से करता नहीं । ४२---"अथवा वचन से करता नहीं । ४३-"अथवा काया से करता नहीं । ४४---"अथवा मन से कराता नहीं । ४५-"अथवा वचन से कराता नहीं। ४६-"अथवा काया से कराता नहीं । ४७--"अथवा मन से करने वाले को अनुमति नहीं देता । ४८--"अथवा वचन से करने वाले को अनुमति नहीं देता।
४९--"अथवा काया से करने वाले को अनुमति नहीं देता। इसी प्रकार के ४९ भागे संवर करने वाले के भी हैं । इसी प्रकार के ४९ भाँगे अनागत काल के प्रत्याख्यान के भी हैं । अतः कुल १४७ भाँगे हुए।
"इसी प्रकार स्थूलमृपावाद, स्थूलअदत्तादान, स्थूल मैथुन', स्थूल परिग्रह सबके १४७-१४७ भोंगे समझ लेना चाहिए।
"इस अनुसार जो व्रत पालते हैं, वे ही श्रावक कहे जाते हैं। जैसे श्रमगोपासक के लक्षण कहे, वैसे ही लक्षण वाले आजीवक पंथ के श्रमणोपासक नहीं होते।
"आजीवकों के सिद्धान्तों का यह अर्थ है-"हर एक जीव अक्षीणपरिभोगी-सचित्ताहारी हैं। इस कारण उनको हन कर ( तलवार आदि से), छेद कर ( शूल आदि से ), भेद कर ( पंख आदि काट कर), लोप करके (चमड़ा उतारवा कर ) और विलोप करके और विनाश करके खाते हैं । पर आजीवक मत में भी--१ ताल, २ ताल प्रलंब, ३ उद्विध, ४ संविध, ५ अवविध, ६ उदय, ७ नामोदय, ८ नर्मोदय, ९ अनुपालक १० शंख
१ भाँगों का उल्लेख धर्मसंग्रह भाग १ ( गुजराती-अनुवाद सहित ) में पष्ठ १५४ से १७० तक है । भगवती के भाँगों का उसमें पष्ठ १६० पर उल्लेख है।
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गौतम स्वामी के प्रश्नों का उत्तर २११ पालक, ११ अयं पुल, १२ कातर ये बारह आजीविकों के उपासक हैं । उनका देव अर्हत् गोशालक है। माता-पिता की सेवा करने वाले ये पाँच प्रकार का फल नहीं खाते-१ उदुम्बर ( गूलर ), २ वट, ३ बेर, ४ अंजीर, ५ पीपल का फल ।
"वे प्याज, लहसुन, और कंदमूल के त्यागी हैं । वे अनिलांछित (खसी न किया हुआ ), जिसकी नाक न बिंधी हो, ऐसे बैल और त्रस प्राणि की हिंसा-विवर्जित व्यापार से आजीविका चलाते हैं ।
"गोशालक के ये श्रावक जब इस प्रकार के धर्म के अभिलाषी हैं तब जो श्रमणोपासक हैं उनके सम्बंध में क्या कहें ?
"निम्नलिखित १५ कर्मादान न वे करते हैं, न कराते हैं और न करने वाले को अनुमति देते हैं:
१-"इंगालकर्म-कोयला बना कर बेचना, ईंट बना कर बेचना, भाँडे-खिलौने पका करके बेचना, लोहार का काम, सोनार का काम, चाँगड़ी बनाने का काम, कलाल का व्यवसाय, भड़भूजे का काम, हलवाई का काम, धातु गलाने का काम इत्यादि व्यापार जो अग्नि द्वारा होते हैं, उनको इङ्गालकर्म कहते हैं।
२-"वनकर्म-काय हुआ तथा बिना काटा हुआ वन बेचना, बगीचे का फल-पत्र बेचना, फल-फूल-कन्दमूल-तृण-काष्ठ-लकड़ी-वंशादि बेचना, हरी वनस्पति बेचना ।
३-"साड़ीकर्म-गाड़ी, बल, सवारी का रथ, नाव, जहाज, चनाना और बेचना तथा हल, दंताल, चरखा, धानी के अंग, चक्की, ऊखल, मूसल आदि बनाना साड़ी अथवा शकटकर्म है।
४-"भाड़ीकर्म-गाड़ी, बैल, ऊँट, भैंस, गधा, खच्चर, घोड़ा, नाव, रथ आदि से दूसरों का बोझ ढोना और भाड़े से आजीविका चलाना ।
५-“फोड़ीकर्म-आजीविका के लिए कप, बावड़ी, तालाब खोद
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२१२
तीर्थकर महावीर वाए, हल चलावे, पत्थर तोड़ाए, खान खोदाये इत्यादि स्फोटिक कर्म हैं।
(ये ५ कर्म हैं । अब ५ वाणिज्य का उल्लेख करते हैं)
६-"दंतवाणिज्य-हाथी-दाँत तथा अन्य त्रस जीवों के शरीर के अवयव का व्यापार करना दंतवाणिज्य है।
७-"लक्खवाणिज्य-धव, नील, सजीखार आदि क्षार, मैनसिल, सोहागा तथा लाख आदि का व्यापार करना लक्खवाणिज्य है ।
८-"रसवाणिज्य-मद्य, मांस, मक्खन, ची, मजा, दूध, दही, घी, तेल आदि का व्यापार रसवाणिज्य हैं।
९-"केशवाणिज्य-यहाँ केश शब्द से केश वाले जीव समझना चाहिए । दास-दासी, गाय, घोड़ा, ऊँट, बकरा आदि का व्यापार केशवाणिज्य है।
१०-"विषवाणिज्य-सभी प्रकार के विष तथा हिंसा के साधनरूप शस्त्रास्त्र का व्यापार विषवाणिज्य है ।
(अब ५ सामान्य कार्य कहते हैं )
(११) 'यन्त्रपीडन-कर्म-तिल, सरसों इक्षु आदि पेर कर बेचना यन्त्रपीडन-कर्म है।
(१२) "निलोछन-कर्म-पशुओं को खसी करना, उन्हें दागना, तथा अन्य निर्दयपने के काम निर्लोछन-कर्म है ।
(१३) "दावाग्नि-कर्म-जंगल ग्राम आदि मैं आग लगाना ।
(१४) "शोषण-कर्म-तालाब, ह्रद, आदि से पानी निकाल कर उनको सुखाना।
(१५) "असती-पोषण-कुतूहल के लिए कुत्ते, बिल्ली, हिंसक
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गौतम स्वामी के प्रश्नों का उत्तर २१३ जीवों को पाले । दुष्ट भार्या तथा दुराचारी पुत्र का पोषण करना आदि असती पोषण है ।' ___ "ये श्रमणोपासक शुक्ल-पवित्र-और पवित्रता-प्रधान होकर मृत्यु के समय काल करके देवलोक में देवता रूप में उत्पन्न होते हैं।"
गौतम स्वामी- "हे भगवन् ! कितने प्रकार के देवलोक कहे गये हैं ?
भगवान्- "हे गौतम ४ प्रकार के देवलोक कहे गये हैं.-भवनवासी, चानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक।"
इसी वर्ष राजगृह के विपुल पर्वत पर बहुत से अनगारों ने अनशन किया।
भगवान् ने अपना वर्षावास राजगृह में ही बिताया।
१-'कम्भादाणाई' ति' ति कर्माणि-ज्ञानावरणादीन्यादीयन्ते यैस्तानि कर्मादानानि, अथवा कर्माणि च तान्यादानानि च कर्मादानानि-कर्महेतव इति विग्रहः-भगवतीसूत्र सटीक पत्र ६८२।१५ कर्मादानों का। उल्लेख भगवतीसूत्र सटीक पत्र ६८२-६८३ । उवासगदसाओ (गोरे-सम्पादित ) पृष्ठ ८, धर्मसंग्रह गुजरातीअनुवाद सहित, भाग १, पष्ठ २६६-३०४, आत्मप्रबोध सटीक पत्र ८८-१,८८-२, श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र (गुजराती अनुवाद सहित धर्मविजय गणि-सम्पादित) पष्ठ २३६-२४२ आदि स्थलों पर आता है।
२-भगवती सटीक श० ८, उ० ५, पत्र ६७७-६८३
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३०-वाँ वर्षावास शाल-महाशाल की दीक्षा
राजगृह में वर्षावास बिताने के बाद भगवान् ने पृष्ठचम्पा की ओर विहार किया । यहाँ शाल-नामक राजा राज्य करता था । भगवान् का उपदेश सुनकर शाल और उसके भाई महाशाल ने दीक्षा ग्रहण कर ली। इनका वर्णन हमने राजाओं के प्रकरण में विस्तार से किया है । पृष्ठचम्पा से भगवान् चम्पा गये और पूर्णभद्र-चैत्य में ठहरे ।
कामदेव-प्रसंग यहाँ कामदेव-नामक श्रमणोपासक रहता था। एक दिन पौषध में वह ध्यान में लीन था कि एक देव ने विभिन्न उपसर्ग उपस्थित किये । पर, कामदेव अपने ध्यान में अटल रहा । अंत में वह देव पराजित होकर चला गया । हमने इसका सविस्तार उल्लेख मुख्य श्रावकों के प्रसंग में किया है।
दशाणभद्र की दीक्षा चम्पा से भगवान् दशाणपुर गये। भगवान् की इस यात्रा ने वहाँ के राजा दशार्णभद्र ने साधु-व्रत स्वीकार किया। हमने इसका भी सविस्तार वर्णन राजाओं वाले प्रकरण में किया है ।
सोमिल का श्रावक होना वहाँ से विहार कर भगवान् वाणिज्यग्राम आये और द्विपलाय चैत्य में ठहहे।
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सोमिल का श्रावक होना
२१५
इस वाणिज्यग्राम में सोमिल नामक ब्राह्मण रहता था । वह बड़ा ही धनाढ्य और समर्थ था तथा ऋग्वेदादि ब्राह्मण-ग्रंथों में कुशल था । वह अपने कुटुम्ब का मालिक था । उसे ५०० शिष्य थे ।
भगवान् महावीर के आगमन की बात सुनकर सोमिल का विचार भगवान् के निकट जा कर कुछ प्रश्न पूछने का हुआ । उसने सोचा - "यदि वह हमारे प्रश्नों का उत्तर दे सके तो मैं उनकी वंदना करके उनकी पर्युपासना करूँगा और नहीं तो मैं उन्हें निरुत्तर करके लौहूँगा ।”
ऐसा विचार करके स्नान आदि करके वह १०० शिष्यों को साथ लेकर वाणिज्यग्राम के मध्य से निकल कर भगवान् के निकट गया ।
भगवान् से थोड़ी दूर पर खड़े होकर उसने भगवान् से पूछा - "हे भगवन् ! आपके सिद्दान्त में यात्रा, यापनीय, अव्याचाघ, और प्रासुक विहार है ?"
भगवान् - " हे सोमिल ! मेरे यहाँ यात्रा, यापनीय, अव्याबाध और प्रासुक विहार भी है ।"
सोमिल - "हे भगवान् ! आपको यात्रा क्या है ?"
और
भगवान् - "हे सोमिल ! तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान आवश्यकादि योगों में जो हमारी प्रवृत्ति है, वह हमारी यात्रा है ।" सोमिल — "हे भगवन् ! आपका यापनीय क्या है ?"
भगवान् - " हे सोमिल ! यापनीय दो प्रकारके हैं—१ इन्द्रिय यापनीय और २ नोइन्द्रिय यापनीय ।"
सोमिल - "हे भगवन् ! इन्द्रिय यापनीय क्या है ?"
भगवन् – " हे सोमिल ! श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, प्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय-ये पाँचों उपघात रहित मेरे बशमें वर्तन करती हैं । यह मेरा इन्द्रियापन है । "
सोमिल- - "हे भगवन् ! नोइन्द्रिय-यापनीय क्या है ?" भगवन् – " हे सोमिल ! मेरा क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार
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२१६
तीर्थङ्कर महावीर कषाय व्युच्छिन्न हो गये हैं और उदय में नहीं आते हैं। यह नोइन्द्रिययापनीय है।"
सोमिल-“हे भगवन् ! आपका अव्याबाध क्या है ?"
भगवान्–“हे सोमिल ! बात, पित्त, कफ और सन्निपात जन्य अनेक प्रकार के शरीर-सम्बन्धी दोष हमारे उपशान्त हो गये हैं और उदय में नहीं आते । यह अव्याबाध है ।”
सोमिल—"हे भगवान् ! प्रासुक विहार क्या है ?”
भगवान्- "हे सोमिल ! आराम, उद्यान, देवकुल, सभा, प्याऊ, स्त्री, पशु और नपुंसक-रहित बस्तियों में निर्दोष और एक एषगीय पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक प्राप्त करके मैं विहरता हूं। यह प्रासुक विहार है।"
सोमिल-"सरिसब आपको भक्ष्य है या अमक्ष्य ?" भगवान्-"सरिसब हमारे लिए भश्य भी है अभक्ष्य भी है ।
सोमिल- "हे भगवन् ! यह आप किस कारण कहते हैं कि, सरिसव भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है ?"
भगवान्-"सोमिल ! ब्राह्मण नय-शास्त्र-मैं सरिसव दो प्रकार का कहा गया है। एक तो मित्र-सरिसव (समानवयस्क) और दूसरा धान्य-सरिसव ।
"मित्र-सरिसव तीन प्रकार के होते हैं-१सहजात ( साथ में जन्मा हुआ), २ सहवर्द्धित ( साथ मैं बड़ा हुआ) और ३ सहप्रांशुक्रीडित ( साथ में धूल में खेला हुआ)। ये तीन प्रकार के सरिसव श्रमण-निग्रन्थों को अभक्ष्य हैं।
"जो धान्य-सरिसव है वह दो प्रकार का कहा गया है-१ शस्त्र-परिणत और २ अशस्त्र-परिणत । ., "उनमें अशस्त्र-परिणत श्रमणों को अभक्ष्य है।
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सोमिल का श्रावक होना २१७ "जो शस्त्र-परिणत है वह भी दो प्रकार का है—१ एषणीय, २ अनेषणीय ! इनमें जो अनेषणीय है, वह निर्गन्थों को अभक्ष्य है।
"एषणीय-सरिसव दो प्रकार का कहा गया है-१ याचित और २ अयाचित । जो अयाचित सरिसव है, वह निगन्थों को अभक्ष्य है।
"जो याचित सरिसव है वह दो प्रकार है-१ लब्ध और २ अलब्ध । इनमें जो अलब्ध ( न मिला हुआ ) है, वह निर्गन्थों को अभक्ष्य है। जो लब्ध ( मिला हुआ हो) है वह श्रमण-निर्गन्थों का भक्ष्य है ।
इस कारण हे सोमिल सरिसव हमारे लिए भक्ष्य भी और अभक्ष्य भी।" सोमिल-“हे भगवान् ! मास' भक्ष्य है या अभक्ष्य है ?
भगवान्-“हे सोमिल ? मास हमारे लिए भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है।
सोमिल-"हे भगवान् ! आपने भक्ष्य और अभक्ष्य दोनों क्यों कहा?"
भगवान्-“हे सोमिल ? तुम्हारे ब्राह्मण-ग्रन्थों में मास दो प्रकार के हैं.-१ द्रव्यमास, २ कालमास ।
"इनमें जो कालमास श्रावण से लेकर आषाढ़ तक १२ मास-१ श्रावण, २ भाद्र, ३ आश्विन, ४ कार्तिक, ५ मार्गशीर्ष, ६ पोष, ७ माघ, ८ फाल्गुन, ९ चैत्र, १० वैशाख, ११ ज्येष्ठ, १२ आषाढ़-ये श्रावणनिर्गन्थों को अभक्ष्य हैं।
१-महावीर का ( प्रथम संस्करण ) पृष्ठ ३६६ में गोपालदास पीताभाई पटेल ने 'मास' का एक अर्थ मांस किया हैं। ऐसा अर्थ मूल पाठ में कहीं नहीं लगता।
उनकी ही नकल करके बेसमझे और बिना मूल पाठ देखे रतिलाल मफाभाई शाह ने भगवान् महावीर ने मांसाहार' पृष्ट ३३-३४ में तद्रूप ही लिख डाला। पटेल की महावीर-कथा १६४१ में निकली । उनका भगवतीसार १६३८ में छप गया था। उसके पृष्ठ २४४ पर उन्होंने ठीक अर्थ किया है। अगर उन्होंने स्वयं अपनी पुस्तक देखी होती तो ऐसी गल्ती न करते ।
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तीर्थङ्कर महावीर “उनमें जो द्रव्यमास है वह भी दो प्रकार का है -१ अर्थमास और धान्य मास ।
"अर्थमास दो प्रकार के–१ सुवर्णमास २ रौप्यमास । ये श्रमणनिग्रंथों को अभक्ष्य हैं।
"जो धान्यमास है, वह दो प्रकार का-१ शस्त्रपरिणत और अशस्त्रपरिणत । आगे सरिसव के समान पूरा अर्थ ले लेना चाहिए ।"
सोमिल-"कुलत्था भक्ष्य है या अभश्य ?” भगवान्-"सोमिट ? कुलत्था भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी ?” सोमिल-"वह भक्ष्य और अभक्ष्य दोनों कैसे हैं ?” ।
भगवान--"हे सोमित्र ? ब्राह्मण-शास्त्रों में कुलत्था दो प्रकार का है-स्त्री-कुलत्था (कुलीन स्त्री) और धान्य-कुलत्था । स्त्री-कुलस्था तीन प्रकार की हैं -१ कुलकन्यका, २ कुलवधु और ३ कुलमाता । ये तीनों श्रमण-निर्गन्थों के लिए अभक्ष्य हैं। और, जो धान्य-कुलत्थ है, उसके सम्बन्ध में सरिसव के समान जानना चाहिए।"
सोमिल-"आप एक हैं या दो हैं ? अक्षय हैं, अव्यय हैं, अवस्थित हैं कि अनेक भूत, वर्तमान और भावी परिणाम के योग्य हैं ?"
भगवान्-"मैं एक भी हूँ और दो भी हूँ। अक्षय-अव्यय-अवस्थित हूँ औरभूत-वर्तमान-भविष्य रूपधारी भी हूँ।"
सोमिल-"यह आप क्यों कहते हैं ?" । भगवान्-“हे सोमिल ! द्रव्यरूप में मैं एक हूँ। पर ज्ञानरूप और दशनरूप में दो भी हूँ।
प्रदेश ( आत्म-प्रदेश ) रूप से अक्षय हूँ, अव्यय हूँ और अवस्थित हूँ। पर, उपयोग की दृष्टि से भूत-वर्तमान और भावी परिणाम के योग्य हूँ।" __ प्रतिबोध पाकर सोमिल ने भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और बोला-"अनेक राजेश्वरों आदि ने जिस प्रकार साधु धर्म
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सोमिल का श्रावक होना
२१६.
ग्रहण किया है, उस रूप में मैं साधु-धर्म ग्रहण कर सकने में असमर्थ हूँ । पर, श्रावकधर्म ग्रहण करना चाहता हूँ ।"
और, श्रावक-धर्म स्वीकार करके वह अपने घर लौटा ।
उसके चले जाने पर गौतम स्वामी ने पूछा - "क्या यह सोमिल ब्राह्मण देवानुप्रिय के पास अनगारपना स्वीकार करने में समर्थ है ?" इस प्रश्न पर भगवान् ने शंख श्रावक के समान वक्तव्यता दे देते हुए कहा कि अंत में सोमिल सर्व दुःखों का अन्त करके मोक्ष पायेगा ।' भगवान् ने अपना वर्षावास वाणिज्यग्राम में बिताया ।
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भगवतीसूत्र सटीक, शतक १८१, उद्देशा १०, पत्र १३६६ - १४०१
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३१-वाँ वर्षावास अम्बड परिव्राजक
चातुर्मास्य समाप्त होने के बाद भगवान् ने विहार किया और काम्पिल्यपुर नगर के बाहर सहस्राम्रवन में ठहरे ।
काम्पिल्यपुर में अंबड-नामक परिब्राजक रहता था । उसे ७०० शिष्य थे । परिव्राजक का वाह्य वेश और आचार रखते हुए भी, वह जैन-श्रावको के पालने योग्य व्रत-नियम पालता था ।
भगवान् के काम्पिल्यपुर पहुँचने पर गौतम स्वामी ने भगवान् से पूछा- "हे भगवान् ! बहुत-से लोग परस्पर इस प्रकार कहते हैं, भाषण करते हैं, ज्ञापित करते हैं और प्ररूपित करते हैं कि, यह अम्बड परिव्राजक काम्पिल्यपुर-नगर में सौ घरों में आहार करता है एवं सौ घरों में निवास करता है । सो हे भंते ! यह बात कैसे है ?"
गौतम स्वामी का प्रश्न सुनकर भगवान् ने कहा- "हे गौतम ! बहुत से लोग जो एक दूसरे से इस प्रकार कहते यावत् प्ररूपते हैं कि. यह अम्बड परिव्राजक काम्पिल्यपुर नगर में सौ घरों में भिक्षा लेता है और सौ घरों में निवास करता है सो यह बात बिलकुल ठीक है । गौतम ! मैं भी इसी प्रकार कहता हूँ यावत् इसी प्रकार प्ररूपित करता हूँ कि, यह अम्बड परिव्राजक एक साथ सौ घरों में आहार लेता है और सौ घरों में निवास करता है ।”
गौतम स्वामी-"यह आप किस आशय से कहते हैं कि अम्बड परिव्राजक सौ घरों में आहार लेता है और सौ घरों में निवास करता है ?"
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अम्बड परिव्राजक
२२१ भगवान्-“हे गौतम ! यह अम्बड परिव्राजक प्रकृति से भद्र यावत् विनीत है । लगातार छठ-छठ की तपस्या करने वाला है एवं भुजाओं को ऊपर करके सूर्य के सम्मुख आतापना के योग्य स्थान में आतापना लेता. है। अतः इस अम्बड परिव्राजक को शुभ परिणाम से, प्रशस्त अध्यवसानों से, प्रशस्त लेश्याओं की विशुद्धि होने से, किसी एक समय तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से ईहा', व्यूहा', मार्गण एवं गवेषण करने से वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि तथा अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया । इसके बाद उत्पन्न हुई उन वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि एवं अवधिज्ञान लब्धि द्वारा मनुष्यों को चकित करने के लिए, वह काम्पिल्यपुर में १०० घरों से भिक्षा करता है एवं उतने ही घरों में विश्राम करता है । इसी आशय से मैं कहता हूँ कि अम्बड परिव्राजक सौ घरों में अहार करता है और सौ घर में निवास करता है।"
१-'ईहा' शब्द की टीका औपपातिकसूत्र में इस प्रकार की गयी है-ईहाकिमिदमित्थमुतान्यथेत्येवं सदालोचनाभिमुखा मतिः चेष्टासटीक पत्र १८८ सामान्यतः रूप स्पर्श श्रादि का प्रतिभास अवग्रह है। अवग्रह के पश्चात् वस्तु की विशेषता के बारे में सन्देह उत्पन्न होने पर उसके बारे में निर्णयोन्मुखी जो विशेष आलोचना होती है, वह ईहा है। ___ 'ईहा' का वर्णन तत्वार्था धिगमसूत्र सभाध्य सटीक (हीरालाल-सम्पादित) भाग १ पष्ठ ८०-८१ में है।
२-व्यूहः-इदमित्यमेवंरूपो निश्चयः-औपपातिकसूत्र सटीक, पत्र १८८ निश्चय
३-अन्वयधर्मालोचनं यथा स्थाणौ निश्चेतत्वे इस वल्युत्सर्पणादयः प्रायः स्थाणुधर्मा घटन्त इति-औपपातिकसूत्र सटीक पत्र १८८ अन्वय धर्म का शोधन जैसे पानी को देखकर उसके सहचार धर्म की खोज लगाना।
४--गवेधणं-व्यतिरेकधर्मालोचनं यथा स्थाणावेव निश्चेतव्ये इह शिरः कण्डूयनादायः प्रायः पुरुषधर्मा न घटन्त इति तत् एषां समाहार द्वन्दः-औपपातिक सटीक पत्र १८८ । मार्गण के बाद अनुपलभ्य जीवादिक पदार्थों के सभी प्रकार से निर्णय करने का और तत्परता रूप गवेषण ।
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२२२
तीर्थकर महावीर गौतम स्वामी--- "हे भंते ! क्या यह अम्बड परिव्राजक आपके पास मुंडित होकर आगार अवस्था से अनागार-अवस्था को धारण करने के लिए समर्थ है ?"
भगवान्- "हे गौतम ! इस अर्थ के लिए वह समर्थ नहीं है । वह अम्बड परिव्राजक श्रमणोपासक होकर जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष का ज्ञाता होता हुआ अपनी आत्मा को भावित करता विचर रहा है । परन्तु, इतना मैं अवश्य कहता हूँ कि अम्बड परिव्राजक स्फटिकमणि की राशि के समान निर्मल है और ऐसा है कि, उसके लिए सभी घरों का दरवाजा खुला रहता है । अति विश्वस्त होने के कारण राजा के अन्तःपुर में बेरोक-टोक आता-जाता है। ___ "इस अम्बड परिव्राजक ने स्थूलप्राणातिपात का यावजीव परित्याग किया है, इसी प्रकार स्थूलमृषावाद का, स्थूलअदत्तादान का, स्थूल परिग्रह का यावजीव परित्याग किया है। परन्तु, स्थूल रूप से ही मैथुन का परित्याग नहीं किया है; किन्तु इसका तो उसने समस्त प्रकार से जीवन पर्यन्त परित्याग किया है ।
यदि अम्बड परिव्राजक को विहार करते हुए, मार्ग में अकस्मात् गाड़ी का धुरा प्रमाण जल ओ जाये तो उसमें उसे उतरना नहीं कल्पता है; परन्तु विहार करते हुए यदि अन्य रास्ता ही न हो तो बात अलग। इसी प्रकार अम्बड परिव्राजक को शकट आदि पर चढ़ना भी नहीं कल्पता । उसे केवल गंगा की ही मिट्टी कव्यती है । इस अम्बड परिव्राजक के लिए आधाकर्मी' उद्दशिय, मिश्रजात, आहार ग्रहण करना नहीं कल्पता । इसी प्रकार
१ आधाकर्म--'आधा अर्थात् साधु को चित्त में धारण करके साधु के निमित्त किया कर्म-'कर्म' अर्थात् सचित्त को अचित्त करना और अचित्त को पकाना अर्थात् साधु के निमित्त बना भोजन-धर्मसंग्रह गुजराती अनुवाद सहित, पृष्ठ १०७
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अम्बड परिव्राजक
૨૨૩
अध्यवरत ( साधु के लिए अधिक मात्रा में बनाया गया आहार), पृतिकर्म ( आवाकर्मित आहार के अंश से मिश्रित आहार ), ( कीयगडे ) मोल लाकर दिया हुआ आहार (पामिच्चे) उधार लेकर दिया हुआ आहार, अनिसृष्ट ( जिस आहार पर अनेक का स्वामित्व हो ), अभ्याहृत ( साधु के सम्मुख लाकर दिया गया आहार), स्थापित ( साधु के निमित्त रखा हुआ आहार ), रचित ( मोदक चूर्ण आदि तोड़ कर पुनः मोदक
आदि के रूप में बनाया आहार), कान्तारभक्त (अटवी को उल्लंघन करने के लिए घर से पाथेय-रूप में लाया गया आहार ), दुर्भिक्षभक्त ( दर्भिक्ष में भिक्षुकों को देने के लिए बनाया गया आहार ), ग्लानभक्त ( रोगी के लिए बनाया गया आहार), वादलिकाभक्त ( वृष्टि में देने के लिए बनाया गया आहार ), प्राधुणकभक्त (पाहूनों के लिए राधा गया आहार ) उस अम्बड परिव्राजक को नहीं कल्पता । इसी प्रकार अम्बड परिव्राजक को मूलभोजन, यावत् बीजभोजन तथा हरित सचित्त भोजन भी नहीं कल्पता।
"इस अम्बड परिव्राजक को चारों प्रकार के अनर्थ-दंडों का जीवन पर्यन्त परित्याग है । वे चार अनर्थ दण्ड इस प्रकार हैं:-अपध्यानाचरित, प्रमादाचरित, हिंसा प्रदान एवं पापकर्मोपदेश ।
"अम्बडपरिव्राजक को मगध देश प्रसिद्ध अर्द्ध माढक प्रमाण जल ग्रहण करना कल्पता है, जितना अर्द्ध मादक प्रमाण जल लेना इसे कल्पता से, वह भी बहता हुआ कल्पता है, अबहता हुआ नहीं । वह भी कर्दम से रहित, स्वच्छ, निर्मल यावत् परिपूत (छाना हुआ) कल्पता है; इससे अन्य नहीं । सावध समझ कर छाना हुआ ही कल्यता है, निरवद्य समझ कर नहीं । सायद्य भी उसे वह जीव सहित समझकर ही मानता है, अजीव
(पष्ठ २२२ की पादटिप्पणि का शेषांश )
२ औवेशिक-भाजन बनाते तमय, इसे ध्यान में रखकर कि इतना भिक्षा साधु के लिए है, भोजन बढ़ा देना-वही, पृष्ठ १०८
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२२४
तीर्थङ्कर महावीर
समझ कर नहीं । वह भी दिया हुआ ही कल्पता है, बिना दिया हुआ नहीं। दिया हुआ भी वह जल हस्त, पाद, चरु एवं चमस के प्रक्षालन के लिए अथवा पीने के लिए ही कल्पता है-स्नान के लिए नहीं। इस अम्बड परिव्राजक को मगध-देश सम्बन्धी आढक प्रमाण जल ग्रहण करना कल्पता है—वह भी बहता हुआ यावत् दिया हुआ ही कल्पता है, बिना दिया हुआ नहीं। वह भी स्नान के लिए ही कल्पता है, हाथ, पैर, चरु एवं चमसा धोने के लिए नहीं और न पीने के लिए। ___ "वह अर्हन्तों और उनकी मूर्तियों को छोड़कर अन्यतीर्थिको और
और उनके देवों तथा अन्यतीर्थिक परिगृहीत अर्हत-चैत्यों को वंदन नमस्कार नहीं करता।" ___ गौतम स्वामी-“हे भंते ! यह अम्बड परिव्राजक काल के अवसर में काल करके कहां जायेगा ? कहाँ उत्पन्न होगा ?" ___ भगवान्- "हे गौतम ! यह अम्बड परिव्राजक अनेक प्रकार के शील, व्रत, गुण, (मिथ्यात्व) विरमण, प्रत्याख्यान, पोषधोपवास, आदि व्रतों से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ अनेक वर्षों तक श्रमणोपासकपर्याय का पालन करेगा और अंत में १ मास की संलेखना से अपनी आत्मा को मुक्त कर साठ भक्तों को अनशन से छेद कर, पाप-कर्मों की आलोचना करके, समाधि को प्राप्त करेगा। पश्चात् काल के अवसर पर काल करके ब्रह्मलोक-नामक पाँचवें देवलोक में उत्पन्न होगा । वहाँ देवों की स्थिति १० सागरोपम की है। वहाँ अम्बड १० सागरोपम रहेगा।" __गौतम स्वामी-“हे भंते ! उस देवलोक से च्यव कर अम्बड कहाँ उत्पन्न होगा ?'
भगवान्- "हे गौतम ! महाविदेह-क्षेत्र में आढ्य, उज्जवल तथा प्रशंसित, एवं वित्त-प्रसिद्ध, कुल हैं, जो कि विस्तृत एवं विपुल भवनों के अधिपति हैं, जिनके पास अनेक प्रकार के शयन, आसन एवं यान-वाहनादिक है, जो बहुत धन के स्वामी हैं; आदान-प्रदान अर्थात्
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अम्बड परिव्राजक
२२५ लाभ के लिए लेन-देन का काम करते हैं, याचक आदि जनों के लिये जो प्रचुर मात्रा में भक्त-पान आदि देते हैं, जिनकी सेवा में अनेक दासदासी उपस्थित रहते हैं; तथा जिनके पास गौ-महिष आदि हैं; ऐसे ही एक कुल में अम्बड उत्पन्न होगा।
"उस लड़के के गर्भ में आते ही उसके पुण्य प्रभाव से उसके मातापिता को धर्म में आस्था होगी । ९ मास ७।। दिन बाद उसका जन्म होगा। उसके माता-पिता उसका नाम दृढ़प्रतिज्ञ रखेंगे।
"यौवन को प्रात होने पर उसके माता-पिता उसके लिये समस्त भोगों की व्यवस्था करेंगे, पर वह उनमें गृद्ध नहीं होगा। और, अंत में साधु हो जायेगा ।
'चैत्य' शब्द पर विचार औपपातिक-सूत्र में एक पाठ है:
"वा चेइयाई वंदित्तएं.२ ऐसा ही पाठ बाबू वाले संस्करण में तथा सुरू-सम्पादित औपपातिक सूत्र में भी है ।
१-औपपातिकसूत्र सटीक सूत्र ४० पत्र १८२-- १६५ । इस अम्बड का उल्लेख भगवतीसूत्र सटीक शतक १४ उद्देश्य सूत्र ५२६ पत्र ११६८ में भी आया है। __ जैन-साहित्य में एक और अम्बड का उल्लेख मिलता है जो भावी चौबीसी में तीर्थकर होगा। ठाणांगसूत्र सटीक ठा० ६ उ० ३ सूत्र ६६२ की टीका में आता है
पश्चौपपातिकोपाङ्ग महाविदेहे सेत्स्यतीत्यभिधीयते सोऽन्य इति सम्भा. व्यते (पत्र ४५८-२)
२.-औपपातिकसूत्र सटीक ( दयाविमल जैन-ग्रन्थमाला, नं० २६ ) सूत्र ४० पत्र १८४ ।
३-पत्र २६७ ४-पृष्ठ ७४
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२२६
तीर्थकर महावीर स्थानकवासी साधु अमोलक ऋषि ने जो उबवाइयसूत्र छपवाया, उसमें भी यह पाट यथावत् है ।'
यहाँ 'चेझ्याई' की टीका अभयदेव सूरि ने इस प्रकार की है:
चेझ्याइं ति अर्हचैत्यानि-जिन प्रतिभा इत्यर्थः । पर, अमोलक ऋषि ने इसका अर्थ 'साधु' किया है। स्थानकवासी विद्वान् रतनचन्द ने अपने अर्द्धमागधी कोप में भी 'साधु' अर्थ दिया है। और, उसके उदाहरण में ३ प्रमाण दिये हैं—(१) उवा० १,५८, (२) भगवती ३, २, तथा ( ३ ) ठाणांग ३-४
उपासगदशा के पाट पर हम आगे विचार करेंगे। अतः उसे यहाँ छोड़ देते हैं। __ भगवती के जिस प्रसंग को रतनचंद्र ने लिखा है, वहाँ पाट इस प्रकार है:---
मात्थ अरिहंते वा अरिहंत चेझ्याणि वा अणगारे वा..."
यहाँ पाट ही व्यक्त कर देता है कि 'चेझ्याणि' का अर्थ साधु नहीं है; क्योंकि उसके बाद ही 'अणगारे वा' पाट आ जाता है ।
तीसरा प्रसंग टाणांग का है ।
टाणांग के ठाणा ३, उदेशा १, के सूत्र १२५ मैं 'चेतितं' शब्द आता है । उसकी टीका अभय देव सूरि ने इस प्रकार की है ।
जिनादि प्रतिमेव चैत्यं श्रमणं
-
१-पत्र १६३ २-औपपातिकमूत्र सटीक पत्र १९२, बाबू वाला संस्करण पत्र २६७ ३-भाग २, पृष्ठ ७३८ ४-भगवतीसूत्र सटीक, श० ३, उ० २, सूत्र १४४ पत्र ३१३ ५-- ठाणांगसूत्र सटीक पूर्वार्ध, पत्र १०८-२ ६-वही, पत्र १११
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'चैत्य' शब्द पर विचार
२२७
यहाँ 'श्रमणं' का अर्थ न समझ पाने से साधु अर्थ बैठाने का प्रयास किया गया है ।
यहाँ 'श्रमण' शब्द साधु के लिए नहीं भगवान् महावीर के लिए प्रयुक्त हुआ है । हम इस सम्बन्ध में कुछ प्रमाण दे रहे हैं:
( १ ) कल्पसूत्र में भगवान् के ३ नामों के उल्लेख हैं । ( अ ) वर्द्धमान ( आ ) श्रमण ( ३ ) महावीर । नाम पड़ने का कारण बताते हुए लिखा है:
सहसमुइयाणे समरो'
इसकी टीका इस प्रकार की गयी है:
●
सहस मुदिता - सहभाविनी तपः करणादिशक्तिः तथा श्रमण इति द्वितीय नाम
( २ ) आचारांग में भी इसी प्रकार का पाठ है । सहसंमदए समणे'
( ३ ) ऐसा उल्लेख आवश्यकचूर्णि में भी है।
( ४ ) सूत्रकृतांग में भी श्रमण शब्द की टीका करते हुए टीकाकार ने 'श्रमणो' भवतीर्थंकरः लिखा है- अर्थात् आर्द्रककुमार के तीर्थंकर भगवान् महावीर
(५) योगशास्त्र की टीका में हेमचन्द्राचार्य ने लिखा हैश्रमणो देवार्य इति च जनपदेन'
१- कल्पसूत्र सुबोधिका टीका पत्र २५४
२ - वही, पत्र २५३
३- आचारांगसूत्र सटीक २, ३, २३, सूत्र ४००, पत्र ३८६-१
और, 'श्रमण'
४ - आवश्यक चूरिंग, पूर्वार्द्ध, पत्र २४५
५- सूत्रकृतांग २, ६, १५- पत्र १४४ - १, १४५ - १
६ - योगशास्त्र, स्वोपज्ञ टीका सहित, पत्र १-२
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२२८
तीर्थकर महावीर 'श्रमण' शब्द का अर्थ ही भगवान् महावीर है। इस बात से स्वयं स्थानकवासी विद्वान् भी अवगत हैं। रतनचन्द ने अपने कोष में 'श्रमण" शब्द का एक अर्थ 'भगवान् महावीर स्वामी का एक उपनाम' भी दिया है।'
ठाणांग की टीका में जो श्रमण शब्द आया, वहाँ उससे तात्पर्य भगवान् महावीर से है न कि साधु से ।
भगवती वाले पाठ पर विचार अमोलक ऋषि ने भगवती वाले पाठ का अनुवाद इस प्रकार किया है- .
अरिहंत, अरिहंत चैत्य सो छद्मस्थ, अनगार...
चैत्य का अर्थ 'छद्मस्थ' किसी कोष में नहीं मिलता। स्वयं स्थानकवासी साधु रतनचन्द्र ने अपने कोष में 'चैत्य' का एक अर्थ 'तीर्थकर' का ज्ञान केवलज्ञान' दिया है। उपाध्याय अमरचंद्र ने भी चेतिंत का का अर्थ ज्ञान किया है ( सामायिक सूत्र, पृष्ठ १७३ )। छद्मास्थावस्था में केवलज्ञान तो होता ही नहीं।
और, फिर छद्मस्थ कौन ? छद्मस्थ तो जब तक केवलज्ञान नहीं होता सभी साधु रहते हैं और यदि सूत्रकार का तात्पर्य साधु से होता तो आगे अणगार न लिखता और यदि अमोलक ऋषि का तात्पर्य तीर्थकर से हो तो अरिहंत होने के बाद छद्मावस्था नहीं रहती-या इस प्रकार कहें कि छमावस्था समाप्त होने पर ही अर्हत होते हैं । भगवान् को केवलज्ञान जब हुआ, तब का वर्णन कल्पसूत्र में इस प्रकार आया है :
१-अर्द्धमागधी कोष, भाग ४ पृष्ठ ६२१ २–अर्द्धमागधी कोष, भाग २, पृष्ठ ७३८ ३-भगवती सूत्र ( अमोलक ऋषि वाला ) पत्र ४६६
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कुछ अन्य सदाचारी परिव्राजक २२९ तएणं समगं भगवं महावी रे अरहा जाये, जिगो केवली सबन्नू सव दरिसी.......
उपासकदशांग वाले प्रकरण पर हम मुख्य श्रावकों वाले प्रसंग में विचार करेंगे।
इसका स्पष्टीकरण 'विचार-रत्नाकर' में कीर्तिविजय उपाध्याय ने इस प्रकार किया है :
पुनरपि जिन प्रतिमारिपु प्रतिबोधाय अभ्मडेन यथा अन्य तीर्थिकदेवान्यतार्थिक. परिगृहीतहत्प्रतिमा निषेध पूर्वक मह. स्प्रतिमावन्दनाद्यङ्गीकृतं, तथा लिख्यते
'अम्मडस्स णो कप्पइ अन्न उत्थिया वा अन्नउत्थियदेवयाणि चा अन्न उत्थियपरिग्गहियाणि अरिहंत चेइयाणि वा वंदित्तए चा नमंसित्तए वा जाव पज्जुवासित्तर वा जन्नत्य अरिहंते वा अरिहंतवेदयाणि वा इति वृत्तिर्यथा—'अन्न उत्थिए व' त्ति अन्य यूथिका-आर्हतसङ्घापेक्षयाऽन्ये शाक्यादयः 'चेइयाई' ति, अर्हच्चैत्यानि-जिन प्रतिमा इत्यर्थः। 'णन्नत्थ अरिहंतेहिं वं' त्ति न कल्पते इह योऽयं नेति निषेधः सोऽन्यत्राहद्भ्यः अहतो वर्जयित्वेत्यर्थः”
-पत्र ८२-१, ८२-२ कुछ अन्य सदाचारी परिव्राजक औपपातिकसूत्र में ही कुछ अन्य सदाचारी परिव्राजकों का उल्लेख आया है। उनमें ८ परिव्राजक ब्राह्मण-वंश के थे-१ कृष्ण, २ करकंड, ३ अंबड, ४ पारासर, ५ कृष्ण, ६ द्वैपायन, ७ देवगुप्त और ८ नारद । और ८ परिव्राजक क्षत्रिय-वंश के थे-१ शीलधी, २ शशिधर, ३ नग्नजित, ४ भग्नजि ५ विदेह, ६ राजा, ७ राम और ८ बल ।
४-कल्पसूत्र सुशोधिका टीका सहित, सूत्र १२१, पत्र ३२१
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२३०
तीर्थंकर महावीर
ये १६ परिव्राजक ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास-पुराण, निघंटु ( नामकोश) इन ६ शास्त्रों का तथा सांगोपांग सरहस्य चारों वेदों का पाटन द्वारा प्रचार कहते थे । स्वयं भी इन शास्त्रों के ज्ञाता थे, और इन सब को धारण करने में समर्थ थे । इसलिए, वे पडंगवेदविद् कहे जाते थे । ये षष्टितंत्र' - कापिल शास्त्र के भी वेत्ता थे । गणित शास्त्र,' शिक्षा शास्त्र कल्प, व्याकरण, छंद शास्त्र, निरुक्त एवं ज्योतिष शास्त्र तथा अन्य चहुत से ब्राह्मण- शास्त्रों में ये परिपक ज्ञान वाले थे ।
पानी से
अथवा मिट्टी
ये समस्त परिव्राजक दानधर्म की, शौचधर्म की, तीर्थाभिषेक की, पुष्टि करते हुए, सत्र को भली भाँति समझाते हुए तथा युक्ति पूर्वक उनकी प्ररूपणा करते हुए विचरते थे । उनका कहना था कि जो कुछ भी उनकी दृष्टि मैं अपवित्र होता है, वह जब से प्रक्षालित होता है, तो पवित्र हो जाता है को तथा अपने आचार-विचार को चोखा समझते थे । मत था कि इस प्रकार पवित्र होने के कारण वे निर्विघ्न स्वर्ग जाने वाले थे ।
।
इस रूप
में वे अपने
और, उनका
इन परिव्राजकों को इतनी बातें नहीं कल्पत कुएँ में प्रवेश करना, तालाब में प्रवेश करना, नदी में प्रवेश करना, बावड़ी में प्रवेश करना
१ - कापिलीय तंत्र पंडिता: - औपपातिक सटीक, पत्र १७५ २ - 'संखाणे ' त्ति संङ्ख्याने – गणितस्कंधे- वही, पत्र १७५
-
३ - 'सिक्खाकप्पे ' त्ति शिक्षा च अक्षरस्वरूप निरूपकं शास्त्रं - वही; पत्र १७५ ४ – कल्पश्च - तथाविध समाचार निरूपकं शास्त्रं - वही, पत्र १७५ ५- वोगरणे' त्ति शब्दलक्षण शास्त्रे - वही, पत्र १७५, ६- निस्ते त्ति शब्द निरुक्तिप्रतिपादके — वही, पत्र १७५
- 'अगडं व' त्ति अवटं कूपं श्रपपातिकसूत्र सटीक पत्र १७६ ।
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- 'वाविं व' त्ति वापी - चतुरस्र जलाशय विशेषः, वही, पत्र १७६ ।
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कुछ अन्य सदाचारी परिव्राजक २३१ पुष्करिणी' में प्रवेश करना, दीर्घिका' में प्रवेश करना, गुंजालिका में प्रवेश करना, सरोवर में प्रवेश करना एवं समुद्र में प्रवेश करना–हाँ मार्ग में चलते समय कोई नदी या तालाब अथवा जलाशय बीच में आ जाये तो अगत्या उसमें होकर जाना निषिद्ध नहीं था।
इसी प्रकार शकट' यावत् संदीमनी शिविका पर आरूढ़ होना भी उन्हें नहीं कल्पता था । घोड़े, हाथी, ऊँट, त्रैल भैंसा, एवं गधे पर चढ़कर चलना भी इन्हें नहीं कल्पता था-बलाभियोग को छोड़कर । नट-यावत् मागह के तमाशे देखना भी उन्हें नहीं कल्पता था। हरित वनस्पति का स्पर्श करना, संघर्पण करना, हस्तादिक द्वारा अवरोध करना, शाखा एवं उनके पत्ते आदि को ऊँचा करना अथवा उन्हें मडोरना, हस्त आदि द्वारा पनक आदि का संमार्जन करना, ये बातें भी उन परिव्राजकों को नहीं कल्पती थी। स्त्रोकथा, भक्तकथा, देशकथा, राजकथा एवं जनपदकथा भी उनको नहीं कल्पती थीं; क्योंकि इन कथाओं से अनर्थदंड का बंध होता है । लोहे, वपु, ताम्र, जस्ते, सीसे, चाँदी, स्वर्ण के तथा अन्य बहुमूल्य पात्र धारण करना इन्हें नहीं कल्पता था । उन्हें केवल तुम्बे, काष्ठ तथा मिट्टी के पात्र कल्पते था। लोहे के बंधन से युक्त, वपु के बंधन से युक्त, ताँबे के बंधन से युक्त, जसद के बंधन से युक्त, सीसे के बंधन से युक्त,
१-'पुक्खरिणी व' त्ति पुष्करिणी वर्तु ल स एव पुष्करयुतो वही । पृष्ठ १७६ २–'दीहियं व' त्ति दीधिका सारिणो-वही, पत्र १७३. ३-'गुंजालियं व' त्ति गुआलिका-वक्रसारिणी-वही, पत्र १७३.
४-यहाँ टीकाकार ने 'रहं वा जाणं वा जुग्गं वा गिल्लिं वा थिल्लिं वा पहवणं वा सीयं वा, जोड़ने की बात कही है ( औपपातिकसूत्र सटीक पत्र १७६ ) रह = रथं; जाणं = यानं; जुग्गं= युग्यं, घोड़े पर; गिल्लं = ऐसी डोली जिसे दो पुरुष लेकर चलते हैं; थिल्लं = दो घोड़े की बग्धी; प्रवहण = बहली (स्त्रियों के लिए यान-विशेष ) सीयं = बग्घी।
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२३२
तीर्थंकर महावीर चाँदी के बंधन से युक्त, स्वर्ण के बंधन से युक्त पात्र तथा अन्य बहुमूल्य बंधन के पात्र उन्हें नहीं कल्पते थे। अनेक प्रकार के रंगों से रंगा कपड़ा थी उन्हें नहीं कल्पता था। वे केवल गैरिक रंग से रंगा वस्त्र पहनते थे। हार', अर्द्धहार', एकावलि, मुक्तावलि, कनकावलि, रत्नावलिं, मुरवि, कण्ठ मुरवि, प्रालंबक, त्रिसर'', कटिसूत्र'', मुद्रिका, कटक', त्रुटित'", अंगद ५, केयूर, कुंडल, मुकुट, चूड़ामणि, आदि आभूषण उन्हें नहीं कल्पते थे।
वे केवल ताँबे की पवित्रक ( मुद्रिका ) पहनते थे । उन परिव्राजकों
१-हारः-अष्टादश सारिक:-कल्पसूत्र सुबोधिका टीका पत्र १६५ २-अर्धहारो-नवसारिकस्त्रिपरिकं-वही, पत्र १६५ ३-विचित्र मणियुक्त ४-मोतियों की माला, ५-सोने के दानों की माला ६-रत्नों के दानों की माला, ७-जंतर ८-कंठी
8-गले का एक आभूषण जो व्यक्ति के कद इतना लम्बा होता है। प्रलम्बमानः प्रालम्बो-कल्पसूत्र सुत्रोधिका टीका, पत्र १६६
१०-तीन लड़ी को माला १.१-कमर का आभूषण-वही पत्र, १६६ १२-अंगूठी १३-कड़ा १४-बाहु का एक आभरण-कल्पसूत्र सटीक, पत्र १६६ १५-बाजूबंद १६-भुजा का एक आमरण
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कुछ अन्य सदाचारी परिव्राजक
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को चारों प्रकार की मालाएं' धारण करना नहीं कल्पता था; केवल कर्णपूर रखना कल्पता था । उनको अगर, लोध, चंदन, कुंकुम, इत्यादि मुगन्धित द्रव्य शरीर पर विलेपन करना नहीं कल्पता था; वे गंगा के किनारे की मातृका - गोपी चंदन लगाते थे । उनको अपने उपयोग में लाने के लिए मगध देश में प्रचलित एक प्रस्थ मात्र जल लेना कल्पता था, वह जल भी बहती हुई नदी का होना आवश्यक था, बिना बहता पानी उन्हें नहीं कल्पता था । वह भी जब स्वच्छ हो तभी उन्हें ग्राह्य होता था, कर्दम से मिश्रित नहीं । स्वच्छ होने पर भी जब निर्मल हो, तभी ग्राह्य होता था । निर्मल होने पर भी जब छना हुआ होता था, तभी कल्पता था, अन्यथा नहीं । छना होने पर भी दाता द्वारा दिया हुआ ही उन्हें कल्पता था - बिना दिया हुआ नहीं । उस १ प्रस्थ दिए जल का उपयोग वे पीने के लिए ही करते थे, हाथ-पाँव, चरु चमस आदि धोने के लिए नहीं । उसका उपयोग स्नान के लिए वे नहीं कर सकते थे ।
उन साधुओं को एक आढक जल जो पूर्व लक्षणों वाला हो हाथ, पाद, चरु एवं चमसा आदि धोने के काम में लेना कल्पता था ।
१- मालाओं के चार प्रकार टीका में इस प्रकार दिये हैं: - गंथिभ वेढिम पूरीम संघाइमे' त्ति ग्रन्थिमं----ग्रन्थेन निर्वत्तं माला रूपं ( जो गूंथकर बनायी गयी हो ) बेष्टिमं - पुष्पलम्बूसकादि ( लपेटी हुई ), पूरिमं - पूरण निर्वत्तं वंशशलाका जालक सूरमयतीति ( जो बाँस की शलाका पर बनी हो ) संघातियं - संघातेन निर्वृत्तम् इतरेतरस्य नाल प्रवेशनेन ( समूह करके बनायी हुई )
- पपातिक सूत्र सटीक, पत्र १७७
२- अणुयोगद्वार सटीक सूत्र १३२ में पाठ आता है - दो असईओ पसई, दो सेतिया, चचारिसे आओ कुडओ, चारि कुडेया पत्थो, चत्तारि पत्थया ग्रादगं, चत्तारि आढगाई दोणो, ~ ( पत्र १५१-२ ) आप्टे की संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी' भाग २, पृष्ठ ११२० में आता है -१ प्रस्थ = ३२ पल । ६९७ में एक नल = ४ कर्ष दिया है । और, भाग १ के पृष्ठ ५४३ में १ कर्ष = १६ माषक दिया है ।
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૨૨૪
तीर्थकर महावीर अम्बड परिव्राजक का अन्तिम जीवन एक बार अम्बड परिव्राजक अपने ७०० शिष्यों के साथ ग्रीष्म काल के समय ज्येष्ठ मास में गंगा नदी के दोनों तटों से होकर काम्पिल्यपुर नगर से पुरिमताल (प्रयाग) के लिए निकले । विहार करते-करते वे साधु ऐसी अटवी में जा पहुचे जो निर्जन थी और जिसके रास्ते अत्यन्त विकट थे। इस अटवी का थोड़ा-सा ही भाग वे तय कर पाये थे कि अपने स्थान से लाया इनका जल समाप्त हो गया । पानी समात हुआ जानकर तृषा से अत्यंत व्याकुल होते हुए पास में पानी का दाता न देखकर वे परस्पर बोले- "हे देवानुप्रियो ! यह बात बिलकुल ठीक है कि इस अग्रामिक अटवी मैं जिसे हम अभी थोड़ा ही पार कर सके हैं, हम लोगों का अपने स्थान से लाया जल समाप्त हो गया। अतः कल्याणकारक यही है कि हम इस अग्रामिक निर्जन अटवी में सर्व प्रकार से चारों ओर किर्म दाता की मार्गणा अथवा गवेषणा करें।" वे सभी दाता खोजने निकले, पर उन्हें कोई भी दाता न दिया।
फिर एक ने कहा-" देवानुप्रियो ! प्रथम तो इस अटवी में एक भी उदकदाता नहीं है, दूसरे हम लोगों को अदत्त जल ग्रहण करन। उचित नहीं है; कारण कि अदत्त जल का पान करना हम सत्र की मर्यादा से सर्वथा विरुद्ध है । हम लोगों का यह भी दृढ़ निश्चय है कि आगार्म काल में भी हम अदत्त जल न ग्रहण करें, न पियें; क्योंकि ऐसा करने से हमारा आचरण लुप्त हो जायेगा । अतः उसकी रक्षा के अभिप्राय से हो अदत्त जल न लेना चाहिए और न पीना चाहिए ।
"इसलिए हे देवानुप्रियो हम सत्र १ त्रिदंड' कमण्डल, रुद्राः की माला, ४ मृत्तिका के पात्र, ५ बैठने की पटिया ६ छण्णालय
१-'तिदंडए' त्ति त्रयाणां दंडकानां सम!हार त्रिदंडकानि-औपपातिक सटी. पत्र १००।
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अम्बड परिव्राजक का अन्तिम जीवन
२३५
७ देवपूजा के लिए पुष्प-पत्र तोड़ने के काम में आने वाला अंकुश' ८ केशरिका - प्रमार्जन के काम आने वाला वस्त्र- खंड, ९ पवित्री तांबे की अंगूठी १० गणेत्रिका' - हाथ का कड़ा, ११ छत्र १२ उपानह १३ पादुका १४ गेरुए रंग का वस्त्र आदि उपकरणों को छोड़कर महानदी गंगा को पारकर उसके तट पर बालुका का संधारा विलाएँ, और उस पर भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर, छिन्न वृक्ष की तरह निश्चेष्ट होते हुए, मरण की इच्छा से रहित होकर संलेखना पूर्वक मरण को प्रेम के साथ सेवन करें । "
इस बात को सभी ने स्वीकार कर लिया और त्रिदंड आदि उपकरणों का परित्याग करके वे सब महानदी गंगा में प्रविष्ट हुए और उसे पार कर उन लोगोंने बालू का संथारा बिछाया और उस पर चढ़कर पूर्व की ओर मुख कर पर्यासन बैठ गये और इस प्रकार कहने लगे
'णमोत्थु णं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं'
- मुक्ति को प्राप्त हुए श्रीअहंत प्रभु को नमस्कार हो
( पृष्ठ २३४ को पादटिप्पणि का शेषांश )
८
२ - ' कुंडियाओ य' त्ति कमण्डलवः -- वही पत्र १८०
३- 'कं चणियाओ. य' त्ति काञ्चनिका - रुद्राक्षमयमालिका, वही पत्र १८० ४ - करोडिया श्री य' त्ति करोटिका: मृण्मयभाजनविशेषः, वही पत्र १०० ५- 'भिसियाओ' यत्ति वृषिका: उपवेशन पट्टिडिका:-वही पत्र १८०
६ – 'छण्णालए य' त्ति पणनालकानि त्रिकाष्ठिकाः = श्राधारी अधारी, अधारी शब्द सूरसागर के भ्रमरगीत में प्रयुक्त हुआ है। कबीर ने भी इस शब्द का प्रयोग किया हैं । बौद्ध तथा नाथ - सिद्धों के प्राचीन चित्रों में आधारी देखने को मिलता हैं।
१ - अंकुसाए' यत्ति अंकुशकाः - देवार्चनार्थं वृक्षपल्लवाकर्षणार्थ अंकुशका:वही, पत्र १८०
२ – 'केसरियाओ य' त्ति केशरिका:- प्रमार्जनार्थानि चीवर खण्डानि - वही पत्र १८०
३ - पवित्तए य'त्ति पवित्रकारिण - ताम्रमयान्यङ्गुलीयकानि वही, पत्र १८०
"
४ - ' गणेत्रिका हस्ताभरण विशेषः - वही, पत्र १८०
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२३६
तीर्थकर महावीर समणस्स भगवनो महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स नमोत्थुणं -भगवान महावीर को, जो मुक्ति प्राप्त करने के कामी हैं, नमस्कार हो
धम्मोवदेसग्ग धम्मायरियस्ल ब्रह्म परिवायगस्स अम्मडस्स नमोत्थु णं ।
-धर्म के उपदेशक ऐसे हमारे गुरु धर्माचार्य अम्बड को नमस्कार । "पहले हम लोगों ने अम्बड परिव्राजक के समीप स्थूलप्राणातिपात का यावजीव प्रत्याख्यान किया है। इसी तरह समस्त स्थूलमृषावाद का समस्त स्थूलअदत्तादान का जीवन पर्यन्त परित्याग कर दिया है, समस्त मैथुन का यावजीवन परित्याग कर दिया है। स्थूल परिग्रह का यावजीवन 'परित्याग कर दिया है। अब इस समय हम सब लोग श्रमग भगवान् महावीर के समीप पुनः समस्त प्राणातिपात का जीवन पर्यन्त प्रत्याख्यान करते है । इसी तरह समस्त परिग्रह आदि का जीवन पर्यन्त प्रत्याख्यान करते हैं। इसी तरह उन्हीं को साक्षी पूर्वक समस्त क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रिंय, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, अरति-रति, मायामृषा, मिथ्यादर्शनशल्य का एवं अकरणीय योग का यावजीव प्रत्याख्यान करते हैं । समस्त अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य इन चार प्रकार के आहारों का यावजीव प्रत्याख्यान करते हैं। इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ की अपेक्षा अत्यंत प्रिय स्थिरतायुक्त अपना शरीर ( पर शरीर की अपेक्षा ) अधिक प्रिय होता है । इस अपेक्षा अतिशय प्रीति का पात्र, शारीरिक कार्यों के संमत होने से संमत, बहुतों के मध्य में होने से बहुमत, विगुणता के दिखने पर भी प्रेम का स्थानभूत, जिस प्रकार भूषणों का करंडक प्रिय होता है, उसी प्रकार से प्रिय होने के कारण भाण्डकरंडक इस मेरे शरीर को शीत उष्ण, क्षुधा, पिपासा, सर्प, चोर, दंश, मच्छर, बात-पित्त-कफ संबंधी रोग, आतंक, परीषह, उपसर्ग आदि स्पर्श न करें। इस प्रकार को विचारधारा को अब चरम उच्छवास निःश्वास तक छोड़ते हैं।"
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अम्बड परिव्राजक का अन्तिम जीवन २३७ इस प्रकार करके संलेखना में तथा शरीर को कृश करने में प्रीति से युक्त वे सबके सब भक्त पान का प्रत्याख्यान करके वृक्ष के समान निःचेष्ट होकर मरण की इच्छा न करते हुए स्थित हो गये। ___ इसके बाद उन समस्त परिव्राजको ने चारों प्रकार के आहार को अनशन द्वारा छेद कर, छेद करने के बाद अतिचारों की आलोचना की
और फिर उनसे वे परावृत्त हुए। और, काल के अवसर पर काल करके ब्रह्मलोक-कल्प में देव-रूप में उत्पन्न हुए । वहाँ उनका आयुध्य १० सागरोपम-प्रमाण है।
ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भगवान् वैशाली आये और अपना वर्षावास भगवान् ने वैशाली में बिताया।
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३२ - वाँ वर्षावास गांगेय की शंकाओं का समाधान
भगवान् वाणिज्यग्राम के निकट स्थिति द्विपलाश - चैत्य में ठहरे हुए थे । भगवान् का धर्मोपदेश हुआ ।
उस समय पार्श्वसंतानीय साधु गांगेय ने द्विपलाश - चैत्य में भगवान् से थोड़ी दूर पर खड़े होकर पूछा - "हे भगवन् ? नैरयिक सान्तर' उत्पन्न होते हैं या निरन्तर ?"
भगवान् — “हे गांगेय ? नैरयिकसान्तर भी उत्पन्न होता है और निरन्तर भी ?"
गांगेय – “हे भगवन् ? असुरकुमार सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर ?"
भगवान् - "गांगेय ! असुरकुमार सान्तर भी निरन्तर भी । इसी प्रकार स्तनितकुमार आदि के लेना चाहिए ।"
गांगेय - " भगवन् ? पृथ्वीकायिक जीव सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर ?"
भगवान् -- "हे गांगेय ? पृथ्वीकायिक जीव सान्तर उत्पन्न नहीं होते । वे निरन्तर उत्पन्न होते हैं । इसी रूप में यावत् वनस्पतिकायिक जीव तक जान लेना चाहिए । द्वि इंद्रिय जीव से लेकर वैमानिकों और नैरयिकों तक सभी के साथ इसी प्रकार समझना चाहिए ।"
उत्पन्न होते हैं और
सम्बन्ध में भी जान
१ - जिसकी उत्पत्ति में समयासि काल काल का अंतर व्यवधान हो वह सान्तर कहलाता है ।
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गांगेय की शंकाओंका समाधान २३६ गांगेय - "हे भगवन् ? नैरयिक सान्तर चवता है कि निरन्तर च्चवता है ?'
भगवान्-'"हे गांगेय ? नैरयिक सान्तर च्यवता है और निरन्तर यवत है । इसी प्रमाण नितकुमार तक जान लेना चाहिए।"
गांगेय- "हे भगवन् ! क्या पृथ्वीकायिक जीव सान्तर च्यवते हैं ?"
भगवान् --" हे गांगेय ! पृथ्वीकायिक जीव निरन्तर च्यवता है और वह सान्तर नहीं च्यवता है । इसी रूप में वनस्पतिकायिक जीव-सान्तर नहीं च्यवता निरन्तर च्यवता है।"
गांगेय-- "हे भगवान् ! द्विइन्द्रिय जीवसान्तर च्यवते हैं या निरन्तर ?"
भगवान् -" हे गांगेय ! द्विइन्द्रिय जीव सान्तर भी च्यवता है और निरन्तर भी । इसी प्रकार यावत् वानव्यन्तर तक जानना चाहिए।"
गांगेय- "हे भगवन् ! ज्योतिष्क देव सान्तर च्यवते हैं या निरन्तर?"
भगवान्-"ज्योतिष्क देव सान्तर भी च्यवते हैं और निरन्तर थी। इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक समझ लेनी चाहिए।"
गांगेय "हे भगवन् ! प्रवेशनक कितने प्रकार के कहे गये हैं ?
भगवान्-" हे गांगेय ! प्रवेशनक चार प्रकार का कहा गया है। वे चार ये हैं.-१ नैरयिक' प्रवेशनक २--तिर्यंचयोनिक प्रवेशनक ३--- मनुष्य प्रवेशनक ४-देव प्रवेशनक । उसके बाद भगवान् ने विभिन्न नैर्गयकों के प्रवेशनक के सम्बन्ध में विस्तृत सूचनाएँ ही ।
गांगेय—"हे भगवन् ! तिर्यंचयोनिक प्रवेशनक कितने प्रकार का कहा गया है ?
भगवान्-- "हे गांगेय ! पांच प्रकार का कहा गया है-एकेन्द्रिय योनिक प्रवेशनक यावत् पंचेन्द्रियतिथंच योनिक प्रवेशनक !” उसके बाद गांगेय के प्रश्न पर भगवान् ने उसके सम्बन्ध में विशेष सूचनाएँ दी ।
१-नरक बताये गये हैं-" १-रयणप्पभा २ सकरप्पभा ३ बालुकम्पमा ४ पंकप्पभा, ५ धूमप्पभा, ६ तमप्पभा, ७ तमतम्पमा-प्रज्ञापना
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२४०
तीर्थङ्कर महावीर __ गांगेय—"हे भगवन् ! मनुय्यप्रवेशनक कितने प्रकार का कहा गया है ?"
भगवान्-"दो प्रकार का-१ संमूछिम मनुष्य प्रवेशनक और २ गर्भजमनुष्य प्रवेशनक ।" उसके बाद भगवान् ने उनके सम्बन्ध में विस्तृत रुप में वर्णन किया।
गांगेय- "हे भगवन् ! देवप्रवेशनक कितने प्रकार का है ?
भगवान्-'हे गांगेय ! देवप्रवेशनक चार प्रकार के हैं-१ भवनवासीदेव प्रवेशक, २ वानव्यंतर, ३ ज्योतिष्क, ४ वैमानिक ।"
फिर भगवान् ने इनके सम्बंध में भी विशेष सूचनाएँ दी।
गांगेय "हे भगवन् ! 'सत्' नारक उत्पन्न होते हैं या असत् ! इसी तरह 'सत्' तिर्यच, मनुष्य और देव उत्पन्न होते हैं 'असत्' ?"
भगवान् "हे गांगेय सभी सत् उत्पन्न होते हैं असत् कोई उत्पन्न नहीं होता?"
गांगेय- "हे भगवन् ! नारक, तिर्यंच, और मनुष्य 'सत्' मरते हैं या 'असत्' । इसी प्रकार देव भी 'सत्' च्युत् होते हैं या 'असत् ?” । __ भगवान्-"सभी सत्च्यवते हैं असत् कोई नहीं च्यवता ?”
गांगेय-"भगवान् ! यह कैसे ? सत् की उत्पत्ति कैसी ? और मरे हुए की सत्ता कैसी ?”
भगवान्–“गांगेय ! पुरुषादानीय पार्श्वनाथ ने लोक को शाश्वत, अनादि और अनन्त कहा है। इसलिए मैं कहता हूँ कि वैमानिक सत् च्यवते हैं असत् नहीं।"
गांगेय—"हे भगवन् ! आप इस रूप में स्वयं जानते हैं या अस्वयं जानते हैं ?"
भगवान्-"मैं इनको स्वयं जानता हूँ। अस्वयं नहीं जानता।" गांगेय--"आप यह किस कारण कहते हैं कि मैं स्वयं जानता हूँ ?'
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गांगेय की शंका समाधान
२४१
भगवान् - "केवल ज्ञानी का ज्ञान निरावरण होता है । वह सभी वस्तुओं को पूर्णरूप से जानता है ।"
गांगेय – “हे भगवन् ! नैरयिक नरक में स्वयं उत्पन्न होता है या अस्वयं ?"
भगवान्–“नरक में नैरयिक स्वयं उत्पन्न होता है, अस्वयं नहीं ।" गांगेय – “ऐसा आप किस कारण कह रहे हैं ?"
भगवान् — “हे गांगेय ! कर्म के उदय से कर्म के गुरुपने से, कर्म के भारीपने से, कर्म के अत्यन्त भारीपने से, अशुभ कर्म के उदय से, अशुभ कर्मों के विपाक से, और अशुभ कर्मों के फल- विपाक से नैरयिक नरक में उत्पन्न होता है । नैरयिक नरक में अस्वयं उत्पन्न नहीं होता ।” इसी प्रकार अन्यों के विषय में भी भगवान् ने सूचनाएं दीं । उसके बाद भगवान् को सर्वज्ञ रूप में स्वीकार करके गांगेय ने भगवान् की तीन बार प्रदक्षिणा की और वंदन किया तथा पार्श्वनाथ भगवान् के चार महाव्रत के स्थान पर पंचमहाव्रत स्वीकार कर लिया ।' उसके बाद भगवान् वैशाली आये और अपना चातुर्मास भगवान् ने वैशाली में बिताया ।
१ भगवतीसूत्र सटीक शतक ६, उदेशा ५, पत्र ८०४ -८३७ ।
१६
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३३-वाँ वर्षावास चार प्रकार के पुरुष
वर्षावास के बाद भगवान् ने मगध-भूमि की ओर विहार किया और राजगृह के गुणशिलक-नामक चैत्य में ठहरे ।
यहाँ अन्यतीर्थों के मत के सम्बन्ध में प्रश्न पूछते हुए गौतम स्वामी ने भगवान् से पूछा-'हे भगवन् कुछ अन्य तीर्थक कहते हैं (१) शील श्रेय है । कुछ कहते हैं श्रुत श्रेय है । और, कुछ कहते हैं [शील निरपेक्ष ] श्रुत श्रेय है अथवा [श्रुत निरपेक्ष ] शील श्रेय है ? हे भगवन् ! यह कैसे ?”
भगवान्–“गौतम ! अन्यतीर्थिकों का कहना मिथ्या है । इस सम्बन्ध में मेरा कथन इस प्रकार है । पुरुष चार प्रकार के होते हैं । (१) पुरुष जो शीलसम्पन्न है; पर श्रुतसम्पन्न नही है (२) पुरुष जो श्रुतसम्पन्न है; पर शीलसम्पन्न नहीं है (३) पुरुष जो शीलसम्पन्न भी है और श्रुतसम्पन्न भी है (४) पुरुष जो न शीलसम्पन्न है और न श्रुतसम्पन्न है।
"प्रथम प्रकार का पुरुष जो शीलवान है पर श्रुतवान नहीं है, वह उपरत (पापादि से निवृत्त ) है । पर, वह धर्म नहीं जानता । हे गौतम ! उस पुरुष को मैं देशाराधक (धर्म के अंश का आराधक) कहता हूँ।
__ "दूसरे प्रकार का पुरुष श्रुत वाला है, पर शील वाला नहीं है। वह पुरुष अनुपरत ( पाप से अनिवृत) होता हुआ भी धर्म को जानता है । हे गौतम ! उस पुरुष को मैं देशविरोधक कहता हूँ।
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आराधना
२४३
"तीसरे प्रकार का पुरुष शील वाला भी है और श्रुत वाला भी है। वह पुरुष (पाप से निवृत) उपरत है। वह धर्म का जानने वाला है। उस पुरुष को मैं सर्वाराधक कहता हूँ।
"हे गौतम ! चौथे प्रकार का पुरुष श्रुत और शील दोनों से रहित होता है । वह तो पाप से उपरत नहीं होता है और धर्म से भी परिचित होता है । उनको मैं सर्वविरोधक कहता हूँ।"
आराधना इसके बाद गौतम स्वामी ने पूछा- "हे भगवन् ! आराधना कितने प्रकार की कही गयी है ?"
भगवान्–“आराधना तीन प्रकार की कही गयी है--१ ज्ञानाराधना २ दर्शनाराधना ३ चरित्राराधना।"
गौतम स्वामी-"ज्ञानाराधना कितने प्रकार की है ?"
भगवान्--"ज्ञानाराधना तीन प्रकार की है १ उत्कृष्ट २ मध्यम और ३ जघन्य ।”
गौतम स्वामी--"दर्शनाराधना कितने प्रकार की है ?" भगवान्--"यह भी तीन प्रकार की है।"
गौतम स्वामी--"जिस जीव को उत्कृष्ट ज्ञानाराधना होती है, उसे क्या उत्कृष्ट दर्शनाराधना भी होती है ? जिस जीव को उत्कृष्ट दर्शनाराधना होती है उसे क्या उत्कृष्ट ज्ञानाराधना भी होती है ?"
भगवान्---"हे गौतम! जिस जीव को उत्कृष्ट ज्ञानाराधना होती है, उसे उत्कृष्ट अथवा मध्यम दर्शनाराधना होती है और जिसे उत्कृष्ट दर्शनाराधना होती है उसे उत्कृष्ट अथवा जघन्य ज्ञानाराधना होती है।"
इसके बाद भगवान् ने इनके सम्बन्ध में और भी विस्तृत रूप में
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२४४
तीर्थङ्कर महावीर स्पष्टीकरण किया। उसके बाद गौतम स्वामी ने पूछा--"हे भगवन् ! उत्कृष्ट ज्ञानाराधना का आराधक कितने भवों के बाद सिद्ध होता है ?" ___ भगवान्--"हे गौतम ! कितने ही जीव उसी भव में सिद्ध होते हैं, कितने दो भवों में सिद्ध होते हैं और कितने जीव कल्पोपपन्न (बारहवें देवलोकवासी देव अथवा कल्पातीत' (ग्रैवेयक और अनुत्तरविमान के वासी देव ) देवलोक में उत्पन्न होते हैं।"
गौतम स्वामी-"उत्कृष्ट दर्शनाराधना का आराधी कितने भावों में सिद्ध होता है ?"
भगवान्–“इसका उत्तर भी पूर्ववत् जान लेना चाहिए।"
गौतम स्वामी-"चरित्राधारना का आराधी कितने भवों में सिद्ध होता है ?"
भगवान्-"इसका उत्तर भी पूर्ववत् जान लेना चाहिए; परन्तु कितने ही जीव कल्पातीत देवों में उत्पन्न होते हैं ।”
गौतम स्वामी- "हे भगवन् ! ज्ञान की मध्यम आराधना का आराधी कितने भवों को ग्रहण करने के पश्चात् सिद्ध होता है।"
भगवान्-“वह दो भव ग्रहण करने के पश्चात् सिद्ध होता है । पर, तीसरा भव अतिक्रम करेगा ही नहीं ।” ___ भगवान् ने इसी प्रकार मध्यम दर्शनाराधक और ज्ञानाराधक के बारे में भी अपना मत प्रकट किया ।
१ वैमानिकाः ।१७. कल्पोपपन्ना : कल्पातीताश्च ।१८। उपर्युपरि ।१६। सौधर्मेशान सानत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्मलोकलान्तक महा शुक्र सहस्रारेष्वानत प्राणतयोरारणाच्युत योर्नवसु-ग्रैवेयकेषु विजय वैजयन्त जयन्ताऽपराजितेषु सर्वार्थसिर्वार्थसिद्धे 'च ॥२०॥ तत्त्वार्थसूत्र ४-१ सटीक सिद्धसेनगणि की टीका सहित भाग १, पष्ठ २६६-२६१
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पुद्गल - परिणाम
पुद्गल - परिणाम
गौतम स्वामी - " पुद्गल का परिणाम जाता है ?"
कितने प्रकार का कहा
भगवान् - " हे गौतम ! वह पाँच प्रकार का कहा गया है ।" १ वर्णपरिणाम २ गंधपरिणाम, ३ रसपरिणाम, ४ स्पर्शपरिणाम और ५ संस्थानपरिणाम |
गौतम स्वामी - "हे भगवन् ! वर्णपरिणाम कितने प्रकार का है ?"
भगवान् — “१ कृष्णवर्णपरिणाम, २ नीलवर्णपरिणाम ३ लोहितवर्णपरिणाम, ४ हरिद्रावर्णपरिणाम ५ शुक्लवर्णपरिणाम' । इस प्रकार २ प्रकार का गंध- परिणाम, ५ प्रकार का रसपरिणाम' और ८ प्रकार का स्पर्शपरिणाम जानना चाहिए ।"
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गौतम स्वामी - "हे भगवन् ! संस्थानपरिणाम कितने प्रकार का है ?"
भगवान् -" संस्थान परिणाम पाँच प्रकार का गया है - "१ परिमंडलसंस्थानपरिणाम २ वट्टसंप, ३ तंससंप, ४ चउरंससंप और ५ आयतसंप ।" इसके बाद भगवान् के पुद्गलों के सम्बन्ध में अन्य कितने ही प्रश्नों के उत्तर दिये ।
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१ – इनका उल्लेख समवायांगसूत्र सटीक समवाय २२, पत्र ३६ - १ में भी है । सुविभगंध परिणामे १२, दुब्मिगंधपरिणामे - समवायांग सूत्र स० २२ ३ - १ तित्तर सपरिणामे २ कडुयरसपरिणाम ३ कसायरसपरिणामे, ४ अंबिलरसपरिणामे, ५ महुररसपरिणामे - समवायांग सूत्र समवाय २२
४ -१ कक्खडफासपरिणामे, २ मउयफासपरिणामे, ३ गुरुफासपरिणामे, ४ लहुफासपरिणामे, ५ सीतफासपरिणामे, ६ उसिणफासपरिणामे, ७ द्धिफासपरिणामे, ८ लुक्खफासपरिणामे, ९ अगुरुल हुफासपरिणामे, १० गुरुलहुफासपरिणामे ।
५- भगवतीसूत्र सटीक शतक ८, उ० १० पत्र ७६४-७७८
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२४६
तीर्थङ्कर महावीर उसके बाद गौतम स्वामी ने पूछा--"अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं कि प्राणातिपात मृषावाद यावत मिथ्यादर्शनशल्य में लिप्त प्राणी का जीव अन्य है और जीवात्मा अन्य ?
"इसी प्रकार दुष्ट भावों का त्याग करके धर्म मार्ग में चलने वाले प्राणी का जीव अन्य है और जीवात्मा अन्य ?" इस प्रकार जीव और जीवात्मा की अन्यता सम्बंधी कितने ही प्रश्न गौतम स्वामी ने पूछे । __ भगवान् ने अपने मत का स्पष्टीकरण करते हुए कहा-"अन्यतीर्थकों का यह मत मिथ्या है । जीव और जीवात्मा एक ही पदार्थ हैं।'
फिर गौतम स्वामी ने पूछा-"अन्यतीर्थिक कहते हैं यक्ष के आवेश से आविष्ट केवली भी मृषा अथवा सत्य-मृषा भाषा बोलते हैं ? ___ भगवान्-“अन्यतीर्थकों का यह कहना मिथ्या है। केवल ज्ञानी यक्ष के आवेश से आविष्ट होता ही नहीं। और यक्ष के आवेश से आविष्ट केवली असत्य और सत्यासत्य भाषा नहीं बोलता । केवली पाप-व्यापार हीन और जो दूसरे को उपघात न करे, ऐसी भाषा बोलता है। वह दो भाषा में बोलता है-सत्य और असत्यामृषा' (जो सत्य न हो तो असत्य भी न हो)।
राजगृह से भगवान् ने चम्पा की ओर विहार किया और पृष्ठचम्पा पहुँचे । भगवान् की इसी यात्रा में पिठर, गागलि आदि की दीक्षाएँ हुई।
१-भगवतीसूत्र सटीक श० १७ उद्देशा ३, पत्र १३३२-१३३३ २-भगवतीसूत्र सटीक श० १८ उ०७ पत्र १३७६३-निषष्टिशलाका परुष-चरित्र पर्व १०, सर्ग , श्लोक १७४ पत्र १२४-२ उत्तराध्यायन सटीक, अ० १०, पत्र १५४-१ विस्तृत वर्णन राजाओं वाले प्रकरण में है।
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मदुक और अन्यतीर्थिक
२४७ मद् दुक और अन्यतीर्थिक वहाँ से भगवान् फिर राजगृह आकर गुणशिलक-चैत्य में ठहरे । चैत्य के आसपास कालोदयी-शौलोदायी इत्यादि अन्यतीर्थक रहते थे ।'
उसी राजगृह नगर में मढुक-नामक एक आढ्य रहता था। भगवान् महावीर के आगमन की बात सुनकर मद्दुक भगवान् का वंदन करने राजगृह नगर के बीच में होता हुआ चला । अन्यतीर्थिकों ने मद्दुक को बुला कर पूछा- "हे मद्दुक ! तुम्हारे धर्माचार्य श्रमण ज्ञातपुत्र पाँच अस्तिकाय बताते हैं हे मद्दुक यह किस प्रकार स्वीकार्य हो सकता है ?”
"जो वस्तु कार्य करे तो उसे हम उसके कार्यों से जान सकते हैं । पर, जो वस्तु अपना कार्य न करे उसे हम जान नहीं सकते।"
"हे मद्दुक ! तुम कैसे श्रमणोपासक हो जो तुम पंचस्तिकाय नहीं जानते ?"
"हे आयुष्मन् ! पवन है, यह बात ठीक है न ?” । "हाँ ! पवन है।" "आपने पवन का रूप देखा है ?" "नहीं ! हम पवन का रूप देख नहीं सकते ।” "हे आयुष्मन ! गंध गुण वाला पुद्गल है ?” "हाँ, है।" "हे आयुष्मन ! गंध गुण वाला पुद्गल तुमने देखा है ?" "इसके लिए हम समर्थ नहीं हैं।" । "हे आयुष्मन ! अरणि-काष्ठ के साथ अग्नि है ?''
१- अन्यतीर्थिकों के पूरे नाम भगवतीसूत्र सटीक श० ७ उ०१० पत्र ५६२ में इस प्रकार दिये हैं १-कालोदायो, शैलीदायी, सेवालोदायी, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अन्यपालक, शैलोपालक, शंखपालक, सुहस्ती, गृहपति ।
२-सम्पन्न, वैभवशाली।
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૨૦૦
तीर्थङ्कर महावीर
"हाँ, है ।"
"उस अरणि में रही अग्नि को तुमने देखा है ?" "नहीं, हम उसे देख नहीं सकते । " " आयुष्मन ! समुद्र पार पदार्थ है ?" "हाँ! समुद्र पार भी पदार्थ है । " "क्या आपने समुद्र पार का पदार्थ देखा है ?"
"नहीं, हमने उसे नहीं देखा है । "
"हे आयुष्मन ! देवलोक में रूप है ?"
"हाँ है ।"
"हे आयुष्मन ! देवलोक में रहा पदार्थ तुमने देखा है ?" "नहीं, इसके लिए हम समर्थ नहीं है । 2
"हे आयुष्मान ! इसी प्रकार, मैं या तुम या कोई छद्मस्थ जीव जिस वस्तु को देख नहीं सकते, वह वस्तु है ही नहीं ऐसा नहीं हो सकता । दृष्टिगत न होने वाले पदार्थों को तुम न मानोगे तो तुम्हें बहुत से पदार्थों को ही अस्वीकार करना पड़ा है ।
अन्यतीर्थंकों को निरुत्तर करके मद्दुक गुणशिलक चैत्य में आया ।
उसे सम्बोधित करके भगवान् बोले -- "हे मद्दुक ! तुमने उन अन्यतीर्थकों से ठीक कहा । तुमने उन्हें ठीक उत्तर दिया । जो कोई बिना जाने अथवा देखे अदृष्ट, अश्रुत, अन्वेषण से परे अथवा अविज्ञात अर्थ का, हेतु का अथवा प्रश्न का उत्तर अन्य व्यक्तियों के बीच कहता है अथवा जनाता है, वह अर्हतो का, अर्हत के कहे धर्म का, केवल ज्ञानी का और केवली के कहे धर्म की आशातना करता है ! हे मद्दुक तुमने अन्यतीर्थ को से ठीक कहा । "
भगवान् के इस कथन से मद्दुक बड़ा संतुष्ट हुआ और भगवान् से न अधिक दूर और न अधिक निकट रहकर उसने भगवान् का वंदन किया, नमस्कार किया और पर्युपासना की ।
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मद्दुक और अन्यतीर्थिक
२४६
उसके बाद भगवान् ने मद्दुक श्रमणोपासक और पर्पदा को धर्मोपदेश किया । धर्मोपदेश सुनकर सभी उपस्थित लोग और मद्दुक वापस लौट गये ।
सबके चले जाने के बाद गौतम स्वामी ने भगवान् से पूछा - "भगवन् ! मद्दुक श्रमणोपासक क्या आपके पास प्रव्रज्या लेने के लिए समर्थ है ?"
भगवान् ने कहा - " वह समर्थ नहीं है । वह गृहस्थाश्रम में ही रहकर व्रतों का पालन करेगा और मृत्यु के बाद अरुणाभ विमान' में देवता- रूप से उत्पन्न होगा और अंत में सर्व दुःखों का अन्त करेगा ?१३ भगवान् ने अपना वह वर्षावास राजगृह में बिताया ।
१ - पॉचवें देवलोक का एक विमान ।
२ - भगवती सूत्र सटीक श० १८ उदेशा ७, सूत्र ६३५ पत्र १३८१-१३८६
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३४-वाँ वर्षावास कालोदयी की शंका का समाधान
निकटवर्ती प्रदेशों में विहार कर भगवान् पुनः राजगृह के गुणशिलक चैत्य में आकर ठहरे ।
उस गुणशिलक के निकट ही कालोदायी, शैलोदायी, सेवालोदायी, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अन्यपालक, शैलपालक, शंखपालक, और सुहस्ती-नामक अन्यतीथिकोपासक रहते थे। एक समय वे सभी अन्यतीर्थिक सुख पूर्वक बैठे हुए परस्पर वार्तालाप कर रहे थे--"श्रमण ज्ञातपुत्र (महावीर) पाँच अस्तिकायों की प्ररूपणा करते हैं-धर्मास्तिकाय यावत् आकाशास्तिकाय ।' उनमें श्रमण ज्ञातपुत्र चार आस्तिकायधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय - को आजीवकाय कहते हैं और एक जीवास्तिकाय को वह जीवकाय कहते हैं। उन पाँच अस्तिकायों में चार अस्तिकायों को श्रमण ज्ञातपुत्र अरूपिकाय कहते हैं और एक पुद्गलस्तिकाय को श्रमण ज्ञातपुत्र रूपिकाय और अजीवकाय बताते हैं । इसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है ?"
गुणशिलक-चैत्य में भगवान् का समवसरण हुआ और अंत में परिषदावापस लौटी । उसके बाद भगवान् के शिष्य इन्द्रभूति गौतम भिक्षा के लिए नगर में गये। अन्यतीर्थिकों ने गौतम स्वामी को थोड़ी दूर से जाते हुए देखा । उन्हें देखकर वे परस्पर वार्ता करने लगे- "हे देवानुप्रियो !
१-ठाणांगसूत्र सटीक ठा० ५ उ० २, सूत्र ४४१ पत्र ३३२-२-३३४-१ । समवायांगसूत्र सटीक समवाय ५, पत्र १०-१
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कालोदायी की शंका का समाधान
२५१.
अपने को धर्मास्तिकाय की बात अज्ञात और अप्रकट है । गौतम स्वामी थोड़ी दूर से जा रहे हैं | अतः उनसे इस सम्बन्ध में पूछना श्रेयस्कर है । " सभी ने बात स्वीकार की और वे सभी उस स्थान पर आये जहाँ गौतम स्वामी थे ।
वहाँ आकर उन लोगों ने गौतम स्वामी से पूछा - "हे गौतम, तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र पाँच अस्तिकायों की प्ररूपणा करते हैं । वे उनमें रूपिकाय यावत् अजीवकाय बताते हैं । हे गौतम ! यह कैसे ?”
इस प्रश्न पर गौतम स्वामी ने उनसे कहा - "हे देवानुप्रियो ? हम 'अस्तिभाव' में नास्ति नहीं कहते और नास्तिभाव को अस्ति नहीं कहते । हे देवानुप्रियो ? अस्तिभाव में सर्वथा 'अस्ति' ही कहना चाहिए और नास्तिभाव में 'नास्ति' ही करना चाहिए । अतः हे देवानुप्रियो ? तुम स्वयं इस प्रश्न पर विचार करो ।"
अन्यतीर्थिकों को इस प्रकार कह कर गौतम स्वामी गुणशिलक चैत्य मैं लौटे |
उसके बाद जब भगवान् महावीर विशाल जनसमूह के समक्ष उपदेश देने में व्यस्त थे, कालोदायी भी वहाँ आया । भगवान् महावीर ने कालोदायी को सम्बोधन करके कहा - "हे कालोदायी ! तुम्हारी मंडली में मेरे पंचस्तिकाय प्ररूपणा की चर्चा चल रही थी । पर, हे कालोदायी मैं पंच अस्तिकायों की प्ररूपणा करता हूँ-धर्मास्तिकाय यावत् पुद्गलास्तिकाय | उनमें से चार अस्तिकायों को अजीवास्तिकाय और अजीवरूप कहता हूँ। और पुद्गलास्तिकाय को रूपिकाय कहता हूँ ।"
इसे सुन कर कालोदायी ने कहा - "हे भगवन् ! इस आरूपी अजोवकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और अकाशास्तिकाय पर कोई बैठने, लेटने, खड़े रहने अथवा नीचे बैठने आदि में समर्थ है !"
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२५२
तीर्थङ्कर महावीर भगवान्-"कालोदायी ? केवल एक रूपी अजीवकाय पुद्गलास्तिकाय 'पर ही बैठने आदि की क्रिया हो सकती है । अन्य पर नहीं ।”
कालोदायी-पुद्गलास्तिकाय में जीवों के दुष्ट विपाक कर्म लगते हैं ?"
भगवान्-"नहीं कालोदायिन् ! ऐसा नहीं हो सकता । परन्तु अरुपी जीवस्तिकाय के विषय में पाप फल-विपाक सहित पापकर्म लगता है।"
इस प्रकार भगवान् से उत्तर पाकर कालोदायी को बोध हो गया। उसने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन और नमस्कार किया और बोला"भगवन् ! मैं आपसे विशेष धर्म-चर्चा सुनना चाहता हूँ।”
भगवान् का उपदेश सुनकर कालोदायी स्कंदक की तरह प्रजित हो गया और ११ अंग आदि का अध्याय करके वह विचरने लगा।
उदक को उत्तर राजगृह-नगर के बाहर उत्तर पूर्व दिशा में नालंदा' नाम की बाहिरिका (उपनगर) थी। उसमें अनेक भवन थे । उस नालंदा-नगर में लेप नामक एक धनवान गाथापति रहता था। वह श्रमणोपासक था। नालंदा के ईशान कोण में शेषद्रव्या-नामक उसकी एक मनोहर उदकशाला थी। उसमें कई सौ खंभे थे और वह बड़ी सुन्दर थी। उस उदकशाला के उत्तर-पूर्व में हस्तियाम-नायक वनखंड था। उस वनखंड के आरामागार में गौतम स्वामी (इन्द्रभूति) विहार कर रहे थे। उसी उपवन में पार्श्वनाथ का अनुयायी निर्गथ पार्श्वसंतानीय पेढालपुत्र उदक-नामक निर्गेथ ठहरा था ।
१-भगवती सूत्र शतक ७, उद्देशा १०
२-यह नालंदा राजगृह से १ योजन की दूरी पर बतायी गयी है (सुमंगल विलासिनी १, पृष्ठ ३५) वर्तमान नालंदा राजगृह से ७ मील की दूरी पर है (प्राचीन तीर्थमाला संग्रह, भाग १, भूमिका, पष्ठ १८,१६) यह स्थान बिहार शरीफ से ७ मील दक्षिण-पश्चिम है। ( नालंदा ऐण्ड इट्स एपीग्राफिक मिटीरियल मेमायर्स आव आालाजिकल सर्वे श्राव इंडिया-सं० ६६ पृष्ठ १)
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उदक को उत्तर
२५३ एक बार गौतम स्वामी के पास आकर पेढालपुत्र उदक ने कहा"हे आयुष्मान गौतम ! निश्चय ही कुमारपुत्र' नामके श्रमण-निग्रंथ हैं। वे तुम्हारे प्रवचन को प्ररूपित करने वाले हैं। व्रत-नियम लेने के लिए आये हुए गृहपति श्रमणोपासकों को वह इस प्रकार प्रत्याख्यान कराते हैं-"त्रस प्राणियों को दंड-अर्थात् विनाश-उनका त्याग करे।” इस प्रकार वे प्राणातिपात से विरति कराते हैं। राजादिक के अभियोग के कारण जिन प्राणियों का उपघात होता हो, उनको छोड़कर
( पृष्ठ २५२ का शेषांक पाद टीप्पणी )
३-यहाँ प्राकृत में 'उदगमाला' का प्रयोग हुआ है। जैकोबी ने 'सेक्रेड बुक्ल श्राव द ईस्ट' वाल्यूम ४५ सूत्रकृतांग (पष्ठ ४२० ) में तथा गोपालदास जीवाभाई पटेल ने 'महावीर तो संयम धर्म (सूत्रकृतांग का छायानुवाद ८२, गुजराती पृष्ठ २३२ तथा हिन्दी पृष्ठ १२७) में उदकशाला का अर्थ स्नानगृह किया हैं। अभिधान चिंतामणि सटीक भूमिकांड श्लोक ६७ पृष्ठ ३६६ में 'प्रपा पानीयशाला स्यात्' लिखा है। अर्थात् प्रपा और पानीयशाला समानार्थी है। ऐसा ही उल्लेख अमरकोष सटीक ( व्यंकटेश्वर प्रेस ) पृष्ठ ६५ श्लोक ७ में भी है। रतनचन्द ने अर्द्धमागधी कोष ( भाग २, पृष्ठ २१८ ) पर उसका अर्थ प्याऊ लिखा है। यही अर्थ ठीक है।
४-गोपालदास जीवाभाई पटेल ने प्राकृत शब्द 'हत्थिजामे' से अपने हिन्दी अनुवाद ( पष्ठ १२७) पर 'हस्तिकाम' कर दिया है । 'हस्तिजाम' से हस्तियाम शब्द बनेगा हस्तिकाम नहीं।
१-इस पर टीकाकार ने लिखा है-'निर्गथायुष्मदीय' तुम्हार निर्गथ ( सूत्रकृतांग बाबूवाला पृष्ठ ६६६) भगवान् महावीर के साधु
२-यहाँ मूल शब्द 'उवसंपन्नं' है। इसका अर्थ जैकोबी ने 'सेक्रेड बुक आष द ईस्ट' वाल्यूम ४५ सूत्रकृतांग पष्ठ ४२१ में 'जीलस' लिखा है । टीकाकार ने 'नियमयोत्थित' इसकी टीका की है और दीपिका में 'नियमप्रहणोद्यतं' लिखा है (सूत्रकृतांग बाबूवाला, पष्ठ ६६६,६६५)
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२५४
तीर्थंकर महावीर वह अन्य सब की विरति कराते हैं। तो इस प्रकार स्थूलप्राणातिपात की विरति करते हुए अन्य जोव को उपधात की अनुमति का दोष लगता है ?
"अहो गौतम ! इस प्रकार वाक्यालंकार से त्रस प्राणियों को दंड का निषेध करके प्रत्याख्यान करते हुए दुष्ट प्रत्याख्यान होता है । इस प्रकार प्रत्याख्यान करनेवाले दुष्ट प्रत्याख्यान कराते हैं । इस रूप में प्रत्याख्यान करने वाला श्रावक और प्रत्याख्यान कराने वाले साधु दोनों ही अपनी प्रतिज्ञा का उल्लंघन करते हैं। किस कारण के वशीभूत होकर वह प्रतिज्ञा भंग करते हैं ? अब मैं कारण बताता हूँ। निश्चय ही संसारी जीव जो पृथ्वी, अप, तेज, वायु और वनस्पति-रूप स्थावर जीव हैं, वे कर्म के उदय से त्रस-रूप में उत्पन्न होते हैं। तथा त्रस जो द्विइंद्रियादिक जीव हैं, वे स्थावर-रूप से उत्पन्न होते हैं। स्थावर की काया के बाद त्रस-रूप में और त्रस-काया के बाद स्थावर-रूप में उत्पन्न होते हैं । इस कारण से त्रसजीव स्थावर-रूप में उत्पन्न होने के बाद उन स्थानक त्रसकाय का हनन प्रतिज्ञाभंग है ।
"यदि प्रतिज्ञा इस रूप में हो तो हनन न हो-राजाज्ञा आदि कारण से किसी गृहस्थ अथवा चोर के बाँधने-छोड़ने के अतिरिक्त मैं त्रसभूत जीवों की हिंसा नहीं करूँगा।"
"इस प्रकार 'भूत' इस विशेषण के सामर्थ्य से उक्त दोषापत्ति टल जाती है । इस पर भी जो क्रोध अथवा लोभ से दूसरों को निर्विशेषण प्रत्याख्यान कराते हैं, वह न्याय नहीं है। क्यों गौतम ? मेरी यह बात तुमको ठीक अँचती है न ?”
पेढालपुत्र उदक के प्रश्न को सुनकर गौतम स्वामी ने कहा-"हे आयुष्मान् उदक ! तुमने जो बात कही वह मुझे अँचती नहीं है। जो श्रमणब्राह्मण 'भूत' शब्द जोड़कर त्रस जीवों का प्रत्याख्यान करें', ऐसा कहते
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उदक को उत्तर
२५५ और प्ररूपते हैं, वह निश्चय ही श्रमण-निर्गथं नहीं हैं; कारण कि, वह यह निरति भाषा बोलते हैं-वह अनुतापित भाषा बोलते हैं । और, श्रमण-ब्राह्मणों पर झूठा आरोप लगाते हैं । यही नहीं, बल्कि प्राणी-विशेष की हिंसा को छोड़ने वाले को भी वे दोषी ठहराते हैं; क्योंकि प्राणी संसारी है । और, वे त्रस मिटकर स्थावर होते हैं तथा स्थावरकाय त्रस होते हैं। संसारी जीवों की यही स्थिति है । इस कारण जब वे त्रसकाय में उत्पन्न होते हैं तब त्रस कहलाते हैं और तभी त्रस-हिंसाका जिसने प्रत्याख्यान किया है, उसके लिए वे अघात्य होते हैं।"
फिर उदक ने पूछा-“हे आयुष्मान् गौतम ! आप प्राणी किसे कहते हैं ?"
गौतम-"आयुष्मान उदक ! त्रस-जीव उसको कहते हैं जिनको त्रसरूप पैदा होनेके कर्मफल भोगने के लिए लगे होते हैं । इसी कारण उनको वह नामकर्म लगा होता है। ऐसा ही स्थावर-जीवों के सम्बन्ध में समझा जाना चाहिए । जिसे तुम त्रसभूत प्राण कहते हो उसे मैं 'त्रसप्राण' कहता हूँ और जिसे हम 'त्रसप्राण' कहते हैं, उसे ही तुम त्रसभूत प्राण कह रहे हो । तुम एक को ठीक कहते हो और दूसरे को गलत, यह न्याय-मार्ग नहीं है ?"
__ "कोई एक हल्के कर्म वाला मनुष्य हो, और वह प्रव्रज्या पालने में असमर्थ है, उसने पहले कहा हो कि मैं मुंडित होने में समर्थ नहीं हूँ। गृहवास त्याग कर मैं अनगारपना स्वीकार नहीं कर सकता। पर, वह गृहवास से थक कर प्रवज्या लेकर साधुपना पालता है । पहले तो देशविरति-रूप श्रावक के धर्म का वह पालन करता है और अनुक्रम से पीछे श्रमण-धर्म का पालन करता है । वह इस प्रकार का प्रत्याख्यान करता है और कहता है कि. राजादिक के अभियोग करी त्रस-प्राणी को घात से हमारा व्रत भंग नहीं होगा।
"त्रस मर कर स्थावर होते हैं। अतः त्रस-हिंसा के प्रत्याख्यानी के
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२५६
तीर्थकर महावीर हाथ से उनकी हिंसा होने पर उसके प्रत्याख्यान का भंग हो जाता हैं, तुम्हारा ऐसा कथन ठीक नहीं है, क्योंकि त्रसनामकर्म के उदय से जीव 'त्रस' कहलाते हैं, परन्तु जब उनका 'वस' गति का आयुष्य क्षीण हो जाता हैं और त्रसकाय की स्थिति छोड़कर वे स्थावर-काय में उत्पन्न होते हैं । तब उनमें स्थावर नामकर्म का · उदय होता है और वे स्थावरकायिक कहलाते हैं। इसी तरह स्थावरकाय का आयुष्य पूर्ण कर जब वे त्रसकाय में उत्पन्न होते हैं, तब वे त्रस भी कहलाते हैं, प्राण भी कहलाते हैं। उनका शरीर बड़ा होता है और आयुष्य भी लम्बी होती है।'
उदक-“हे आयुष्मान गौतम ? ऐसा भी कोई समय आ ही सकता है जब सब के सब त्रस-जीव स्थावर रूप ही उत्पन्न हों और त्रस-जीवों की हिंसा न करने की इच्छा वाले श्रमणोपासक को ऐसा नियम लेने और हिंसा करने को ही न रहे !”
गौतम स्वामी-"नहीं। हमारे मत के अनुसार ऐसा कभी नहीं हो सकता; क्योंकि सब जीवों की मति, गति और कृति ऐसी ही एक साथ हो जावे कि वे सब स्थावर-रूप हों उत्पन्न हो, ऐसा सम्भव नहीं है। इसका कारण यह है कि, प्रत्येक समय भिन्न-भिन्न शक्ति और पुरुषार्थ वाले जीव अपने-अपने लिए भिन्न-भिन्न गति तैयार करते हैं, कि जैसे कितने ही श्रमणोपासक प्रव्रज्या लेने की शक्ति न होने से पौषध, अणुव्रत आदि नियमों से अपने लिए शुभ ऐसी देवगति अथवा सुन्दर कुलवाली मनुष्यगति तैयार करते हैं और कितने ही बड़ी इच्छा प्रवृत्ति और परिग्रह से युक्त अधार्मिक मनुष्य अपने लिए नरकादि गति तैयार करते हैं ।
" दूसरे अनेक अल्प इच्छा, प्रवृत्ति और परिग्रह से मुक्त धार्मिक मनुष्य देवगति अथवा मनुष्यगति तैयार करते हैं ; दूसरे अनेक अरण्य में, आश्रमों में, गाँव के बाहर रहने वाले तथा गुप्त क्रियादि साधन करने वाले तामस आदि संयम और विरति को स्वीकार न करके कर्मयोगों में आसक्त और
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२५७
उदक को उत्तर मूर्छित रहकर अपने लिए आसुरी और पातकी के स्थान में जन्म लेने और वहाँ से छूटने पर भी अंधे, बहरे या गूंगे होकर दुर्गति प्राप्त करते हैं।
"और भी कितने ही श्रमणोपासक जिनसे पोषधवत या मरणान्तिक संलेखना जैसे कठिन व्रत नहीं पाले जा सकते, वे अपनी प्रवृत्ति के स्थान की मर्यादा घटाने के लिए सामायिक देशावकाशिव व्रत-धारण करते हैं । इस प्रकार के मर्यादा के बाहर सब जीवों की हिंसा का त्याग करते हैं
और मर्यादा में त्रस-जीवों की हिंसा न करने का व्रत लेते हैं । वे मरने के बाद उस मर्यादा में जो भी त्रस-जीव होते हैं, उनमें फिर जन्म धारण करते हैं अथवा उस मर्यादा में के स्थावर-जीव होते हैं। उस मर्यादा में के त्रस-स्थावर जीव भी आयुष्य पूर्ण होने पर उस मर्यादा में त्रस-रूप जन्म लेते हैं अथवा मर्यादा में के स्थावर जीव होते हैं अथवा उस मर्यादा के बाहर के त्रस-स्तावर जीव उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार मर्यादा के बाहर के त्रस और स्थावर जीव भी जन्म लेते हैं ।
" इस रूप में जहाँ विभिन्न जीव अपने-अपने विभिन्न कर्मों के अनुसार विभिन्न गति को प्राप्त करते रहते हैं, वहाँ ऐसा कैसे हो सकता है कि सब जीव एक समान ही गति को प्राप्त हों ? और, विभिन्न जीव विभिन्न आयुष्य वाले होते हैं इससे वे विभिन्न समय पर मर कर विभिन्न गति प्राप्त करते हैं । इस कारण ऐसा कभी नहीं हो सकता कि, सब एक ही साथ मर कर एक समान ही गति प्राप्त करें और ऐसा अवसर आये कि जिसके कारण किसी को व्रत लेना और हिंसा करना ही न रहे।"
इस प्रकार कहने के पश्चात् गौतम स्वामी ने कहा--" हे आयुष्मान उदक ! जो मनुष्य पापकर्म को त्यागने के लिए ज्ञान-दर्शन-चारित्र प्राप्त करके भी किसी दूसरे श्रमण-ब्राह्मग की झूठी निंदा करता है और वह भले ही उनको अपना मित्र मानता हो, तो भी वह अपना परलोक बिगाड़ता है।" इसके बाद पेढालपुत्र उदक गौतम स्वामी को नमस्कार आदि आदर
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२५८
तीर्थंकर महावीर
दिये बिना जाने लगा । इस पर गौतम स्वामी ने फिर उससे कहा - "हे आयुष्मान् ! किसी भी शिष्ट श्रमण या ब्राह्मण के पास से धर्मयुक्त एक भी वाक्य सुनने या सीखने को मिलने पर अपने को अपनी बुद्धि से विचार करने पर यदि ऐसा लगे कि आज मुझे जो उत्तम योग-क्षेम के स्थान पर पहुँचाया है, तो उस मनुष्य को उस श्रमण-ब्राह्मण का आदर करना चाहिए, उनका सम्मान करना चाहिए, तथा कल्याणकारी मंगलमय देवता के समान उसकी उपासना करनी चाहिए ।
गौतम स्वामी का उपदेश सुनकर पेढालपुत्र उदक बोला- - "इसके पूर्व मैंने ऐसे वचन न सुने थे और न जाने थे । इन शब्दों को सुनकर अब मुझे विश्वास हो गया । मैं स्वीकार करता हूँ कि आपका कथन यथार्थ है ।"
तब गौतम स्वामी ने कहा - "हे आर्य ! इन शब्दों पर श्रद्धा, विश्वास और रुचि कर; क्योंकि जो मैंने कहा है वह यथार्थ है ।"
इस पर पेढालपुत्र ने कहा कि चतुर्यायधर्म के स्थान पर मैं पंचमहाव्रत स्वीकार करना चाहता हूँ । गौतम स्वामी ने उस उदक से कहा - "जिसमें सुख हो, वह करो ।"
तत्र पेढालपुत्र उदक ने भगवान् के पास जाकर उनकी वंदना की और परिक्रमा किया तथा उनका पंचमहाव्रत स्वीकार करके प्रत्रजित हो गया । "
इसी वर्ष जालि, मयालि, आदि अनेक अनगारों ने विपुलाचल पर अनशन करके देह छोड़ा |
अपना यह वर्षावास भगवान् ने नालंदा में बिताया ।
१ - सूत्रकृतांग ( सटीक बाबूवाला) श्रुतस्कंध २, नालंदीयाव्ययन ७, पृष्ठ
६५४-१०२०
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३५-वाँ वर्षावास काल. चार प्रकार के
वर्षा ऋतु पूरी होने पर भगवान् फिर विदेह की ओर चले और चाणिज्य ग्राम में पहुँचे । वाणिज्य ग्राम के निकट द्विपलाश-चैत्य था । उसमें पृथिवीशिलापट्टक था। उस वाणिज्यग्राम-नगर में सुदर्शन-नामक एक श्चेष्ठि रहता था। सुदर्शन बड़ा धनी व्यक्ति था। और, जीवतत्व का जानकार श्रमणोपासक था।
भगवान् महावीर के आगमन का समाचार सुनकर जन समुदाय भगवान् का दर्शन करने चला। भगवान् के आगमन की बात सुनकर सुदर्शन श्रेष्ठि स्नान आदि करके और अलंकारों से विभूषित होकर नगर के मध्य में होता हुआ पाँव-पाँव द्विपलास की ओर चला । द्विपलास-चैत्य के निकट पहुँच कर उसने पाँचो अभिगमों का त्याग किया और भगवान् के निकट जाकर ऋषभदत्त के समान' भगवान् की पर्युपासना की । भगवान् का धर्मोपदेश समाप्त हो जाने पर सुदर्शन सेठ ने भगवान् से पूछा"हे भगवान् काल कितने प्रकार का है ?"
भगवान् – “काल चार प्रकार का है। उनके नाम है.-१प्रमाणकाल' यथायुर्निवृत्ति काल , ३ मरणकाल', ४ अद्धा काल' ।
१ भगवती सूत्र श०६ उ०३३
२-प्रमाण काल को टीका अभयदेव सूरि ने इस प्रकार की है-'प्रमाणकाल' त्ति' प्रमीयते-परिच्छिद्यते येन वर्ष रातादि तत् प्रमाणं स चासौ कालश्चेति प्रमाण
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२६०
तीर्थंकर महावीर सुदर्शन-- "हे भगवान् प्रमाणकाल कितने प्रकार का है ?"
भगवान्- "हे सुदर्शन ! प्रमाणकाल दो प्रकार का है-दिवसप्रमाण काल और रात्रिप्रमाणकाल । चार पौरुषी का दिन होता है और चार पौरुषी की रात्रि होती है। और, अधिक से अधिक साढ़े चार मुहूर्त की पौरुषी दिन की और ऐसी ही रात्रि की होती है । और, कम से कम तीन मुहूर्त की पौरुषी दिन और रात्रि की होती है।
सुदर्शन-"जब अधिक-से-अधिक ४॥ मुहूर्त की पौरुषी दिन अथवा रात की होती है, तो मुहूर्त का कितना भाग घटते-घटते दिन अथवा रात्रि की ३ मुहूर्त की पौरुषी होती है ? और, जब दिन अथवा रात्रि की ३ मुहूर्त की पौरुषी होती है तो मुहूर्त का कितना भाग बढ़ता-बढ़ता ४|| मुहूर्त की पौरुषी दिन अथवा रात्रि की होती है ।
भगवान्–“हे सुदर्शन ! जब दिन अथवा रात्रि में साढ़े चार मुहूर्त की उत्कृष्ट पौरुषी होती है, तब मुहूर्त का १२२-वाँ भाग घटते-घटते दिन अथवा रात्रि की तीन मुहूर्त की पौरुषी होती है। और, जब ३ मुहूर्त की पौरुषी होती है तो उसी क्रम से बढ़ते-बढ़ते ४|| मुहूर्त की पौरुषी होती है ।
सुदर्शन- "हे भगवन् ! किस दिवस अथवा रात्रि में साढ़े चार मुहू
( पष्ठ २५६ की पादटिप्पणि का शेषांष ) काल: प्रमाणं वा परिच्छेदनं वर्षादेस्तत्प्रधानस्तदथों वा काल: प्रमाणकाल:--श्रद्धाकालस्य विशेषो दिवसादि लक्षणः पत्र ६७८
३- अहाउनिन्वत्तिकाले-त्ति यथा-येन प्रकारेणा युषो निवृत्तिः बन्धन तथा यः काल:-अवस्थितिरसौ यथानिवृत्तिकालो-नारकाद्यायुष्कलक्षणः, अयं चाद्धाकाल एवायुः कर्मानुभव विशिष्टः सर्वेषामेव संसारि जीवानां स्यात्
४-'मरणकाले' त्ति मरणेन विशिष्टः काल: मरणकाल:-अद्धाकाल एव, मरणमेव वा कालो मरणस्य काल पर्याय त्वान्मरण काल:
५-'अद्धाकाले' त्ति अद्धा समयादयो विशेषास्तद्र पः कालोऽद्धाकालः चन्द्र सूर्यादि क्रिया विशिष्टोऽर्द्धतृतीयद्वीप समुद्रान्तवती समयादिः पत्र ६७६
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काल चार प्रकार के
.२६१
की उत्कृष्ट पौरुषी होती है ? और, किस दिवस अथवा रात्रि में तीन मुहूर्त की जघन्य पौरुषी होती है ?' ।
भगवान्- "हे सुदर्शन ! जब १८ मुहूर्त का बड़ा दिन और १२ मुहूर्त की छोटी रात्रि होती है, तब ४॥ मुहूर्त को पौरुपी दिन में होती है और ३ मुहूर्त की जवन्य पौरुषी रात्रि में होती है। जब १८ मुहूर्त की रात्रि
और १२ मुहूर्त का दिन होता है तो ४।। मुहूर्त की पौरुषी रात्रि में और ३ मुहूर्त की पौरुषी दिन में होती है।
मुदर्शन - "हे भगवान् ! १८ मुहूर्त का बड़ा दिन और १२ मुहूर्त की रात्रि कत्र होती है ? और १८ मुहूर्त की रात और १२ मुहूर्त का दिन कब होता है। ____ भगवान्-"आषाढ़ पूर्णिमा को १८ मुहूर्त का दिन होता है और १२ मुहूर्त की रात्रि होती है तथा पौष मास की पूर्णिमा को १८ मुहूर्त की रात्रि और १२ मुहूर्त का दिन होता है।
सुदर्शन- "हे भगवान् ! दिन और रात्रि क्या दोनों बराबर होते हैं ?"
भगवान् - "हाँ ।" सुदर्शन-"दिन और रात्रि कब बराबर होते हैं ?''
भगवान्.-"चैत्र पूर्णिमा और आश्विन मास की पूर्णिमा को दिन और रात बराबर होते हैं। तब १५ मुहूर्त का दिन और १५ मुहूर्त की रात्रि होती है । उसी समय ४ मुहूर्त में चौथाई मुहूर्त कम की एक पौरुषी दिन की और उतने की ही रात्रि की होती है।"
सुदर्शन-"यथायुर्निवृत्तिकाल कितने प्रकार का है ?"
भगवान्-"जो कोई नैरयिक, तियचयोनिक, मनुष्य अथवा देव अपने समान आयुष्य बाँधता है और तद्रूप उसका पालन करता है तो उसे - यथायुनिवृत्तिकाल कहते हैं।"
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तीर्थङ्कर महावीर
सुदर्शन - "भगवान् ! मरणकाल क्या है ?"
भगवान् - " शरीर से जीव का अथवा जीव से शरीर का वियोग हो तो उसे मरणकाल कहते हैं । "
२६२
प्रकार का है ?"
सुदर्शन - "हे भगवान् ! अद्धाकाल कितने भगवान् — “अद्धाकाल अनेक प्रकार का कहा गया है । समयरूप, आवलिकारूप, यावत् अवसर्पिणी रूप | ” ( इन सबका सविस्तार वर्णन हम तीर्थंकर महावीर भाग १ पृष्ठ ६ - २० तक कर चुके हैं । )
सुदर्शन - "हे भगवन् ! पत्योपम अथवा सागरोपम की क्या आवश्यकता है ?"
भगवान् — हे सुदर्शन ! नैरयिक, तिर्यचयोनिक, मनुष्य तथा देवों के आयुष्य के माप के लिए इस पत्योपम अथवा सागरोपम की आवश्यकता पड़ती है।"
सुदर्शन - "हे भगवन् ! नैरभिक की स्थिति कितने काल तक की है ?" भगवान् ने इस प्रश्न का विस्तार से उत्तर दिया । '
उसके बाद भगवान् ने सुदर्शन श्रेष्टि के पूर्ववत का वृतांत कहना प्रारम्भ किया
" हे सुदर्शन ! हस्तिनापुर - नामक नगर में बल - नामका एक राजा था । उसकी पत्नी का नाम प्रभावती था। एक बार रात में सोते हुए उसने महास्त्रान देखा कि, एक सिंह आकाश से उत्तर कर मुँह पर प्रवेश कर रहा है । उसके बाद वह जगी और उसने राजा से अपना स्वप्न बताया राजा ने उसके स्वप्न की बड़ी प्रशंसा की फिर राजा ने स्वप्नपाठकों को बुलाया । उन लोगों ने स्वप्न का फल बताया । उचित समय पर पुत्र का जन्म हुआ उसका नाम यह महब्बलनाम पड़ा ( उसके पालन-पोषण
१- प्रज्ञा० पद ४ प० १६८-१७८
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काल चार प्रकार के
२६३ शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था तथा आठ श्रेष्ट कन्याओं के साथ उसके विवाह का विस्तृत विरण भगवती सूत्र में आता है ।)
" उस समय विमलनाथ तीर्थंकर के प्रपौत्र - प्रशिष्य धर्मघोष नामक अनगार थे । वे जाति सम्पन्न थे । यह सब वर्णन केशीकुमार के समान जान लेना चाहिए धर्मघोष पूजा शिष्यों के साथ ग्रामानुग्राम विहार करते हुए हस्तिनापुर नामक नगर में आये और सहस्राम्रवन में ठहरे | "धर्मघोष-मुनि के आगमन का समाचार सुनकर लोग उनका दर्शन करने गये ।
"
"लोगों को जाते देखकर जमालि के समान महन्चल ने बुलाकर भीड़ का कारण पूछा और धर्मोप मुनि के आगमन का समाचार सुनकर महब्बल भी धर्मधोप के निकट गया । धर्मोपदेश की समाप्ति के बाद महब्बल ने दीक्षा लेने का विचार प्रकट किया ।
"घर आकर जब उसने अपने पिता से अनुमति माँगी तो उसके पिता ने पहले तो मना किया पर बाद में उसका एक दिन के लिए राज्याभिषेक किया । उसके बाद महब्बल ने दीक्षा ले ली ।
"महन्बल ने धर्मघोष के निकट १४ पूर्व पढ़े । चतुर्थ भक्त यावत् विचित्र तपकर्म किये । १२ वर्षो तक श्रमण-पर्याय पालकर, मासिक संलेखना करके साठ भक्तों का त्याग करके आलोचना - प्रतिक्रमण करके समाधि पूर्व मृत्यु को प्राप्त कर ब्रह्मलोक कल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ । दस सागरोपम वहाँ बिताकर तुम यहाँ वाणिज्यग्राम में श्रेष्ठि कुल में उत्पन्न हुए । "
यह सब सुनकर सुदर्शन ने दीक्षा ले ली और भगवान् के निकट रहकर १२ वर्षों तक श्रमण पर्याय पाला ।
१ - राज्यस्त्रीय, प ११८-१
२ - भगवतीसूत्र सटीक शतक ११, उद्देशा ११ पत्र ६७७
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तीर्थङ्कर महावीर
उसी समय की कथा कि भगवान् के गणधर इन्द्रभूति भिक्षा के लिए जब बाहर निकले और आनन्द श्रावक को देखने गये । उस समय मरणांतक अनशन स्वीकार करके आनन्द दर्भ की पथारी पर लेटा हुआ । इन्द्रभूति को आनन्द ने अपने अवधिज्ञान की सूचना दी । इन्द्रभूति को इस पर शंका हुई। उन्होंने भगवान् से पूछा । सबका विस्तृत विवरण हमने मुख्य श्रावकों के प्रसंग में है । अपना वह वर्षावास भगवान् ने वैशाली मैं बिताया ।
२६४
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३६-वाँ वर्षावास चिलात साधु हुआ
उस समय कोशलभूमि में साकेत-नामक नगर था । वहाँ शत्रुञ्जयनाम का राजा राज्य करता था। उस नगर में जिनदेव-नाम का एक श्रावक रहता था। दिग्यात्रा करता हुआ वह कोटिवर्ष-नामक नगर में जा पहुँचता। उन दिनों वहाँ चिलात् नाम का राजा राज्य करता था । जिनदेव ने चिलात् को विचित्र मणि-रत्न तथा वस्त्र भेंट किये । उन बहुमूल्य वस्तुओं को देवकर चिलात् ने पूछा-"ऐसे रत्न कहाँ उत्पन्न होते हैं ?"
जिनदेव ने कहा-"ये हमारे देश में उत्पन्न होते हैं ?"
चिलात् ने कहा--"मुझे उस देश के राजा का भय है, अथवा मैं चलकर उस स्थान पर स्वयं रत्नों को देखता।" ।
जिनदेव ने अपने राजा की अनुमति मँगा दी। अतः चिलात साकेत आया।
इसी अवसर पर भगवान महावीर ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साकेत आये। भगवान् के आगमन का समाचार सुनकर सभी दर्शन करने चल पड़े।
शमुंजय-राजा भी बड़ी धूमधाम से सपरिवार भगवान् की वंदना करने गया ।
भीड़भाड़ देवर चिलात् ने पूछा-"जिनदेव, ये लोग कहाँ जा रहे हैं।"
जिनदेव-"रत्नों का व्यापारी आया है।"
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२६६
तीर्थङ्कर महावीर चिलात् भी जिनदेव के साथ भगवान् का दर्शन करने गया और उसने रत्नों के सम्बन्ध में भगवान् से प्रश्न पूछे।
भगवान् ने कहा-"रत्न दो प्रकार के हैं-१ भावरत्न और द्रव्यरत्न ।
फिर चिलात् ने भगवान् से भावरत्न माँगें । और, भगवान् ने उसे रजोहरण आदि दिखलाये ।
इस प्रकार चिलात् प्रव्रजित हो गया।' अपना वह वर्षावास भगवान् वैशाली में बिताया।
१-आवश्यक चूर्णि उत्तरार्द्ध पत्र २०३-२०४ श्रावश्यक हारिभद्रीय ७१५-२-७१६.१. आवश्यक नियुक्ति दीपिका-द्वितीय भाग गा० १३०५ पत्र ११६-२
कोटिवर्ष लाढ़ देश की राजधानी थी। इसके सम्बन्ध में हम सविस्तार तीर्थङ्कर महावीर भाग १ पष्ठ २०२, २११.२१३ पर लिख चुके हैं। यह आर्यदेश में था। इसका उल्लेख जैन-शास्त्रों में जहाँ-जहाँ पाता है, उसे भी हम तीर्थकर महावीर भाग १ पृष्ठ ४२-४६ लिख चुके हैं। श्रमण भगवान् में कल्याण विनयजी ने लिखा है कि महावीर के काल में कोटिवर्ष में किरात जाति का राज्य था । किरात लोग किरात देश में रहते थे ( देखिये ज्ञाताधर्म कथा सटीक भाग १, अ० १, पत्र ४१-१-४५-१ यह किरात देश लाढ़ देश से भिन्न था, ऐसा उल्लेख जैन-शास्त्रों में मिलता है। जैन-शास्त्रों में जहाँ कोटिवर्ष को आर्यदेशों में गिना है, वहाँ किरात अनार्य देश बताया गया है ( प्रवचन सारोद्धार सटीक उत्तरार्द्ध गाथा १५८६ पत्र ४४५.२ प्रश्न व्याकरण सटीक पत्र १३-२ सूत्रकृतांग सटीक पत्र १२२-१)
किरातों का उल्लेख महाभारत में भी आता है (XI, २०७, ४७ ) इनका उल्लेख यवन, काम्बोज, गांधार और बर्बरों के साथ किया गया है। वहाँ यह पाठ आता है :
पुण्ड्रा भर्गा किताश्च सुदृष्टा यमुनास्तथा । शका निषादा निषधाम्तथैवानर्तनै कृताः ॥
(भीष्मपर्व अ० १, श्लोक ४१, ५४ १५) श्रीमद्भागवत (i, ५, १८ ) में भी इसे आर्य क्षेत्र के बाहर बताया गया है। किरात हूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कासा आभीरकका यवनाःखसादयं (भाग १, पृष्ठ १६१)
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३७-वाँ वर्षावास अन्यतीर्थिकों का शंका समाधान
वर्षावास समाप्त करके भगवान् विहार करते हुए राजगृह पहुँचे और गुणशिल ६ चैत्य में ठहरे। उस गुणशिलक चैत्य से थोड़ी ही दूर पर अन्यतीर्थिक रहते थे।
भगवान् महावीर के समवसरण के बाद जब परिषदा विसर्जित हुई तो उन अन्यतीथिकों ने स्थविर भगवंतों से कहा- "हे आर्यो ! तुम त्रिविधत्रिविध से असंयत, अविरत और अप्रतिहत पाप कर्म वाले हो ।” तब स्थविर भगवंतों ने पूछा--"आर्यो ? आप ऐसा क्यों कहते हैं ?” ।
अन्य तीर्थिकों ने कहा-"तुम लोग अदत्त ग्रहण करते हो, अदत्त भोजन करते हो, अदत्त वस्तु का स्वाद लेते हो । अतः अदत्त ग्रहण करने से, अदत्त का भोजन करने से, अदत्त की अनुमति देने से तुमलोग त्रिविधत्रिविध असं यत और अविरत यावत् एकान्त बाल समान हो।” ___तब स्थविर भगवंतों ने पूछा-"आर्यो किस कारण से तुम कहते हो कि हम आदत्त लेते खाते हैं अथवा उसका स्वाद लेते हैं। ____ अन्यतीर्थिकों ने कहा-"आर्यो तुम्हारे धर्म में है--जो वस्तु दी जाती हो वह दी हुई नहीं है (दिज्जमाणे अदिन्ने), ग्रहण करायी जाती हो वह ग्रहण करायी गयी नहीं है (पडिग्गहेज्ज माणे अपडिग्गहिए ), पात्र
भगवतीसूत्र
सटीक शतक ७, उद्देशा २, सूत्र १ में
१-जैसा कि वर्णित है।
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२६८
तीर्थङ्कर महावीर में डाली जाती हो, वह डाली हुई नहीं है (निस्सरिज्जमाणे अणिसिटे)। हे आर्या ! तुम्हे दी जाती वस्तु जब तक तुम्हारे पात्र में नहीं पड़ जाती,
और बीच में से ही कोई उस पदार्थ का अपहरण करले, तो वह गृहपति का पदार्थ ग्रहण करता है, ऐसा कहा जाता है । वह अपहरण करने वाला तुम्हारे पदार्थ का अपहरण नहीं करता, ऐसा माना जाता है । अतः इस रूप में तुम अदत्त ग्रहण करते हो, यावत् अदत्त की अनुमति देते हो । और इस प्रकार अदत्त ग्रहण करने से तुम यावत् एकान्त अज्ञ हो ।
तब भगवंतों ने कहा-" हे आर्यो, हम अदत्त ग्रहण नहीं करते, अदत्त का भोजन नहीं करते, और अदत्त की अनुमति नहीं देते । हे आर्यो ! हम लोग केवल दत्त पदार्थ को ग्रहण करते हैं, दत्त पदार्थ का ही भोजन करते हैं और दत्त की अनुमति देते हैं। इस रूप में हम त्रिविधत्रिविध संयत विरत और पापकर्म का नाश करने वाले यावत् एकान्त पंडित हैं।'
अन्यतीर्थिकों ने कहा-“हे आर्यो ! तुम लोग किस कारण से दत्त को ग्रहण करते हो यावत् दत्त की अनुमति देते हो और दत्त को ग्रहण करते यावत् एकान्त पंडित हो?"
स्थविर भगवंतों ने कहा- "हे आर्यो ! हमारे मत में जो दिया जा रहा है, वह दिया हुआ है (दिज्जमाणे दिन्ने ) जो ग्रहण कराया जा रहा है, वह ग्रहण किया हुआ है (पडिग्गहिज्जमाणे पडिग्गहिए ) जो वस्तु डाली जाती है, वह डाली हुई है (निस्सरिज्जमाणे निसिटे)। हे आर्यो ! दिया जाता हुआ पदार्थ जब तक पात्र में पड़ा न हो, और बीच में कोई अपहरण करे तो वह हमारे पदार्थ का अपहरण कहा जायेगा, गृहपति की वस्तु का अपहरण न कहा जायेगा, इस प्रकार हम दत्त का ग्रहण करते
१-जैसा कि शतक ७ उदेज्ञा ७ सूत्र १ में कहा गया है।
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अन्य तीर्थकों का शंका-समाधान २६६ हैं, दत्त का ही भोजन करते हैं और दत्त की ही अनुमति देते हैं । इस प्रकार हम लोग त्रिविध-त्रिविध संयत् यावत् एकान्त पंडित हैं। पर हे आर्यो ! तुम लोग त्रिविध-त्रिविध असंयत् यावत् एकान्त बाल हो ।”
अन्यतीर्थिकों ने पूछा-"हम लोगों को आप क्यों त्रिविध-विविध यावत् एकान्त बाल कहते हैं ?''
स्थविर भगवन्तों ने कहा--" हे आर्यो ! तुम लोग अदत्त ग्रहण करते हो, अदत्त का भोजन करते हो और अदत्त की अनुमति देते हो । अदत्त को ग्रहण करते हुए यावत् एकान्त बाल हो।”
फिर अन्यतीथिकों ने पूछा- "ऐसा आप क्यों कहते हो ?'
स्थविर भगवन्तों ने कहा-" हे आर्यो ! तुम्हारे मत में दी जाती वस्तु दी हुई नहीं है (दिज्जमाणे अदिन्ने )। अतः वह वस्तु देने वाले की होगी, तुम्हारी नहीं । इस प्रकार तुम लोग अदत्त ग्रहण करने वाले यावत् एकान्त बाल हो।"
फिर अन्यतीर्थिकों ने कहा-"आप लोग त्रिविध-त्रिविध असंयत यावत् एकान्त बाल हैं ?'
स्थविर भगवन्तों ने कारण पूछा तो उन लोगों ने कहा-"आर्यो ! चलते हुए तुम जीव को दबाते हो, हनते हो पदाभिघात करते हो, और दिलष्ट ( संघार्पित) करते हो, संघहित ( स्पर्शित) करते हो, परितापित करते हो, क्लान्त करते हो, इस प्रकार पृथ्वी के जीव को दबाते हुए यावत् मारते हुए तुम त्रिविध त्रिविध असंयत अविरत और यावत् एकान्त बाल समान हो।
तब स्थविर भगवंतों ने अन्यतीर्थिकों से कहा--" हे आर्यो ! गति करते हुए हम पृथ्वी के जीव को दबाते नहीं हैं, हनन नहीं करते हैं यावत् मारते नहीं है । हे आर्यों ! गति करते हम शरीर के कार्य के आश्रयी, योग
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तीर्थकर महावीर के आश्रयी और सत्य के आश्रयी एक स्थल से दूसरे स्थल पर जाते हैं । एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाते हैं । एक स्थल से दूसरे स्थल पर जाते हुए हम पृथ्वी के जीवों को दबाते अथवा हनन नहीं करते हैं। इस प्रकार हम त्रिविध-त्रिविध संयत् यावत् एकान्त पंडित हैं। पर, आप लोग त्रिविधत्रिविध असंयत् यावत् एकान्त बाल हैं।”
ऐसा कहे जाने का कारण पूछने पर स्थविर भगवन्तों ने कहा--"तुम लोग पृथ्वी के जीवों को दबाते ही यावत् मारते हो। इस प्रकार भ्रमण करने से तुम लोग त्रिविध-त्रिविध यावत् एकान्त बाल हो ।
अन्यतीर्थिकों ने कहा-"तुम्हारे मत से गम्यमान अगत, व्यतिक्रम्य माण अव्यतिक्रान्त और राजगृह को संप्राप्त होने का इच्छुक असंप्राप्त है । ___ इस पर स्थविर भगवन्तों ने कहा--"हमारे मत से गभ्यभान अगत, व्यतिक्रम्यमाण अव्यतिक्रान्त और राजगृह को संप्राप्त करने की इच्छा वाला, असंप्राप्त नहीं कहे जाते । बल्कि, हमारे मत के अनुसार जो गभ्यमाण वह गत ( गएमाणे गए), व्यतिक्रम्यमाण वह व्यतिक्रान्त ( वीतिकमिज्जमाने वीविक्कं ते ) और राजगृह प्राप्त करने की इच्छावाला संप्राप्त कहलाता है । तुम्हारे मत के अनुसार गम्यमान वह अगत (गम्ममाणे अगए), व्यतिक्रम्यमाण वह अव्यतिक्रान्त (वीतिक मजमाणे अवीतिकंते) और राजगृह पहुँचने की इच्छावाले को असंप्राप्त कहते हैं।"
इस प्रकार अन्यतीर्थिकों को निरुत्तर करके उन लोगों ने गतिप्रपानामक अध्ययन रचा ।
गतिप्रपात कितने प्रकार का
गौतम स्वामी ने भगवान् से पूछा- "हे भगवन् ! गतिप्रपात कितने प्रकार का है ?' इस पर भगवान् ने उत्तर दिया--
"गतिप्रपात पाँच प्रकार का कहा गया है।"
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कालोदायी की शंका का समाधान २७१ १-प्रयोगगति, २ ततगति, ३ बंधनछेदनगति, ४ उपपातगति, ५ विहायोगगति
यहाँ से प्रारम्भ करके सम्पूर्ण प्रयोगपद भगवान् ने इसी अवसर पर कहा ।
कालोदायी की शंका का समाधान उसी समय एक दिन जब भगवान् का धर्मोपदेश समाप्त हो गया और परिपदा वापस चली गयी तो कालोदायी अनगार ने भगवान् के निकट आकर उन्हें वंदन नमस्कार किया और पूछा- "हे भगवन् ! जीवों ने पापकर्म पापविपाक ( अशुभं फल ) सहित होता है ?''
भगवान्-"हाँ !”
कालोदायी-- "हे भगवन् ! पापकर्म अशुभ फल विपाक किस प्रकार होता है ?"
भगवान्- "हे कालोदायी जैसे कोई पुरुष सुन्दर थाली में राँधे हुए परिपक अठारह प्रकार के व्यंजनों से युक्त विष मिश्रित भोजन करे,
१-यहाँ भगवती सूत्र १०८ उ. ७ सूत्र ३३७ पत्र ६६७ में पाठ है-विहायोगती एतो आरम्भ पयोगपयं निरवसेसं भाणियव्व जाव सत्तं विहायगई। यह पूरा पाठ प्रज्ञापना सूत्र सटोक १६ प्रयोग पद सूत्र २०५, पत्र ३२५-२ से ३२७-२ में आता है । प्रज्ञापन में के प्रथम भेद प्रयोगगति १५ के भेद बताये गये हैं। उन १५ भेदों का उल्लेख समवायांगसूत्र सटीक, समवाय १५ पत्र २७-२ में भी पाता है। पूर्व प्रयोग का अर्थ है-"पूर्वबद्ध कर्म के छूट जाने के बाद भी उससे प्राप्त वेग।" 'गतिप्रपात' की टीका करते हुए भगवती की टीका में अभयदेव सरि ने लिखा है-"गतिः प्रोद्यतेप्रमप्यते यत्र तद् गतिप्रवादं-गतेर्वा प्रवृत्तेः क्रियायाः प्रपातः प्रपतनं सम्भवः प्रयोगादिष्वर्थेषु वर्तनं गतिप्रपात स्तत्प्रतिपादकमध्ययन गतिप्रपातं तत् प्रज्ञापितवन्तो प्रस्तावादिति।
२-भगवती सूत्र सटीक शतक ८ उद्दश्य ७
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२७२
तीर्थङ्कर महावीर तो वह भोजन प्रारम्भ में अच्छा लगता है पर उसके बाद उसका परिणाम' बुरा होता है। इसी प्रकार हे कालोदायी ! जीवों का पापकर्म अशुभफल संयुक्त होता है !"
__ कालोदायी- "हे भगवन् ! जीवों का शुभकर्म क्या कल्याणफलविपाक संयुक्त होता है ।”
भगवान्-"हाँ !"
कालोदायी---''जीवों के शुभकर्म कल्याणफलविपाक किस प्रकार होते हैं ?
भगवान् --"कालोदायी । जैसे कोई पुरुष सुन्दर थाली में राँधे हुए अठारह प्रकार के व्यंजन औषधि मिश्रित करे तो प्रारम्भ में वह भोजन अच्छा नहीं लगता पर उसका फल अच्छा होता है। उसी प्रकार शुभकर्म कल्याणफलविपाक युक्त होते हैं ।
"हे कालोदायी! प्राणातिपातविरमण यावत् परिग्रहविरमण क्रोध यावत् मिथ्यादर्शनशल्य का त्याग प्रारम्भ में अच्छा नहीं लगता पर उसका फल शुभ होता है। ____ कालोदायी-"एक समान दो पुरुष समान भांड-पात्रादि उपकरण वाले हों, तो दोनों परस्पर साथ अग्निकाय का समारंभ (हिंसा) करें, उनमें एक पुरुष अग्निकाय प्रकट करे और दूसरा उसे बुझाये तो इन दोनों पुरुषों में कौन महाकर्मवाला, महाक्रियावाला, महाआश्रयवाला और महावेदना वाला होगा और कौन अल्पकमवाला यावत् अल्पवेदना वाला होगा?"
भगवान्-"कालोदायी ! इन दोनों व्यक्तियों में आग का जलाने वाला महाकर्मवाला यावत् महावेदना वाला है और जो आग को बुझाता है वह अल्पकर्मवाला यावत् अल्पवेदनावाला है।
१ भगवती सूत्र की टीका में अभयदेव मूरि ने १८ प्रकार के व्यंजन गिनाये हैं-पत्र ५६७
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कालोदायी का शंका-समाधान
२७३
कालोदायी — “हे भगवन् ! ऐसा आप किस प्रकार कह रहे हैं ?" भगवान् -- "हे कालोदायी ! जो पुरुष अग्नि प्रदीप्त करता है, वह पुरुष बहुत से पृथिवीकाय का समारंभ करता है थोड़ा अग्निकाय का समारंभ करता है, बहुत से वायुकाय का समारंभ करता है, बहुत से वनस्पति काय का समारंभ करता है और बहुत से त्रस्काय का समारंभ करता है । और, जो आग को बुझाता है, वह थोड़े पृथ्वीकाय यावत् थोड़ा सकाय का समारंभ करता है । इस कारण मैं कहता हूँ कि आग बुझाने वाला अल्पवेदना वाला होता है ।
कालोदायी — “हे भगवान् ! क्या उचित पुल अवभास करता है, उद्योत करता है, तपता है और प्रकाश करता है ?"
भगवान् - "हे कालोदायी ! हाँ इस प्रकार है
"
कालोदायी – “हे भगवन् ! अचित्त होकर भी पुद्गल कैसे अवभास करता है यावत् प्रकाश करता है ?"
भगवान् — “हे कालोदायी ! क्रुद्ध हुए साधु की तेजोलेश्या निकल कर - दूर पड़ती है । जहाँ-जहाँ वह पड़ती है, वहाँ वहाँ वह अचित्त पुद्गल अवभास करे यावत् प्रकाश करे । इस प्रकार यह अचित्त पुद्गल अवभास करता है यावत् प्रकाश करता है ।"
कालोदायी ने भगवान् का विवेचन स्वीकार कर लिया । बहुत से चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम उपवास करते हुए अपनी आत्मा को वासित करते हुए अंत में कालोदायी कालासबेसियपुत्र की तरह सर्व दुःख रहित हुआ ।
इसी वर्ष प्रभास गणधर ने गुणशिलक चैत्र में एक मास का अनशन करके निर्वाण प्राप्त किया ।
यह वर्षावास भगवान् ने राजगृह में बिताया ।
१ - भगवतीसूत्र सटीक शतक ७, उ० १० सूत्र
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३८-वाँ वर्षावास पुद्गल-परिणामों के सम्बन्ध में
वर्षावास के पश्चात् भगवान् गुणशिलक चैत्य में ही ठहरे थे कि, एक दिन गौतम स्वामी ने भगवान् से पूछा- "हे भगवन् ! अन्यतीर्थिक कहते हैं कि, ('एवं खलु चलमाणे अचलिए' यावत् 'निजरिजमाणे अणिजिने' ) जो चलता है, वह चला हुआ नहीं कहलाता और जो निर्जराता हो वह निर्जरित नहीं कहलाता है।
"दो परमाणु-पुद्गल परस्पर चिमटते नहीं; क्योंकि उनमें स्निग्धता का अभाव होता है।
"तीन परमाणु-पुद्गल परस्पर एक-दूसरे से चिमटे हैं क्योंकि उनमें स्निग्धता है । यदि उन तीन परमाणु-पुद्गलों का भाग करना हो तो उसका दो या तीन भाग हो सकता है। यदि उनका दो भाग किया जाये तो एक ओर डेढ़ और दूसरी ओर डेढ़ परमाणु होंगे और यदि तीन भाग किया जाये तो हर भाग में एक-एक परमाणु होगा । इसी प्रकार ४ परमाणु पुद्गल के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए।
“पाँच परमाणु-पुद्गल एक दूसरे से चिमटते हैं और दुःख का रूप धारण करते हैं । वह दुःख शाश्वत है और सदा पूर्णरूप से उपचय प्राप्त करता है तथा अपचय प्राप्त करता है। ___ "बोलने के समय से पूर्व जो भाषा का पुद्गल है वह भाषा है । बोलने के समय की जो भाषा है, वह अभाषा है। बोलने के समय के पश्चात् जो (भाषा) बोली जा चुकी है, वह भाषा है ।
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पुद्गल परिणामों के सम्बन्ध में
२७५
" अतः बोलने से पूर्व की भाषा भाषा है, बोले जाने के समय की भाषा अभाषा है और बोले जाने के पश्चात् की भाषा भाषा है ।
"जिस प्रकार पूर्व की भाषा भाषा है, बोली जाती भाषा अभाषा है, और बोली गयी भाषा भाषा है, तो क्या बोलते पुरुष की भाषा है या अनबोलते पुरुष की भाषा है । इसका उत्तर अन्यतीर्थिक देते हैं कि अनबोलते की भाषा भाषा है पर बोलते पुरुष की भाषा भाषा नहीं है ।
" जो पूर्व की क्रिया है, वह दुःखहेतु है । जो क्रिया की जा रही है, वह दुःख हेतु नहीं है । की गयी क्रिया अकारण से दुःख हेतु है, कारण से यह दुःख हेतु नहीं है ।
1
"अकृत्य दुःख है, अस्पृश्य दुःख है और अक्रियमाणकृत दुःख है । उनको न करके प्राण का, भूत का, जीव का और सत्व वेदना का वेद है । अन्यतीर्थिकों का इस प्रकार का मत है । "
1
प्रश्नों को सुनकर भगवान् बोले - " हे गौतम! अन्यतीर्थिकों की बात ठीक नहीं है । मैं कहता हूँ 'चले माणे चलिए जाव निजरिज्जमाणे निज्जिन्ने' जो चलता है वह चला हुआ है यावत् जो निर्जरित होता है, वह निर्जरित है ।
"दो परमाणु- पुद्गल एक-एक परस्पर चिमट जाते हैं । इसका कारण यह है कि दोनों में स्निग्धता होती है। उनका दो भाग हो सकता है । यदि उसका दो भाग किया जाये तो एक ओर एक परमाणु- पुद्गल और दूसरी ओर एक परमाणु- पुद्गल आयेगा |
"तीन परमाणु- पुद्गल एक-एक परस्पर चिमट जाते हैं । इसका कारण है कि उनमें स्निग्धता होती है । उन तीन पुद्गल के दो या तीन भाग हो सकते हैं । यदि उनका दो भाग किया जाये तो एक ओर एक परमाणुपुद्गल होगा और दूसरी ओर दो प्रदेश वाला एक स्कंध होगा । और, यदि उसका तीन भाग किया जाये तो एक-एक परमाणु पुद्गल पृथक-पृथक हो
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२७६
तीर्थङ्कर महावीर
जायेगा । इसी प्रकार चार परमाणु-पुद्गलों के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिए ।
"पाँच परमाणु- पुद्गल परस्पर चिपट कर एक स्कन्ध रूप बन जाता है । पर वह स्कंध अशाश्वत है और सदा भली प्रकार उपचय प्रातः करता है ।
भाषा सम्बन्धी स्पष्टीकरण
" पूर्व की भाषा अभाषा है । बोलती भाषा ही भाषा है और बोली जाने के पश्चात् ' भाषा अभाषा है । बोलते पुरुष की भाषा ही भाषा है । अनबोलते की भाषा भाषा नहीं है ।
1
" पूर्व की क्रिया दुःख हेतु नहीं है । उसे भी भाषा के समान जान लेना चाहिए ।
" कृत्य दुःख है, स्पृश्य दुःख है, क्रियमाणकृत्य दुःख है, उसे करके प्राण, भूत, जीव और सत्व वेदना का वेद है । ऐसा कहा जाता है । जीव एक ही क्रिया करता है ।
फिर, गौतम स्वामी ने पूछा - "हे भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं कि, एक जीव एक समय में दो क्रियाएं करता है । वह ऐर्यापथिकी और सांपरायिकी दोनों करता है । जिस समय वह ऐर्यापथिकी करता है उसी समय सांपरायिकी भी करता है । जिस समय सांपरा यिकी क्रिया करता है उसी समय वह ऐर्यापथिकी भी करता है । हे भगवान् यह किस प्रकार है ?"
भगवान् – “हे गौतम ! अन्यतीर्थिकों का इस प्रकार कहना मिथ्याः
१ भाष्यते प्रोच्यते इति भाषा वचने 'भाष' व्यक्ताव्यां वाचि इति वचनान् -- भगवती १३-४
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भाषा सम्बन्धी स्पष्टीकरण
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है । मैं ऐसा कहता हूँ कि जीव एक समय में एक ही क्रिया करता है ऐर्यापथिकी अथवा सांपरायिकी क्रिया ।
फिर गौतम स्वामी ने पूछा - "हे भगवन् ! अन्यतीर्थिक कहते हैं कि कोई निर्गथ मरने के बाद देव होता है । वह देव अन्य देवों के साथ कि अन्य देवों की देवियों के साथ परिचारण ( विषय सेवन ) नहीं करता है | वह अपनी देवियों को वश में करके उनके साथ भी परिचारण नहीं करता। पर, वह देव अपना ही दो रूप धारण करता है—उसमें एक रूप देवता का और दूसरा रूप देवी का होता है । इस प्रकार वह ( कृत्रिम ) देवी के साथ परिचारण करता है । इस प्रकार एक जीव एक ही काल में दो वेदों का अनुभव करता है । वह इस प्रकार है - पुरुष वेद' और स्त्रीवेद । हे भगवन् यह कैसे ?"
इस पर भगवान् ने कहा- -"अन्यतीर्थिकों का इस प्रकार कहना मिथ्या है । हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, भाषता हूँ, जनाता हूँ और प्ररूपता हूँ कि कोई निर्गन्थ मरने के बाद एक देवलोक में उत्पन्न होता है । वह देवलोक बड़ी ऋद्धिवाला यावत् बड़े प्रभाववाला होता है । ऐसे देवलोक में जाकर वह निर्गथ बड़ी ऋद्धिवाला, दशों दिशाओं में शोभा पाने वाला होता है । वह देव वहाँ देवों के साथ तथा अन्य देवों की देवियों के साथ ( उनको वश में करके ) परिचारण करता है । अपनी देवी को वश में करके उसके साथ परिचारण करता है । अपना ही दो रूप बनाकर परिचारण नहीं करता ( कारण कि ) एक जीव एक समय में एक ही वेद का अनुभव करता है - स्त्रीवेद का या पुरुषवेद का । जिस समय वह स्त्रीवेद का अनुभव करता है, उस समय पुरुषवेद
१ भगवतीसूत्र शतक १ उद्देश १० सूत्र ८१-८२ पत्र १८१ - १८६
२ कवि णं भंते । वेए प० । गोयमाः तिविहे वेए प० त० इत्थी वेए पुरिस्सवेए नपुंसवेए... - समवायांग स० १५३ पत्र १३१–१
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२७८
तीर्थंकर महावीर
का अनुभव नहीं करता और जिस समय पुरुषवेद का अनुभव करता है, उस समय स्त्रीवेद का अनुभव नहीं करता । '
" पुरुषवेद के उदयकाल में पुरुष स्त्री की और स्त्रीवेद के उदयकाल में स्त्री पुरुष की प्रार्थना करता है ।
इसी वर्ष अचलभ्राता और मेतार्य ने गुणशिलक चैत्य में अनशन करके निर्वाण प्राप्त किया ।
इस वर्ष का वर्षावास भगवान् ने नालंदा में बिताया ।
-' ० :
१- भगवती सूत्र सटीक शतक सूत्रह९ पत्र २३२–२३३
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३६ - वाँ वर्षावास
ज्योतिष-सम्बंधी प्रश्न
नालंदा में चातुर्मास समाप्त होने के बाद, ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भगवान् विदेह पहुँचे । यहाँ जितशत्रु-न [-नामक राजा राज्य करता था । मिथिला नगर के बाहर मणिभद्र चैत्य था ।' वहीं भगवान् का समवसरण हुआ । राजा जितशत्रु और उसकी रानी धारिणी भगवान् की वंदना करने गये ।
सभा-विसर्जन के बाद इन्द्रभूति गौतम ने भगवान् से ज्योतिष सम्बंधी प्रश्न पूछे
( १ ) सूर्य प्रतिवर्ष कितने मंडलों का भ्रमण करता है ? ( २ ) सूर्य तिर्यग्भ्रमण कैसे करता है ?
( ३ ) सूर्य तथा चन्द्र कितने क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं ?
( ४ ) प्रकाशक का अवस्थान कैसा है ?
( ५ ) सूर्य का प्रकाश कहाँ रुकता है ?
( ६ ) ओजस् ( प्रकाश ) की स्थिति कितने काल की है ?
( 3 ) कौन से पुद्गल सूर्य के प्रकाश का स्पर्श करते हैं ? ( ८ ) सूर्योदय की स्थिति कैसी है ?
१ -- तीसे गं मिहिलाएं नयरीस बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए एत्थं गं मणि, भदुदं णामं चेइए - सूर्य प्रज्ञप्ति सटीक पत्र १-२
२ - तीसे
मिहिलाए जियसत्त राया, धारिणी देवी - वही पत्र १-२
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२८०
तीर्थकर महावीर (९) पौरुषी छाया का क्या परिणाम है ? (१०) योग किसे कहते हैं ? (११) संवत्सरों का प्रारम्भ कहाँ से होता है ? (१२) संवत्सर कितने कहे गये हैं ? (१३) चंद्रमा की वृद्धि हानि क्यों दिखती हैं ? (१४) किस समय चाँद की चाँदनी बढ़ती है ?
(१५) सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारा इनमें शीघ्र गति कौन है ?
( १६ ) चाँद की चाँदनी का लक्षण क्या है ? । (१७) चन्द्रादि ग्रहों का च्यवन और उपपात कैसे होता है ? (१८) भूतल से चन्द्र आदि ग्रह कितने ऊँचे हैं ? ( १९) चन्द्र सूर्यादि कितने हैं ? (२०) चन्द्र सूर्यादि क्या हैं ?
भगवान् महावीर ने गौतम स्वामी के इन प्रश्नों का सविस्तार उत्तर दिया उसका पूरा उल्लेख सूर्यप्रज्ञप्ति तथा चन्द्रप्रज्ञप्ति में है।
अपना वह वर्षावास भगवान् ने मिथिला में विताया ।
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४०-वाँ चातुर्मास भगवान् विदेह-भूमि में
चातुर्मास के बाद भगवान् विदेह-भूमि में ही विचरते रहे। और अपना वह वर्षावास भी भगवान् ने मिथिला में ही बिताया ।
४१-वाँ वर्षावास
महाशतक का अनशन
चातुर्मास्य की समाप्ति के बाद ग्रामानुग्राम विहार करते हुर भगवान् राजगृह पधारे और गुणशिलक-नामक चैत्य में ठहरे । ___ राजगृह निवासी श्रमणोपासक महाशतक इस समय अपनी अंतिम आराधना करके अनशन किये हुए था। उसकी स्त्री रेवती उसका वचन भंग करने गयी। इसकी सारी कथा विस्तार से हमने श्रावकों के प्रकरण मैं लिखा है।
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तीर्थंकर महावीर
गरम पानी का हृद
उसी समय गौतम इन्द्रभूति ने भगवान् से पूछा - "हे भगवन् ! अन्यतीर्थिक कहते हैं कि राजगृह नगर से बाहर वैभार पर्वत के नीचे एक पानी का विशाल हृद है । वह अनेक योजन लम्बा तथा चौड़ा है । उस हृद का सम्मुख भाग अनेक प्रकार के वृक्षों से सुशोभित है । उस हद में अनेक उदार मैत्र सस्वेद करते हैं, संमूर्च्छित होते हैं और बरसते हैं । इसके अतिरिक्त उसनें जो अधिक जलसमूह होता है, वही उष्ण जलस्रोतों के रूप में निरन्तर बहता रहता है । क्या अन्यतीर्थिकों का कहना सत्य है ? भगवान् - " गौतम ! अन्यतीर्थिकों का कहना सत्य नहीं है । वैभारगिरि के निकट 'महातपोप तीर प्रभव' नामक प्रस्रवण ( झरना ) है । उसकी लम्बाई-चौड़ाई ५०० धनुष है । उसके आगे का भाग अनेक प्रकार के वृक्षों से सुशोभित है । उस झरने में अनेक उष्णयोनिवाले जीव और पुद्गल पानी -रूप में उत्पन्न होते हैं, नाश को प्राप्त होते हैं, च्यवते. हैं और उपचन प्राप्त करते हैं । उसके उपरान्त उस झरने में से सदा गरम पानी का झरना गिरा करता है । हे गौतम ! यह महातपोपतीरप्रभव-नामक झरना है ।
गौतम स्वामी ने यह सुनकर कहा - "भगवन् ! वह इस प्रकार है ।" और उनकी वन्दना की ।
२८२
-
१ — भगवतीसूत्र सटीक शतक २, उद्देशा ५, सूत्र ११२ पत्र २५० । वैभारगिरि के निकट गरम पानी का उल्लेख ह्वायानच्वांग ने अपनी यात्रा में भी किया है ( देखिए टामस वार्टस-लिखित 'आन युवान् च्यांग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग २, पृष्ठ १४७-१४८ ) बौद्ध ग्रंथों में तपोदाराम का उल्लेख आता है । बुद्धघोष ने लिखा है कि यह शब्द तपोद ( गरम पानी ) से बना है, जिसके तट पर वह आराम था (राजगृह इन ऍशेंट लिटरेचर, ला- लिखित, पृष्ठ ५) डिक्शनरी आव पाली प्रापर नेम्स भाग १ पृष्ठ ६६२-६६३ पर भी इनका वर्णन है । ये गरम पानी के झरने अब तक हैं (देखिए गदाधर प्रसाद अम्बष्ट - लिखित 'विहार दर्पण, पृष्ठ २३६ )
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श्रयुण्य कर्म-सम्बन्धी स्पष्टीकरण
आयुष्य कर्म-सम्बन्धी स्पष्टीकरण
एक बार गौतम स्वामी ने पूछा - "हे भगवन् ! अन्यतीर्थिक कहते हैं कि जैसे कोई एक जाल हो, उस जाल में एक क्रमपूर्वक गाँठें लगी हों, उसी के समान अनेक जीवों को अनेक भव-संचित आयुष्यों की रचना होती है । जिस प्रकार जालमें सब गाँठें नियत अंतर पर रहती हैं और एक दूसरे से सम्बन्धित रहती हैं, उसी तरह सब आयुष्य एक दूसरे से नियत अंतर पर होते हैं । इनमें से एक जीव एक समय में दो आयुष्यों को अनुभव करता है— इहभविक और पारभविक ! जिस समय वह इस भव का आयुष्य का अनुभव करता है, उसी समय वह पारभविक का भी अनुभव करता है । अन्यतीर्थिकों का कथन क्या ठीक है ?"
भगवान् — “गौतम ! अन्यतीर्थिक जो कहते हैं, वह असत्य है । इस सम्बन्ध में मैं कहता हूँ कि, जैसे कोई जाल यावत् अन्योन्य समुदायपने रहता है, इस प्रकार क्रम करके अनेक जन्मों के साथ सम्बन्ध धारण करने वाला एक-एक जीव ऊपर की श्रृंखला की कड़ी के समान परस्पर क्रम करके गुँथा हुआ होता है और ऐसा होने से एक जीव एक समय एक आयुष्य का अनुभव करता है । वह इस प्रकार है-वह जीव इस भव के आयुष्य का अनुभव करता है, अथवा परभव के आयुष्य का अनुभव करता है । जिस समय वह इस भव के आयुष्य का अनुभव करता है, उस समय वह परभव के आयुष्य का अनुभव नहीं करता और जिस समय वह परभव के आयुष्य का अनुभव करता है, उस समय वह इस भव के आयुष्य का अनुभव नहीं करता । इस भव का आयुष्य वेदने के समय परभव का आयुष्य वह नहीं वेदता ।'
मनुष्यलोक में मानव बस्ती
गौतम स्वामी ने भगवान् से पूछा - "हे भगवन् ! अन्य तीर्थिक
१ - भगवती सूत्र सटीक, शतक ५, उद्देशा ३ पत्र ३८५
२८३.
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२८४
तीर्थकर महावीर कहते हैं कि जैसे कोई युवा किसी युवती का हाथ अपने हाथ में ग्रहण करके खड़ा हो अथवा आरों से भिड़ी हुई जिस प्रकार चक्र-नाभि हो वैसे यह मनुष्य-लोक ४००-५०० योजन तक मनुष्यों से भरा हुआ है। भगवान् ! अन्यतीर्थिकों का कथन क्या सत्य है ?" __ भगवान् - "गौतम ! अन्यतीथिकों की मान्यता ठीक नहीं है। ४००-५०० योजन पर्यन्त नरक लोक-नारक जीवों से भरा है।"
गौतम स्वामी-"हे:भगवन् ! नैरयिक एक रूप विकुर्वता है या बहुरूप विकुर्वन में समर्थ है ?"
भगवान्- "इस सम्बन्ध में जैसा जीवाभिगम' सूत्र में कहा है, उस रूप में जान लेना चाहिए।
सुख-दुःख परिणाम गौतम स्वामी-“हे भगवान् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं कि, इस राजगृह-नगर में जितने जीव हैं, उन सबके सुखों और दुःखों को इकट्ठा करके, बेर की गुठली, वाल कलम (चावल) उड़द, मूंग, जॅ अथवा लीख जितने परिणाम में भी कोई बताने में समर्थ नहीं है। ___ भगवान्--"गौतम ! अन्य तीर्थकों का उक्त कथन ठीक नहीं है । मैं तो कहता हूँ सम्पूर्ण लोक में सब जीवों का सुख-दुःख कोई दिखला सकने में समर्थ नहीं है ?"
गौतम-"ऐसा किस कारण ?"
१-जीवाभिगम सूत्र सटीक सूत्र ८६ पत्र ११६-२, ११७-१ २-भगवतीसूत्र सटीक श० ५, उ० ६, सूत्र २०८ पत्र ४१६
३-यहाँ मूलपाठ है-'कलमायवि'- कलम चावल हैं । भगवती के अपने अनुवाद में बेचरदास ने [ भाग २, प ष्ठ ३४३ ] कलाय के चोखा लिखा है। भगवान् महावीर में कल्याणविजय ने भी कलाय लिखा है। कलम चावल है पर कलाय गोलचना हैं। इस पर अन्नों वाले विवरण में हम विचार कर चुके हैं।
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एकान्त दुःखवेदना-सम्बन्धी स्पष्टीकरण २८५ भगवान्- "हे गौतम ! महर्धिक यावत् महानुभाव वाला देव एक बड़ा विलेपन वाले गंधवाले, द्रव्य का डब्बा लेकर खोले । उसे खोलने पर 'यह गया' कहकर सम्पूर्ण जम्बूद्वीप के ऊपर पल मात्र में २१ बार घूमकर फिर वापस आये । हे गौतम ! तो वे सुगंधी-पुद्गल सम्पूर्ण जम्बूद्वीप का स्पर्श करेंगे या नहीं ?
गौतम स्वामी-"हाँ । स्पर्श वाला होगा।"
भगवान्-“हे गौतम ! कोई उस गंध पुद्गल को बेर की ठलिया के रूप में दिखाने में समर्थ है ?"
गौतम स्वामी-"नहीं भगवन् ! कोई समर्थ नहीं है।"
भगवान् —"इसी प्रकार कोई सुखादि को दिखा सकने में समर्थ नहीं है।"
एकान्त दु:खवेदना-सम्बन्धी स्पष्टीकरण गौतम स्वामी—"हे भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं कि सर्व प्राण, भूत, जीव अथवा सत्व एकान्त दुःख रूप वेदना भोगते हैं। हे भगवन् ! यह किस प्रकार ?”
भगयान्-“हे गौतम ! अन्य तीर्थकों का ऐसा कहना मिथ्या है। मैं इस प्रकार कहता हूँ और प्ररूपता हूँ कि, कितने ही प्राण, भूत, जीव अथवा सत्त्व एकान्त दुःख रूप वेदना का भोग करते हैं, और कदाचित् सुख का भोग करते हैं।
और कितने ही प्राण, भूत, जीव अथवा सत्त्व सुख और दुःख को अनियमितता से भोगते हैं।
१-भगवतीसूत्र शतक ६ उद्देशा १० सूत्र २५४ पत्र ५१८-५१६
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२८६
तीर्थङ्कर महावीर गौतम स्वामी-"यह किस प्रकार ?"
भगवान्-“हे गौतम ! नैरयिक एकांत दुःख भोगते हैं और कदाचित् सुख भोगते हैं। भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्कं और वैमानिक एकान्त मुख भोगते हैं और कदाचित दुःख भोगते हैं । पृथ्वीकाय से लेकर मनुष्य तक जीव विविध प्रकार की वेदना का भोग करते हैं। ये कभी सुख और कभी दुःख का भोग करते हैं।"
इस वर्ष का वर्षावास भगवान् ने राजगृह में बिताया ।'
C
१-भगवतीसूत्र, शतक ६, उद्देशा १० सूत्र २५६ पत्र ५२०-५२१
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४२-वाँ वर्षावास
छठे आरे का विवरण वर्षा चातुर्मास्य के बाद भी भगवान् कुछ समय तक राजगृह मैं ठहरे रहे । इस बीच अव्यक्त, मण्डिक, मौर्यपुत्र और अकम्पित मासिक अनशनपूर्वक गुणशिलक चैत्य में निर्वाण को प्राप्त हुए।
इसी बीच एक दिन इन्द्रभूति गौतम ने भगवान् से पूछा-"हे भगवन् ! जम्बूद्वीप-नामक द्वीप में स्थित भारतवर्ष को इस अवसर्पिणी में दुःखम-दुःखम नामक छठे आरे के अन्त में क्या दशा होती ?”
भगवान्–“हे गौतम ! हाहाभूत (जिस काल में दुःखी लोग 'हाहा' शब्द करें ), भंभाभूत (जिस काल में दुःखात पशु 'भाँ-भाँ' शब्द करें ); कोलाहलभूत ( जिस काल में दुःखपीड़ित पक्षी कोलाहल करें ) वह काल होगा। काल के प्रभाव से अति कठोर, धूल मिली हुई, असह्य, अनुचित और भयंकर वायु तेमज संवर्तक वायु बहेगी । इस काल में चारों ओर भूल उड़ती होने से, रज से मलीन और अन्धकारयुक्त प्रकाशरहित दिशाएँ होंगी। काल की रुक्षता से चन्द्र अधिक शीतलता प्रदान करेगा
और सूर्य अत्यन्त तपेगा । बारम्बार अरसमेघ, विरसमेघ, क्षारमेघ, खट्टमेघ, अग्निमेघ, विज्जुमेघ, विषमेघ, अशनिमेघ, बरसेंगे'। अपेय जलकी वर्षा होगी तथा व्याधि-रोग वेदना उत्पन्न करनेवाले पानी वाला, मन को जो न रुचे ऐसे जलवाला, मेघ बरसेगा।
१ भगवतीसूत्र की टीका में इन मेघों के सम्बन्ध में इस प्रकार टीका की गयी है:'अरसमेह' त्ति अरस्त-अमनोज्ञा मनोज्ञरसवर्जितजला ये मेघास्ते
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तीर्थकर महावीर इससे भारतवर्ष के ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्वट, मंडव, द्रोणमुख, पट्टन, और आश्रम में रहने वाले मनुष्य, चौपाये तथा आकाश में गमन करनेवाले पक्षियों के झुण्ड, ग्राम्य और अरण्य में रहनेवाले त्रस जीव, तथा बहुत प्रकार के रुक्ख', गुच्छ', गुल्म, लता, वल्लि, तृण,
( पष्ठ २८७ की पादटिप्पणि का शेषांश ) तथा 'विरसमेह' त्ति विरुद्धरसा मेघाः, एतदेवाभिव्यज्यते 'खारमेह' त्ति सर्जादिक्षारसमानरसजलोपेतमेघाः 'खत्तमेह' त्ति करीष समानरस जलोपेतमेधाः, 'खट्टमेह' त्ति क्वचिद् दृश्यते तत्राम्लजला इत्यर्थः, 'अग्निमेह' त्ति अग्निवद्दाहकारिजला इत्यर्थः, विज्जुमेह, त्ति विद्युत्प्रधाना एवं जलवर्जिता इत्यर्थः विद्युन्निपातवन्तो वा विद्युन्निपात कार्यकारिजलनिपातवन्तो वा 'विसमेह' त्ति जनमरणहैतुजला इत्यर्थः, 'असणिमेह' त्ति करकादिनिपातवन्तः पर्वतादिदारणसमर्थ जलत्वेन वा, वज्रमेघाः 'अपियणिज्जोदग' ति अपातव्यजलाः 'अजवणिज्जोदए' ति क्वचिद् दृश्यते तत्रायापनीयंन यापन प्रयोजनमुदकं येषां ते अयापनीयोदकाः 'वाहिरोगवेदणोदीरणा परिणामसलिल' त्ति व्याधयः-स्थिराः कुष्टादयो रोगाः-सद्योघातिनः शूलादयस्तजन्याया वेदनाया योदीग्णा सैव परिणामो यस्य सलिलस्य तत्तथा तदेवं विधं सलिलं येषां ते तथाऽत एवामनोज्ञपानीयकाः 'चंडालनिलपहयतिक्खधारानिवायपउर' ति चण्डानिलेन प्रहतानां तीक्षणानांवेगवतीनां धाराणां यो निपातः स प्रचुरो यत्र वर्षे स तथाऽतस्तं ।
-भगवतीसूत्र सटीक, पत्र ५५६.
१-रुक्खे त्यादि तत्र वृताः-चूतादयः वृक्षों के नाम जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में भी आते हैं। तीर्थकर महावीर भाग १ पृष्ठ ७ की पादटिप्पणि में हम उनका उल्लेख कर चुके हैं।
३-गुच्छा:-वृन्तकी प्रभृतयः
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छठें आरे का विवरण
१
पञ्चग', हरित, औषधि, प्रवाल, अंकुरादि तथा तृण-वनस्पतियाँ नाश को प्राप्त होगी ।
वैताढ्य के अतिरिक्त अन्य पर्वत, गिरि, तथा धूल के टीले आदि नाश को प्राप्त होंगे । गंगा और सिंधु के बिना पानी के झरने, खाड़ी आदि ऊँचे-नीचे स्थल समथल हो जायेंगे ।
गौतम स्वामी - "हे भगवन् ! तब भारत भूमि की क्या दशा होगी ?"
भगवान् -" उस समय भारत की भूमि अंगार-स्वरूप, मुर्मुर-स्वरूप, भस्मीभूत और तपी कड़ाही के समान, अग्नि के समान ताप वाली, बहुत धूल वाली, बहुत कीचड़ वाली, बहुत से बाल वाली, बहुत कार्द वाली होगी । उस पर लोगों का चलना कठिन होगा । गौतम स्वामी- 'उस समय मनुष्य किस के होंगे ?
( १४ २८८ की पादटिप्पणि का शेषांश )
४- गुल्मा - नवमालिका प्रभृतयः
-
विशेष विवरण के लिए देखिए - तीर्थङ्कर महावीर, भाग १, ६४ ७
५- लता -- अशोकलतादयः
६ - वल्ल्यो – वालुङ्की प्रभृतयः ७ - तृण -- वीरणादीनि
भगवान्- - " हे गौतम ? खराब रूप वाले, खराब वर्णं काले, दुर्गंध वाले, दुष्ट रस वाले, खराब स्पर्शवाले, अनिष्ट, अमनोज, हीन स्वर वाले
१ - पर्वगा - इक्षु प्रभृतयः २- हरितानि - दूर्वादीनि
- औषधयः -- शात्यादयः
३
४ - प्रवाला : - पल्लवांकुरा
५ --तरणवरणस्स इकाइए -त्ति वादर वनस्पतीनीत्यर्थः
१९
२८६
3
आकार प्रकार
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२२०
तीर्थङ्कर महावीर
दोन स्वर वाले, अनिष्टस्वर वाले यावत् मन को जो प्रिय न लगे ऐसे स्वर
वाले होंगे ।
कपट
जिनके वचन और जन्म अग्राह्य हों, ऐसे निर्लज्ज, छलयुक्त, युक्त, बध-बंध और पैर में आसक, मर्यादा उलंघन करने में मुख्य, अकार्य करने में नित्य तत्पर, माता-पिता के प्रति विनय-रहित, बेडौल रूप वाले, बड़े नख वाले, अधिक केशवाले, अधिक दाढ़ी मूछ और रोम वाले, काले, कठोर, श्याम वर्ण वाले, धौले केश काले, बहुत स्नायुओं से बँधे होने से दुदर्शनीय रूप वाले, बाँके टेढे अंग वाले, वृद्धावस्थायुक्त, सड़े दाँत की श्रेणी वाले, भयंकर मुख वाले, विषम नेत्रवाले, टेढ़ी नाक वाले, भयंकर रूप वाले, खसरा और खुजली से व्याप्त शरीर वाले, नखों से खुजलायी जाने के कारण विकृत शरीर वाले, दड, किडिभ ( एक जात का कोढ़ ), सिध्म ( कुष्ठ विशेष ) वाले, कठोर और फटी हुई चमड़ी वाले, विचित्र अंग वाले, ऊँट आदि के समान गति वाले, दुर्बल, खराब संघयण वाले, खराब प्रमाण वाले, खराब संस्थान वाले, खराब रूप वाले खराब स्थान वाले, खराब आसन वाले, खराब शैयावाले, खराब भोजन वाले व्यक्ति होंगे । उनके अंग अनेक व्याधियों से पीड़ित होंगे । वे बिलगति वाले, उत्साहरहित, सत्वरहित, विकृत चेष्टा वाले तथा तेजरहित होंगे ।
उनके शरीर का माप एक हाथ होगा और १६ अथवा २० वर्ष का परमायुष्य होगा । उन्हें अत्यधिक पुत्र-पौत्रादि होंगे। बहुत से कुटुम्ब गंगा-सिन्धु के तटाश्रित वैताढ्य पर्वत की बिलों में निवास करेंगे ।
गौतम स्वामी - "हे भगवन् ! वे मनुष्य किस प्रकार का आहार करेंगे ?"
भगवान् - " हे गोतम ! उस समय गंगा-सिंधु नदियों का प्रवाह रथमार्ग - जितना चौड़ा होगा । उनके जल में मछली, कच्छप आदि जीव बहुत होंगे | उन नदियों में पानी कम होगा । वे मनुष्य सूर्योदय के पश्चात् एक
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छठे आरे का विवरण
२६१ मुहूर्त के अंदर और सूर्यास्त के पश्चात् एक मुहूर्त के अंदर बिल में से निकल कर मछली, कछुए आदि को जल से निकाल कर भूमि पर डालेंगे और धूप में पके-भुने उन जलचरों का आहार करेंगे। इस प्रकार २१ हजार वर्षों तक उनकी आजीविका रहेगी।
गौतम स्वामी-'शीलरहित, निर्गुण, मर्यादा रहित, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास हीन प्रायः मांसाहारी, मत्स्याहारी, मधु का आहार करने वाले, मृत शरीर का आहार करने वाले मनुष्य मर कर कहाँ जायेंगे ? भगवान्-"वे नरक और तिर्यच योनि में उत्पन्न होंगे।'
बस्तियों का वर्गीकरण बस्तियों के वर्गीकरण के उल्लेख जैन-शास्त्रों में कितने ही स्थलों पर हैं। आचारांगसूत्र ( राजकोट वाला, श्रु० १, अ०८, उ०६ ) में निम्नलिखित के उल्लेख आये हैं :
गामं वा १,णगंर वा २, खेडं वा ३, कवडं वा ४, मडंबं वा ५, पट्टणं वा ६ दोणमुहं वा ७, प्रागरं वा ८, आसमं वा ६, सरिणवसंवा १०, णिगमं वा ११, रायहरणिं वा १२
सूत्रकृतांग में उनकी सूची इस प्रकार है :
गाम १, णगर २, खेड ३, कब्बड ४, मडंव ५, दोण मुह ६, पट्टण ७, आसम ८, सन्निवेस ६, निगम १०, रायहाणि ११
-श्रु० २, अ० २, सूत्र २१ कल्पसूत्र में सूची इस प्रकार है :
गाम १, आगर २, नगर ३, खेड ४, कब्बड ५, मडंब ६, दोणमुह ७, पहणा ८, आसम ६, संबाह १०, संन्निवेह ११
( सूत्र ८८)
१-भगवतीसूत्र सटीक, शतक ७, उ० ६, सूत्र २८६-२८७, पत्र ५५७-५६५
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२६२
तीर्थकर महावीर
वृहत्कल्पसूत्र उ० १ सू० ६ में उनके नाम इस प्रकार दिये हैं :
गामंसि वा १, नगरंसि वार, खेडंसि वा ३, कव्वडं सिवा ४, मडम्बंसि वा ५, पट्टणंसि वा ६, प्रागरंसि वा ७, दोणमुहंसि वा ८, निगमंसि वा ६, रायहाणिंसि वा १०, आसमंलि वा ११, संनिवेसंसि वा १२, संवाहंसि १३ वा, घोसंलि वा १४, प्रांसियंसि वा १५ पुडभेयणंसि वा १६
ओववाइयसूत्र में उनकी दो सूचियाँ आती हैं
(१) गाम १, आगर २, णयर ३, खेड ४, कब्बड ५, मडंब, ६, दोणमुह ७, पट्टण ८, आसम ६, निगम १०, संवाह ११, संनिवेत १२
(सूत्र ३२) (२) गाम १, आगर २, एयर ३, णिगम ४, रायहाणि ५, खेड ६, कब्बड ७, मडंब ८, दोणमुह ६, पट्टण १०, समम ११, संबाह १२, संन्निवेस १३
(सूत्र ३८) __उत्तराध्ययन (अ० ३०, गाथा १६-१७ ) में इतने नाम आते हैं:
गामे १, नगरे २ तह रायहाणि ३ णिगमे ४ य ागरे ५, पल्ली ६ । खेडे ७, कब्बड ८, दोणमुह ६, पट्टण १०, मडंव ११, संबाहे १२॥१६॥ आसम १३, पए विहारे १४, सन्निवेसे १५, समाय १६, घोस १७ । थलि १८, सेणाखंधारे १९, सत्थे संबाह कोटे य ॥ १७॥
भगवान् अपापापुरी में राजगृह में विहार करके भगवान् अपापापुरी पहुँचे । यहाँ देवताओं ने तीन वप्रोसे विभूषित रमणीक समवसरण की रचना की । अपने आयुष्य का अन्त जान कर प्रभु अपना अन्तिम धर्मोपदेश देने बैठे ।
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भगवान् अपापापुरी में
२९३ प्रभु के समवसरण में अपापापुरी का राजा हस्तिपाल भी आया और प्रभु की धर्मदेशना सुनने बैठा । भगवान् की धर्मदेशना सुनने देवता लोग भी आये । इस समय इन्द्र ने भगवान् की स्तुति की
"हे प्रभु ! धर्माधर्म पाप-पुण्य बिना शरीर प्राप्त नहीं होता। शरीर के विना मुख नहीं होता और मुख के बिना वाचकत्व नहीं होती। इस कारण अन्य ईश्वरादिक देव दूसरों को किस प्रकार शिक्षा दे सकते हैं ? देह से हीन होने पर भी ईश्वर की जगत रचने की प्रवृत्ति घटती नहीं है। जगत रचने की प्रवृत्ति में उसे अपने स्वतंत्रपने की अथवा किसी दूसरे की आज्ञा की आवश्यकता नहीं है । यदि वह ईश्वर क्रीड़ा के कारण, जगत के सृजन में प्रवृत्तिवान् हो तो वह बालक के समान रागवान् ठहरे । और, यदि वह कृपा-पूर्वक सृष्टि का सृजन करे तो सब को सुखी बनाना चाहिए । हे नाथ! दुःख, दरिद्रता, और दुष्ट योनि में जन्म इत्यादि क्लेश से ब्याकुल लोक के सृजन से कृपालु ईश्वर की कृपालुता कहाँ रही ? अर्थात् उसकी स्थापना नहीं हो सकती । ईश्वर कर्म की अपेक्षा से, दुःखी अथवा मुखी करता है यदि ऐसा है तो ऐसा सिद्ध होता है कि, हमारे समान ही वह भी स्वतंत्र नहीं है।
यदि जगत् में कर्म की विचित्रता है, तो फिर विश्वका नाम धारण करने वाले नपुंसक ईश्वर का काम क्या है ? अथवा महेश्वर की इस जगत के रचने में यदि स्वभावतः प्रवृति हो, और कहें कि वह उस सम्बंध में कुछ विचार नहीं करता, तो उसे परीक्षकों की परीक्षा के लिए डंका समझना चाहिए । अर्थात् इस सम्बंध में उसकी परीक्षा करनी ही नहीं, ऐसा कथन सिद्ध होगा । यदि सर्वभाव के सम्बंध में ज्ञातृत्व-रूप कर्तव्य कहें तो मुझे मान्य है; कारण कि सर्वज्ञ दो प्रकार के होते हैं-एक मुक्त और दूसरा शरीरधारी । हे नाथ ! आप जिस पर प्रसन्न होते हैं, वह पूर्वकथित अप्रमाणिक कर्तृत्ववाद को तज कर आपके शासन में रमण करता है।"
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२६४
तीर्थकर महावीर इस प्रकार स्तुति करके इन्द्र बैठ गया तब आपापापुरी के राजा हस्तिपाल राजा ने भगवान् की स्तुति की
"हे स्वामिन् ! विशेषज्ञ के समान अपना कोमल विज्ञापन करना नहीं है। अंतःकरण की विशुद्धि के निमित्त से कुछ कठोर विज्ञापन करता हूँ। हे नाथ ! आप पक्षी, पशु, अथवा सिंहादि वाहन के ऊपर जिसका देह बैठा हो, ऐसे नहीं हैं । आपके नेत्र, मुख और गात्र विकार के द्वारा विकृत नहीं किये गये हैं। आप त्रिशूल, धनुष, और चक्रादि शस्त्रयुक्त करपल्लव वाले नहीं हैं। स्त्री के मनोहर अंग के आलिंगन देने में आप तत्पर नहीं हैं। निंदनिक आचरणों द्वारा शिष्ट लोगों के हृदय को जिसने कम्पायमान करा दिया है, ऐसे आप नहीं हैं । कोप और प्रसाद के निमित्त नर-अमर को विडंवित कर दिया हो, ऐसे आप नहीं हैं।
इस जगत की उत्पत्ति, पालन अथवा नाश करने वाले आप नहीं हैं। नृत्य, हास्य, गायनादि और उपद्रव के लिए उपद्रवित स्थितिवाले आप नहीं हैं।
इस प्रकार का होने के कारण, परीक्षक आप के देवपने की प्रतिष्ठा किस प्रकार करें ! कारण कि, आप तो सर्व देवों से विलक्षण हैं । हे नाथ ! जल के प्रवाह के साथ पत्र, तृण, अथवा काष्ठादि बहे, यह बात तो युक्ति वाली है, पर यदि कहें कि वह विरुद्ध बहे, तो क्या कोई इसे युक्तियुक्त मानेगा ? परन्तु, हे स्वामिन् ! मंदबुद्धि परीक्षकों की परीक्षा से अलम् ! मेरी निर्लज्जता के कारण आप मेरी समझ में आ गये । सभी संसारी जीवों से विलक्षण आपका रूप है। बुद्धिमान प्राणी ही आप की परीश्चा कर सकता है। यह सारा जगत क्रोध, लोभ और भय से आक्रान्त है, पर आप उससे विलक्षण हैं । परन्तु, हे वीतराग प्रभो ! आप कोमल बुद्धि वालों को ग्राह्य नहीं हो सकते, तीक्ष्ण बुद्धिवाले ही आप के देवपने को समझ सकते हैं।"
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भगवान् अपापापुरी में
२६५ ऐसी स्तुति कर हस्तिपाल बैठा, तो चरम तीर्थंकर ने इस प्रकार अपनी चरम देशना दी:___ "इस जगत में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ हैं । उनने काम का 'अर्थ' तो नाम मात्र के ही लिए 'अर्थ' रूप है, परमार्थ दृष्टि से वह अनर्थरूप है । चार पुरुषार्थों में पूर्ण रूप में 'अर्थ'-रूप तो एक मोक्ष ही है। उसका कारण धर्म है । वह धर्म संयम आदि दस प्रकार का है । वह संसार सागर से तारने वाला है। अनन्त दुखरूप संसार है । और, अनंत सुखरूप मोक्ष है । इसलिए, संसार का त्याग और मोक्ष की प्राप्ति के लिए धर्म के अतिरिक्त और अन्य कोई उपाय नहीं है । पंगु मनुष्य वाहन के आश्रय से दूर जा सकता है। घनकर्मी भी धर्म में स्थित होकर मोक्ष प्राप्त करता है।"
इस प्रकार धर्म-देशना देकर भगवान् ने विराम लिया । इस समय पुण्यपाल राजा ने प्रभु की वंदना करके पूछा-''हे स्वामिन् ! मैंने आज स्वप्न में, १ हाथी, २ बंदर, ३ क्षीर वाला वृक्ष, ४ काकपक्षी, ५ सिंह, ६ कमल, ७ बीज और ८ कुंभ ये आठ स्वप्न देखे । उनका फल क्या है ? भगवान् ? ऐसे स्वप्न देखने से मेरे मन में भय लगता है !"
इस पर भगवान् ने हस्तिपाल को उन स्वप्नों का फल बताते हुए कहा- "हे राजन् ! प्रथम हाथी वाले स्वप्न का फल यह है कि, अब से भविष्य में क्षणिक समृद्धि के सुख में लुब्ध हुआ श्रावक विवेक बिना, जड़ता के कारण, हाथी के समान घर में पड़ा रहेगा। महादुःखी की स्थिति और
१ दस वधे समणध मे पं० २०-खंती, मुत्त, अज्ज वे, मद्दवे, लाघवे सच्चे संजमे तवे चिताते बंभचेरवासे
१-क्षमा, २ निर्लोभता ३ ऋजुता, ४ मृदुता, ५ लघुता-नम्रता, ६ सल्य, ७ संयम ८ तप, ६ त्याग १० ब्रह्मचर्य-ठाणांग ठा० १० उ० ३ सूत्र ७१२ पत्र४७३ २. सावा यांगसूत्र सटीक स० १०, पत्र १६-१
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२६६
तीर्थकर महावीर परचक्र का भय उत्पन्न होगा; तो भी वह दीक्षा न लेगा । यदि दीक्षा ग्रहण कर भी ले, तो फिर कुसंगवश उसे छोड़ देगा। कुसंग के कारण, व्रत लेकर उसका पालन करने वाले विरले ही होंगे।
"दूसरे स्वप्न बंदर का फल यह है कि, बहुत करके गच्छ के स्वामीभूत आचार्य कपि के समान चपल परिणामी, अल्प तत्व वाले, और व्रत में प्रमादी होंगे। धर्मस्थ को वे विपर्यास-भाव उत्पन्न करेंगे। धर्म के उद्योग में त-पर विरले ही होंगे। प्रमादी और धर्म में शिथिल दूसरों को धर्म की शिक्षा देगा । ग्राम्य जन के समान ही वह भी दूसरों की हँसी करेगा। हे राजन् ! आगामी काल में प्रवचन के न जानने वाले पुरुष होंगे।
"तीसरा स्वप्न तुमने क्षीर वृक्ष देखा। सात क्षेत्रोंमें द्रव्य बोने वाले दाता और शासनपूजक क्षीर-वृक्ष के समान श्रावक हैं। वेषमात्र धारण करने वाले, अहंकार वाले, लिंगी ( वेपमात्र धारण करने वाले), गुणवान् साधु की पूजा देखकर कंटक के समान उस श्रावक को घेर लेंगे।
“काकपक्षी के स्वप्न का यह फल है कि, जैसे काकपक्षी विहार-वापिका में नहीं जाते, वैसे ही उद्धत स्वभाव के मुनि धर्मार्थी होते हुए भी अपने गच्छों में नहीं रहेंगे । वे दूसरे गच्छों के सूरियों के साथ, जो मिथ्या भाव दिखलाने वाले होंगे, मूर्खाशय से चलेंगे। हितैषी यदि उन्हें उपदेश करेगा कि, इनके साथ रहना अनुचित है, तो वे हितैषियों का सामना करेंगे।
"सिंह स्वप्न का यह फल है कि, जिन मत जो सिंहके समान है, जातिस्मरण आदिसे रहित, धर्म के रहस्य को समझने वालों से शून्य होकर इस भरत क्षेत्र रूपी वन में विचरेगा। उसे अन्यतीर्थी तो किसी प्रकार की बाधा न पहुँचा सकेंगे; परन्तु स्वलिंगी ही-जो सिंह के शरीर में पैदा होने वाले कीड़ों के समान होंगे--इसको कष्ट देंगे और जैन-शासन की निंदा करायेंगे।
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भगवान् अपापापुरी में "छटें कमल वाले स्वप्न का फल यह है कि, जैसे स्वच्छ सरोवर में होने वाले कमल सभी सुगन्ध वाले होते हैं, वैसे ही उत्तम कुल में पैदा होने वाले सभी धर्मात्मा होते रहे हैं; परन्तु भविष्य में ऐसा नहीं होगा। वे धर्मपरायण होकर भी, कुसंगति में पड़ कर भ्रष्ट होंगे। लेकिन, जैसे गंदे पानी के गढ में भी कभी-कभी कमल उग आते हैं, वैसे ही कुकुल और कु देशों में जन्में हुए होने पर भी, कोई-कोई मनुष्य घर्मात्मा होंगे। परन्तु , वे हीन जाति के होने से अनुपादेय होंगे।
"बीज वाले स्वप्न का यह फल है कि, जैसे ऊसर भूमि में बीज डालने से फल नहीं मिलता, वैसे ही कुपात्र को धर्मोपदेश दिया जायेगा; परन्तु उसका कोई परिणाम नहीं निकलेगा । हाँ कभी-कभी ऐसा होगा कि, जैसे किसी आशय के बिना किसान धुणाक्षर-न्याय से अच्छे खेत में बुरे बीज के साथ उत्तम बीज भी डाल देता है, वैसे ही श्रावक सुपात्रदान भी कर देंगे। ___"अतिम स्वप्न का यह फल है कि, क्षमादि गुणरूपी कमलों से अंकित
और सुचरित्र रूपी जल से पूरित, एकान्त में रखे हुए कुम्भ के समान महर्षि बिरले ही होंगे। मगर, मलिन कलश के समान शिथिलाचारी लिंगी (साधु ) यत्र-तत्र दिखलायी देंगे। वे ईर्ष्यावश महर्षियों से झगड़ा करेंगे और लोग ( अज्ञानतावश ) दोनों को समान समझेंगे । गीतार्थ मुनि अंतरंग में उक्त स्थिति की प्रतीक्षा करते हुए और संयम को पालते हुए बाहर से दूसरों के समान बन कर रहेंगे।'
इस प्रकार प्रतिबोध पाकर पुण्यपाल ने दीक्षा ले ली और कालान्तर में मोक्ष को पाया ।
इसके बाद इन्द्रभूति गौतम ने भगवान् से पाँचवे आरे के सम्बन्ध में पूछा और भगवान् ने बताया कि उनके निर्वाण के बाद तीन वर्ष साढ़े आठ
१ इन स्वप्नों और उनके फलों का उल्लेख 'श्रीसौभाग्यपञ्चम्यादि पर्वकथासंग्रह' के दीपमालिकाव्याख्यान पत्र ११-१२ में भी है।
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२६८
तीर्थकर महावीर मास बीतने पर, पाँचवा आरा प्रवेश करेगा । और, भगवान् ने फिर सविस्तार उसका विवरण भी सुनाया।
भगवान् ने कहा-."उत्सर्पिणी में दुःपमा काल के अंत में इस भारत वर्ष में सात कुलकर होंगे। १ विमलवाहन, २ सुदामा, ३ संगम, ४ सुपार्श्व, ५ दत्त, ६ सुमुख और ७ संमुचि । ___ "उनमें विमलवाहन को जातिस्मरण-ज्ञान होगा और वे गाँव तथा शहर बसायेंगे, राज्य कायम करेंगे, हाथी, घोड़े, गाय-बैल आदि पशुओं का संग्रह करेंगे और शिल्प, लिपि, गणितादि का व्यवहार लोगों में चलायेंगे। बाद में जब दूध, दही, अग्नि आदि पैदा होंगे, तो राजा उसे खाने का उपदेश करेंगे।
"इस तरह दुःषम काल व्यतीत होने के बाद तीसरे आरे में ८९ पक्ष बीतने के बाद शतद्वार-नामक नगर में संमुचि-नामक सातवें कुलकर राजा की भ्रद्रा देवी नामक रानी के गर्भ से श्रेणिक का जीव उत्पन्न होगा। उसका नाम पद्मनाभ होगा।
"सुपार्श्व का जीव सूरदेव नामक दूसरा तीर्थकर होगा । पोट्टिल का जीव सुपार्श्व-नामक तीसरा तीर्थंकर होगा । द्रढ़ायु का जीव स्वयंप्रभ नामक चौथा तीर्थकर, कार्तिक सेठ का जीव सर्वानुभूति-नामक पाँचवा तीर्थंकर शंख श्रावक का जीव देवश्रत-नामक छठाँ तीर्थकर, नंद का जीव उदय नामक ७-वाँ तीर्थंकर, सुनंदका जीव पेढाल-नामक ८-वाँ तीर्थंकर, कैकसी
१-आगामी उत्सर्पिणी के कुलकरों के नाम ठाणांगमूत्र सटीक, ठा० ७, उ० ३, सूत्र ५५६ पत्र ५५४-१ में इस रूप में दिये हैं :--
जंबुदीवे भारहेवासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए सत्त कुलकरा भविस्संति-मित्त. वाहण, सुभोमे य सुप्पभे य सयंपभे। दत्ते, सुहुमे [ दुहे सुरूवे य ] सुबंधू य आगमेस्सिण होक्खती।
ऐसा ही समवायांगसूत्र सटीक, समवाय १५८, गा० ७१, पत्र १४२-२ में भी है। २-काललोकप्रकाश, पष्ठ ६२६ ।
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भगवान् श्रपापापुरी में
२६६
का जीव पोडिल नामक ९ वाँ तीर्थकर, रेयली का जीव शतकीर्ति नामक १०-वाँ तीर्थकर, सत्यकी का जीव सुव्रत- नामक ११ - वाँ तीर्थंकर, कृष्णवासुदेव का जीव अमम नामक १२ वाँ तीर्थकर, बलदेव का जीव अकपायनामक १३ - वाँ तीर्थकर, रोहिणी का जीव निष्पुलाक- नामक १४ - वाँ तीर्थकर, सुलसा का जीव निर्मम नामक १५ - वाँ तीर्थंकर, रेवती का जीव चित्रगुप्त-नामक १६ - वाँ तीर्थकर, गवाली का जीव समाधि- नामक १७तीर्थकर, गार्गुड का जीव संवर नामक १८ - वाँ तीर्थंकर, द्वोपायन का जीव यशोधर नामक १९-वाँ तीर्थंकर, कर्ण का जीव विजय नामक २० वाँ तीर्थकर, नारद का जीव मल्ल - नामक २१ - वाँ तीर्थकर, अंबड का जीव देव-नामक २२ वाँ तीर्थंकर, बारहवें चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त का जीव वीर्य - नामक २३ वाँ तीर्थकर, स्वाती का जीव भद्र नामक तीर्थंकर होगा ।
-वाँ
इस चौबीसी में दीर्घदन्त, गूढदन्त, शुद्धदन्त, श्रीचंद्र, श्रीभूति, श्री सोम, पद्म, दशम, विमल, विमलवाहन और अरिष्ट नाम के बारह चक्रवर्ती नंदी, नंदिमित्र, सुन्दरबाहु महाबाहु, अतिबल, महाबल, बल, द्विपृष्ट, और त्रिपृष्ट - नामक ९ वासुदेव, जयन्त, अजित, धर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, आनन्द, नंदन, पद्म और संकर्षण नाम के ९ बलराम और तिलक, लोहजंघ, वज्रजंघ, केशरी, बली, प्रह्लाद, अपराजित, भीम, और सुग्रीव-नामक ९ प्रतिवासुदेव होंगे ।"
अनन्त -
७
२४ वा
इसके बाद सुधर्मा स्वामी ने भगवान् से पूछा - "केवलज्ञान रूपी सूर्य किसके बाद उच्छेद को प्राप्त होगा ?"
१ - भावी तीर्थकरों के उल्लेखों के सम्बंध में विशेष जानकारी के लिए पृष्ठ १६० की पादटिप्पणि देखें । काललोकप्रकाश ( जैनधर्मं - प्रसारक सभा, भावनगर ) अनुवाद सहित में श्लोक २६७-३४० पृष्ठ ६२७-६३२ में भी भावी तीर्थंकरों का उल्लेख है ।
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३००
तीर्थङ्कर महावीर
इस पर भगवान् ने कहा-"मेरे मोक्ष जाने के कुछ काल बाद तुम्हारे जम्बू-नामक शिष्य अंतिम केवली होंगे। उसके बाद केवल ज्ञान का उच्छेद हो जायेगा । केवलज्ञान के साथ ही मनःपर्यवज्ञान, पुलाकलब्धि, परमावधि, क्षपक श्रेणी व उपशम श्रेणी, आहारक शरीर, जिनकल्प और त्रिविध संयम (१ परिहारविशुद्धि, २ सूक्ष्मसंघराय, ३ यथाख्यातचरित्र) लक्षण भी विच्छेद कर जायेंगे।
तुम्हारे शिष्य प्रभव १४ पूर्वधारी होंगे और तुम्हारे शिष्य शव्यंभव द्वादशांगों में पारगामी होंगे। पूर्व में से उद्धार करके वे दशवैकालिक को रचना करेंगे। उनके शिष्य यशोभद्र सर्व पूर्वधारी होंगे और उनके शिष्य संभूतिविजय तथा भद्रबाहु १४ पूर्वी होंगे। संभूतिविजय के शिष्य
१ वारस वरिसेहिं गोमु, सिद्धो वीराओ वीसहिं सुहम्मा।
चउसठ्ठीए जंबू, वुच्छिन्ना तत्थ दस ठाणा ॥ ३ ॥ मण १ परमोहि २, पुलाए ३, आहार ४ खवग ५ उवसमे ५ कप्पे ७। संजमति अ ८ केवल ६ सिज्मणा य १० जंबूम्मि वुच्छिन्ना ॥ ४ ॥
-कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, पत्र ४८३
२-देखिये तीर्थंकर महावीर, भाग १, पृष्ठ १२-१३
३ (अ) तदनु श्रीशय्यंभवोऽपि साधान मुक्त निजभार्या प्रसूत मनकाख्य पुत्र“हिताय श्री दशवैकालिक कृतवान्...कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, पत्र ४८४
(आ) गोयमाणं इओ आसरण कालेणं चेव महाजसे, महासत्ते, महागुभागे सेजंभवे अणगारे, महातवासी, महागई, दुवालस अंगेसु अ धारि भावेज्जा, सेणं अपक्खवाएणं अप्पाओ सवसव्वसे सुअतिसअणं विनाय इकारसएहं अंगाणं दोद्दसण्हं पुवाणं परमसार वरिणय सुअं सुप्पभोगेणं सुअधर उज्जुनं सिद्धि मग्गं दसवे"आलिअंणाणासुयक्खं धाणि उहज्जा...
-~-महानिशीध, अध्ययन ५
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भगवान् पापापुरी में
३०१ स्थूलभद्र १४ पूर्वी होंगे। उसके बाद अंतिम ४ पूर्व उच्छेद को प्राप्त हो जायेंगे। उसके बाद महागिरि, सुदस्ति तथा वज्रस्वामी तक १० पूर्वधर होंगे।
इस प्रकार भविष्य कहकर महावीर स्वामी समवसरण से बाहर निकले और हस्तिपाल राजा की शुल्क-शाला में गये । प्रतिबोध पाकर हस्तिपाल ने भी दीक्षा दे ली।
उस दिन भगवान् ने सोचा--"आज मैं मुक्त होनेवाला हूँ। गौतम का मुझ पर बहुत अधिक स्नेह है । उस स्नेह ही के कारण उनको केवलज्ञान नहीं हो पा रहा है। इसलिए कुछ ऐसा उपाय करना चाहिए कि,. उनका स्नेह नष्ट हो जाये। अतः भगवान् ने गौतम स्वामी से कहा"गौतम ! पास के गाँव में देवशर्मा-नामक ब्राह्मण है। वह तुम्हारे उपदेश से प्रतिबोध पायेगा । इसलिए तुम उसे उपदेश देने जाओ।” अतः गौतम स्वामी देवशर्मा को उपदेश करने चले गये। गौतम स्वामी के उपदेश से देवशर्मा ने प्रतिबोध प्राप्त किया ।
१ (अ)-स्थूलभद्र के सम्बन्ध में तपागच्छपट्टावलि में इस प्रकार लिखा है:-सिरिथूलभद्दत्ति श्रीसंभूतविजय-भद्रबाहु स्वामिनो सप्तम पट्ट श्री स्थूलभद्र स्वामी कोशा प्रतिबोधननित यशोधवली कृताखिलजगत् सर्वजन प्रसिद्धः । चतुर्दशपूर्व विदां पश्चिमः । क्वचिच्चत्वार्यन्त्यानि पूर्वाणि सूत्रतोऽधीतवानित्यपि ।...
___-पट्टावलि सम्मुच्चय, भाग १, पृष्ठ ४४ (आ; "श्री स्थूलभद्रो वस्तुद्वयो नां दशपूर्वी प्रपाठ-अथान्यस्मै वाचना न देयेत्युक्त्वा सूत्रतो वाचनां दपु:-कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, पत्र ४६०
२ तेरसमोदि श्री सीहगिरि पट्टे त्रयोदशः श्रीवज्रस्वामी। यो बाल्यादपि जाति स्मृतिभार , नभोगमन विद्यया संघरक्षाकृत् दक्षिणस्यां बौद्धराज्ये जिनेन्द्र पूजा निमित्तं पुष्पाधानयनेन प्रवचन प्रभावनाकृत देवाभिवंदितो दशपूर्व विदाम पश्चिमो वज्र शाखोत्पत्ति मूलं ।
-पट्टावलि सम्मुचय, भाग १, १४ ४७
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३०२
तीर्थकर महावीर इसी स्थान पर, अपापापुरी में, कार्तिक मास की पिछली रात्रि में, जब चन्द्रमा स्वाति नक्षत्र में आया, छठ का तप किये हुए, भगवान् ने ५५ अध्ययन पुण्यफलविपाक सम्बन्धी और ५५ अध्ययन पापफल विपाक सम्बन्धी कहे ।' उसके बाद ३६ अध्ययन अप्रश्नव्याकरण-बिना किसी के पूछे कहे। उसके बाद अंतिम प्रधान-नाम का अध्ययन कहने लगे ।
१-समणे भगवं महावीरे अंतिमराश्यंसि पणपन्नं अज्झयणाई कल्लाणफल विवागाईपणपन्नं अज्झयणाई पावफल विवागाई वागरित्ता सिद्धे बुद्धे-समवायांगसूत्र सटीक, समवाय ५५, पत्र ६८-२
भगवान् की अंतिम देशना १६ प्रहर की थी। विविधतीर्थंकल्प के अपापापुरी बृहत्कल्प, (पृष्ठ ३४) में लिखा है-'सोलस पहराइ देसणं करेइ'। इसे नेमिचन्द्र के महावीरचरित्र में इस प्रकार लिखा है:छठ्ठय भत्तस्सन्ते दिवसं रयणिं च सम्वं पि ॥ २३०७ ॥
-पत्र ६६-२ २-कल्पसूत्र में पाठ आता है :
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे तीसं वासाइ आगारवास मझे वसित्ता, साइरेगाई दुवालस वासाई छउमत्थपरियागं पारणित्ता, देसूणाई तीसं वासाई केवलि परियागं पाउवित्ता, बयालीस वासाइ सामण्णपरियागं पाउणित्ता, बावत्तरि वासाइ सव्वाउय पालइत्ता, खीणे वेयणिज्जा-उप-नाम-गुत्ते, इमीसे
ओसप्पणीए दुसम सुसमाए समाए बहुविइक्क ताए तिर्हि वासेहिं अद्ध नवमेहि ए मासेहिं सेसेहिं पावाए मज्झिमाए हत्थिवालस्स रण्णो रज्जगसभाए एगे अबीए छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं साइणा नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं पच्चूसकाल समयंसि संपलियंकनिसरणे पणपन्नं अज्मायणइकल्लाणफल विवागाई-पणपन्नं अज्झयणाईपावफलविवागाई छत्तीसं च अपुटठवागारणाई वागरित्ता पहाणं नाम अज्झयणं विभावेमाणे विभावेमाणे कालगए, विइक्वते समुज्जाए छिन्नजाइ-जरा-मरण बंधणे सिद्धे बुद्धे, मुत्ते अंगगडे परिनिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे-सूत्र १४७
'छत्तीसं अपुठ्ठ वागरणाई' की टीका सुबोधिका टीका में इस प्रकार दी है:षटत्रिंशत् अपृष्ठ व्याकरणानि-अपृष्ठाण्युत्तराणि (पत्र ३६५ )
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भगवान् श्रपापापुरी में
३०३
समय जान कर
साश्रु
उस समय आसन कंपित होने से, प्रभु के मोक्ष का सभी सुरों-असुरों के हन्द्र परिवार सहित वहाँ आये । फिर, शक्रेन्द्र हाथ जोड़ कर बोला - " हे नाथ ! आपके गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान में हस्तोत्तरा नक्षत्र था । इस समय उसमें भस्मक-ग्रह संक्रान्त होने वाला है । आपके जन्म-नक्षत्र में संक्रमित वह ग्रह २ हजार वर्षों तक आपकी संतान ( साधु-साध्वी ) को बाधा उत्पन्न करेगा । इसलिए, वह भस्मक ग्रह आपके जन्म-नक्षत्र से संक्रमण करे, तब तक आप प्रतीक्षा करें । आपके सामने वह संक्रमण कर जाये, तो आपके प्रभाव से वह निष्फल हो
( पृष्ठ ३०२ पादटिप्पणि का शेषांश )
भगवान् महावीर का यह अंतिम उपदेश ही उत्तराध्ययन है । उसके ३६ - वें अध्ययन की अंतिम गाथा है
इति पाउकरे बुद्ध, नायए परिनिव्वुए । छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धी संभए ॥
- शान्त्याचार्य की टीका सहित, पत्र ७१२-१ - इस प्रकार छत्तीस उत्तराध्ययन के अध्ययनों को जो भव्यसिद्धिक जीवों को सम्मत हैं, प्रकट करके बुद्ध ज्ञातृपुत्र वद्ध मान स्वामी निर्वाण को प्राप्त हुए । इस प्रकार कहता हूँ |
इस गाथा पर उत्तराध्ययन चूर्णि में पाठ भाता है
इति परिसमाप्तौ उपप्रदर्शने च प्रादुः प्रकाशे, प्रकाशीकृत्य प्रज्ञाप•fear बुद्धः श्रवगतार्थः ज्ञातकः ज्ञातकुल समुद्भवः वद्ध'मान स्वामी, ततः परिनिर्वाण गतः, किं प्रज्ञपयित्वा ? षट् त्रिंशदुत्तराध्ययनानि भवसिद्धिक संमतानि - भघसिद्धिकानामेव संमतानि, नाभवसिद्धिकानामिति, ब्रवीम्याचार्योपदेशात्, न स्वमनीषिकया, नयाः पूर्ववत ।
- उत्तराध्ययन चूर्ण, पत्र २८३ इस आशय का समर्थन शान्त्याचार्य की टीका भाग २, पत्र ७१२-१ नेमिचन्द्र की टीका पत्र ३६१-२ तथा उत्तराध्ययन की अन्य टीकाओं में भी है ।
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३०४
तीर्थङ्कर महावीर
जायेगा । जब आपके स्मरण मात्र से ही कुस्वान, बुरे शकुन और बुरे ग्रह श्रेष्ठ फल देने वाले हो जाते हैं, तब जहाँ आप साक्षात् विराजते हों, वहाँ का कहना ही क्या ? इसलिए हे प्रभो ! एक क्षण के लिए अपना जीवन टिका कर रखिये कि, जिससे इस दुष्ट ग्रह का उपशम हो जाये !"
इन्द्र की इस प्रार्थना पर भगवान् ने कहा - "हे इन्द्र ! तुम जानते हो कि, आयु बढ़ाने की शक्ति किसी में नहीं है फिर तुम शासन- प्रेम में मुग्ध होकर ऐसी अनहोनी बात कैसे कहते हो ? आगामी दुपमा काल की प्रवृत्ति से तीर्थ को हानि पहुँचने वाली है । उसमें भावी के अनुसार यह भस्मक ग्रह भी अपना फल दिखायेगा ।"
उस दिन भगवान् को केवलज्ञान हुए २९ वर्ष ६ महीना १५ दिन व्यतीत हुआ था । उस समय पर्येक आसन पर बैठे, प्रभु ने बादरकाययोग में स्थित होकर, बादर मनोयोग और वचनयोग को रोका। फिर सूक्ष्मकाय में स्थित होकर, योगविचक्षण प्रभु ने वचनकाययोग को रोका | उन्होंने वाणी और मन के सूक्ष्मयोग को रोका | इस तरह सूक्ष्म क्रिया वाला तीसरा शुक्ल ध्यान प्राप्त किया । फिर, सूक्ष्मकाययोग को रोक कर समुच्छिन्नक्रिया नामक चौथा शुक्ल ध्यान प्राप्त किया। फिर, पाँच हव अक्षरों का उच्चारण किया जा सके, इतने कालमान वाले, अव्यभिचारी ऐसे शुक्ल ध्यान के चौथे पाये द्वारा कर्म-बंध से रहित होकर यथास्वभाव ऋजुगति द्वारा ऊर्द्ध गमन कर मोक्ष में गये । जिनको लव मात्र के लिए
१ मोक्ष जाने का समय कल्पसूत्र में लिखा है 'पच्चूस काल समयंमि ( सूत्र १४७ ) इसकी टोका सुबोधिका में दी है:
'चतुर्घटिका व शेषायां रात्रायां' रात्रि समाप्त होने में चार घड़ी शेष रहने पर भगवान् निर्वाण को गये । समवायांग सूत्र, समबाय ५५ की टीका में 'अंतिमरायंसि ' की टीका दी है ।
सर्वा: काल पर्यवसानरात्रौ रात्रेरन्ति में भागे प्रत्युषसि पत्र - ६६-१
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भगवान का निर्माण-कल्याणक
३०५ भी सुख नहीं होता, उस समय ऐसे नारकी-जीवों को भी एक क्षण के लिए सुख हुआ ।
उस समय 'चन्द्र' नामका संवत्सर, प्रीतिवर्द्धन' नाम का महीना, नन्दिवर्द्धन नाम का पक्ष, अग्निवेश नामका दिन था। उसका दूसरा नाम उपशम था । रात्रि का नाम देवानंदा था। उस समय अर्च-नामका लव, शुल्क-नामका प्राण, सिद्ध नामका स्तोक, सर्वार्थसिद्ध नाम का मुहूर्त और नाग-नामका करण था ।
जिस रात्रि में भगवान् का निर्वाण हुआ, उस रात्रि में बहुत से देवीदेवता स्वर्ग से आये । अतः उनके प्रकाश से सर्वत्र प्रकाश हो गया ।
उस समय नव मल्लकी नवलिच्छिवी कासी-कोशलग १८ गण राजाओं ने भावज्योति के अभाव में द्रव्य-ज्योति से प्रकाश किया ! उसकी स्मृति में तब से आज तक दीपोत्सव पर्व चला आ रहा है।
भगवान् का निर्वाण-कल्याणक उस समय जगत्-गुरू के शरीर को साश्रु नेत्र देवताओं ने प्रणाम किया और जैसे अनाथ हो गये हों, उस रूप में खड़े रहे । ___ शक्रेन्द्र ने धैर्य धारण करके नंदनवन आदि स्थानों से गोशीर्ष चन्दन मँगा कर चिता बनायी। क्षीरसागर के जल से प्रभु के शरीर को स्नान कराया। अपने हाथ से इन्द्र ने अंगराग लगाया। उन्हें दिव्य वस्त्र
२
१-कार्तिकस्य हि प्रीतिवर्धन इति संज्ञा सूर्यप्रज्ञप्तौ।
___ -संदेहविषौपधि, पत्र १११ २--देवानंदा नाम सा रजनी सा अमावस्या रजनिरित्यप्युच्यते-वही, त्र १११
४ त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग १३ श्लोक २४८, पत्र १८१
२०
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३०६
तीर्थकर महावीर ओढ़ाया । शकेन्द्र तथा सुरामुगे ने साश्रु उनका शरीर एक श्रेष्ठ विमानसरीखी शिविका में रखा।
इन्द्रों ने वह शिविका उठायी। उस समय बंदीजनों के समान जयजय करते हुए देवताओं ने पुष्प-वृष्टि प्रारम्भ की। गंधर्व-देव उस समय गान करने लगे। सैकड़ों देवता मृदंग और पणव आदि वाद्य बजाने लगे।
प्रभु की शिविका के आगे शोक से स्खलित देवांगनाएँ अभिनव नर्तकियों के समान नृत्य करती चलने लगी। चतुर्विध देवतागण दिव्य रेशमी वस्त्रों से, हारादि आभूषणों से और पुष्पमालाओं से शिविका का पूजन करने लगे। श्रावक-श्राविकाएं भक्ति और शोक से व्याकुल होकर रासक-गीत गाते हुए रुदन करने लगे।
शोक-संतत इन्द्र ने प्रभु के शरीर को चिता के ऊपर रखा। अग्निकुमार देवों ने उसमें अग्नि प्रज्वलित की। अग्नि को प्रदीप्त करने के लिए वायु-कुमारों ने वायु चलाया। देवताओं ने सुगंधित पदार्थो के और घी तथा मधु के सैकड़ों घड़े आग में डाले । ___ जब प्रभु का सम्पूर्ण शरीर दग्ध हो गया, तो मेघ-कुमारों ने क्षीरसागर के जल से चिता बुझा दी ।
शक्र तथा ईशान इन्द्रों ने ऊपर के दाहिने और बायें दाढ़ों के ले लिया । चमरेन्द्र और बलीन्द्र ने नीचे की दाढ़े ले ली। अन्य देवतागण अन्य दाँत और अस्थि ले गये। कल्याण के लिए मनुष्य चिता का भस्म ले गये। बाद में देवताओं ने उस स्थान पर रत्नमय स्तूप की रचना की।
नन्दिवर्द्धन को सूचना नन्दिवर्द्धन राजा को भगवान् के मोक्ष-गमन का समाचार मिला।
१ विपष्टिशलाका पुरुष चरित्र, पर्व १०, सर्ग १३, श्लोक २६६, पत्र १८२-२
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इन्द्रभूति को केवल ज्ञान
३०७
शोकार्त अपनी बहिन सुदर्शना के घर उन्होंने द्वितीया को भोजन किया । तब से भातृद्वितीया पर्व चला ।
इन्द्रभूति को केवलज्ञान
गौतम स्वामी देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध कराके लौट रहे थे तो देवताओं की वार्ता से उन्होंने प्रभु के निर्वाण की खबर जानी । इस पर गौतम स्वामी चित्त में विचारने लगे-- "निर्वाण के दिन प्रभु आपने मुझे किस कारण दूर भेज दिया ? अरे जगत्पति ! इतने काल तक मैं आप की सेवा करता रहा, पर अंतिम समय में आपका दर्शन नहीं कर सका । उस समय जो लोग आप की सेवा में उपस्थित थे, वे धन्य थे । हे गौतम ! तू पूरी तरह वज्र से भी अधिक कठिन है; जो प्रभु के निर्वाण को सुनकर भी तुम्हारा हृदय खण्ड-खण्ड नहीं हो जा रहा है । हे प्रभु ! अब तक मैं भ्रान्ति में था, जो आप सरीखे निरागी और निर्मम में राग और ममता रखता था । यह राग-द्वेष आदि संसार का हेतु है । उसे त्याग कराने के लिए परमेष्ठी ने हमारा त्याग किया ।"
इस प्रकार शुभ ध्यान करते हुए, गौतमस्वामी को क्षपक श्रेणी प्राप्त हुई । उससे तत्काल घाती कर्म के क्षय होने से, उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया ।
उसके बाद १२ वर्षों तक केवल ज्ञानी गौतम स्वामी पृथ्वी पर विचरण करते रहे और भव्य प्राणियों को प्रतिबोधित करते रहे । वे भी प्रभु के समान ही देवताओं से पूजित थे ।
अन्त में गौतम स्वामी राजगृह आये और वहाँ एक मास का अनशन करके उन्होंने अक्षय सुखवाला मोक्षपद प्राप्त किया ।
१ कल्पसूत्र सुवोधिका, टीका सहित, पत्र ३५१ दोपमायिका व्याख्यान, पत्र ११५
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तीर्थङ्कर महावीर
भगवान् का परिवार
जिस समय भगवान् का निर्वाण हुआ, उस समय भगवान् के संघ में १४ हजार साधु थे, जिनमें इन्द्रभूति मुख्य थे; ३६ हजार साध्विएँ थीं जिनमें आर्य चन्द्रना मुख्य थीं; १ लाख ५९ हजार श्रावक ( व्रतधारी ) थे, जिनमें शंख और शतक मुख्य थे; तथा ३ लाख १८ हजार श्राविकाएँ ( व्रतधारिणी ) थी, जिनमें सुलसा और रेवती मुख्य थीं । उनके परिवार में ३०० चौदहपूर्वी, १३०० अवधिज्ञानी, ७०० केवलज्ञानी, ७०० वैक्रियलब्धिवाले, ५०० विपुल मतिवाले तथा ४०० वादी थे । भगवान्, महावीर के ७०० शिष्यों ने तथा १४०० साध्वियों ने मोक्ष प्राप्त किया । उनके ८०० शिष्यों ने अनुत्तर-नामक विमान में स्थान प्राप्त किया ।
साधु
धर्मसंग्रह ( गुजराती - भाषान्तर सहित, भाग २, पृष्ठ ४८७ ) में साधु ५ प्रकार के बताये गये हैं । उसमें गाथा आती है
सो किंगच्छो भन्नइ, जत्थ न विज्जंति पञ्च वरपुरिसा । आयरिय उवज्झाया, पवत्ति थेरा गणावच्छा ॥ यतिदिनचर्या ॥ १०२ ॥
- आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्त्तक, स्थविर, और गणावच्छेदक ये पाँच उत्तम पुरुष जहाँ नहीं है, वह कुत्सितगच्छ कहा जाता है ।
३०८
उसी ग्रन्थ ( पृष्ठ ४८८ ) में 'स्थविर' की परिभाषा इस प्रकार दी गयी है:
ते न व्यापारितेष्वर्थेष्वनगारांश्च सीदतः । स्थिरीकरोति सच्छक्तिः, स्थविरो भवतीह सः ॥ १४० ॥
१ - कल्पसूत्र सुत्रोधिका टीका सहित, सूत्र १३३-१४४, पत्र ३५६-३६१
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सुधर्मा स्वामी पाट पर
३०६
-तप-संयम आदि में लगे हुए साधु यदि प्रमाद आदि के कारण सम्यग वर्तन न करते हो, तो जो उचित उपायों से उनको स्थिर करे, दृढ़ करे, उस ( गुण रूपी ) सुंदर सामर्थ्य वाले को जिन-मत में ' स्थविर' कहते हैं |
-
ये सास्थविर तीन प्रकार के कहे गये हैं:व्यवहार-भाष्य की टीका में बताया गया है
'ष्टिवर्ष जातो जाति स्थबिरः' - ६० वर्ष की उम्र वाला जातिस्थविर | 'स्थान समवायधरः श्रुति स्थविरः' - स्थानांग, समवाय आदि को धारण करने वाला श्रुति- स्थविर |
विंशति वर्ष पर्यायः पर्याय स्थविरस्तथा-बीस वर्ष जो पर्याय ( संयम ) पाले हो वह पर्याय स्थविर -
( व्यवहारभाष्य सटीक, उ० १०, सूत्र १५ पत्र १० - १ ) ठगांगसूत्र ( ठा० १०, उ० ३, सूत्र ७६१ पत्र ५१६- १ ) में १० प्रकार के स्थविर बताये गये हैं:
दस थेरा पं० तं०- गाम थेरा १, नगर थेरा २, रठ थेरा ३, पसत्थार थेरा ४, कुल थेरा ५, गण थेरा ६, संघ थेरा ७, जाति थेरा ८, सुत्र धेरा ६, परिताय थेरा १० |
ठाणांग की टीका में भी आया है ।
जाति- स्थविरा: षष्टि वर्ष प्रमाण जन्म पर्याय
श्रुति स्थविरा: समवायाद्यङ्गधारिणः
पर्याय- स्थविरा: विंशति वर्ष प्रमाण प्रव्रज्यापर्यायवन्तः
सुधर्मा स्वामी पाट पर
भगवान् के निर्वाण के पश्चात् उनके प्रथम पाट पर भगवान् के पाँचवें गणधर सुधर्मा स्वामी बैठे । जब भगवान् ने तीर्थस्थापना की थी, उसी समय वासक्षेप डालते हुए भगवान ने कहा था-
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तीर्थङ्कर महावीर चिरंजीवी चिरं धर्म द्योतयिष्यत्यसाविति ।
धुरि कृत्वा सुधर्माणमन्वज्ञासीद्गणं प्रभुः ॥ -यह चिरंजीव होकर धर्म का चिरकाल तक उद्योत करेगा। ऐसा कहते हुए प्रभु ने सुधमा गणधर को सर्व मुनियों में मुख्य करके गण की अनुज्ञा दी।
ऐसा ही उल्लेख कल्पसूत्र की सुबोधिका टीका में तथा तपागच्छपट्टावलि में भी है।
केवल-ज्ञान प्राप्ति के ४२-वें वर्ष में, जिस रात्रि में भगवान का मोक्षगमन हुआ, उसके दूसरे ही दिन प्रातः इन्द्रभूति गौतम को केवलज्ञान हो गया, और तब तक अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त निर्वाण प्राप्त कर चुके थे।
अतः ज्येष्ठ होने के कारण सुधर्मा स्वामी भगवान् के प्रथम पट्टधर हुए । कल्पसूत्र में पाट आता है :
समणे भगवं महावीरे कासवगुत्तेणं समणस्स णं भगवश्रो महावीरस्स कासवगुत्तस्स अज सुहम्मे थेरे अंतेवासी अग्गिवेसायणसगुत्ते।
सुधर्मा स्वामी से परिपाटी चलाने का कारण बताते हुए तपागच्छ पट्टावलि की टीका में आता है :
१-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ५, श्लोक १८० पत्र ७० ---२ २-गणं च भगवान् सुधर्म स्वामिनं धुरि व्यवस्थाप्यानु जानाति
-पत्र ३४१
३-श्री वीरेण श्रीसुधर्मास्वामिनं पुरस्कृत्य गणोऽनुज्ञातः
-श्री तपागच्छपट्टावलि अनुवाद सहित, पष्ठ २ ४-तीर्थकर महावीर माग १, पृष्ठ ३६७-३६८ ५-कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, व्याख्यान ८, पत्र ४८०-४८१
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भगवान् महावीर की सर्वायु
३११
गुरुपरिपाटया मूलमाद्यं कारणं वर्धमान नाम्ना तीर्थंकरः । तीर्थकृतो हि श्राचार्य परिपाट्या उत्पत्ति हेतवो भवंति न पुनस्तदंतर्गता । तेषां स्वयमेव तीर्थ प्रवर्तनेन कस्यापि पट्टधरत्वाभावात् ।
- गुरुपरम्परा के मूल कारणरूप श्री वर्धमान नाम के अंतिम तीर्थकर हैं । तीर्थकर महाराज गुरुपरम्परा के कारण रूप होते हैं; पर गुरुपरम्परा में उनकी गणना नहीं होती । अपनी ही जात से तीर्थ की प्रवर्तना करने वाले होने के कारण उनकी गणना पाट पर नहीं की जाती ।
भगवान् महावीर की सर्वायु
जिस समय भगवान् महावीर मोक्ष को गये, उस समय उनकी उम्र क्या थी, इस सम्बन्ध में जैन सूत्रों में कितने ही स्थलों पर उल्लेख मिलते हैं । उनमें से हम कुछ यहाँ दे रहे हैं :
( १ ) ठाणांगसूत्र, ठाणा ९, उदेशा ३, सूत्र ६९३ में भावी तीर्थंकर महापद्म का चरित्र है । उसका चरित्र भी भगवान् महावीर-सा ही होगा | वहाँ पाठ आता है
से जहा नामते अज्जो ! अहं तीसं वासाहं श्रगारवास मज्भे वसित्ता मुंडे भवित्ता जाव पव्वतिते दुवालस संवछराई तेरस पक्खा छउमत्थपरियागं पाउणित्ता तेरसहिं पक्खेहिं ऊणगाइ तीसं वासाइ केवलिपरियागं पाउणित्ता बावत्तरि वासाइ सव्वाउयं पालइत्ता सिज्झिस्सं जात सव्वदुक्खाणमंतं... -ठाणांगसूत्र सटीक, उत्तरार्द्ध पत्र ४६१ - १ गृहस्थ - पर्याय पालकर, केवलज्ञान-दर्शन
- जैसे मैंने तीस वर्ष
२ - तपागच्छपट्टावलि सटीक सानुवाद, पृष्ठ २
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३१२
तीर्थंकर महावीर
प्राप्त किया और ३० वर्ष में ६ ॥ मास कम केवली - रूप रहा, इस प्रकार कुल ४२ वर्ष श्रमण- पर्याय भोग कर, सब मिलाकर ७२ वर्ष की आयु भोग कर मैं सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होकर होकर सब दुःखों का नाश करूँगा...
( २ ) समणे भगवं महावीरे बावन्तरि वासाइ सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव प्पहीणे...
- समवायांगसूत्र सटीक, समवाय ७२, पत्र ७०-१ (३) तीसा य बद्धमाणे बयालीसा उ परियाओ
- आवश्यक नियुक्ति ( अपूर्ण - अप्रकाशित ) गा० ७७, पृष्ठ ५ । ( ४ ) तेणं कालेणं तेणं समरणं समणे भगवं महावीरे तीस वासाइं श्रागार वासमज्भे वसित्ता, साइरेगाई दुवालस वालाई छउमत्थ परियागं पाउणित्ता, देसूणाई तीसं वासाई केवलि - परियागं पाउणित्ता, बायालीसं वासाइं सामण्ण परियागं पाउणित्ता, वावत्तरि वासाई सव्वाउयं पालइत्ता खीणे वेयणिज्जा ।
- कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, सूत्र १४७, पत्र ३६३ - इसकी टीका सुबोधिका में इस प्रकार दी है:
-
[ तेणं कालेणं ] तस्मिन् काले [ तेणं समएणं ] तस्मिन् समये [ समणे भगवं महावीरे ] श्रमणो भगवान् महावीरः [ तीसं वासाई ] त्रिंशद्वर्षाणि [ श्रागार वासमज्भे वसित्ता ] गृहस्थावस्थामध्ये उषित्वा [ साइरेगाई दुबालस वासाई ] समधिकानि द्वादश वर्षाणि [ छउमत्थपरियागं पाउणित्ता ] छद्मस्थ पर्यायं पालयित्वा [ देसूणाई तीसं वासाई ] किञ्जि दूनानि त्रिंशद्वर्षाणि [ केवलिपरियागं पाउणित्ता ] केवलिपर्यायं
१ – धवल - सिद्धान्त ( भगवान् महावीर और उनका समय, युगल किशोर मुख्तार लिखित, पृष्ठ १२ ) में भगवान् का केवलि काल २६ वर्ष ५ मास २० दिन लिखा है ।
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निर्वाण तिथि
३१३
पालयित्वा [ बयालीसं वासाई ] द्विचत्वारिशद्वर्षाणि [ सामण्ण परियागं पाउणित्ता ] चरित्र पर्यायं पालयित्वा [ बावत्तरि वासाइ सव्वाउयं पालइत्ता ] द्विसप्तति वर्षाणि सर्वायु
'पालयित्वा
निर्वाण- तिथि
दिगम्बर-ग्रन्थों में भगवान् महावीर का निर्वाण कार्तिक कृष्ण चतुदर्शी को लिखा है:
क्रमात्पावापुरं प्राप्य मनोहर वनान्तरे ।
बहूनां सरसां मध्ये महामणि शिलातले ॥ ५०६ ॥ स्थित्वा दिनद्वयं वीत विहारो वृद्ध निर्जरः । कृष्ण कार्तिक पक्षस्य चतुद्दश्य निशात्यये ॥ ५१० ॥ स्वति योगे तृतीयेद्ध शुक्लध्यान परायणः । कृतत्रियोगसंरोधः समुच्छिन्न क्रियं श्रितः ॥ ५११ ॥ हता घाति चतुष्कः सन्नशरीरो गुणात्मकः । गत्ता मुनिसहस्रेण निर्वाणं सर्वत्राञ्छितम् ।। ५१२ ।।
- उत्तरपुराण, सर्ग ७६, पृष्ठ ५६३ -अंत में वे पावापुर नगर में पहुँचेंगे। वहाँ के मनोहर नाम के वन के भीतर अनेक सरोवरों के बीच में मणिमय शिला पर विराजमान होंगे । विहार छोड़कर निर्जरा को बढ़ाते हुए, वे दो दिन तक वहाँ विराजमान रहेंगे और फिर कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन रात्रिके अंतिम समय - स्वाति नक्षत्र में अतिशय देदीप्यमान तीसरे शुक्लध्यान में तत्पर होंगे । - तदनन्तर तीनों योगों का निरोध कर समुच्छिन्न क्रिया प्रतिपाति नामक चतुर्थ शुक्लध्यान को धारण कर चारों आधातिया कर्मों का क्षय कर देंगे और शरीरहित केवल गुणरूप होकर एक हजार मुनियों के साथ सत्र के द्वारा वाच्छनीय मोक्षपद प्राप्त करेंगे ।
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३१४
तीर्थकर महावीर तिलोयपण्णति में भी भगवान् का निर्वाण चतुर्दशी को ही बताया गया है । पर, अंतर इतना मात्र है कि, जहाँ उत्तर पुराण में एक हजार साधुओं के साथ मोक्षपद प्राप्ति की बात है, वहाँ तिलोयपण्णति में उन्हें अकेले मोक्ष जाने की बात कही गयो है । वहाँ पाठ है--
कत्तियकिण्हे चोदसि पच्चूसे सादिणामणक्खत्ते पावाए णयरीए एक्को वीरेसरो सिद्धो । -तिलोयपण्णति भाग १, महाधिकार ४, श्लोक १२०८, पृष्ठ ३०२
-भगवान् वीरेश्वर कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन प्रत्यूपकाल में स्वाति नामक नक्षत्र के रहते पावापुरी से अकेले सिद्ध हुए।
धवल-सिद्धान्त में भी ऐसा ही लिखा है :--
पच्छा पावा णयरे कत्तियमासे य किण्ह चोद्दसिए सादीए रत्तीए सेसरयं छेत्त णिवाओ
पर, दिगम्बर स्रोतों में ही भगवान् का निर्वाण अमावस्या को होना भी मिलता है । पूज्यपाद ने निर्वाणभक्ति में लिखा है
पद्मवन दीर्घिकाकुल विविधद्र मखंडमंडित रम्ये । पावानगरोद्याने व्युत्सर्गेण स्थितः स मुनिः ॥१६॥ कार्तिक कृष्णस्यान्ते स्वाता वृक्षे निहत्य कर्मरजः । अवशेषं संप्रापद् व्यजरामरमक्षयं सौख्यम् ॥१७॥
-क्रियाकलाप, पृष्ठ २२१, यहाँ दीपावलि की भी एक बात बता दूँ। दक्षिण में दीपावलि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को होती है, पर उत्तर में कार्तिक कृष्ण अमावस्या को होती है।
१८ गणराजे वैशाली के अंतर्गत १८ गणराजे थे। इसका उल्लेख जैन शास्त्रों में विभिन्न रूपों में आया है ।
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१८ गणराजे
३१५
( १ ) भगवान् महावीर के निधन के समय १८ गणराजे उपस्थित थे । उसका पाठ कल्पसूत्र में इस प्रकार है :
नवमल्लई नवलेच्छई कासीकोसलगा श्रद्धारसवि गणरायाणो
- कल्पसूत्र सुबोधिका टीका सहित, व्याख्यान ६, सूत्र १२८ पत्र ३५० इसकी टीका सन्देहविषौषधि में इस प्रकार दी है :
'नवलई' इत्यादि काशीदेशस्य राजानो मल्लकी जातीया नव कोशल: देशस्य राजानो, लेच्छकी जातीया नव
( २ ) भगवतीसूत्र श० ७,३०९, सूत्र २९९ पत्र ५७६ - २ में युद्ध - प्रसंग में पाठ आया है :
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नवमल्लई नवलेच्छई कासी- कोसलगा गणरायाणो
वि
अभयदेव सूरि ने इसको टीका इस प्रकार को है :
'नव मल्लई' ति मल्लकि नामानो राजविशेषाः, 'नव लेच्छइ त्ति लेच्छकीनामानो राजविशेषाः एव 'कासीकोसलग ति काशी - वाराणसी तज्जनपदोऽपि काशी तत्सम्बन्धिन आद्या नव, कोशला अयोध्या तज्जनपदोऽपि कोशला तत्सम्बन्धिनः नव द्वितीयाः । ' गणरायाणो' ति समुत्पन्ने प्रयोजने ये गणं कुर्वन्ति ते गणप्रधाना राजानौ गणराजाः इत्यर्थः, ते च तदानों चेटक राजस्य वैशालीनगरी नायकस्य साहाय्याय गण कृतवंत इति
......
*
( ३ ) निरयावलिका में भी इसी प्रकार का पाठ है नवमललाई नवलेच्छई कासीकोसलका गणरायाणो
अट्ठारस
- पत्र ५७९-५८
अट्ठारस वि
- निरयावलिका सटीक, पत्र १७-२
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तीर्थकर महावीर इन पाठों से स्पष्ट है, कि वैशाली के आधीन १८ गणराजे थे। काशी-कोशल को भी इन्हीं १८ में ही मानना चाहिए। टीका से यह गणना स्पष्ट हो जाती है।
इसकी पुष्टि निरयावलिका के एक अन्य प्रसंग से भी होती है। चेटक जब सेना लेकर लड़ने के लिए चलता है तो उसका वर्णन है
तते णं ते चेडए राया तिहि दंति सहस्सेहिं जहा कूणिए जाव वेसालि नगरि मझमझेण निग्गच्छति' निग्गच्छित्ता जेणवे नवमल्लई, नवलेच्छई काशीकोसलगा अट्टारस वि गणरायाणो तेणवे उवागच्छति.....
फिर १८ गणराजाओं के साथ संयुक्त चेटक की सेना की संख्या निरयावलिका में इस प्रकार दी है :
तते णं चेडए राया सत्तावन्नाए दंतिसहस्सेहिं सत्तावनाए आससहस्सेहिं सत्तावन्नाए रहसहस्सेहिं सत्तावन्नाए मणुस्स कोडीएहि...... ___ इस पाठ से भी स्पष्ट है कि चेटक और १८ गणराजाओं की सेनाएँ वहाँ थी।
(४)चेटक के १८ गणराजे थे, यह बात आवश्यकचूर्णि (उत्तरार्द्ध) 'पत्र १७३ से भी स्पष्ट है। उसने पाठ है
चेडएणवि गणरायाणो मोलिता देसप्पंते ठिता, तेसिपि . अट्ठारसण्हं रायीणं समं चेडपणं तो हत्यिसहस्सा रह सहस्सा मणुस्स कोडीग्रो तहा चेत्र, नवरि संखेवो सत्तावराणो सत्तावराणो......
इसी प्रकार का पाठ आवश्यक की हरिभद्र की टीका में भी है:......तत् श्रुत्वा चेटकनाष्टादश गणराजा मेलिता ..
-पत्र ६८४-१
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१८ गणराजे
( ५ ) उत्तराध्ययन, की टीका में भावविजयगणि ने लिखा ततो युतोऽष्टादशभिर्भूपैर्मुकुट धारिभिः
( ६ ) विचार - रत्नाकर में भी ऐसा ही उल्लेख है:चेटके नाऽप्यष्टादश गणराजानो मेलिताः
३१७
--पत्र १११-२
इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि, गणराजाओं की संख्या १८ ही मात्र थी । पर, कुछ आधुनिक विद्वान
1148 11
- पत्र ४-२
नव मल्लई, नवलेच्छई कासी कोसलामा श्रट्ठारसवि गणरायाणो
पाठ से बड़े विचित्र-विचित्र अर्थ करते हैं । उदाहरण के लिए हम यहाँ कुछ भ्रामक अर्थों का उल्लेख कर रहे हैं
( १ )... ऐंड द' जैन बुक्स स्पीक आव नाइन लिच्छिवीज एज हैविंग फार्म्ड ए कंफेडेरेसी विथ नाइन मल्लाज ऐंड एटीन गणराजाज आव कासी - कोसल
- द' एज आव इम्पीरीयल यूनिटी ( हिस्ट्री ऐंड कलचर आव द इंडियन पीपुल, वाल्यूम २, भारतीय विद्याभवन - नार्थ इंडिया इन द ' सिक्सथ सेंचुरी बी. सी., विमल चरण ला, पृष्ठ ७ )
— जैन ग्रंथों में वर्णन है कि ९ लिच्छिवियों ने ९ मल्लों और कासो कोसल के १८ गणराजाओं के साथ गणराज्य स्थापित कर लिया था ।
यहाँ ला - महोदय के हिसाब से ९ मल्ल + ९लिच्छिवि + १८ कासीकोशल के गणराजे कुल ३६ राजे हुए ।
( २ ) ...... उनके वैदेशिक सम्बन्ध की देखभाल ९ लिच्छिवियों की एक समिति करती थी, जिन्होंने ९ मल्लिक और कासी - कोसल के १८
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३१८
तीर्थंकर महावीर
गणराजाओं से मिलकर महावीर के मामा चेटक के नेतृत्व में एक संघटन
चनाया था.
-- ' हिन्दू सभ्यता' राधाकुमुद मुकर्जी ( अनु० वासुदेवशरण अग्रवाल ) पृष्ठ २०० ।
राधाकुमुद मुखर्जी की गणना भी ३६ होती है । यह भी ला के समान ही भ्रामक है ।
( ३ ) द 'जैन कल्पसूत्र रेफर्स टु द नाइन लिच्छवीज एज फार्मूड ए लीग विथ नाइन मल्लकीज ऐंड एटीन आर्कस आव कासी - कोसल | - हेमचन्द्रराय चौधरी - लिखित 'पोलिटिकल हिस्ट्री आव ऐंशेंट इंडिया' पाँचवाँ संस्करण ) पृष्ठ १२५
रायचौधरी की गणना भी ३६ हुई । इसके प्रमाण में रायचौधरी ने हर्मन याकोबी के कल्पसूत्र का संदर्भ दिया है। पर, याकोबी ने अपने अनुवाद में इस रूप में नहीं लिखा है, जैसा कि रायचौधरी ने समझा । पाठकों की सुविधा के लिए हम याकोबी के अनुवाद का उद्धरण ही यहाँ दे रहे हैंः—एटीन कन्फेडेरेट किंग्स आव कासी ऐंड कोशल | -नाइन लिच्छवीज ऐंड नाइन मल्लकीज
-सेक्रेड बुक आव द ईस्ट, वाल्यूम २२, पृष्ठ २६ रायचौधरी ने अपनी पादटिप्पणि में इन लिच्छिवियों और मल्लों को कासी - कोसल का होने में सन्देह प्रकट किया है । विस्तार मे महावीर स्वामी के वंश का वर्णन करते हुए हम यह लिख चुके हैं कि लिच्छिवि क्षत्रिय थे और अयोध्या से वैशाली आये थे । भगवान् महावीर स्वामी का गोत्र काश्यप था, और काश्यप गोत्र ऋषभदेव भगवान् से प्रारम्भ हुआ, इसकी भी कथा हम लिख चुके हैं । जैन और हिंदू दोनों स्रोतों से यह सिद्ध है । परमत्थजोतिका का यह लिखना कि, लिच्छिवि काशी के थे वस्तुतः स्वयं भ्रामक है ।
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ERIRO PRINT SYIVPC IVITIES
." विरय भगवत (त) थ चतुरासि तिव (स) (का) ये सालिमालिनि र नि विठमाझिमि के
-भगवान् वीर के लिए ८४ वें वर्ष में मध्यमिका के ..
[ यह शिलालेख महावीर-संवत् ८४ का है । आज कल यह अजमेर-संग्राहालय में है। अजमेर से २६ मील दक्षिण-पूर्व में स्थित वरली से यह प्राप्त हुआ था । शिलालेख में उल्लिखित माध्यमिका चित्तौड़ से ८ मील उत्तर स्थित नगरी-नामक स्थान है । यह भारत का प्राचीनतम शिलालेख है ]
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महावीर-निर्माण-संवत्
३१६ महाबीर-निर्माण-संवत् भगवान् महावीर का निर्वाण कब हुआ, इस संबंध में जैनों में गणना को एक अभेद्य परम्परा विद्यमान है और वह श्वेताम्बरों तथा दिगम्बरों में समान ही है । 'तित्थोगालीपयन्ना' में निर्वाणकाल का उल्लेख करते हुए लिखा है--
जं रयणि सिद्धिगो, अरहा तित्थकरो महावीरो। तं रयणिमवंतीए, अभिसित्तो पालो राया ॥६२०॥ पालग रराणो सट्ठी, पुण पण्णसयं वियाणि णंदाणम् । मुरियाणं सट्टिसयं, पणतीसा पूस मित्ताणम् (त्तस्स) ॥२१॥ बलमित्त-भागुमित्ता, सट्टा चत्ताय होति नहसणे गहभसयमेगं पुण, पडिवन्नो तो सगो राया ॥६२२।।
पंच य मासा पंच य, वासा छच्चेव होति वाससया । परिनिव्वुअस्सऽरिहतो, तो उप्पन्नो (पडिवनो) सगोराया ॥६२३।।
-जिस रात में अर्हन महाबीर तीर्थंकर का निर्वाण हुआ, उसी रात (दिन) में अवन्ति में पालक का राज्याभिषेक हुआ ।
६० वर्ष पालक के, , ० नंदों के, ५६० मौयों के, ३५ पुष्यमित्र के, ६० बलमित्र-भानुमित्र के, ८० नमःसेन के और १०० वर्ष गर्दमिलों के बीतने पर दशक राजा का शासन हुआ।
अहन् महावीर को निर्वाण हुए ६०५ वर्ष और ', मास बीतने पर शक राजा उत्पन्न हुआ। ___ यही गणना अन्य जैन ग्रंथों में भी मिलती है। हम उनमें से कुछ नीचे दे रहे हैं :(१) श्री वीरनिवृतेवः पद्भिः पञ्चोत्तरैः शतैः।
शाक संवत्सरस्यैषा प्रवृत्तिभरतेऽभवत् ।।
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तीर्थंकर महावीर
— मेरुतुंगाचार्य रचित 'विचार श्रेणी' ( जैन साहित्य संशोधक, खंड २, अंक ३-४ पृष्ठ ४ )
(२) छहिं वासाण सएहिं पञ्चहिं वासेहिं पञ्चमासेहिं मम निव्वाण गयस्स उ उपाजिस्सइ सगो राया ॥ - नेमिचंद्र - रचित 'महावीर - चरियं' श्लोक २१६९, पत्र ९४-१ ६०५ वर्ष ५ मास का यही अंतर दिगम्बरों में भी मान्य है । हम यहाँ तत्संबंधी कुछ प्रमाण दे रहे हैं
-:
( १ ) पण छस्सयवस्सं पणभासजुदं गमिय वीरणिव्वुइदो । सगराजो तो कक्की चदुणवतियमहिय सगमासं ॥ ८५० ॥ - नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती रचित 'त्रिलोकसार' ( २ ) वर्षाणां षट्शतीं त्यक्त्वा पंचाग्रां मांसपंचकम् । मुक्तिं गते महावीरे शकराजस्ततोऽभवत् ॥ ६०- ५४६॥ - जिनसेनाचार्य -रचित 'हरिवंशपुराण'
(३) णिव्वाणे वीरजिणे छब्बास सदेसु पंचवरिसेसु । पण मासेसु गदेसु संजादो सगणिश्रो श्रहवा । -तिलोयपण्णत्ति, भाग १, पृष्ठ ३४१ ( ४ ) पंच य मासा पंच य वासा छच्चेव होंति वाससया । सगकाले य सहिया थावेयव्वा तदो रासी ॥
- धवला ( जैनसिद्धान्त भवन, आरा ), पत्र ५३७ वर्तमान ईसवी सन् १९६१ में शक संवत १८८२ है । इस प्रकार ईसवी सन् और शक संवत् में ७९ वर्ष का अंतर हुआ । भगवान् महावीर का निर्वाण शक संवत से ६०५ वर्ष ५ मास पूर्व हुआ । में से ७९ घटा देने पर महावीर का निर्वाण ईसवी पूर्व होता है ।
इस प्रकार ६०६ ५२७ में सिद्ध
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महावीर-निर्माण-संवत् केवल शक-संवत् से ही नहीं, विक्रम संवत् से भी महावीर निर्वाण का अंतर जैन-साहित्य में वर्णित है ।
तपागच्छ—पट्टावलि में पाट आता हैजं रयणि कालगओ, अरिहा तित्थंकरो महावीरो। तं रयणि अवणिबई, अहिसित्तो पालो राया ॥ १॥ वट्टी पालयरगणो ६०, पणवण्णसयं तु होइ नंदाणं १५५, अट्ठसयं मुरियाणं १०८, तीस चित्र पूसमित्तस्स ३० ॥२॥ बलमित्त-भाणुमित्त सट्ठी ६० वरिसाणि चत्त नहवाणे ४० तह गहभिल्लरज्जं तेरस १३ वरिस सगस्स चउ (वरिसा)॥३॥
श्री विक्रमारित्यश्च प्रतिबोधितस्तद्राज्यं तु श्री वीर सप्तति चतुष्टये ४७० संजातं ।
–६० वर्ष पालक राजा, १५५ वर्ष नव नंद, १०८ वर्ष मौर्यवंशका, ३० वर्ष पुष्यभित्र, बलमित्र-भानुमित्र ६०, नहपान ४० वर्ष । गर्दभिल्ल १३ वर्ष, शक ४ वर्ष कुल मिलकर ४७० वर्ष ( उन्होंने विक्रमादित्य राजा को प्रति बोधित किया) जिसका राज्य वीर-निर्वाण के ४७० वर्ष बाद हुआ।
-धर्मसागर उपाध्याय-रचित तपागच्छ-पट्टावली ( सटीक सानुवाद पन्यास कल्याण विजय जी) पृष्ट ५०-५२
ऐसा ही उल्लेख अन्य स्थलों पर भी है। (१) विक्रमरज्जारंभा परओ सिरि वीर निव्वुई भणिया।
सुन्न मुणि वेय जुत्तो विक्कम कालउ जिण कालो।
-विक्रम काला जिजनस्य वीरस्य कालो जिन कालः शून्य (०) मुनि (७) वेद (४) युक्तः । चत्वारिशतानि सप्तत्यधिक वर्षाणि श्री महावीर विक्रमादित्ययोरन्तर मित्यर्थः। नन्वयं कालः श्री वीर-विक्रमयोः कथं गण्यते; इत्याह विक्रम राज्या
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तीर्थकर महावीर रम्भात् परतः पश्चात् श्री वीर निर्वतिरत्र भणिता। को भावःश्री वीर निर्वाणदिनादनु ४७० वर्षर्विक्रमादित्यस्य राज्यारम्भ दिन मिति
-विचारश्रेणी ( पृष्ठ ३,४ ) (३) पुनर्मन्निर्वाणात् सपत्यधिक चतुः शत वर्षे (४७०) उज्जयिन्यां श्री विक्रमादित्योराजा भविष्यति...स्वनाम्ना च संवत्सर प्रवृत्तिं करिष्यसि --श्री सौभाग्यपंचम्यादि पर्वकथासंग्रह, दीपमालिका व्याख्यान,
पत्र ९६-९७ (४) महामुक्खगमणाओ पालय-नंद-चंदगुत्ताइराईसु बोलोणेसु चउसय सत्तरेहिं विक्कमाइच्चो राया होहि । तत्थ सट्ठी वरिसाणं पालगस्स रज्जं, पणपण्णं सयं नंदाणं, अट्ठोत्तर सयं मोरिय वंसाणं, तीसं पूसमित्तस्स, सट्ठी बलमित्त-भाणु मित्ताणं, चालीसं नरवाहणस्य, तेरस गद्दभिल्लस्स, चत्तारि सगरस । तो विक्कमाइच्चो......
—विविध तीर्थकल्प ( अपापावृहत्कल्प ) पृष्ट ३८,३९ (५) चउसय सत्तरि वरिसे ( ४७० ), वीराओ विक्कमो जाओ
-पंचवस्तुक विक्रम संवत् और ईसवी सन् में ५७ वर्ष का अतंर है । इस प्रकार ४७० में '५७ जोड़ने से भी महावीर-निर्वाण ईसा से ,२७ वर्ष पूर्व आता है।
कुछ लोग परिशिष्ट-पर्व में आये एक श्लोक के आधार पर, यह अनुमान लगाते हैं कि, हेमचन्द्राचार्य महावीर-निर्वाण-संवत ६० वर्ष बाद मानते हैं । पर, यह उनकी भूल है। उन लेखकों ने अपना मत हेमचन्द्रा चार्य की सभी उक्तियों पर बिना विचार किये निर्धारित कर रखा है ।
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महावीर-निर्माण-संवत्
कुमारपाल के सम्बन्ध में हेमचन्द्राचार्य ने त्रिपष्टिशलाकापुरुप
चरित्र में लिखा है :
अस्मिन्निवणितो वर्ष शत्या [ ता ] न्यभय षोडश । नव षष्टिश्च यास्यन्ति यदा तत्र पुरे तदा ॥ ४५ ॥ कुमारपाल भूपाली लुक्य कुल चन्द्रमा | भविष्यति महाबाहुः प्रचण्डाखण्डशासनः ॥ ४६ ॥ - त्रिपष्टिशलाकापुरुष चरित्र, पर्व १०, सर्ग १२, पत्र १५९-२ भगवान् के निर्वाण के १६६९ वर्ष बाद कुमारपाल
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अर्थात् राजा होगा ।
हम पहले कह आये हैं, वीर निर्वाण के ४७० वर्ष बाद विक्रम संवत् प्रारम्भ हुआ । अतः १६६९ में से ४७० घटाने पर ११९९ विक्रम संवत् निकलता है | इसी विक्रम संवत् में कुमारपाल गद्दी पर बैठा । इस दृष्टि से भी महावीर- निर्वाण ५२७ ई० पू० में ही सिद्ध होता है । और, ६० वर्षों का अंतर बताने वालों का मत हेमचन्द्राचार्य को ही उक्ति से खंडित हो जाता है ।
पुणे वाससहस्से सयम्मि वरिसाण नवनवइ अहिए होही कुमर नरिन्दो तुह विकमराय ! सारिच्छो - प्रबंधचिंतामणि, कुमारपालादि प्रबंध, पृष्ठ ७८ संवन्नवनव-शंकरे मार्गशीर्ष के तिथौ चतुर्थ्यां श्यामायां वारे पुण्यान्विते खौ
अथ
१ सं० ११६६ वर्षे कार्तिक मुद्री ३ निरुद्धं दिन ३ पादुका राज्यं । तत्रैव वर्षे मार्ग मुदी ४ उपविष्ट भीमदेव सुत-खेमराजसुत, देवराज सुत त्रिभुवनपाल सुतश्री कुमारपालस्य सं० १२२६ पौष सुदी १२ निरुद्धं राज्यं ....
- विचारश्रेणी ( जै० सा० सं० ) पृष्ठ 8 ऐसा ही उल्लेख स्थविरावलि (मेरुतुंग-रचित ) ( जैन० सा० सं० व २ अंक २, ४१४१ ) में भी है ।
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तीर्थकर महावीर
-जयसिंहसूरि-प्रणीति कुमारपालचरित्र सर्ग ३, इलोक ४६३ पत्र ६०-१
बौद्ध-ग्रन्थों का एक भ्रामक उल्लेख दीघनिकाय के पासादिक-सुत्त में उल्लेख है
ऐसा मैंने सुना—एक समय भगवान् शाक्य (देश) में वेधचा-नामक शाक्यों के आम्रवन-प्रासाद में विहार कर रहे थे ।
उस समय निगण्ठ नाथपुत्त ( तीर्थकर महावीर ) की पावा में हाल ही में मृत्यु हुई थी। उनके मरने पर निगण्टों में फूट हो गयी थी, दो पक्ष हो गये थे, लड़ाई चल रही थी, कलह हो रहा था। वे लोग एक दूसरे को वचन रूपी वाणों से बेधते हुए विवाद करते थे-तुम इस धर्मविनय को नहीं जानते, मैं इस धर्मविनय को जानता हूँ। तुम भला इस धर्मविनय को क्या जानोगे ? तुम मिथ्याप्रतिपन्न हो, मैं सम्यकप्रतिपन्न हूँ। मेरा कहना सार्थक है और तुम्हारा कहना निरर्थक । जो (बात ) पहले कहनी चाहिए थी, वह तुमने पीछे कही, और जो पीछे कहनी चाहिए थी, वह तुमने पहले कही । तुम्हारा वाद बिना विचार का उल्टा है । तुमने वाद रोपा, तुम निग्रहस्थान में आ गये। इस आक्षेप से बचने के लिए यत्न करो, यदि शक्ति है तो इसे सुलझाओ । मानों निगण्टों में युद्ध हो रहा था।
"निगण्ठ नाथयुत्त के जो श्वेत-वस्त्रधारी गृहस्थ शिष्य थे, वे भी निगण्ट के वैसे दुराख्यात ( = ठीक से न कहे गये) दुष्प्रवेदित (= ठीक से न साक्षात्कार किये गये), अ-नैर्याणिक (= पार न लगाने वाले), अन्उपशम-संवर्तनिक ( =न शान्तिगामी ), अ-सम्यक संबुद्ध-प्रवेदित (= किसी बुद्ध द्वारा न साक्षात् किया गया), प्रतिष्ठा (नीव)-रहित
=भिन्न स्तूप आश्रय रहित धर्म में अन्यमनस्क हो खिन्न और विरक्त हो रहे थे।
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बौद्ध ग्रन्थों का एक भ्रामक उल्लेख
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तब, चुन्द समगुद्देस पावा में वर्षावास कर जहाँ सामगाम था और जहाँ आयुष्मान् आनन्द थे वहाँ गये | बैठ गये । बोले – “भँते ! निगण्टों में फूट० ।”
ऐसा कहने पर आयुष्मान् आनन्द बोले – “आबुस चुन्द ! यह कथा भेंट रूप है | आओ आस चुन्द ! जहाँ भगवान् हैं, वहाँ चलें । चलकर यह बात भगवान् से कहें ।"
"बहुत अच्छा" कह चुन्द ने उत्तर दिया |
तब आयुष्मान् आनन्द और चुन्द० श्रमणोद्देश जहाँ भगवान् थे वहाँ गये । एक ओर बैठे आयुष्मान् आनन्द बोले - "भंते ! चुद० ऐसा निगण्ठ नाथ पुत्र की अभी हाल में पावा में मृत्यु हुई है । उनके मरने पर कहता है- 'निगण्ठ० पावा में० ।" "
इसी से मिलती-जुलती कथाएँ दीघनिकाय के संगीतमुत्तन्त और मज्झिमनिकाय के सामगाम सुतंत में भी आती हैं ।
बौद्ध साहित्य में महावीर - निर्वाण का यह उल्लेख सर्वथा भ्रामक हैइस ओर सबसे पहले डाक्टर हरमन याकोबी का ध्यान गया और उन्होंने इस सम्बन्ध में एक लेख लिखा जिसका गुजराती- अनुवाद 'भारतीय विद्या, (हिन्दी) के सिंबी - स्मारक - अंक में छपा है ।
इस सूचना के सम्बन्ध में डाक्टर ए० एल० बाशम ने अपनी पुस्तक 'आजीवक' में लिखा है- "मेरा विचार हैं कि पाली ग्रंथों के इस संदर्भ में महावीर के पावा में निर्वाण का उल्लेख नहीं है, पर सावत्थी में गोशाला
१- दीघनिकाय ( हिन्दी अनुवाद) पासादिक मुक्त पृष्ठ २५२ २५३
२- दीघनिकाय ( हिन्दी अनुवाद ) पृष्ठ २८२
३ – मज्झिमनिकाय ( हिन्दी अनुवाद ) पृष्ठ ४४१
- पृष्ठ १७७-१६०
४
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तीर्थकर महावीर की मृत्यु का उल्लेख है। भगवतीसूत्र में भी इस संदर्भ में झगड़े आदि का उल्लेख आया है।" ____ बुद्ध का निधन ५४४ ई०° पूर्व में हुआ और महावीर स्वामी का निर्वाण ५२७ ई० पूर्व में हुआ। महावीर स्वामी के निर्वाण के सम्बंध में हम विस्तार से तिथि पर विचार कर चुके हैं।
बुद्ध भगवान् महावीर से लगभग १६ वर्ष पहले मरे । भगवान् के विहार-क्रम में हम विस्तार से लिख चुके हैं कि, भगवान् महावीर के निर्वाण से १६ वर्ष पूर्व किस प्रकार गोशाला का देहावसान हुआ था और जमालि प्रथम निह्नव हुआ था। यह झगड़े का जो उल्लेख बौद्ध-ग्रंथों में है, वह वस्तुतः जमालि के निह्नव होने का उल्लेख है। ___याकोबी का कथन है कि, बौद्ध ग्रन्थों के जिन सूत्रों में यह उल्लेख है, वे ( सूत्र) वस्तुतः निर्वाण के दो-तीन शताब्दि बात लिखे गये हैं। अतः सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि २-३ सौ वर्षों के अंतर के बाद सुनी-सुनायी बातों को संग्रह के कारण यह भूल हो गयी होगी।
१-आजीवक, पृष्ठ ७५ २-टू थाउजैड फाइव हंड्रेड इयर्स आव बुद्धिज्म, फोरवार्ड, पष्ठ ५ ३-भारतीय विद्या, पृष्ठ १८१
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श्रमण-श्रमणी
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रोइन नायपुत्त-वयणे, अप्पसमे मन्नेज्ज छपि काए । पंच य फासे महत्र्वयाई, पंचासव संवरे जे स भिक्खू ॥ : - दशवैकालिकसूत्र, अ० १०, गा० ५
जो ज्ञातपुत्र - भगवान् महावीर के प्रवचनों पर श्रद्धा रखकर छड़काय के जीवों को अपनी आत्मा के समान मानता है, जो अहिंसा आदि पाँच महात्रतों का पूर्णरूप से पालन करता है, जो पाँच आस्त्रयों का संवरण अर्थात् निरोध करता है, वही भिक्षु है ।
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श्रमण-श्रमणी
१. अकम्पित-देखिए तीर्थंकर महावीर, भाग १, पृष्ठ ३१०३१२, ३६९ ।
२. अग्निभूति-देखिएं तीर्थंकर महावीर, भाग १, पृष्ठ २७०२७५, ३६७ ।
३. अचलभ्राता-देखिए तीर्थंकर महावीर, भाग १, पृष्ठ ३१३३१८, ३६९।
४. अतिमुक्तक- राजाओं वाले प्रकरण में विजय-राजा के प्रसंग में देखिए।
५. अनाथो मुनि-ये कौशाम्बी के रहनेवाले थे। इनके पिता का नाम धनसंचय था। एक बार बचपन में इनके नेत्रों में पीड़ा हुई । उससे उनको विपुल दाह उत्पन्न हुआ। उसके पश्चात् उनके कटिभाग, हृदय
और मस्तक में भयंकर वेदना उटी । वैद्यों ने उनकी चतुष्पाद चिकित्सा की पर वे सभी विफल रहे । उनके माता, पिता, पत्नी, भाई-बंधु सभी लाचार होकर रह गये। कोई उनके दुःख को न हर सका। उसी बीमारी
१-कोसंबी नाम नयरी, पुराणपुर भेयणी।।
तत्थ पासो पिया मज्झ पभूयधणसंचारो ॥ -उत्तराभ्ययन नेमिचंद्र की टीका सहित, अ० २०, श्लोक १८, पत्र २६८.२
२-'चाउप्पायं' ति चतु-पादां भिषग्भेषजातुरप्रतिचारकात्मक चतुर्भाग चतुप्टयात्मिका-वही पत्र २६९-२ ।
और चिकित्सा के प्रकार बताते हुए लिखा है कि, इतने तरह के लोग चिकित्सा करते थे-आचार्य, विद्या, मंत्र, चिकित्सक, शस्त्रकुशल, मंत्रमूलविशारद-गा० २२ ।
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तीर्थंकर महावीर में उन्हें विचार हुआ—“यदि मैं वेदना से मुक्त हो जाऊँ तो क्षमावान, दान्तेन्द्रिय और सर्व प्रकार के आरम्भ से रहित होकर प्रवजित हो जाऊँ ।” यह चिंतन करते-करते उन्हें नींद आ गयी और उनकी पीड़ा जाती रही। सबसे अनुमति लेकर वे प्रवजित हो गये ।
राजगृह के निकट मंडिकुक्षि में इन्होंने ही श्रेणिक को जैन-धर्म की ओर विशेष रूप से आकृष्ट किया था।
६. अभय—-देखिए तीर्थंकर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ । ७. अर्जुन माली-देखिए तीर्थंकर महावीर, भाग २, पृष्ठ ४८-४९ । ८. अलक्ष्य-राजाओं वाले प्रकरण में देखिए। ६. आनंद-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ९३ १०-अानन्द थेर-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ
११. आईक-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५४-६५
१२. इन्द्रभूति-देखिए तीर्थकर महावीर, भाग १, पृष्ठ २६०२६९, ३६७ भाग २, पृष्ठ ३०७
जब गौतम स्वामी के शिष्य साल-महासाल आदि को केवलज्ञान हुआ तो उस समय गौतम स्वामी को यह विचार हुआ कि, मेरे शिष्यों को तो केवलज्ञान हो गया; पर मैं मोक्ष में जाऊँगा कि नहीं, यह शंका की बात है। गौतम स्वामी यह विचार ही कर रहे थे कि, गौतम स्वामी ने देवताओं को परस्पर बात करते सुना-"आज श्री जिनेश्वर देशना में कह रहे थे कि.
जो भूचर मनुष्य अपनी लब्धि से अष्टापद पर्वत पर जाकर जिनेश्वरों की • वंदना करता है, वह मनुष्य उसी भव में सिद्धि प्राप्त करता है।"
यह सुनकर गौतम स्वामी अष्टापद पर जाने को उत्सुक हुए और वहाँ जाने के लिए उन्होंने भगवान् से अनुमति माँगी। आज्ञा मिल जाने पर गौतम स्वामी ने तीर्थकर की वंदना की और अष्टापद की ओर चले ।
उसो अवसर पर कोडिन्न, दिन्न और सेवाल-नामक तीन तापस
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श्रमण-श्रमणी
३३१ अपना ५००-५०० का शिष्य-परिवार लेकर पहले से ही अष्टापद की ओर चले । कोडिन्न-सपरिवार अष्टापद की पहली मेखला तक पहुँचा। आगे जाने की उनमें शक्ति नहीं थी। दूसरा दिन्न-नामक तापस सपरिवार दूसरी मेखला तक पहुँचा । सेवाल-नामक तापस अपने शिष्यों के साथ तीसरी मेखला तक पहुँचा । अष्टापद में एक एक योजन प्रमाण की आट मेखलाएँ हैं।
इतने में गौतम स्वामी को आता देखकर उन्हें विचार हुआ कि "तप से हम लोग तो इतने कृश हो गये हैं, तो भी हम ऊपर चढ़ नहीं सके' तो यह क्या चढ़ पायेगा ?"
वे यह विचार ही कर रहे थे कि, गौतम स्वामी जंघाचरण की लब्धि से सूर्य की किरणों का आलंबन करके शीघ्र चढ़ने लगे। उनकी गति देखकर उन तीनों तपस्वियों के मन में विचार हुआ कि, जब गौतम स्वामी ऊपर से उतरें तो मैं उनका शिष्य हो जाऊँ ?"
उधर गौतम स्वामी ने अष्टापद पर्वत पर जाकर भरत चक्री द्वारा निर्मित ऋषभादिक प्रतिमाओं की वंदना और स्तुति की।
जब गौतम स्वामी लौटे तो उन तापसों ने कहा-"आप मेरे गुरु हैं और मैं आप का शिष्य हूँ।" यह सुनकर गौतम स्वामी ने कहा-"तुम्हारे हमारे सबके गुरु जिनेश्वर देव हैं।" उन लोगों ने पूछा-"क्या आप के भी गुरु है ?' गौतम स्वामी ने उत्तर दिया-"हाँ ! सुर-असुर द्वारा पूजित महावीर स्वामी हमारे गुरु हैं।"
उनके साथ लौटते हुए गोचरी के समय गौतम स्वामी ने उनमे पूछा-"भोजन के लिए क्या लाऊँ ?" उन सबने परमान्न कहा। गौतम स्वामी अपने पात्र में परमान्न लेकर लौट रहे थे तो १५०३ साधुओं को शंका हुई कि इसमें मुझे क्या मिलेगा ? पर, गौतम स्वामी ने सबको उसी में से भर पेट भोजन कराया।
उस समय सेवालभक्षी ५०० साधुओं को विचार हुआ कि, यह मेरा
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३३२
भाग्य उदय हुआ है, जो ऐसे गुरु मिले । ( ५०१ ) सबको केवलज्ञान हो गया ।
तीर्थंकर महावीर
फिर भगवान् के समवसरण के निकट पहुँचते-पहुँचते अन्य ५०१ को केवलज्ञान हुआ और उसके बाद कौडिन्नादिक ५०१ साधुओं को केवलज्ञान हो गया ।
भगवान् के निकट पहुँचकर वे जाने लगे तो गौतम स्वामी ने उन्हें भगवान् ने पुनः गौतम स्वामी से धना मत करो ।”
ऐसा विचार करते-करते उन
इस पर गौतम स्वामी ने पूछा - "हे भगवन् ! इस भव में मैं मोक्ष प्राप्त करूँगा या नहीं ।"
१५०३ साधु केवलि - समुदाय की ओर भगवान् की वंदना करने को कहा । कहा - " हे गौतम! केवलि की विरा
प्रश्न सुनकर भगवान् बोले - " हे गौतम ! अधीर मत हो । तुम्हारा मुझ पर जो स्नेह है, उसके कारण तुम्हें केवलज्ञान नहीं हो रहा है । जब मुझ पर से तुम्हारा राग नष्ट होगा, तब तुम्हें केवल ज्ञान होगा ।" (देखिए उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका सहित, अध्ययन १०, पत्र १५३-२१५९-१ )
१३ उद्रायण - देखिए तीर्थंकर महावीर, भाग २, पृष्ठ ४२ । १४ उववालो - देखिए तीर्थंकर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ ।
१५ उसुयार – इपुकार' नगर में ६ जीव मृगु नाम के पुरोहित, यशा-नाम्नी उसकी भार्या, कीर्ति राजा और उसकी कमलावती - नाम्नी रानी के भय से व्याप्त हुए संसार से बाहर मोक्ष-स्थान में अपने चित्त को
।
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उत्पन्न हुए । दो कुमार, इपुकार - नामक विशाल
जन्म, जरा और मृत्यु
१ - कुरुजणवए उसुयारपुरे नयरे - उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य की टीका सहित, अध्ययन १४, पत्र ३६५ - १ |
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श्रमण-श्रमणो स्थापन करने वाले दोनों कुमार साधुओं को देखकर काम-भोगों से विरक्त. हुए । पुरोहित के उन दोनों कुमारों ने पिता के पास आकर मुनि-वृन्ति को ग्रहण करने के लिए अनुमति माँगी। यह सुनकर उनके पिता ने उन्हें समझाने की चेष्टा की कि, निष्पुत्र को लोक परलोक की प्राप्ति नहीं होती ! अतः तुम लोग वेद पढ़कर ब्राह्मणों को भोजन कराकर, स्त्रियों के साथ भोग भोग कर पुत्रों को घर में स्थापन करके अरण्यवासी मुनि बनो । पिता के वचन को सुनकर उन कुमारों ने अपने पिता को अपना अभिप्राय समझाने की चेष्टा की। पर, पिता ने कहा-"यहाँ स्त्रियों के साथ बहत धन है, स्वजन तथा कामगुण भी पर्याप्त हैं। जिसके लिए लोग तप करते है, वह सब घर में ही तुम्हारे स्वाधीन है।” पर, उन कुमारों ने कहा"हम दोनों एक ही स्थान पर सम्यक्त्व से युक्त होकर वास करते हुए, युवावस्था प्राप्त होने पर दीक्षा ग्रहण करेंगे।"
अपने पुत्रों की वाणी सुनकर भृगु-नामक पुरोहित ने अपनी पत्नी से कहा-'"हे वासिष्टी! पुत्र से रहित होकर घर में बसना ठीक नहीं है। मेरा भी अब भिक्षाचार्या का समय है ।" उसकी पत्नी ने उसे समझाने का प्रयास किया।
अंत में संसार के समस्त काम भोगों का त्याग करके अपने पुत्रों और स्त्री-सहित घर से निकल कर भृगु पुरोहित ने साधु-व्रत स्वीकार किया। यह सुनकर उसके धनादि पदार्थों को ग्रहण करने की अभिलाषा रखने वाले राजा को उसकी पत्नी कमलावति ने समझाते हुए कहा-"वमन किए हुए पदार्थ को खाने वाला प्रशंसा का पात्र नहीं होता। परंतु , तुम ब्राह्मण द्वारा त्यागे धन को ग्रहण करना चाहते हो।' रानी के समझाने पर राजा रानी दोनों ही ने धनधान्यादि त्याग कर तीर्थकरादि द्वारा प्रतिपादन किये हुए घोर तपकर्म को स्वीकार कर लिया।
इस प्रकार के ६ जीव क्रम से प्रतिबोध को प्राप्त हुए और सभी धर्म
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तीर्थंकर महावीर मैं तत्पर हुए और दुःखों के अंत के गवेषक बने । अर्हत्-शासन में पूर्व जन्म की भावना से भावित हुए वे ६ अंत में मुक्त हुए।
१६. ऋषभदत्त-देखिए, तीर्थकर महावीर, भाग २, पृष्ठ २०-२४
१७. ऋषिदास-यह राजगृह के निवासी थे। इनकी माता का नाम भद्रा था और ३२ पत्नियाँ थीं। थावच्चापुत्र के समान गृह-त्याग किया। मासिक संलेखना करके मर कर सर्वार्थसिद्ध में गये। अंत में महाविदेह में जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त करेंगे।
१८. कपिल-कौशाम्बी नगरी में जितशत्र-नामक राजा राज्य करता था। उसकी राजधानी में चतुर्दश विद्याओं का ज्ञाता काश्यप-नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह अपने यहाँ के पंडितों में अग्रणी था। राज्य की ओर से उसे वृत्ति नियत थी। उसे एक पतिपरायणा भार्या थी। उसे पुत्र था। उसका नाम कफिलदेव था । कुछ काल बाद काश्यप ब्राह्मण का देहान्त हो गया। उसके बाद एक अन्य व्यक्ति राजपंडित के स्थान पर नियुक्त हुआ। वह राजपंडित छत्र-चमरादिक से युक्त होकर नगर में भ्रमण करने लगा । एक दिन वह बड़े धूम-धाम से जा रहा था कि, उसे देख कर काश्यप ब्राह्मण की पत्नी रो पड़ी। कपिल ने रोने का कारण पूछा तो उसकी माता ने कहा-"तुम्हारे पिता पहले राजपंडित थे। उनके निधन के बाद तुम राजपंडित होते; पर विद्यार्जन न किये होने के कारण तुम उस पद पर नियुक्त नहीं हुए।” माता के कहने पर कपिल श्रावस्ती-नगरी में अपने पिता के मित्र इन्द्रदत्त के घर विद्या पढ़ने गया । इन्द्रदत्त ने शालिभद्र-नामक एक धनी के घर उसके भोजन की व्यवस्था
१-उत्तराध्ययन नेमिचंद्र की टीका सहित अ० १४ पत्र २०४-२-२१४-१।
२-अगुप्तरोववाइयदसाओ (अंतगडदसाओ-अगुत्तरोववाश्यासाओ) एन० वी. वैद्य सम्पादित, पष्ट ५६ ।
३-वही पृष्ठ ५१-५९ ।
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श्रमण-श्रमणी कर दी । शालिभद्र के घर की एक दासी कपिल की देखरेख करती थी। उससे शालिभद्र का प्रेम हो गया। उसके साथ भोग-भोगते उस दासी को गर्भ रह गया । अब उस दासी ने अपने भरण-पोषण की माग की। दासी ने उससे कहा-'नगर में एकधन नामक सेट रहता है । प्रातःकाल तुम उससे जाकर दान मांगो वह देगा।'' रात भर कपिल इसी चिन्ता में पड़ा रहा
और रात रहते ही सेट से दान लेने चल पड़ा। चोर समझ कर वह पकड़ लिया गया। प्रातःकाल राजा प्रसेनजित के समक्ष उपस्थित किया गया, तो उसने सारी बात सच-सच बता दी। राजा उसके सत्य-भाषण से बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने मन चाहा माँगने को कहा । कपिल ने उसके लिए समय माँगा और एकान्त में वाटिका में बैट कर विचार करने लगा। उसने सोचा-"दो स्वर्ण मासक माँगें तो मुश्किल से धोती होगी। हजार माँयूँ तो आभूषण ही बन सकेंगे। दस हजार माँगूं तो निर्वाह मात्र होगा: पर हाथी-घोड़ा नहीं होग । एक लाख मायूँ तो भी कम होगा।" ऐसा विचार करते हुए कपिल को ज्ञान हुआ कि, इस तृष्णा का अन्त नहीं है। अतः उसने लोभ करके साधुवृत्ति स्वीकार कर ली और दूसरे दिन राजा के समक्ष उपस्थित होकर कपिल ने अपना निर्णय बता दिया ।
छः मास साधु-जीवन व्यतीत करने के बाद, घाति कर्मों के क्षय होने पर कपिल को केवलज्ञान हुआ और वह कपिलकेवली के नाम से विख्यात हुए।
श्रावस्ती-नगरी के अंतराल में बसने वाले ५०० चोरों को प्रतिबोध दिलाने के लिए एक बार कपिलकेवली ने श्रावस्ती-नगरी से विहार किया। चोरों ने कपिलकेवली को त्रास देना प्रारम्भ किया। चोरों के सरदार बलभद्र ने चोरों को रोका और कपिलकेवली से कोई गीत गाने को कहा । कपिलकेवली ने जो गीत सुनाया वह उत्तराध्ययन का आठवा अध्ययन है। उनकी गाथाओं को सुन कर वे सभी चोर प्रतिबोधित हो गये।
१-उत्तराध्ययन नमिचन्द्र सूरि की टीका सहित, अ०८, पत्र १२४-१-१३२-२ ।
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तीर्थकर महावीर १६. कमलावती-देखिए उसुयार का वर्णन (पृष्ठ ३३२ ) २०. काली-देखिए तीर्थकर महावीर, भाग २, पृष्ठ ९५
२१. कालोदायी-देखिए तीथकर महावीर, भाग २, पृष्ठ २५०-- २५२, २७१-२७३
२२. काश्यप (कासव)-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ४९।
२३. किंक्रम-देखिए तीर्थकर महावीर, भाग २, पृष्ठ ४८ ।
२३. केलास-यह कैलाश गृहपति साकेत नगर के निवासी थे । १२ वर्षों तक पर्याय पाल कर विपुल-पर्वत पर सिद्ध हुए।'
२४. केसीकुमार-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ट १९५--२०२ ।
२५. कृष्णा-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ९५ । २६. खेमक-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ९४ ।
२७. गग्गथेर-गर्ग गोत्रवाला—गर्गाचार्य नाम के स्थविर गणधर सर्व शास्त्रों में कुशल, गुणों से आकीर्ण, गणिभाव में स्थित और त्रुटित समाधि को जोड़ने वाले मुनि थे। इनके शिष्य अविनीत थे । अतः इन्होंने उनका त्याग कर दिया और दृढ़ता के साथ तप ग्रहण करके पृथ्वी पर विचरने लगे।
२८. गूढ़दंत-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ ।।
२६. चंदना-- देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग १, पृष्ठ २३७-२४२ : भाग २, पृष्ठ ३-४
३०. चंदिमा-इनका उल्लेख अंतगडदसाओ में आता है। यह
१-अंतगडदसाओ ( अंतगडदसामो-अणुत्तरोववाश्यदसाओ एन. वी. वैद्यसम्पादित ) पष्ठ २५, ३४
२-उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका सहित, अ० २७, पत्र ३१६-१-३१८-१
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श्रमण-श्रमणी
३३७ साकेत के रहने वाले थे, इनकी माँ का नाम भद्रा था। इन्हें ३२ पत्नियाँ थीं । और थावच्चा-पुत्र के समान इन्होंने दीक्षा ग्रहण की।
३१. चिलात-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ २६५-२६६
३२. जमालि-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ २४-२७, २८, १९०-१९३
३३. जयघोष-ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न हुए जयघोष-नामक एक मुनि ग्रामानुग्राम बिहार करते हुए वाराणसी नगरी में आये । वे मुनि वाराणसी के बाहर मनोरम-नामक उद्यान में प्रासुक शय्या और संस्तारक पर विराजमान होते हुए वहाँ रहने लगे। उसी नगरी में विजयघोषनामक एक विख्यात ब्राह्मण यज्ञ कर रहा था। उस समय अनगार जयघोष मासोपवास की पारणा के लिए विजयघोष के यज्ञ में भिक्षार्थ उपस्थित हुए। भिक्षा माँगने पर विजयघोष ने भिक्षा देने से इनकार करते हुए कहा--- "हे भिक्षो ! जो वेदों के जानने वाले विप्र हैं तथा जो यज्ञ करने वाले द्विज हैं और जो ज्योतिषांग के ज्ञाता है तथा धर्मशास्त्रों में पारगामी हैं, उनके लिए यहाँ भोजन तैयार है।"
ऐसा सुनकर भी जयघोष मुनि किंचित् मात्र रुष्ट नहीं हुए । सन्मार्ग , बताने के लिए जयघोष मुनि ने कहा-"न तो तुम वेदों के मुख
को जानते हो. न यज्ञों के मुख को। नक्षत्रों तथा धर्म को भी तुम नहीं समझते । जो अपने तथा परके आत्मा का उद्धार करने में समर्थ हैं, उनको भी तुम नहीं जानते । यदि जानते हो तो कहो ?"
१-अंतगडदसा प्रो। अंतगडदमा अं.- प्रणुत्तरोववाइयदसाओ ) पष्ठ ५१, ५६
२२
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३३८
तीर्थंकर महावीर ऐसा सुनकर विजयघोष ने हाथ जोड़कर पूछा- 'हे साधो ! वेदों के मुख को कहो । यज्ञों के मुख को कहो । नक्षत्रों के मुख को कहो और धर्मों के मुख को कहो । पर और अपनी आत्मा के उद्धार करने में जो सफल हैं, उनके बारे में कहो ।”
यह सुनकर जयघोष ने कहा-'अग्निहोत्र वेदों का मुख है । यज्ञ के द्वारा कर्मों का क्षय करना यज्ञ का मुख है। चन्द्रमा नक्षत्रों का मुख है
और धर्मों के मुख काश्यप भगवान् ऋषभदेव हैं। जिस प्रकार सर्वप्रधान चन्द्रमा की, मनोहर नक्षत्रादि तारागण, हाथ जोड़ कर वंदना-नमस्कार करते स्थित हैं, उसी प्रकार इन्द्रादि देव भगवान् काश्यय ऋषभदेव की सेवा करते हैं। हे यज्ञवादी ब्राह्मण लोगों ! तुम ब्राह्मण की विद्या और सम्पदा से अनभिज्ञ हो । स्वाध्याय और तप के विषय में भी अनभिज्ञ हो । स्वाध्याय और तप के विषय में भी मूढ हो। अतः तुम भस्म से आच्छादित की हुई अग्नि के समान हो । तात्पर्य यह है कि, जैसे भस्म से आच्छादित की हुई अग्नि ऊपर से शांत दिखती है और उसके अंदर ताप बराबर बना रहता है, इसी प्रकार तुम बाहर से तो शांत प्रतीत होते हो; परन्तु तुम्हारे अंतःकरण में कषाय-रूप अग्नि प्रज्वलित हो रही है। जो कुशलों द्वारा संदिष्ट अर्थात् जिसको कुशलों ने ब्राह्मण कहा है और जो लोक में अग्नि के समान पूजनीय है, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं । जो स्वजनादि में आसक्त नहीं होता और दीक्षित होता हुआ सोच नहीं करता; किन्तु आर्य-वचनों में रमण करता है, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं । जैसे अग्नि के द्वारा शुद्ध किया हुआ स्वर्ण तेजस्वी और निर्मल हो जाता है, तद्वत् रागद्वेष और भय से जो रहित है, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं।" इस प्रकार ब्राह्मण के सम्बंध में अपनी मान्यता बताते हुए जयघोष ने कहा-'सर्व वेद पशुओं के बध-बन्धन के लिए हैं और यज्ञ पाप-कर्म का हेतु है । वे वेद या यज्ञ वेदपाठी अथवा यज्ञकर्ता के रक्षक नहीं हो सकते । वे तो पाप-कर्मों को बलवान बना कर दुर्गति में पहुँचा देते हैं। केवल
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श्रमण श्रमणी
३३६ सिर मुंडाने से कोई श्रमण नहीं हो सकता, केवल ॐकार' मात्र कहने से कोई ब्राह्मण नहीं हो सकता, जंगल में रहने से कोई मुनि तथा कुशा आदि के वस्त्र धारण कर लेने से कोई तापस नहीं हो सकता । समभाव से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तप से तपस्वी होता है।
इस प्रकार कहने के बाद , उन्होंने श्रमण-धर्म का प्रतिपादन किया । संशय के छेदन हो जाने पर विजयघोष ने विचार करके जयघोष मुनि को पहचान लिया कि जयघोष मुनि उनके भाई हैं। विजयघोष ने जयघोष की प्रशंसा की। जयघोष मुनि ने विजयघोष से कहा दीक्षा लेकर संसार-सागर में वृद्धि रोको।" विजयघोष ने धर्म सुन कर दीक्षा ले ली । और, अंत में दोनों ही ने सिद्धि प्राप्त की।
३४. जयंति-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ २८-३२ ३५. जाली-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३
१-न कारेणोपलक्षणत्वाद् ' भूर्भुवः स्वः' इत्यादिना ब्राह्मणः ।
-उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका सहित पत्र ३०८-१ २-समथाए समणो होइ, बम्भचेरण बम्भयो ।
नाणेण य मुणी होइ, तण होइ तावसो॥३२ ।। कम्नुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तीओ।
वइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो होइ कम्मुणो ॥ ३३ ॥ इसकी टीका करते हुए नेमिचन्द्राचार्य ने लिखा है-..."कर्मणा' क्रियया ब्राह्मणो भवति । उक्तं हि-तमा दानं दमो ध्यानं, सत्यं शौच धृतिर्घणा । ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यमेतद्ब्राह्मण लक्षणम् ॥ १ ॥ तथा 'कर्मणा' क्षतत्राणलक्षणेन भवति क्षत्रियः । वैश्यः-'कर्मणा' कृषि पाशुपाल्यादिना भवति । शूद्रे भवति तु 'कर्मणा' शोचनादिहेतु प्रेषणादि सम्पादन रूपेण । कर्माभावे हि ब्राह्मणादिव्यपदेशानाम सत्तैवेति । ब्राह्मग प्रक्रमे य यच्छेषाभिधानं तयाप्तिदर्शनार्थम् । किमिदं स्वमनीषिकयैवोच्यते ? .
-वही, पत्र ३०८-१ ३-उत्तराध्ययन नेमिचंद्र की टीका सहित, अध्ययन २५, पत्र ३०५-२-३०६-१
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३४०
तीर्थंकर महावीर ३६. जिणदास-सौगंधिका-नगरी में नीलाशोक उद्यान था । उसमें सुकाल-यक्ष था। अप्रतिहत राजा था। उसकी रानी का नाम सुकन्या था । महचंद्र कुमार था। उसकी पत्नी का नाम अरहदत्ता था । उसके पुत्र का नाम जिनदास था । भगवान् उस नगर में आये। भगवान् ने उसके पूर्व भव की कथा कही । उसने साधु-व्रत स्वीकार कर लिया।'
३७. जिनपालित-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ९३
३८. तेतलीपत्र-तेतलीपुर नामक नगर था। उसके ईशान कोण में प्रमदवन था। उस नगर में कनकरथ ( कणागरह ) नामक राजा राज्य करता था। उसकी पत्नी का नाम पद्मावती था । तेतलिपुत्र नाम. का उनका आमात्य था । वह साम-दाम-दंड-भेद चारों प्रकार की नीतियों में निपुण था।
उस तेतलिपुर-नामक नगर में मूषिकारदारक नामक एक स्वर्णकार रहता था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था और रूप-यौवन तथा लावण्य में उत्कृष्ट पोट्टिला-नामक एक पुत्री थी। ____ एक बार पोट्टिला सर्व अलंकारों से विभूषित होकर अपनी चेटिकाओं के समूह से प्रासाद के ऊपर अगासी पर सोने के गेंद से खेल रही थी। उस समय बड़े परिवार के साथ तेतली पुत्र अश्ववाहिनी सेना लेकर निकला था । उसने दूर से पोट्टिला को देखा । पोट्टिला के रूप पर मुग्ध होकर उसने पोट्टिला-सम्बंधी तथ्यों की जानकारी अपने आदमियों से प्राप्त की
और घर आने के पश्चात् अपने आदमियों को पोट्टिला की माँग करने के लिए स्वर्णकार के घर भेजा। उसने कहलाया कि, चाहे जो शुल्क चाहो, लेकर अपनी कन्या का विवाह मुझ से कर दो।
उस स्वर्णकार ने आये मनुष्यों का स्वागत-सत्कार किया। मंत्री की
१-विपाकसूत्र ( मोदी-चौव.सी-सम्पादित) २-५, पष्ट ८१ ! २-उपदेशमाला दोघट्टी-टीका पत्र ३३० में राजा का नाम कनककेतु लिखा है।
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श्रमण-श्रमणी
३४१
चात उसने स्वीकार कर ली और इसकी सूचना देने वह मंत्री के घर गया । दोनों का विवाह हो गया और विवाह के बाद तेतलीपुत्र पोहिला के साथ मुखपूर्वक रहने लगा।
राजा कनकर थ अपने राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, कोश, कोष्ठागार तथा अंतःपुर के विषय में ऐसा मूर्छा वाला (आसक्त) था कि उसे जो पुत्र उत्पन्न होता, उसको वह विकलांग कर देता ।
एक बार मध्यरात्रि के समय पद्मावती देवी को इस प्रकार अध्यवसाय हुआ—"सचमुच कनकरथ राजा राज्य आदि मैं आसक्त हो गया है और ( उसकी आसनि इतनी अधिक हो गयी है कि) वह अपने पुत्रों को विकलांग करा डालता है। अतः मुझे जो पुत्र हो कनकरथ राजा से उसे गुप्त रखकर मुझे उसका रक्षण करना चाहिए।" ऐसा विचार कर उसने तेतलीपुत्र आमात्य को बुलाया और कहा-“हे देवानुप्रिय ! यदि मुझे पुत्र हो तो उसे कनकरथ राजा से छिपा कर उसका लालन-पालन करो। जब तक वह बाल्यावस्था पार कर यौवन न प्राप्त करले तब तक आप उसका पालन-पोषण करें ।" तेतलीपुत्र ने रानी की बात स्वीकार कर ली।
उसके बाद पद्मावती देवी और आमात्य की पत्नी पोहिला दोनों ने गर्भ धारण किया । अनुक्रम से नव मास पूर्ण होने के बाद पद्मावती देवी ने बड़े सुन्दर पुत्र को जन्म दिया । जिस रात्रि को पद्मावती देवी ने पुत्र को जन्म दिया, उसी रात्रि में पोट्टिला को भी मरी हुई पुत्री हुई।
पद्मावती ने गुप्त रूप से तेतलीपुत्र को घर बुलाया और अपना नवजात पुत्र मंत्री को सौंप दिया। तेतलीपुत्र उस बच्चे को लेकर घर आया तथा सारी बाते अपनी पत्नी को समझा कर उसने बच्चे का लालन-पालन करने के लिए उसे सौंप दिया और अपनी मृत पुत्री को रानी पद्मावती को दे आया ।
तेतलीपुत्र ने घर लौट कर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा"हे देवानुप्रियो ! तुम लोग शीघ्र चारक-शोधन ( जेलखाने से कैदियों
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ર
तीर्थंकर महावीर
को मुक्त ) कराओ और दस दिनों की स्थितिपतिका ( उत्सव ) का आयोजन करो । कनकरथ राजा के राज्य में मुझे पुत्र हुआ है, अतः इसका नाम कनकध्वज होगा । अनुक्रम से वह शिशु बड़ा हुआ कलाओं का ज्ञान प्राप्त किया और युवा हुआ ।
कुछ समय बाद तेलीपुत्र और पोट्टिला में अरुचि हो गयी । तेतली - पुत्र को पोहिला का नाम और गोत्र सुनने की भी इच्छा न होती । पोट्टिला को शोक संतप्त देखकर तेतलीपुत्र ने एक बार कहा - हे देवानुप्रिय ! तुम खेद मत करो । मेरी भोजनशाला में विपुल अशन-पान-खादिम और स्वादिम तैयार कराओ । तैयार कराकर श्रमण, ब्राह्मण यावत् वणीमगों को दान दिया करो ।”
उसके बाद वह पोट्टिला इस प्रकार दान देने लगी ।
उस समय सुव्रता- नामक ब्रह्मचारिणी, बहुश्रुत और बहुत परिवार वाली अनुक्रम से विहार करती हुई तेतलीपुर नामक नगर में आयी ।
सुव्रता आर्या का एक संघाटक ( दो साध्वियाँ ) पहली पोरसी में स्वाध्याय करके यावत् भिक्षा के लिए वे दोनों साध्वियाँ तेतलीपुत्र के घर में आर्यो । उन्हें आते देखकर पोट्टिला खड़ी हो गयी और वंदना करने के बाद नाना प्रकार के भोजन देकर बोली - "हे आर्याओ ! पहले मैं तेतली - पुत्र की इष्ट थी; अब अनिष्ट हो गयी हूँ । आप लोग बहुशिक्षिता हैं और बहुत से 'ग्राम, आकर, नगर, आदि में विचरण करती रहती हैं, बहुत से राजा यावत् गृहियों के घर में जाती रहती हैं, तो हे आर्याओ ! क्या कोई चूर्णयोग ( द्रव्य चूर्णानां योगः स्तम्भनादिकर्मकारी ), कर्मयोग ( कुष्ठादि रोग हेतुः ), कर्मयोग ( काम्यः योगः - कमनीयता हेतुः ), हृदयोड्डापन ( हृदयोडावन चित्ताकर्षण हेतुः ), कायोड्डापन ( कार्याकर्षणहेतुः ), अभियोग ( पराभिभवनहेतुः ), वशीकरण, कौतुककर्म, मतिकर्म अथवा मूल, कंद, छाल, बेल, शिलिका, गुटिका, औषध अथवा भेपज पहले से आपने प्राप्त किया जिसके द्वारा मैं पुनः तेलीपुत्र की इष्ट हो जाऊँ ?"
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श्रमण श्रमणी
३४३ उन आर्याओं ने अपने कान ढँक लिये और बोली - "हम साध्वियाँ निर्गथपरिग्रहरहित यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणियाँ हैं । इस प्रकार के वचन सुनना हमें कल्पता नहीं तो इस सम्बंध में उपदेश देना अथवा आचरण करना क्या कल्पेगा ? हम तो केवलि - प्ररूपित धर्म अच्छी प्रकार से कह सकते हैं ?"
इस पर पोहिला ने केवलि - प्ररूपित धर्मं सुनने की इच्छा की । आर्याओं ने पोडिला को धर्मोपदेश दिया ।
धर्मोपदेश सुनकर पोहिला ने श्रावक-धर्म अंगीकार करने की इच्छा प्रकट की और पाँच अणु व्रत आदि व्रत लिये ।
उसके बाद पोट्टिला श्राविका होकर रहने लगी ।
एक दिन पहिला रात को जग रही थी तो उसे विचार हुआ" सुत्रता आर्या के पास दीक्षा लेना ही कल्याणकारक है ।"
दूसरे दिन पोट्टिला तेतलिपुत्र के पास जाकर हाथ जोड़ कर बोली-"हे देवानुप्रिय ! मैं सुव्रता आर्या के पास दीक्षा लेना चाहता हूँ । इसके लिए मुझे आप आज्ञा दें !"
तेतलिपुत्र ने कहा --- "हे देवानुप्रिय ! प्रत्रज्या लेने के बाद काल के समय काल करके जब देवलोक में उत्पन्न होना, तो हे देवानुप्रिया तुम देवलोक से आकर मुझे : केवली - प्ररूपित धर्म का बोध कराना । यदि यह स्वीकार हो तो मैं तुम्हें अनुमति दे सकता हूँ अन्यथा नहीं ।"
पोहिला ने तेलीपुत्र की बात स्वीकार कर ली और उसने आर्या सुत्रता के समक्ष दीक्षा ले ली । अंत में एक मास की संलेखना करके अपने आत्मा को क्षीण कर साठ भक्तों का अनशन कर पाप कर्म की आलोचना तथा प्रतिक्रमण करके समाधिपूर्वक काल करके देवलोक में उत्पन्न हुई ।
उसके कुछ काल बाद कनकरथ राजा मर गया । उसका लौक कार्य करने के पश्चात् प्रश्न उठा कि गद्दी पर कौन बैठे ? लोग तेतली पुत्र
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३४४
तीर्थङ्कर महावीर
के घर गये तो तेलीपुत्र ने कनकध्वज के लिए कहा और सारी बातें
बता गया ।
कनकध्वज का राज्याभिषेक हुआ तो पद्मावती ने उससे कहा - "तुम इस अमात्य को पिता तुल्य मानना । उसी के प्रताप से तुम्हें गद्दी मिली है ।" कनकध्वज ने माता की बात स्वीकार कर ली ।
उसके बाद पोट्टिलदेव ने कितनी ही बार केवलीभाषित धर्म का प्रतिबोध तेलीपुत्र को कराया; परन्तु तेतलीपुत्र को प्रतिबोध नहीं हुआ ।
एक बार पोडिलदेव को इस प्रकार अध्यवसाय हुआ – “ कनकध्वज राजा तेतलिपुत्र का आदर करता है । इसीलिए वह प्रतिबोध नहीं प्राप्त करता है ।" ऐसा विचारकर उसने कनकध्वज राजा को तेतलिपुत्र से विमुख कर दिया ।
उसके बाद एक बार तेतलिपुत्र राजा के पास आया। मंत्री को आया देखकर भी राजा ने उसका आदर नहीं किया । तेतलिपुत्र ने कनकध्वज को हाथ जोड़ा तो भी राजा ने उसका आदर नहीं किया और वह चुप रहा ।
उसके पश्चात् कनकध्वज को विपरीत जानकर तेतलिपुत्र को भय हो गया और घोड़े पर सवार होकर वह अपने घर वापस चला आया । ईश्वर आदि जो भी तेतलिपुत्र को देखते, अब उसका आदर नहीं करते । अपना अनादर देखकर तेतलीपुत्र ने तालपुट खा लिया; पर उसका भी प्रभाव उस पर न हुआ । अपनी तलवार अपनी गरदन पर चलायी; पर बद भी निष्फल गया । फाँसी लगायी तो उसकी रस्सी टूट गयी ।
वह इन परिस्थितियों पर विचार कर ही रहा था कि, उस समय पोडिलदेव उसके सम्मुख उपस्थित हुआ और बोला - "हे तेतलि ! आगे प्रपात है, पीछे हाथी का भय है । इतना अंधेरा है कि कुछ सूझता नहीं है । मध्यभाग में बाणों की वृष्टि होती है, इस प्रकार चारों ओर भय ही भय है। ग्राम में आग लगी हैं अरथ्य धकधका रहा है तो तुम्हें ऐसे भय में कहाँ जाना उचित है ?"
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श्रमण-श्रमणी तब तेतलिपुत्र ने पोलिदेव के उत्तर में यह कहा-'हे देव ! इस प्रकार भयग्रस्त को प्रव्रज्या की शरण में जाना चाहिए।
इस समय शुभ परिणाम से उसे जातिस्मरणज्ञान हो गया।
उसके बाद उसे यह विचार उत्पन्न हुआ-"जम्बूद्वीप में महाविदेह क्षेत्र में पुष्कलावती नाम के विजय के विषय में, पुंडरीकिगी नाम की राजधानी में में महापद्म-नामक राजा था। उस भव में स्थविरों के पास मुंडित होकर चौदह पूर्व पढ़ कर वर्षों तक चरित्रपाल कर एक मास का अनशन कर महाशुक्र-नामक देवलोक में उत्पन्न हुआ था।
"वहाँ से च्यव कर में तेतलिपुर-नामक नगर में तेतलि-नामक आमात्य की भद्रा-नामक पत्नी की कुक्षि से उत्पन्न हुआ। मुझे पूर्व अंगीकार महाव्रत लेना ही श्रेयस्कर है।"
फिर उसने महाव्रत स्वीकार किये। प्रमदवन में अशोकवृक्ष के नीचे पृथ्वीशिलापट्टक पर विचरण करते हुए उसे चौदहपूर्व स्मरण आ गये।
बाद में उसे केवलज्ञान हो गया ।
उधर कनकध्वज राजा को विचार हुआ कि, मैंने तेतलिपुत्र का बड़ा अनादर किया । अतः वह क्षमा याचना माँगने तेतलिपुत्र के पास गया । तेतलिपुत्र ने उसे धर्मोपदेश किया और राजा ने श्रावकधर्म स्वीकार कर लिया।
अंत में तेतलिपुत्र ने सिद्धि प्राप्त की।' ३६. दशार्णभद्र-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ २१४ ४०. दीर्घदन्त-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ ४१. दीर्घ सेन-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ ४२. द्रम-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ ४३. द्रमसेण---देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ट ५३
१ ज्ञाताधर्मकथा सटोक, १, १४.--पत्र १६१-१---- १६६-२
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तीर्थकर महावीर ४४. देवानन्दा--देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ २०-२४ ४५. धन्य--देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृ. ३८-४० ४६. धन्य--देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ६८
४७. धन्य-चम्पा-नगरी में जितशत्रु-नामक राजा राज्य करता था । उस नगर में पूर्णभद्र-नामक चैत्य था। उसी नगर में धन्यनामक एक सार्थवाह रहता था। चम्पा-नगरी के उत्तर-पूर्व (पश्चिम) दिशा में अहिछत्रा-नामक समृद्धिशाली नगरी थी। उस अहिछत्रा में कनककेतु-नामक राजा राज्य करता था। उसने महाहिमवंत आदि देखा था। एक बार मध्यरात्रि के समय धन सार्थवाह को यह विचार उठा"विपुल घी, तेल, गुड़ आदि क्रयाणक लेकर अहिछत्रा जाना श्रेयस्कर है।" ऐसा विचार कर उसके गणिम, धरिम, मेज, पारिच्छेद्य आदि चारों प्रकार के क्रयाणक तैयार कराये और यात्रा के लिए गाड़ियों की व्यवस्था करायी।
उसके बाद उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर कहा"हे देवानुप्रियो ! तुम लोग चम्पा-नगरी के शृंगाटक यावत् सर्व मार्गों में कहो-'हे देवानुप्रियो ! धन्य-नामक सार्थवाह विपुल घी-तेल आदि लेकर व्यापार करने के लिए अहिछत्रा जाने का इच्छुक है। अतः हे देवानुप्रियो जो कोई चरक-(धाटिभिक्षाचरः) चीरिक (रथ्यापतित चीवर परिध.नः), चर्मखंडिक (चर्मपरिधानः, चोपकरण इति चान्ये), भिक्षाण्ड ( भिक्षाभोजी सुगत शासनस्थ इत्यन्ये ), पाण्डुरागः (शैवः), गौतम (लघुराक्षमाला चर्चित विचित्र पाद पतनादि शिक्षा कलापद्वृषभ कोपायतः कणभिक्षाग्रही ), गोबतिक ( गोश्चर्यानुकारी), गृहधर्मा, गृहधर्मचिंतक, अविरुद्ध ( वैनयिक), विरुद्ध ( अक्रियावादी परलोकामभ्युपगमात् सर्ववादिभ्यो विरुद्धः), वृद्धः (तापस प्रथममुत्पन्नत्वात् प्रायो वृद्धकाले च दीक्षाप्रतिपत्तेः), श्रावक, रक्तपट ( परिव्राजक ), निर्गन्थ, पासंड-परिव्राजक अथवा गृहस्थ जो कोई धन्य-सार्थवाह के साथ अहिछत्रा-नगरी में जाना चाहे, उसे धन्य
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साथ ले जा सकता है। जिसके पास छत्र न होगा, उसे धन्य छत्र देगा; जिसे पगरख न होगा, उसे पगरख देगा; जिसके पास कँड़ी न होगी उसे कँड़ी देगा; रास्ते में जिसे भोजन की व्यवस्था न होगी; उसे भोजन देगा; प्रक्षेप. ( अर्द्धपथे त्रुटित शम्बलस्य शम्बल पूरणं द्रव्य प्रक्षेपकः ) देगा तथा जो कोई बीमार हो अथवा अन्य किसी कारण से अशक्त हो उसे वाहन देगा।
धन्य ने सभी को आवश्यक वस्तुएँ दे दी और कहा---''आप लोग चम्पा-नगरी के बाहर अग्रोद्यान में मेरी प्रतीक्षा करें ।'
उसके बाद धन्य सार्थवाह ने शुभ तिथि, करण और नक्षत्र का योग आने पर अपनी जातिवालों को भोजन आदि कराकर, उनकी अनुमति लेकर किरियाने की गाड़ियों के साथ अहिछत्रा की ओर चला । अंग देश के मध्यभाग में होता हुआ, वह सरहद पर आ पहुँचा। वहाँ पड़ाव डालकर भविष्य की यात्रा में सावधान करने के लिए घोषणा करायी-"अगले प्रवास में एक बड़ा जंगल आने वाला है। उसने पत्र, पुष्प तथा फलों से सुशोभित नंदीफल-नामक एक वृक्ष मिलेगा। वह वर्ण, रस, गंध, स्पर्श और छाया में बड़ा मनोहर है। पर, जो कोई उसकी छाया में बैठेगा, अथवा उसका फल फूल खायेगा, तो प्रारम्भ में उसे अच्छा लगेगा; पर उसकी अकाल मृत्यु हो जायेगी। अतः कोई यात्री उस वृक्ष की छाया में न विश्राम ले और न उसका फल-फूल चखे ।" ___ आबाल वृद्ध तक यह घोषणा पहुँच जाये, इस दृष्टि से उसने तीन बार घोषणा करायी और अपने आदमियों को इसलिए नियुक्त कर दिया कि उक्त घोषणा का पालन भली प्रकार हो ।
धन्य-सार्थ की घोषणा पर ध्यान न देकर बहुत से लोगों ने उसके. नोचे विश्राम किया तथा उसके फलों को खाया और अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए।
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तीर्थंकर महावीर प्रवास करता हुआ धन्य अहिछत्रा आ पहुँचा और बड़ी नजराना लेकर राजा के सम्मुख गया । राजा ने धन्य-सार्थवाह की भेंट स्वीकार की, उसका बड़ा आदर-सत्कार किया और उसे शुल्करहित कर दिया। वहाँ अपना सामान बेचने के बाद धन्य ने अन्य सामान लिये और चम्पा-नगरी में आया।
एक बार धर्मघोष नामक साधु वहाँ पधारे। धन्य सार्थवाह उनकी वंदना करने गया। उनका धमापदेश सुनकर अपने पुत्र को गृहभार देकर उसने प्रव्रज्या ले ली। सामायिक आदि ११ अंग पढ़े। वर्षों तक चारित्र पालकर एक मास की संलेखना कर ६० भक्तों को छेद कर वह देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुआ। यहाँ से चल कर वह महाविदेह में सिद्ध होगा।
४८. धन्य-राजगृह-नगरी थी। उस राजगृह नगरी में श्रेणिकनामक राजा राज्य करता था। उस नगर के उत्तर-पूर्व दिशा में गुणशिलकनामक चैत्य था । उस गुणशिलक-चैत्य के निकट ही एक जीर्ण उद्यान था। उस जीर्ण उद्यान में स्थित देवालय विनाश को प्राप्त हो गये थे। उस उद्यान के मध्य भाग में एक बड़ा भग्न कूप था। उस भग्न कूप से निकट ही मालुकाकच्छ था । वह मालुकाकक्ष बहुत-से वृक्षों, गुल्मों, लताओं, बेलों, “घासों, दर्भो आदि से व्याप्त था। चारों ओर से ढंका हुआ यह मध्य भाग में बड़ा विस्तार वाला था ।
उस राजगृह नगर म, धन्य-नामक एक साथवाह रहता था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था । पर, उसे कोई संतान न थी। उस धन्य-सार्थवाह को पंथक नामक एक दासकुमार था। वह मुन्दर अंगवाला, पुष्ट तथा चच्चों को क्रीड़ा कराने में अत्यन्त दक्ष था ।
उस राजगृह नगर में विजय नामक एक चोर था।
१-ज्ञाताधर्मकथा सटीक १.१.५ पत्र २००-१-२०२-२
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एक बार मध्यरात्रि के समय कुटुम्ब की चिन्ता करते हुए, भद्रा सार्थवाही को यह अध्यवसाय हुआ - " मैं कितने ही वर्षों से पाँचों प्रकार के कामभोग का अनुभव करती हुई विचर रही हूँ पर मुझे संतान न हुई । धन्य सार्थवाह को अनुमति लेकर राजगृह नगर के बाहर जो नाग, भूत, यक्ष, इन्द्र, स्कंद, रुद्र, शिव तथा वैश्रमण आदि देवों के जो गृह हैं,. उनकी पूजा करके उनकी मान्यता करूँ ।"
दूसरे दिन उसने अपने विचार धन्य से कहे और उसने मान्यताएँ कीं । वह चतुर्दशी, अष्टिमी, अमावस्या और पूर्णिमा को विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार कराती तथा देवताओं की पूजावंदना करती ।
भद्रा सेठानी गर्भवती हुई और उसे एक पुत्र हुआ । उसने उसका नाम देवदत्त रखा | सेठानी ने देवदत्त को खिलाने के लिए पंथक को सौंप दिया । बच्चों के साथ पंथक देवदत्त को खिला रहा था कि, इतने में विजय चोर आ पहुँचा और उसे उठा ले गया । उसने देवदत्त के सभी आभूषण आदि छीन लिये और उसे उसने कुएँ में फेंक कर और स्वयं मालुकाकक्ष के वन में भाग गया ।
पंथक रोता-चिल्लाता वापस आया और उसने देवदत्त के गुम होने की सूचना दी । नगरगुप्तिका ( कोतवाल ) को खबर दी गयी । वह दल-चल से खोजने लगा और खोजते खोजते बच्चे का शव कूप में पाया ।
फिर, विजय चोर को खोजते नगरगुप्तिका मालुकाकक्ष में गया और माल सहित उसे पकड़ लिया ।
एक बार दानचोरी में नगर के रक्षकों ने धन्य - सार्थवाह को पकड़ा और बाँध कर कैदखाने में डाल दिया । उसकी पत्नी ने नाना प्रकार के भोजन आदि पंथक के हाथ कैदखाने में भेजा । धन्य सार्थवाह उन्हें खाने उस समय विजय चोर ने धन्य से कहा - "हे देवानुप्रिय ! थोड़ा
लगा
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तीर्थङ्कर महावीर
भोजन आप मुझे भी दें ।" भद्र ने कहा - "हे विजय ! मैं यह सब कौए या कुत्ते को दे सकता हूँ; पर अपने पुत्र के हत्यारे को नहीं दे सकता । " भोजन आदि के बाद धन्य को शौच तया लघुशंका की इच्छा हुई । बँधा होने से धन्य अकेला जा नहीं सकता था । अतः उसने विजय चोर को साथ चलने को रहा । विजय ने कहा -- जबतक मुझे अपने भोजन में से देने का वादा न करोगे तब तक मैं नहीं चलने का । बाध्य होकर धन्य ने उसकी बात स्वीकर कर ली ।
विजय चोर को भी धन्य भोजन देता है, यह जान कर भद्रा धन्य से रुष्ट हो गयी ।
कुछ समय बाद धन्य छूटकर घर आया । घर पर सबने उसका सत्कार किया पर भद्रा उदास बैठी रही ।
धन्य ने भद्रा से पूछा - "हे देवानुप्रिय ! मेरे आने पर तुम उदास क्यों हो ?"
भद्रा बोली - " मेरे पुत्र के हत्यारे को खाना खिलाना मुझे अच्छा नहीं लगा ।"
धन्य ने पूरी स्थिति भद्रा को बता दी । उसे सुनकर भद्रा शान्त हो गयी ।
उसी समय धर्मघोष आये । उनके पास धन्य ने प्रवज्या ग्रहण करली | और, काल के समय काल करके देवयोनि में उत्पन्न हुआ तथा महाविदेह में जन्म लेने के बाद मुक्त होगा ।'
४६. धर्मघोष —— देखिए धन्य- सार्थवाहों का प्रकरण पत्र ३४८, ३५० ५०. धृतिधर - यह धृतिघर-गाथापति काकन्दी नगरी के वासी थे । १६ वर्षों तक साधु पर्याय पाल कर विपुल पर सिद्ध हुए ।
१ - ज्ञाताधर्मकथा सटीक १-२ पत्र ८३-२-६६-२।
-
२ --अंतगड ( अंतगड-अणुत्तरोववाइय - एन० वी० वैध सम्पादित ) पृष्ठ ३४
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श्रमण-श्रमणी
३५१ ५१. नंदमणियार-श्रावकों के प्रकरण में देखिए । ५२. नंदमती-देखिए तीथङ्कर महाबीर, भाग २, पृष्ठ ५३ ५३. नन्दन-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ९३ ५४. नंदसेणिया-देखिए तीर्थङ्कर महाबीर, भाग २, पृष्ठ ५३ ५५. नंदषेण-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ट १५ ५६. नन्दा-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ ५७. नन्दोत्तरा-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ ५८. नलिनीगुल्म-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ९३
५६. नारदपत्र–इनका उल्लेख भगवती सूत्र सटीक शतक ५. उद्देशा ८ पत्र ४३३ में आया है। निर्गथीपुत्र द्वारा शंका-समाधान किये जाने पर साधु हो गये थे।
६०. नियंठिपुत्र-इनका उल्लेख भगवतीसूत्र सटीक शतक ५, उद्दशा ८ पत्र ४३३ में आया है ।
६१. पद्म-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ९३ ६२. पद्मगुल्म-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ९३
६३. पद्मभद्र-श्रेणिक का पौत्र था और भगवान् के २५-वें वर्षावास में भगवान् के सम्मुख उसने दीक्षा ग्रहण की।
६४. पद्मसेन-देखिए तीर्थकर महावीर, भाग २, पृष्ठ ९३ । ६५. प्रभास-देखिए । तीर्थकर महावीर, भाग १ पृष्ठ २३२
६६. पिंगल-देखिए तीर्थकर महावीर, भाग २, पृष्ठ ८० ।। ६७. पितृसेनकृष्ण-देखिए तीर्थकर महावीर, भाग २, पृष्ठ ९५ ।
६८. पिट्टिमा-इसका उल्लेख अणुत्तरोववाइय ( म० चि० मोदीसम्पादित, पृष्ठ ७० ) में आता है । यह वनियाग्राम का निवासी था ( वही,
१-निरयावलिया (पी० एल० वैद्य-सम्पादित ), ठ ३१ । पृष्ठ ६१ पर प्रूफ की गलती से उसका नाम 'महाभद्र' छप गया है। पाठक सुधार लें।
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३५२
तीर्थङ्कर महावीर पृष्ठ ८३ ) । उसकी माँ का नाम भद्रा था । ( वही, पृष्ठ ८३ ) । इसे ३२ पत्नियाँ थीं। बहुत वर्षों तक साधु धर्म पाल कर एक भास की संलेखना कर सर्वार्थसिद्ध-विमान में उत्पन्न हुआ। महाविदेह में जन्म लेने के बाद मुक्त होगा।
६६. पुद्गल-देखिए तीर्थकर महावीर, भाग २, पृष्ट ४४-४६ । ७०. पुरिसेन-देखिए तीर्थंकर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ । ७१. पुरुषसेन-देखिए तीर्थंकर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ । ७२. पुरोहित-इसी प्रकरण में उ सुयार का प्रसंग देखें । (पृष्ठ ३३२)
७३. पूणभद्र—यह पूर्णभद्र वाणिज्यग्राम का गृहपति था। पाँच वर्षों तक साधु-धर्म पाल कर विपुल पर सिद्ध हुआ। (अंतगड-अणुत्तरोववाइय, मोदी-सम्पादित, पृष्ठ ४६ )
७४. पूर्णसेन-देखिए तीर्थकर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ । ७५. पेढालपुत्र-देखिए तीर्थकर महावीर, भाग २, पृष्ठ २५२-२५८
७६. पेल्लअ-इसका उल्लेख अणुत्तरोवाइयदसा (अंतगड-अणुत्तरोववाइयदसाओ, मोदी-सम्पादित पृष्ठ ७०) में आता है। यह राजगृह का निवासी था । इसकी माता का नाम भद्रा था। इसे ३२ पत्नियाँ थीं। बहुत वर्षों तक साधु धर्म पाल कर एक मास को संलेखना कर सर्वार्थसिद्ध मैं उत्पन्न हुआ और महाविदेह में सिद्ध होगा वही, पृष्ठ ८३ )।
७. पोट्टिला-देखिए तेतलिपुत्र का प्रसंग । पृष्ट ३४० )। ७८. पोट्ठिल-देखिए तीर्थंकर महावीर, भाग २, पृष्ठ २०२ ।
७६. बलश्रा-अनेक विध कानन और उद्यानादि में सुग्रीव नामक नगर में बलभद्र-नामक राजा था। उसकी पत्नी का नाम मृगा था। उसे एक पुत्र बलश्री नाम का था । वह लोगों में मृगापुत्र के नाम से विख्यात था । एक दिन वह प्रासाद के गवाक्ष से नगर के चतुष्पद, त्रिपथ और बहुपथों को कुतूहल से देख रहा था कि, उसको दृष्टि एक संयमशील साधु पर पड़ी। उसे देख कर मृगापुत्र को ध्यान आया कि, उसने उसे
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श्रमण-श्रमणी
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कहीं देखा है। साधु के दर्शन होने के अनन्तर, मोह कर्म के दूर होने से, अंतःकरण में शुद्ध भाव आने से उसे जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ"मैं देवलोक से च्युत होकर मनुष्यभव में आ गया हूँ,” ऐसा संज्ञिज्ञान हो जाने पर मृगापुत्र पूर्व जन्म का स्मरण करने लगा और फिर उसे पूर्वकृत संयम का स्मरण हुआ । अतः उसने अपने पिता के पास जाकर दीक्षित होने की अनुमति मांगी। उसके माता-पिता ने उसे समझाने की चेष्टा की। माता-पिता की शंका मिटाकर मृगापुत्र साधु हो गया । अनेक वर्षों तक साधु-धर्म पाल कर बलश्री (मृगापुत्र) एक मास की संलेखना कर सिद्ध-गति को प्राप्त हुआ। ( उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका सहित, अध्ययन १९ पत्र २६०-१-२६७-१)
८०. मतदत्ता-देखिए तीर्थंकर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५४ । ८१. भद्र-देखिए तीर्थकर महावीर, भाग २, पृष्ठ ९३ ।
८२. भद्रनन्दी-~ऋषभपुर नगर था । थूभकरण्ड उद्यान था। उसमें धन्य यक्ष था । उस नगर में धनावह नामक राजा था । उसकी पत्नी का नाम सरस्वती था। उसे भद्रनन्दी-नामक कुमार था । यौवन तक की कथा सुबाहु के समान जान लेनी चाहिए। उसे ५०० पत्नियाँ थीं। उनमें श्रीदेवी मुख्य थी। भगवान् के आने पर उसने श्रावक-धर्म स्वीकार कर लिया। बाद में वह साधु हो गया । महाविदेह में पुनः उत्पन्न होने के बाद सिद्ध होगा। (विवागसूत्र, मोदी-चौकसी-सम्पादित, पृष्ठ ८०)
८३. भद्रनन्दो-सुघोस-नगरी में अर्जुन-नामक राजा था। उसकी पत्नी का नाम तत्तवती था। भद्रनन्दी उसका पुत्र था। भद्रनन्दी को ५०० पत्नियाँ थी । उनमें श्रीदेवी मुख्य थी। वह साधु हो गया । अंत में वह सिद्ध होगा।
८४. भद्रा-देखिए तीर्थकर महावीर, माग २, पृष्ठ ५४ । ८५. मंकाता--देखिए तीर्थकर महावीर, भाग २, पृष्ठ ४७ ।
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तीर्थंकर महावीर
८६. मंडिक - देखिए तीर्थंकर महावीर, भाग १, पृष्ठ २९८३०६; ३६८ ।
८७. मयाली - - देखिए तीर्थंकर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ ॥ ८८. मरुदेवा -- देखिए तीर्थंकर महावीर, भाग २, पृष्ट ५४ । ८६. महचंद्र - देखिए तीर्थंकर महावीर, भाग २, पृष्ठ ४१ ।
३५४
६०. महब्बल --- महापुर नगर था । वहाँ बल राजा था । सुभद्रा देवी थी । उसके कुमार का नाम महबल था । उसे ५०० पत्नियाँ थीं । उनमें रक्तवती मुख्य थी । यह साधु हो गया । ( विवागसूय, मोदीचौकसी-सम्पादित, पृष्ठ ८२ ) ।
६१. महया—देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५४ । ६२. महाकालो - देखिए तीर्थंकर महावीर, भाग २, पृष्ट ९५ । ६३. महाकृष्णा - देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ९५ ६४. महाद्र ुमसे - देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ । ६५. महापद्म - देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ९३ । ६६. महाभद्र - देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ९३ । ६७. महामरुता - देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ २४ । ६८. महासिंहसेन - देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ । ६६. महासेन – देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ । १००. महासेनकृष्ण - देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ९५ ।
१०१. माकन्दिपुत्र - भगवतीसूत्र शतक १८, उद्देशा ३ में इसका उल्लेख आता है । भगवान् महावीर ने इनके कुछ प्रश्नों के वहाँ उत्तर दिए हैं।
१०२. मृगापुत्र बलश्री का प्रसंग देखिए ( पृष्ठ ३५२ ) । १०३. मेघ — देखिए, तीर्थंकर महावीर, भाग २, पृष्ठ १२ । १०४. मेघ — इसका उल्लेख अंतगडदसाओ ( अंतगडद साओ - अणुतरोववाइयदसाओ, मोदी - सम्पादित, पृष्ठ २४ ) में आया है । यह राज
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'श्रमण-श्रमणी
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गृह का निवासी गृहपति था । बहुत वर्षो तक साधु-पर्याय पालकर विपुल पर सिद्ध हुआ (वही, पृष्ठ ४६ ) ।
१०५. मृगावती - देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ६७ । १०६. मेतार्य - देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग १, पृष्ठ ३१९३२१, ३६९ ।
१०७. मोर्यपुत्र - देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग १, पृष्ठ ३०७३१०, ३६८ ।
१०८. यशा — उमुयार का प्रसंग देखिए ( पृष्ठ ३३२ ) १०६. रामकृष्ण - देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ९५ ।
---
यह
११०. रामापुत्र - इसका उल्लेख अनुत्तरोवाइय में आता है ( अंतगडदसाओ - अणुत्तरोववाइयदसाओ, मोदी- सम्पादित, पृष्ठ ७० ) । साकेत ( अयोध्या ) का निवासी था । इसकी माता का नाम भद्रा था । इसे ३२ पानियाँ थीं। बहुत वर्षों तक साधु धर्म पाल कर सर्वार्थसिद्ध में उत्पन्न हुआ और महाविदेह में जन्म लेने के बाद मुक्त होगा ।
१११. रोह- इसका उल्लेख भगवतीसूत्र ( शतक १, उद्देशा ६ ) में आता है | इसने भगवान् से लोक आलोक आदि सम्बन्ध में प्रश्न पूछे थे । ११२. लट्ठदंत - देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ । ११३. व्यक्त — देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग १, पृष्ठ २८२ - २९३, ३६८ ११४. वरदत्त - इसका उल्लेख विवागसूय ( सुख - स्कंध ) में आता है ( मोदी-चौकसी - सम्पादित, पृष्ठ ८२ ) साकेत नगर में मित्रनन्दी राजा था | श्रीकान्ता उसकी पत्नी का नाम था । वरदत्त उनका पुत्र था । उसे ५०० पत्नियाँ थीं। उनमें वरसेना मुख्य थी । पहले उसने श्रावकधर्म स्वीकार किया और बाद में साधु हो गया । मर कर यह सर्वार्थसिद्धि में गया | फिर महाविदह में जन्म लेने के बाद मोक्ष प्राप्त करेगा ।
११५. वरुण -- यह वैशाली का योद्धा था । रथमुसल-संग्राम में
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तीर्थंकर महावीर इसने भी भाग लिया था। यह श्रावक था । इसने स्वयं श्रावक-व्रत लेने की बात कही है। युद्ध स्थल से बाहर आकर इसने डाभ का संथारा बिछाया । अरिहंतों को वंदन-नमस्कार किया और सर्वप्राणातिपात आदि साधु-व्रत लिये और पडिक्कम्मी समाधि पूर्वक काल को प्राप्त हुआ। मरने के बाद यह सौधर्मदेवलोक के अरुणाभ नामक विमान में देवता-रूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ चार पल्योपम रहने के बाद महाविदेह में जन्म लेगा
और तब सिद्ध होगा। यह नाग का पौत्र था। (भगवतीसूत्र सटीक भाग १, शतक ७, उद्देशा ९, पत्र ५८५-५८८.)
११६. वायुभूति-देखिए तीर्थंकर महावीर, भाग १, पृष्ठ २७६२८१; ३६७ ।
११७. वारत्त-देखिए तीर्थकर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५० । ११८. वारिसेण-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ । ११६. विजयघोष-जयघोष का प्रकरण देखिए (पृष्ठ ३३७ )। १२०. चीरकृष्णा-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ९५ ।
१२१. वीरभद्र-चउसरणपइण्णग के लेखक। इनके सम्बंध में कुछ अधिक ज्ञात नहीं है।
१२२. वेसमग-कनकपुर-नगर था। प्रियचन्द्र वहाँ का राजा था। सुभद्रा देवी उसकी रानी थी। वेसमण उनका कुमार था। उसे ५०० पत्नियाँ थी उनमें श्री देवी प्रमुख थीं। पहले इसने श्रावक-व्रत लिया पर बाद में साधु हो गया। (विपाकसूत्र; मोदो-चौकसी-सम्पादित, पृष्ठ ८१)।
१२३. वेहल्ल-~देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ ।
१२४. वेहल्ल-इसका उल्लेख अणुत्तरोववाइय में आता है। यह राजगृह का निवासी था । ६ मास तक साधु-धर्म पालकर सर्वार्थसिद्ध में उत्पन्न हुआ और महाविदेह में सिद्ध होगा (अंतगड-अणुत्तरोववाइय, मोदी-सम्पादित, पृष्ठ ७०,८३ )।
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१२५. वेहास - देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ । १२६. शालिभद्र – देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ २५ । १२७. शालिभद्र - देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ३९ । १२८. शिव - देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ २०२ । १२६. स्कंदक – देखिए तीर्थङ्कर महावीर भाग २, पृष्ठ ८० ।
१३०. समुद्रपाल – चम्पानगरी में पालित-नामक एक वणिकश्रावक रहता था । वह भगवान् महावीर का शिष्य था । पोत से व्यापार करता हुआ, वह पिहुंडी - नामक नगर में आया । उसी समय किसी वैश्य ने अपनी कन्या का विवाह उससे कर दिया । तदन्तर पालित की उस पत्नी को समुद्र में पुत्र हुआ । उसका नाम उसने समुद्रपाल रखा । समुद्रपाल ने ७२ कलाएँ सीखीं और युवावस्था प्राप्त करके वह सबको प्रिय लगने लगा ।
उसके पिता ने रूपिणी नामक एक कन्या से उसका विवाह कर दिया । किसी समय गवाक्ष में बैठा हुआ समुद्रपाल ने बध योग्य चिन्ह से विभूषित किये हुए चोर को बध्यभूमि में ले जाते देखा । उसे देखकर समुद्रपाल को विचार हुआ कि अशुभ कर्मों का फल पाप रूप ही है । ऐसा विचार आने पर माता-पिता से पूछकर उसने दोक्षा ले ली ।
अनेक प्रकार के दुर्जय परिषहों के उपस्थित होने पर भी समुद्रपाल मुनि किंचित् मात्र व्यथित नहीं हुआ । श्रुतज्ञान के द्वारा पदार्थों के स्वरूप जानकर क्षमादि धर्मों का संचय करके, उसने केवलज्ञान प्राप्त किया और अंत में काल के समय में काल करके वह मोक्ष गया । ( उत्तराध्ययन, नेमिचन्द्र की टीका - सहित, अध्ययन, २१ पत्र २७३ २ - २७६ - १ )
१३१. सर्वानुभूति - देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ १२०-१२१
१ - डा० सिलवेन लेवी का अनुमान है कि इसी पिहुंड के लिए खारवेल के शिलालेख में पिथुड अथवा पिथुडग नाम आया है । और, उनका अनुमान यह भी है कि टॉलेमी का पिटुंड्र भो सम्भवतः विकुंड का ही नाम है ( ज्यागरैफी आव अली बुद्धिज्म, प ६५ )
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तीर्थकर महावीर १३२. साल-राजाओं के प्रकरण में देखिए । १३३. सिंह-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ । १३४. सिंह-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ १३३ । १३५. सिंहसेन-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ । १३६. सुकाली-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ९५ । १३७. सुकृष्णा-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ९५ ।
१३८. सुजात-वीरपुर-नगर था। उसके निकट मनोरम-उद्यान था। वहाँ वीरकृष्णमित्र-नामक राजा था। उसकी पत्नी का नाम श्री था। उनके कुमार का नाम सुजात था। उसे ५०० पत्नियाँ थीं, उनमें बलश्री मुख्य थी। पहले उसने श्रावक-व्रत लिया। बाद में साधु हो गया । यह महाविदेह में जन्म लेने के बाद सिद्ध होगा। (विधाकसूत्र, मोदीचौकसी-सम्पादित, पृष्ठ ८०-८१)।
१३६. सुजाता-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५४ ।
१४०. सुदंसणा-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ट २४२७; १९३-१९४
१४१. सुदर्शन-देखिए, तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ २५९-२६३। १४२. सुद्धदंत-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ट ५३ ।
१४३. सुधर्मा-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग १, पृष्ठ २९४२६८, ३६८।
१४४. सुनक्षत्र-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ १२२ । १४५. सुनक्षत्र-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ट ७१ । १४६. सुप्रतिष्ठ-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २ पृष्ट ३२ ।
१४७.. सुबाहुकुमार-हस्तिशीर्ष के उत्तरपूर्व-दिशा में पुष्पकरण्डक-नामक उद्यान था। उस नगर में अदीनशत्रु राजा था। उसकी रानी का नाम धारिणी था। उनके पुत्र का नाम सुबाहुकुमार था । इसका वर्णन राजाओं के प्रसंग में हमने विस्तार से किया है ।
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श्रमण-श्रमणी
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१४८. सुभद्र - देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ९३ । १४६. सुभद्रा — देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५४ ।
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१५०. सुमना - देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५४ । १५१. सुमनभद्र - इसका उल्लेख अंतगड में आता है ( अंतगड- अणुत्तरोववाइय, मोदी- सम्पादित, पृ ३४ ) यह श्रावस्ती का निवासी था । बहुत वर्षों तक साधु-धर्म पाल कर विपुल पर सिद्ध हुआ ( वही, पृष्ट ४६ )
१५२. सुमरुता - देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ट ५४ । १५३. सुव्रता - तेतलिपुत्र वाल प्रकरण देखिए पृष्ठ ३४२-२४३ ।
१५४. सुवासव- विजयपुर - नामक नगर था उसके निकट नंदनवन - उद्यान था । उसमें अशोक यक्ष का यक्षायतन था । वहाँ वासवदत्त नामक राजा था । उसकी पत्नी का नाम कृष्णा था । सुवासव उसका कुमार था। पहले उसने श्रावक व्रत ग्रहण किया। बाद में साधु हो गया । महाविदेह में जन्म लेने के बाद सिद्ध होगा ( विपाकसूत्र, मोदी-चौकसीसम्पादित, पृष्ठ ८१ ) ।
१५५. हरिकेसबल - चाण्डाल- कुल में उत्पन्न हुआ प्रधान गुणों का धारक मुनि हरिकेसबल नामक एक जितेन्द्रिय साधु हुआ है । तप से उसका शरीर सूख गया था तथा वस्त्रादि अति जीर्ण हो गये थे । उस मुनि को यज्ञवाटिका मंडप में आते देखकर ब्राह्मण लोग अनार्यों की भाँति उस मुनि का उपहास करने लगे और कटु वचन बोलते हुए उसे वहाँ आने का कारण उन्होंने पूछा । उस समय तिंदुक वृक्षवासी यक्ष उस मुनि के शरीर में प्रविष्ट होकर बोला --- " हे ब्राह्मणों ! मैं संयत हूँ, श्रमण हूँ ब्रह्मचारी हूँ, धन का संचय करने, अन्न पकाने तथा परिग्रह रखने से सर्वथा मुक्त हो गया हूँ । मैं इस यज्ञशाला में भिक्षा के लिए उपस्थित हुआ हूँ।”
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तीर्थंकर महावीर
मुनि की सारी बातें सुनकर ब्राह्मण रुष्ट हुए और ब्राह्मणों का रोष देखकर कुमार विद्यार्थी दंड, बेंत आदि लेकर दौड़े आये और उस मुनि को मारने लगे । उस समय कौशल्कि राजा की भद्रा नामक पुत्री ने आकर कुमारों को मारने से रोका। उसने कहा कि, यह वही ऋषि हैं जिसने मुझे त्याग दिया था । इसकी पूरी कथा उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका सहित अध्ययन १२, पत्र १७३-१-१८५- १ में आयी है । जिज्ञासुपाठक वहाँ देख सकते हैं ।
३६०
१५६. हरिचन्दन – इसका उल्लेख अंतगडसूत्र में आता है ( अंतगड - अणुत्तरोववाइय, मोदी सम्पादित, पृष्ठ ३४ ) | यह साकेत का गृहपति था । १२ वर्षों तक साधु-धर्म पाल कर विपुल पर सिद्ध हुआ ( वही, पृष्ठ ४६ )
१५७. हल्ल - देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ |
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সাব-নিকা
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अह अट्टहिं ठाणेहिं, सिक्खासीलि त्ति वुच्चइ । अहस्सिरे सयादन्ते, न य मम्ममुदाहरे ।। नासीले न विसीले, न सिया अइलोलुए । अकोहणे सच्चरए, सिक्खासीलि त्ति वुच्चइ ।।
[उत्तरा० अ ० ११ गा ० ४.५ ] इन आठ कारणों से मनुष्य शिक्षा-शील कहलाता है :
१ हर समय हँसनेवाला न हो, २ सतत इंद्रिय-निग्रही हो, ३ दूसरों को मर्मभेदी वचन न बोलता हो, ४ सुशील हो, ५ दुराचारी न हो ६ रसलोलुप न हो, ७ सत्य में रत हो, तथा ८ क्रोधी न हो-शान्त हो ।
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श्रावक-धर्म
भगवान् महावीर ने अपने छमस्थ काल में प्रथम वर्षावास में ही हस्तिग्राम में दस महास्वप्न देखे थे। उनमें ९ का फल तो उत्पल-नामक नैमित्तिक ने बता दिया था पर चौथे स्वप्न.......
दाम दुगं च सुरभिकुसुममयं ।' का फल वह नहीं बता सका था। इसका फल स्वयं भगवान् महावीर ने बताया।
हे उप्पला ! जं नं तुमं न याणासि तं नं अहं
दुविहमगाराणगारियं धम्भं पनवेहामित्ति ।' __-हे उत्पल ! मैं अगार और अनगरिय दो धर्मों की शिक्षा दूंगा। ( देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग १, पृष्ठ १७३ ) यह 'अणगारिय' तो साधु हुए और घर में रह कर जो धर्म का पालन करे उसे जैन-धर्म में श्रावक अथवा गृही कहा जाता है ।
तीर्थङ्कर के चतुर्विध संघ में १ साधु, २ साध्वी, ३ श्रावक, ४ श्राविकाएँ होती हैं। ये श्रावक गृही होते हैं । श्रावक शब्द की टीका करते हुए ठाणांग में आता है ।
शणवन्ति जिनवचन मिति श्रावकाः, उक्तञ्च अवाप्तदृष्ट्यादिविशुद्ध सम्पत्, परं समाचार मनुप्रभातम् । १. पावश्यकचूणि, पूर्वार्द्ध, पत्र २७४ । २. वही, पत्र २७५ ।। ३. च उबिहे संघे पं० तं० समणा, समणीओ, सावगा, सावियाओ। ठाणांगसूत्र सटीक, ठाणा ४, उ०४, सूत्र ३६३, पत्र २८१-२ ।
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३६४
तीर्थकर महावीर
शृणोति यः साधुजनादतन्द्रस्तं श्रावकं प्राहुरमी जिनेन्द्राः ॥ इति अथवा
श्रान्ति पचन्ति तत्त्वार्थ श्रद्धानं निष्ठां नियन्तीति श्राः, तथा वपन्ति गुण वत्सप्तक्षेत्रेषु धनबोजानि निक्षिपन्तीति वास्तथा किरन्ति-क्लिष्टकर्म्मर जो ।
विक्षिपन्ततीति कास्ततः कर्मधारये श्रावकः इति भवति । यदाहः
शृद्धालुतां श्राति पदार्थ चिन्तनाद्धनानि पात्रेषु वपत्यनारतम् । किरत्यपुण्यानि सुसाधुसेवनादथापि तं श्रावकमाहुरञ्जसा ॥ अर्थात् जो जिन-वचन को सुनता है, उसे श्रावक कहते हैं । कहा है कि, प्राप्त की हुई दृष्टि आदि विशुद्ध सम्पत्ति ( सम्यक् दृष्टि ) साधु जन के पास से जो प्रति दिन प्रभात में आलस्य रहित उत्कृष्ट समाचार ( सिद्धान्त ) जो ग्रहण करे उन्हें जिनेन्द्र का श्रावक कहते हैं । अथवा जो पचाता है, तत्त्वार्थ पर श्रद्धा से निष्ठा लाता है उसके लिए 'श्री' शब्द है और गुण वाले सप्त क्षेत्रों में जो धन रूप बीज बोता है तथा क्लिष्ट कर्म रूप रज फेंक देता है, उससे कर्मधारय समास करने से श्रावक शब्द सिद्ध होता है । कहा है:
पदार्थ के चिंतन से श्रद्धालुता को दृढ़ करके, निरन्तर पात्रों में धन चोता है, और सत्साधुओं की सेवा करके पापों को शीघ्र फेंकता है अथवा दूर करता है उसको ज्ञानी श्रावक कहते हैं ।"
भगवान् महावीर के संघ में १५९००० ३ श्रावक थे | ठाणांगसूत्र में
१. ठाणांगसूत्र सटीक, पत्र २८२ -१ तथा २८२-२ । २, ठाणांगसूत्र टीका के अनुवाद सहित, भाग २, ३ समणस्स णं भगवतो महावीरस्स संख सयग एगा सयसाहसीओ उठि...
पत्र ५४१-१ ।
पामोक्खाणं समणी बासगाणं
- कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, सूत्र १३६, पत्र ३५७ ।
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श्रावक-धर्म
३६५ जहाँ उपासकों का वर्णन आता है, वहाँ १० (मुख्य) उपासक गिनाये गये हैं :
उवासगदसाणं दस अज्झयणा पं० तं०-आणंदे १, कामदेवे २ अ, गाहावति चूलणीपिता ३ । सुरादेवे ४ चुल्लसतते ५ गाहावति कुंडकोलिते ६ ॥ १ ॥ सद्दालपुत्ते ७ महासतते ८, णंदिणीपिया ६, सालतियापिता ( सालिहीपिय )१०॥
गृही अथवा श्रावक के १२ धर्म बताये गये हैं। उपासकदशा में आनन्द ने उन बारह धर्मों को स्वीकार किया था। वहाँ पाठ है :
पञ्चचाणुब्वइयं सत्त सिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म ... अर्थात् गृही को पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत ये बाहर धर्म पालन करने आवश्यक हैं । ठाणांग सूत्र में पाँच अणुव्रत इस रूप में बताये गये हैं:
पंचाणुवत्ता पं० २०-थूलातो पाणाइवायातो वेरमण, थूलातो मुसावायातो वेरमणं, थूलातो अदिन्नदानातो वेरमणं, सदार-संतोसे, इच्छा परिमाणे।
और सात गुणवतों का स्पष्टीकरण श्रावक-धर्म-विधि-प्रकरण ( सटीक) में इस प्रकार किया गया है :
सम्मत्त मूलिया ऊ पंचाणुव्वय गुणध्वया तिणि । चउसिक्खापय सहियो सावग धम्मो दुवालसहा ॥
१. ठाणाग सूत्र सटीक ठाणं १०, उ० ३, सूत्र ७५५ पत्र ५०६-१ । २. उवासगदसाओ ( पी० एल० वैद्य-सम्पादित ) पृष्ठ ६ । ऐसी हो उल्लेख रायपसेणी ( बाबूधनपतसिह की ) पष्ठ २२३, ज्ञाताधर्मकथा सटीक उत्तरार्द्ध अध्ययन १४, पत्र १६६.१ । तथा विपाक सूत्र ( मोदी-चौकसी-सम्पादित) पृष्ठ ७६ में भी है। ३. ठाणांगसूत्र सटीक, उत्तरार्द्ध, ठाणा ५, उ० १, सूत्र ३८६, पत्र २६०-१। ४. श्रावक-धर्म विधि-प्रकरण सटीक, गाथा १३, पत्र ८.२।
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३६६
तीर्थंकर महावीर सात के सम्बन्ध में ऐसा ही स्पष्टीकरण-श्रावक-धर्म-प्रज्ञप्ति में भी है।
त्रयाणां गुणव्रतानां शिक्षात्रतेषु गणनात्
सप्त शिक्षा व्रतानीत्युक्तम् ॥ अर्थात् ३ गुणव्रत को ४ शिक्षाव्रत के साथ गणना करने से सात शिक्षाव्रत होते हैं।
इन व्रतों का उल्लेख तत्त्वार्थ सूत्र में इस प्रकार है :- अणुव्रतोऽगारी ॥ १५ ॥ दिग्देशानर्थ दण्डविरति सामायिक पौषधोपवासोपभोगपरिभोग परिमाणाऽतिथि संविभाग व्रत संपन्नश्च ॥ १६ ॥
मारणान्तिकी संलेखनां जोषिता ॥ १७ ॥ संक्षेप में इन व्रतों का विवरण इस प्रकार है :अणुव्रतः-- १. स्थूल प्राणतिपात से विरमण-अहिंसा-व्रत लेना। २. स्थूल मृषावाद से विरमण-मिथ्या से मुक्त रहने का व्रत लेना।
३. स्थूल अदत्तादान से विरमण-बिना दी हुई वस्तु न ग्रहण करने का व्रत लेना।
४ स्वदार संतोष---अपनी पत्नी तक ही अपने को सीमित रखना।
१. राजेन्द्रामिधान भाग ७, पष्ठ ८०५ ।
२. तत्त्वार्थ सूत्र .( जैनाचार्य श्री आत्मानन्द-जन्म-शताब्दी-स्मारक-ट्रस्ट-बोर्ड, बम्बई ) पष्ठ २६१,२६२ ।।
तत्वार्थाधिगमसूत्र खोपज्ञ भाष्य सहित, भाग २. पष्ठ ८८ में टीका में कहा है:
तत्र गुणव्रतानि त्रीणि-दिग्भोगपरिभोगपरिमाणानर्थदण्ड विरतिसंज्ञान्यणुव्रतानां भावना भूतानि.......
शिक्षापदव्रतानि—सामायिक देशावकाशिक पौषघोपवासातिथिसंविभागाख्यानि चत्वारि.......
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श्रावक-धर्म
५ इच्छा के परिणाम - परिग्रह की मर्यादा करनाअथवा आवश्यकताओं की मर्यादा स्थापित करना ।
३. गुणव्रत :
१ - दिग्विरति व्रत अपनी त्यागवृत्ति के अनुसार पूर्व, सभी दिशाओं का परिमाण निश्चित करके उसके बाहर हर कार्य से निवृत्ति धारण करना ।
२- भोगोपभोगवतः- - आहार, पुष्प, विलेपन आदि जो एक बार भोगने में आये वह भोग है' भुवन, वस्त्र, स्त्री आदि जो बार-बार भोगने में आये वह उपभोग है । इस व्रत का ग्रहण करने वाला सचित्त वस्तु खाने का त्याग करता है अथवा परिमाण करता है और १४ नियम लेता हैं; २२ अभक्ष्यों और ३२ अनंतकाय का त्याग करता है ।
२२ अभक्ष्यों के नाम धर्मसंग्रह की टीका में इस प्रकार दिये हैं चतुर्विकृतयो निन्द्या, उदुम्बर पञ्चकम् | हिमं विषं च करका, मृजाती रात्रिभोजनम् ॥ ३२ ॥ बहुबीजाऽज्ञातफले, सन्धानाऽनन्तकायिके । वृन्ताकं चलितरसं, तुच्छ पुष्पफलादि च ॥ ३३ ॥ श्राम गोरससम्पृक्तं द्विदलं चेति वर्जयेत् । द्वाविंशतिभक्ष्याणि, जैनधर्माधिवासितः ।। ३४ ।।
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३६७
- अपनी इच्छा
पश्चिम आदि तरह के अधर्म
- धर्मसंग्रह सटीक, पत्र ७२-१ उदुम्बर, १० हिम, ११ विष, रात्रिभोजन, १५ बहुबीज,
-चार महाविगति, पाँच प्रकार के १२ करा, १३ हर प्रकार की मिट्टी, १४ १६ अनजाना फल, १७ अचार, १८ अनंतकाय, १९ बैंगन, २० चलित रस, २१ तुच्छ फूल-फल, २२ कच्चा दूध-दही छाछ आदि मिली दाल ये २२ वस्तुएँ अभक्ष्य हैं ।
इनका उल्लेख संबोधप्रकरण में भी है । ( गुजराती - अनुवाद में पृष्ठ १९८ पर इनका वर्णन आता है )
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३६८
तीर्थंकर महावीर
३२ अनन्तकायों की गणना संबोधप्रकरण में इस रूप में दी है :सव्वाय कंद जाई, सूरणकंदो १ अ वज्जकंदो २ अ । अल्ल हलिद ३ य तहा, अल्लं ४ तह अल कच्चूरो ५ ॥ १ ॥
सतावरी ६, विराली ७, कुँ श्रारी ८ तह थोहरी ६ गलोई १० अ । लसुणं ११ बंसकरील्ला १२, गज्जरं १३, लुणो १४ अ तह लोढा १४ || २ || गिरिकरिण १६ किसलिय त्ता १७, खरिसुंग्रा १८, थेग १६ अल्लमुत्था २० य तह लूण रुक्ख छल्ली २१, खिल्लहडो २२, श्रमयवल्ली २३ अ ।। ३ ।। सूला २४ तह भूमिरुहा २५, विरु २६ तह ढंक वत्थुलो पढमो २७ । सूअरवल्ली २८ अ तहा, पल्लेको २६ कोमलंबिलिया ३० | ४ || आलू ३१ तह पिंडालू ३२, हवंति एए अनंतनामेणं । श्रन्नमणंतं नेयं, लक्खण जुत्तीइ समयाश्री ॥ ५ ॥
- कंद की सर्वजाति १ सूरणकंद, २ वज्रकंद, ३ हलिद्द, ४ अदरक, ५ कचूर, ६ सतावरी, ७ विराली, ८ कुवार, ९ थुवर, १० गिलोय, ११ लहसुन, १२ बंसकरिल्ला, १३ गाजर, १४ नमक, १५ लोढ़ा, ( कंद ) १६ गिरिकर्णिका, १७ किसलयपत्र, १८ खुरसानी, १९ मोथ, २० लवणवृक्ष की छाल, २१ बिलोड़ीकंद, २२ अमृतवल्ली, २३ मूल, २४ भूमिरुख ( छत्राकार ), २५ विरुद, २६ ढंक, २७ वास्तुल, २८ शूकरवाल, २९ पल्लंक, ३० कोमल इमली, ३१ आलू तथा ३२ पिंडालू |
—संबोधप्रकरण ( गुजराती - अनुवाद ) पृष्ठ १९९
और, १४ नियमों का उल्लेख धर्मसंग्रह सटीक ( पत्र ८०-१) में इस प्रकार दिया है
सच्चित्तं १, दव्व २ विगई ३, वाराह ४, तंबोल ५, वत्थ ६, कुसुमेसु ७ । वाहण ८ सयण ६, बिलेवण १०, बंभ ११, दिसि १२, न्हाण १३, भत्ते सु १४ ॥
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श्रावक-धर्म
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इन सबका विस्तृत वर्णन धर्मसंग्रह सटीक, पूर्वभाग, पत्र ७१ -१ से ८१-१ तक में आता है । जिज्ञासु पाठक वहाँ देख लें ।
३ – अपने भोगरूप प्रयोजन के लिए होने वाले अधर्म व्यापार के सिवा बाकी के सम्पूर्ण अधर्म व्यापार से निवृत्त होना अर्थात् निरर्थक कोई प्रवृत्ति न करना अनर्थदण्डविरति-त्रत है ।
४. शिक्षाव्रत :--
१ - सामामिक- - काल का अभिग्रह लेकर अर्थात् अमुक समय तक अधर्म प्रवृत्ति का त्याग करके धर्म प्रवृत्ति मैं स्थिर होने का अभ्यास करना सामायिक व्रत है ।
२ -- दिशावकाशिकवत - छठें व्रत में जो दिशाओं का परिणाम कर रखा है, वह यावज्जीवन के लिए है । उसमें बहुत-सा क्षेत्र ऐसा है, जिसका रोज काम नहीं पड़ता । अतः प्रतिदिन संक्षेप करे ।
३ पोषधवत : -- पोषधवत के अन्तर्गत ४ वस्तुएँ आती हैं । पोसहोववासे चव्विहे पन्नत्ते तं जहा - आहारपोसहे. सरीरसक्कारपोसहे, बंभचेरपोसहे, श्रव्वावारपोसहे त्ति'
- पौषधोपवास चार प्रकार का कहा गया - १ आहारपौषध, २ शरीरसत्कार पौषध, ३ ब्रह्मचर्यपौषध और ४ अव्यापारपौषध ।
प्रथम अहार अर्थात् खाना-पीना । इसके दो भेद हैं ( १ ) देशतः और ( २ ) सर्वतः । देशतः में तिविहार - उपवास करके पौषध करे : आचाम्ल करके पौषध करे अथवा एकाशना करके पौषध करे ।
और, चौविहार करके पौषध करना सर्वतः पौषध है ।
द्वितीय शरीरसत्कार -- स्नान, धोवन, धावन, तैलमर्दन, वस्त्राभरणादि शृंगार-प्रमुख कोई शुश्रुषा न करना ।
तृतीय ब्रह्मचर्य पालन -- पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करे ।
१ - अभिधान राजेन्द्र, भाग ५, पृष्ठ ११३३
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३७०
तीर्थकर महावीर चतुर्थ श्रन्यापारपौषध-व्यापार आदि पाप कार्य न करना । यह व्रत अष्टिमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या को किया जाता है।'
४--अतिथिसंविभाग--न्याय से उपार्जित और जो खप ( काम में आ) सके, ऐसी खान-पान आदि के योग्य वस्तुओं का इस रीति से शुद्ध भक्ति भाव पूर्वक सुपात्र को दान देनाप्रतिमा जिससे उभयपक्ष को लाभ पहुँचे-वह अतिथिसंविभाग व्रत है ।
प्रतिमा जिस प्रकार उपासकों के १२ व्रत हैं, उसी प्रकार उनके लिए ११ प्रतिमाएँ भी हैं। 'प्रतिमा' शब्द की टीका करते हुए समवायांगसूत्र में टीकाकार ने लिखा है :
प्रतिमा:-प्रतिज्ञाः अभिग्रहरूपाः उपासक प्रतिमा । उनके नाम इस प्रकार गिनाये गये हैं :--
एक्कारस उवासग पडिमाओ प० तं०-दसणसावर १, कयव्वयकंमे २, सामाइअकडे ३, पोसहोववासनिरए ४, दिया बंभयारी रत्ति परिमाणकडे ५, दिवि रामोवि वंभयारी असिणाई वियडभोई मोलिकडे ६, सचित परिणाए ७, प्रारंभ परिराणाए ८, पेस परिणाए ६, उद्दिभत्तपरिणाए १०, समणभूए ११ ।
१-धर्मसंग्रह गुजराती अनुवाद सहित, भाग १, पष्ठ २४१.२४३ २-समवायांगसूत्र सटीक, समवाय ११, सूत्र ११, पत्र १६-१ ३-समवायांगसूत्र सटीक सूत्र ११ पत्र १८-२
प्रवचनसारोद्धार में भी श्रावकों की ११ प्रतिमाए इसी रूप में गिनायी गयी हैं :दसण १ वय २ सामाइय ३ पोसह ४ पडिमा ५ अबंभ ६ सच्चित्ते आरंभ ८ पेस , उद्दिट्ट १० वज्जए समणभूए ११ य ॥ १८ ॥
-प्रवचनसारोद्धार सटीक, द्वार १५३, पत्र २६२।२
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श्रावक-धर्म
३७१ प्रतिमा का शाब्दिक अर्थ अभिग्रह-प्रतिज्ञा है। उपासक की निम्नलिखित ११ प्रतिमाएँ हैं :
१ दर्शन श्रावक-शंकादि पाँच दोषों से रहित प्रशमादि पाँच लक्षणों के सहित, धैर्य आदि पाँच भूषणों से भूषित, जो मोक्षमार्ग रूप महल की पीठिका रूप 'सम्यक् दर्शन' और उनके भय लोभ लज्जा आदि विघ्नों से किंचित् मात्र अतिचार सेये विना निरतिचार से एक महीना तक सतत पालन करना यह पहली दर्शनप्रतिमा है । इसे एक मास कालमान वाली जाननी चाहिए।'
1-शंकाकालाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवा
-तत्वार्थसूत्र ७-१८ २-संवेगो १ चिय उवसम २, निब्वेयो ३ तह य होइ अणुकम्पा । अस्थिक्कं चिय ए ए, सम्मत्ते लक्खणा पंच ॥ १३६ ॥
-धर्मसंग्रह गुजराती अनुवाद सहित, भाग १, पृष्ठ १२२ ३-जिणसासणे कुसलया १, पभावणा २, तित्थ (ऽऽययण) सेवणा ३ थिरया ४ भत्ती अगुणा सम्मत्त, दीवया उत्तमा पंच ॥ १३५ ॥
-धर्मसंग्रह ( वही) पृष्ठ १२१ ४-सम्यक्त्वं तत्प्रतिपन्नः श्रावको दर्शन-श्रावकः, इह च प्रतिमानां प्रक्रान्तत्वेऽपि प्रतिमा प्रतिमावतोरमेदोपचारात्प्रतिमावतो निर्देशः कृतः, एवमुत्तरपदेष्वपि, अयमत्र भावार्थ:-सम्यग्दर्शनस्य शङ्कादिशल्यरहितस्थाणुव्रतादिगुणविकलस्य योऽभ्युपगमः सा प्रतिमा प्रथमेति''-समयायांगसूत्र सटीक, पत्र १६-१
पसमाइगुणविसिह कुग्गहसंका इसल्लपरिहीणं । सम्मदंसणमणहं दसणपडिमा हुवइ पढमा ॥ ६७२ ॥
-प्रवचनसारोद्धार सटीक, भाग २ पत्र २६३-१
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३७२
तीर्थंकर महावीर
२ - कृतव्रतकर्म --- दर्शन - प्रतिमा में उल्लिखित रूप में सम्यक् दर्शन के पालन के साथ दो महीना तक अखंडित और अविराधित ( अतिक्रमादि दोषों से रहित निरतिचार पूर्वक ) श्रावक के १२ व्रतों का पालन करना । यह दो मास काल वाली दूसरी व्रत प्रतिमा है ।
३ – कृतसामायिक – दोनों प्रतिमाओं में सूचित सम्यकत्व और व्रतों का निरतिचार पूर्वक पालन करने के उपरान्त तीन महीना तक प्रत्येक दिन ( प्रातः सायं ) उभय काल अप्रमत्त रूप में सामायिक करना । यह तीसरी प्रतिमा तीन महीने के कालमान की है ।
४ - पौषध प्रतिमा' - पूर्वोक्त वर्णित तीन प्रतिमाओं के पालन के साथ-साथ चार मास तक हर एक चतुष्पव में सम्पूर्ण आठ प्रहर के पौषध का ( निरतिचार पूर्वक ) अखंड पालन करना । यह प्रतिमा चार मास कालमान की है ।
१ (अ) – कृतम् — अनुष्टितं व्रतानाम् - अणुव्रतादीनां कर्म तच्छु वणज्ञानवाञ्चाप्रतिपत्ति लक्षणं ये न प्रतिपन्न दर्शनेन स कृतव्रत कर्मा प्रतिपन्नाणुव्रतादिरिति भाव इतीयं द्वितीया
- समवायांगसूत्र सटीक, पत्र १६ - १
(श्रा) वीयाणुव्वयधारी
-प्रवचनसारोद्धार सटीक पत्र २९३ - १ २. सामायिकं सावद्य योग परिवर्ज निखद्य योग्यसेवन स्वभावं कृतं विहितं देशतो येन स सामायिक कृतः, श्राहिताग्न्यादिदर्शनात् कान्तस्योत्तरपदत्त्वं, तदेवमप्रतिपन्न पौषधस्य दर्शनघतो पेतस्य प्रतिदिनंमुभयसंध्यं सामायिक करणं मास त्रयं यावदिति तृतीया प्रतिमेति— - समवायांग सूत्रसटीक, पत्र १६ - १ ३- पोषं पुष्टि कुशलधर्माणां धत्ते यदाहारत्यागादिकमनुष्ठानं तत्पौषधं तेनोपवसनं — अवस्थानही — रात्रं यावदिति पौषधोपवास इति, अथवा पौषधं
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श्रावक-धर्म
३७३ ५–कायोत्सर्ग'-इन चारों प्रतिमाओं के पालन पूर्वक पाँच महीने तक प्रत्येक चतुष्पर्वी में घर के अंदर या बाहर (द्वार पर) या चतुष्पथ में परिषह तथा उपसर्ग आवे तो भी चलायमान हुए बिना सम्पूर्ण रात्रि
पष्ठ ३७२ पाद टिप्पणी का शेषांष ।
पर्वदिनमष्टम्यादि तत्रोपवासः अभक्तार्थः पौषधोपवासः इति, इयं व्युत्पत्तिरेव, प्रवृत्तिस्त्वस्य शब्दस्याहार शरीर सत्कारा ब्रह्मचर्य व्यापार परिवर्जनेविति, तत्र पौषधपोवासे निरतः-श्रासक्तः पौषधोपवासनिरतः (यः) सः ___एवं विधस्यः श्रावकस्य चतुर्थी प्रतिमेति प्रक्रमः श्रयमत्रभावःपूर्व प्रतिमात्र योपेत अष्टमी चतुर्दश्यमावस्यापौर्णमासीवाहार पौषधादि चतुर्विधं पौषधं प्रतिपद्यमानस्य चतुरोमासान् यावच्चतुर्थी प्रतिमा भवतीति
१-पञ्चमी प्रतिमायामष्टम्यादिषु पर्वस्वेकरात्रिक प्रतिमाकारी भवति, एतदर्थ च सूत्रमाधिकृत सूत्र पुस्तकेषु न दृश्यते दशादिषु पुनरुपलभ्यते इति तदर्थ उपदर्शितः, तथा शेषदिनेषु दिवा ब्रह्मचारी 'रत्ती' ति रात्रौ किं ? अत अाह-परिमाणं-स्त्रीणां तगोगानां वा प्रमाणं कृतं येन स परिमाणकृत इति, अयमत्र भावो___ दर्शन व्रत सामायिकाष्टम्यादि पौषधोपेतस्य पर्वस्वेकरात्रिक प्रतिमा कारिणः, शेषदिनेषु दिवा ब्रह्मचारिणो रात्रावब्रह्मपरिमाण कृतोऽस्नान स्यारात्रिभोजिनः अबद्ध कच्छस्य पञ्च मासान् यावत्पञ्चमी प्रतिमा भवतीति उक्तं च ___ अट्ठमी चउद्दसीसु पडिमं ठाएगराइयं [ पश्चाद्ध ] असिणाणवियड भोई मउलियडो दिवसबंभयारी य रत्तिं परिमाणकडो पडिभावजेसु दियहेसु ॥१॥ त्ति
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३७४
तीर्थंकर महावीर पूरी होने तक कामत्सर्ग में रहना। यह प्रतिमा पाँच मास कालमान की होती है।
६--अब्रह्मवर्जनप्रतिमा-पूर्वोक्त पाँच प्रतिमाओं के पालन के साथसाथ ६ मास तक ब्रह्मचर्य का पालन करना । इसका काल ६ मास का है ।
७-सचित्तवर्जनप्रतिमा-पूर्वोक्त ६ प्रतिमाओं के पालन के साथसाथ सात महीने तक सचित्त आहार का त्याग करना ।
८-आरम्भवर्जनप्रतिमा-पूर्वोक्त ७ प्रतिमाओं के पालन के साथसाथ आठ महीने तक ( केवल अन्य कार्यों में नहीं, किंतु आहार में भीअर्थात् समस्त कार्यों में) अपनी जात से आरम्भ करने का त्याग करना ।
९-प्रेष्यवर्जनप्रतिमा-आठों प्रतिमाओं के पालन के साथ-साथ ९ मास तक नौकर आदि से आरम्भ न कराना ।
१०--उद्दिष्ठवर्जन-९ प्रतिमाओं के साथ-साथ १० मास तक अन्य प्रतिमाधारी के उदेशी के बिना प्रेरणा के तैयार किया आहार न लेना ।
११-श्रमणभूतप्रतिमा-पूर्वोक्त १० प्रतिमाओं के पालन के साथसाथ ११ महीने तक स्वजनादि के सम्बंध को तज कर, रजोहरण आदि साधुवेश को धारण करके और केश का लोच करके गोकुल आदि स्थानों में रहना ।
'प्रतिपालकाय श्रमणोपासकाय भिक्षां दत्त' कहने पर भिक्षा देने वाले को 'धर्मलाभ' रूपी आशीर्वाद दिये बिना आहार न लेना और साधु-सरीखा सम्यक् आचार पालना ।
अतिचार जैन-शास्त्रों में जहाँ श्रावक के धर्म बताये गये हैं, वहाँ अतिचारों का भी उल्लेख है। अतिचार शब्द की टीका करते हुए व्यवहारसूत्र के टीकाकार ने लिखा है:
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श्रावक-धर्म
३७ (अ) ग्रहणतो व्रतस्यातिक्रमणे
(आ) मिथ्यात्वमोहनीयोदय विशेषादात्मनोऽशुभाः परिणाम विशेषा
जैन-शास्त्रों में श्रावक-व्रतों के अतिचारों की संख्या १२४ बतायी गयी है। प्रवचनसारोद्धार में उनकी गणना इस प्रकार गिनायी गयी है:
पण संलेहण पन्नरस कम्म नाणाइ अट्ठ पत्तेयं । बारस तव विरियतिगं पण सम्म वयाई पत्तेयं ॥ इसे स्पष्ट करते हुए प्रकरण-रत्नाकर में लिखा है :
संलेषणा के ५ अतिचार, कादान के १५ अतिचार, ज्ञान के ८ अतिचार, दर्शन के ८ अतिचार, चरित्र के ८ अतिचार, तप के १२ अतिचार, वीर्य के ३ अतिचार, सम्यक्त्व के ५ अतिचार तथा द्वादश व्रतों में प्रत्येक के ५ अर्थात् कुल ६० अतिचार होते हैं। इस प्रकार सब मिलकर १२४ अतिचार हुए
हमने अभी श्रावकों के १२ व्रतों का उल्लेख किया है। अतः हम पहले उनके ही अतिचारों का उल्लेख करेंगे।
१ प्रथम व्रत स्थूलप्राणातिपातविरमण के ५ अतिचार हैं। पंढम वये अइचारा नरतिरिवाणऽन्नपाणवोच्छेनो। बंधो वहो य अइभाररोवण तह छविच्छेनो॥ १-(अ) व्यवहार सूत्र, उ०१ ।
(आ) अभिधान राजेन्द्र, भाग १, पृष्ठ ८ । २--उवासगदसाओ सटीक, पत्र ६.२ । ३-प्रवचनसारोद्धार सटीक, भाग १, द्वार ५, गाथा २६३ पत्र ६१-१ । ४-प्रकरण-रत्नाकर, भाग ३, पृष्ठ ५८ ।
५-प्रवचनसारोद्धार, पूर्व सटीक भाग, गाथा २७४, पत्र ७०-२ । उवा सगदसायो में भी स्थूलप्रणतिपातविरमण के ५ अतिचार बताये गये हैं:बन्धे, वहे, छविच्छेए, अइभारे, भत्तपाणवोच्छए
-उवासगदसायो ( वैद्य-सम्पादित ) पृष्ठ १२
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३७६
तीर्थकर-महावीर (१) वध-साधारण दृष्टि से वध का अर्थ हत्या करना होता है । पर, यहाँ वध से तात्पर्य लकड़ी आदि से पीटना मात्र है । यह शब्द उत्तराध्ययन में भी आता है। वहाँ उसकी टीका इस प्रकार दी है :
अ-लता लकुटोदितडनैः'
यह शब्द सूत्रकृतांग में भी आया है और वहाँ भी टीकाकार ने इसकी टीका में 'लकुटादि प्रहार लिखा है । प्रवचनसारोद्धार में जहाँ अतिचारों के सम्बन्ध में 'वध' शब्द आया है, वहाँ उसकी टीका करते हुए टीकाकार ने लिखा हैः
लकुटादिना हननं, कषायादेव वध इत्यन्ते ।
कषाय के वश होकर लकुटादि से मारना—उसका जो प्रतिफल हुआ, उसे 'वध' कहते हैं।
संस्कृत साहित्य में भी 'वध' का एक अर्थ 'आप्टेज-संस्कृत इंगलिशडिक्शनरी' (भाग २, पृष्ठ १३८५) में 'लो' तथा 'स्ट्रोक' लिखा है तथा उसे स्पष्ट करने के लिए उदाहरण में महाभारत का एक श्लोक दिया है। पुनरज्ञातचर्यायां कोचकेन पदावधम् ।
__-~महाभारत १२, १६, २१
१-उत्तराध्ययन शान्त्या चार्य की टीका सहित, अ०१, गा० १६ पत्र.५३११ ऐसी ही टीका नेमिचन्द्राचार्य जीने ( उत्तराध्ययन सटीक, पत्र ७.१) तथा भावविजय उपाध्याय ने ( उत्तराध्ययन सटीक पत्र ३-२) में भी की है। प्रश्नव्याकरण सटीक पत्र ६६-१ में अभयदेव सूरि ने 'वध' का अर्थ 'ताड़नम्' लिखा है।
२-सूत्रकृतांग सटीक भाग १ ( गौड़ी जी, बम्बई ) ५, २, १४ पत्र १३८-१ ३-प्रवचनसारोद्धार सटीक, भाग १, पत्र ७१-१
४--कषाय चार हैं:-चत्तारि कसाया पं० तं० कोहकसाए, माणकसाए माया कसाए लोभकसाए...
ठणांग सूत्र सटीक ठाणा ४, उ० १, सूत्र २४६, पत्र १६३१
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श्रावक-धर्म
३७७
इस ग्रंथ में इस अर्थ के प्रमाण में मनुस्मृति का भी उल्लेख है । २. बंध - क्रोध के वश मनुष्य अथवा पशु को विनय ग्रहण कराने के लिए रस्सी आदि से बाँधना |
३. छविच्छेद - पशु आदि के अंग अथवा उपांग विच्छेद करना, बैल आदि के नाक छेदना अथवा बधिया करना, ( 'छवि' अर्थात् शरीर, ' च्छेद' अर्थात् काटना )
१- रज्ज्वादिनां गोमनुष्यादिनां नियन्त्रणं स्वपुत्रादीनामपि विनय ग्रहणार्थं क्रियते ततः कोधादिवरातः इत्यत्रापि सम्बन्धनीयं -
प्रवचनसारोद्धार सटीक, भाग १, पत्र ७१-१ २-त्वक तद्योगाच्छरीरमपि वा छविः तस्याश्छेदो—द्वैधी करणं... क्रोधादिवशत इत्यत्रापि दृश्यं
- प्र०सा०सटीक, भाग १, पत्र ७१-२
३ - कर्मग्रंथ सटीक ( चतुर विजय सम्पादित ) भाग १, पृष्ठ ४६ गाथा ३३ में अंगों के नाम इस प्रकार दिये हैं:
बाहूरु पिट्ठी सिर उर उयरंग उवंग अंगुलीयमुहा...
उसकी टीका में लिखा है
'बाहू' भुजद्वयम्, ‘ऊरू' उरुद्वमम् 'पिट्ठी' प्रतीता 'शिरः' मस्तकम् 'उर: ' वक्षः, 'उदर' पोट्टमित्यष्टावङ्गान्युच्यन्ते...
-
और, निशीथ समाप्य चूर्णि भाग २, पृष्ठ २६, गाथा ५६४ में शरीर के उपांग गिनाये गये हैं:
होंति उगा करणा णासऽच्छी जंघ हत्थपाया य ।
उसकी टीका में लिखा है:
कण्णा, गासिगा, अच्छी, जंघा, हत्था, पादा य एवमादि सव्वे उगा भवंति ।
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३७८
तीर्थंकर महावीर
४. अतिभारारोपण' चैल मनुष्य आदि पर आवश्यकता से अधिक
भार लादना
५. भात पानी का व्यवच्छेद करना - आश्रित मनुष्य अथवा पशु आदि को भोजन - पानी न देना |
२- दूसरे अणुव्रत स्थूलमृषावादविरमण के निम्नलिखित ५ अतिचार हैं:
3
सहसा कलंक १ रहसदूसणं २ दारमंत भेयं च ३ । तह कूडलेहकरणं ४ मुसोवरसो५ मुसे दोसा ॥ २७५ ॥ ( १ ) सहसा कलंक लगाना - इसके लिए उवासगदसाओ तथा वदेत्ता अर्थात् सहसा बिना विचार किये अमुक चोर है, अमुक व्यभिचारी
૪
सूत्र में सहसाभ्याख्यान लिखा है । किसी को दोष वाला कहना जैसे कि है आदि ।
-
१ – प्रतिमात्रस्य वोढुमशक्यस्य भारस्यारोपणं गोकरभरासभ मनुव्यादीनां स्कंधे पृष्ठे शिरसि वा वहनाया धिरोपणं इहापिक्रोधाल्लोभाद्वा यदधिकभारारोवणं सोऽतीचारः
- प्रवचनसारोद्धार, भाग १, पत्र ७१ - १ २- भोजनपानयोर्निषेधो द्विपद चतुष्पादानां क्रियमाणोऽतीचारः प्रथम
व्रतस्य
- प्रवचनसारोद्धार सटीक, भाग १, पत्र ७१ - १
३- प्रवचनसारोद्धार भाग १ पत्र ७०-२ । उवासगदाओ ( डा० पी० एल० वैद्य-सम्पादित, पृष्ठ १० ) में मृषावाद के अतिचार इस रूप में दिये हैं:
-
सहसाभक्खाणे, रहसाभक्खाणे, सदारमन्तभेए, मोसोवएसे, कूडलेहकरणे ।
३ - अनालोच्य कलङ्कनं - कलङ्कस्य करणमभ्याख्यानमस दोषस्यारोपणमित्तियावत् चौरस्त्वं पारदारिकस्त्वमित्यादि ।
-प्रवचनसारोद्धार सटीक, भाग १, पत्र ७२ - १
४ - वंदेतासूत्र, गाथा १३ ।
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श्रावक-धर्म
३७६.
२ ) सहसा रहसाभ्याख्यानं - एकान्त में कहीं कोई दो मनुष्य छिप कर सलाह कर रहे हों, तो उनके संकेत मात्र देखकर ऐसा कहना कि वे राज्यद्रोह का विचार कर रहे हैं या स्वामिद्रोह कर रहे हैं । चुगली आदि करना यह सब इस अतिचार में आता है ।
( ३ ) सदारमंत्रभेद - अपनी पत्नी ने विश्वास करके यदि कोई मर्द की बात कही हो, तो उसे प्रकट कर देना भी एक अतिचार है ।
(४) मृषा उपदेश -- दो का झगड़ा सुने तो एक को बुरी शिक्षा. देना, तथा बढ़ावा देना । अथवा मंत्र औषधि आदि सिद्ध करने के लिए कहना अथवा ज्योतिष, वैद्यक, कोकशास्त्र आदि पाप शास्त्र सिखाना | (५) कूटलेखन --- दूसरे के लिखावट की नकल करके झूठा दस्तावेज आदि बनाना ।
સ
३- तीसरे अणुव्रत अदत्तादान विरमण के ५ अतिचार हैं । प्रवचन-सारोद्धार में वे इस प्रकार गिनाये गये हैं :--
१ - रह : -- एकान्तस्तत्र भवं रहस्यं - राजादि कार्य सम्बद्धं यदन्यस्मै न कथ्यते तस्य दूषणं - अनधिकृतेनैवाकारेङ्गितादिभिर्ज्ञात्वा अन्यस्मै प्रकाशनं रहस्य दूषणं..." - प्रवचनसारोद्धार सटीक, भाग १, पत्र ७२ - १ २-- - दाराणां - कलत्राणामुपलक्षणत्वान्मित्रादीनां च मन्त्रो—मन्त्रणंतस्य भेदः - प्रकाशनं दारमंत्र भेद...
- प्रवचनसारोद्धार सटीक, भाग १, पत्र ७२-२ ३ - मृषा — अलीकं तस्योपदेशी मृषोपदेशः, इदं च 'एवं च एवं च ब्रूहि त्वं एवं च एवं च अभिदध्या कुलगृहेष्वि' त्यादिकमसत्याभिधानशिक्षा प्रदानमित्यर्थः ।
- प्रवचनसारोद्धार सटीक, भाग १, पत्र ७२-२
१ -असद्भूतस्य लेखो — लेखनं कूटलेखस्तस्य करणं.
- प्रवचन सारोद्धार सटीक, माग १, पत्र ७२-२ :
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३८०
तीर्थंकर महावीर चोराणीय १ चोरपयोगंज २ कूडमाणतुलकरणं ३ । रिउरज्जव्वहारो ४ सरिसजुइ ५ तइयवयदोसा ॥२७६॥'
(१) चोराणीय-चोर का माल लेना । श्रीश्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र की वृत्ति में आता है
चौरश्चौरायको मंत्री, भेदज्ञः काणककयो।
अन्नदः स्थानदश्चेति चौरः सप्तविधः स्मृतः ॥
चोर, चोरी करनेवाला, चोर को सलाह देनेवाला, चोर का भेद "जानने वाला, चोरी का माल लेने और बेचने वाला, चोर को अन्न और स्थान देने वाले ये सात प्रकार के चोर हैं।
प्रश्नव्याकरण सटीक में १८ प्रकार के चोरों का वर्णन किया गया है।
१-प्रवचनसारोद्धार, भाग १, पत्र ७०-२ उवासगदसाओ में उनका इस प्रकार उल्लेख है :
तेणाहडे, तक्करप्पनोगे, विरुद्धरज्जाइकम्मे, कूडतुल्लकूडमाणे, तप्पडि रूवगववहारे
-उवासगदसाओ, वैद्य-सम्पादित, पृष्ठ १. २-श्रीश्राद्ध प्रतिक्रमणसूत्रम् अपरनाम अर्थदीपिका पत्र ७१।१।। ३- उत्तराध्ययन अध्ययन ६ गाथा २८ में ४ प्रकार के चोर बताये गये हैं :
श्रमोसे लोमहारे न गंठिभोए अतकरे" इसकी टीका करते हुए भावविजय ने लिखा है :(अ) प्रासमन्तात् मुष्णन्तीत्यामोषाश्चौरास्तान्
(आ) लोमहारा ये निर्दयतया स्वविधात शङ्कया च जन्तून हत्वैव सर्वस्वं हरन्ति तांश्च
(इ) ग्रंथिभेदा ये घुघुरककर्तिकादिना ग्रंथिं भिन्दन्ति तांश्च (ई) तथा तस्करान् सर्वक्ष चौर्यकारिणो दि......
पत्र २२४-१
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श्रावक-धर्म
३८१
भलनं १ कुशलं २ तर्जा ३, राजभागो ४ ऽवलोकनम् ५। अमार्गदर्शनं ६, शय्या ७, पदभङ्ग ८ स्तथैव च ॥१॥ विश्रामः ६ पादपतनं १० वासनं ११ गोपनं १२ तथा । खण्डस्य खादनं १३ चैव तथाऽन्यमाहराजिकम् ॥२॥ पद्या १५ ग्नु १६ दक १७ रज्जूनां १८ प्रदानं ज्ञानपूर्वकं । एताः प्रसूतयो शेया अष्टादश मनीषिभिः ॥३॥'
१-तुम डरो नहीं, मैं साथ मैं हूँ, ऐसा उत्साह दिलाने वाला भलज हैं।
२-क्षेमकुशलता पूछने वाला कुशल है । ३-उंगली आदि की संज्ञा से जोसमझावे वह तर्जा है । ४—राज्य का कर-भाग छिपाये वह राजभाग है। ५-चोरी किस प्रकार हो रही है, उसे देखे वह अवलोकन है।
६-चोर का मार्ग यदि कोई पूछे और उसे बहका दे तो वह श्रमार्ग दर्शन है।
७-चोर को सोने का साधन दे तो वह शय्या है। ८-चोर के पदचिह्न को मिटा देना पदभंग है। ९–विश्राम-स्थल दे वह विश्राम है।
१०—महत्त्व की अभिवृद्धि करने वाला प्रणाम आदि करे तो वह पादपतन है।
११-आसन दे तो वह श्रासन है। १२—चोर को छिपाये तो वह गोपन है । १३-अच्छा-अच्छा भोजन पानी दो खण्डदान है।
१--प्रश्न व्याकरणम् सटीक पत्र ५८-२ । ऐसा ही उल्लेख श्रीश्राद्धप्रतिक्रमण सूत्र ( अपरनाम अर्थदीपिका ) पत्र ७२-१ में भी है।
देखिए श्राद्धप्रतिक्रम वंदिणत्रुसूत्र ( बड़ौदा ) पृष्ठ १६५ ।
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३८२
तीर्थंकर महावीर
१४ - ( देश - विशेष में प्रसिद्ध ) महाराजिक १५—पाँव में लगाने के लिए तेल दे तो वह पद्म है । १६ – भोजन बनाने को आग दे वह अग्नि है । १७ – चोर को पानी दे वह उदक है ।
१८ – चोर को डोर दे वह रज्जू है ।
(२) चोरी के लिए प्रेरणा करना भी एक अतिचार है
(३) तप्पाडरूवे - प्रतिरूप सदृश वस्तु मिलाना जैसे धान्य, तेल, केसर आदि में मिलावट करना । चोर आदि से वस्तु लेकर उसका रूप बदल देना भी इस अतिचार के अन्तर्गत आता है ।
(४) विरुद्ध रज्जाइकम्म-विरुद्ध राज्य में राजा की आज्ञा के बिना गमन करना |
(५) कूट- तुल- कूट- मान-माप-तौल गलत रखना ।
चौथे अणुव्रत के ५ अतिचार प्रवचनसारोद्धार में इस रूप में बताये गये हैं :
भुंजइ इतर परिग्गह १ मपरिग्गहियं थियं २ चउत्थवए । कामे तिव्वहिलासो ३ अरांगकीला ४ परविवाहो ॥ २७७॥ '
१. अपरि- गृहीतागमन - अतिचार – जो अपनी पत्नी न हो चाहे वह कन्या हो अथवा विधवा उससे भोग करना अपरिगृहीता अतिचार है ।
१ - प्रवचनसारोवार सटीक प्रथम भाग पत्र ७० - २ | ऐसा ही वर्णन उपासक दशांग में मी है :
...इत्तरियपरिग्गहियागमणे, अपरिग्गहियागमणे |
अणङ्गकीडा, परविवाह करणे, कामभोगा तिब्बाभिलासे ॥
- वासगदसा
(वैद्य-सम्पादित ) पृष्ठ १०
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श्रावक-धर्म
३८३
२. इत्वरोगमन अतिचार- - अल्पकाल के लिए भाड़े आदि पर किसी स्त्री की व्यवस्था करके भोग करना इत्वरीगमन अतिचार है ।
३ अनंगक्रीड़ा अतिचार - काम की प्रधानता वाली क्रीड़ा । इसकी टीका करते हुए श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र की टीका में आचार्य रत्नशेखर सूरि ने लिखा है :--
अधर दशन कुचमर्दन चुम्बनालिंगनाद्याः परदारेषु कुर्वतोऽनङ्गक्रीड़ा । अधर, दाँत, कुचमर्दन, चुम्बन, आलिंगन आदि परस्त्री के साथ करना अनंग क्रीड़ा है ।
श्रावक के लिए तो परस्त्री को देखना भी निषिद्ध है । पंचाशक में आता है :
छन्नंगदंसणे फासणे
गोमुत्तगद्दण कुसुमिरणे । जया सक्थ करे, इ दिन अवलोअ अ तहा ॥ १ ॥ परस्त्री के सम्बंध में श्रावक को ९ बात पालन करनी चाहिए :वसहि १ कह २ निसिज्जिं ३ दिअ ४ कुड्डु तर ५ पुव्वकीलिअ ६ पणीए ७ । अइमायाहार ८ विभूसणा ९ नव बंभगुत्तीओ ॥
१ स्त्री की वसति में नहीं रहना चाहिए
१ - श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र सटीक, पत्र ८३-१,
यहाँ जो 'आदि' शब्द है उसका अच्छा स्पष्टीकरण कल्पसूत्र की संदेहविषौषधि टीका से हो जाता है :
आलिंगन १. चुंबन २, नखच्छेद ३, दशनच्छेद ४, संवेशन ५; सीत्कृत ६, पुरुषायित ७, परिष्ट ८ कानाम् श्रष्ट
-पत्र १२५ प्रवचनसारोद्धार की टीका में ( भाग १, पत्र ७४- १ ) इसका विस्तार से विवेचन हैं ।
२ - श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र सटीक, पत्र ८३ - २
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तीर्थकर महावीर
२ स्त्री-कथा' नहीं कहनी चाहिए ३ परस्त्री के आसन पर नहीं बैठना चाहिए ४ स्त्री की इन्द्रियाँ नहीं देखनी चाहिए
५ ऐसी जगह सोना चाहिए, जहाँ से परस्त्री की आवाज दीवाल पार करके न सुनायी दे।
६ परस्त्री के साथ यदि पहले क्रीड़ा की हो तो उसे स्मरण नहीं करना चाहिए।
७ कामवृद्धि वाला पदार्थ न खाना चाहिए । ८ अधिक आहार न खाना चाहिए । ९ परस्त्री में मोह उपजे ऐसा शृंगार नहीं करना चाहिए । ४ परविवाहकरण अतिचार-दूसरे के पुत्र-पुत्री का विवाह कराना
५ कामभोगतीव्रानुराग अतिचार--काम-विषयों में विशेष आसक्ति कामभोगतीव्रानुराग अतिचार है। अन्य कार्यों की ओर ध्यान कम करके कामभोग सम्बन्धी बातों पर अधिक अनुराग रखना।
५-वें अणुव्रत स्थूल परिग्रह विरमण के ५ अतिचार हैं। प्रवचनसारोद्धार में उनके नाम इस प्रकार दिये हैं :
१-स्थानांग सूत्र में ४ विकथाएँ बतायी गयी हैं। उसमें १ स्त्रीकथा भी है। स्त्रीकथा ४ प्रकार की बतायी गयी है -१ स्त्री की जाति-सम्बंधी कथा, २ स्त्री के कुल की कथा, ३ स्त्री के रूप की कथा, ४ स्त्री के वेप की कथा, उक्त टीका में स्त्री कथा में दोष बताते हुए लिखा है :
अायपरमोहुदीरणं उड्डाहो सुत्तमाइपरिहाणी। बंभवयस्स अगुत्ती पसंगदोसा य गमणादी ॥
-ठाणांगसूत्र सटीक, पूर्वार्ध, पत्र २१०-२
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३८५
श्रावक-धर्म जोएइ खेत्तवत्थूणि १ रुप्प कणयाइ देइ सयणाणं २ । धणधन्नाइपरघरे बंधह जा नियम पज्जंतो।'
१. धनधान्य परिमाण अतिक्रम अतिचार-इच्छा-परिमाण से अधिक धनधान्य की कामना और व्यवहार धनधान्य परिमाण अतिक्रम अतिचार है। इनमें से धान्य को हम पहले लेते हैं। भगवतीसूत्र में निम्नलिखित धान्यों के नाम आये हैं:--
१. शाली, २ व्रीहि, ३ गोधूम, ४ यव ५ यवयव, ६ कलाय, ७ मसूर, ८ तिल, ९ मुग्ग, १० माघ, ११ निफाव (वल्ल), १२ कुलत्थ, १३ आलिसंदग, (एक प्रकार का चवला), १४ सतीण ( अरहर ) १५ पलिमंथग ( गोल चना), १६ अलसी, १७ कुसुंभ, १८ कोद्रव, १९ कंगु, २० वरग २१ रालग (कंगु विशेष ), २२ कोदूसग ( कोदो विशेष), २३ शण २४ सरिसव, २५ मूलगबीय (मूलक बीजानि)
दशवैकालिक की नियुक्ति में निम्नलिखित २४ धान्य गिनाये गये हैं:
धन्नाइ चउव्वीसं जव १ गोहुम २ सालि ३ वीहि ४ सट्टी आ। कोद्दव ६, अणुया ७, कंगु ८, सलग ६, तिल १०, मुग्ग ११, मासा १२ य॥ अयसि १३ हरिमन्थ १४ तिउडग १५ निप्फाव १६ सिलिंद १७ रायमासा १८ ।
१--प्रवचनसारोद्धार पूर्वाद्ध, पत्र ७०-२। ऐसा ही उल्लेख उवासवादसानो में भी है :
खेत्तपत्थुपमाणाइकम्मे, हिरण्णसुवएणपमाणाइकम्मे, दुपयचउपायपमाणाइ कम्मे, धणधन्तपमाणाइ कम्मे कुवियपभाणाइकम्मे ।
-( उवासवादसाओ, वैद्य-सम्पादित पृष्ठ १०) २-भगवतीसूत्र, शतक ६, उद्देसा ७, पत्र ४६८-४६६ । देखिए तीर्थकर महावीर, भाग २, पृष्ठ ३३-३५ ।
२५
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तीर्थंकर महावीर इक्खू १६, मसूर २०, तुवरी २१, कुलत्थ २२ तह २३ धन्नगकलाया। .. यही गाथा श्राद्ध प्रतिक्रमणसूत्र की टीका में भी ज्यों-की-त्यों दी हुई है।
वृहत्कल्पभाष्य में धान्यों की संख्या १७ बतायी गयी है । और । उसकी टीका में टीकाकर ने उन्हें इस प्रकार गिनाया है :
बीहिर्यवो मसूरो, गोधूमो मुद्ग-माष तिल चणकाः । प्रणवः प्रियङगु कोद्रवमकुप्टकाः शालि राढक्यः । किञ्च कलाय कुलत्थौ शणसप्तदशानि बीजानि।' प्रवचनसारोद्धार की टीका में भी यही गाथा ज्यो, की त्यों, दी हुई हैं। प्रज्ञापनासूत्र सटीक में धान्यों की गणना इस प्रकार दी है :
साली वीही गोहुम जवजवा कलम मसूर तिल मुग्ग मास णिप्फाव कुलत्थ पालिसंदसतीण पलिमंथा अयसी कुसुम्भ कोदव कंगूरालगमास कोहसा सणसरिसव मूलिगबीया"
गाथासहस्री में निम्नलिखित धान्यों के नाम गिनाये गये हैं:१ गोहुम, २ साली, ३ जवजव, ४ जवाइ, ५ तिल, ६ मुम्ग, ७ मसूर, ८ कलाय, ९ मास, १० चवलग, ११ कुलत्थ, १२ तुवरी, १३ वट्टचणर्ग,
१-दशवकालिकमूत्र हरिभद्र की टीका सहित (देवचंद-लालभाई) पत्र १६३-१ २-श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र सटीक, पत्र ६६-२। ३-... सणसतरसा बिया भवे धन्नं ......
उ० १, गाथा ८२८, भाग २, पृष्ठ २६४ । ४-वृहत्कल्प भाप्य टीका सहित, भाग २, पष्ठ २६४ । ५-प्रवचनसारोद्धार सटीक पूर्वार्ध पत्र ७५-१ । ६-पत्र ३३-१। ७-कलाय-त्रिपुटाख्य थान्य विशेषः-गाथासहस्री, पृष्ठ १६ । ८-वडचणकाः-शिखारहिता वृत्तकाराश्चरणकविशेषाः-वही, पृष्ठ १६ ।
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श्रावक-धर्म
३८७ १४ वल्ला, १५ अइसी, १६ लट्टा', १७ कंगू', १८ कोडीसग, १९, सण २० वरट्ट, २१ सिद्धत्थ, २२ कुद्दव, २३ रालग, २४ मूलबीयग।
संसक्तनियुक्ति में धान्यादि के वर्णन में उल्लेख है । कुसाणाणि अचउसट्ठी कूरे जाणाहि एगतीसं च । नव चेव पाणायाइतीसं पुण खज्जया हुँति ।।
-अर्थात् कुसिण (धान्य ) ६४ प्रकार के, कर ( चावल ) ३१ प्रकार के, पान ९ प्रकार के और खाद्य ३० प्रकार के बताये गये हैं ।
धन-जैन-शास्त्रों में धन ४ प्रकार के कहे गये हैं गणिम १ धरिम २ मेय ३ परिच्छेद्य ४ ।।
(१) गणिम-जिसका लेन-देन गिनकर हो। अणुयोगद्वार की टीका में आता है।
१-लट्टा-कुसुम्भपीत-वही, पृष्ठ १६ । २-कंग-तन्दुलाः कोद्रव विशेषः-वही, पृष्ठ १६ । ३--शणं त्वप्रधानं-वही, पृष्ठ १६ । ४-बरदृत्ति बरटी इति प्रसिद्धं-वही, पृष्ठ १६ । ५-वही, पृष्ठ १६ । ६-श्राद्धप्रतिक्रमण सूत्र सटीक पत्र १००-२ ।
७-श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र सटीक, पत्र १००-२। प्रवचनसारोद्धार सटीक पूर्वार्धं पत्र ७५-१ तथा कल्पसूत्र सुबोधिका टीका सहित पत्र २०२ में इस सम्बन्ध में एक गाथा दी गयी है:
गणिम जाईफलफोफलाई धरिमं तु कुंकुम गुडाई ।
मेयं चोप्पडलोणाइ रयण बत्थाइ परिच्छेज्जं ॥ ये चार नाम नायाधम्मकता में भी आये है "गणिमं, धारिमं च, मेज्जं च, परिच्छेज्जं च"
-झाताधर्मकथा सटीक, अ०८, पत्र १३६-१
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३८८
तीर्थकर महावीर गण्यते-सङ्खयाते यत्तदगणिमं'
(२) धरिम-जिसका व्यवहार तौल कर होता है, उसे परिम कहते हैं।
यत्तुलाधृतंसद्यह्रियते'
(३) मेय-माप कर जिसका व्यवहार हो वह मेय है। ज्ञाता धर्मकथा की टीका में इसके लिए कहा गया है
"यत्सेतिकापल्यादिनामीयते"
(४) परिच्छेदद्य-छेदकर जिसकी परीक्षा की जाती हो, उसे परिच्छेद्य कहते हैं
यद् गुणतः परिच्छेद्यते-परीक्ष्यते वस्त्रमण्यादि दशवैकालिकनियुक्ति में २४ रत्न बताये गये हैं:रयणाणि चउबीसं सुवण्णतउतंब रययलोहाई। सीसगहिरण्ण पासाण वइर मणि मोति अपवालं ।। २५४ ।। संखो तिणि सा गुरु चंदणणि वत्थामिलाणि कट्ठाणि । तह चम्मदंतवाला गंधा दवोसहारं च ॥ २५५ ॥ कल्पसूत्र सूत्र २६ में निम्नलिखित १५ रत्न गिनाये गये हैं:
रयणाणं वयराणं १, वेरुलियाणं २, लोहिअक्खाणं ३ मसारगल्लाणं ४, हंसगब्भाणं ५, पलयाणं ६, सोगंधिाणं ७, जोई
१-अनुयोगद्वारा सटोक पत्र १५५-२। ज्ञाताधर्मकथा की टीका में आता है "गणिम-नालिकेर पूगीफलादि यद्गणितं सत् व्यवहारे प्रविशति' ( पत्र १४२-२ ) २-ज्ञाताधर्मकया सटीक पूर्वार्द्ध, पत्र १४२-२ ३-पत्र १४३-१ ४-ज्ञाताधर्मकथा सटीक, पूर्वाद्ध पत्र १४३-१ ५-दशवैकालिकसूत्र, हरिभद्र की टीका सहित, अ०६, उ० २, १६३-१
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श्रावक-धर्म
३८६ रसाणं ८, अंजणाणं ६, अंजणपुलयाणं १०, जायरुवाणं ११ सुभगाणं १२ अंकाणं १३, फलिहाणं १४, रिट्ठाणं १५ तथा __इसकी टीका में उनके नाम इस प्रकार गिनाये गये हैं
हीरकाणं १, वैडूर्याणं २, लोहिताक्षाणं ३, मसारगल्लानां ४, हंसगर्भाणं ५, पुलकानां ६ सौगन्धिकानां ७, ज्योतीरसानां ८, अञ्जानानां ६, अंजनपुलकानां १०, जातरूपाणां ११, सुभगानां १२, अंकानां १३, स्फटिकानां १४, रिष्टानां १५,।
२ क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रम-अतिचार-इच्छा परिणाम से अधिक क्षेत्र-वस्तु का उपयोग क्षेत्रवस्तुप्रमाणातिक्रम-अतिचार है।
जैन-शास्त्रों में क्षेत्र की परिभाषा बताते हुए कहा गया है:सस्योत्पत्तिभूमिस्तच्च सेतु केतुतदुभयात्मक त्रिधा...' जिस भूमि में धान्य उत्पादित हो उसे क्षेत्र कहते हैं। उसके तीन प्रकार हैं सेतु-क्षेत्र, केतु-क्षेत्र और उभय-क्षेत्र । सेतु-क्षेत्र की परिभाषा इस प्रकार बतायी गयी है:
तत्रारघट्टादिजल निष्पाद्य सस्यं सेतु-क्षेत्र जिस भूमि में अरघट्ट आदि से सिंचाई करके अन्नोत्पादन किया जावे वह सेतु-क्षेत्र है।
और, "जलदनिष्पाद्यसस्यं केतुक्षेत्रं" मेघ-वृष्टि से जिसमें अन्न उपजे, वह केतु -क्षेत्र है।
१-श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र सटीक, पत्र १००-२ । प्रवचनसारोद्धार सटीक पूर्वाद्ध पत्र ७४-२ मे भी ऐसा ही उल्लेख है :
सेतु केतूभय भेदात् ___ दशवैकालिकनियुक्ति ( दशवैका लिक हरिभद्र टीका सहित ) पत्र १६३-२ में भी इसी प्रकार उल्लेख है।
२-श्राद्धप्रतिक्रमगसूत्र सटीक, पत्र १००२। प्रवचनसारोद्धार सटीक पूर्वाद्ध ७४.२ में भी ऐसा ही उल्लेख है।
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तीर्थंकर महावीर
जिसमें दोनों प्रकार के जल से सस्योत्पादन हो, वह उभय-क्षेत्र है ।
उभय जलनिष्पाद्य सस्यमुभय क्षेत्र'
वास्तुः - 'गृह- ग्रामादि' । गृह तीन प्रकार के हैं । खात १ मुच्छ्रितं २ खातोच्छ्रितं ३ |
३६०
3
खात : - 'भूमि गृहादि" ( भूमि-गृह आदि ) ।
मुच्छ्रित- 'प्रासादि* ।
खातोति - भूमि गृहस्योपरि गृहादि ।
३- रूप्य सुवर्णप्रमाणातिक्रम श्रतिचारः - रूप्प सुवर्ण के जो नियम निर्धारित करे, उसका उलंघन रूप्यसुवर्णप्रमाणातिक्रम अतिचार है ।
४ – कुप्य प्रमाणितक्रम अतिचारः - स्वर्ण-रूप्य के अतिरिक्त कांसा, लोहा, तांबा आदि समस्त अजीव परिणाम से अधिक कामना करना । श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र में इस सम्बंध में उल्लेख हैं:
रूप्य सुवर्ण व्यतिरिक्तं कांस्यलोहताम्रत्र पित्तल सीसक
१ - श्राद्धप्रतिव्र मणसूत्र सटीक पत्र १०० २, प्रवचनसारोद्धार सटीक पूर्वाद पत्र ७४ - २ में भी ऐसा ही उल्लेख है ।
पत्र १०० - २ ।
२- श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र सटीक, प्रवचनसारोद्धार सटीक पूर्वार्ध पत्र ७४ - २ में भी ३ प्रकार के गृह बताये गये हैं । दशवैकालिकनियुक्ति. ( हरिभद्र की टीका सहित, पत्र १९३ - २) में भी ऐसा ही उल्लेख है ।
३ - श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र सटीक पत्र १००-२ | प्रवचनसारोधार सटीक पूर्वार्ध पत्र ७४- २ में भी ऐसा ही उल्लेख है ।
४-- - श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र सटीक पत्र १०० - २ । प्रवचनसारोद्धार सटीक पूर्वार्ध पत्र ७४- २ में भी ऐसा ही उल्लेख है ।
५ - श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र पत्र १०० - २ | ऐसा ही उल्लेख प्रवचनसारोद्धार पटीक पूर्वार्ध पत्र ७४ - २ में भी है।
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श्रावक-धर्म
३६१
मृद्भाण्डवंश काष्ठ हल शकटशस्त्र मञ्चक मचिका मसूरकादि गृहोपस्कररूपं ।'
५- द्विपद- चतुष्पद-प्रमाणातिक्रमण- श्रतिचारः- नियत परिमाण से अधिक द्विपद- चतुष्पद की कामना करना ।
श्राद्धप्रतिक्रमण सूत्र में द्विपदों के नाम इस प्रकार दिये गये हैं:द्विपदं - पत्नी कर्मकर कर्मकरी प्रभृत हंसमयूरकुर्कुट शुक सारिका चकोर पारापत प्रभृति ।
प्रवचनसारोद्धार में द्विपद इस प्रकार गिनाये गये हैं:
कलत्रावरुद्धदासी दास कर्मकर पदात्पादीनि । हंसमयूर कुक्कुट शुक सारिका चकोर पारापत प्रभृतीनिच चतुष्पदं श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र की टीका में चतुष्पदों के नाम इस प्रकार गिनाये गये है:
गोमहिष्यादि दशविधमनन्तरोक्तं * |
प्रवचनसारोद्धार की टीका में उनके नाम इस प्रकार दिये हैं:गो महिष मेष विक करभ रासभ तुरंग हस्त्यादीनि । दशवैकालिकनियुक्ति में पूरे १० नाम गिना दिये गये हैं:--
गावी १ महिसी २ उट्ठा ३ श्रय ४ एलग ५ ग्रास ६ ग्रासतरगा ७ । घोडग ८ गद्दह । हत्थी १० चउप्पयं होइ दसहा उ || २५० ॥
ε
१- पत्र १०१-१ ऐसा ही उल्लेख प्रवचनसारोद्धार सटीक पूर्वार्ध, पत्र ७५-२ में भी है । दशवैकालिक नियुक्ति की गाथा २५८ ( दशवैकालिक, हारिभद्रीय टीक' सहित ० ६, उ० २. पत्र १९४ - १ ) में भी इसका उल्लेख श्राता है ।
२ - श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र सटीक, पत्र १०१-१ । ३- प्रवचनसारोद्धार सटीक पूर्वार्ध, पत्र ७५-१ । ४- - श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र सटीक, पत्र १०१ - १ | ५ - प्रवचन सारोद्धार सटीक पूर्वार्ध, पत्र ७५ - १ । ६ - दशवेकालिकसूत्र हारिभद्रीयटीका सहित, पत्र २६३ - २ ।
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तीर्थंकर महावीर
३ गुणवतों के अतिचार प्रथम गुणत्रत दिग्विरतिव्रत है। उसके निम्नलिखित ५ अतिचार हैं । उनके नाम प्रवचनसारोद्धार में इस प्रकार गिनाये गये हैं :
तिरियं अहो य उहं दिसिवयसंखाइकम्मे तिन्नि । दिसिवय दोसा तह सइविम्हरणं खित्त वुड्ढी य ॥२६०॥'
१. उर्ध्वप्रमाणातिक्रमण-पर्वत, तरु-शिखा आदि पर नियम लिये ऊँचाई से ऊपर चढ़ना ऊर्ध्वप्रमाणातिक्रमण अतिचार है।
२. अधःप्रमाणातिक्रमण-सुरंग, कूएँ आदि में व्रत लिए गहराई से नीचे जाना।
३. तिर्यकप्रमाणातिक्रमण-पूर्वादि चारों दिशाओं में नियमित प्रमाण से अधिक जाना।
४. क्षेत्रवृद्धि अतिचार-चारों दिशाओं में १००-१०० योजन जाने का व्रत ले । फिर किसी लोभ वश एक दिशा में २५ योजन कम
१-प्रवचनसारोद्धार सटीक, पूर्वार्द्ध, पत्र ७५-२ । उवासगदसाओ (पी० एल० वैद्य-सम्पादित, १ष्ठ १०) में वे इस प्रकार गिनाये गये हैं
उड्ड दिसिपमाणाइकम्मे, अहो दिसिपमाणाइकम्मे । तिरियदिशि पमाणाइकम्मे, खेत्त वुड्ढी, सइ अन्तरद्धा २-पर्वत तह शिखरादिषु योऽसौ नियमतः प्रदेशस्तस्य व्यतिक्रमः
-प्रवचनसारोद्धार सटीक पूर्वार्ध, पत्र ७५-२ ३-अधोग्रामभूमिगृहकूपादीषु
- प्रवचनसारोद्धार सटीक पूर्वार्ध, पत्र ७५-२ ४-तिर्यक् पूर्वादिदिक्षु
-प्रवचनसरोद्घार सटीक पूर्वार्ध, पत्र ७५-२
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' श्रावक-धर्म करके दूसरी दिशा में २५ योजन अधिक बढ़ा दे, तो यह क्षेत्रवृद्धि अतिचार है।
५. स्मृत्यन्तर्धान-सौ योजन का व्रत लेने के बाद, यदि चलते समय शंका हो जाये कि १०० का व्रत लिया था या ५० का! फिर ५० योजन से अधिक जाना स्मृत्यन्तर्धान अतिचार है ।
२-रा गुण व्रत-भोगोपभोग के २० अतिचार हैं। उनमें भोगसम्बन्धी पाँच अतिचार हैं । प्रवचनसारोद्धार में गाथा आती है :
अपक्कं दुप्पक्कं सञ्चित्तं तह सचित्त पडिबद्धं । तुच्छोसहि भक्खणयं दोसा उवभोग परिभोगे ॥२८१॥
—प्रवचनसारोद्धार सटीक, पूर्वाद्ध, पत्र ७५-२ १ अपक्क, २ दुष्पक, ३ सचित्त, ४ सचित्त प्रतिबद्धाहार तथा ५ तुच्छौषधि ये पाँच भोग सम्बन्धी अतिचार हैं । इनका विष्लेषण जैनशास्त्रों में इस प्रकार है :
१. अपक्व-बिना छना आटा, अथवा जिसका अग्निसंस्कार न किया हो, ऐसा आटा खाना, क्योंकि आटा पीसे जाने के बाद भी कितने
-पूर्वादि देशस्य दिग्नत विषयग्य ह्रस्वस्य सतो वृद्धिः–वद्धनं पश्चिमादि पोत्रान्तर परिमाणप्रक्षेपणे दीर्धीकरणं
-प्रवचनसारोद्धार पूर्वार्ध, पत्र ७६-१ २-केनचित्पूर्वस्यां दिशि योजन शतरूपं परिमाणं कृतमासीत् गमनकाले च स्पष्ट रूपतया न स्मरति-किं शतं परिमाणं कृतमुत पञ्चाशत
-प्रवचनसारोद्धार सटीक पूर्वार्ध, पत्र ७६-१
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३६४
तीर्थङ्कर महावीर
ही दिनों तक मिश्र रहता है । अतः इस प्रकार का मिश्र भोजन करना एक अतिचार है । '
२. दुष्पकत्र मक्का, ज्वार, बाजरा, गेहूँ आदि को बाल आग पर भुन कर कुछ पका और कुछ कच्चा रहने ही पर खाना दुष्पक्व-अतिचार है
1
T
३. सचित्त- -चित्त का अर्थ है, चेतना - जीव । चेतना के साथ जो वस्तु हो वह वस्तु सचित्त कही जाती है । ऐसी सचित वस्तुओं का भोजन करना एक अतिचार है ।
४. सचित्त प्रतिबद्धाहार -- जिसने सचित्त वस्तु का त्याग कर रखा हो, वह खैर की गाँठ से गोंद निकालकर खाये । गोंद अचित्त है; पर सचित्त के साथ मिला हुआ होने से उसके खाने में दोप लगता है । पके आम, खिरनी, बेर आदि इस विचार से खाये कि, मैं तो अचित्त खा रहा हूँ, सचित्त गुठली तो थूक दूँगा, ऐसा विचार करके फल का खाना भी इस अतिचार के अंतर्गत आता है ।
५. तुच्छौषधिभक्षण - तुच्छ से तात्पर्य असार से है । जिस वस्तु के खाने से तृप्ति न हो, ऐसी चीज खाने से यह अतिचार लगता है । उदाहरण के लिए कहें चने का फूल, मूँग चवला आदि की फली ।
इनके अतिरिक्त कर्म-सम्बन्धी १५ अतिचार हैं । उनका उल्लेख उपदेशप्रासाद में इस प्रकार किया गया है :
अंगार, वन, शकट, भाटक, स्फोटक, जीविका, दंत लाक्षारस केश विष वाणिज्यकानि च ॥२॥
१ - अग्न्यादिना यदसंस्कृतं शालिगोधूममौषध्यादि तदनाभोगातिक्रमादिना भुञ्जानस्य प्रथमो अतिचारः
- प्रवचनसारोवार सटीक, पत्र ७६ १
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श्रावक-धर्म
३६५ यंत्र पीडा निर्बाचनमसतीपोषणं तथा दव दानंसरः शोष इति पंचदश त्यजेत ॥२॥
१. अंगार कर्म-लकड़ी भस्म करके कोयला बनाकर बेचना, अथवा लुहार, कलाल, कुम्भार, सोनार, भड़y जा आदि का कर्म अंगार.. कर्म कहा जाता है । अर्थात् जो जीविका मुख्यतः अंगार ( अग्नि) से चले, वह अंगार-कर्म है । ऐसी आजीविका मैं ६ जीविनिकाय का बध होता है । अतः ऐसे व्यवसाओं को गृहस्थ को त्यागना चाहिए।
२. वन-कर्म-कटा हुआ अथवा बिना कटा हुआ वन बेचे; फल, पत्र, फूल, कंदमूल, तृण, काष्ठ, लकड़ी, वंशादि बेचे अथवा हरी वनस्पति बेचे।
३-साड़ी-कर्म-गाड़ी, बहल, सवारी का रथ, नाव, जहाज, हल, चरखा, घानी, चक्की, ऊखल, मूसल आदि बनाकर बेचे ।
४. भाटी-कर्म-गाड़ी, बैल, ऊँट, भैंस, गधा, खच्चर, घोड़ा, नाव, आदि पर माल ढोकर भाड़े से आजीविका चलाये।
५. फोड़ो-कर्म-आजीविका के लिए कूप, बाबड़ी आदि खोदावे, हल चलाये, पत्थर फोड़ावे, खान खोदाये आदि स्फोटिक कर्म हैं ।
__ वाणिज्य सम्बन्धी ५ अतिचार १. दंतवाणिज्य-हाथीदाँत, हंस आदि पक्षी का रोम, मृग आदि पशुओं का चर्म, चमरी-मृग की पूँछ, साबर आदि जानवरों की सींग, शंख, सीप, कौड़ी आदि का व्यापार करना ।
२. लाक्षावाणिज्य-लाख आदि हिंसक व्यापार । लाख में त्रस जीव बहुत होते हैं। उसके रस में रुधिर का भ्रम होता है। धावड़ी में त्रस जीव उत्पन्न होते हैं । नील को भी जब सड़ाते हैं, तो उसमें बहुत
१-प्रवचनसारोद्धार पूर्वार्ध पत्रा ६१-२ से ६२-२ में कर्मादानों पर विचार है।
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तीर्थंकर महावीर से त्रस जीव उत्पन्न होते हैं । नीला वस्त्र पहनने से उसमें जूं, लीख आदि त्रस जीव उत्पन्न होते हैं । हरताल, मैनसिल आदि को पीसते समय यत्न न करने पर मक्खी -सरीखे अनेक जीव मर जाते हैं।
३. रसवाणिज्य--मदिरा-मांस आदि का व्यापार महापाप-रूप है। दूध, दही, घृत, तेल, गुड़, खाँड़ आदि का व्यापार भी रसकुवाणिज्य में आता है।
४. केशकुवाणिज्य-द्विपद, दास-दासी आदि खरीद कर बेचना । चतुष्पद गाय, घोड़ा, भैंस आदि बेचना । तीतर, मोर, तोता, मैना आदि बेचना।
५. विषकुवाणिज्य--वच्छनाग, अफीम, मैनसिल, हरताल, आदि बेचना । धनुष, तलवार, कटारी, बंदूक, आदि जिनके द्वारा युद्ध करते हैं, अथवा हल, मूसल, ऊखल, पटाखा आदि बेचना ।
सामान्य पाँच कम १. यंत्रपीलनकर्म--तिल, सरसो, इक्षु, आदि पिलाकर बेचना । यह सर्व जीव हिंसा के निमित्त-रूप यंत्रपीलन कर्म है।
२. निलांछनकर्म-बैल, घोड़े आदि को खस्सी करना, घोड़े, बैल, आदि पशुओं को दागना, ठेका लेना, महसूल उगाहना, चोरों के गाँव में बास करना आदि जो निर्दयीपने के काम हैं, वह निलांछनकर्म कहे जाते हैं।
३. दावाग्निकर्म-नयी घास उत्पन्न होगी, इस विचार से वन में आग लगाना आदि।
४. शोषणकर्म-बावड़ी, तालाब, सरोवर आदि का पानी निकाल कर सोखाना ।
५. असतीपोषणकर्म-कुतूहल के लिए पशु-पालन । माझी,
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श्रावक-धर्म
३६७ कसाई, चमार आदि बहुआरंभी जीवों के साथ व्यापार करे, उनको खर्च आदि दे।
अनर्थदंड के निम्नलिखित ५ अतिचार प्रवचनसारोद्धार (गा २८२, पत्र ७५-२ ) बताये गये हैं :
कुक्कुइयं मोहरियं भोगुवभोगाइरेग कंदप्पा । जुत्ताहिगरणमेए अइयाराऽणत्थदंडवए ।
१. कंदर्पचेष्टा-मुखविकार, भ्रूविकार, नेत्रविकार, हाथ की संज्ञा बताये, पग से विकार की चेष्टा करे, औरों को हँसाये। किसी को क्रोध उत्पन्न हो जाये, कुछ का कुछ हो । धर्म की निन्दा हो, ऐसी कुचेष्टा हो ।
२. मुखारिवचन--मुख से मुखरता करे, असंबद्ध वचन बोले, ऐसे काम करे जिससे चुगलखोर, लबार आदि के नाम से प्रसिद्ध हो, ऐसा वाचालपन।
३. भोगोपभोगातिरिक्त अतिचार--स्नान, पान, भोजन, चंदन, कुंकुम, कस्तूरी, वस्त्र, आभरणादिक अपने शरीर के भोग से अधिक भोगे यह भी अनर्थदण्ड है।
४. कौकुच्यअतिचार-जिसके कहने से औरों की चेतना कामक्रोध रूप हो जाये तथा विरह की बात, साखी, दोहा, कवित्त, छन्द आदि कहना।
५. संयुक्ताधिकरणअतिचार-ऊखल के साथ मूसल, हल के साथ फाला, गाड़ी के साथ युग आदि संयुक्त अधिकरण नहीं रखना।
अब शिक्षाव्रतों में प्रथम शिक्षाव्रत सामायिक के अतिचार बताता हूँ। प्रवचनसारोद्धार में सामायिक के ५ अतिचार इस प्रकार बताये गये हैं
काय २ मणो१ वयणाणं ३ दुप्पणिहाणं सईअकरणं च ४ अणवट्ठिय करणं चिय समाइए पञ्च अइयारा ॥२८३॥
(पत्र ७७-२)
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३९८
तीर्थङ्कर महावीर १, २, ३, काया, मन अथवा वाणी से दुष्ट प्राणिधान । अब हम एक एक पर विचार करेंगे।
काया के १२ दोष हैं।
१--सामायिक में पैर पर पैर चढ़ा करके ऊँचा आसन लगा कर चैटे । यह प्रथम दूषण है; क्योंकि गुरु-विनय की हानि का करण होने से यह अभिमान का आसन है ।
२--चलासन-दोष---आसन स्थिर न रखे, बार-बार आगे-पीछे हिलाये अर्थात् चपलता करे ।
३--चलदृष्टि-दोष-सामायिक की विधि छोड़कर चपलपने से चकित मृग की भाँति आँखें फिराना।
४.-सावधक्रिया-दोष---क्रिया करे; परन्तु उसमें कुछ सावध (पाप) क्रिया करे।
५-आलंबन-दोष-सामायिक में भीतादिक का आलम्बन लेकर बैठे । बिना पूँजी भीत में अनेक जीव होते हैं। इस प्रकार बैटने से वह मर जाते हैं।
६--आकुंचन-दोष--सामायिक क्रिया करके, बिना प्रयोजन हाथ-पाँव संकोचे अथवा लम्बा करे । . ७-आलस-दोष-सामायिक में आलस से अंग मोड़े, उँगलियाँ बुलाये या कमर टेढ़ी करे ।
८-मोटन-दोष-सामायिक में अंगुली आदि टेढ़ी करना । ९----मल-दोष-सामायिक में खुजली आदि करे । १०—विषमासन-दोष-सामायिक में गले में हाथ देकर बैटे ।
११-निद्रा-दोष-सामायिक लेकर नींद लेना । . १२-शीत आदि की प्रबलता से अपने समस्त अंगोपांग ढाँके ।
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श्रावक-धर्म
३६६
मन के १० दोष हैं :--
१-अविवेक-दोप–सामायिक करके सब क्रिया करे; परन्तु मन में विवेक न करके निर्विवेकता से करे ।
२-यशोवांछा-दोष-सामायिक करके कीर्ति की इच्छा करे । ३-धनकांछा-दोष-~सामायिक करके धन की कामना करना ।
४-गर्व-दोप–सामायिक करके यह विचार करना कि, लोग मुझे धार्मिक कहेंगे।
५-भय दोप----लोगों की निन्दा से डरता हुआ सामायिक करना ।
६-निदान दोष---सामायिक करके निदान करे कि, इससे मुझे धन, स्त्री, पुत्र, राज, भोग, इन्द्र, चक्रवर्ती आदि पद मिलेंगे।
७-संशय-दोष—यह संशय कि, क्या जाने कि सामायिक का क्या फल होगा।
८-कषाय-दोष-सामायिक में कषाय करे अथवा क्रोध में तुरत सामायिक करने बैठ जाये।
९-अविनय-दोष-विनयहीन सामायिक करे।
१०-अबहुमान-दोष-भक्तिभाव अथवा उत्साह से हीन सामायिक करे।
वचन के भी १० दोष हैं :१-कुबोल-~-सामायिक में कुवचन बोले । २.—सहसात्कार-दोष—सामायिक लेकर बिना विचारे बोले । ३---असदारोपण-दोष-सामायिक में दूसरों को खोटी मति देना । ४.—निरपेक्षवाक्य-दोष-सामायिक में शास्त्र की अपेक्षा बिना बोले। ५-संक्षेप-दोष--सामायिक में सूत्र-पाट में संक्षेप करे अथवा अक्षर पाठ ही न करे । ६-कलह-दोष-सामायिक में सहधर्मियों से क्लेश करे।।
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तीर्थंकर महावोर
७ – विकथा - दोष -सामायिक में बैठकर विकथाएँ नहीं करनी
चाहिए ।
४००
- हास्य- दोष — सामायिक में रहकर दूसरों की हँसी करना ।
- अशुद्ध पाठ-दोष -सूत्र पाठ का उच्चारण शुद्ध न करे ।
१० – मुनमुन - दोष —— सामायिक में अक्षर स्पष्ट न उच्चारित करेऐसा बोले जैसे मच्छर बोलता है ।
४- अनवस्था - दोषरूप - अतिचार —- सामायिक अवसर पर न करे । ५ - स्मृतिविहोन - श्रतिचार - सामायिक किया या नहीं, उसकी पारणा की या नहीं, ऐसी भूल करना ।
दिशावकाशिकत्रत के ५ अतिचार हैं ! प्रवचनसारोद्धार ( सटीक ) मैं (गाथा २८४, पत्र ७८ - १ ) में उनके नाम इस प्रकार गिनाये गये हैं :आणणं १ पेसवणं २ सदृणुवाओ य ३ रुव अणुवाश्रो ४ । बहिपोगलक्खेवो ५ दोसा देसावगसस्स ॥ १. आणवणप्रयोग - प्रतिचार — नियम के बाहर की कोई वस्तु हो उसकी आवश्यकता पड़ने पर, कोई अन्यत्र जाता हो तो उससे कहकर मँगा लेना ।
२. पेसवण प्रयोग - अतिचार - दूसरे आदमी के हाथ नियम के भूमि के बाहर की भूमि में कोई वस्तु भेजे यह दूसरा अतिचार है ।
३ सहाणुवाय अतिचार - यदि कोई व्यक्ति नियम से बाहर की भूमि में जाता हो, उसे खाँस या खरकार कर बुलाना और अपने लिए उपयोगी कोई वस्तु मँगवाना ।
४ रूपानुपाती - अतिचार - यदि कोई व्यक्ति नियम से बाहर की
१. विकथाएँ सात हैं —- १ स्त्रीकथा, २ भक्तकथा, ३ देशकथाएँ ४ राजकथा, ५ मृदुकरणीकथा, ६ दर्शनभेदिनी, ७ चरित्रभेदिनी ।
- ठाणांगसूत्र, सटीक, ठा० ७, सूत्र ५६६, पत्र ४०३।२ ।
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श्रावक-धर्म
४०१ भूमि में जाता हो तो हवेली आदि पर चढ़कर उसे अपना रूप दिखाना, जिसके फलस्वरूप वह आदमी पास आ जाये फिर किसी वस्तु को मँगाना ।
५ पुद्गलाक्षेप-अतिचार-नियम से बाहर कोई व्यक्ति जाता हो, और उससे काम हो तो उस पर कंकड़ फेंक कर, उसका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करे ताकि वह उसके निकट आये। फिर उसके साथ बातचित करके उसे अपना काम बताना यह पाँचवाँ अतिचार है।
पौषधव्रत के पाँच अतिचार प्रवचनसारोद्धार सटीक ( गाथा २८५, पत्र ७८-१ ) में इस प्रकार गिनाये गये हैं :
अप्पडिलेहिय अप्पमज्जियं च सेजा ३ ह थंडिलाणि ४ तहा । संमं च अणणुपालण ५ मइयारा पोसहे पंच ।। २८५ ॥
१ अप्पडिलेहिय दुप्पडिलेहिय सिजासंथारक अतिचार-- जिस स्थान में पौषधसंस्तारक किया है, उस भूमि की तथा संथारा की पडिलेहण (प्रतिलेखना) न करे । संथारे की जगह अच्छी तरह निगाह करके देखे नहीं, अथवा यदा-कदा देखे तो भी प्रमाद वश कुछ देखी और कुछ बिना देखी रह जाये।
२ अप्पमज्जिय दुप्पाजय सिज्जासंस्तारक अतिचार-संथारा को पूँजे नहीं अथवा यथार्थरूप में न पूँजे, जीवरक्षा न करे ।
३ अप्पडिलेहिय दुप्पडिलेहिय उच्चारपासवण भूमि अतिचार लघुनीति अथवा बड़ीनीति न व्यवहार में लाये, परिठावने की भूमि का नेत्रों से अवलोकन न करे, और करे भी तो असावधानी से करे, जीवयत्ना बिना करे।
४ अप्पमज्जिय दुप्पमज्जिय उच्चारपासवण भूमि अतिचार जहाँ मूत्र अथवा विष्ठा करे उस भूमि को उच्चार-प्रस्रवण करने से पहले पूँजे नहीं अथवा असावधानी से पूँजे ।
५ पोसह विहिविविवरीए अतिचार-पोषध में जब भूख लगे
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४०२
तीर्थकर महावीर तो पारणे की चिन्ता करे-जैसे कल सुबह अमुक वस्तु का भोजन करूँगा। अथवा अमुक कार्य आवश्यक है, उसे कल करने जाऊँगा अथवा पोषध के निम्नलिखित १८ दूषणों का वर्जन न करे :---
(१) बिना पोसे वाले का लाया हुआ जल पिये। (२) पोषध के लिए सरस आहार करे । (३) पोषध के अगले दिन विविध प्रकार के भोजन करे । (४) पोषध के निमित्त अथवा पोपध के अगले दिन में विभूषा करे । (५) पोषध के लिए वस्त्र धुलावो । (६) पोषध के लिए आभरण बनवा कर पहने । (७) पोषध के लिए रंगा वस्त्र पहने । (८) पोषध में शरीर का मैल निकाले । (९) पोषध में बिना काल निद्रा करे । (१०) पोषध में स्त्री-कथा करे ।। (११) पोषध में आहार-कथा करे । (१२) पोषध में राज कथा करे । (१३) पोषध में देश-कथा करे । (१४) पोषध में लघुशंका अथवा बड़ी शंका बिना भूमि को पूँजे करे। (१५) पोषध में दूसरों की निन्दा करे ।
(१६) पोषध में माता-पिता, स्त्री-पुत्र, भाई-बहन आदि से वार्तालाप करे।
(१७) पोषध में चोर-कथा कहे । (१८) पोपध में स्त्री के अंगोपांग देखे ।
अतिथि-संविभाग व्रत के ५ अतिचार प्रवचनसारोद्धार सटीक ( पूर्वभाग गा० २७६, पत्र ७८-१) में इस प्रकार कहे गये हैं :
सच्चित्ते निक्खिवणं १ सचित्तपिहणं च २ अन्नववएसो ३। मच्छरइयं च ४ कालाईयं ५ दोसाऽतिहि विभाए ॥
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श्रावक-धर्म
४०३
१-सचित्त निक्षेर--न देना पड़े, इस विचार से सचित सजीव, घृथ्वी, जल, कुम्भ, ईधन आदि के ऊपर रख छोड़े । अथवा यह विचार कर कि अमुक वस्तु तो साधु लैगा नहीं, परन्तु निमंत्रण करने से मुझे पुण्य प्राप्त होगा।
२-सचित्त पीहण-अतिचार-न देने के विचार से देय वस्तु को सूरन फलादि से ठक छोड़े।
३-कालातिकम-अतिचार--साधु के भिक्षाकाल से पहले अथवा साधु के भिक्षा कर चुकने के बाद आहार का निमंत्रण दे ।
४-मत्सर-अतिचार--साधु के मांगने पर क्रोध करना अथवा न देना । या इस विचार से देना कि, अमुक ने यह दिया तो मैं क्यों न हूँ।
५-परव्यपदेश-अतिचार--न देने के विचार से अपनी वस्तु को दूसरे की कहना।
संलेखना के ५ अतिचार प्रवचनसारोद्धार-सटीक (पूर्वभाग, गाथा २६४, पत्र ६१.१) में संलेखना के ५ अतिचार इस प्रकार गिनाये गये हैं :--
इह पर लोया संसप्पयोग मरणं च जोविप्रासंसा । कामे भोगे व तहा मरणंते च पंच हयारा ॥
१-इहलोकाशंसा--मनुष्य यदि मनुष्य-भव की आकांक्षा करे या यह विचार करे कि, इस अनशन से अगले भव मैं मैं राजा अथवा धनवान हूँगा।
२-परलोकाशंसा--इस भव में रह कर इन्द्रादि देवता होने की प्रार्थना करने को परलोकाशंका-अतिचार कहते हैं ।
३-मरणाशंसा-शरीर में कोई बड़ा रोग उत्पन्न होने पर अंत:करण में खेद प्राप्त करके यह विचार करे कि, मृत्यु आये तो बहुत अच्छा, यह मरणाशंसा-अतिचार है।
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४०४
तीर्थंकर महावीर ४–जीविताशंसा--कपूर, कस्तूरी, चंदन, वस्त्र, गंध, पुष्प इत्यादि पूजा की सामग्री देखकर, नाना प्रकार के गीत-वाद्य सुनकर अथवा यह सुनकर कि 'यह सेठ बड़े परिवार वाला है। इसके यहाँ बहुत से लोग आते हैं, इसलिए यह धन्य है, पुण्यवान है, श्लाघा करने योग्य है' इत्यादि अपनी प्रशंसा सुनकर जो यह मन में विचार करे कि शासन की प्रभावना मेरे कारण वृद्धि को प्राप्त होती है, इस कारण मैं बहुत दिनों जीवित रहूँ तो अच्छा, ऐसा विचार करना जीविताशंसा है।
५ कामभोगाशंसा-अगले भव में मुझे कामभोग की प्राप्ति हो तो अच्छा, ऐसा जो अनशन के समय प्रार्थना करता है, उसे कामभोगाशंसा कहते हैं।
ज्ञान के ८ अतिचार ज्ञान के निम्नलिखित ८ अतिचार प्रवचनसारोद्धार (सटीक) मैं गिनाये गये हैं ( गाथा २६७-पत्र ६३-२)
काले' विणए बहुमाणों वहाणे तहा अनिण्हवणे । वंजणं अत्थं तदुभएं अट्ठविहो नाणमायारों ॥ २६७ ।।
१-अकालाध्ययनातिचार
---शुभ कृत्यादि करने के लिए जो शुभ काल कहा गया हो, उस काल में करने से क्रिया फलदायक होती है, अन्यथा निष्फल जाती है। अतः काल बीत जाने पर पढ़ना अथवा वह क्रिया करना अकालाध्ययन-अतिचार है।
२-अविनयातिचार
- ज्ञान का, ज्ञानी का अथवा ज्ञान के साधन पुस्तकादि का विनयोपचार करना चाहिए। ज्ञानी के पास आसन, दान अथवा आज्ञापालनादि के विनय से पढ़ना चाहिए। ऐसा न करके विनय के अभाव में पढ़ना अविनयातिचार हैं।
३-अबहुमानातिचार
-बहुमान-अर्थात् गुरु के ऊपर प्रीति रखकर अंतरंगचित्त में प्रमोद रखकर पदना। इसके विपरीत रूप में पढ़ना अबहुमान अतिचार है ।
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४०५
श्रावक-धर्म
दर्शन के ८ अतिचार प्रवचनसारोद्धार सटीक (गाथा २६८, पत्र ६३-२ ) में दर्शन के ८ अतिचार इस प्रकार बनाये गये हैं:निस्संकिय' निक्कंखिय निधितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । उक्वूह थिरीकरणे वच्छल पभावणे अट्ठ ।
(पृष्ठ ४०४ पाद टिप्पणि का शेषांश) ४-उपधानहीनातिचार
-सिद्धान्त में कहे तप बिना सूत्र पढ़े अथवा पढ़ाये । यह चौथा उपधानहीनातिचार है।
५-निलवणातिचार
-जिस गुरु के पास विद्याभ्यास किया हो, उसका नाम छिपाकर किसी बड़े गुरु का नाम बताना पाँचवाँ अतिचार है।
६-वंजणातिचार --व्यंजन, स्वर, मात्रादिक का न्यूनाधिक उच्चारण करना वंजणातिचार है। ७-अत्थातिचार --अर्थ यदि न्यूनाधिक कहे तो अत्था तिचार है । ८-उभयातिचार --अर्थ और उच्चारण दोनों में न्यूनाधिक करना उभयातिचार है ।
१-निस्संकिय अतिचार
--सम्यक्त्व का धारण करने वाला जो श्रावक है, उसे तीर्थकर-वचन में किसी प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिए । शंका का अभाव दर्शन का प्रथम निस्संकिय गुण है । और, तत् विपरीप विचारणा अतिचार है।
२-निखिय अतिचार
-जिन-धर्म के स्थान पर दूसरे धर्म अथवा दर्शन की आकांक्षा का प्रभाव दर्शन का दूसरा गुण है । और, उसके विपरीत निक्कंखिय अतिचार है।
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४०६
तीर्थकर महावीर
चारित्र के ८ अतिचार चरित्र के आठ अतिचारों के सम्बंध में प्रवचनसारोद्धार सटीक (गा० २६९ पत्र ६३-२ ) में गाथा आती है:
( पृ ४०५ की पाद टिप्पणि का शेषांश) ३-विचिकित्सा-अतिचार
-ऐसा करने का फल होगा या नहीं, इसे विचिकित्सा कहते हैं अथवा संयमपात्र महामुनीन्द्र को देखकर मन में जुगुप्सा करना। इसका जो अभाव है, वह दर्शन का तीसरा अतिचार है।
४-अमूढदृष्टि अतिचार
-अन्य दर्शन में विद्या अथवा तप की अधिकता देखकर, उसकी ऋद्धि का अवलोकन करके मोह के वश होकर चित्त विचलित करना दर्शन का चौथा अमूढ़दृष्टिगुण अतिचार है।
५-उववूह अतिचार
-समानधमी की गुणस्तवना वैयावच्चादिक करे तो उसका अनुमोदन न करना, तटस्थ रहना।
६-थिरीकरण
--कोई सहधी धर्म के विषय में चलित मन हो गया हो तो उसे स्थिर न करके उदासीन रहना।
७ वच्छल्ल
-कोई सधर्मी जात, धर्म अथवा व्यवहार-सम्बंधी आपत्ति में फंसा हो, तो उसे निवारण करने की शक्ति होते हुए भी तटस्थ रहना।
८-प्रभावना
-जिनशासन-प्रवचन श्री भगवंत भाषित सुरासुर से वंद्य होने के कारण स्वतः देदिप्यमान हैं । तथापि अपने सम्यक्त्व की शुद्धिकी इच्छा करनेवाले प्राणी को, जिससे धर्म की प्रशंसा हो, ऐसे दुष्कर तपश्चरणादि करके जिनप्रवचन पर प्रकाश डालना यह दर्शन का आठवाँ गुण है। इसके विपरीत आचरण अतिचार है।
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४०७
श्रावक-धर्म पणिहाण जोगजुत्तो पंचहिं समिईहिं तीहिं गुत्तीहिं। . चरणायारो विवरीययाई तिण्हपि अइयारा ॥
प्राणिधान अर्थात् चित्त की स्वस्थपना। अतः स्वस्थ मन से पाँच समिति और ३ गुप्तियों के साथ आचरण चरित्राचार कहा जाता है । पाँच समिति और ३ गुप्ति मिलाकर ८ हुए। इनके विपरीत जो व्यवहार हैं, वे चरित्राचार के ८ अतिचार कहे जाते हैं।'
अब हम पाँच समितियों और तीन गुप्तियों पर विचार करेंगे । ५ समितियों के नाम ठाणांग और समवायांग सूत्रों में इस प्रकार गिनाये गये हैं:
१ ईरियासमिति, २ भासासमिति, ३ एसणासमिति, ४ आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिति, ५ उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावणियासमिति ।
समवायांग की टीका में इनकी परिभाषा इस रूप में दी गयी है:
समितयः-सङ्गताः प्रवृत्तयः, तत्रेयसिमितिः--गमने सम्यक सत्वपरिहारतः प्रवृत्तिः, भाषासमिति--निरवद्यवचन प्रवृत्तिः, एषणा समितिः-द्विचत्वारिंश दोषवर्जनेन भक्तादि ग्रहणे प्रवृत्तिः, आदाने-ग्रहणे भाण्डमात्रयोरूपकरणपरिच्छदस्य निक्षेपणे अवस्थापने समितिः।
सुप्रत्युपेक्षितादिसाङ्गत्येन प्रवृत्तिश्चतुर्थी, तथोच्चारस्य पुरीषस्य प्रश्रवणस्य मूत्रस्य खेलस्य निष्ठीवनस्य सिंघाणस्य
१-पाक्षिक अतिचार में आता है कि वे ८ व्रत साधु के लिए सदा लागू होते हैं; पर श्रावक को सामायिक अथवा पौषध के समय लागू होते हैं।
-प्रतिक्रमणसूत्र प्रबोध टीका, भाग ३, पृष्ठ ६५५ । २-ठाणांगसूत्र सटीक ठाणा ५, उदेशा ३, सूत्रा ४५७ पा ३४३-१; समवायांगसूत्रा सटीक स०५, पत्र १०-१ ।
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४०८
तीर्थङ्कर महावीर नासिकाश्लेष्मणो जल्लस्य देहमलस्य परिष्ठापनायां-परित्यागे समितिः।'
समिति अर्थात् संगत प्रवृत्ति ।
१--गमन करते समय सम्यक् रूप से इस प्रकार चलना कि जीव हिंसा न हो इर्यासमिति है।
२--दोष रहित वचन की प्रवृत्ति करना भाषासमिति है ।
३-४२ दोषों से रहित भात-पानी ग्रहण करने में प्रवृत्ति करना ऐषणासमिति है।
४--आदान अर्थात् भांड, पात्र और वस्त्रादिक उपकरण के समूह को ग्रहण करते समय तथा निक्षेपण अर्थात् उनके स्थापन करते समय सही रूप में प्रतिलेखना करने की प्रवृत्ति चौथी समिति है ।
५--उच्चार अर्थात् विष्टा, प्रस्रवण अर्थात् मूत्र, थूक, नासिका का श्लेष्म, शरीर का मैल इन सब के त्याग करने के समय स्थंडिलादिक के दोष दूर करने की प्रवृत्ति करनी पाँचवीं समिति है ।
और ३ गुप्तियाँ ठाणांगसूत्र और समवायांग सूत्र में इस प्रकार गिनायी गयी हैं:--
१ मनोगुप्ति, २ वचनगुप्ति, ३ कायगुप्ति । समवाय की टीका में उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है:
गोपनानि गुप्तयः मनः प्रभृती नाम शुभ प्रवृत्तिनिरोधनानि शुभ प्रवृत्तिकरणानिचेति ।
१-समवायांग सूत्र सटीक, पत्रा १०-२, ११-१ ।
२-स्थानांगसूत्र सटीक, ठाणा ३, सूत्रा १२६ पत्रा १११-२, समवायांगसूत्र सटीक समवाय ३, पत्रा ८-१ ।
३-समवायांगसूत्रा सटीक, पत्र ८-२ ।
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४०९
श्रावक-धर्म -~-गोपनीयता. गुप्ति है। मन आदि (वचन, काया) की अशुभ प्रवृत्ति का निरोध और शुभ प्रवृत्ति करना ।
तप के १२ अतिचार उत्तराध्ययन के ३० वें अध्ययन में तप के १२ भेद बताये गये हैं:सो तवो दुविहो वुत्तो, बाहिरभंतरो तहा । बाहिरो छविहो वुत्तो, एवमभंतरो तवो ॥ ७॥
-वह तप बाह्य और अभ्यंतर भेद से दो प्रकार का कहा गया है। उसमें वाह्य तप छः प्रकार का और उसी प्रकार अभ्यंतर तप भी छः प्रकार का है।
अणसणमूणोयरिया, भिक्खायरिया य रस परिच्चाओ। कायकिलेसो संलोणया, य बज्झो तवो होइ ॥ ८ ॥
-१ अनशन, २ उनोदरी , ३ भिक्षाचर्या, ४ रसपरित्याग, ५ कायक्लेश, और ६ संलीनता ये बाह्य तप के भेद हैं।'
पायच्छितं विणो, वेयावच्चं तहेव सज्झायो । झाणं च विउस्सग्गो एसो अभितरो तवो ॥ ३०॥
-१ प्रायश्चित, २ विनय, ३ वैयावृत्य, ४ स्वाध्याय, ५ ध्यान और कायोत्सर्ग ये ६ अंतरंग (आभ्यंतर ) तप हैं।
अब हम उनपर पृथक-पृथक विचार करेंगे।
१-समवायांगसूत्र सटीक समवाय ६, पत्र ११-१ में पाठ है : छविहे बाहिरे तवोकम्भे प० तं-अणसणे, उणोयरिया, वित्तीसंखेवो, रसपरिच्चायो, कायकिलेसो, संलीणया । २-छविहोनाबिभतरे तव्वोकम्पो ५० तं०-पायच्छित, विणो, वेयावच्चं, सज्झायो, माणं, उस्सग्गो ।
-समवायांग सूत्र सटीक, स० ६, पत्र ११-१
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तीर्थकर महावीर
(१) अनशन अनशन के सम्बन्ध में उत्तराध्ययन में गाथा आती है:इत्तरिय मरणकाला य, अणसणा दुविहा भवे । इत्तरिय सावकंखा, निरक्कंखा उ बिइञ्जिया ॥६॥
-अनशन दो प्रकार का है (१) इत्वरिक और (२) मरणकाल पर्यंत । इनमें प्रथम आकांक्षा अवधि सहित और दूसरा आकांक्षा अवधि से रहित है।
जो इत्वरिक तप है वह ६ प्रकार का है। उत्तराध्ययन में गाथा आती है :
जो सो इत्तरियतवो, सो समासेण छब्विहो । सेढितवो पयरतवो, घणो य तह होह वग्गो य ॥ १० ॥ तत्तो य वग्गवग्गो, पंचमो छट्टो पइण्णतयो । मणइच्छियचित्तत्थो, नायब्यो होइ इत्तरियो ॥ ११ ॥
-जो इत्वरतप है वह ६ प्रकार का है। १ श्रेणितप, २ प्रतरतप, ३ धनतप, ४ वर्गतप, ५ वर्गवर्गतप, ६ प्रकीर्णतप ।
इनकी परिभाषा इस प्रकार है :
(अ) श्रेणितप-एक उपवास से ६ मास पर्यंत जो अनशन तप किया जाता है, उसे श्रेणितप कहते हैं।
(आ) प्रतरतप-श्रेणि से गुणाकार किया हुआ श्रेणितप प्रतरतक कहा जाता है । यथा-एक उपवास, दो, तीन, चार उपवास'
दो, तीन, चार, एक तीन, चार, एक, दो
चार, एक, दो, तीन (इ) धनतप-इस षोडशपदात्मक प्रतर को श्रेणि से गुण करने पर
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श्रावक-धर्म
४११. धनतप होता है, जिसके ६४ कोष्ठक बनते हैं। यंत्र की स्थापना प्राग्वत् जाननी चाहिए।
(ई) वर्गतप-धन-तप को धन से गुणाकरने अर्थात् ६४ को ६४ कर देने से ४०९६ कोष्ठक बनते हैं।
(उ) वर्गवर्गतप-वर्ग को वर्ग से गुणाकार करने पर वर्गवर्ग-तप होता है । ४०९६ को ४०९६ से गुणाकरने पर १६७७२१६ कोष्ठक बनते हैं।
(ऊ) प्रकीर्णतप-प्रकीर्णतप श्रेणि बद्ध नहीं होता । अपनी शक्ति के अनुरूप किया जाता है । इसके अनेक भेद हैं।
यह इत्वरतप अनेक प्रकार के स्वर्ग, अपवर्ग, तेजोलेश्या आदि देने वाला है।'
मरणकाल पर्यंत अनशन के सम्बन्ध में उत्तराध्ययन में आता हैजा सा अणसणा मरणे, दुविहा सा विया हिया । सवियारमवियारा कायचिट्ठ पई भवे ॥ १२॥
–मरणकाल पर्यंत के अनशन-तप के भी काम चेष्टा को लेकर सविचार और अविचार ये दो भेद वर्णन किये गये हैं।
अहवा सपरिकम्मा, अपरिकम्मा य आहिया। नीहारिमनीहारी, आहारच्छे दोस्तु वि॥ १३॥
-अथवा सपरिक्रम और अपरिक्रम तथा नीहारी और अनीहारी इस प्रकार यावत्कालिक अनशन-तप के दो भेद हैं । आहार का सर्वथा त्याग इन दोनों में होता है।
नवतत्त्वप्रकरण सार्थ (पृष्ठ १२६ ) में आता है कि, अनशन के दो भेद हैं।
१-उतराध्ययन शान्त्याचार्य की टोका सहित पत्र ६००-२ से ६०१-२ में इनका विस्तार से वर्णन आता है ।
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४१२
तीर्थकर महावीर १-यावज्जीव २–इत्वरिक । यावजीव के दो भेद हैं-१ पादपोपगमन और २ भक्तप्रत्याख्यान । ये दो अनशन मरण पर्यन्त संलेखना पूर्वक किये जाते हैं। उनके निहारिम और अनिहारिम दो भेद हैं। अनशन
अंगीकार करके उस स्थान से बाहर जाये, तो नीहारिम और बाहर न निकले वहीं पड़ा रहे, तो अनिहारिम । ये चारों भेद यावजीव अनशन के हैं।
और, इत्त्वरिक अनशन सर्व प्रकार से और देश से दो प्रकार के होते हैं । चारों प्रकार के आहार का त्याग (चउविहार ) उपवास, छह, अट्टम आदि सर्व प्रकार के हैं और नम्मुक्कार सहित, पोरसी आदि देश से हैं।
(२) उणोदरीतप उणोदरीतप-भर पेट भोजन न करना उणोदर-तप है। यह पाँच प्रकार का कहा गया है। उत्तराध्ययन की गाथा है :
प्रोमोयरणं पंचहा, समासेण वियाहियं । दव्वो खेत्तकालेणं, भावेणं पञ्जवेहि य ॥ १४ ॥
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पर्यायों की दृष्टि से उनोदरी-तप के पाँच भेद कहे गये हैं।
(अ) द्रव्य उनोदरी-तप-जितना आहार है, उसमें से कम-से-कम एक कवल खाना कम करना द्रव्य उनोदरी तप है। उत्तराध्ययन । में इसके सम्बन्ध में गाथा आती है:--
जो जस्स उ आहारो, तत्तो प्रोमं तु जो करे। जहन्नेणेगसित्थाई, एवं दम्वेण ऊ भवे ।। १५ ।। भोजन के परिमाण के सम्बन्ध में पिंडनियुक्ति में गाथा आती है:
१. विशेष विस्तृत विवरण के लिए देखें नवतत्त्व सुमंगला टीका सहित, पत्र १०७-४
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श्रावक-धर्म
बत्तीस किर कवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ । पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं भवे कवला ॥। ६४२ ।
- पत्र १७३-१
-बत्तीस कवल से पुरुष का और अट्ठाइस कवल से नारी का आहार पूरा होता है।
'कवल' का परिणाम बताते हुए प्रवचनसारोद्धार सटीक ( भाग १, पत्र ४५ - २ ) में कहा गया है
कुर्कुटाण्डक प्रमाणो बद्धोऽशन पिण्डः
आवश्यक की टीका में मलयगिरि ने लिखा हैद्विसाहस्रिकेण तण्डुलेन कवलो भवति ।
- राजेन्द्राभिधान, भाग ३, पृष्ठ ३८६ । पुरुष की उनौदरिका ९, १२, १६, २४ और ३१ पाँच प्रकार की तथा स्त्री की उनौदरिका ४–८–१२–२०–२७ पाँच प्रकार कौ होती है ।
(आ) क्षेत्र सम्बंधी उनोदरी तप
ग्राम, नगर, राजधानी और निगम में; आकर, पल्ली, खेटक और कर्वट में, द्रोणमुख, पत्तन और संबाध में; आश्रमपद, विहार, सन्निवेश, समाज, घोष, स्थल, सेना, स्कंधकार, सार्थ, संवर्त और कोट में तथा घरों के समूह, रथ्या, और गृहों में, एतावन्मात्र क्षेत्र में भिक्षाचरण कल्पता है आदि शब्द से अन्य गृहशाला आदि जानना चाहिए । इस प्रकार का तप क्षेत्र सम्बन्धी उनोदरी-तप कहा गया है।
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क्षेत्र-सम्बंधी यह उनोदरीतप ६ प्रकार का कहा गया है । उत्तराध्ययन मैं गाथा आती है
४१३.
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१. नवतत्व प्रकरण सार्थ पृष्ठ १२६ ।
२. उत्तराध्ययन, अध्ययन ३०, गा० १६-१८
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तीर्थङ्कर महावीर
पेडा या श्रद्धपेडा, गोमुत्तिपयंग वीहिया चेव । संवुक्कावट्टायगंतु, पच्छागया
छट्ठा ॥ १६ ॥
(१) पेटिका
२
सन्दूक के आकार में (२) श्रर्द्धपेटिका के आकार में ( ३ ) गोमुत्रिका के आकार में ( ४ ) पतंगवीथिका के आकार में ( ५ ) शंखावर्त के आकार में ( ६ ) लम्बा गमन करके फिर लौटते हुए भिक्षाचरी करना- -ये ६ प्रकार के क्षेत्र - सम्बन्धी ऊनोदरी तप हैं । ।
T
પૃષ્ઠ
( ५ ) काल - सम्बन्धी ऊनोदरी तप की परिभाषा उत्तराध्ययन में निम्नलिखित प्रकार से बतायी गयी है
―――――
दिवसस्स पोरुसीणं, चउण्हं पि उ जन्तिओ भवे कोलो । एवं चरमाणो खलु, कालोमागं मुणेयव्वं ॥ २० ॥ - दिन के चार प्रहरों में से यावन्मात्र अभिग्रह - काल हो उसमें आहार के लिए जाना काल सम्बन्धी ऊनोदरीतप है ।
हवा तइयाए पोरिसीए, ऊणाए घासमेसंतो । चउभागूणाए वा, एवं कालेण उ भवे ॥ २१ ॥
१ - पेडा पेडिका इव चउकोणा
उत्तराध्ययन, शान्त्याचार्य की टीका, पत्र ६०५-२ श्रद्धपेडा इमीए चेव श्रद्धसंठीया घर परिवाडी वही २ - पयंगविही अणिमया पयंगुड्डाणसरिसा - वही
३- 'संबुक्का वहं' ति शम्बक - शङ्खस्तस्यावर्त्तः शम्बू कावर्त्तस्तद्वदावर्तो यस्यां सा शम्बूकावर्त्ता सा च द्विधा यतः सम्प्रदायः
भितरसंबुका बाहिरसंबुक्का य, तत्थ अन्तरसंबुक्काए सखना भिरवेत्तोमा आगिइए अंतो आढवति बाहिरओ संगियहइ इयरीए विवज्जओ " वही
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श्रावक-धर्म
४१५ --अथवा कुछ न्यून तीसरी पौरुषी में या चतुर्थ और पंचम भाग न्यून पौरुषी में भिक्षा लाने की प्रतिज्ञा करना भी काल-सम्बन्धी ऊनोदरी तप है।
भाव सम्बन्धी उनोदरीतप के सम्बन्ध में उत्तराध्ययन में आता हैइत्थी वा पुरिसो वा, अलंकिलो वा नलंकिओ वावि । अन्नयरवयत्थो वा, अन्नयरेणं व वत्थेरां ॥२२॥ अन्नेव विसेसेणं, वणणं भावमणुमुयंते उ । एवं चरमाणो खलु, भावोमाणं मुणेयव्वं ॥२३॥
-स्त्री अथवा पुरुष, अलंकार से युक्त वा अलंकार रहित तथा किसी वय वाला और किसी अमुक वस्त्र से युक्त हो; अथवा किसी वर्ण या भाव से युक्त हो, इस प्रकार आचरण करता हुआ अर्थात् उक्त प्रकार के दाताओं से भिक्षा ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करनेवाला साधु भाव-उनोदरी तप करता है।
पर्याय-उनोदरीतप की परिभाषा उत्तराध्ययन में इस रूप में दी
दवे खेत्ते काले, भावम्मि य ाहिया उ जे भावा । एएहिं .अोमचरो, पजवचरओ भवे भिक्खु ॥२४॥
---द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जो वर्णन किया गया है, उन भावों से अवमौदार्य आचरण करनेवाले को पर्यवचरक-भिक्षु कहते हैं ।
(३) वृत्तिसंक्षेप वृत्ति-संक्षेप के सम्बन्ध में प्रवचनसारोद्धार सटीक में ( पत्र ६५-२) कहा गया है
'वित्तीसंखेवणं' ति वर्तते अनयेति वृत्तिः–भैक्ष्यं तस्याः संक्षेपणं-सङ्कोचः तच गोचराभिग्रह रूपम्, ते च गोचर विषया
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४१६
तीर्थकर महावीर अभिग्रहा अनेक रूपाः तद्यथा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः कालतो भावतश्च... इस तप के सम्बन्धमें उत्तराध्ययन मैं गाथा आती है
अट्टविहगोयरग्गं तु, तहा सतेव एसणा।
अभिग्गहा य जे अन्ने, भिक्खायरिय माहिमा ॥२५॥
-आठ प्रकार की गोचरी तथा सात प्रकार की ऐषणाएँ और जो अन्य अभिग्रह हैं, ये सब भिक्षाचरी में कहे गये हैं। इन्हें भिक्षाचरीतफ कहते हैं।
(४) रसपरित्यागतप रसपरित्यागतप के सम्बन्धमें उत्तराध्ययन में गाथा आती है--
खीर दहि सप्पिमाई, पणीयं पाणभोयणं । परिवजणं रसाणं तु, भणियं रस विवजणं ॥२६॥
–दूध, दही, घृत और पक्कान्नादि पदार्थों तथा रसयुक्त अन्नपानादि पदार्थों के परित्याग को रसवर्जन-तप कहते हैं ।
(५) कायक्लेशतप कायक्लेश-नामक तप के सम्बन्ध में उत्तराध्ययन में गाथा हैठाणा वीरासणाईया, जीवस्स उ सुहावहा । उग्गा जहा धरिजति, कायकिलेसं तभाहि यं ॥२७n
-जीव को सुख देनेवाले, उग्र वीरासनादि तथा स्थान' को धारण करना कायक्लेश तप है।
संलोनतातप सलीनतातप के सम्बन्ध में पाठ आता हैएगंतभणावाए, इत्थीपसुविवञ्जिए ।
सयणासण सेवणया, विवित्त सयणासणं ॥२८॥ १-स्थीयत एभिरिति स्थानानि कायावस्थिति भेदा । -उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य की टीका सहित, पत्र ६०७-२ ।
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श्रावक-धर्म
--एकान्त में अर्थात् जहाँ कोई न आता-जाता हो, ऐसे स्त्री-पशु और नपुंसक रहित स्थान में शयन-आसन करना, उसे विविक्त शयानासन अर्थात् संलीनतातप कहते हैं ।
यह संलीनता चार प्रकार का है। उत्तराध्यन की टीका में आता है:इदियकसाय जोगे, पडुच्च संलीणया मुणेयव्वा । तह जा विवित्त चरिया पन्नत्ता वीयरागेहिं ॥
(अ) इन्द्रियसंलीनता-अशुभ मार्ग में जानेवाली इन्द्रियों को संवर के द्वारा रोकना ।
(आ) कषायसंलीनता--कषाय को रोकना । (इ) योगसंलीनता--अशुभ योगों से दूर रहना ।
(ई) विविक्तचर्यासंलीनता--स्त्री, पशु और नपुंसकवाले स्थान में न रहना।
(६)प्रायश्चित प्रायश्चित के सम्बन्ध में उत्तराध्ययन में आता है :
आलोयणारिहाईयं, पायच्छित्तं तु दसविहं । जं भिक्खू वहई सम्मं, पायच्छित्ततमाहियं ॥३१॥
-आलोचना के योग्य दस प्रकार से प्रायश्चित का वर्णन किया गया है, जिसका भिक्षु सेवन करता है । यह प्रायश्चित तप है।
प्रायश्चित के दस प्रकारों का उल्लेख ठाणांसूत्र में इस प्रकार दिया है--
दस विधे पायच्छिते पं० तं०--१ आलोयणारिहे, २ पडिक मणारिहे, ३ तदुभयारिहे, ४ विवेगारिहे, ५ विउस्सग्गारिहे,
१-उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य की टीका, पत्र ६०८-१ । ( वही ) नेमिचन्द्र की टीका, पत्र ३४१-३ २-नवतत्त्वप्रकरणसार्थ पृष्ठ १२७,१२८, सुमंगला टीका पत्र १०६-१ ।
२७
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४१८
तीर्थङ्कर महावीर ६ तवारिहे, ७ छेयारिहे, ८ मूलरिहे, ६ अण वठापारिहे, १० पारंचियारिहे।
-ठाणांगसूत्र सटीक, ठाणा १०, उद्देशः ३, सूत्र ७३३ पत्र ४७४-१।
१-आलोचना-प्रायश्चित--गुरु आदि के समक्ष किये पाप का प्रकाश करना।
२-प्रतिक्रमण-प्रायश्चित-किये पाप की आवृत्ति न हो, इसलिए 'मिच्छामि दुक्कड़' कहना ।
३-मिश्र-प्रायश्चित--किया हुआ पाप गुरु के समक्ष कहना और 'मिच्छामि दुक्कड़' कहना।
४—विवेक-प्रायश्चित--अकल्पनीय अन्नपान आदिका विधिपूर्वक त्याग करना।
५.-कायोत्सर्ग-प्रायश्चित-काया के व्यापार को बन्द करके ध्यान करना।
६-तपः-प्रायश्चित--किये हुए पाप के दण्ड-रूप में नीवी (प्रत्याख्यान विशेष ) तप करना । . ७-छेद-प्रायश्चित--महानत के घात होने से अमुक प्रमाण में दीक्षाकाल कम करना । - ८-मूल-प्रायश्चित--महा अपराध होने के कारण मूल से पुनः चारित्र ग्रहण करना ।
९-अवस्थाप्य-प्रायश्चित किये हुए अपराध का प्रायश्चित न करे तब तक महाव्रत उच्चरित न करना ।
१०-पाराश्चित-प्रायश्चित--साध्वी का शीलभंग करने के कारण,
१-मिथ्या दुष्कृतं।
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श्रावक-धर्म
४१६
अथवा राजा की रानी के साथ अनाचार करने से अथवा शासन के उपघातक पाप के दण्ड के रूप में १२ वर्षों तक गच्छ से बाहर निकल कर, वेष त्याग कर महाशासन प्रभावना करने के पश्चात् पुनः दीक्षा लेकर गच्छ मैं आना । '
( ८ ) विनयतप
विनयतप के सम्बन्ध में उत्तराध्ययन में पाठ है:
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अभुट्टाणं अंजलिकरणं तहेवासणदायणं । गुरुभत्तिभावसुस्सूसा, विणओ एस वियाहिश्र ||३२||
गुरु आदि को अभ्युत्थान देना, हाथ जोड़ना, आसन देना, गुरु की भक्ति करना और अंतःकरण से उनको सेवा करना विनय-तप है । प्रकरण सार्थ ( मेहसाणा, पृष्ठ १३० ) में ज्ञान, दर्शन, चरित्र, मन, वचन, काया और उपचार विनय के ७ प्रकार बताये गये हैं ।
( ६ ) वैयावृत्य
वैयावृत्य की परिभाषा उत्तराध्ययन में इस प्रकार दी है:श्रायरियमाईए, वेयावच्चम्मि दसविहे । श्रासेवणं जहाथामं, वेयावच्चं तमाहियं ॥ ३३ ॥ वैयावृत्य के योग्य आचार्य आदि दस स्थानों की यथाशक्ति सेवाभक्ति करना वैयावृत्यतप कहलाता है ।
नवत्त्वप्रकरण सार्थ ( पृष्ठ १३० ) में इसके सम्बन्ध में कहा गया है कि आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, स्थविर, ग्लान, शैक्ष, सधार्मिक, कुल गण, संघ इन दस का आहार, वस्त्र, वसति, औषध, पात्र, आज्ञापालन आदि से भक्ति बहुपान करना वैयावृत्य है । *
१.
- नवतत्त्वप्रकरण सार्थ, पृष्ठ १२६ ।
२ - नवतत्वप्रकरण, सुमंगला टीका, पत्र ११२-१
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तीर्थंकर महावीर
( १० ) स्वाध्यायतप
स्वाध्यायतप की विवेचना उत्तराध्ययन में इस रूप में की गयी हैवायणा पुच्छणा चेव, तहेव परियणा । अणुहा धम्म कहा, सञ्झाओ पञ्चहा भवे ॥ ३४ ॥
१ ) शास्त्र की वाचना ( २ ) प्रश्नोत्तर करना ( ३ ) पढ़े हुए की अनुवृत्ति करना ( ४ ) अर्थ की अनुप्रेक्षा ( चिंतन ) करना ( ५ ) धर्मोपदेश यह पाँच प्रकार का स्वाध्याय-तप है ।
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( ११ ) ध्यानतप
उत्तराध्ययन में गाथा आती है
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अट्टरुद्दाणि वञ्जिता, भाएञ्जा सुसमाहिए । धम्मसुकाइ भाणाई, झाणं तं तु वुहा वए ॥ ३५ ॥
समाधि युक्त मुनि आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म और शुक्ल ध्यान का चिन्तन करे । इसे विद्वान लोग ध्यान तप कहते हैं ।
नवतत्त्वप्रकरण सार्थ ( पृष्ठ १२३ ) में शुभध्यान दो प्रकार के कहे गये हैं- ( १ ) धर्म ध्यान ( २ ) शुक्लध्यान । इनके अतिरिक्त ४ प्रकार के आर्तध्यान और ४ प्रकार के रौद्रध्यान हैं। ये संसार बढ़ाने वाले हैं । धर्म-ध्यान और शुक्लध्यान के भी ४-४ प्रकार हैं ।
( १२ ) कायोत्सर्गतप
कायोत्सर्ग - तप की परिभाषा इस प्रकार की गयी हैसयाणासणठाणे वा, जे उ भिक्खू न वावरे । कामस्स विउसग्गो, छट्टो सो परिकित्तिश्रो ॥ ३६ ॥ सोते-बैठते अथवा खड़े होते समय भिक्षु काया के अन्य व्यापारों को त्याग देता है । उसे कायोत्सर्ग - तप कहते हैं ।
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श्रावक-धर्म
४२१
नवतत्त्व प्रकरण (सार्थ) में उसके दो भेद बताये गये हैं ( पृष्ठ१३३ ) १ - द्रव्योत्सर्ग, २ भावोत्सर्ग । द्रव्योत्सर्ग के ४ और भावोत्सर्ग के ३ भेद हैं ।
इनके विपरीत आचरण करना अतिचार हैं ।
वीर्य के तीन अतिचार
प्रवचनसारोद्वार (सूत्र २७२, पत्र ६५- १ ) में वीर्य के ३ अतिचार इस प्रकार कहे गये हैं
सम्म करणे बारस तवाइयारा तिगं तु विरिअस्स । मण वय काया पावपउत्ता विरियतिग श्रइयारा ॥ तपों को मन, वचन और काया से शुद्ध रूप से करना । उसमें कमी होना ये वीर्य के तीन अतिचार हैं ।
सम्यकत्व के ५ अतिचार
सम्यक्त्व के ५ अतिचार प्रवचनसारोद्धार में ( गाथा २७३ पत्र ६९-२ ) इस प्रकार कहे गये हैं
संका कंखा य तहा वितिमिच्छा अन्नतित्थिय पसंसा । परतित्थि श्रवसेवणमइयारा पंच सम्मते ॥
१ - शंका - जीवादिक नवतत्त्व के विषय में संशय करना ।
२- कंखा - अन्य दर्शनों से वीतराग के दर्शन की तुलना करना । ३ - वितिमिच्छा-मति भ्रम होने से फल पर संदेह करना । ४ - अन्य तीर्थिक की प्रशंसा करना ।
५ - अन्यतीर्थिक की सेवा करना ।
10:1
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आनन्द
3
वाणिज्य ग्राम' नामक ग्राम में जितशत्रु - नामक राजा राज्य करता था । उसी ग्राम में आनन्द नामक एक व्यक्ति रहता था । उवासगदसाओ में उसे 'गाहावई ” बताया गया है । इस 'गाहावई' के लिए हेमचन्द्राचार्य ने 'गृहपति' शब्द का प्रयोग किया है। यह 'गाहावई' शब्द जैनसाहित्य में कितने ही स्थलों पर आया है । सूत्रकृतांगसूत्र में उसकी टीका की गयी है कि
गृहस्य पतिः गृहपतिः
यह शब्द आचारांग में भी आया है, पर वहाँ केवल " गृहपतिः “ टीका दी गयी है । उत्तराध्ययन अ० १ में उसका अर्थ 'ऋद्धिमद्विशेष' लिखा है ।
१ - यह वाणिज्यग्राम वैशाली ( आधुनिक बसाद, जिला मुज्जफ्फर ) के निकट था । इसका आधुनिक नाम बनिया है । विशेष विवरण के लिए देखिए तीर्थंकर महावीर माग १, ५४७३, ६३ तथा उसमें दिया मानचित्र |
२- यह जितशत्रु श्रावक राजा था । राजाओं के प्रसंग में हमने उस पर पृथक रूप से विचार किया है ।
३ – वाणियगामे आणन्दे नामं गाहावई
—उवासगदसाओ, ( पी० एल० वैध सम्पादित ) पृष्ठ ४
४- त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ८, श्लोक २३७ पत्र १०७- १ तथा योगशास्त्र सटीक, तृतीय प्रकाश, श्लोक ३, पत्र २७५ -२
५- सूत्रकृतांगसटीक २४, सूत्र ६४, पत्र ११०२ ६ - आचारांग सटीक २२१११, पत्र ३०६-१
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श्रानन्द
४२३
ठाणांग में जहाँ चक्रवर्ती के १४ रत्न' गिनाये गये हैं, वहाँ एक रत्न 'गाहावईरयन' दिया है । उसकी टीका करते हुए टीकाकार ने लिखा है - ' कोष्ठागारनियुक्तः । ये चौदह रत्न जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में भी गिनाये गये हैं पर वहाँ टीकाकार 'गाहावई' शब्द की टीका ही नहीं दी है ।
चक्रवर्ती के रत्नों का प्रसंग जिनभद्रगणि-रचित वृहत्संगृहणी में भी आता है । वहाँ 'गाहावई' की टीका में उसके कर्तव्य आदि पर प्रकाश डाला गया है :
गृहपतिः - चक्रवर्त्तिगृह समुचितेतिकर्तव्यतापरो यस्त मित्रगुहायां खण्डप्रपात गुहायां च चक्रवर्तिनः समस्तस्यापि स्कन्धावारस्य सुखोत्तारयोग्य मुन्मग्नजलायां निमग्न जलायां वा नद्यां काष्ठमयं सेतुबन्धं करोति ।'
इस प्रसंग को चन्द्रसूरि-प्रणीत संग्रहणी में इस प्रकार व्यक्त किया गया है :
अन्नादिक के कोष्ठागार का अधिपति तथा चक्री-गृह का तथा सेना के लिए भोजन-वस्त्र-जलादि की चिंता करने वाला, पूरा करने वाला | सुलक्षण तथारूपवंत, दानशूर, स्वामिभक्त, पवित्रादि गुणवाला होता है । दिग्विजय आदि के प्रसंग में आवश्यकता पड़ने पर अनेक प्रकार के धान्य, शाक चर्मरत्न पर प्रातः बोता है और सन्ध्या समय काटता है ताकि सेना का सुखपूर्वक निर्वाह हो ।
१ – ठाणांगसूत्र सटीक उत्तरार्द्ध ठाणा ७, उद्देसा ३, सूत्र ५५८ पत्र ३६८-१ २- ठाणांगसूत्र सटीक उत्तरार्द्ध पत्र ३६६ - २ । समवायांग के १४ वें समवाय में जहाँ रत्न गिनाये हैं ( पत्र २७ - १ ) वहाँ भी गहवई की टीका में 'कोष्ठागारिकः ' लिखा है ।
३ - जम्बूद्वीपपज्ञप्ति, पूर्व भाग, पत्र २७६-१
४ - जिनभद्गणि क्षमाश्रमण-रचित वृहत्संगृहणी श्री मलयगिरि की टीका सहित, पत्र ११८-२
५ - बृहत्संग्रहणी गुजराती-अनुवाद के साथ ( बड़ौदा ) पष्ठ ५१७ ।
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तीर्थकर महावीर बौद्ध-ग्रन्थों में चक्रवर्ती के ७ रत्न बताये गये हैं (१) चक्ररत्न (२) हस्तिरत्न (३) अश्वरत्न (४) मणिरत्न (५) स्त्रीरत्न (६) गृहपतिरत्न और (७) परिणायकरत्न'
दीघनिकाय में कथा आती है कि एक बार एक चक्रवर्ती अपने गृहपति को लेकर नौका में बैठकर गंगा नदी की बीच धारा में जब पहुँचा तो गृहपति की परीक्षा लेने के लिए उसने गृहपतिरत्न से कहा-"गृहपति मुझे सोने-चाँदी की आवश्यकता है।" गृहपति ने उत्तर दिया-'तो महाराज ! नाव को किनारे पर ले चलें ।' तब चक्रवर्ती ने कहा-"गृहपति मुझे सोने-चाँदी की यही आवश्यकता है।” तब गृहपति ने दोनों हाथों से जल को छू सोने-चाँदी भरे धड़े निकाल कर राजा से पूछा--"क्या यह पर्यात है। क्या आप इतने से संतुष्ट हैं ?” चक्रवर्ती ने उत्तर दिया-"हाँ पर्यात है।
बौद्ध-ग्रन्थों में ही अन्यत्र चक्रवर्ती के चार गुणों वाले प्ररंग में भी चक्रवर्ती के गृहपति-परिषद् का उल्लेख किया गया है।
ऐसा ही उल्लेख चक्रवर्ती के रत्नों के प्रसंग में प्रवचनसारोद्धार में भी है । उसमें 'गाहावई' की टीका निम्नलिखित रूप में दी है :
चक्रवर्तिगृह समुचितेति कर्तव्यतापरः शाल्यादि सर्वधान्यानां समस्त स्वादुसहकारादि फलानां सकल शाक विशेषाणां निष्पादकश्च ४
त्रिषष्टिशलाकापुरुष में भरत चक्रवर्ती के दिग्विजय-यात्रा के प्रकरण में गृहपति का काम इस रूप में दिया है :
१-~-दीवनिकाय, हिन्दी-अनुवाद, पृष्ठ १५३-१५४ २--दीघनिकाय, हिन्दी-अनुवाद, पृष्ठ १५४-१५५ ३--दीघनिकाय, हिन्दी-अनुवाद पष्ठ १४३ ४-प्रवचनसारोद्धार सटीक द्वार २१२ पत्र ३५०-१
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आनन्द
४२५ सैन्ये प्रत्याश्रयं दिव्यभोजनापादनम् क्षमम् । अचालीद् गृहिरत्नं च सत्रशालेव व जङ्गमा ॥'
-जंगम अन्नशाला के समान और सेना के लिए हर एक मुकाम पर उत्तम भोजन उत्पन्न करने में समर्थ गृहपति रत्न ।
'गाहावई' का यह कर्तव्य केवल चक्रवर्तियों के ही यहाँ रहा हो, ऐसी बात नहीं है। मांडलिक राजाओं के यहाँ भी 'गृपति' ऐसा ही काम किया करते थे । भगवतीसूत्र की टीका में लिखा है :
गृहपतिः-माण्डलिको राजा तस्यावग्रहः-स्वकीयं मण्डल. मिति गृहपत्यवग्रहः
__ गृहपति शासन का एक अंग होता था, यह बात पालि-साहित्य से भी सिद्ध है । जातक में एक स्थल पर राजदरबार के व्यक्तियों के नाम आये हैं उनमें आमात्य, ब्राह्मण, आदि के साथ गृहपति का भी नाम आता है।
ऐसा ही उल्लेख दीघनिकाय में भी है उसमें भी आमात्य आदि के साथ गृहपति का उल्लेख है।
जैन-ग्रन्थों में बस इतना ही उल्लेख मिलता है कि आनन्द गृहपति था । गोपालदास जीवाभाई पटेल ने एक प्रसंग का अशुद्ध अर्थ निकाल
१-विषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १, सर्ग ४, श्लोक ४३ पा ६२-१ २-भगवतीसूत्र सटीक शतक १६, उद्देशा २, सूत्र ५६८ पत्र १२८८ ४-अमच्चा च ब्राह्मण गहपति श्रादयो च--
-खंड १, पष्ठ २६० तथा फिक-लिखित सोशल आर्गनाइजेशन इन नार्थ ईस्ट इंडिया' पृष्ठ १४२
५-..'अमच्चा पारिसज्जा नेगमा चेव जानपदा......"ब्राह्मण महासाला नेगमा चेव जानपदा......... 'गहपति नेचयिका नेगमा चेब जानपदा....
दीघनिकाय (पालि) भाग १, पृष्ठ ११७ हिन्दी अनुवाद पृष्ठ ५१
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४२६
तीर्थकर महावीर कर उसे ज्ञातृक्षत्रिय मान लिया है।' वह प्रसंग जिसकी ओर पटेल का ध्यान गया इस प्रकार है :
मित्त जाव जेट्टपुत्तं ... 'कोल्लाए संनिवेसे नायकुलंसि पोसहसालाए।
यहाँ मित्त जाव जेहपुत्तं का पूरा पाठ इस प्रकार लेना चाहिए :
मित्तनाइ नियग संबन्धि परिजणं आमन्तेत्ता त्तमित्तनाइ नियग संबंधि परिजणं विलेऊणं वत्थगंध मल्लालंकारेण य सकारत्ता संमाणेत्ता तस्सेव मित्त'....'जणस्य पुरो जेट्टपुत्त कुडुम्बे ठवेत्ता।
इस 'जाव' वाले पूरे पाठ का मेल पटेल ने कल्पसूत्र के उस पाठ से मिलाया जहाँ भगवान् महावीर के जन्मोत्सव में भोज का प्रसंग आया है। वहाँ पाठ है :
........ मित्त-नाइ-नियग-सयण संधि-परिजणं नायए खत्तिए.......४
यहाँ अर्थ समझने में पटेल ने भूल यह की कि, पहले तो कल्पसूत्र में 'नायए' के साथ आये 'खत्तिए' की ओर उनका ध्यान नहीं गया और इस 'नाय' को उन्होंने उवासगदसाओं में 'मित्त जाव जेट्टपुत्री' में जोड़ लिया
और दूसरी भूल यह कि उवासगदसाओ में जो 'नायकुलंसि' शब्द है, वह 'पोसहसाला' के मालिक होने का द्योतक है, इस ओर उन्होंने विचार नहीं किया ।
उवासगदसाओ में कोल्लाग में उसके सम्बन्धियों में होने का जो मूल पाठ है वह इस प्रकार है:
१-श्रीमहावीर कथा, पष्ठ २८६ २-उवासगदसाओ ( पी० एल० वैद्य-सम्पादित ) पढम अज्मयणं पष्ठ १५ - ३-वही ( वर्णकादिविस्तार ) पष्ठ १२६-१३० ४- कल्पसूत्र सुबोधिका टीका सहित पत्र २५०-२५१
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श्रानन्द
तत्थ णं कोल्लाए संनिवेसे आणन्दस्स गाहावइस्स बहुए मित्त-नाइ - नियग-सयण-संबंधि- परिजणे परिवसई
....
उस आनंद के पास ४ करोड़ हिरण्य निधान में था, ४ करोड़ हिरण्य वृद्धि पर दिया था तथा चार करोड़ हिरण्य के प्रविस्तार थे । इनके.. अतिरिक्त उसके पास ४ व्रज थे । हर व्रज में १० हजार गौएं थीं । *
उसकी इस सम्पत्ति की ओर ही लक्ष्य करके ठाणांग की टीका में उसके लिए 'महर्द्धिक" लिखा है ।
४२७
यह आनंद अपने नगर का बड़ा विश्वस्त व्यक्ति था । सार्थवाह तक सभी उससे बहुत से कार्यों में, कारणों में, कुटुम्बों में, गुह्य बातों में, रहस्यों में, निश्चयों में, और परामर्श लिया करते थे । वह आनंद ही अपने परिवार का आधारस्तम्भ था ।
उस आनन्द को शिवानंदा-नाम की भार्या थी ।
४ – उवासगदसाओ ( वैद्य - सम्पादित ) सूत्र ४, पृष्ठ ४ ।
५- ठाणांग, सटीक, पत्र ५०६-१ |
६ - पूरा पाठ इस प्रकार है:
राइसर से लेकर मंत्रणाओं में, व्यवहारों में,
१-
-उवासगदसाओ ( वैद्य - सम्पादित ) सूत्र ८, पृष्ठ ४ ।
२ - 'हिरण्य' शब्द पर हमने तीर्थङ्कर महावीर, भाग १ में पृष्ठ १८०-१८१ विचार किया है ।
३ - मूल शब्द यहाँ पवित्थर है । इसकी टीका करते हुए टीकाकार ने लिखा है:धनधान्यद्विपदचतुष्पदादिविभूति विस्तरः "
- गोरे-सम्पादित उवासगदसा, पृष्ठ १५२ ।
वह अत्यन्त रूप
राईसर तलवर माडम्बिय कोडम्बिय सेट्ठि सत्थवाह -उवासगदसाओ (वैद्य सम्पादित ) ० १ सूत्र १२, पृष्ठ ५
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४२८
तीर्थंकर महावीर
'वाली थी और पति-भक्ता थी । आनन्द गृहपति के साथ वह पाँच प्रकार 'के काम भोगों' को भोगती हुयी सुख पूर्वक जीवन बिता रही थी ।
उस वाणिज्य ग्राम के उत्तर-पूर्व दिशा में कोल्लाग - नामक सन्निवेश था । वह सन्निवेश बड़ा समृद्ध था । उस कोल्लाग - सन्निवेश में भी आनन्द के बहुत से मित्र, सम्बन्धी, आदि रहते थे ।
भगवान् महावीर ग्रामानुग्राम में विहार करते हुए, एक बार वाणिज्य ग्राम आये । वहाँ समवसरण हुआ और जितशत्रु राजा उस समवसरण में गया ।
भगवान् के आने की बात जब आनन्द को उसने भगवान् के निकट जाने और उनकी किया । अतः उसने स्नान किया, शुद्ध वस्त्र पहने, आभूषण पहने और
ज्ञात हुई तो महाफल वंदना करने का निश्चय
१ - श्रहीण पडिपुराण पञ्चिन्दिय सरीरा लक्खण वञ्जण गुणोववेया माम्माण पमाण पडिपुराण सुजाय सव्वङ्गसुन्दङ्गी ससिसोमाकारकंत पिय दंसणा सुरुवा । - औपपातिकमूत्र सटीक, सूत्र ७, पत्र २३
२ - पाँच प्रकार के कामगुण ठाणांगसूत्र में इस प्रकार बताये गये हैं:
पंच कामगुणा पं० तं० पद्दा रूवा गंधा रसा फासा
- ठाणांगसूत्र, ठाणा ५, उद्देसा १, सूत्र ३६०, पत्र २६१-१ ऐसा ही उल्लेख समवायांग में भी है। देखिये समवाय सटीक, सूत्र ५, पत्र १०-१३
३. जितशत्रु राजा के समवसरण में जाने और वंदना करने का उल्लेख हमने राजाओं के प्रकरण दे दिया हैं।
४. यह आनन्द भगवान् से छद्मावस्था में भी मिल चुका था । १० वें वर्षावास के समय जब भगवान् वाणिज्यग्राम आये थे तो उस समय आनन्द उससे मिला था और उसी ने भगवान् को सूचित किया था कि निकट भविष्य में केवलज्ञान की प्राप्ति होने वाली है । देखिये तीर्थंकर महावीर, भाग १, उसे अवधिज्ञान था । आवश्यकचूर्ण में उल्लेख है :
तत्थ आणंदो नाम समो श्रातावेति तस्स य
वासो छ छठे हिन्नाणं
उपपन्नं—
- आवश्यक चूर्णि भाग १, पत्र ३०० ।
तद्रूप ही नियुक्ति में भी एक गाथा है
।
भगवान् को पृष्ठ २१६ )
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आनन्द
४२६ अपने घर से निकल कर वाणिज्य ग्राम के मध्य में से पैदल चला । उसके साथ बहुत-से आदमी थे। कोरंट की माला से उसका छत्र सुशोभित था । वह दुइपलास चैत्य में पहुँचा, जहाँ भगवान् महावीर ठहरे हुए थे । बायें से दायें उसने तीन बार भगवान् की परिक्रमा की और उनकी वंदना की ।
भगवान् ने आनंद को और वहाँ उपस्थित जन समुदाय को धर्मं का उपदेश दिया । उपदेश सुनकर जनता और राजा अपने-अपने घर वापस चले गये ।
आनन्द भगवान् के उपदेश को सुनकर बड़ा संतुष्ट और प्रसन्न हुआ और उसने भगवान् से कहा - " भन्ते ! मैं निर्गथ प्रवचन में विश्वास करता हूँ । निर्गेथ प्रवचन से सन्तुष्ट हूँ । निर्गन्थ-प्रवचन सत्य है । वह मिथ्या नहीं है । पर मैं उसे मैं साधु होने में असमर्थ हूँ । मैं १२ गृहिधर्म - ५ 'अणुव्रत और ७ शिक्षाएँ - स्वीकार करने को तैयार हूँ । हे देवानुप्रिय आप इसमें प्रतिबंध न करें । "
१. श्रावकों के लिए ५ अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत बताये गये हैं । पंचाणुव्वतिते सत्त सिक्खावतित्ते दुवालसविधे सावगधम्मे । - ठाणांगसूत्र सटीक ठाण ६, उद्देशा ३. सूत्र ६६३, पत्र ४६० २ ठाणांगसूत्र में ५ अणुव्रत इस प्रकार बताए गये हैं. :
पंचाणुब्वत्ता पं० तं ० - थूलातो पाणांइवायातो वेरमणं थूलातो मुसावायातो वेरमणं थूलातो अदिन्नादाणातो वेरमणं सदार संतोसे इच्छा
. परिमाणे ।
- ठाणांगसूत्र सटीक ठाणा ५, उद्देशा १, सूत्र ३८६, पत्र, २०११ । इसी प्रकार व्रतों का उल्लेख नायाघम्मकहा में भी है ।
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४३०
तीर्थंकर महावीर उस आनन्द ने भगवान् महावीर के सामने स्थूलप्राणातिपाति प्रत्याख्यान किया और कहा-" मैं जीवन पर्यन्त द्विविध और त्रिविध मनवचन और काया से स्थूलप्रणातिपात (हिंसा ) न करूँगा और न कराऊँगा।"
उसके बाद उसने मृपावाद का प्रत्याख्यान किया और कहा"मैं यावज्जीवन द्विविध-त्रिविध मन-वचन-काया से स्थूल मृषावाद का आचरण न करूँगा और न कराऊँगा।
उसके बाद स्थूल अदत्तदान का प्रत्याख्यान किया और कहा"मैं यावज्जीवन द्विविध-त्रिविध मन-वचन-काया से न करूँगा और न कराऊँगा। _उसके बाद स्वपत्नी संतोष परिमाण किया और कहा--- "एक शिवानन्दा पत्नी को छोड़कर शेष सभी नारियों के साथ मैथुन-विधि का मन-वचन काया से प्रत्याख्यान करता हूँ।
उसके बाद इच्छा का परिणाम करते हुए उसने हिरण्य तथा सुवर्ण का परिणाम किया और कहा--"चार हिरण्य कोटि निधि में, चार हिरण्य कोटि वृद्धि में और चार हिरण्यकोटि धनधान्धादि के विस्तार में लगा है। उसके सिवा शेष हिरण्य-सुवर्ण विधि का त्याग करता हूँ।
उसके बाद चतुष्पद-विधि का परिमाण किया और कहा- "दस हजार गायों का एक ब्रज, ऐसे चार व्रज के सिवा बाकी चतुष्पदों का प्रत्याख्यान करता हूँ।"
फिर उसने क्षेत्र-रूप वस्तु का परिमाण किया और कहा-"केवल
पष्ठ ४२६ पाद टिप्पणि का शेर्षाश ।
वहाँ टीकाकार ने लिखा है-"अत्र त्रयाणां गुणवतानां शिक्षाव्रतेपु गणनात् सप्त शिक्षाव तानीत्युक्तम्'-तीन गुणब्रत तथा
चार शिदावत में मिला देने से शिक्षावत सात हो जायगा।
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आनन्द
४३१
५०० हल हल पीछे १०० नियट्टण ( निवर्तन ) " इतनी भूमि को छोड़
कर शेष भूमि का प्रत्याख्यान करता
फिर शकटों का परिमाण किया- "बाहर देशान्तर में जाने योग्य १० संवाहनिक शकट को छोड़कर शेष शकटों का
५०० शकट और प्रत्याख्यान करता हू
उसने फिर बाहनों का प्रत्याख्यान किया और कहा- - " देशान्तर में भेजे जाने योग्य चार वाहन और संवाहनिक चार वाहनों को छोड़कर शेष का प्रत्याख्यान करता हूँ ।"
ܘܘܤ
יין
फिर उपभोग- परिभोग विधि का प्रत्याख्यान किया और कहा" एक गंधकासाई' ( गंधकाषायी ) को छोड़कर शेष सभी उल्लणिया ( जललूपण वस्त्र - स्नानशारी ) का प्रत्यख्यान करता हूँ ।
१-- इसकी टीका टीकाकार ने इस प्रकार की है -- भूमि परिमाण विशेषो, देश विशेष प्रसिद्ध: । 'निवर्तन' शब्द का अर्थ मोन्योर - मोन्योर विलियम्स संस्कृत डिक्शनरी में दिया है -- २० राड या २०० क्यूबिट अथवा ४०००० वर्ग हस्त परिमाण का भूमि का माप [पृष्ठ ५६०] 'घासीलाल ने उवासगदसाओ के अनुवाद में इसका अर्थ बीघा किया है [ पृष्ठ २७१ ] और डा० जगदीशचन्द्र जैन ने 'लाइफ इन ऐंशेंट इंडिया' [ पृष्ठ १० ] में उसका अर्थ एकड़ कर दिया। यह दोनों ही भ्रामक हैं ।
बौधायन-धर्मसूत्र ( चौखम्भा संस्कृत सीरीज ) में पृष्ठ २२१ पर निवर्तन शब्द आया है । मत्स्यपुराण ( श्रानन्दाश्रम मुद्रणालय, पूना) में निवर्तन के सम्बन्ध में लिखा है
1
दंडेन सप्तहस्तेन त्रिंशदण्डं निवर्तनम्
- अध्याय २८४, श्लोक १३, पृष्ठ ५६६ हेमाद्रि-रचित चतुर्वर्ग चिंतामणि (दान- खंड, भरतचन्द्र शिरोमणिसम्पादित, एशियाटिक सोसाइटी व बंगाल, कलकत्ता, सन् १८७३ ) में इस सम्बन्ध में मारकण्डेय पुराण का भी एक उद्धरण दिया है :दशहस्तेन दंडेन त्रिंशहंडा निवर्तनम् ।
दश तान्येव गोचर्म्म ब्राह्मणेभ्यो ददातियः ॥
२ - गन्धप्रधाना कषायेण रक्ता शाटिका गन्धकाषायी तस्याः
-उवासगदसाओ सटीक पत्र ४-२
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४३२
तीर्थकर महावीर फिर दातुन-विधि का परिमाण किया और कहा-एक आर्द्र यष्टिमधु (मधुयष्टि) को छोड़कर शेष सभी दातूनों का प्रत्याख्यान करता हूँ।"
फिर फल-विधि का परिणाम किया और कहा--- "एक क्षीरामलक' फल को छोड़कर शेष सभी फलों का परित्याग करता हूँ।"
फिर अभ्यंग-विधि का परिमाण किया और कहा-'शतपाक और सहस्रापाक तेल को छोड़कर शेष अभ्यंगविधि का प्रत्याख्यान करता हूँ।"
फिर उद्वर्तनाविधि ( उवटन ) का परिमाण किया और कहा"सुगंधि गंधचूर्ण के सिवा अन्य उद्वर्तन विधि का त्याग करता हूँ।
उसके बाद उसने स्नान-विधि का परिभाषा किया और कहा"आठ औष्ट्रिक ( घड़ा) पानी के सिवा अधिक पानी से स्नान का. प्रत्याख्यान करता हूँ।"
फिर उसने वस्त्र विधि का परिमाण किया और कहा-"एक क्षौमः युगुल को छोड़ कर शेष सभी वस्त्रों का प्रत्याख्यान करता हूँ।"
उसके बाद उसने विलेपन-विधि का परिमाण किया और कहा"अगर, कुंकुम, चंदन आदि को छोड़ कर मैं शेष सभी का प्रत्याख्यान करता हूँ।
फिर उसने पुष्प-विधि का परिमाण किया और कहा-"एक शुद्ध पद्म और मालती की माला छोड़ कर मैं शेष पुष्प-विधि का प्रत्याख्यान करता हूँ।"
उसने आभरण-विधि का परिमाण किया--"एक कार्णेयक ( कान का आभूषण ) और नाम-मुद्रिका को छोड़कर शेष अलंकारों का त्याग करता हूँ।"
३-अबद्धास्थिक क्षीरमिव मधुरं वा यदामलकं तस्मादन्यत्र (मीठा प्रामला)
-उवासगदसाश्रो सटीक, पत्र ४-२
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अानन्द
४३३ उसने धूप-विधि का परिमाण किया और कहा-"अगरु, तुरुक्क धूपादि को छोड़कर शेष सभी धूप-विधि का प्रत्याख्यान करता हूँ। .
उसने भोजन-विधि का परिमाग करके पेयविधि का परिमाण किया और कहा-"काष्ठपेया' को छोड़कर शेष सभी पेयविधि का प्रत्याख्यान करता हूँ।
उसने भक्ष्य-विधि का परिमाग किया और कहा-“घयपुण्ण और खण्डखज्ज को छोड़कर अन्य भक्ष्य-विधि का प्रत्याख्यान करता हूँ।"
उसने ओदन-विधि का परिमाग किया और कहा--- "कलम शालि को छोड़कर मैं अन्य सभी ओदनविधि का परित्याग करता हूँ।"
उसने सूप-विधि का परिमाण किया और कहा-“कलाय-सूप और मूंग-माष के सूप को छोड़कर शेष सभी सूपों का प्रत्याख्यान करता हूँ।"
उसने-घृत विधि का प्रत्याख्यान किया और कहा-"शरद ऋतु के घी को छोड़कर शेष सभी घृतों का प्रत्याख्यान करता हूँ।"
उसने शाक-विधि का प्रत्याख्यान किया-'चच्चू , सुत्थिय तथा मंडुक्किय शाक को छोड़कर शेष शाकों का प्रत्याख्यान करता हूँ।"
उसने माधुरक-विधि परिमाण किया--"पालंगामाधुरक को छोड़कर शेष सभी माधुरक-विधि का प्रत्याख्यान करता हूँ।"
उसने भोजन-विधि का परिमाण किया-"सेधाम्ल और दालिकाम्ल को छोड़कर शेष सभी जेमन-विधि का प्रत्याख्यान करता हूँ।"
उसने पानी विधि का परिमाण किया--"एक अंतरिक्षोदक पानी को छोड़कर शेष सभी पानी का परित्याग करता हूँ।" ।
१-कट्टपेज्जत्ति मुद्गादि यूषो घृततलित तण्डुलपेया वा ।
--उवासगदसाश्रो सटीक, पत्र ५-१
૨૮
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तीर्थकर महावीर उसने मुखवास-विधि का परिमाण किया और कहा- "पंचसौगंधिक ताम्बूल छोड़कर शेष सभी मुखवास विधि का प्रत्याख्यान करता हूँ।"
उसने चार प्रकार के अनर्थदंड का प्रत्याख्यान किया । वे अनर्थदंड हैं-१ अपध्यानाचरित, २ प्रमादाचरित ३ हिंस्रप्रदान ४ पाप कर्म का उपदेश ।
फिर, भगवान् महावीर ने आनन्द श्रावक से कहा--" हे आनंद जो जीवाजीव तत्त्व का जानकार है और जो अपनी मर्यादा में रहने वाला श्रमणोपासक है,उसे अतिचारों को जानना चाहिए; पर उनके अनुरूप आचरण नहीं करना चाहिए । इस प्रकार भगवान् ने अतिचार बताये, हम उन सब का उल्लेख पहले श्रावक धर्म के प्रसंग (पृष्ठ ३७४-४२१ ) में कर चुके हैं।
इसके बाद आनंद श्रावक ने भगवान् के पास ५ अगुव्रत और ७ शिक्षाक्त श्रावकों के १२ व्रत ग्रहण किये और कहा
"हे भगवान् ! राजाभियोग, गणाभियोग, बलाभियोग, देवताभियोगगुरुनिग्रह और वृत्ति कांतार' इन ६ प्रसंगों के अतिरिक्त आज से अन्य
१-एला लवङ्ग कपूर कक्कोल जातीफल लक्षणैः सुगन्धिभिव्यरभिसंस्कृतं पंचसौगन्धिकर ।
-ऊवासगदसाओ सटीक, पत्र ५.१ २-'नन्नत्थ रायाभियोगेणं' ति न इति-न कल्पते योऽयं निषेधः सोऽन्यत्र राजाभियोगात् तृतीयायाः पञ्चभ्यर्थत्वात् राजाभियोगं वर्जयिवेत्यर्थः । राजाभियोगस्तु-राजपरतन्त्रता गणः-समुदायस्तदभियोगः गणाभियोगस्तस्माद्बलाभियोगो नाम राजगणव्यतिरिक्तस्य बलवतः पारतंत्र्य, देवताभियोगो—देवपरतन्त्रता, गुरुनिग्रहो-माता पितृ पारबश्य, गुरुणां वा चत्य साधूनां निग्रहः--प्रत्यनीक कृतोपद्वो गुरुनिग्रहस्तत्रोपस्थितेतद्रक्षार्थ अन्ययूथिकादिभ्यो दददपि नाति कामति सभ्यकत्वामिति, 'वित्तिकांतारेणं' ति वृत्तिः जीविका तस्याः कान्तारं अरण्यं
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आनन्द
४३५ तौर्थिकों का और अन्यतीर्थिकों के देवताओं का और अन्यतीर्थिकों को स्वीकृत अरिहंत चैत्य ( प्रतिमा ) का वंदन - नमन नहीं करूँगा ।
यहाँ 'चैत्य' शब्द आया है । हमने भगवान् के ३१ - वें वर्षावास वाले प्रसंग मैं ( पृष्ठ २२५ ) और इस अध्याय के अन्त ( पृष्ठ ४४२ ) 'चैत्य' शब्द पर विशेष विचार किया है ।
में
"पहिले उनके बिना बोले उनके साथ बोलना या पुनः पुनः वार्तालाप करना; उन्हें गुरु- बुद्धि से अशन, पान, खादिम, स्वादिम देना मुझे नहीं कल्पता ।"
" राजा के अभियोग से, गण के अभियोग से, बलवान के अभियोग से, देवता के अभियोग से, गुरु आदि के निग्रह ( परवशता ) से और वृत्तिकान्तार से ( इन कारणों के होने पर ही ) देना कल्पता है ।"
"निर्गन्थ श्रमणों को प्रासुक एषणीय, अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, कम्बल, प्रतिग्रह ( पात्र ), पाद-पोंछन, पीठ, फलक, शय्या, संस्तार, औषध, भैषज, प्रतिलाभ कराते हुए विचरना मुझे कल्पता है । "
इस प्रकार कहकर उसने इसका अभिग्रह लिया, फिर प्रश्न पूछे, प्रश्न पूछकर अर्थ को ग्रहण किया, फिर श्रमण भगवान् की तीन बार वन्दना की ।
वंदन करने के बाद श्रमण भगवान् महावीर के समीप से दूतिपलाश चैत्य के बाहर निकला, निकल कर जहाँ वाणिज्यग्राम नगर और जहाँ उसका घर था, वहाँ आया । आकर अपनी पत्नी शिवानन्दा से इस प्रकार
पृष्ठ ४३४ पाद टिप्पणि का शेषांश ।
तदिव कान्तारं क्षेत्र कालो वा वृत्तिकान्तारं निर्वाहमभाव इत्यर्थः तस्मादन्यत्र निषेधो दान प्रदानादेरिति प्रकृतिमिति
कीर्तिविजय उपाध्याय रचित विचाररत्नाकर पत्र ६६-२ । उपासकदशांग सटीक पत्र १३ -२ तथा उपासकदशांग ( मूल और टीका के गुजराती अनुबादसहित ) पत्र ४४ - २ में इसे अधिक स्पष्ट किया गया है ।
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४३६
तीर्थकर महावीर कहने लगा- "हे देवानुप्रिये ! मैंने श्रमण भगवान् महावीर के समीप धर्म सुना और वह धर्म मुझे इष्ट है। वह मुझे बहुत रुचा है । हे देवाना प्रिये ! इसलिए तुम भी जाओ। श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना करो यावत् पर्युपासना करो और श्रमण भगवान् महावीर से पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत इस प्रकार बारह गृहस्थ-धर्म स्वीकार करो।"
आनंद श्रावक का कथन सुनकर उसकी भार्या शिवानन्दा हृष्ट-तुष्ट हुई । उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर शीघ्र व्यवस्था करने के लिए आदेश दिया।'
शिवानन्दा भगवान् के निकट गयी। भगवान् महावीर ने बड़ी परिषदा में यावत् धर्म का कथन किया। शिवानंदा श्रमण भगवान् महावीर के समीप धर्म श्रवण करके और हृदय में धारण करके हृष्ट-तुष्ट हुई । उसने भी गृहस्थ-धर्म को स्वीकार किया । फिर, वह घर वापस लौटी।
उसके बाद गौतम स्वामी ने भगवान् से पूछा- "हे भगवन् ! क्या आनंद श्रावक आप के समीप प्रव्रजित होने में समर्थ है ?"
इस पर भगवान् ने उत्तर दिया--"हे गौतम ! ऐसा नहीं है, आनन्द श्रावक बहुत वर्षों पर्यन्त श्रावकपन पालन करेगा । और, पालन करके सौधर्मकल्प के अरुणाभ-विमान में देवता-रूप से उत्पन्न होगा। वहाँ देवताओं की स्थिति चार पल्योपम कही गयी है। तदनुसार आनंद श्रावक की भी चार पल्योपम की स्थिति वहाँ होगी।
आनंद श्रावक जीव-अजीव को जानने वाला यावत् प्रतिलाभ करता हुआ रहता था। उसकी भार्या शिवानंदा भी श्राविका होकर जीव-अजीव को जानने वाली यावत् प्रतिलाभ ( दान ) करती हुई रहती
१-खिप्पामेव · पिज्जूवासइ वाला परा पाठ उपासक दशांग सटीक, अ०७, पत्र ४३-१ से ४३-२ तक में है। 'भगवान् महावीर का दश उपासको' में बेचरदास ने उक्त अंश को पूरा-का-परा छोड़ दिया है। हमने भी ७३ श्रावक के प्रसंग में उसका सविस्तार वर्णन किया है । ( देखिए पृष्ठ ४७६ )
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आनन्द
४३७ थी। आनंद श्रावक को अनेक प्रकार शीलवत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान, पोषधोपवास से आत्मा को संस्कार युक्त करते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गये । पन्द्रहवाँ वर्ष जब चल रहा था, तो एक समय पूर्व रात्रि के अपर समय में ( उत्तरार्द्ध में ) धर्म का अनुष्ठान करते-करते इस प्रकार का मानसिक संकल्प आत्मा के विषय में उत्पन्न हुआ----"मैं वाणिज्यग्राम नगर में बहुतों का; राजा, ईश्वर यावत् आत्मीय जनों का आधार हूँ। इस व्यग्रता के कारण मैं श्रमण भगवान् महावीर के समीप की धर्मप्रज्ञप्ति को स्वीकार करने में असमर्थ हूँ। इसलिए यह अच्छा होगा कि, सूर्योदय होने पर विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य सगे-सम्बन्धी आदि को जिमा कर पूरण श्रावक की तरह यावत् ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करके मित्रों यावत् ज्येष्ठ पुत्र से पूछकर कोल्लागसन्निवेश में ज्ञातकुल की पोषधशाला का प्रतिलेखन कर श्रमण भगवान् महावीर के समीप की धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार करके विचरूँ !' उसने ऐसा विचार किया, विचार करके दूसरे दिन मित्र आदि को विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य जिमाने के बाद पुष्प, वस्त्र, गंध, माला और अलंकारों से उनका सत्कार-सम्मान किया ।
उसके बाद उसने अपने पुत्र को बुलाकर कहा-“हे पुत्र ! मैं वाणिज्य ग्राम नगर में बहुत से राजा ईश्वर आदि का आधार हूँ। मैं अब कुटुम्ब का भार तुम्हें देकर विचरना चाहता हूँ। आनन्द श्रावक के पुत्र ने अपने पिता का वचन स्वीकार कर लिया। आनंद श्रावक ने पूरण के समान' अपने पुत्र को कार्यभार सौंप दिया और कहा कि भविष्य में मुझसे किसी सम्बन्ध में बात न पूछना।
१-'जहा पूरणो' ति भगवत्यभिहितो बाल तपस्वी स यथा स्वस्थाने पुत्रादि स्थापनम करोत्तथाऽयं कृतवानित्यर्थ :
-कीर्तिविजय-रचित विचाररत्नाकर, पत्र ७०-२ यह कथा भगवतीसत्र सटीक शतक ३, उद्देशा २, सत्र १४३, पत्र ३०४-३०५ में आती है।
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तीर्थकर महावीर तदनन्तर आनन्द श्रावक सबसे आज्ञा लेकर घर से निकला और कोल्लाग सन्निवेश में पोषधशाला में गया । पहुँचकर पोषधशाला को पूँजा, पूँज कर उच्चार प्रस्रवण भूमि ( पेशाब करने की भूमि की और शौच जाने की भूमि की) की पडिलेहणा की। पडिलेहणा करके दर्भ के संथारे को बिछाया । फिर दर्भ के संथारे पर बैठा। वहाँ वह भगवान् महावीर के पास की धर्मप्रज्ञप्ति को स्वीकार कर विचरने लगा।
फिर आनन्द श्रावक ने श्रावक की ११ प्रतिमाओं को स्वीकार किया, उसमें से पहली प्रतिमा को सूत्र के अनुसार, प्रतिमा-सम्बन्धी कल्प के अनुसार, मार्ग के अनुसार, तत्त्व के अनुसार, सम्यक् रूप से उसने काय द्वारा ग्रहण किया तथा उपयोग पूर्वक रक्षण किया। अतिचारों का त्याग करके विशुद्ध किया। प्रत्याख्यान का समय समाप्त होने पर भी, कुछ समय तक स्थित रहकर पूरा किया। इस प्रकार आनन्द श्रावक ने ग्यारहों प्रतिमाएँ स्वीकार की।
इस प्रकार की तपस्याओं से वह सूख गया और उसकी नस-नस दिखलायी पड़ने लगी। ।
___ एक दिन धर्मजागरण करते-करते उसे यह विचार उत्पन्न हुआ-- "मैं इस कर्तव्य से अस्थियों का पिंजर मात्र रह गया हूँ। तो भी मुझमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार, पराक्रम, श्रद्धा, धृति और संवेग हैं । अतः जब तक ये उत्थान आदि मेरे में हैं, तब तक कल सूर्योदय होने पर अपश्चिम मरणान्तिक संलेखना को जोपणा से जूपित होकर भक्तपान का प्रत्याख्यान करके मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विचरना ही मेरे लिए श्रेयस्कर है।"
पश्चात् आनन्द श्रावक को किसी समय शुभ अध्यवसाय से, शुभ परिणाम से और विशुद्ध होती हुई लेश्याओं से अवधिज्ञान को आवरण करने वाले क्षयोपशम हो जाने से अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ और वह पूर्व दिशा मैं लवण समुद्र के अन्दर पाँच सौ योजन क्षेत्र जानने और देखने लगा--इसी
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प्रानन्द
४३६
प्रकार दक्षिण में और पश्चिम में । उत्तर में क्षुल्ल हिमवंत पर्वत को जानने और देखने लगा, उर्व में सौधर्मकल्पतक जानने और देखने लगा । अधोदिशा में चौरासी हजार स्थिति वाले लोलुप' नरक तक जानने और देखने लगा।
उस काल में और उस समय में भगवान् महावीर का समवसरण हुआ। परिषदा निकली । वह वापस चली गयी। उस काल, उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठय शिष्य इन्द्र भूति सात हाथ की अवगाहना वाले, समचतुरंस संथान वाले, वज्रर्षभनाराच सघयण वाले नुवर्ण, पुलक, निकष और पद्म के समान गोरे, उग्रतपस्वी, दीप्त तपवाले, घोर तपवाले, महा तपस्वी, उदार, गुणवान, घोर तपस्वी, घोर ब्रह्मचारी, उत्सृष्ट शरीर वाले अर्थात् शरीर संस्कार न करने वाले, संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्या धारी षष्ठ षष्ठ भक्त के निरन्तर तपः-कर्म से, संयम से
और अनशनादि बारह प्रकार की तपस्या से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। तब गौतम स्वामी ने छह खमण के पारणे के दिन पहली पोरसी में स्वाध्याय किया दूसरी पोरसी में ध्यान किया और तीसरी पोरसी में धीरे-धीरे, अचपल रूप में, असम्मान होकर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना
१. प्रज्ञापनासूत्र सटीक, पद २ सूत्र ४२, पत्र ७६-२ में नरकों की संख्या ७ बतायी गयी है । वहाँ पाठ आता है:
रयणप्पभाए, सक्करप्पभाए, बालुकप्पभाए, पंकप्पभाए, धूमप्पभाए, तमप्पभाए, तमतमप्पभाए। ___इसमें रयणप्पभा ( रत्न प्रभा) में ६ नरकावास हैं। ठणांग सूत्र में पाठ आता है:
जम्बू दीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स य दाहिणेण मिमीसे रतणप्पभाते पुढवीए छ अवकत महानिरता पं० तं० लोले १, लोलुए २, उदड्डे ३, निदड्डे ४, जरते ५, पज्जरते ६ । ___-ठाणांगसूत्र सटीक, उत्तरार्द्ध, ठा०६, उ० ३, स० ५१५ पत्र ३६५.२ ।
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४४०
तीर्थकर महावीर
की, उसके बाद पात्रों और वस्त्र की प्रतिलेखन की, प्रतिलेखना करके वस्त्र-पात्रों का प्रमार्जन किया, प्रमार्जना करके पात्रों को ग्रहण किया और उसे लेकर भगवान् महावीर के निकट गये । और भिक्षा के लिए जाने की अनुमति माँगी । भगवान् ने कहा--"जिसमें सुख हो वैसा करो।" तब गौतम स्वामी चैत्य से बाहर निकले और वाणिज्य ग्राम नगर में पहुँचे और भिक्षाचर्या के उत्तम मध्यम और निम्न कुलों में भ्रमण करने लगे। भिक्षा ग्रहण करके लौटते हुए जब वह कोल्लागसन्निवेश के समीप जा रहे थे, तो उन्होंने लोगों को परस्पर बात करते सुना-"देवानुप्रियो ! श्रमण भंगवान् महावीर के शिष्य आनन्द श्रावक पोषधशाला में अपश्चिम यावत् मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विचरते हैं।' ऐसा सुनकर गौतम स्वामी को आनन्द को देखने की इच्छा हुई। ... वह वहाँ गये तो उन्हें आते देखकर आनंद श्रावक ने कहा- "भगवन् इस विशाल प्रयत्न से यावत् नस-नस रह गया हूँ। अतः देवानुप्रिय के समीप आकर वंदन-नमस्कार करने में असमर्थ हूँ। आप यहाँ पधारिये तो मैं आपका वंदन-नमस्कार करूँ ।” .. गौतम स्वामी वहाँ गये तो वंदन-नमस्कार के पश्चात् गौतम स्वामी से आनंद ने पृछ।'--'हे देवानुप्रिय ! क्या गृहस्थ को अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है ?” गौतम स्वामी ने कहा-----"हाँ! हो सकता है ।” उसके बाद आनंद श्रावक ने गौतम स्वामी को अपने अवधिज्ञान की सूचना दी
और उस क्षेत्र को बताया जितनी दूर वह देख सकता था। इस पर गौतम स्वामी ने कहा-"आनंद ! गृहस्थ को अवधिज्ञान हो सकता है; पर इतना क्षेत्र वह नहीं देख सकता। इसलिए तुम आलोचना करो और तपस्या स्वीकार करो।" आनन्द ने यह सुन कर पूछा--"भगवन् ! क्या जिन-प्रवचन में सत्य, तात्त्विक, तथ्य और सद्भूत विषयों में भी आलोचना की जाती है ।” गौतम स्वामामी ने उसका नकारात्मक उत्तर दिया ।
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आनन्द
४४१
तत्र, आनंद ने कहा- "तब तो भगवन् आप ही आलोचना कीजिये यावत् तपः- कर्म स्वीकार कीजिये ।"
शंकित गौतम स्वामी वहाँ से चल कर भगवान् के निकट आये और भगवान् से आनंद श्रावक के अवधिज्ञान प्राप्त होने की बात पूछी । भगवान् ने उसकी पुष्टि की और कहा - " हे गौतम ! तुम्हीं उस स्थान के विषय में आलोचना करो और इसके लिए आनंद श्रावक को खमाओ ।" गौतम स्वामी ने तद्रूप ही किया ।
अंत में आनंद श्रावक ने बहुत से शील- व्रत आदि से भावित करके, बीस वर्ष पर्यन्त श्रावक धर्म पाल कर, ११ प्रतिमाओं का भली भाँति पालन कर, एक मास की आत्मा को जूषित कर, अनशन द्वारा साठ भक्तों का त्याग प्रतिक्रमण करके समाधि को प्राप्त होकर काल समय में करके, सौधर्मावतंसक महाविमान के ईशान कोण में स्थित में देव पर्याय से उत्पन्न हुआ ।
१. उवास गदसाओ, अध्ययन १.
एक बार गौतम स्वामी ने पूछा - "हे भगवन् ! वहाँ से च्यव कर आनन्द श्रावक कहाँ उत्पन्न होगा ?" भगवान् ने कहा - "वह महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर उसी भव में सिद्ध होगा ।" "
आत्मा को श्रावक की संलेखना से
कर आलोचना
काल को प्राप्त अरुण विमान
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'चैत्य' शब्द पर विचार
उवासगदसाओ में पाठ आता है.-'अरिहंत चेझ्याई ।' हार्नल ने जो ‘उवासगदसाओ' सम्पादित किया उसमें मूल में उन्होंने यह पाठ निकाल दिया । और, पादटिप्पणि में पाठान्तर रूप से उसे दे दिया ( पृष्ठ २३ )। यद्यपि हार्नेल ने मूल पाठ से उक्त पाठ तो निकाल दिया, पर टीका में से निकालने की वह हिम्मत न कर सके और वहाँ उन्होंने टीका दी है-'चैत्यानि अर्हत्प्रतिमालक्षणानि (पृष्ठ २४)। मूल में से उन्होंने यह पाठ निकाला क्यों, इसका कारण उन्होंने अपने अंग्रेजी-अनुवाद वाले खंड की पादटिप्पणि में दिया है--उनका कहना है कि, यदि यह मूलग्रंथ का शब्द होता तो 'चेइयाणि' होता और तब 'परिग्गहियाणि' से उसका मेल बैटता। पर, यहाँ पाठ 'चेइयाणि' के बजाय 'चेइयं' है । इस कारण यह सन्देहास्पद है ( पृष्ठ ३५ ) । पर, हार्नेल को यह ध्यान में रखना चाहिए था कि यह गद्य है, पद्य अथवा गाथा नहीं है कि तुक मिलना आवश्यक होता।
दूसरी बात यह कि, यद्यपि हानल ने ८ प्रतियों से ग्रन्थ सम्पादित किया; पर सभी प्रतियाँ उनके पास सदा नहीं रहीं। और, सब का उपयोग हार्नेल पूरी पुस्तक में एक समान नहीं कर सके | इस कारण पाट मिलाने में हार्नेल के स्रोतों में ही बड़ा वैभिन्न रहा । पर, यदि हार्नेल ने जरा भी गद्य-पद्य की ओर ध्यान दिया होता तो यह भूल न होती। जब टीका में हार्नेल ने इस पाठ का होना स्वीकार किया तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि टीकाकार के समय में यह पाठ मूल में था—नहीं तो वह टीका क्यों करते ? और, टीकाकार के समय में यह पाठ था तो हार्नेल, को ऐसी कौनसी प्रति मिली जो टीकाकार के काल से प्राचीन और प्रामाणिक हो । यह
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'चैत्य' शब्द पर विचार
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पाठ औपपातिक में भी आता है । हार्नेल ने उस ग्रंथ से मिलाने का भी प्रयास नहीं किया ।
हार्नेल ने जो यह पाठ निकाला तो अंग्रेजी पढ़े-लिखे जैन- साहित्य में काम करने वालों ने भी उनकी ही नकलमात्र करके पुस्तकें सम्पादित कर दी और पाठ कैसा होना चाहिए इस पर विचार भी नहीं किया । पी० एल० वैद्य और एन्० ए० गोरे इसी अनुसरणवाद के शिकार हैं।
दूसरों की देखा-देखी बेचरदास ने भी 'भगवान् महावीर ना दश उपासकों' नामक उवासगदसाओ के गुजराती - अनुवाद में चेहयाई वाला पाट छोड़ दिया (पृष्ठ १४ ) ।
'पुष्प भिक्खु' ने सुत्तागमे ४ भागों में प्रकाशित कराया। उसके चौथे भाग में उवासगदसाओ है । पृष्ठ ११३२ पर उन्होंने यह पाठ निकाल दिया है | पर, पुष्षभिक्खु हार्नेल के प्रभाव से परे थे । चैत्य का अर्थ मूर्ति है, और मूर्ति नाम जैनागम में आना ही न चाहिए, इसलिए उन्हें सर्वोत्तम यही लगा कि, जब पाठ ही न होगा तो लोग अर्थ क्या करेंगे । हमने अपने इसी ग्रंथ में पुष्पभिक्खु की ऐसी अनधिकार चेष्टाओं की ओर कुछ अन्य स्थलों पर भी पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया है । यहाँ हम बता दें कि उनके पूर्व के स्थानकवासी विद्वान भी उवासगदसाओ में इस पाठ का होना स्वीकार करते हैं
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(२) अर्द्ध मागधी कोष, भाग २, पृष्ठ ७३८ में रतनचंद्र ने इस पाठ को स्वीकार किया है ।
(३) घासीलाल जी ने भी 'चेइयाई' वाला पाठ स्वीकार किया है ( पृष्ठ ३३५ )
पर, रतनचंद्र और घासीलाल जी ने चैत्य शब्द का अर्थ यहाँ साधु किया है ।
'चैत्य' शब्द केवल जैनों का अकेला शब्द नहीं है । संस्कृत-साहित्य
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तीर्थकर महावीर में और पालि में भी इसके प्रयोग मिलते हैं। अतः उसके अर्थ में किसी प्रकार का हेर-फेर करना सम्भव नहीं है। ___चैत्य-शब्द का प्रयोग किस रूप में प्राचीन साहित्य में हुआ है, अब हम यहाँ उसके कुछ उदाहरण देंगे।
धार्मिक साहित्य (संस्कृत) बाल्मीकीय रामायण (१) चैत्यं निकुंभिलामद्य प्राप्य होमं करिष्यति
___युद्धकाण्ड, सर्ग ८४, श्लोक १३, पृष्ठ २३८ इन्द्रजीत निकुंभिला देवी के मंदिर में यज्ञ करने बैठा है।
(शास्त्री नरहरि मग्नलाल शर्मा-कृत गुजराती-अनुवाद) भाग २, पृष्ठ १०९८ । (२) निकुम्भिलामभिययौ चैत्यं रावणिपालितम्
-युद्ध काण्ड, सर्ग ८५, श्लोक २९, पृष्ठ २४० लक्ष्मण रावणपुत्र की रक्षा करने वाले निकुम्भिला के मन्दिर की ओर जा निकले।
-गुजराती-अनुवाद, पृष्ठ १०९९ इसी रूप में 'चैत्य' शब्द वाल्मीकीय रामायण में कितने ही स्थलों पर आया है। विस्तारभय से हम यहाँ सभी पाठ नहीं दे रहे हैं।
महाभारत शुचिदेशयनड्वानं देवगोष्ठं चतुष्पथम् । ब्राह्मणं धार्मिक चैत्यं, नित्यं कुर्यात् प्रदक्षिणाम् ॥
-शांतिपर्व, अ० १९३ आचार्य नीलकंठ ने 'चैत्य' की टीका देवमन्दिर की है।
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'चैत्य' शब्द पर विचार
वृद्धहारीतरमृति बिम्बानि स्थापयेद् विष्णोामेषु नगरेषु च । चैत्यान्यायतनान्यस्य रम्याण्येव तु कारयेत ॥ इतरेषां सुराणां च, वैदिकानां जनेश्वरः । धर्मतः कारयेच्छश्वच्चैत्यान्यायतनानि तु ॥
इनके अतिरिक्त गृह्यसूत्रों में भी चैत्य शब्द आया है। आश्विलायन गृह्यसूत्र में पाठ है। चैत्ययज्ञ प्राक् स्विष्टकृतश्चैत्याय बलिं हरेत
-अ० १ खं० १२ सू. १ इसकी टीका नारायणी-वृत्ति में इस प्रकार दो है :
चैत्ये भवश्चैत्यः यदि कश्चिद्देवतायै प्रतिशृणोति । शंकरः पशुपतिः आर्या ज्येष्ठा इत्येवमादयो यद्यात्मनः अभिप्रेतं वस्तु लब्धं ततस्त्वामहमाज्येन स्थालिपाकेन पशुना वा यक्षामीति"
बौद्ध-साहित्य
बौद्ध-ग्रंथ ललितविस्तरा में आया है कि जिस स्थल पर छन्दक को बुद्ध ने आभरण आदि देकर वापस लौटाया था, वहाँ चैत्य बनाया गया । उस चैत्य को छन्दक-निवर्तन कहते हैं।
यत्र च प्रदेशे छन्दको निवृत्तस्तत्र चैत्यं स्थापितमभूत् । अद्यापि तच्चैत्यं छन्दकनिवर्तनामति ज्ञायते
—पृष्ठ १६६ पाली
इसी प्रकार जब बुद्ध ने अपना चूड़ामणि ऊपर फेंका तो वह योजन भर ऊपर जाकर आकाश में ठहर गया। शक ने उस पर चूड़ामणि-चैत्व की स्थापना की। तावतिसंभवने चूळामणि चेतियं नाम पतिठ्ठापेसि
- जातककथा (पालि ) पृष्ठ ४९
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तीर्थकर महावीर बौद्ध-साहित्य में चैत्य शब्द का मूल अर्थ ही पूजा-स्थान है । बुद्धिस्टहाइब्रिड-संस्कृत-डिक्शनरी भाग २ में दिया है—सीम्स टु बी यूज्ड मोर ब्राडली दैन इन संस्कृत---एज एनी आब्जेक्ट आव वेनेरेशन (पृष्ठ २२३)
इतर साहित्य कौटिल्य अर्थशास्त्र
(१) पर्वसु च वितदिच्छत्रोल्लोमिकाहस्तपताकाच्छा गोपहारैः चैत्य पूजा कारयेत-कौटिल्य अर्थशास्त्र (मूल) पुष्ट २१० ।
(२) दैवत चैत्यं-वही, पृष्ठ २४४ ।
इसका अर्थ डाक्टर आर० श्यामा शास्त्री ने 'टेम्पुल' देवालय किया है ( पृष्ठ २७३ )।
(३) चैत्य दैवत्-वही, पृष्ठ ३७९ । इसका अर्थ डाक्टर शास्त्री ने 'आल्टर्स' लिखा है ( पृष्ठ ४०८ )
(४) प्रश्य पाश चैत्यमुपस्थाप्य दैवतप्रतिमाच्छिद्र प्रविश्यासीत् ( पृष्ठ ३९३ )।
इस पाठ से अर्थ स्पष्ट हैं । इस प्रकार के कितने ही अन्य स्थलों पर चैत्य शब्द कौटिल्य-अर्थशास्त्र में आता है।
इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि 'चैत्य' देवप्रतिमा अथवा देवमंदिर ही है। उसका अर्थ 'साधु' अथवा 'ज्ञान' ऐसा कुछ नहीं होता।
अब हम कोषों के भी कुछ अर्थ उद्धृत करेंगे। ( १ ) अनेकार्थसंग्रह में हेमचन्द्राचार्य ने लिखा है:-- चैत्यं जिनौकस्तद्विम्बं चैत्यो जिनसभातरुः । उद्देशवृक्षश्चोद्यं तु प्रेर्ये प्रश्नेऽद्भुतेपि च ।। का० २, इलो० ३६२, पृष्ठ ३० । (२) चैत्य-संक्चुअरी, टेम्पुल ( पृष्ठ ४९७ ) । देवायतनं चैत्यं-(पृष्ठ १६१ ) वैजयन्ती-कोप
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'चैत्य' शब्द पर विचार
४४७ (३) चैत्य :-देवतरौ, देवावासे, जिनबिम्बे, जिनसभातरौ, जिनसभायां देवस्थाने ।
-शब्दार्थचिंतामणि, भाग २, पृष्ठ ९४४ । (४) चैत्यः-देवस्थाने ।
-शब्दस्तोम महानिधिः, पृष्ठ १६० । जैन-साहित्य में कितने ही ऐसे स्थल हैं, जहाँ इसका अर्थ किसी भी प्रकार अन्य रूप में लग ही नहीं सकता । एक पाट है
कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेजा यह पाट सूत्रकृतांग ( बाबूवाला) पृष्ठ १०१४, ठाणांगसूत्र सटीक पूर्वाद्ध पत्र १०८-२, १४२-२; भगवतीसूत्र ( सटीक सानुवाद ) भाग १, पृष्ठ २३२, ज्ञाताधर्मकथा सटीक, उत्तराद्ध पत्र २५२-२ में तथा औपपातिकसूत्र सटीक पत्र ८-२ आया है।
अब इनकी टीकाएं किस प्रकार की गयी हैं, उनपर भी दृष्टि डाल लेना आवश्यक है। (१) मंगलं देवतां चैत्यमिव पयुसते
-दीपिका, सूत्रकृतांग बाबू वाला, पृष्ठ १०१४ (२) चैत्यमिव-जिनादि प्रतिमेव चैत्य श्रमणं
-ठाणांगसूत्र सटीक, पूर्वाद्ध, पत्र १११-२ (३) चैत्यम-इष्ट देवता प्रतिमा-औपपातिक सटीक, पत्र १०.२
(४) वेचरदास ने भगवतीसूत्र और उसकी टीका को सम्पादित और अनूदित किया है। उसमें टीका के गुजराती-अनुवाद में बेचरदास ने लिखा है.---"चैत्यनी-इष्टदेवनी मूर्तिनी-पेठे"
बेचरदास ने 'जैन साहित्य मां विकार थवाथी थएली हानि" में कल्पना की है कि, 'चैत्य' शब्द चिता से बना है और इसका मूल अर्थ
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तीर्थकर महावीर देवमंदिर अथवा प्रतिमा नहीं, बल्कि चिता पर बना स्मारक है । पर, जहाँ तक 'चैत्य' शब्द के जैन-साहित्य में प्रयोग का प्रश्न है, वहाँ इस प्रकार की कल्पना लग नहीं सकती; क्योंकि जहाँ चिता पर निर्मित स्मारक का प्रसंग आया है, वहाँ 'मडय चेइयेसु' शब्द का प्रयोग हुआ है । ( आचारांग सटीक २, १०, १९ पत्र ३७८-१)। और, जहाँ घुमट-सा स्मारक बना होता है। उसके लिए 'मडयथूभियासु' शब्द आया है । ( आचारांग राजकोट वाला, पृष्ठ ३४३ ) स्पष्ट है कि, चैत्य का सर्वत्र अर्थ मृतक के अवशेष पर बना स्मारक करना सर्वथा असंगत है । बेचरदास का कहना है, कि टीकाकारों ने मूर्तिपरक जो अर्थ किया, वह वस्तुतः उनके काल का अर्थ था—मूल अर्थ नहीं । पर, ऐसा कहना भी बेचरदास की अनधिकार चेष्टा है। औपपातिकसूत्र में चैत्य का वर्णन है। औपपातिक आगम-ग्रन्थों में हैं और उस वर्णक को पढ़कर पाठक स्वयं यह निर्णय कर सकते हैं कि जैन-साहित्य में चैत्य से तात्पर्य किस वस्तु से है ।
तीसे णं चंपाए णयरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसिभाए पुण्णभद्दे णामं चेहए होत्था, चिराइए पुब्बपुरिसपण्णत्त पोराणे सद्दिए कित्तिए णाए सच्छत्ते सज्झए सघंटे सपड़ागे पड़ागाइपड़ागमंडिए सलोम हत्थे कयक्यडिए लाइय उल्लोइय महिए गोसीस सरस रत्त चंदण ददर दिण्ण पंचगुलितले उवचिय
१-निशीथ चूर्णि सभाष्य में भी 'मय थूभियंसि' पाठ पाया है। वहाँ थूम की टीका में लिखा है
'इट्टगादिचिया विञ्चा थूभो भएणति'
-सभाष्य निशीथ चूर्णि, विभाग २, उ० ३, सूत्र ७२, पृष्ठ २२४-२२५ यह स्तूप और चैत्य दोनों ही पूजा-स्थान अथवा देवस्थान होते थे । रायपसेणी सटीक सूत्र १४८ पत्र २८४, में स्तूप की टीका में लिखा है 'स्तूपः- चैत्य-स्तूपः' । जहाँ इनका सम्बंध मृतक से होता था, वहाँ 'मडय' शब्द उसमें जोड़ देते थे।
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'चैत्य' शब्द पर विचार
ર
चंदणकलसे चंदणघड़ सुकय तोरण पड़ियार देसभाए असितो वसित्त विडल वट्टवग्धारिय मल्लदामकलावे पञ्च चण्ण सरस सुरभि मुक्क पुष्क पुंजोवधार कलिए कालागुरु-पवरकु दुएक - तुरुक्क धूव मघमघंत गंधुद्धयाभि रामे सुगंधवर गंध गंधिए गंधवट्टिभूए ण्ड णट्टग जल्ल मल्ल मुट्ठिय वेलंबग पवग कहग लासग श्राइक्खग लेख मंख तूणइल्ल तुंब वीणिय भुयग मागह परिगए बहुजण जाणवयस्स विस्सुयकित्तिए बहुजणस्स
हुस्स आहुणिज्जे पाहुणिज्जे श्रञ्च णिज्जे बंदणिज्जे नमसणिजे पूयणिजे सक्कारणिजे सम्माणणिजे कल्लाणं मंगलं देवयं चेयं विणणं पज्जुवासणिजे दिव्वे सच्चे सच्चोचाए सण्णिहिप पडिहारे जाग सहहस भाग पड़िच्छर बहुजणो अच्चेह श्रागम्म पुण्णभद्द चेइयं ।
पूर्णभद्र नाम का एक मोरपिच्छी और वेदिका
- उस चम्पानगरी के उत्तर-पूर्वक दिशा के मध्यभाग में ईशानकोण में पूर्व पुरुषों द्वारा प्रज्ञप्त प्रशंसित उपादेय रूप में प्रकाशित बहुत काल का बना हुआ अत्यंत प्राचीन और प्रसिद्ध चैत्य था जो कि ध्वजा, घंटा, पताका, लोमहस्त, आदि से सुशोभित था । चैत्य के अंदर की भूमि गोमयादि से लिपी हुई थी और दीवारों पर श्वेत रंग की चमकीली मिट्टी पुती हुई थी और उन पर चंदन के थापे लगे हुए थे । वह चैत्य चंदन के सुंदर कलशों से मंडित था और उसके हर एक दरवाजे पर चंदन के घड़ों के तोरण बँधे हुए थे । उसमें ऊपर नीचे सुगन्धित पुष्पों की बड़ी बड़ी मालाएं लटकायी हुई थीं। पाँच वर्ण वाले सुगंधित फूल और उत्तम प्रकार के सुगंधि युक्त धूपों से वह खूब महक रहा था । वह चैत्य अर्थात् उसका प्रान्त भाग नट, नर्तक, जल्ल, मल्ल मौष्टिक, विदूषक, कूदने वाले, तरने वाले, ज्योतिषी, राम वाले, कथा वाले, चित्रपट दिखाने वाले, वीणा बजाने वाले और गाने वाले भोजक आदि लोगों से व्याप्त रहता था । यह चैत्य अनेक
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तीर्थंकर महावीर
लोगों में और अनेक देशों में विख्यात था । बहुत से भक्त लोग वहाँ आहुति देने, पूजा करने, बंदन करने, और प्रणाम करने के लिए आते थे । वह चैत्य बहुत से लोगों के सत्कार सम्मान एवं उपासना का स्थान था तथा कल्याण और मंगल रूप देवता के चैत्य की भाँति विनयपूर्वक पर्युपासनीय था । उसमें दैवी शक्ति थी और वह सत्य एवं सत्य उपाय वाला अर्थात् उपासकों की लौकिक कामनाओं को पूर्ण करने वाला था, और भाग नैवेद्य के रूप में अर्पण किया जाता था; दूर-दूर से आकर इस पूर्णभद्र चैत्य की अर्चा
वहाँ पर हजारों यज्ञों का इस प्रकार से अनेक लोग पूजा करते थे ।
पूर्णभद्र तो यक्ष था; वह वहाँ मरा तो था नहीं, कि उसकी चिता पर यह मंदिर बना था ।
नगर का जो वर्णक जैन- शास्त्रों में है, उसमें भी चैत्य आता है । औपपातिकसूत्र में ही चम्पा के वर्णन में
आचारवंत चेइय
1
( सटीक पत्र २ ) पाठ आया है । वहाँ उसकी टीका इस प्रकार दी हुई हैकारवन्ति - सुन्दराकाराणि श्राकारचित्राणि वा यानि चैत्यानि-देवतायतनानि
रायपसेणी में भी यह पाठ आया है ( बेचरदास - सम्पादित पत्र ४ ) वहाँ उसकी टीका की है - " श्राकारवन्ति सुन्दराकाराणि चैत्यम्” रायपसेगी में हो एक अन्य प्रसंग में आता है ( सूत्र १३९ ) धूवं दाऊण जिणवराणं
इस पाठ से स्पष्ट है कि जिनवर और उनकी मूर्ति में कोई भेद नहीं है - जो मूर्ति और वही जिन !
बेचरदास ने रायपसेणी के अनुवाद ( पत्र ९३ ) में इसका अर्थ किया "ते प्रत्येक प्रतिमाओ आगल धूप कर्यो” । बेचरदास ने 'रायपसेण
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'चैत्य' शब्द पर विचार
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इयसुत्त' का एक गुजराती अनुवाद भी प्रकाशित कराया है, उसमें पृष्ठ ९६ पर ऐसा ही अनुवाद दिया है । स्पष्ट है कि, मूर्ति पूजक होकर भी मूर्ति - पूजा के विरोधी बेचरदास को 'जिन' और 'प्रतिमा' को समानार्थी
मानना पड़ा ।
अधिक स्पष्टीकरण के लिए 'चेइयं' शब्द की कुछ टीकाएं हम यहाँ दे रहे हैं:
( १ ) इयं - इष्टदेव प्रतिमा भग० २।१. भाग १ पत्र २४८ ( २ ) चैत्यानि - श्रईत् प्रतिमा - आवश्यक हारिभद्रीय, पत्र ५१०-१ ( ३ ) चैत्यानि - जिन प्रतिमा - प्रश्नव्याकरण, पत्र १२६-१ ( ४ ) चैत्यानि - देवतायतनानि वाई० पत्र ३. (५) चैत्यम् - इष्टदेव प्रतिमा उवाई०, पत्र १०
"
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( ६ ) वेयावत्तं – चैत्यमिति कोऽर्थ इत्याह-'अव्यक्त' मिति जीर्णं पतितप्रायम निर्द्धारितदेवताविशेषाश्रयभूतमित्यर्थः
मधारी हेमचन्द्र कृत आवश्यक टीका टिप्पण पत्र २८ - १ चैत्य पूजा स्थान था, यह बात बौद्ध ग्रन्थों से भी प्रमाणित है । बुद्ध ने वैशाली के सम्बन्ध में कहा
"... वज्जी यानि तानि वज्जीनं वज्जि चेतियानि श्रन्भन्त रानि चेव बाहिरानि च तानि सकरोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, तेसं च दिन्नपुव्वं कुतपुब्बं धम्मिकं बलिं नो परिहापेन्ती' ति...
दीघनिकाय ( महावग्ग, नालंदा-संस्करण ), पृष्ठ ६०
वज्जियों के ( नगर के ) भीतर या बाहर के जो चैत्य ( चौरादेवस्थान ) हैं, वह उनका सत्कार करते हैं, ० पूजते हैं । उनके लिए पहिले किये गये दान को, पहले की गयी धर्मानुसार बलि ( वृत्ति ) को लोप नहीं करते.."
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तीर्थकर महावीर
दीघनिकाय (हिन्दी अनुवाद) पृष्ठ ११९ वैशाली के चैत्य-पूजा का महत्त्व जैन-ग्रन्थों में भी वर्णित है। उत्तराध्ययन की टीका में वहाँ मुनि सुव्रत स्वामी के स्तूप का वर्णन आता है । ( नेमिचन्द्र को टीका, पत्र २-१ ) और कूणिक के युद्ध के प्रसंग में आता है कि जब तक वह स्तूप रहेगा, वैशाली का पतन न होगा।
घासीलाल जी ने उपासगदशांग के अपने अनुवाद में (पृष्ठ ३३९ ) लिखा है
"चैत्य शब्द का अर्थ साधु होता है, वृहत्कल्प भाष्य के छठे उद्देदो के अन्दर 'आहा आधयमकम्मे०' गाथा की व्याख्या में क्षेमकीर्तिसूरि ने 'चेत्योद्देशिकस्य' का "साधुओं को उद्देश करके बनाया हुआ अशनादि" यह अर्थ किया है।
घासीलाल ने जिस प्रसंग का उल्लेख किया है, वह प्रसंग ही दे देना चाहता हूँ, जिससे पाठक ससंदर्भ सारी स्थिति समझ जायेंगे। वहाँ मूल गाथा है
आहा अधे य कम्मे, पायाहम्मे य अत्तकम्मे य । तं पुण आहाकम्म, कप्पति ण व कप्पती कस्स ॥६३७५॥
--आधाकर्म अधःकर्म आत्मघ्नम् आत्मकर्म चेति औद्देशिकस्य साधूनुदृिश्य कृतस्य भक्तादेश्चत्वारि नामानि । 'तत् पुनः' आधाकर्म कस्य कल्पते ? कस्य वा न कल्पते ? __ वृहत्कल्प सनियुक्ति लघुभाष्य-वृत्ति-सहित, विभाग ६, पृष्ठ १६८२-१६८३
यहाँ मूल मैं कहाँ चैत्य शब्द है, जिसकी टीका की अपेक्षा की जाये। असल में लोगों को भ्रम में डालने के लिए 'चेति ( च + इति) और औदेशिकस्य' तीन शब्दों की संधि करके 'चेत्योदेशिकस्य' करके आगे से उसका मेल बैठाने की कुचेष्टा घासीलाल ने की है । उस पाठ में और टीका में कहीं भी चैत्य शब्द नहीं आया है।
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'चैत्य' शब्द पर विचार
४५३ घासीलाल जी का कहना है कि, चैत्य शब्द का किसी कोष में मूर्ति अर्थ नहीं है । इसके समर्थन में उन्होंने पद्मचन्द्रकोष का उद्धरण दिया । पर, पहली बात तो यह कि, उस कोष में 'साधु' कहाँ लिखा है ?
दूसरी बात यह भी ध्यान में रखने की है कि, उसी कोष में और उसी उद्धरण में चैत्य का एक अर्थ 'बिम्ब' भी है। घासीलाल ने
और कुछ उद्धरणों से उसका अर्थ करते हुए लिखा है 'बिम्ब' का अर्थ मूर्ति नहीं है। अब हम यहाँ कुछ कोषों से बिम्ब का अर्थ दे देना चाहते हैं(१) बिम्त्रः-अ स्टैचू, फिगर, आयडल यथा
हेमविम्बनिभा सौम्या मायेव मयनिर्मिता-रामायण ६.१२.१४
-~-आप्टेज संस्कृत इंगलिश डिक्शनरी, भाग २, पृष्ठ ११६७ (२) बिम्ब---ऐन इमेज,शैडो, रिफेक्टे आर प्रेजेंटेड फार्म, पिक्चर
-रामायण, भागवतपुराण, राजतरंगणी बिम्ब को मूर्ति के अर्थ में हेमचन्द्राचार्या ने भी प्रयोग किया है चैत्यं जिनौकस्तबिम्बं......अनेकार्थकोष, का० २, श्लोक ३६२
चैत्यपूजा का एक बड़ा स्पष्ट उदाहरण आवश्यकचूर्णि पूर्वार्द्ध पत्र ४९५ में आता है कि, श्रेणिक राजा सोने के १०८ यव से चैत्यपूजा करता था
...सेणियस्स असतं सोवणियाण जवाण करेति चेतिय अच्चणितानिमित्त
कुछ आधुनिक विद्वान् चैत्य शब्द के सम्बन्ध में अब हम कुछ आधुनिक विद्वानों का मत दे देना चाहते हैं। किसी भी प्रकार का भ्रम न हो, इस दृष्टि से हम मूल उद्धरण ही यहाँ देना चाहेंगे ।
(१) चेतिय ( सं० चैत्य ) इन इट्स मोस्ट कामन सेंस हैज कम
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४५४
र्थकर महावीर टु मीन ए श्राइन असोसिएड विथ बुद्धिज्म, बट द' वर्ड इन इट्स
ओरिजनल यूस वाज नाट एक्सक्ल्यूसिवली बुद्धिस्ट फार देयर आर रेफरेंसेज टु ब्रह्मनिकल ऐंड जैन चैत्याज एज वेल। दस द' वर्ड मस्ट हैव बीन ओरिजनली यूज्ड इन द' सेंस आव एनी सेक्रेड स्पाट आर एडिकिस आर सैंक्चुअरी मेंट फार पापुलर वरशिप...
-ज्यागरैफी आव अर्ली बुद्धिज्म, विमलचरणला लिखित, पृष्ठ ७४
—साधारण रूप में चैत्य' का अर्थ बौद्ध-धर्म से सम्बद्ध मन्दिर या पूजा-स्थान है; लेकिन मूल रूप में इस शब्द का प्रयोग केवल बुद्ध-धर्म से सम्बद्ध नहीं होता था; क्योंकि ब्राह्मण और जैन-चैत्यों के भी सन्दर्भ मिलते हैं । अतः कहना चाहिए कि मूल रूप में इस शब्द का अर्थ किसी पवित्र स्थान के लिए, वेदिका के लिए अथवा पूजा के निमित्त मन्दिर के लिए होता था।
(२) इन द पिटकाज दिस वडं मीस अ पापुलर श्राइन अनकनक्टेड विथ इदर बुद्धिस्ट आर ब्राह्मनिकल सेरेमोनियल, सम टाइम्स पर हैप्स मीयरली ए सेक्रेड ट्री आर स्टोन प्राबेब्ली आनई बाई सच सिम्पुल राइट्स एज डेकोरेटिंग इट विथ पेंट आर फ्लावर्स ।...
__-सर चाल्स इलियट लिखित 'हिंदुइज्म ऐंड बुद्धिज्म' भाग २, पृष्ठ १७२-१७३
पिटकों में इस शब्द का अर्थ सर्वसाधारण के लिए पूजा-स्थल हैउसका न तो बौद्धों और न ब्राह्मणों से सम्बन्ध होता था। कभी-कभी वृक्ष, या पत्थर चैत्य में होते थे और रंगों तथा फूलों से उन्हें सजाकर उनके प्रति आदर प्रकट किया जाता था।
(३) द' मोस्ट जेनेरल नेम फार ए सैंक्चुरी इज चैत्य (प्रा० चेतिय) अ टर्म नाट ओन्ली आल्पाइंग टु बिल्डिंग, बट टु सेक्रेड ट्रीज, मेमोरियल स्टोंस, होली स्टोप्स, इमेजेज, रेलिजस इंस्क्रिप्शंश। हेस आल एडिफिसेज हैंविंग द' कैरेक्टर आव अ सेक्रेड मानूमेंट आर चैत्याज-ए० कर्न-लिखित
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'चैत्य' शब्द पर विचार
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'मैनुएल आव बुद्धिज्म' ( पृष्ठ ९१ ) - पूजा-स्थान के लिए सबसे प्रचलित शब्द चैत्य ( प्रा० चेतिय ) था । किसी भवन से उसका तात्पर्य सदा नहीं होता । बल्कि, ( प्रायः ) पवित्र वृक्ष, स्मारक शिला, स्तूप, मूर्तियाँ अथवा धर्मलेख का भी वे द्योतन करते हैं । अतः कहना चाहिए कि समस्त स्थान जहाँ पवित्र स्मारक हो चैत्य हैं ।
( ४ ) इन अ सेकेण्ड्री सेंस टू अ टेम्पुल आर श्राइन कंटेनिंग अ चैत्य आर धातुगर्भ । चैत्याज आर दागबाज आर ऐन एंसेंशल फीचर आव टेम्पुल्स आर चैपेल्स कंस्ट्रक्टेड फार परपज आव वरशिप देयर बग अ पैसेज राउंड द' चैत्य फार सरकम्बुलेशन ( प्रदक्षिणा ) ऐंड फ्राम दीज सच टेम्पुल्स हैव रिसीव्ड देयर अपीलेशन द' नेम आव चैत्य हाउएवर अप्लाइड नाट ओन्ली टु सैंक्चुअरीज बट टु सेक्रेड ट्रीज, होली स्पाट ऐंड अदर रेलिजस मानूमेंट्स ।
- ए ग्रुनवेडेल-लिखित 'बुद्धिस्ट आर्टइन इंडिया' ( अनुवादक रिब्सन । जे० बर्जेस द्वारा परिवर्द्धित ) पृष्ठ २० - २१ ।
- इसका दूसरा भाव 'मंदिर' या पूजा-स्थान है, जो चैत्य या धातुगर्भ से सम्बद्ध होते थे । चैत्य अथवा दागवा मंदिर अथवा पूजास्थान के आवश्यक अंग होते थे । चैत्य के चारों ओर परिक्रमा होती थी चैत्य शब्द केवल मंदिर ही नहीं पवित्र वृक्ष, पवित्र स्थान अथवा अन्य धार्मिक स्थानों के लिए प्रयुक्त होता था ।
( ५ ) श्राइन
- डा० जगदीशचन्द्र जैन लिखित 'लाइफ इन ऐंशेंट इंडिया एज डिपिक्टेड इन द जैन कैनेस', पृष्ठ २३८ ।
- मंदिर |
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३ कामदेव
च.पा-नामक नगरी में पूर्णभद्र-चैत्य था। उस समय वहाँ जितात्रनामक राजा था। उस नगर में कामदेव नामक एक गाथापति था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था । छः करोड़ सुवर्ण उसके खजाने में थे, छः करोड़ व्यापार में लगे थे, ६ करोड़ प्रविस्तर में थे । दस हजार गौएं प्रति व्रज के हिसाब से उसके पास ६ व्रज था ।
यह कामदेव भी भगवान् के आने का समाचार सुनकर भगवान् के पास गया और भगवान् का धर्मोपदेश सुनकर उसने श्रावक-धर्म स्वीकार किया।
अंत में कामदेव ने भी अपने सगे-सम्बन्धियों को बुलाकर उनमे अनुमति लेकर और अपने घर का सारा काम काज अपने पुत्र को सौंप कर भगवान् महावीर के समीप की धर्म-प्रज्ञप्ति को स्वीकार करके विचरने लगा।
एक पूर्व रात्रि के दूसरे समय में एक कपटी मिथ्यादृष्टि देव कामदेव के पास आया। सबसे पहले वह पिशाच का रूप धारण करके हाथ में खांडा लेकर आया और कामदेव से बोला--"अरे कामदेव श्रावक ! मृत्यु की इच्छा करने वाला, बुरे लक्षणों वाला, हीनयुण्य चतुर्दशी को जन्मा, तू धर्म की कामना करता है, तू पुण्य की कामना करता है ? स्वर्ग को कामना करता है ? मोक्ष की कामना करता है ? और, उनकी आकांक्षा करता है । हे देवानुप्रिय ! अपने शील, व्रत, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से डिगना नहीं चाहते ? यदि तुम आज इनका परित्याग नहीं करोगे तो इस खांडे से तुझे टुकड़े-टुकड़े कर डालूँगा ।"
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कामदेव
४५७ पिशाच-रूपधारी देवता के ऐसा कहने पर भी श्रावक कामदेव को न किंचित् मात्र भय हुआ और न संभ्रम हुआ। उसने उसे दूसरी और नीसरी बार भी धमकाया पर कामदेव अपने विचार पर निर्भय रूप में अडिग रहा ।
क्रुद्ध होकर वह पिशाच-रूपधारी देव कामदेव के टुकड़े-टुकड़े करने लगा पर इतने पर भी कामदेव धर्म-ध्यान में स्थिर बना रहा ।
अपने पराजय से ग्लानि युक्त हुआ वह देव पौषधशाला से बाहर निकला और हाथी का रूप धारण करके पौषधशाला में गया । उसने कामदेव से कहा-“कामदेव ! यदि तू मेरे कथनानुसार काम न करेगा तो मैं तुम्हें उछाल कर दाँतों पर लोकँगा और पृथ्वी पर पटक कर पैरों से मसल डालूँगा।” पर, उस धमकी से भी कामदेव विचलित नहीं हुआ। तीन बार ऐसी धमकी देने के बावजूद जब कामदेव अपने ध्यान से विचलित नहीं हुआ, तो हाथी ने उसे उठाकर लोका दिया और दाँत पर लोक कर मसलने लगा। पर, उस वेदना को भी कामदेव शांतिपूर्वक सह गया।
निराश देव ने बाहर निकल कर सर्प का रूप धारण किया; पर सर्प भी उसे विचलित करने में असमर्थ रहा ।
अंत में हार कर उसने देवता का रूप धारण किया और कामदेव के सम्मुख जा कर बोला--"हे कामदेव ! तुम धन्य हो, मनुष्यजन्म का फल तुम्हारे लिए सुलभ है; क्योंकि तुम्हें निर्गन्थ-प्रवचन में इस प्रकार की जानकारी है । देवानुप्रिय शक्र ने अपने देव देवियों के बीच कहा—'हे देवानुप्रिय ! चम्पा-नगरी की पौषधशाला में कामदेव भगवान् महावीर की धर्म-प्रज्ञाति स्वीकार करके विचर रहा है। किसी देव यावत् गंधर्व में ऐसा सामर्थ्य नहीं है कि, वह कामदेव को पलटा सके। शक्र के कथन पर मुझे विश्वास नहीं हुआ तो मैं यहाँ आया,” ऐसा कह कर उसने क्षमा माँगी। उपसर्ग-रहित कामदेव श्रावक ने प्रतिमाएँ पूर्ण की ।
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तीर्थंकर महावीर
उसी काल में श्रमण भगवान् महावीर विचरते हुए चम्पा आये । उनका आगमन सुनकर कामदेव ने सोचा - "अच्छा होगा श्रमण भगवान् महावीर जब आये हैं तो पहले उनको वंदन - नमस्कार करके लौहूँ तब पौध की पारणा करूँ । ऐसा विचार करके वह पौषधशाला से निकला और पूर्णभद्र - चैत्य में जाकर उसने शंख के समान पर्युपासना की ।
भगवान् ने परिषदा में धर्मकथा कही और उसके बाद कामदेव को सम्बोधित करके रात्रि की घटना के सम्बंध में पूछा । कामदेव ने सारी बात स्वीकार की ।
४५८
फिर भगवान् निर्गथ-निर्गन्थियों को सम्बोधित करके कहने लगे"आर्य ! गृहस्थ-श्रावक दिव्य मानुष्य और तिर्यच - सम्बंधी उपसर्गों को सहन करके भी ध्यान निष्ठ रहते हैं । हे आर्य ! द्वादशांग गणिपिटक के धारक निर्गथियों को तो ऐसे उपसर्ग सहन करने में सर्वथा दृढ़ रहना चाहिए ।
उसके बाद कामदेव ने प्रश्न पूछे और उनका अर्थ ग्रहण किया । और,
वापस चला गया ।
कामदेव बहुत से शील-व्रत आदि से आत्मा को भावित कर बीस वर्षों तक श्रावक - पर्याय पाल, ११ प्रतिमाओं को भली भाँति स्पर्श कर, एक मास की संलेखना से आत्मा को सेवित करता हुआ, साठ भक्त अनशन द्वारा त्याग कर, आलोचना-प्रतिक्रमण करके, समाधि को प्राप्त होता हुआ काल के समय में काल करके सौधर्मकल्प में सौधर्मावितंसक महाविमान के ईशान कोण के अरुणाभ नामक विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ ।
गौतम स्वामी ने भगवान् से पूछा - "भगवन् ! वहाँ से कामदेव कहाँ उत्पन्न होगा ?"
भगवान् ने कहा- " हे गौतम ! चार पल्पोयम देवलोक में रहकर वह महाविदेह में सिद्ध होगा ।'
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३ चुलनीपिता
वाराणसी-नगरी में कोष्ठक-चैत्य था और जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। उस नगरी में चुलनीपिता-नामक एक गृहपति रहता था। उसकी पत्नी का नाम श्यामा था। उसके आठ करोड़ सुवर्ण निधान में थे, आठ करोड़ व्यापार में और आठ करोड़ प्रविस्तार में लगे हुए थे। दस हजार गायें प्रति गोकुल के हिसाब से उसके पास आठ गोकुल थे।
भगवान् महावीर स्वामी एक बार ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वाराणसी आए। परिषदा निकली। भगवान् के उपदेश को सुन कर चुलनीपिता ने भी आनन्दश्रावक के समान गृहस्थ-धर्म स्वीकार किया और कालान्तर में अपने पुत्र को गृहस्थी का कार्यभार सौंप कर और सम्बन्धियों तथा जाति वालों से अनुमति लेकर पोषधशाला में जाकर धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार करके विचरने लगा।
एक रात्रि के पिछले प्रहर में चुलनीपिता के सम्मुख एक देव प्रकट हुआ। वह देव हाथ में नीलकमल यावत् तलवार लेकर बोला-"यदि तुम अपना शील भंग नहीं करोगे तो तुम्हारे बड़े लड़के को घर से लाकर घात करूँगा और फिर काटकर उसे कड़ाही में उकालूँगा । फिर तुम्हारे शरीर को उकले मांस और रक्त से सींचूँगा। अत्यन्त दुःख की पीड़ा से तू मर जायेगा। पर, चुलनीपिता श्रमणोपासक देवता के ऐसे कहने पर निर्भय यावत् विचरता रहा । दो-तीन बार धमकी देने पर भी जब चुलनीपिता विचलित नहीं हुआ तो देव ने उसके बड़े लड़के को लाकर घात किया। उसके मांस के तीन टुकड़े किये और अदहन चढ़े
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४६०
तीर्थंकर महावीर हुए कड़ाहे में उकाला और उसके रक्त और मांस से चुलनीपिता का शरीर सींचने लगा । चुलनीपिता ने उसे सहन कर लिया ।
फिर उसने दूसरे और तीसरे लड़के को भी वैसा ही किया। पर, श्रावक अपने विचार पर अडिग रहा । फिर चौथी बार उस देव ने कहा"हे अनिष्ट कामी ! यदि तू अपना व्रत भंग नहीं करता, तो तेरी माता भद्रा को घर से लाकर तेरे सामने ही उसके प्राण लूंगा, फिर उसके मांस के तीन टुकड़े करके कड़ाहे में डालूंगा और उसके रक्त तथा मांस से तेरे शरीर को सींचूँगा। इससे अत्यन्त दुःखी होकर तू मृत्यु को प्राप्त करेगा।” फिर भी चुलनीपिता निर्भय रहा। उसने तीन बार ऐसी धमकी दी।
देव के तीसरी बार ऐसा कहने पर, चुलनी पिता श्रावक विचार करने लगा--"यह पुरुष अनार्य है। इसने मेरे तीन पुत्रों का घात किया और
और अब मेरी माता का वध करना चाहता है। ऐसा विचार कर वह उठा और देव को पकड़ने चला । देवता उछल कर आकाश में चला गया और चुलनीपिता ने एक खम्भा पकड़ लिया तथा वह जोर जोर चिल्लाने लगा।
उसकी आवाज सुनकर चुलनीपिता की माता भद्रा आयी और चिल्लाने का कारण पूछने लगी । चुलनीपिता ने सारी बात माता को बतायी तो माता बोली-"कोई भी तुम्हारे पुत्रों को घर से नहीं ले आया है और न किसी ने तुम्हारे पुत्रों का वध किया है। किसी ने तुम्हारे साथ उपसर्ग किया है। कषाय के उदय से चलित चित्त होकर उसे मारने की तुम्हारी प्रवृत्ति हुई । उस घात की प्रवृत्ति ते स्थूलप्राणातिपातविरमण-व्रत
और पोषध-व्रत भंग हुआ । पोषध-व्रत में सापराध और निरपराध दोनोंके मारने का त्याग होता है। इसलिए तुम आलोचना करो, प्रतिक्रमण करो
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चुलनीपिता
કર
और अपनी गुरु की साक्षी से निन्दा-गर्दा करो तथा यथायोग्य तपः - कर्म रूप प्रायश्चित स्वीकार करो ।
चुलनीपिता ने अपनी माता की बात स्वीकार कर ली ।
उसने ११ प्रतिमाओं का पालन किया । और, आनन्द की तरह मृत्यु को प्राप्त कर कामदेव की भाँति सौधर्मकल्प में सौधर्मावितंसक के ईशान के अरुणप्रभ विभान में देवरूप से उत्पन्न हुआ । वह चार पल्योपम वहाँ रह कर महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा ।
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४. सुरादेव
वाराणसी-नगरी में कोष्ठक-चैत्य था तथा जितशत्रु-नामक राजा राज्य करता था। उस नगरी में सुरादेव-नामक गृहपति रहता था। ६ करोड़ सुवर्ण उसके खजाने में थे, ६ करोड़ व्यापार में लगे थे और ६ करोड़ प्रविस्तर में थे। उसके पास ६ गोकुल थे। उसकी भार्या का नाम धन्या था।
सुरादेव के समान उसने भी भगवान् महावीर के सम्मुख गृहस्थधर्म स्वीकार किया। कालान्तर में वह भी कामदेव के समान भगवान् महावीर के निकट स्वीकार की गयी धर्मप्रज्ञप्ति को स्वीकार करके रहने लगा।
एक समय पूर्व रात्रि के समय उसके सम्मुख एक देव प्रकट हुआ। उसने भी क्रम से सुरादेव के बड़े, मँझले और छोटे लड़कों के वध की धमकी दी। उसने तद्रूप किया-सभी के पाँच-पाँच टुकड़े किये और उनके रक्त-मांस से सुरादेव के शरीर को सींचा। जब सुरादेव इनसे भीत नहीं हुआ तो देव ने कहा--- "हे सुरादेव ! तू यदि शीलवत भंग नहीं करता तो मैं श्वास यावत् कुष्ठं से तुम्हें पीड़ित करूँगा, जिससे तू तड़पतड़प कर मर जायेगा।
१-सासे, कासे, जरे, दाहे, कुच्छिसूले, भगंदरे अरिसा, अजीरए, दिहिमुद्वसूले, अकारए, अच्छिवेयणा, कण्णवेयणा, कंडू, दउदरे, कोढ़े
- ज्ञाताधर्मकथा ( एन० वी० वैद्य-सम्पादित ) अ० १३, पष्ठ १४४
-विवागसूत्र ( पी० एल० वैद्य-सम्पादित ) पष्ठ १० आचारांग की टीका में १८ प्रकार के कुष्ठ बताये गये हैं :
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सुरादेव
४६३ ऐसी धमकी जब उस देव ने तीन बार दी तो तीसरी बार धमकी सुनकर सुरादेव के मन में उसके अनार्यपने पर क्षोभ हुआ और उसे पकड़ने चला। उस समय वह देव आकाश में उछल गया और सुरादेव के हाथ में खम्भा आ गया तथा वह चिल्लाने लगा। __ कोलाहल सुनकर सुरादेव की पत्नी आयी और चिल्लाने का कारण पूछने लगी । सुरादेव सारी कथा कह गया तो उसकी पत्नी ने आश्वासन दिया कि घर का कोई न लाया गया है और न मारा गया है। शेष पूर्ववत् ही है । अन्त में वह मरकर सौधर्मकल्प में अरुणकान्त विमान में उत्पन्न हुआ। वहाँ चार पल्योपम रहकर वह महाविदेह में जन्म लेने के बाद सिद्ध होगा।
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पष्ठ ४६२ पाद टिप्पणि का शेषांश
कुष्ठमष्टादशभेदं तदस्यास्तीति कुष्ठी, तत्र सप्तदश महाकुष्टानि, तद्यथाअरुणोदुम्बर निश्यजिह्वकपाल काकनादपौण्डरीकददू कुष्ठानीति महत्त्वं चैषां सर्वधात्वनुप्रवेशादसाध्यत्वाच्चेति एकादश जुद्रकुष्टानि तद्यथास्थूलारुष्क १, महाकुष्ठै २, ककुष्ठ ३, चर्मदल ४, परिसर्प ५, विसर्प ६, सिध्म ७, विचर्चिका ८, किटिभ ६, पामा १०, शतारुक ११ संशानीति
--आचारांग सटीक १, ६, १, पत्र २१२-२
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५ चल्लशतक
आलभिका-नामक नगरी में शंखवन-नामक उद्यान था और जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। उस नगरी में चुल्ल' शतक नामक एक गृहपति रहता था । वह आढ्य था । छः करोड़ हिरण्य उसके निधान में, ६ करोड़ व्याज में और ६ करोड़ हिरण्य विस्तार में थे। दस हजार गाय के एक व्रज के हिसाब से उसके पास ६ व्रज थे। उसकी भायां का नाम बहुला था। महावीर स्वामी का समवसरण हुआ। आनन्द-श्रावक के समान उसने भी भगवान् का धर्मोपदेश सुनकर गृहस्थ धर्म स्वीकार किया और कालान्तर में कामदेव के समान उसने धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार की।
एक रात को मध्य रात्रि के समय चुल्लशतक के सम्मुख एक देव प्रकट हुआ। तलवार हाथ में लेकर उसने चुल्लशतक से कहा-'हे चुल्लशतक ! तुम अपना शील भंग करो अन्यथा तुम्हारे ज्येष्ठय पुत्र को ले आऊँगा, उसका वध करूँगा। उसके मांस का सात टुकड़ा करूँगा। कड़ाही में उबालूंगा ।...” उस देव ने यह सब किया भी पर चुल्लशतक अपने व्रत पर दृढ़ रहा ।
अन्त में उस देव ने कहा-'हे चुल्लशतक ! यदि तुम अपना शील-व्रत भंग नहीं करते तो जितना धन तुम्हारे पास है, उसे तुम्हारे घर से लाकर शृंगाटक यावत् पथ पर सर्वत्र फेंक दूंगा। तू इसके नष्ट
१-'चुल्ल' शब्द का अर्थ है 'लघु' 'छोटा' ( दे० अर्धमागधी कोष रतनचन्द्रसम्पादित, भाग २, पृष्ठ ७३५ ) पर घासीलाल ने उवासगदसाओ के अनुवाद में 'चुल्ल' का अर्ध 'क्षुद्र' करके उसका नाम क्षुद्रशतक संकृत, हिन्दी, गुजराती तीनों भाषाओं में लिखा है। (पृष्ठ ४४८ ) पर यह सर्वथा अशुद्ध है। २-इसका पूरा पाठ इस प्रकार हैं:
सिंघाडग तिय चउक्क चच्चर चउमुह महापह पहेसु
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चुल्लशतक
४६५
होने से मर जायेगा । फिर भी चुल्लशतक निर्भय विचरण करता रहा । जब उसने दूसरी और तीसरी बार ऐसी धमकी दी तो चुल्लशतक को विचार हुआ कि यह अनार्य पुरुष है । इसने हमारे पुत्र का वध किया अब हमारी सम्पत्ति नष्ट करना चाहता है ।' ऐसा विचार करके चुल्लशतक उसे पकड़ने चला ।
पर, वह देव आकाश में उछल गया । चुल्लशतक जोर-जोर चिल्लाने लगा । उसकी पत्नी आयी । और, उसने चिल्लाने का कारण पूछा तो चुल्लशतक पूरी कहानी कह गया । शेष पूर्ववत् समझना चाहिए ।
अंत में काल के समय में काल करके वह सौधर्म देवलोक में अरुण शिष्ट नामक विमान में उत्पन्न हुआ । वहाँ चार पल्योपम की स्थिति के बाद वह महाविदेह में सिद्ध प्राप्त करेगा ।
३०
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६ कुण्डको लिक
काम्पिल्पपुर - नगर में जितशत्रु राजा राज्य करता था और सहस्राम्रवननामक उद्यान था । उस नगर में कुंडकोलिक नामक गृहपति था । पुष्यानामकी उसकी भार्या थी । ६ करोड़ हिरण्य उसके विधान में थे, ६ करोड़ वृद्धि में थे और ६ करोड़ प्रविस्तर में लगे थे । उसके पास ६ व्रज थेप्रत्येक व्रज में १० हजार गौएँ थीं ।
भगवान् महावीर एक बार ग्रामानुग्राम विहार पुर आये । समवसरण हुआ और कामदेव के श्रावक-धर्म स्वीकार कर लिया ।
एक दिन कुंडकोलिक मध्याह्न के समय अशोकवनिका में जहाँ पृथ्वीशिलापट्ट था, वहाँ 'आया और वहाँ अपनी नाममुद्रिका तथा उत्तरीय पृथ्वी शिलापट्टक पर रख कर श्रमण भगवान् महावीर के पास स्वीकार की हुई धर्म-प्रज्ञप्ति को स्वीकार करके विचरने लगा ।
एक बार उस कुंडकोलिक श्रमणोपासक के पास एक देव प्रकट हुआ । उसने पृथ्वीशिलापट्टक से कुंडकोलिक की नाममुद्रिका और उत्तरीय वस्त्र उठा लिया । श्रेष्ठ वस्त्र धारण किये उस देव ने आकाश में स्थित रहकर कुंडकोलिक श्रमणोपासक से कहा - "हे देवानुप्रिय ! कुंडकोलिक श्रमणोपासक ! मंखलि - पुत्र गोशालक की धर्मप्रज्ञप्ति सुन्दर है, क्योंकि उसकी धर्मप्रज्ञप्ति' में उत्थान, कर्म, चल, बीर्य और पराक्रम नहीं है । सब कुछ नीति के आश्रित है; श्रमण भगवान् महावीर की धर्मप्रज्ञप्ति अच्छी नहीं
1
करते हुए काम्पिल्पसमान कुण्डकोलिक ने
१ - -धर्मप्रज्ञप्तेः । प्रज्ञापनं प्रज्ञप्ति । धर्मस्य प्रज्ञप्तिः ततो धर्मप्रज्ञप्तेः । - दशा वैकालिक [ बाबूवाला ] पृष्ठ १४३ ।
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कुण्डकोलिक
४६७ है; क्योंकि उसमें उत्थान यावत् पराक्रम है और नियति आश्रित सब कुछ नहीं माना जाता है।"
कुंडकोलिक श्रमणोपासक ने उस देव सेकहा-'हे देव ! मंखलिपुत्र गोशालक की धर्मप्रज्ञप्ति उत्थान न होने से यावत् सर्व भाव नियत होने से अच्छी है और भगवान् महावीर की धर्मप्रज्ञप्ति उत्थान होने से यावत् सर्वभाव अनियत होने से खराब है, यह मान लिया जाये, तो हे देव ! यह दिव्य ऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्यदेवानुभाव आपको कैसे प्राप्त हुए ? यह सब आपको उत्थान यावत् पराक्रम से प्राप्त हुए अथवा उत्थान के अभाव यावत् पराक्रमहीनता से ?”
यह सुनकर वह देव बोला-“हे देवानुप्रिय ! मैंने यह देवऋद्धि उत्थान के अभाव यावत् पराक्रम के अभाव में प्राप्त किया है।"
कुंडकोलिक ने उत्तर दिया-"यदि यह देवऋद्धि उत्थान आदि के अभाव में प्राप्य है, तो जिन जीवों में विशेष उत्थान नहीं है, और पराक्रम नहीं है, वह देव क्यों नहीं होते ? गोशालक की धर्मप्रज्ञप्ति सुन्दर होने का जो कारण आप बताते हैं, और भगवान् पहावीर की धर्मप्रज्ञप्ति अच्छी न होने का जो आप कारण बताते हैं, वे मिथ्या हैं।"
कुंडकोलिक की इस प्रकार वार्ता सुनकर वह देव शंकित् हो गया और कुंडकोलिक को उत्तर न दे सका । नाममुद्रिका और उत्तरीय पृथ्वीशिलापट्टक पर रखकर वह जिधर से आया था, उधर चला गया ।
उस समय भगवान् महावीर वहाँ पधारे । कामदेव के समान कुंडको. लिक भगवान् की वंदना करने गया। धर्मदेशना के बाद भगवान् ने कुंडकोलिक से देव के आने की बात पूछी। कुंडकोलिक ने सारी बात स्वीकार कर ली। __ भगवान् ने कहा- "हे आर्यो ! जो गृहस्थावास में रहकर भी अर्थ',
१ 'अर्थै-जीवादिभिः सूत्राभिधेयैर्वा-उपासकदशा सटीक पत्र ३६-१
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४६८
तीर्थंकर महावीर
हेतु', प्रश्न, कारण व्याकरण' और उत्तर के सम्बंध में अल्पतीर्थिकों को निरुत्तर करता है, तो हे आर्यो ! द्वादशांग गणिपिटक का अध्ययन कर्ता श्रमण-निर्गंथ अन्यतीर्थिकों को निरुत्तर और निराश करने में शक्य है ।"
उसके बाद कुंडकोलिक शील-व्रत आदि से अपनी आत्मा को भावित करता रहा । १४ वर्ष व्यतीत होने पर और १५ वें वर्ष के बीच में कामदेव के समान अपने ज्येष्ठ पुत्र को गृहभार देकर पोषधशाला में धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार करके रहने लगा । ११ प्रतिमाओं को पाल कर काल के समय में काल कर वह सौधर्मदेवलोक में अरुणध्वज विमान में उत्पन्न हुआ । शेत्र पूर्ववत जान लेना चाहिए ।
पृथ्वीशिलापट्टक
सूत्र
औपपातिक में पृथ्वी शिलापट्ट का वर्णक इस प्रकार है तस्स णं असोगवर पायवस्स हेट्ठा ईसि खंधसमल्लीगे एत्थ णं महं एक्के पुढविसिलापट्टए पण्णत्ते, विक्खं भायामउस्सेहसुप्पमाणे किण्हे अंजणघण किवाणकुवलय हलधरकोसेज्जागाल के सकज्जलंगी खंजणसिंगभेदरिहय जंबूफल असण कसण बंधणणी तुप्पलपत्तनिकर अयसि कुसुमपगासे मरकतमसार कलित्तणयण की परा सिवरणे णिद्धघणे सिरे श्रायंसयतलोवमे सुरम्मे ईहामियउ सभतुरगनर मगर विहग वालग किण्णररू रूस रभचमरकुंजर वणलय पउमलयभित्तिचित्ते श्रईणगरू
१ हेतु —- श्रन्वयव्यतिरेक लक्षणैः- वही २ प्रश्नैः- - पर प्रश्नीयपदार्थों: - वही ३ कारणै —— उपपत्तिमात्र रूपैः - वही
४ व्याकरण —— पद्रेण प्रश्नितस्योत्तरदान रूपैः वही
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कुण्डको लिक
ક
यबूरण वणीततूल फरसे सीहासण संठीए प्रासादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे ।
- औपपातिक सूत्र सटीक, सूत्र ५, पत्र १८-२ - उस उत्तम अशोकवृक्ष के नीचे स्कंध से कुछ दूरी पर किन्तु उसी के अबः प्रदेश में विशाल एक पृथिवीशिलापट्टक था । यह लम्बाई चौड़ाई एवं ऊँचाई में बराबर प्रमाण वाला था, हीनाधिक प्रमाणवाला नहीं था । इसका वर्ण कृष्ण था । अंजन, घन, कृपाण, कुवलय, हल स्कौशेय (बलदेव वस्त्रं ), आकाश, केश, कज्जलांगी ( कज्जलगृह ), खंजनपक्षी,
गभेद, रिष्टक ( रत्नम् ), जम्बूफल, असनक (बीयकाभिधानो वनस्पतिः) सनबंधन ( सनपुष्पवृत्यं ), नीलोत्पलपत्रनिकर और अतसीकुसुम के प्रकाशजैसा था ( अर्थात् श्याम वर्ण का था ) | मरकत, मसार ( मसृणीकारकः पाषाणविशेषः ), कटित्र ( वृत्ति विशेषः ), नयनकीका ( नेत्रमध्यतारा ताशिवर्गः काल इत्यर्थः ), के पुंज- जैसा इसका वर्ग था । वह सजल मेघ के समान था । इसके आठ कोने थे ( 'अहसिरे' अष्टशिराः - अष्टकोण इत्यर्थः ) । इसका तलभाग काँचदर्पण-जैसा चमकीला था । ( देखने में यह ) सुरम्य ( लगता ) था । इहामृग ( वृका: ), वृषभ, तुरंग ( अश्व ), नर, मकर, विहग, व्याल ( सर्प ), किन्नर, रुरु, सरभ, चमर, कुञ्जर, वनलता एवं पद्मलता इन सबके चित्रों से यह सुशोभित था । ( इसका स्पर्श ) अजिनक ( चर्ममय वस्त्र ), रूत ( रूई ), बूर ( वनस्पति विशेषः ), नवनीत, तूल ( अर्कतूल ) के स्पर्श के समान था । यह सिंहासनाकार था । हृदय को हर देनेवाला, नेत्रों को आल्हादित करने वाला एवं सुन्दर आकृति सम्पन्न यह पृथ्वीशिपक अपूर्व शोभा संपन्न था ।
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७- सद्दालपुत्र
पोलासपुर-नामक नगर में सहस्राम्रवन- नामक उद्यान था । जितशत्रु वहाँ का राजा था । उस पोलासपुर नामक नगर में सद्दाल पुत्र नामक कुम्भकार आजीविकोपासक रहता था । वह गोशाला के सिद्धान्तों में ( अर्थ सुनने से ) लब्धार्थ, ( अर्थ धारण करने से ) गृहीतार्थ, ( संशय युक्त विषयों का प्रश्न करने से ) पृष्टार्थ, विनिश्चितार्थ और अभिगतार्थ, था । 'हे आयुष्मन् ! आजीवकों का सिद्धान्त इस अर्थरूप है, इस परमार्थ रूप है और शेष सब अनर्थरूप हैं, इस प्रकार आजीवकों के सिद्धान्त से आनी आत्मा को भावित करता हुआ वह विचरता था ।
उस आजीविकों के उपासक सद्दालपुत्र के पास एक करोड़ हिरण्य निधान में था, एक करोड़ व्याज पर दिया था और एक करोड़ धनधान्यादि के प्रविस्तर में लगा था। दस हजार गायों का एक व्रज उसके पास था । उस सद्दालपुत्र की भार्या का नाम अग्निमित्रा था । पोलासपुर नगर के बाहर उस सहालपुत्र के कुम्भकारापण थे । वहाँ कुछ को वह भृत्ति ( द्रव्य ) और कुछ को भोजन देता था । इस लोग प्रत्येक दिन प्रातःकाल करक ( वार्घटिका - जल भरने का ( गडुकान् = गडुआ ) पिठर ( स्थाली: = थाली ) घट (घड़ा ) अघट (घटार्द्धमानान् ), कलश ( आकार विशेषवतो बृहद्घटकान् ) अलिंजर ( महदुदक भाजन विशेषान् ) जंबूल ( लोकरूढ़यावसेयान् ) और उष्ट्रका ( सुरातैलादि भाजन ) बनाते थे । इस प्रकार आजीविका उपार्जन करते वह राजमार्ग पर विहरता था ।
प्रकार बहुत से घड़ा ) वारक
किसी समय वह सद्दालपुत्र मध्याह्नकाल में अशोकवनिका में आया ।
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सद्दालपुत्र
४७१ वहाँ आकर वह मंखालिपुत्र गोशालक के पास स्वीकार की हुई धर्मप्रज्ञप्ति को स्वीकार करके विचरण करने लगा। उसके बाद आजीविकोपासक सदालपुत्र के पास एक देव आया। वह श्रेष्ठ वस्त्र धारण किए हुए था ।
आकाश में स्थित रहकर उस देव ने इस प्रकार कहा-"भविष्य में यहाँ महामाहण, उत्पन्न ज्ञान-दर्शन धारण करने वाला, अतीत-वर्तमान-और भविष्य का जानने वाला, अरिहंत, जिन, केवली, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी, तीनों लोकों के लिए अवलोकित, महित और पूजित, देव मनुष्य-असुर सबके अर्चनीय, वंदनीय, सत्कार करने योग्य, सम्मान करने योग्य, कल्याण, मंगल देव और चैत्य के समान उपासना करने योग्य, सत्य कर्म की संपति युक्त पुरुष आने वाला है । इसलिए तू उनकी वंदना करना यावत् पर्युपासना करना । तथा प्रातिहारिक (जो वापस लिया जा सके) पीठ, फलग, शय्या, वसति, और संस्तारक के लिए आमंत्रित करना ।” इस प्रकार दूसरी और तीसरी बार ऐसा कह कर, वह देव जिधर से आया था, उधर चला गया ।
देव के ऐसे वचन सुनकर सद्दालपुत्र को इस प्रकार अध्यावसाय हुआ-"इस प्रकार के तो खरेखर हमारे धर्माचार्य (गोशालक) हैं। वे ही इन गुणों से युक्त हैं । वे ही यहाँ शीघ्र आने वाले हैं। मैं उनकी वंदना करूँगा यावत् पर्युपासना करूँगा तथा प्रातिहारिक यावत् संस्तारक के लिए आमंत्रित करूँगा।"
उसके बाद सूर्योदय होते वहाँ भगवान् महावीर स्वामी पधारे । उनकी वंदना करने के लिए परिषदा निकली यावत् उनकी पर्युपासना की। सद्दालपुत्र को इन सब से सूचना मिली कि श्रमण भगवान् महावीर विहार करते हुए यहाँ आये हैं । अतः उसे विचार हुआ-"मैं उनके पास जाकर उनकी वंदना तथा पर्युपासना करूँ।" ।
ऐसा विचार करके उसने स्नान यावत् प्रायश्चित किया ।
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तीर्थकर महावीर
स्नानोत्तर क्रियाएं यह पाठ सद्दालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा के प्रसंग में भी आया है । वहाँ टीकाकार ने लिखा है:
स्नाता 'कृतबलिकर्मा' बलिकर्म–लोकरूढं 'कृत कौतुकमङ्गलप्रायश्चिता' कौतुकं-मषोपुण्ड्रादि, मंगलं-दध्यक्षत चन्दनादि श्ते एव प्रायश्चितमिव प्रायश्चितं दुःस्वप्नादि प्रति. घातक त्वेनावश्यंकार्य त्वादिति'
-उवासगदसाओ सटीक, पत्र ४४-१ ऐसा पाठ कल्पसूत्र में स्वप्न पाठकों के प्रसंग में भी आता है ( कल्पसूत्र सुबोधिका टीक सहित, सूत्र ६७ पत्र १७५ ) इसकी टोका संदेह विपौषधि टीका में आचार्य जिनप्रभ ने इस प्रकार की है:----
'कयबलि कम्मे त्यादि' स्नानानंतरं कृतं बलिकर्मः यैः स्वगृहदेवतानां तत्तथा, तथा कृतानि कौतुक मंगलान्येव प्रायश्चितानि दुःस्वप्नादिविघातार्थमवश्य करणीयत्वाद्यैस्तैस्तथा, तत्र कौतुकानि मषीतिलकादीनि, मंगलानि तु सिद्धार्थदध्यक्ष तदुर्वाकुरादीनि अन्येत्वाहुः
'पायच्छित्ता' पादेन पादे वा छुप्ताश्चक्षुर्दोषपरिहारार्थ पादच्छुप्ताः कृतकोतुक मंगलाश्च ते पादच्छुनाश्चेति विग्रहः तथा शुद्धात्मानः स्नानेन शुचीकृतदेहाः
-पत्र ७७ ठीक इसी प्रकार कल्पसूत्र की टिप्पन में आचार्य पृथ्वीचन्द्र सरि ने भी लिखा है ( पवित्र कल्पसूत्र, कल्पसूत्र टिप्पनकम् , पृष्ठ १०)
घासीलाल जी ने उपासकदशांग का जो अनुवाद किया है, उसमें उन्होंने 'जाव' को वर्णक से पूरा तो किया, पर 'बलिकम्म' छोड़ गये ।
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सद्दालपुत्र
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और, मूल के 'व्हाए जाव पायच्छिते' पाठ में से 'पायच्छिते' का अनुवाद छोड़ गये ।
यह पाठ औपपातिकसूत्र में दो स्थलों पर आता है ( औपपातिकसूत्र सटीक, सूत्र ११ पत्र ४२ तथा सूत्र २७ पत्र १११ ) । औपपातिकसूत्र का जो अनुवाद घासीलाल ने किया, उसमें 'बलिकम्म' का अनुवाद पृष्ठ १०६ पर 'पशु-पक्षी आदि के लिए अन्न का विभाग - रूप बलिकर्म किया' और पृष्ठ ३५८ पर उसका अर्थ 'काक आदि को अन्नादिदान-रूप बलिकर्म किये' किया है । घासीलाल स्थानकवासी हैं, पर उनका यह अर्थ स्वयं स्थानकवासी लोगों को भी अमान्य है । स्थानक - वासी विद्वान रतनचंद्र ने अर्द्धमागधी कोष ५ भागों में लिखा है, उसमें बलिकर्म का अर्थ उन्होंने भाग ३, पृष्ठ ६७२ पर 'गृहदेवता की पूजा' ( सूत्र ११ ) तथा 'देवता के निमित्त दिया जाने वाला' ( सूत्र २७ ) दिया है। रतनचन्द्र जी के इस उद्धरण से ही स्पष्ट है कि, घासीलाल ने कितनी अनधिकार चेष्ट की है !
प्राचीन भारत में स्नान के बाद यह सब क्रियाएं करने की परम्परा सभी में थी, चाहे वह अन्यतीर्थिक हो अथवा श्रावक व्रतधारी । यह बात औपपातिकसूत्र वाले पाठ से स्पष्ट है, जिसमें कृणिक राजा ( सूत्र ११ ) तथा उसके अधिकारी ( सूत्र २७ ) इन क्रियाओं को करते हैं । डा० जगदीशचन्द्र जैन ने 'लाइफ इन ऐंसेंट इंडिया' में उसका ठीक अर्थ किया है — " हैविंग मेड द' आफरिंग टु द ' हाउस - गाड्स" (पृष्ठ २३५ ) वेचरदास ने 'भगवान् महावीर ना दश उपासकों' में ( पृष्ठ ४१ ) यह पूरा प्रसंग ही छोड़ दिया ।
भगवान् के पास जान
इन स्नोत्तर क्रियाओं के बाद सद्दालपुत्र शुद्ध और प्रवेश योग्य वस्त्र पहन कर बहुत से मनुष्यों के साथ अपने घर से बाहर निकला और
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तीर्थङ्कर महावीर पोलासपुर के मध्यभाग में से होता हुआ जहाँ सहस्राम्रवन था वहाँ गया। वहाँ भगवान् की तीन बार प्रदक्षिणा की तथा उनका वंदननमस्कार करके पर्युपासना की ।
उसके बाद भावान् ने धर्मोपदेश किया और धर्मोपदेश के पश्चात् उन्होंने सद्दालपुत्र से पूछा--"सद्दालपुत्र कल मध्याह्न काल में जब तुम अशोकवनिका में थे, तुम्हारे पास एक देव आया था ?" इसके बाद भगवान् ने देव द्वारा कथित सारी बात कह सुनायी । भगवान् ने पूछा-"क्या उसके बाद तुम्हारा यह विचार हुआ कि तुम उसकी सेवा करोगे ? पर, हे सद्दालपुत्र ! उस देव ने मंखलिपुत्र गोशालक के निमित्त वह नहीं कहा था।"
श्रमण भगवान् महावीर की बात सुनकर सदालपुत्र के मन में विचार हुआ-"ये उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारी यावत् सत्य कर्म की सम्पदा से युक्त भगवान् महावीर मेरे वंदन-नमस्कार करने के अतिरिक्त पीठ. आसन फलक आदि के लिए आमंत्रित करने योग्य हैं।" ऐसा विचार करके सद्दालपुत्र उठा और उठकर भगवान् का वंदन-नमस्कार करके बोला"हे भगवन् ! पोलासपुर नगर के बाहर मेरी कुम्भकार की :५०० दूकानें हैं। आप वहाँ (प्रातिहारिक ) पीठ, फलक यावत् संथारा ग्रहण करके निवास करें । भगवान् ने सद्दालपुत्र की बात स्वीकार कर ली और उसकी दूकानों में विहार करने लगे ।
- इसके बाद एक बार आजीविकोपासक सद्दालपुत्र हवा से कुछ सूखे हुए मृत्तिकापात्रों को अंदर से निकाल कर धूप में सूखने के लिए रख रहा था।
सदालपुत्र को प्रतिबोध उस समय भगवान् ने सद्दालपुत्र से पूछा--- "हे सद्दालपुत्र ! यह कुलाल भाण्ड कहाँ से आया और कैसे उत्पन्न हुआ ?' इस प्रश्न पर सद्दालपुत्र बोला-"यह पहले मिट्टी थी। इसे पानी में भिगोया गया ।
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सद्दालपुत्र
फिर क्षार (राख) और करीब (गोबर) मिलाया गया । चढ़ाया और उसके बाद करक यावत् उष्ट्रिका बनाये ।”
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भगवान् ने पूछा - "ये कुम्भकारपात्र उत्थान यावत् पराक्रम से उत्पन्न होते हैं या उत्थान सिवाय यावत् पराक्रमहीनता से ?” इस पर सद्दालपुत्र ने कहा - "भगवान् ! ये उत्थान सिवाय यावत् पराक्रमहीनता से बनते हैं; क्योंकि उत्थान यावत् पुरुषाकार का अभाव है । सब कुछ नियत है ।"
तव चाक पर
इस पर भगवान् ने पूछा - "हे सद्दालपुत्र ! यदि कोई व्यक्ति तुम्हारा वायु से सूखा पात्र चुरा ले पाये; यत्र-तत्र फेंक दे, फोड़ डाले, बलपूर्वक लेकर फेंक दे अथवा तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग भोगते विहरे तो क्या उसे तू दंड देगा ?"
"हाँ ! मैं उस पुरुष पर आक्रोश करूँगा, उसे हनन करूँगा, बाँधूंगा, तर्जना करूँगा, ताड़न करूँगा और मार डालूँगा।”
इस पर भगवान् बोले - "यदि उत्थान यावत् पराक्रम का अभाव है, और सर्व भाव नियत है, तो कोई पुरुष तुम्हारे वायु से सूखे, और पकाये हुए पात्रों का हरण करता नहीं; और उसे बाहर लेकर फेंकता नहीं, और तुम्हारे पत्नी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग भोगता नहीं है ! और, तुम उस पर आक्रोश करते नहीं, हनते नहीं यावत् जीवन से मुक्त नहीं करते । और, यदि कोई व्यक्ति इन पात्रों को उठा ले जाता है, और अग्निमित्रा के साथ भोग भोगता है, और तू आक्रोश करता है, तो तुम्हारा यह कहना कि 'उत्थान नहीं है यावत् सर्व भाव नियत है, ' मिथ्या है ।"
ऐसा सुनकर सद्दालपुत्र को प्रतिबोध हुआ ।
उसके बाद आजीविकोपासक सद्दालपुत्र ने भगवान् को वंदन नमस्कार किया और बोला — "हे भगवान् ! आप के पास श्रमणोपासक धर्म स्वीकार
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तीर्थकर महावीर करने की मेरी इच्छा है।" और, आनंद के समान सद्दालपुत्र ने भी श्रमणो-पासक-धर्म स्वीकार कर लिया । ___वहाँ से वह घर लौट कर आया तो अपनी पत्नी संघमित्रा से बोला"वहाँ श्रमण भगवान् महावीर पधारे हैं। तुम उनके पास जाओ और पाँच अणुव्रत तथा सात शिक्षाबत स्वीकार करो।" अग्निमित्रा ने सद्दालपुत्र की बात स्वीकार कर ली।"
उसके बाद सदालपुत्र ने अपने कौटुम्बिक पुरुष को बुलाया और चुला कर कहा
"हे देवानुप्रियो ! जल्दी चलने वाले, प्रशस्त और सदृश रूपवाले, समान खुर और पूंछ वाले, समान रंग से रंगे सींग वाले, सोने के कलाप' आभूषणों से युक्त, चाल में उत्तम, रजत की घंटियों से युक्त, स्वर्णमय सुतली से नाथ से बाँधे हुए, नीलकमल के समान शिरपेच वाले, दो युवा और उत्तम बैलों से युक्त, अनेक प्रकार को मणिमय घंटियों से युक्त, उत्तम काष्ठमय जूए और जोत की उत्तम डोरी से उत्तम रीति से जुते हुए प्रवर लक्षण युक्त, धम्मिय यानप्रवर उपस्थित करो।
उसके बाद अग्निमित्रा ने स्नान किया यावत् कौतुक मंगल और प्रायश्चित करके शुद्ध होकर तथा प्रवेश योग्य वस्त्र पहन कर, अल्प और महामूल्य वाले अलंकारों से शरीर का शृंगार कर चेटिओं तथा दासिओ के समूह से घिरी हुई धार्मिक श्रेष्ठ यान पर चढ़ी और पोलासपुर नगर के मन्त्र भाग में से होती हुई सहस्राप्रवन उद्यान में जहाँ भगवान् महावीर थे
१-कलापौ-ग्रीवाभरण विशेषौ ।
२-यह 'धम्मिय' इसी अर्थ में औपपातिकसूत्र में भी आया है। सूत्र ३० की टीका में टीकाकार ने लिखा है-धर्मणि नियुक्ता-औपपातिक सटोक, पत्र ११८ ।।
३-'यान प्रवर'-सम्बंधी यह पाठ भगवतीसूत्र सटीक, शतक ६, उद्देशा ६ सूत्र ३८, पत्र ८३८ में देवानंदा के प्रकरण में भी आता है।
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सद्दालपुत्र
वहाँ आयी । वहाँ पहुँच कर वहाँ यान से नीचे उतरी और चेटियों के साथ वह भगवान् महावीर के सम्मुख गयी। वहाँ पहुँच कर उसने तीन बार भगवान् की वंदना की, और वंदन-नमस्कार करके न अति दूर और न अति निकट हाथ जोड़ कर खड़ी रहकर उसने पर्युपासना की।
भगवान् ने वृहत् परिपदा के सम्मुख उपदेश किया। भगवान् का उपदेश सुनकर अग्निमित्रा बड़ी संतुष्ट हुई । उसने भगवान् से कहा
"हे भगवान् ! मैं निर्गथ-प्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ। आपके पास जिस प्रकार बहुत से क्षत्रिय प्रव्रजित हुए वैसे मैं प्रवजिति होने में समर्थ तो नहीं हूँ पर मैं पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत अंगीकार करना चाहती हूँ। हे भगवन् ! इस पर आप प्रतिबंध न करें ।" भगवान् के सम्मुख उसने १२ प्रकार का गृहस्थधर्म स्वीकार कर लिया। उसके बाद वह वापस चली आयी।
__ कालान्तर में भगवान् उद्यान से निकल कर अन्यत्र विहार करने चले गये।
उसके बाद श्रमणोपासक होकर सद्दालपुत्र जीवाजीव आदि तत्त्वों का जानकार होकर विचरण करता रहा। इस बात को सुनकर मंखलिपुत्र गोशालक को विचार हुआ-"सद्दालपुत्र ने आजीवक-धर्म को अस्वीकार कर अब निग्रंथ-धर्म स्वीकार कर लिया है।" ऐसा विचार करके वह पोलासपुर में आजीवक-सभा में आया। वहाँ पहुँचकर उसने पात्रादि उपकरण रखे और आजीवकों के साथ सद्दालपुत्र श्रमणोपासक के घर आया । सद्दालपुत्र ने गोशालक को आते देखा। पर, उसके प्रति उसने किसी भी रूप में आदर नहीं प्रकट किया। ऐसा देखकर गोशालक खड़ा रहा।
सद्दालपुत्र को आदर न करते देख, और उसे भगवान् महावीर का गुणगान करते देख, मंखलिपुत्र गोशालक बोला--- "हे देवानुप्रिय यहाँ महामाहण आये थे ?' इस पर सद्दालपुत्र श्रमणोपासक ने पूछा-'हे
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तीर्थङ्कर महावीर देवानु-प्रिय ! महामाहण कौन है ?' इस पर गोशालक ने कहा-"श्रमण भगवान् महावीर महामाहण हैं ?” ।
"हे देवानुप्रिय ! आप ऐसा क्यों कहते हैं ?
"हे सद्दालपुत्र ! खरेखर श्रमण भगवान् महावीर महामाहण, उत्पन्न हुए ज्ञान-दर्शन के धारण करने वाले यावत् महित्-स्तुति करने योग्य और पूजित हैं यावत् तथ्य कर्म की सम्पत्तियुक्त हैं। इस कारण से, हे देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान् महावीर महामाहण है ।”
फिर गोशालक ने पूछा- "हे देवानुप्रिय ! यहाँ महागोप आये थे ?" "हे देवानु प्रिय ! महागोप कौन हैं ?" । "श्रमण भगवान् महावीर महागोप हैं।" "हे देवानुप्रिय ! किस कारण से वह महागोप कहे जाते हैं ?"
"हे देवानुप्रिय ! इस संसार रूपी अटवी में, नाश को प्राप्त होते हुए, विनाश को प्राप्त होते हुए, भक्षण किये जाते, छेदित होते हए, भेदित होते हुए, लुप्त होते हुए, विलुप्त होते हुए बहुत-से जीवों का धर्मरूप दंड से संरक्षण करते हुए, संगोपन ( बचाव ) करते हुए, निर्वाण-रूपी बाड़े में अपने हाथ से पहुँचाते हैं। इस कारण हे सद्दालपुत्र ! श्रमण भगवान् महावीर महागोप हैं, ऐसा कहा जाता है ।
फिर गोशालक ने पूछा-“हे देवानुप्रिय ! यहाँ महासार्थवाह आये थे ?”
"हे देवानुप्रिय ! महासार्थवाह कौन हैं ?' "सद्दालपुत्र ! श्रमण भगवान् महावीर महासार्थवाह हैं।" "आप ऐसा क्यों कहते हैं ?"
"हे देवानुप्रिय ! संसाररूपी अटवी में नाश को प्राप्त होते हुए, विनाश को प्राप्त होते हुए, यावत् विलुप्त होते हुए बहुत-से जीवों को धर्ममय मार्ग में संरक्षण करते हुए निर्वाण-रूप महापट्टण-नगर के सम्मुख
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सहालपुत्र
४७९ अपने हाथों पहुँचाते हैं । इसलिए हे सद्दालपुत्र ! श्रमण भगवान् महावीर महासार्थवाह कहे जाते हैं।"
फिर गोशालक ने पूछा-'हे देवानुप्रिय ! क्या यहाँ महाधर्मकथो आये थे?"
"हे देवानुप्रिय ! महाधर्मकथी कौन ?” "श्रमण भगवान् महाधर्मकथी हैं।" "हे श्रमण भगवान् महावीर को महाधर्मकथी आप क्यों कहते हैं ?"
"हे देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान् महावीर अत्य त मोटे संसार में नाश को प्राप्त होते हुए, विनाश को प्राप्त होते हुए, भक्षण किये जाते हुए, छेदित होते हुए, लुप्त होते हुए, विलुप्त होते हुए, उन्मार्ग में प्राप्त हुए, सन्माग को भूले हुए, मिथ्यात्व के बल से पराभव प्राप्त हुए, और आठ प्रकार के कर्मरूप अंधकार के समूह में ढके जीवों के बहुत-से अर्थ यावत् व्याकरण' का उत्तर देकर चार गति-रूपी संसार की आटवी को अपने हाथ उतारते हैं । इसलिए श्रमण भगवान् महावीर धर्मकथी हैं।"
फिर गोशालक ने पूछा--'हे देवानुप्रिय ! यहाँ महानिर्यामक आये थे ?”
"महानिर्यामक कौन है ?"
१-पूरा पाठ है 'अट्ठाई हेउई कारणाई वागरणाई"। यह पाठ औपपातिक सूत्र २७ ( सटीक पत्र ११० ) में भी आता है। वहाँ उनकी टीका इस प्रकार दो है :___अर्थान्जीवादीन् हेतून-तद्वमकानन्वयव्यतिरेकयुक्तान् कारणानिउपपत्तिमा त्राणि यथा निरुपम सुखः सिद्धो ज्ञानानाबाधत्वप्रकर्षादिति, व्याकरणानि--परप्रश्नितार्थोत्तररूपाणि ...
-औपपातिकसूत्र सटीक, पत्र १११
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तीर्थकर महावीर "हे देवानुप्रिय ! भगवान् महावीर महानिर्यामक हैं।" "ऐसा आप किस कारण कह रहे हैं !”
"हे देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान् महावीर संसार-रूप महासमुद्र में नाश को प्राप्त होते हुए यावत् विलुप्त होते हुए डूबते हुए, गोता खाते हुए बहुत से जीवों को धर्मबुद्धि-रूपी नौका के द्वारा निर्वाण-रूप तट के सम्मुख अपने हाथों पहुँचाते हैं। इसलिए श्रमण भगवान् महावीर महानिर्मायक हैं।"
इसके बाद सद्दालपुत्र श्रमणोपासक ने मंखलिपुत्र गोशालक से इस प्रकार कहा- "हे देवानुप्रिय ! आप निपुण हैं, यावत् नयवादी, उपदेशलन्धी तथा विज्ञानप्राप्त हैं, तो क्या आप हमारे धर्माचार्य से विवाद करने में समर्थ हैं ?"
"मैं इसके लिए युक्त नहीं हूँ।”
"ऐसा आप क्यों कहते हैं कि आप हमारे धर्माचार्य यावत् भगवंत महावीर के साथ विवाद करने में समर्थ नहीं हैं ?”
"हे सद्दालपुत्र ! जैसे कोई पुरुष तरुण, बलवान, युगवान, यावत् निपुण शिल्प को प्राप्त हुआ हो, वह एक मोटी बकरी, सूअर, मुर्गा, तीतर, वतक, लावा, कपोत, कपिंजल, वायस और श्येन के हाथ से, पग से, खुर से, पूँछ से, पंख से, सींग से, विषाण से जहाँ से पकड़ता है, वहीं निश्चल
और निःस्पन्द दबा देता है; इस प्रकार भगवान् महावीर मुझे अर्थो, हेतुओं यावत् उत्तरों से जहाँ-जहाँ पकड़ेंगे निरुत्तर कर देंगे। इस कारण मैं कहता हूँ कि मैं भगवान् महावीर के साथ विवाद करने में समर्थ नहीं हूँ।”
तब सद्दालपुत्र ने कहा-'हे देवानुप्रिय ! आप हमारे धर्माचार्य भगवान् महावीर स्वामी का गुणकीर्तन करते हैं। अतः, मैं आपको
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सद्दालपुत्र
४८१ (प्रतिहारिक ) पीठ यावत् संथारा देता हूँ। आप जाइए मेरी कुम्भकारी की दूकानों से (प्रातिहारिक ) पीठ फलक आदि ले लीजिए।' इसके बाद मंखलिपुत्र उसकी दूकानों से ( प्रातिहारिक ) पीठ फलक आदि लेकर विचरने लगा।
इसके बाद मंखलिपुत्र गोशाला आख्यान' से, प्रज्ञापना से, संज्ञापना और विज्ञापना से सहालपुत्र को निर्ग्रन्थ-प्रवचन से चलायमान करने, क्षुब्ध कराने और विपरिणाम कराने में असमर्थ रहा तो शान्त, तान्त और परितान्त होकर पोलासपुर नगर से निकल कर बाहर के देशों में विचरने लगा।
इस प्रकार सद्दालपुत्र को विविध प्रकार के शील आदि पालन करते यावत् आत्मा को भावित करते १४ वर्ष व्यतीत हो गये । १५-वाँ वर्ष जब चालू था तो पूर्वरात्रि के उत्तर भाग में यावत् पौषधशाला में श्रमण भगवान् महावीर के अति निकट की धर्मप्रति स्वीकार करके सद्दालपुत्र विचरने लगा। तब पूर्वरात्रि के उत्तरार्ध काल में उसके समीप एक देवता आया । वह देवता नीलकमल के समान तलवार हाथ में लेकर बोला और चुलनीपिता श्रावक के समान उस देवता ने सब उपसर्ग किये । अंतर केवल यह था कि इस देवता ने उसके प्रत्येक पुत्र के मांस के नौ-नौ टुकड़े किये
१ 'आघवणाहिं य' ति आख्यानैः -उपासगदशांग सटीक पत्र ४७ २ 'प्रज्ञापनाभिः'~भेदतोवस्तु प्ररूपणाभिः-वही ३ संज्ञापनाभिः-सज्जान जननैः-वही ४ विज्ञापनाभिः-अनुकूलभणितैः-वही
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तीर्थकर महावीर यावत् सबसे छोटे लड़के को मार डाला और सद्दालपुत्र का शरीर लोहू से सींचा पर सद्दालपुत्र निर्भय धर्म में स्थित रहा।
__ अंत में उस देवता ने कहा- "यदि तू धर्म से विचलित नहीं होता तो मैं तेरी पत्नी अग्निमित्रा को लाकर तेरे सामने उसका घात करूँगा।" फिर भी सद्दालपुत्र निर्भय बना रहा । देवता ने जब दूसरी और तीसरी बार भी ऐसा कहा तो सद्दालपुत्र को उस देवता के अनायंपने पर क्षोभ . हुआ और उसे पकड़ने उठा। शेष सब चुलनीपिता के समान है। कोलाहल सुनकर अग्निमित्रा आयी और सब शेष पूर्ववत् समझ लेना चाहिए।
मृत्यु के बाद सद्दालपुत्र अरुणभूत-नामक विमान में उत्पन्न हुआ यावत् महाविदेह में वह सिद्ध होगा।
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८ महाशतक
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राजगृह नगर था | उस नगर में श्रेणिक नाम का राजा राज्य करता था । उस राजगृह-नगर में महाशतक - नामक आदय और समर्थ व्यक्ति रहता था । उसके पास कांस्य सहित आठ करोड़ हिरण्य निधान में, आठ करोड़ प्रविस्तर पर आठ करोड़ वृद्धि पर था । उस महाशतक को रेवती प्रमुख तेरह पत्नियाँ थीं । वे सभी अत्यंत रूपवती थीं । रेवती के पिता के घर से उसे आठ कोटि हिरण्य मिला था और दस हजार गौवों का एक व्रज मिला था । शेष १२ पत्नियों के पिता के घर से केवल एक-एक कोटि हिरण्य मिला था और एक-एक व्रज मिले थे । भगवान् महावीर ग्रामानुग्राम विहार करते हुए • समवसरण हुआ और परिषदा वंदन करने निकली । महाशतक ने भी भगवान् के निकट श्रावकधर्म स्वीकार कर लिया । महाशतक ने कांस्य सहित आठ करोड़ हिरण्य और आठ और अपनी १३ पत्नियों को छोड़कर शेष नारियों से किया । उसने यह भी व्रत लिया कि, दो द्रोण प्रमाग पात्र का ही व्यवहार प्रतिदिन करूँगा । उसके बाद श्रमणोपासक महाशतक जीव- अजीव आदि के ज्ञाता के रूप में विचार करता रहा ।
राजगृह पधारे । आनन्द के समान
व्रज का व्रत लिया मैथुन का परित्याग
हिरण्य से भरे कांस्य
१ - सकांस्य की टीका उपासकदशांग में इस प्रकार दी है:- :- सह कांस्येन द्रव्यमान विशेषेण सकांस्या ( पत्र ४८-२ ) अभिधान राजेन्द्र (भाग ३, पृष्ठ १८० ) में उसके लिए लिखा है : आढक इति प्रसिद्धे परिमाणे च । आप्टेज संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी भाग १
पृष्ठ ३२१ में आढ़क का परिमाण इस प्रकार दिया है द्रोण का चतुर्थांश६४ प्रस्थ १६ कुडव ( लगभग ७ रत्तल ११ औंस ) ।
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तीर्थकर महावीर कुछ समय बाद कुटुम्ब जागरण करते हुए मध्यरात्रि के समय रेवती को यह विचार हुआ कि इन बारह सपत्नियों के होते मैं महाशतक के साथ उदार मनुष्य संबन्धी भोग भोगने में समर्थ नहीं हूँ। मुझे इन बारह सपत्नियों को अग्नि-प्रयोग से, शस्त्र-प्रयोग से अथवा विष-प्रयोग से मुक्त करके उनका एक-एक करोड़ हिरण्य और एक-एक व्रज लेकर महाशतक के साथ निर्बाध भोग भोगना चाहिए। अतः एक दिन उस रेवती ने ६ पत्नियों को शस्त्र प्रयोग से और ६ पत्नियों को विषप्रयोग से मार डाला और उनकी सम्पत्ति पर स्वयं अधिकार कर लिया ।
वह रेवती गृहपत्नी मांस लोलुप होकर, मांस में मूर्छित होकर यावत् अत्यन्त आसक्त होकर शलाके पर सेंका हुआ, तला हुआ और भुना हुआ मांस खाती हुई और सुरा', मधु', मेरक, मद्य, सीधु और प्रसन्ना मद्य का व्यवहार करती हुई रहने लगी।
उसके बाद राजगृह में प्राणि-वध-निषेध ( हिंसा-निवारण) की घोषण
१--काष्ठपिष्ठ निष्पन्नां-स्वासगदसाओ सटीक, पत्र ४६-१ ।
२-क्षौद्रं वही पत्र ४६-२; मधु का अर्थ उत्तराध्ययन नेमिचंद्र की टीका सहित पत्र ३६६-१ में 'मद्य विशेषौ' लिखा है।
३-मद्यविशेष उवासगदसाओ सटीक पत्र ४६.२ उत्तराध्ययन की टीका में नेमिचंन्द्र में लिखा है-'मैरेयं सरकः” पत्र ३६६.१ ।
४-गुड धातकी भवं-उदार गतस ओ सर्टक ४६-२ । ५.-तद्विशेष-उवासगदसाओ सटीक पत्र ४६-२ । ६–सुराविशेष-उपासक सशा सटीक, पत्र ४६-२ ।
सुराओं का विशेष वर्णन कल्पवृक्षों वाले प्रकरण में जम्बूद्वीपप्रशप्ति (पूर्वभाग) पत्र १६-२-१००-२ तथा जीवाजीवाभिगमसूत्र सटीक १४५.२-१४६-१ में प्राता है। जिज्ञासु पाठक वहाँ देख लें। उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका पत्र ३७-२ में कादंबरी नाम भी आता ।
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महाशतक
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हुई। तब उस मांस-लोलुप ने कौलगृहिक (मैके के पुरुषों को बुलाया और बुलाकर कहा-“हे देवानुप्रिय ! तुम मेरे पितृगृह के व्रजों में से प्रतिदिन प्रातःकाल दो बछड़ा मार कर मुझे दिया करो।” वे नित्य दो बछड़े का बध करते । इस प्रकार रेवती मांस तथा मदिरा के व्यवहार में लिप्त रहने लगी।
महाशतक श्रमणोपासक को शीलवत के साथ आत्मा को भावित करते १४ वर्ष व्यतीत हो गये। तब उसने अपने ज्येष्ठ्य पुत्र को अपने स्थान पर गृहकार्य का भार सौंप कर पोषधशाला में भगवान् के समीप की धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार करके रहने लगा । एक दिन रेवती गृहपत्नी मत्तउन्मत्त होकर, नशे में डगमगाती हुई, केश को विक्षिप्त किये हुए, उत्तरीय को दूर करती हुई, शृंगार किये हुए, पोषधशाला में पहुँची और महाशतक के निकट पहुँच कर मोहोन्माद उत्पन्न करनेवाली और शृंगार रस वाला स्त्रीभाव प्रदर्शित करती हुई महाशतक श्रमणोपासक से बोली"धर्म की इच्छा वाले, स्वर्ग की इच्छा वाले, मोक्ष की इच्छा वाले, धर्म की आकांक्षा वाले, धर्म की पिपासावाले हे महाशतक श्रमणोपासक ! तुम्हारे धर्म, पुण्य और स्वर्ग अथवा मोक्ष का क्या फल है, जो तुम मेरे साथ उदार यावत् भोगने योग्य भोग नहीं भोगते ?"
श्रमणोपासक महाशतक ने रेवती के कहे पर ध्यान नहीं दिया और धर्म ध्यान करता विचरण करता रहा । अतः रेवती जिधर से आयी थी, उधर ही वापस चली गयी।
महाशतक श्रमणोपासक ने प्रथम उपासक प्रतिमा को स्वीकार करके विधिपूर्ण रूप में उसे पूरा किया । इस प्रकार उसने ग्यारहों प्रतिमाएँ पूरी की। इन घोर तपों से महाशतक श्रमणोपासक कृश और दुर्बल हो गया और उसकी नस-नस दिखने लगी।
१-राजगृह में उस समय श्रेणिक राजा था। हिंसा निवारण की यह घोषण वस्तुतः उस पर भगवान् महाबीर के उपदेश के प्रभाव का प्रतिफल था।
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तीर्थंकर महावीर
एक दिन धर्मजागरण करते हुए श्रमणोपासक महाशतक को विचार हुआ 'इस तप से मैं कृश हो गया हूँ ।' अतः वह मरणन्तिक संलेखना से जोषित शरीर होकर भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर मृत्यु की कामना न करता हुआ, विचारने लगा । शुभ अध्यवसाय से अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया और वह महाशतक श्रमणोपासक पूर्व दिशा में लवण समुद्र में हजार योजन प्रमाण, दक्षिण और पश्चिम दिशाओं में भी उतना ही और उत्तर दिशा में चुल्ल हिमवंत वर्षधर पर्वत तक जानने और देखने लगा । नीचे वह रत्नप्रभा पृथ्वी के चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाला लोलुप-अच्युत् नाम के नरकावास को जानने-देखने लगा ।
एक दिन रेवती गृहपत्नि मत्त यावत् ऊपर का वस्त्र हटाकर पोषधशाला में जहाँ महाशतक श्रावक था, वहाँ आयी और " हे मशाशतक श्रमणोपासक !” आदि पूर्ववत् बोली । रेवती ने इसी प्रकार दूसरी बार कहा। पर, जब उसने तीसरी बार कहा तो महाशतक श्रमणोपासक ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया और जानकर गृहपत्नी रेवती से कहा – हे रेवती ! तुम सात दिनों के अंदर अलसक ( विषूचिका ) रोग से आर्त ध्यान की अत्यन्त परवशाता से दुःखित होकर असमाधि में मृत्यु को प्राप्त करके रत्नप्रभा पृथ्वी मे अच्चुय-नरक में चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाली नैरयिक के रूप उत्पन्न होगी ।"
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रेवती ने सोचा महाशतक मुझ पर रुष्ट होगया है । अतः वह भयभीत होकर अपने घर वापस चली गयी गयी । सात रात के अंदर अलसक व्याधि से वह मर कर नरक गयी ।
उस समय भगवान् महावीर राजगृह पधारे । उन्होंने गौतम से महाशतक- रेवती की सम्पूर्ण घटना कह कर कहा - " हे गौतम ! महाशतक के निकट जाकर कहो ।
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महाशतक
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'हे देवानुप्रिय! अपश्चिम मरणान्तिक संलेखना के लिए क्षीण हुए शरीर वाले यावत् भक्त-पान का प्रत्याख्यान जिसने किया हो, ऐसे श्रमणोपासक को सत्य यावत् अनिष्ट कथन के लिए दूसरे को उत्तर देना योग्य नहीं है । उसने रेवती को ऐसा कहा, इसलिए उसे आलोचना करनी चाहिए और यथायोग्य प्रायश्चित करना चाहिए।' ____ महावीर स्वामी के आदेश से गौतम स्वामी महाशतक के निकट गये
और उसे भगवान् का विचार बताया । महाशतक ने बात स्वीकार कर ली। महाशतक श्रावकोपासक ने बीस वर्षों तक श्रावक-धर्म पाला, बहुत से शील, व्रत आदि से आत्मा को भावित किया और अंत में साठ भक्त का प्रत्याख्यान करके सौधर्म देवलोक में अरुणावतंसक-नामक विमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ ।चार पल्पोपम वहाँ रह कर वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध हो गया।
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६ नंदिनीपिता
श्रावस्ती-नामक नगरी थी। कोष्टक चैत्य था। जितशत्रुनामक राजा था। उस श्रावस्ती नगरी में नन्दिनीपिता-नाम का गृहपति रहता था । वह बड़ा धनवान् था। चार करोड़ हिरण्य उसके निधान में, चार करोड़ वृद्धि पर और चार करोड़ प्रविस्तर पर लगे थे। दस हजार गाय प्रति वज के हिसाब से उसे चार व्रज थे । अश्विनी-नाम की उसकी पत्नी थी। ___ भगवान् महावीर नगर में पधारे । समवसरण हुआ। आनंद के समान उसने गृहस्थ-धर्म स्वीकार किया।
नन्दिनीपिता श्रमणोपासक ने बहुत समय तक बहुत से शील-व्रत आदि का पालन किया । श्रावक धर्म पालते हुए चौदह वर्ष व्यतीत होने के बाद पन्द्रहवें वर्ष में अपने पुत्र को गृहभार सौंप कर भगवान् महावीर के समक्ष स्वीकार की हुई धर्मप्रज्ञप्ति को स्वीकार करके विचरण करने लगा । इस प्रकार बीस वर्षों तक श्रावक-धर्म पाल कर वह अरुणगव विमान में उत्पन्न हुआ और उसके बाद महाविदेह मैं मोक्ष को प्राप्त करेगा।
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१० सालिहीपिता
श्रावस्ती नामक नगरी थी। कोष्ठक-चैत्य था । जितशत्रु-नामका राजा राज्य करता था। उस नगरी में सालिहीपिता नामक गृहपति रहता था। चार करोड़ हिरण्य उसके निधान में थे, चार करोड़ वृद्धि पर और चार करोड़ प्रविस्तर पर लगे थे। दस हजार गौएं प्रति व्रज के हिसाब से उसके पास चार व्रज थे । उसकी पत्नी का नाम फाल्गुनी था । __भगवान् श्रावस्ती पधारे। समवसरण हुआ और आनंद के समान सालिहीपिता ने गृहस्थ-धर्म स्वीकार किया।
और, कामदेव के समान गृहभार अपने पुत्र को सौंप कर श्रमण भगवान् महावीर की धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार करके रहने लगा ? श्रावकों की ११ प्रतिमाएं उसने उपसर्ग रहित पूर्ण की। मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त होकर वह अरुणकिल-नामक विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ ? वहाँ चार पल्मोपय बिता कर वह महाविदेह में मोक्ष को प्राप्त करेगा ।
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मुख्य श्रावकों का संक्षिप्त परिचय
ये दसों ही श्रावक १५ वर्ष श्रावक धर्म पाल कर धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार करते हैं और २० वर्षं श्रावक-धर्म पाल कर स्वर्ग जाते हैं । वे सभी महाविदेह में सिद्ध होंगे ।
उपासक दशा के अंत में दसों श्रावकों का वर्णन अति संक्षेप-रूप में दिया है । पाठकों की सुविधा के लिए, हम यहाँ मूल गाथाएं और उनका अनुवाद दे रहे हैं: -
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वाणियगामे चम्पा दुवे य वाणारसीइ नयरीए । आलभिया य पुरवरी कम्पिल्लपुरं च बोद्धव्वं ॥ १ ॥ पोलासं रायगिहं सावत्थीए पुरीए दोन्नि भवे । एए उवासगाणं नयरा खलु होन्ति बोद्धव्वा ॥ २ ॥ सिवनन्द-भद्द - सामा-धन्न- बहुल- पूस - श्रग्गिमित्ताय । रेवइ- अस्सिणी तह फग्गुणी य भज्जाण नामाइ ||३|| श्रहिण्णाण - पिसाए माया वाहि धण- उत्तरिज्जे य । भज्जा य सुव्वया दुश्वया निरुवसग्गया दोन्नि ||४|| अरुणे अरुणाभे खलु अरुण पह- अरुणकन्त-सिट्ठे य । अरुणज्भर य छट्ठे भूय-वर्डिसे गवे कीले ॥ ५ ॥ चाली सट्टि असीई सट्टी सट्ठी य सट्ठि दस सहस्स । असिई चत्ता चत्ता चए एयाण य सहस्साणं ॥ ६ ॥ बारस अट्ठारस चडवीसं तिविहं अट्ठरस इ नेयं । धन्नेण ति चोवीसं बारस बारस य कोडीओ ||७|| उल्लण- दन्तवण- फले अभिङ्गव्वट्टणे सणाणे य ।
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मुख्य धावकों का संक्षिप्त परिचय
वत्थ चिलेवण पुष्फे आभरणं धूव पेज्जाइ ॥ ८ ॥ भक्खोयण-स्य घर सांगे माहुर-जेमण - पारो य । तम्बोले इगवीसं आणन्दाईण अभिग्गहा ॥ ६ ॥ उड्डुं सोहम्मपुरे लोलूए अहे उत्तरे हिमवन्ते । पञ्च सए तह तिदिसिं हिण्णाणं दसगणस्स ॥ १० ॥ दंसण वय- समाइय-पोसह-पडिमा अबम्भ-सच्चित्त । आरम्भ-पेस- उद्दिट्ठ- वज्जये समणभूप य ॥ ११ ॥ इक्कारस पडिमाओ वोसं परियाओ अणसणं मासे । सोहम्मे चउ पलिया महाविदेहम्मि सिज्झिहि ||१२||
१ वाणिज्य ग्राम में, ( २-३ ) दो चम्पा - नगरी में, ( ४ ) वारणसी में, (५) आलभिका में, ( ६ ) काम्पिल्यपुर में, ( ७ ) पोलासपुर में, (८) राजगृह में, ( ९-१० ) श्रावस्ती में श्रावक हुए । इन्हें श्रावकों का नगर जानना चाहिए ।। १-२ ।।
अनुक्रम से शिवानन्दा, भद्रा, श्यामा, धन्या, बहुला, पुष्या, अग्निमित्रा, रेवती, अश्विनी और फाल्गुनी ये दसों श्रावकों की भार्या के नाम हैं ॥ ३ ॥
१ – अवधिज्ञान, २ पिशाच, ३ माता, ४ व्याधि, ५ धन, ६ उत्तरीयवस्त्र, ७ सुव्रता भार्या, ८ दुर्व्रता भार्या ये अनुक्रम से ८ श्रावकों के निमित्त थे। अंतिम दो उपसर्ग रहित हुए ॥ ४ ॥
ये दसों श्रावक अनुक्रम से अरुण, अरुणाभ, अरुणप्रभ, अरुणकान्त, अरुणशिष्ट, अरुणध्वज, अरुणभूत, अरुणावतंसक, अरुणगव और अरुणकील विमान में उत्पन्न हुए ॥ ५ ॥
चालीस, साठ, अस्सी, साठ, साठ, साठ, दस, अस्सी, चालीस और चालीस हजार गायों का व्रज उनका जानना चाहिए ॥ ६ ॥
१ - बारह हिरण्य कोटि, २-अठारह हिरण्य कोटि, ३ चौबीस
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४६२
तीर्थकर महावीर हिरण्य कोटि, ४-५-६ प्रत्येक के पास १८-१८ कोटि, ७-तीन कोटि, ८चौबीस कोटि, ९-१० बारह बारह कोटि द्रव्य उनके पास थे । ७ ॥
उल्लण-अंगोछा, दातुन, फल, अभ्यंग, उद्वर्तन, स्नान, वस्त्र, विलेपन, पुष्प, आचरण, धूप, पेय, भक्ष्य, ओदन, सूप, घी, शाक, मधुर फल, रस, भोजन, पानी, ताम्बूल, ये २१ प्रकार के अभिग्रह आनन्दादि श्रावकों के थे ।। ८-९ ॥
ऊर्ध्व में सौधर्म देवलोक तक, अधो दिशा में रत्नप्रभा लोलुपच्युत नरक तक, उत्तर दिशा में हिमवन्त पर्वत तक, और शेष दिशाओं में ५०. योजन तक का अवधि ज्ञान दसों श्रावकों को था ॥ १० ॥
इन सभी श्रावकों ने दर्शन, व्रत, सामायिक, पोषध, कायोत्सर्ग प्रतिमा, अब्रह्मचर्यवर्जन, सच्चित्ताहारवर्जन, आरम्भवर्जन, प्रेष्यवर्जन, उदिष्टवर्जन, और ११ प्रतिमाओं का पालन किया । २० वर्षों तक श्रमणोपासक-धर्म पाला, एक मास का अनशन किया, सौधर्मकल्प में ४ पल्योपम की उनकी स्थिति है और अंत में ये सभी महाविदेह में जन्म लेकर मोक्ष जायेंगे।
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श्रावक-श्राविक
हम उवासगदसाओ में आये दस महाश्रावकों का विवरण दे चुके हैं। हम यहाँ उन अन्य श्रावकों का परिचय देना चाहते हैं, जिनका उल्लेग्न जैन-साहित्य अन्यत्र में आता है:
अग्निमित्रा-सद्दालपुत्र की पत्नी। देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ४७०।
अम्बड-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ २२०-२२५ ।
अभीति-उद्रायन-प्रभावती का पुत्र। राजाओं के प्रकरण में 'उद्रायण' का प्रसंग देखें । इनका उल्लेख भगवती सूत्र शतक १६, उद्देशा ६ में आया है।
अश्विनी-नंदिनीपिया की पत्नी। देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ४८८ ।
आनन्द-भगवान् के १० मुख्य श्रावकों में प्रथम । देखिए तीर्थङ्कर महावीर भाग २, पृष्ठ ४२२-४४१
आनन्द-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग १, पृष्ठ १९२; भाग २ पृष्ठ १०९ ।
ऋषिभद्रपुत्रयह आलभिया का गृहपति था। देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ६६ ।
उत्पला-इसका उल्लेख भगवतीसूत्र शतक १२, उदेशा १, में आता है । यह शंख श्रावक की पत्नी थी। इसी प्रकरण में शंख श्रावक का विवरण देखिए (पृष्ठ ४९६)।
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४६४
तीर्थंकर महावीर कामदेव-भगवान् के १० मुख्य में दूसरा । देखिए तीर्थङ्कर महावीर भाग २, पृष्ठ ४५६-४५८ ।
कुडकोलिक-भगवान् के १० मुख्य श्रावकों में छठाँ। देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ४६६-४६९ ।
चुलणीपिया-भगवान् के १० मुख्य श्रावकों में तीसरा । देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ४५९-४६१ ।
चुल्लशतक-भगवान् के १० मुख्य श्रावकों में पाँचवाँ। देखिए, तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ४६४-४६६ ।
धन्या-मुरादेव की पत्नी । देखिए तीर्थङ्कर महावीर भाग २, पृष्ठ ४६२।
नंद मणिकार-राजगृह नगर में गुणशिलक चैत्य था। वहाँ श्रेणिक-नामक राजा राज्य करता था। एक बार श्रमण भगवान् महावीर अपने परिवार के साथ गुणशिलक-चैत्य में पधारे । वहाँ एक बार सौधर्मकल्प का दुर्दुरावतंसक-नामक विमान का निवासी दुर्दुर-नामक एक तेजस्वी देव उनकी भक्ति करने आया । उस देव का तेज देखकर भगवान् के ज्येष्ठ शिष्य ने उस देव के अद्भुत तेज का कारण पूछा ?
भगवान् ने कहा-“हे गौतम ! इस नगर में पहले एक बड़ी ऋद्धि वाला नंद नामक एक मणिकार ( जौहरी) रहता था। उस समय मैं इस नगर में आया । मेरा धर्मोपदेश सुनकर उसने श्रमणोपासक-धर्म स्वीकार कर लिया।
असंयमी सहवास के कारण धीरे-धीरे वह अपने संयम में शिथिल होने लगा। एक बार निर्जल अहम स्वीकार करके वह पौषधशाला में था । दूसरे दिन उसे बड़ी प्यास लगी। असंयत तथा आसक्त होने के कारण वह अत्यन्त व्याकुल हो गया। उस समय उसे विचार हुआ कि लोगों को पीने अथवा नहाने के लिए जो बावड़ी, पुष्करिणी अथवा तालाब बनवाता है वह धन्य है । दूसरे दिन बड़ी भेंट लेकर वह राजा के पास गया और
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श्रावक-श्राविका
४६५ उनसे अनुमति लेकर उसने वैभारगिरि के पास समचौरस, बराबर काँठे वाली, अनेक जाति के पुष्पों से सुशोभित, और पुष्पों के गंध से छिंके भ्रमर, सारस आदि अनेक जलचरों की आवाजों से गुजारित एक बड़ी पुष्करिणी बनवायी।
उसके बाद उसके पूर्व दिशा के वनखंड में अनेक स्तम्भों से सुशोभित एक मनोहर चित्रसभा बनवायी। उसे अनेक प्रकार के काष्ठकर्म ( दारुमय पुत्रिकादि निर्मापणानि) पुस्तकर्म (पुस्त-वस्त्रं ), चित्र, लेप्य, ग्रन्थि आदि से सुशोभित कराया ।
उसमें विविध प्रकार के गायक, नट आदि वेतन पर रखे गये थे । राजगृह से यहाँ आने वाले अपने आसन पर बैठे-बैटे इनके नाटक आदि का आनंद लिया करते थे।
उसके दक्षिण दिशा में पाकशाला बनवायी गयी थी। उसमें विविध प्रकार की भोजन-सामग्री तैयार होती। श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, अतिथि लोगों को वहाँ से भोजन मिलता।
पश्चिम के वनखंड में चौकोर, विपुल हवा तथा प्रकाश से युक्त एक बड़ा औषधालय बनवाया । उसमें अनेक वैद्य, तथा वैद्यपुत्र, ज्ञायक (शास्त्रानध्यायिनोऽपि शास्त्रज्ञ प्रवृत्ति दर्शनेन रोगस्वरूपतः चिकित्सावेदिनः) ज्ञायकपुत्र, कुशल (स्ववितर्काच्चिकित्सादि प्रवोणाः) कुशलपुत्र आने वाले रोगियों के रोगों का निदान करके चिकित्सा करते थे।
उत्तर दिशा में एक बड़ी अलंकारिक सभा ( नापितकर्मशाला ) बनवायी थी। उसमें अनेक अलंकारिक पुरुष रोक कर रखे गये थे। कितने ही श्रमण, अनाथ, ग्लान, रोगी तथा दुर्बल उस सभा का लाभ उठाते ।
अनेक लोग आते जाते उस पुष्करिणी में नहाते, तथा पानी पीते । राजगृह नगर भर में नंद मणिकार के इस कृति की प्रशंसा करते ।
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४६६
तीर्थंकर महावीर
कुछ समय बाद, एक बार नंद मणिकार को सोलह रोगों ने एक साथ आ घेरा-श्वास, कास, ज्वर, दाह, शूल, भगंदर, अर्श, अजीर्ण, नेत्रपीड़ा, मस्तकपीड़ा, अरुचि, आँख कान की वेदना, खाज, जलोदर, और कुष्ठ । इनसे वह परीशान हो गया । उसकी चिकित्सा के लिए घोषणा की गयी ।
घोषणा को सुन कर बहुत से वैद्य, वैद्यपुत्र यावत् कुशलपुत्र हाथ में सत्यकोस ( शास्त्र कोश:- क्षुर नखरदनादि भाजनं स हस्ते गतः स्थितो येषां ते तथा, एवं सर्वत्रं ... ) कोसगपाय ( कोशक का पात्र ), शिलिका ( किराततिक्तकादितृण रुपाः प्रतत पाषाणरूपा वा शस्त्र तीक्ष करणार्थाः सिल्ली ) लेकर, गोली तथा भेजष, ओषध हाथ में लेकर अपने घर से निकले और नन्द मणिकार के घर पहुँच कर उन लोगों ने नन्द मणिकार
१ - आचारांग सूत्र सटीक श्रु० १, ०६, ३०१, सूत्र १७३ पत्र २१०-२ में १६ रोगों के नाम इस प्रकार आते हैं:
१ गंडी
हवा २ कोटी ३ रायसी ४ श्रवमारियं 1
५ काणियं ६ किमियं चेव, ७ कुणियं ८ खुज्जियं तहा ||१४|| उदरिं च पास १० मूयं च ११ सूणीयं च १२ गिलासगि । १३ वेवई १४ पीढ सपि च, १५ सिलिवयं १६ महुमेह ||१५|| सोलस ए ए रोगा, और 'कुष्ठ' शब्द पर टीका करते हुए शीलांकाचार्य ने लिखा है
'कुष्ठी' कुष्ठ मष्टादशभेदं तदस्यास्तीति कुष्ठी, अत्र सप्त महाकुष्ठानि तद्यथा— श्ररुणोदुम्बर निश्यजिह्नकपाल काकनाद पौण्डरीकदद्रु कुष्टानीति, महत्वं चैषां सर्वधात्वनु प्रवेशादसाध्य त्वाच्चेति, एकादश मुद्र कुष्ठानि, तद्यथा स्थूलारुष्क १, महाकुष्ठ २, कुकुष्ठ ३, चर्मदल ४, परिसर्प ५, विसर्प ६, सिध्म विचर्चिका ८, ७, किटिभ ६, पामा १० शतारुक ११ संज्ञानीति, सर्वाण्यप्यष्टादश...
- पत्र २१२-२
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श्रावक-श्राविका
४६७ का शरीर देखा, रोगी होने के कारण पूछे', और फिर उव्वलणेहि ( उद्वेलनानि-देहोपलेपन विशेषाः यानि देहाद्धस्तामर्श नेनापनीयमानानि मलादिक मादायो द्वलंतीति ) उवणेहिं (उद्वर्तनानि-तान्येव विशेष वस्तु लोकरूढ़ि समवसेय), स्नेहपान ( द्रव्य विशेष पक्कतादि पानानि वमनानि च प्रसिद्धानि), विरेचनानि (अधोविरेकाः) स्वेदनानि (सप्तधान्यकादिभिः), अवदहनानि ( दम्भनानि) अपस्नानानि (स्नेहापनयनहेतुद्रव्य संस्कृत जलेन स्नाति), अनुवासनाः (चर्मयंत्र प्रयोगेणापानेन जठरे तैल विशेष प्रवेशनानि ), वास्तिक कर्माणि ( चर्मवेष्टन प्रयोगेण शिरः प्रभृतीनां स्नेहपूरणानि गुदे वा वादि-क्षेपणानि), निरुहा ( अनुवासन एव केवलं द्रव्य कृतो विशेषः ), शिरोवेधा ( नाडी वेधनानि रुधिर मोक्षणानीत्यर्थः), तक्षणानि ( त्वचः क्षुरप्रादिना तनूकरणानि) प्रक्षणानि (हवानित्वचो विदारणानि ) शिरोबस्तयः ( शिरसि बद्धस्य चर्मकोशस्य संस्कृत तैलापूर लक्षणोः प्रागुक्तानि बस्ति कर्माणि सामान्यानि अनुवासना निरुहशिरोबस्त यस्तु तद्भेदाः) तर्पणानि ( स्नेह द्रव्य विशेषैवृहणानि ), पुटपाकः (कुष्ठिकानां कणिकावेष्टिता नामग्निनापचनानि) अथवा पुटपाकाः पाकविशेष निष्पन्ना औषध विशेषाः), छल्लयो (रोहिणी प्रभृतयः), वल्ल्यो ( गुड्ची प्रभृतयः ),कन्दादीनि ( कन्दों से ), पत्र से, पुष्प से, फल से, बीज से, शिलिका जाति के तृण
-णवहिं ठाणेहि रोगुप्पत्ती सिया तं०-अच्चासणाते, अहितासणाते, अतिणिहाए, अतिजागरितेण, अचारनिरोहेणं, पासवणनिरोहेणं, अद्धाणगमणेणं, भोयण पडिकूलताते, इंदियत्थ विकोवण्याते
ठाणांगसूत्र, ठा० ६ उ० ३, सूत्र ६६७ पत्र ४४६-१ -१ अत्यशन, २ अहिताशन, ३ अतिनिद्रा, ४ अतिजागरण, ५ मूत्रावरोध, ६ मल वरोध, ७ अध्वगमन, ८ प्रतिकूल भंजन ह काम विकार
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४६८
तीर्थकर महावीर से, गोली से, ओषध से, भेषज से रोग दूर करने का प्रयास किया पर निष्फल रहे।
नंदमणिकार का मन अंत समय तक बावड़ी में रहा; अतः मरकर वह उसी बावड़ी में मैंढक हुआ ।
पुष्करिणी पर आये लोग नंद की प्रशंसा करते । उसे सुनकर उसे पूर्वभव का स्मरण हो आया कि श्रमणोपासक-पर्याय शिथिल करने के कारण वह मेढक हुआ। वह पश्चाताप करने लगा और संयम पालने का उसने संकल्प ले लिया तथा अपनी हिंसक प्रवृत्ति बंद कर दी ।
एक बार पुष्करिणी में स्नान के लिए आये लोगों के मुख से उसने मेरे आने की बात सुनी और बाहर निकलकर प्लुत गति से मेरी ओर चला।
उस समय श्रेणिक मेरा दर्शन करने आ रहा था । वह श्रेणिक के दल के एक घोड़े के पैर के नीचे दब गया। "श्रमण भगवान् महावीर को मेरा . नमस्कार हो', यह उसने अपनी भाषा में कहा । अच्छे ध्यान को ध्याते हुए वह मेंढक मर गया । वही दुर्दुर नामक तेजस्वी देव हुआ ।' . नंदिनीपिया-भगवान् के १० महाश्रावकों में नवाँ । देखिए तीर्थकर महावीर भाग २, पृष्ठ ४८८ ।।
पालिय-श्रमण-श्रमणियों के प्रसंग में समुद्रपाल का वर्णन देखिए । उत्तराध्ययन के २१ वें अध्ययन में इसके लिए आता है
चंपाए पालिए नाम, सावए आसि वाणिए । महावीरस्स भगवओ, सीसे सो उ महप्पणौ ॥ १॥ पुष्कली-देखिए तीर्थंकर महावीर भाग २, पृष्ठ ४९९ ।
पुष्या-कुण्डकोलिक की पत्नी । देखिए तीर्थकर महावीर, भाग २, पृष्ठ ४६६ ।
१- पृष्ठ ५१ पर जिस कुष्ठी का उल्लेख कर आये हैं, वह यही दुईकांक देव था।
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श्रावक-श्राविका
४६६ फाल्गुनी-सालिहीपिया की पत्नी। देखिए तीर्थंकर महावीर, भाग २, पृष्ठ ४८९ ।।
बहुल-देखिए तीर्थंकर महावीर, भाग १, पृष्ठ १९२, भाग २ पृष्ठ ११० ।
बहुला-चुल्लशतक की पत्नी-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ४६४ ।।
भद्रा-कामदेव की पत्नी-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ४५६ ।
मदुक-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ २४७
महाशतक-भगवान् के १० मुख्य श्रावकों में आठवाँ । देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ४८३-४८७ ।
रेवतो-महाशतक की पत्नी-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ४८३ ।
रेवती-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ १३४ । लेप-देखिए, तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ २५२ । विजय-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ १०९ ।
शंख-श्रावस्ती-नामक नगर में कोष्ठक-चैत्य था । उस नगरी में शंख-प्रमुख बहुत-से श्रमणोपासक रहते थे। उस शंख नामक श्रमणोपासक को उत्पला-नामकी स्त्री थी। वह उत्पला श्रमणोपासिका थी। उसी श्रावस्तीनगरी में पुष्कली श्रमणोपासक था ।
उस समय एक बार भगवान् श्रावस्ती पधारे। भगवान् ने धर्मकथा कही। उसके अन्त में श्रावकों ने भगवान से प्रश्न पूछे और उनका अर्थ ग्रहण किया ।
अंत में शंख-नामक श्रमणोपासक ने सभी श्रामणोपासकों से कहा--- "हे देवानुप्रिय ! तुम लोग पुष्कल अशन, पान, खादिम, स्वादिम, आहार तैयार कराओ। हम लोग इनका आस्वाद लेते पाक्षिक पोषध का अनुपालन करते विहार करें ।'' श्रमणोपासकों ने उसे विनय पूर्वक स्वीकार कर लिया ।
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तीर्थंकर महावीर
फिर शंख को यह विचार आया - " भोजन आदि का स्वाद लेते हुए पोषध स्वीकार करना मुझे स्वीकार्य नहीं है । मैं तो पोषध में ब्रह्मचर्य पूर्वक मणि-स्वर्ण आदि का त्याग कर डाभ का संथारा विछा कर अकेले पोषध स्वीकार करूँगा ।" ऐसा विचार कर अपनी पत्नी की अनुमति लेकर वह पोषधशाला में पाक्षिक पोषध का पालन करने लगा ।
५००
अन्य श्रमणोपासकों ने जब सत्र प्रबंध कर लिया और शंख नहीं आया तो उसे बुलाने का निश्चय किया । पुष्कल बुलाने के लिए शंख के घर गया । शंख के पौषध व्रत ग्रहण करने की बात जानकर वह उस स्थान पर गया जहाँ शंख था । शंख ने उससे कहा- " आप लोग आहार आदि का सेवन करते हुए व्रत करें । "
एक दिन मध्यरात्रि के समय धर्मजागरण करते हुए शंख के मन में विचार हुआ कि, भगवान् का दर्शन करके तब पाक्षिक पोषध की पारणा करूँ । जब वह भगवान् को वंदन करने गया तो धर्मोपदेश के बाद भगवान् ने कहा - "हे आर्यो तुम लोग शंख की निन्दा मत करो । यह शंख श्रमणोपासक धर्म के विषय में दृढ़ है ।" इसके बाद गौतम स्वामी ने भगवान् से धर्मजागरण आदि के सम्बंध में प्रश्न पूछे । फिर शंख ने क्रोध, मान आदि के सम्बंध में अपनी शंकाएँ भगवान् से पूछ कर मिटाय ।
जब शंख चला गया तो गौतमस्वामी ने पूछा46. 'क्या शंख साधु होने में समर्थ है ?" भगवान् ने ऋषिभद्रपुत्र सरीखा ही उत्तर दिया | इसके सम्बंध में कल्पसूत्र में आता है
समणस्स णं भगवओो महावीरस्स संख सयगपामोक्खाणं समणोवासगाणं.
- कल्पसूत्र सुबोधिकाटीका सहित सूत्र १३६ पत्र ३५७ इससे स्पष्ट है कि वह कितना महत्वपूर्ण श्रमणोपासक था ।
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श्रावक-श्राविका
५०१
शिवानन्दा - आनंद श्रावक की पत्नी । देखिए तीर्थङ्कर महावीर,
भाग २, ४२७ ।
श्यामा - चुहनीपिता की पत्नी । देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ४५९ ।
सद्दालपुत्र – भगवान् के
तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ४७० - ४८२ ।
सालिहीपिया-- भगवान् के १० मुख्य श्रावकों में दसवाँ । देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ४८९ ।
सुदंसण - देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ४८ । सुनन्द - देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ १०९ । सुरादेव - भगवान् के मुख्य श्रावकों में चौथा । देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ४६२ ।
१० मुख्य श्रावकों में सातवाँ । देखिए
सुलसा' - राजगृह नगरी में श्रेणिक राजा के शासन काल में नागनामक सारथी रहता था । यह नाग सारथी महाराज प्रसेनजित का सम्बंधी था । उसकी पत्नी का नाम सुलसा था । सुलसा शीलादिक गुणों से युक्त थी । पर उसे कोई पुत्र नहीं था । एक दिन पुत्र न होने के कारण नाग को दुःखी देखकर, सुलसा ने कहा - " धर्म की आराधना से हमारा मनोरथ अवश्य पूर्ण होगा । इसके लिए आप चिन्ता न करें ।" और, वह त्रिकाल पूजा, ब्रह्मचर्य पालन तथा आचाम्ल करने लगी ।
उसके इस व्रत को देखकर इन्द्र ने एक बार सुलसा की बड़ी प्रशंसा की । इन्द्र द्वारा ऐसी प्रशंसा सुनकर हरिणेगमेषी दो साधुओं का रूप बनाकर सुलसा के घर गया और लक्षपाक तैल माँगा । सुलसा सहर्ष
१ - सुलसा की कथा आवश्यक चूं उत्तरार्द्ध पत्र १६४ |
भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति पत्र २४८-२ - २५५-१ ।
उपदेशप्रासाद, स्तम्भ ३, व्याख्यान ३६ आदि ग्रंथों में आती है ।
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५०२
तीर्थकर - महावीर
तैल ले आयी; पर हरिणेगमेषी ने दैव-शक्ति से तैलपात्र ही तोड़ दिया । इस प्रकार वह तीन पात्र ले आयी और हरिणेगमेत्री उनको तोड़ता रहा । इतने पर भी सुलसा की भावना में कोई अंतर न आया जान हरिणेगमेषी ने प्रसन्न होकर ३२ गोलियाँ दीं और कहा कि एक गोली खाना इससे तुम्हें एक पुत्र होगा । सुलसा ने सोचा कि ३२ बार गोली खाने से ३२ चार पुत्र प्रसव का कष्ट उठाना पड़ेगा । अतः यदि सब गोली एक साथ ही खा जायें तो ३२ लक्षणों वाला पुत्र होगा । ऐसा विचार कर सुलसा ने कुल गोलियाँ एक साथ खा लीं। इससे उसके गर्भ में ३२ पुत्र आये । गर्भ में इतने पुत्र आने से उसे भयंकर पीड़ा हुई । कायोत्सर्ग कर पुनः सुलसा ने हरिणेगमेषी का आह्वान किया । हरिणेगमेषी ने अपने देवबल से सुलसा की पीड़ा तो दूर कर दी पर कहा कि, ये सभी बच्चे समान आयुष्य वाले होंगे ।
कालान्तर में सुलसा के ये ३२ पुत्र श्रेणिक के अंगरक्षक बने । श्रेणिक जब चेल्लणा का अपहरण करने गया था, उसमें ये सुलसा के ये ३२ पुत्र मारे गये ।
एक बार अंबड जब राजगृह आ रहा था, तो भगवान् ने सुलसा को धर्मलाभ कहलाया । सुलसा के धर्म की परीक्षा लेने के लिए अंबड ने नाना प्रपंच रचे पर सुलसा उसे वंदन करने नहीं गयी । अंत में पाँचवें दिन मुलसा के घर आकर अंबड ने भगवान् का संदेश दिया । यह सुलसा मृत्यु के समय भगवान् महावीर का अतः वह स्वर्ग गयी और वहाँ से च्यवकर वह अगली तीर्थङ्कर होगी।"
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१- ठाणमिसूत्र ठा० उ० ३ सूत्र ६६१, पत्र ४५५-२ ।
स्मरण करती रही । चौबीसी में १५ - वाँ
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भगवान् महावीर
के
भक्त राजे
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अह पंचहिं ठाणेहिं, जेहि सिक्खा न लब्भई । थम्भा कोहा पमाएणं, रोगेणाऽऽलस्सएण य ॥३॥
[उत्तरा० अ० ११ गा० ३] इन पाँच कारणों से मनुष्य सच्ची शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता:
अभिमान से, क्रोध से, प्रमाद से, कुष्ठ आदि रोग से, और आलस्य से।
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भक्त राजे अदीनशत्रु'
भगवान् महावीर के समय में हस्तिशीर्ष' - नामक नगर में अदीनशत्रुनामक राजा राज्य करता था । उसे १००० रानियाँ थीं, जिनमें धारिणी देवी मुख्य थी । धारिणी देवी ने एक दिन स्वप्न में सिंह देखा । समय आने पर उन्हें पुत्र प्राप्ति हुई । उसका नाम सुबाहु रखा । ( सुबाहु के जन्म की कथा मेघकुमार के सदृश जान लेनी चाहिए )
यह सुबाहुकुमार जब युवा हुआ तो उसका विवाह हुआ । सुबाहुकुमार के ५०० पत्नियाँ थीं; जिनमें पुष्पचूला प्रमुख थी ( सुबाहु - कुमार के विवाह का प्रसंग महाबल के विवाह के अनुसार जान लेना चाहिए )
एक बार भगवान् महावीर विहार करते हुए हस्तिशीर्ष- नामक नगर में आये। उस नगर के उत्तर-पूर्व दिशा में पुष्पकरंडक नाम का एक रमणीय उद्यान था । उस उद्यान में कृतवनमालप्रिय - नाम के एक यक्ष का बड़ा सुन्दर यक्षायतन था ।
भगवान् के आने का समाचार सुनकर राजा अदीनशत्रु कूणिक की भाँति वंदन करने और धर्मोपदेश सुनने गया । उनका पुत्र सुबाहुकुमार भी जमालि के समान रथ से गया । परिषद और धर्मकथा सुनकर सब चले गये । सुबाहुकुमार ने पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत ग्रहण कर लिये ।
१ – विपाकसूत्र ( पी० एल० वैद्य-सम्पादित ) श्रु० २, अ० १, पृष्ठ ७५-७६ । २ - इस नगर में भगवान् अपने छद्मस्थ काल में भी जा चुके थे। हमने इसका उल्लेख अपने इसी ग्रन्थ के भाग १, पृष्ठ २२४ पर किया है।
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५०६
तीर्थकर महावीर
कालान्तर में एक बार मध्यरात्रि में धर्मजागरण जागते हुए सुबाहुकुमार के मन में यह संकल्प उठा कि वे नगर आदि धन्य हैं जहाँ भगवान् महावीर विचरते हैं और वे राजा आदि धन्य हैं जो भगवान् के पास मुंडित होते हैं । यदि भगवान् यहाँ आयें तो मैं उनसे प्रव्रज्या लूँ।
सुबाहुकुमार के मन की बात जान कर भगवान् महावीर ग्रामानुग्राम विहार करते हुए हस्तिशीर्ष-नामक नगर में आये और पुष्पकरंडक-नामक उद्यान के यक्षायतन में ठहरे । फिर राजा वंदन करने गये। सुबाहुकुमार भी गया । धर्मोपदेश सुनकर सुबाहुकुमार ने प्रव्रज्या लेने की अनुमति माँगी । मेघ-कुमार की तरह उसका निष्कमण-अभिषेक हुआ और उसके बाद उसने प्रव्रज्या ले ली। ____साधु होकर सुबाहुकुमार ने एकादशादि अंगों का अध्ययन किया तथा उपवास आदि अनेक प्रकार के तपों का अनुष्ठान किया। बहुत काल तक श्रामण्यपर्याय पाल कर एक मास की संलेखना से अपने आपको आराधित कर २६ उपवासों के साथ आलोचना और प्रतिक्रमण करके आत्मशुद्धि द्वारा समाधि प्राप्त कर काल को प्राप्त हुआ।
अप्रतिहत' सौगंधिका-नाम की नगरी थी। उसमें नीलाशोक-नामक उद्यान था। उसमें सुकाल नामक यक्ष का स्थान था।
उस नगरी में अप्रतिहत नामक राजा का राज्य था। सुकृष्णा उसकी मुख्य देवी थी। तथा महाचन्द्र उनका कुमार था । ( महाचंद्र के जन्म, शिक्षा-दीक्षा, विवाह आदि का विवरण सुबाहु सरीखा जान लेना चाहिए ।)
भगवान् महावीर के सौगंधिका आने पर अप्रतिहत राजा भी बंदन आदि के लिए समवसरण में गया ( पूरा विवरण अदीनशत्रु-सा ही है )
१-विपाकसूत्रा (पी० एल० वैद्य-सम्पादित ) श्रु० २, अ० ५, पष्ठ ८२ ।
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भक्त राजे
५०७ महाचन्द्र ने पहले श्रावक-धर्म स्वीकार किया और बाद में भगवान् के सम्मुख प्रवजित हुआ ।
अर्जुन' सुधोस-नामक नगर था। देवरयण उद्यान था। उसमें वीरसेननामक यक्ष का यक्षायतन था।
उस नगर में अर्जुन नामक राजा था। तत्त्ववती उसकी रानी थी। भद्रनन्दी उनका कुमार था।
उस नगर में भगवान् महावीर के आने आदि तथा सभा आदि का विवरण अदीनशत्रु के समान ही है ।
भद्रनन्दी कुमार ने सुबाहु के समान पहले श्रावक-धर्म स्वीकार किया और फिर बाद में साधु हो गया ।
अलक्ख भगवान् महावीर के काल में वाराणसी-नगरी मैं अलक्ख नाम का राजा राज्य करता था। वाराणसी नगर के निकट काम महावन नाम का चैत्य था।
एक बार भगवान् महावीर विहार करते हुए वाराणसी आये । भगवान् महावीर के आने का समाचार अलक्ख को मिला । समाचार सुनकर
१-विपाक सूत्र ( पी० एल० वैध-सम्पादित ) श्रु० २, अ० ८ पृष्ठ ८२ ।
२-'अलक्ख' का संस्कृत रूप 'अलक्ष्य' होगा। देखिए अल्पपरिचितसैद्धांतिक शब्द कोष, पृ ८१ ।
३-वाणारसीए नयरीए काममहावणे चेइए । -अंतगडदसाओ, एन० वी० वैद्य-सम्पादित, पृष्ठ ३७ । इस काम महावन का उल्लेख भगवती सूत्र शतक १५ उ०१ में भी आता है
वाराणसीए बहिए काम महावणंसि चेइयंसि ।
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तीर्थंकर महावीर
अलक्ख भगवान् का उपदेश सुनने गया । भगवान् के उपदेश से प्रभावित होकर अलक्ख ने गृहस्थ जीवन का परित्याग करने का निश्चय कर लिया और अपने ज्येष्ठ पुत्र को गद्दी पर बैठाकर स्वयं साधु हो गया । साधु होकर उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। वर्षों तक साधु-जीवन व्यतीत किया और विपुल - पर्वत पर निर्वाण को प्राप्त किया ।
राजगृह के निकट था । भगवतीसूत्र में पाठ
५०८
यह विपुल - पर्वत आया है ।
रायगिहे नगरे समोसरणं विपुलं पव्वयं' | जैन-ग्रन्थों में राजगृह के निकट पाँच पर्वतों का उल्लेख मिलता है १ विभारगिरि, २ विपुलगिरि ३ उदयगिरि, ४ स्वर्णगिरि ५ रत्नगिरि मेघविजय उपाध्याय रचित दिग्विजय महाकाव्य में आता है :
वैभार रत्न विपलोदयहेम शैलैः ।
अकबर ने ७ वीं माह उरदी बहेस मुताबिक माह रबीउल अव्वल सन् ३७ जुलूसी को एक फरमान श्री हीरविजय सूरि के नाम दिया था । उसमें दो स्थानों पर 'राजगृह के पाँचो पर्वत' उल्लेख आया है ।
उद्रायण
भगवान् महावीर के काल में सिंधु -सौवीर देश में उद्रायण नामक राजा राज्य करता था । उसकी राजधानी वीतभय थी ।
जैन ग्रंथों में तो सर्वत्र सिन्धु- सौवीर की राजधानी वीतभय ही बतायी गयी है, पर आदित्त - जातक ( जातक हिन्दी अनुवाद, भाग ४; पृष्ठ १३९ ) में सिंधु - सौवीर की राजाधानी रोरुवा ( अथवा रोरुव ) दिया है। ऐसा ही
१ - भगवतीसूत्र ( बेचरदास - सम्पादित ) शतक २, उद्देशा १, ५४ २४२-२४४ २ - मेघ विजय उपाध्याय रचित दिग्विजय महाकाव्य, पृष्ठ १३० ।
३ -- जैनतत्त्वादर्श, उत्तरार्द्ध, पृष्ठ ५२६ - ५३० ।
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भक्त राजे
५०६
उल्लेख दिव्यावदान ( पृष्ठ ५४४ ) तथा महावस्तु ( जोंस - अनूदित, भाग ३, पृष्ठ २०४ ) में भी है ।
डाक्टर जगदीशचन्द्र जैन ने ( लाइफ इन ऐंशेंट इंडिया, पृष्ठ ३०२ ) वीतभय का दूसरा नाम कुंभारपक्खेव माना है और प्रमाण में आवश्यक चूर्णि, उत्तरार्द्ध, पत्र २७ दिया है । आवश्यकचूर्णि में धूल वाले प्रसंग में आता है ।
सिणवल्लीए कुंभारपक्खेवं नाम पट्टणं तस्स नामेणं जात ।
यहाँ सिणवल्ली शब्द की ओर डाक्टर महोदय ने ध्यान नहीं दिया । उद्रायण राजा की कथा उत्तराध्यन के १८ वें अध्याय में भी आयी है । वहाँ धूल की वृष्टि वाले प्रसंग में आता है :
सो य श्रवहरितो श्रणवराहि त्ति काउं सिणवल्लीए | कुम्भकारवेक्खो नाम पट्टणं तस्स नामेणं कयं ॥ — उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका सहित, पत्र २५५-२ । शय्यातरं मुनेस्तस्य कुम्भकारं निरागसम् । सासुरी सिनपल्यां प्राग निन्मे हृत्वा ततः पुरः ॥ २९८ ॥ तस्य नाम्ना कुम्भकार कृतमित्याह्वयं पुरम् ।
तत्र सा विदधे किंवा दिव्य शक्तेर्न गोचरः ॥ २१६ ॥
- उत्तराध्यन भावविजय की टीका, पत्र ३८७-२ । इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि, देव ने उपद्रव द्वारा वीतभय नष्ट करने के पश्चात शय्यातर कुम्भकार को सिणवल्ली पहुँचा दिया और सिणवल्ली का नाम कुम्भारपक्खेव पड़ा न कि वीतभय का ।
बहुत से स्थलों पर भूल से अथवा अज्ञानवश वीतमय के इस राजा का नाम उदायन मिलता है । पर उसका सही नाम उद्रायण था । मेरे पास हरिभद्र की टीका सहित आवश्यक निर्युक्ति की एक हस्तलिखित प्रति है । उसमें भी उद्रायण ही लिखा है । उद्रायणावदान तिब्बती मूल के साथ जोहानेस नोबेल का जर्मन अनुवाद प्रकाशित हुआ है । उसमें भी राजा
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५१०
तीर्थंकर महावीर
का नाम उद्रायण ही दिया है ( खंड २, पृष्ठ ८४) । बौद्ध ग्रंथों में इसका नाम रुद्रायण मिलता है ।
यह उद्रायण वीतभय इत्यादि ३६३ नगरों और खानों तथा सिंधुसौवीर आदि १६ देशों का पालन करने वाला था । महासेन ( चंडप्रद्योत ) आदि १० महापराक्रमी मुकुटधारी राजा उसकी सेवा में रहते थे । '
उनकी पत्नी का नाम प्रभावती था । वह वैशाली के राजा महाराज चेटक की पुत्री थी।"
उद्रायण को प्रभावती से एक पुत्र था । उसका नाम अभीचि था । तथा राजा की बहन का एक लड़का था, उसका नाम केशी था ।
3
राजा उद्रायण की पत्नी श्राविका थी। पर उद्रायण स्वयं तापसों का भक्त था ।
१ - पे णं उदायणे राया सिंधुसोवीरप्पमोक्खाणं सोलसरहं जणवयाणं वीतीभयप्पामोक्खाणं तिरहं तेसट्ठीगं नगरागर सयाणं महसेणाप्पमोक्खा दसरहं राइणं बद्धमउडाणं - भगवतीसूत्र सटीक, शतक १३, उद्देसा ६, पत्र ११३५ ।
ऐसा ही उल्लेख उत्तराध्ययन नेमिचन्द्राचार्य की टीका सहित ( पत्र २५२ - १ ), आदि अन्य ग्रंथों में भी मिलता है ।
२ - उत्तराध्ययन भावविजय गरिए की टीका, अ० १८, श्लोक ५, पत्र ३८०-१ - श्रावश्यकचूरिंग, उत्तरार्द्ध पत्र १६४
३ – उत्तराध्ययन भावविजय की टीका, अ० १८, श्लोक ६ पत्र ३८० १ ।
४ – ( अ ) तस्य प्रभावती राज्ञी, जज्ञे चेटकराट् सुता । बिभ्रती मानसे जैनं
॥ ५ ॥
-- उत्तराध्ययन, भावविजय को टीका, अ०१८, श्लोक ५, पत्र ३५० । (a) उदास रनो महादेवी चेडगराय धूया समोवासिया पभाबई - उत्तराध्ययन नेमिचन्द्राचार्य की टीका सहित, पत्र २५३ - १ । (इ) प्रभावती देवी समणोवासिया ।
-श्रावश्यकचूर्ण, पूर्वाद्ध पत्र ३६६ ।
५- उद्दायण राया तावस भत्तो - आवश्यकचूर्ण, पूर्वाद्ध, पत्र ३६६ ।
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व्रतधारी राजे
५११
राजा उद्रायण के पास विद्युन्माली - नामक एक देव की बनायी हुई तथा उसी द्वारा भेजी हुई गीशीर्ष चंदन की एक भगवान् महावीर की एक प्रतिमा थी । राजा ने अंतःपुर में चैत्य निर्माण करके उसमें उस प्रतिमा को स्थापित करा दिया था ।' रानी प्रभावती त्रिसंध्या उसकी पूजा किया करती थी। रानी प्रभावती की मृत्यु के बाद राजा की एक कुब्जा दासी उस मूर्ति की पूजा करने लगी । इसी दासी को चंडप्रद्योत हर ले गया । जिसके कारण चंडप्रद्योत और उद्रायन में युद्ध हुआ । उसका सविस्तार विवरण हमने चंडप्रद्योत के वर्णण में दे दिया है ।
राजा उद्रायण की पत्नी मर कर देवलोक में गयी और बाद में उसने राजा उद्रायण की निष्ठा श्रावक-धर्म में दृढ़ की ।
एक बार राजा ने पौषधशाला में जाकर पौषघ किया । वहाँ रात्रि में धर्म- -जागरण करता हुआ राजा को विचार हुआ कि - "वह नगर ग्राम
कार आदि धन्य हैं, जिन्हें वर्धमान स्वामी अपने चरण रज से पवित्र करते हैं । यदि भगवान् के चरण से वीतभय पवित्र हो, तो मैं दीक्षा ले लूँ ।” उसके विचार को जानकर भगवान् ने विहार किया और अनुक्रम से विहार करते वीतभयपत्तन के उद्यान में ठहरे । प्रभु का आगमन जानकर उद्रायण भगवान् के पास वंदना करने गया । वंदना करके उसने भगवान् से विनती की - "जब तक अपने पुत्र को राज्य सौंप कर दीक्षा लेने न आऊँ तब तक आप न जाइये । "
भगवान् महावीर ने कहा - " पर इस ओर प्रमाद मत करना । " लौटकर राजा आया तो उसे विचार हुआ कि, यदि मैं अपने पुत्र को राज्य दूँगा तो वह राज्य में ही फँसा रह जायेगा और चिरकाल तक भवभ्रमण
१ – उतराध्ययन भावविजय की टीका, अ० १८, श्लोक ८४, पत्र ३-३-१ |
२ - वही, श्लोक ८५ ।
३ - आवश्यक चूर्ण, पूर्वाद्ध, पत्र ३६६ ।
( अ )
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५१२
तीर्थकर महावीर करता रहेगा। इस विचार से उसने अपने पुत्र को राज्य न देकर अपनी बहन के लड़के केसी को राज्य दे दिया । और, स्वयं उत्सव पूर्वक जाकर उसने भगवान् महावीर के पास दीक्षा ग्रहण कर ली । बाद में एक उपवास से लेकर एक महीने तक के उपवासों तक का कठिन तप किया ।' उस समय राजा काया के शोषण करने का विचार करने लगा।
बचाखुचा और रूखा-सूखा आहार करने से एक बार वह बीमार पड़ गया । उस समय वैद्यों ने उसे दही खाना बताया। इस पर राजा गोकुल. में विहार करने लगा; क्योकि अच्छा दही मिलना वहीं सम्भव था।
। एक बार उद्रायण विहार करते हुए वीतभय में आया । केशीराजा के मंत्रियों ने केशी राजा को बहकाया कि उद्रायण उसका राज्य छीनने की इच्छा से आया है। दुर्बुद्धि केशी उनके कहने में आ गया और विषमिश्रित भात उद्रायण को खाने के लिए दिया । कई बार एक देवीने उसका विष निकाल लिया। पर एक बार राजा विष खा ही गया। जब उद्रायण को विष खा जाने का ज्ञान हुआ तो समताभाव से उसने एक मास का अनशन किया और समाधि में रहकर केवलज्ञान पाकर मोक्ष गया।
राजा के मुक्ति पाने से देवी अत्यन्त क्रुद्ध हुई । उसने धूल की वर्षा की और वीतभय को स्थल बना दिया। एक मात्र कुमार जो उद्रायण का शैयातर था निर्दोष था । उसे देवी सिनपल्ली में ले गयी एक मात्र वही जीवित था । अतः उसके ही नाम पर उस जगह का नाम कुम्भकारपक्खेव पड़ा।
१-चउत्थ-छठ्ठ-अहम-दसम-दुवालस-मासद्ध-मासाईणि तवोकम्माणि कुवमाणे विहरइ।
- उत्तराध्ययन नेमिचंद्र टीका, पत्र २५५-१ चउत्थ = १ उपवास, छह %D२ उपवास, अट्टम-३ उपवास, दसम = ४ उपवास दुवालस-५ उपवास, मासद्ध = १५ उपवास, मासाईणि =१ मास का उपवास ।
२-संस्कृत में इसका नाम कुम्भाकरकृत मिलता है।
उत्तराध्ययन भावविजय की टीका १८ अध्ययन श्लोक २१६ पत्र ३८७२; ऋषिमण्डलप्रकरणवृत्ति, पत्र १६३-१
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भक्त राजे
कनकध्वज
श्रमण श्रमणियों के प्रकरण में तेतलीपुत्र का प्रसंग देखिए (पृष्ठ २४० ) ।
कर कंडू
प्रत्येक बुद्धवाले प्रकरण में देखिए (पृष्ठ ५५७-५६३) ।
कूणिक
५१३.
कूणिक के पिता का नाम श्रेणिक और माता का नाम चेल्लणा था । यह चेल्लणा वैशाली के महाराज चेटक की पुत्री थी।' इसके वंश आदि के सम्बन्ध में हमने श्रेणिक भंभासार के प्रकरण में विशेष विवरण दे दिया है, अतः हम उसकी यहाँ पुनरावृत्ति नहीं करना चाहते ।
इसका नाम कूणिक पड़ने का कारण यह था कि, जब इसका जन्म हुआ तो इसे अपशकुन वाला पुत्र मान कर इसकी माता चेल्लणा ने इसे नगर के बाहर फिंकवा दिया । यहाँ कुक्कुट के पंख से इसकी कानी उंगली में जख्म हो गया । इस जख्म के ही कारण ही इसका नाम कूणिक पड़ा | जैन ग्रन्थों में इसका दूसरा नाम अशोकचन्द्र मिलता है ।" यह कूणिक शब्द 'कूणि' से बना है । कूणि का अर्थ ( टिलो ) उंगली का जख्म होता है ।
१ - निरयावलिया ( पी० एल० वैद्य सम्पादित, पृष्ठ २२ ) में महाराज चेटक के मुख से कहलाया गया है:
राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते, चेल्लाए देवीए अत्तए, मम नत्तुए... २-- आवश्यकचूर्णि, उत्तरार्द्ध पत्र १६७ ( मूल पाठ के लिए देखिए श्रेणिक भंभासार का प्रसंग ) । त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक ३०६ ( पत्र ८ १-२ ) में स्पष्ट आता है:
रूह व्रणापि सा तस्य कूणिताभवदंगुलिः । ततः सपांशुरमणैः सोऽभ्यधीयत कूणिकः || ३ - श्राप्टेन संस्कृत- इङ्गलिश डिक्शनरी, भाग १, पृष्ठ ५८०
३३
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तीर्थकर महावोर
बौद्ध-ग्रन्थों में इसी राजा का उल्लेख अजातशत्रु नाम से है ।' बहुत दिनों तक लोग अजातशत्रु ही उसका मूल नाम मानते रहे । परन्तु अब पुरातत्व द्वारा सिद्ध हो चुका है कि, उसका मूल नाम कूणिक हो था और यहाँ यह कह देना भी अप्रसांगिक न होगा कि यह कूणिक नाम केवल जैन ग्रन्थों में ही मिलता है ! अन्यत्र उसका कोई उल्लेख नहीं मिलता ।
परिवार
जैन-ग्रन्थों में इसकी तीन रानियों के उल्लेख मिलते हैं :
3
पद्मावती, धारिणी और सुभद्रा । आवश्यकचूर्णि में उल्लेख है
१- डिक्शनरी आव पाली प्रापर नेम्स, भाग १, पष्ठ ३१
२ - मथुरा · संग्रहालय में कूणिक की एक मूर्ति है। उस पर शिलालेख भी हैं । उसमें लिखा है:
निदभत्र सेनि ज ( 1 ) सत्रु राजो ( सि ) रि
कूणिक शेवासिनागो मागधानाम् राजा
" श्रेणि के वंशज श्रजातशत्रु कूणिक शेवासिक नाग मागधों के राधा की मृत्यु
हुई"
“३४ [ वर्ष
[ महीना ] [ राज्यकाल ? ]
विशेष विवरण के लिए देखिए 'जनरल आव बिहार ऐंड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी' वाल्यूम ५, भाग ४, पृष्ठ ५५०-५५१ [ दिसम्बर १९१६ ]
३ - तस्स गं कूणियस्स रन्नो पउमावई नामं देवी होत्था"
-- निरयावलिया ( पी० एल० वैद्य-सम्पादित ) सूत्र ८, पृष्ठ ४ त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, पूर्व १०, सर्ग ६, श्लोक ३१४ पत्र ८२ - १ में भी उसका उल्लेख है ।
४ - श्रीववाइयसुत्त सटीक ( सूत्र ७, पत्र २३ ) में आता है तस्स णं कोरियस रणो धारिणी नामं देवी होत्था
५ - श्रववाइयसुत सटीक, सूत्र ३३, पत्र १४४
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कूणिक
( मथुरा-संग्रहालय में संगृहीत एक मूर्ति ) इस पर शिलालेख है :
( दाहिनी ओर ) निभद प्र सेनी ज[]] सत्रु राजो [सि] र [7] ( सामने ) ४,२० (य) १० (ड) - ८ ( ही या हृी ) कूणिक सेवासि नागो मागधानाम् राजा
-जर्नल आव बिहार ऐंड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी खंड ५, अंक ४
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भक्त राजे
५१५ कि कणिक ने ८ राजाओं की कन्याओं से विवाह किया था, परन्तु वहाँ उनके नाम अथवा वंश का उल्लेख नहीं है।'
पद्मावती का ही पुत्र उदायी था, जो कूणिक के बाद मगध के सिंहासन पर बैठा और इसी ने अपनी राजधानी चम्पा से हटाकर पाटलिपुत्र बनायी।
राज्यारोहण कूणिक के राज्यारोहण की और श्रेणिक की मृत्यु की तथा राजधानी के परिवर्तन की कथा हम श्रेणिक के प्रसंग में लिख आये हैं । अतः हम उसकी पुनरावृत्ति नहीं करेंगे।
कूणिक और भगवान् महावीर यह कूणिक भगवान् महावीर का पक्का भक्त था। उसने अपने यहाँ एक ऐसा विभाग ही खोल रखा था, जो नित्य प्रति का भगवान् का समाचार कूणिक को सूचित करता रहता था। औपपातिकसूत्र सटीक, सूत्र ८, पत्र २४-२५ में पाठ आता है
तस्स णं कोणिस्स रण्णो एकके पुरिसे विउलकय वित्तिए भगवनो पवित्तिवाउए भगवनो तहेवसि पवित्ति णिवेएइ, तस्स णं पुरिसस्स बहवे अराणे पुरिसा दिएणभतिभत्तवेपणा भगवो पवित्तिवाउमा भगवो तददेवसियं पवित्ति णिवेदेति ॥
इसकी टीका अभयदेव सूरि ने प्रकार की है:
१-अण्णदा कूणियस्स अट्टहिं रायवर करणाहिं समं विवाहो कतो।
-श्रावश्यकचूर्णि उत्तरार्द्ध, पत्र १६७ २-अएणदा कदाइ पउमावतीए पुत्तो उदायी
-आवस्यकचूणि उत्तरार्ध, पत्र १७१ ३-आवश्यकचूर्णि उत्तराद्ध, पत्र १७७
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तीर्थंकर महावीर
"
'तरण' मित्यादौ 'विउलकयवित्तिए' त्ति विहितप्रभूत जीविक इत्यर्थः, वृत्तिप्रमाणं चेदम् - श्रर्द्ध त्रयोदशरजतसहस्राणि, यदाह - " मंडलियाण सहस्सा पीईदाणं सयसहस्सा ।" "पवितिवाउए' ति प्रवृत्तिव्यापृतो वार्ताव्यापारवान् वार्तानिवेदक इत्यर्थः । ' तद्देवसि' ति दिवसे भवा दैवसिकी सा भासौ विवक्षिता-मुत्र नगरादावागतो विहरति भगवानित्यादिरूपा, देवसिकी चेति तदैवसिकी, श्रतस्तां निवेदयति । 'तस्स ण' मित्यादि श्रत्र 'दिण्णभतिभत्तवेयण' त्ति दत्तं भृतिभक्तरूपं वेतनं मूल्यं येषां ते तथा तत्र भृतिः - कार्षापणादिका भक्त च - भोजनमिति ।
५१६
- औपपातिकसूत्र सटीक, पत्र २५
जिसे राजा
-उस कुणिक राजा के यहाँ एक ऐसा पुरुष नियुक्त था,
( कूणिक ) की ओर से बड़ी आजीविका मिलती थी । 'भगवान् कत्र कहाँ से विहार कर किस ग्राम में समवसृत हुए हैं, इस समाचार को जानने के लिए वह नियुक्त किया गया था । तथा भगवान् के दैनिक वृतांत का भी अर्थात् आज दिन भगवान् इस नगर से विहार कर इस नगर में विराज रहे हैं, इस प्रकार की उनकी दैनिक विहार-वार्ता का भी ध्यान रखता था । यह वृतांत राजा के निकट निवेदन करता था ।
वैशाली से युद्ध
भंभासार ने अपने जीते ही जी सेचनक हाथी, ' तथा देवदिन्न
१ – सेचनक हाथी का वृतान्त उत्तराध्ययन सूत्र नेमिचन्द्राचार्य की टीका पत्र ७-१, ७-२ ( अध्ययन १, गाथा १६ की टीका ) में दिया गया है ।
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भक्त राजे
५१७
हार' हल और बिल्ल को दे दिये थे । इस सेचनक हाथी और देवप्रदत्त हार का मूल्य श्रेणिक के पूरे राज्य के बराबर था ।
जब कूणिक चम्पा में राज्य कर रहा था, तो उस समय एक बार उसका भाई विल्ल सेचनक हाथी पर बैठकर अपनी पत्नियों के साथ गंगा नदी में स्नान करने गया ।' उसका वैभव देखकर कुणिक की रानी पद्मावती ने कृणिक से कहा - "हे स्वामिन्, विहल्ल कुमार सेचनक हाथी के द्वारा अनेक प्रकार की क्रीड़ा करता है । यदि आपके पास गंधहस्ति नहीं है तो इस राज्य से क्या लाभ ?"
कूणिक ने पद्मावती को बहुत समझाने की चेष्टा की; परन्तु पद्माबती अपने आग्रह पर अटल रही और कूणिक को ही उसके आगे झुकना पड़ा | कूणिक ने हल्ल-विहल्ल से हाथी और हार माँगे । भय वश दोनों भाई अपने नाना चेटक के पास चले गये । कुणिक ने चेटक के पास दूत भेजकर अपने भाइयों को वापस भेजने को कहा । चेटक ने इनकार
निरयाबलिकासूत्रम् सटीक ( आगमोदय
१- हार की उत्पत्ति की कथा समिति ) पत्र ५-१ में उपलब्ध हैं ।
२ – हल्लस हत्थी दिन्नो सेयणगो, विहल्लस्स देवदिन्नो
हारो.
.......
निरयावलिका सटीक पत्र ५-१ ३– किरजावतियं रज्जस्स मोल्लं तावतियं देवदिणस्स हारस्स सेतणगस्स.
- आवश्यकचूर्णि उत्तरार्द्ध, पत्र १६७
४ – ए गं से वेहल्ले कुमारे सेयणएवं गंधहत्थिणा अन्तेउर परियाल संपरिवुडे चंपं नगरिं मज्झज्मेणं निग्गच्छइ । २ अभिक्खणं २ गंगं महााई मज्जयं श्रयरइ,
- निरयावलिया ( गोपाणी - सम्पादित ) पृष्ठ १६
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५१८
तीर्थकर महावीर कर दिया। इस पर कुणिक ने युद्ध के लिए तैयार होने का संदेश भेजा। महाराज चेटक भी तैयार हो गये।
अतः कूणिक अपने कालकुमार आदि दस भाइयों' को लेकर सेना सहित वैशाली की ओर चल पड़ा । चेटक ने भी अपने साथी राजाओं को बुलाया । __ पहले दिन कालकुमार तीन हजार हाथी, तीन हजार रथ, ३ हजार अश्व और तीन करोड़ मनुष्य को लेकर गरुड़-व्यूह की रचना कर युद्ध में उतरा। चेटक प्रतिपन्न-व्रत के कारण दिन में एक ही वाणः चलाते थे और वह वाण अचूक होता था। __ प्रथम दिन के युद्ध में कालकुमार काम आया । इसी प्रकार अगले ९ दिन में १ सुकाल, २ महाकाल, ३ कृष्णकुमार, ४ सुकृष्ण, ५ महा कृष्ण, ६ वीरकृष्ण, ७ रामकृष्ण, ८ पितृसेनकृष्ण ९ पितृमहासेणकृष्ण राजकुमार काम आये।।
१-दस भाइयों के नाम के लिए देखिए श्रेणिक का प्रकरण । उसमें काल कुमारादि १० पुत्रों के नाम दिये हैं।
२-भगवतीसूत्र शतक ७, उद्देसाह [ सटीक, पत्र ५७६ ] में उस युद्ध के दोनों पक्षों के नाम इस प्रकार दिए हैं:
विदेहपुत्ते जइत्था, नव मल्लई, नवलेच्छई काशी कोसलगा अहारसवि गणरायाणो पराजइत्थो ........" ३-निरयावलिकासूत्र सटीक, पत्र ६-१
४-चेटक राजस्य तु प्रतिपन्न व्रतत्वेन दिन मध्ये एकमेव शरं मुञ्चति अमोघ वाणश्च
-निरयावलिक र त्र सटीक, पत्र ६-१ ५-निरयावलिका सटीक, पत्र ६-१
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भक्त राजे चेटक राजा को जीतने के लिए कूणिक ने ११ वें दिन अठ्ठम तप किया । इससे शक्र और चमरेन्द्र कूणिक के पास आये ।' उनसे कूणिक ने चेटक को पराजित करने की बात कही, तो शक्र ने कहा-"चेटक श्रावक है। मैं उसे मार नहीं सकता। पर, तुम्हारी रक्षा अवश्य कर सकता हूं।" ऐसा कह कर कुणिक की रक्षा के लिये शक्र ने उसे एक अभेद्य कवच दिया और चमरेन्द्र ने महाशिलाकंटक और रथ मुशल-युद्ध की विकुर्वणा की। ____ इन्द्रों की इस प्रकार की सहायता का उल्लेख भगवतीसूत्र (सटीक) शतक ७, उद्देशः ९ सूत्र ३०१ पत्र ५८४ में भी आता है । वहाँ उसका कारण भी दिया है:__ गोयमा सक्के देवराया पुवसंगतिए, चमरे अमुरिंदे असुर कुमार राया परियाय संगतिए।
-गौतम ! शक्र कूणिक राजा का पूर्वसांगतिक ( पूर्वभव ) का मित्र था और असुरकुमार ( चमरेन्द्र ) कूणिक का पर्याय संगतिक ( तापसजीवन का ) मित्र था।
१--निरयवलिका सटीक, पत्र ६-१ २-निरयावलिका सटीक (आमभोदय समिति ] पत्र ६-१
३-राक्रेन्द्रस्य कूणिक राजा पूर्वसङ्गतिकश्चमरेन्द्रस्य च प्रवज्यासङ्गतिकः प्रतिपादितोऽस्ति तत्कथं मिलति इति प्रश्नोऽत्रोत्तर--सौधर्मन्द्रस्य कार्तिक श्रेष्ठिभवे कूणिकराज्ञो जीवो गृहस्थत्वेन मित्रमस्तीति तेन पूर्वसङ्गतिकः, चमरेन्द्रस्य तु पूरणतापस भवे कूणिक जीवः तापसत्वेन मित्रं तेन पर्यायसङ्गतिकः कथितोऽस्तीति श्री भगवती सूत्र सप्ताशतक नवमोद्देशक वृत्तौ इति बोध्यम् ॥
-प्रश्नरत्नाकराभिधः श्री सेन प्रश्नः (दे० ला०) पत्र १०३-१ । ४-- कूणिक के पूर्व भव का वृतांत आवश्यकचणि उत्तरार्ध, पत्र १६६ में दिया है।
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५२०
तीर्थंकर महावीर महाशिलाकंटक और रथमुशल की परिभाषा भवगतीसूत्र में इस प्रकार दी गयी है। ___ गोयमा! महासिलाकंटए णं संगामे वट्टमाणे जे तत्थ आसे वा हत्थी वा जोहे वा सरही वा तणेण वा पत्तेण वा कट्टेण वा सकराया वा अभिहम्मति सव्वे से जाणए महासिलाए अहं म० २, से तेण?णं गोयमा महासिलाकंटए ।'
हे गौतम ! इस संग्राम में घोड़ा, हाथो, योद्धा और सारथियों को तृण, काष्ठ, पचे से मारा जाये तो उसे लगे कि उस पर महाशिला गिरायी गयी है।
और, रथमुशल की परिभाषा निम्नलिखित रूप में दी गयी है:
गोयमा ! रहमुसले णं संगामे वट्टमाणे एगे रहे अणासए असारहिए अणारोहए समुसले महया २ जणक्खयं जणवहं जणप्पमहं जणसंवट्टकप्पं रुहिरकहमं करेमाणे सव्वो समंता परिधावित्था से तेणटेणं जाव रहमुसले संगामे।
--अश्वरहित, सारथिरहित, योद्धारहित मुसल सहित एक रथ विकराल जनसंहार करे, जनवध करे, जनप्रमर्दन करे और जलप्रलय करे और उनको रुधिर के कीचड़ में करता हुआ चारो ओर दौड़े, ऐसे युद्ध को रथमुसल संग्राम कहते हैं । ___इन दोनों युद्धों का विस्तृत विवरण भगवतीसूत्र शतक ७ उद्देशा ९ में आता है।
इस युद्ध के बीच में ही एक दिन आकाशवाणी हुई कि, जब तक मागधिका वेश्या कुलवालक को न लायेगी, विजय असम्भव है। मागधिका
१-भगवती सूत्र सटीक, सूत्र २६६ पत्र ५७ः । २-भगवतीसूत्र सटीक, सूत्र ३००, पत्र ५८४
३--भगवनीसूत्र सटीक पत्र ५७५-१ से ५६१ तक ___४-कूलवालक की कथा उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका, अध्ययन १, पत्र २-१ में विस्तार से आयी है ।
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भक्त राजे
५२१ वेश्या श्राविका का रूप बनाकर गयी और कूलबालक को अपने जाल में फँसाकर वैशाली ले आयी । नैमित्तिक का वेश धर कर कूलवालक वैशाली में गया । वहाँ उसने सुव्रतस्वामी का स्तूप देखा, जिसके प्रभाव से वैशाली का पतन नहीं होता था। लड़ाई से आजिज आ कर लोगों ने छद्म वेश धारी कुलवालक से घेरा टूटने की तरकीब पूछी, तो कूलबालक ने कहा जब तक यह स्तूप न टूटेगा, घेरा न हटेगा। लोगों ने स्तूप तोड़ डाला । समाचार पाकर पहले तो कुणिक ने घेरा हटा लिया; पर बाद में वैशाली पर आक्रमण करके वैशाली पर विजय प्राप्त की।
विजय के बाद कूणिक चम्पा लौटा । चम्पा लौटने के बाद इसे चक्रवर्ती चनने की इच्छा हुई । कुणिक ने इस सम्बन्ध में महावीर स्वामी से प्रश्न पूछा । महावीर स्वामी ने कहा कि तुम चक्रवर्ती नहीं हो सकते । सब चक्रवर्ती हो चुके हैं। फिर कूणिक ने पूछा-चक्रवर्ती के लक्षण क्या हैं ? भगवान् ने कहा
चउदसरयणा छक्खंड भरह सामी य ते हुति।'
इसके बाद कुणिक ने नकली १४ रन बनाये और ६ खंड के विजय को निकला को निकला। अंत में सम्पूर्ण सेना लेकर तिमिस्त्र-गुफा की ओर गया । वहाँ अट्ठम तप किया। तिमिस्र-गुफा के देव कृतमाल ने पूछा--"तुम कौन हो ?" कूणिक ने कहा-"मैं चक्रवर्ती हूँ।" "सब चक्रवर्ती तो बीत चुके, तुम कौन ?' इस पर कूणिक शेखियाँ बताने लगा
१-उपदेशमाला दोघट्टी टीका, पत्र ३५३ ।
२-भरत चक्री की तमिस्रा-यात्रा के प्रसंग में त्रिषष्टिशलाकपुरुषचरित्र पर्व १, सर्ग ४, श्लोक २३६ (पत्र १९.१) में अष्टमतप आता है । मिस हेलेन ने बड़ौदा में प्रकाशित अंग्रेजी-अनुवाद में इसका अर्थ ४ दिनों का उपवास लिखा है। यह उनकी भूल हैं । अष्टम तप में ३ दिन का उपवास होता है।
३-आवश्यकचूणि उत्तरार्द्ध, पत्र १७६ -- १७७ ।
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५२२
तीर्थकर महावीर और बोला- "मैं तेरहवाँ चक्रवती हूँ।" कुणिक की बात से क्रुद्ध होकर कृतमाल ने कूणिक को भस्म कर किया ।'
__ स्तूप के सम्बन्ध में कुछ विचार __स्तूप उलटे कटोरे के आकार का होता था और या तो दाह-संस्कार के स्थान पर बनाये जाते थे। या सिद्धों अथवा तीर्थङ्करों की मूर्तियों सहित उस देवता विशेष की पूजा के लिए निर्मित होते थे। स्तूप में तीर्थङ्कर-पतिमा होने का बड़ा स्पष्ट उल्लेख तिलोयपण्णत्ति में है। उसमें आता है :
भवणखिदिप्पणिधीसुं वीहिं पडि होंति णवणवा थूहा । जिणसिद्धप्पडिमाहिं अप्पडिमांहि समाइण्णा ॥
-भवन भूमि के पार्श्व भागों में प्रत्येक वीथी के मध्य में जिन और सिद्धों की अनुपम प्रतिमाओं से व्याप्त नौ नौ स्तूप होते हैं।
इन स्तूपों की पूजा होती थी। जैन-ग्रंथों में कितने ही स्थलों पर देवदेवियों की पूजा-सम्बन्धी उत्सवों के वर्णन आये हैं, उनमें एक उत्सव 'थूभमह' भी है। 'मह' शब्द के सम्बन्ध में राजेन्द्राभिधान में लिखा है।
मह-महपूजायामिति धातोः क्वपि महः इन महों के सम्बन्ध में आचारांग की टीका में आता है:पूजा विशिष्टे काले क्रियते। १-श्रावश्यकचूर्णि उतरार्ध पत्र १७६-१७७ ।
दशावैकालिक हरिभद्रसूरिकृत टीका ( बाबू वाला ) पाठ ४७ में भी यह प्रसंग आता है।
२-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सटीक (पूर्व भाग, पत्र १५८-१) में उल्लेख है कि भरत ने ऋषभदेव भगवान् की चिता-भूमि पर अष्टापद पर्वत पर स्तूप-निर्माण करायाः
चेइअ थूभे करेह । ३--तिलोयपएणत्ती (सानुवाद) चउत्थो महाधियारो, गाथा ८४४, पष्ठ २५४ । ४--देखिये तीर्थक्कर महावीर, भाग १, पृष्ठ ३४५.३४८ । ५-राजेन्द्राभिधान, भाग ६, पृष्ठ १७० । ६--आचारांगसूत्र सटीक, श्रु० २, पत्र २६८-२।
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भक्त राजे
शुभमह को राजेन्द्राभिधान में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है । स्तूपस्य विशिष्टे काले पूजायां'
इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि, स्तूपों में मूर्तियाँ होती थीं और उनकी पूजा होती थी ।
मेरी यह स्थापना शास्त्रों के अतिरिक्त अब पुरातत्त्व से भी सिद्ध है । यह दुर्भाग्य की बात है कि, जैनों से संम्बद्धित खुदाई का काम भारत में नहीं के बराबर हुआ । पर; कंकाली-टीला ( मथुरा ) का जो एक ज्वलंत प्रमाण जैन - स्तूप सम्बन्धी प्राप्त है, उसमें कितनी ही जैन-मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।
५२३
धर्म के प्रति वैशाली वासियों की अटूट श्रद्धा थी । महापरिनिव्वानमुत्त में बुद्ध ने वैशाली वालों के ७ गुण गिनाये हैं, उनमें धर्म के प्रति उनकी निष्ठा भी एक है । उसमें पाठ है : -
"
"वजी यानि तानि वज्जीनं वज्जि वेतियानि अब्भन्तरानि वेव बाहिरानि च तानि सक्करोन्ति गुरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, तेसं च दिन्नं पुब्बं कतपुष्यं धम्मिकं बलिं नो परिहापेन्ती"" ।
क्या सुना है – वज्जियों के ( नगर के ) भीतर या बाहर जो चैत्य हैं, वह उनका सत्कार करते हैं, पूजते हैं। उनके लिए पहिले किए गये दान को पहिले की गयी धर्मानुसार बलि को लोप नहीं करते ।
१ - - राजेन्द्राभिधान, भाग ४, पृष्ठ २४१५ ।
२ -- विशेष विवरण के लिए देखिए 'जैन स्तूप ऐंड अदर एंटीक्विटीज आव मथुरा,' विंसेंट ए० स्मिथ- लिखित ( श्रावर्यालाजिकल सर्वे आव इंडिया न्यू इम्पीरियल सिरीज, वाल्यूम २० ) । अहिछत्रा में भी जैन स्तूप मिला है और उसमें भी जैन-मूर्तियाँ मिली हैं।
1
३ - दीघनिकाय [ पालि ], महावग्गो, पृष्ठ ६० ।
४- दीर्घनिकाय हिन्दी अनुवाद पृष्ठ ११६ ।
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तीर्थंकर महावीर
दीघनिकाय में कहा गया है कि जब तक ये
सात गुण वैशाली वालों के पास रहेंगे, वे पराजित नहीं होंगे। उन सात गुणों में यह एक देवपूजा भी है ।
५२४
इस वैशाली के कुछ देवमन्दिरों के उल्लेख बौद्ध ग्रन्थों में भी मिलते हैं :
१ चापाल चैत्य, २ उदेन चैत्य, ३ गोतमक चैत्य, ४ सत्तम्बक चैत्य, ५ बहुपुत्ती चैत्र्त्य, ६ सारंदद चैत्य
इनमें चापाल' और सारंदद चैर्त्य' यक्षायतन थे । उदेन और गोतमक 'वृक्ष- चैत्य थे" और सत्तम्बक चैत्य' में पहले किसी देवता की प्रतिमा थी । बहुपुत्तीय चैत्य बुद्ध - पूर्व का पूजास्थान था । टीकाकारों ने लिखा है कि वहाँ न्यग्रोध का वृक्ष था । उसमें बहुत-सी शाखाएँ थीं । लोग पुत्र- प्राति के लिए उस देवस्थान की पूजा किया करते थे ।"
बौद्ध साहित्य इस बहुपुत्तीय चैत्य के सम्बंध में अधिक जानकारी देने में असमर्थ है । न्यग्रोध का अर्थ 'वट' होता है ।" जैन ग्रन्थों में वर यक्ष का
१३
१- वही, पृष्ठ ११६ ।
२ - दीघनिकाय पालि भाग २, पृष्ठ ८४
३ - वही
६२
४- - वही
27
21
""
""
५- वही,
६ - वही
७ - वही
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- डिक्शनरी भाव पाली प्रापरनेम्स, भाग १, पृष्ठ ६६२
६ -- वही, भाग २,
११०८
१०- वहीं, भाग १,
" ३८१
११ - वही, भाग २,
१०१०
१२ - वही, भाग २,
२७३
१३ - न्यग्रोधस्तु बहुपात् स्याद्, बटो वैश्रवणालयः
"
"
६२
" ६२
६२.
९२
17
"3
"
"
"
" "
99 99
"
- अभिधानचिंतामणि सटोक, भूमिकांड, श्लोक १६८ पृष्ठ ४५५
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भक्त राजे ध्वज-चिह्न बताया गया है। दूसरी बात यह कि जैन-ग्रंथों में यक्षों को पुत्र-दायक देव कहा माना गया है। अतः पुत्र-कामना से पूजा जाने बाला यह बहुपुत्तीय चैत्य निश्चय ही यक्षायतन था।
अब हमें यह देखना है कि बहुपुत्तीय कौन यक्ष है ? इसका उल्लेख नैन-शास्त्रों में आता है, या नहीं। वृहत्संग्रहणी सटीक में निम्नलिखित यक्ष गिनाये गये हैं :
१ पूर्णभद्रा; २ मणिभद्रा; ३ श्वेतभद्राः; ४ हरिभद्राः; ५ सुमनोभद्राः; ६ व्यतिपाकभद्राः, ७ सुभद्राः, ८ सर्वतोभद्राः, ९ मनुष्यपक्षाः, १० धना धिपतयः, ११ धनाहाराः, १२ रुपयक्षाः, १३ यक्षोत्तमाः
इन यक्षों में पूर्णभद्र और मणिभद्र यक्षेन्द्र हैं और यक्षेन्द्र पूर्णभद्र की ४ महारानियों में एक बहुपुत्रिका भी थीं। ___ अतः वैशाली का यह बहुपुत्तीय चैत्य बहुपुत्रिका ( यक्षिणी ) चैत्य रहा होगा।
भगवतीसूत्र में भी विशाखा नगरी में बहुपुत्तीय-चैत्य का उल्लेख मिलता है। भगवतीसार के लेखक गोपालदास जीवाभाई पटेल ने अपनी पादटिप्पणि में विशाखा के स्थान पर विशाला कर दिया। पर यह उनकी
१-श्रीवृहत्संग्रहणीसूत्र ( गुजराती-अनुवाद सहित ] पृष्ठ १०८ २-देखिए तीर्थकर महावीर, भाग १, पृष्ठ ३६० ३-वृहत्संग्रणी सटीक, पत्र २८-२ ४-दो जक्खिदा पन्नत्ता, तं०-पुन्नभद्दे चेव मणिभहे
-ठाणांग, ठाणा २, उद्देसा ३, सूत्र ६४, पत्र ८५.१ ५-पुण्णभद्दस्स णं जक्खिदस्स जक्खरन्नो चत्तारि अग्गमहिसियो पं तं०-पुत्ता, बहुपुत्तिता, उत्तमा, तारगा
-ठाणांग सूत्र, ठा० ४, उद्देशा १, सूत्र २७६ ६- भगवती सूत्र सटीक, शतक १८. उद्देशा २, सूत्र ६१८, पत्र १३५७ ७-भगवतीसार पृ २३६
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५२६
तीर्थंकर महावीर
भूल
है । विशाखा और विशाला दो भिन्न स्थान थे । इस विशाखा का उल्लेख फाह्यान' और हैनसांग ने भी किया है और कनिंघम ने इसकी पहचान वर्तमान अयोध्या से की है।
जैन-साहित्य में एक अन्य बहुपुत्तीया देवी का उल्लेख मिलता है । यह सौधर्म देवलोक की देवी थी ।
गागलि
साल के बाद पृष्ठचम्पा में साल का भांजा गागलि नामक राजा राज्य करता था । उसकी माता का नाम यशोमति और पिता का नाम पिठर था । एक बार भगवान् महावीर जब राजगृह से चले तो उस समय साल - महासाल नामक मुनियों ने करके पूछा - "हे स्वामी ! यदि आपकी आज्ञा हो तो जाकर हम अपने स्वजनों को प्रतिबोध करायें ।” भगवान् ने गौतम गणधर के साथ उन्हें जाने की आज्ञा दे दी ।
अनुक्रम से विहार करते वे लोग पृष्ठचम्पा गये । वहाँ गौतमस्वामी ने उपदेश दिया ।
गागलि गौतम स्वामी और अपने मामाओं के आने की बात सुनकर वंदना करने आया | धर्मदेशना सुनकर गागलि राजा को और उसके माता-पिता को वैराग्य हुआ । और, गागलि ने अपने पुत्र को राज्यभार सौंपकर अपने माता-पिता के साथ गौतम स्वामी के पास दीक्षा ले ली । उसके बाद गौतम स्वामी, साल, महासाल, गागलि पिटर और यशोमति के साथ चम्पा की ओर चले जहाँ भगवान् थे ।
१ - २ कनिघम्स ऐंशेंट ज्यागरैफी, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ ४५९
२ - कनिंघम्स पेशेंट ज्यागरैफी व इंडिया, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ ४६० ४ – निरयावलिया पी० एल० वैद्य-सम्पादित पृष्ठ ३५
५ - सोहम्मे कप्पे बहुपुत्तीया विमाणे
चम्पापुरी की ओर भगवान् की वंदना
हम लोग पृष्ठचंपा
- निरयावलिया सटीक पत्र ३३-१
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भक्त राजे
५२७ मार्ग में साल-महाल मुनि विचार करने लगे-"बहन, बहनोई और भांजा सब संसार-सागर से तरे यह तो यह बहुत सुन्दर हुआ।" उसी समय गागलि के मन में विचार हुआ—"मेरे साल महासाल मामाओं ने मेरा बड़ा उपकार किया । अपनी राज्यलक्ष्मी को भोगने का अवसर मुझे दिया
और फिर मोक्ष-लक्ष्मी भोगने का मुझे अवसर दिलाया ।" ऐसा विचार करते-करते वे पाँचो क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ हुए और शुभ ध्यान से उनको केवलज्ञान हो गया। ___ अनुक्रम से गौतम स्वामी के साथ वे जिनेश्वर के पास आये वहाँ उन पाँचों केवलियों ने जिनेन्द्र की प्रदक्षिणा की और वे फिर केवली-परिषद की ओर चले । उस समय गौतम स्वामी ने उनसे कहा-"मुनियो ! क्या तुम लोग जानते नहीं ? कहाँ जा रहे हो ? इधर आओ और जगत्प्रभु की वंदना करो।
इसे सुनकर भगवान् ने गौतम से कहा- "हे गौतम ! केवली की आशातना मत करो ?""
चंड प्रद्योत देखिए प्रद्योत
चेटक
भगवान् महावीर के समय में वृजियों का बड़ा शक्तिशाली गणतंत्र था। उसकी राजधानी वैशाली थी। और, उस गणतंत्र के सर्वोच्च राजा
१-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र पर्व १०, सर्ग ६ श्लोक १६६-१७६ पत्र १२४-२ ।
२-जैन-ग्रन्थों में वैशाली के गणराजाओं का उल्लेख मिलता है। इससे स्पष्ट है कि वह गणतंत्र था । अन्य किसी प्रसंग में गणराजा नहीं मिलता।
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५२८
तीर्थकर महावीर चेटक थे।' उनके आधीन ९ लिच्छवि ९ मल्लकी काशी, कोशल के १८ गणराजा थे। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में उनका नाम चेटक पड़ने का कारण बताते हुए लिखा है :
चेटीकृतारि भूपालस्तत्र चेटक इत्यभूत । अर्थात् शत्रु राजा को चेटी ( सेवक ) बनाने वाले चेटक राजा थे।
उनके माता-पिता का क्या नाम था, इसका उल्लेख नहीं मिलता केवल हरिषेणाचार्य कृत वृहत्कथाकोष में 'श्रेणिक कथानकम्' में आता है कि उनके पिता का नाम केक और माता का नाम यशोमति था । __दलसुख मालवणिया ने चेटक के सम्बन्ध में लिखा है कि, ऐसा नहीं
१-(अ) वेसालीए नयरीए चेडगस्स रन्नो-निरयावलिका (समिति वाला) पत्र १६२। (आ) एतो य वेसालीए नगरीए चेडो राया।
--आवश्यकचूणि, भाग २, पत्र १६४ । (३) त्रिषष्टिशालाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक १८४-१८५ पश्न ७७-१
(ई) वेसालीए पुरीए, सिरिपासजिणेस सासण सणाहो । हेहमकुल संभूत्रो चेडगनामा निवो असि ॥ २ ॥
-उपदेशमाला सटीक, पत्र ३३८ । २-(अ) नवमल्लई नवलेच्छई कासी कोसलका अद्यारस विगणरायाणो।
-निरयावलिका ( आगमोदयसपिति ) पत्र १७-२
-कल्याण सूत्र, सुबोधिका टीका, पत्र ३५० । ३–त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक १८५, पत्र ७७२। ४-अथ वज्रविवे देमे विशाली नगरी नृपः ।। अस्यां केकोऽस्य भार्याऽऽसीत् यशोमतिरिनप्रभा ॥ १६५ ॥
- वृहत्कथाकोश, पृष्ठ ८३, [श्लोक १६५ ] ५-उत्थान महावीर जयंती अंक [ जैन-प्रकाश ] मार्च १५,१६३४ [ पावापत्यीय अने महावीर तो संघ ] पृष्ठ ६६ की पादटिप्पणि ।
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भक्त राजे
५२६.
मिलता कि वह श्रमणोपासक था तथा महावीर का भक्त था । यह हम उसकी सगाई से अनुमान कहते हैं । पर, मालवणिया का ऐसा लिखना उनकी भूल है । जैन-शास्त्रों में तथा जैन-कथा-साहित्य में उसके श्रमणोपासक होने के कितने ही स्थानों पर उल्लेख है। हम उनमें से कुछ यहाँ दे रहे हैं:१-सोचेडवो सावो ।
---आवश्यकचूर्णि, उत्तरार्द्ध, पत्र १६४ । २-चेटकस्तु श्रावको।
-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक १८८, पत्र ७७.२। ३-वेसालीए पुरीए सिरिपास जिणेस सासण सणाहो । हेहयकुल संभूमो चेडग नामा निवोअसि ॥ १२ ॥
-उपदेश माला सटीक, पत्र २३८ । श्वेताम्बर ही नहीं दिगम्बर-ग्रन्थों में भी चेटक के श्रावक होने का उल्लेख मिलता है । उत्तरपुराण में आता हैचेटकाख्यातोऽति विख्यातो विनीतः परमाहतः।
-उत्तरपुराण, पृष्ठ.४८३ । आगम-ग्रन्थों की टीकाओं में अन्य रूप से उसके श्रावक होने का उल्लेख है। भगवतीसूत्र ( शतक ७, उद्देशा ८) में युद्ध के प्रसंग पर टीका करते हुए दानशेखर गणि ने लिखा है :चेटक प्रतिपन्न प्रतिशतया दिनमध्ये एकमेव शरंमुच्यते ।
---पत्र १११-१ ऐसा ही उल्लेख भगवतीसूत्र की बड़ी टीका में भी है। प्रतिपन्न व्रतत्वेन दिन मध्ये एकमेव शरं मुंचति ।
-पत्र ५७९ ।
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तीर्थकर महावीर ____ अतः इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि, चेटक भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का श्रावक था ।
महाराज चेटक हैहय कुल के थे। ऐसा उल्लेख जैन ग्रन्थों में स्वतंत्र रूप से भी आया है और चेटक के मुख से भी कहलाया गया है ।
इस हैह्य-कुल की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पुराणों में कहा गया है कि, यह वंश ऐल-वंश' अथवा 'चन्द्र-वंश' की शाखा थी। इस सम्बन्ध में जयचन्द्र विद्यालंकार ने अपनी पुस्तक 'भारतीय इतिहास की रूप-रेखा (जिल्द १, पृष्ठ १२७-१२९) में लिखा है:
"किन्तु, इक्ष्वाकु के समय के लगभग ही मध्यदेश में एक और प्रतापी राजा था। जो मानव-वर्ग का नहीं था। उसका नाम था पुरुरवा ऐल और उसकी राजधानी प्रतिष्ठान थी...। उसका वंश 'ऐल-वंश' या 'चंद्र-वंश' कहलाता है ।...पुरुरसा का पौत्र नहुष हुआ, जिसके पुत्र का नाम ययाति था ।...उसके पाँच पुत्र थे-यदु,तुर्वसु, द्रा, अनु और पुरु।... यदु के वंशज यादव आगे चल कर बहुत प्रसन्न हुए। उनकी एक शाखा हैहय-वंश कहलायी।" १-( अ ) चेडो राया हेहय कुल संभूतो
*-आवश्यकचूणि, उत्तरार्द्ध, पत्र १६४ (श्रा ) वैशालिकश्चेटको हैहय कुल संभूतो
-आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र ६७६-२ (३) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक २२६, पत्र ७८-२ (ई) उपदेशमाला सटीक, पत्र ३३८,
२-पार्जिटर ने 'ऐंशेंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रैडिशन" में पुरुरवा को इला का पुत्र लिखा है । पर, जयचन्द्र विद्यालंकार ने इसे गढ़ी हुई कहानी माना है। पुरुरवा के वंश का वर्णन करते हुए पाजिटर ने लिखा है कि पुरुरवा को ५-६ पुत्र थे।... ' उनमें ३ महत्वपूर्ण थे।...आयु, आयुस और अमावसु ।...आयु को पाँच पुत्र थे -नहुष......। नहुष को ६-७ लड़के थे, जिनमें दो यति और ययाति महत्वपूर्ण थे। ययाति को एक पत्नी से दो लड़के थे-यदु और तुर्वसु। यदु को ४ या ५ पुत्र थे। उनमें दो सहस्त्रजित और क्रोष्ट्र महत्व के थे। सहस्रजित के वंशज उसके पौत्र के नाम पर हैहय कहलाये।
--पृष्ठ ५-८७.
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भक्तराजे जैन ग्रंथों में उनके वंश का गोत्र वासिष्ठ बतलाया गया है ।' पर, चन्द्र-वंश की स्थापना के सम्बन्ध में जैनों की भिन्न मान्यता है । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में आता है:
तत्पुत्रं सोमयशसं तद्राज्ये स न्यवो विशत ॥ ७५४ ॥ तदादि सोमवंशो ऽभूच्छा खाशतसमाकुलाः। -~~~-कि ऋषभदेव भगवान् के पुत्र बाहुबली के पुत्र सोमयशस से सोमवंश अथवा चंद्रवंश चला। ऐसा ही उल्लेख पद्मानंद महाकाव्य में भी है:
...........। तदङ्गजं सोमयशोऽभिधानं, निवेशयामास तदीयराज्ये ॥३७॥ तदादि विश्वेऽजनि 'सोम' वंशः, सहस्रसङ्गख्या प्रस्तुतोरुशाखः।
यह मान्यता केवल श्वेताम्बरों की ही नहीं है। दिगम्बर-ग्रन्थों में भी इसी प्रकार का उल्लेख मिलता है:
योऽसौ बाहुबली तस्माज्जातः सोमयशः सुतः। सोमवंशस्य कर्तासौ तस्य सुनुर्महाबल ॥ १६ ॥ ततोऽभूत्सुबलः सूनुरभूद्भजबली ततः।
एवमाद्याः शिवं प्राप्ताः सोमवशोद्रवाः नृपा ॥१७॥ महाराज चेटक स्वयं लिच्छिवि न होते हुए भी, लिच्छिवि-गणतंत्र के
१-भागवओ महावीरस्स माया वासिठुसगुतेणं
--कल्पसूत्र सुबोधिका टोका, सूत्र १०६, पत्र २६१ २-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १, सर्ग ५, श्लोक ७५४-०५५ पत्र १४७-२
३-पद्मानन्द महाकव्य पृष्ठ ४०२ ४-हरिवंशपुराण ( जिनसेन सूरि कृत), सर्ग १३, श्लोक १६-१७, पृष्ठ २२६
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५३२
तोर्थकर महावीर अध्यक्ष थे, यह वैशाली के एक सफल गणराज्य होने का बड़ा प्रबल प्रमाण है।
हेमचन्द्राचार्य ने चेटक की पत्नी का नाम पृथा लिखा है ।
महाराज चेटक का पारिवारिक-सम्बन्ध उस काल के प्रायः सभी बड़े-बड़े कुलों से था । भगवान् महावीर की माता त्रिशला महाराज चेटक की बहन थीं। - महाराज चेटक को सात पुत्रियाँ थीं। १ प्रभावती, २ पद्मावती, ३ मृगावती, ४ शिवा, ५ ज्येष्ठा, ६ सुजेष्ठा और ७ चेल्लणा।"
(१) पृथापाशीभवास्तस्य बभूवः सप्त कन्यकाः -त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ६ श्लोक १८६, पत्र७७-२ हरिषेणाचार्य ने वृहत्कथाकोप में लिखा है:(अ) भद्राभावा सुभद्राऽस्य बभूव वनितोत्तमा । -पृष्ठ ८३ (श्रा) सुभद्राख्या महादेवी भद्रभावा प्रियंवदा -पृष्ठ२३३
-अर्थातू महाराज चेटक की पत्नी का नाम सुभद्रा था। डाक्टर याकोबी ने भी 'सेक्रेड बुक्स पाव द ईस्ट' वाल्यूम २२ ( आचारांग तथा कल्पसूत्र ) की भूमिका में (पृष्ठxV पर जहाँ वंश-वृक्ष दिया है, वहाँ चेटक की पत्नी का नाम सुभद्रा ही लिखा है; पर डाक्टर महोदय ने वहाँ इसके संदर्भ-ग्रन्थ का कोई हवाला नहीं दिया है।
२-भगवतो माया चेडगस्स भगिणी--आवश्यकचूर्णि, भाग १, पत्र २४५ . ३–सत्त धूतानो-पभावती, पउमावती, मिगावती, सिवा, जेट्टा,
सुजेट्ठा, चेल्लणाति पभावती वीतिभए उदायणस्स दिण्णा, पउमावती चंपाए दहिवाणस्ल, मिगावती कोसंबीए सताणियस्स, सिवा उज्जेणीए पज्जोतस्ल, जेठा कुंडग्गामे वदमाण सामिणो जेठस्स नंदिवद्धरास्स दिगण
-आवश्यकचूणि. भाग २, पत्र १६४. ऐसा ही उल्लेख आवश्यक हारिभद्रीय वृति-पत्र ६७६-२, त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र, पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक १८७, पत्र ७७-२, तथा उपदेशमाला सटीक पत्र ३३८ में भी है।
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भक्त राजे
५३३ महाराज चेटक की सब से बड़ी पुत्री प्रभावती का विवाह वीतभय' के राजा उद्रायण से हुआ था। उसकी दूसरी पुत्री पद्मावती का विवाह अंग देश के राजा दधिवाहन से, मृगावती का वत्स देश के राजा शतानीक से, शिवा का उज्जयिनी के राजा प्रद्योत से, ज्येष्ठा का महावीर स्वामी के बड़े भाई नन्दिवर्द्धन से हुआ था ।
मुज्येष्ठा और चेल्लणा तब तक क्वारी थीं। बाद में चेल्लण का विवाह मगध के राजा श्रेणिक से हो गया और सुज्येष्ठा साध्वी हो गयी। इसकी कथा इस प्रकार है । __ मगध के राजा श्रेणिक ने चेटक की पुत्री सुज्येष्ठा के रूप और यौवन की ख्याति सुनकर चेटक के पास विवाह का संदेश भेजा। इस-पर चेटक ने उत्तर दियाः
वाहीक कुल जो वाञ्छन् कन्यां हैहयवंशजां ॥ समान कुलयोरेव विवाहो हन्त नान्ययोः। तत्कन्यां न हि दस्यामि श्रेणिकाय प्रयाहि भोः ॥
१-जैन-ग्रन्थों में २५॥ आर्यदेशों की जहाँ गणना है, उनमें एक आर्यदेश सिंधु-सौवीर भी बताया गया है। उसी की राजधानी वीतभय थी। विशेष विवरण के लिए देखिए, तीथकर महावीर, भाग १, पष्ठ ४२-४६
२--कुछ लोग भूल वश इस राजा का नाम उदायन लिखते है। मालवणिया ने स्थानांग समवामांग में भी इसी रूप में इसका नाम लिखा है। पर, उसका सही न म उद्रायण है। मेरे पास आवश्यक नियुक्ति की हस्तलिखित पोथी हरिभद्र की वृत्ति माहित है। उसमें उद्रायण हो लिखा है ! तिब्बती मूल के साथ उद्रायणवदान का जर्मन अनुवाद प्रकाशित हुआ है। उसमें (भाग २, पृष्ठ ८४ ) भी उद्रायण शब्द ही है।
उतराध्ययन की नेमिचंद्र की टीका ( पत्र २५५.२) में उद्दायण शब्द है। ऐसा ही उपदेशमाला सटीक [ श्लोक ६६, पत्र ३३८ ] में भी है। उद्दायरा का संस्कृत रूप उद्रायण होगा, न कि उदायन ।
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५३४
तीर्थकर-महावीर -~-वाहीक कुल में उत्पन्न हुआ हैहयवंश की कन्या की इच्छा करता है । समान कुल में ही विवाह होना योग्य है। अन्य में नहीं, इसलिए मैं श्रेणिक को कन्या नहीं दूंगा । तुम चले जाओ।'
-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक २२६२२७, पत्र ७८-२ ।।
तब श्रोणिक ने अपने दूतों द्वारा सुज्येष्ठा के अपनी ओर आकृष्ट किया । वह उससे प्रेम करने लगी। एक सुरंग द्वारा उसके हरण की तैयारी हुई; पर संयोगवश चेल्लणा का हरण हो गया और सुज्येष्ठा पीछे रह गयी । इससे उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया और वह साध्वी हो गयी ।'
१-जैन-ग्रन्थों में जहाँ-जहाँ श्रेणिक और चेटक का उल्लेख है, उन सभी स्थलों पर कुलों के उल्लेख मिलते हैं। (अ) कहिहं वाहिय कुले देमित्ति पडिसिद्धो
श्रावश्यक हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र ६७७-१ (आ) चेडो कहहं वाघियकुलए देमित्ति
-आवश्यकचूर्णि, उत्तरार्द्ध, पत्र १६५ (इ) परिभाविऊण भूवो भणेइ कन्नं न हेहया अम्हें । वाहियकुलंमि देयो जहा गयं जाह तो तुम्मे ।।
-उपदेशमाला सटीक, पत्र ३३६, श्रेणिक के प्रसंग में हमने वाहीक कुल पर विचार किया है और हैहयकुल के. सम्बन्ध में ऐतिहासिक मत इसी प्रसंग में पहले व्यक्त कर चुका हूँ। अतः उनकी पुनरावृति यहाँ अपेक्षित नहीं है। २-(अ) सुखकांक्षिभिरीदक्षा यदाप्यन्ते विडंबनाः॥२६॥
इत्थं विरक्ता सुज्येष्ठा स्वयमापृच्छय चेटकम् । समीपे चन्दनार्यायाः परिव्रज्या मुपादये ॥२६६॥
-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सगं ६, पत्र ८०-१ (श्रा ) सुज्येट्ठा य धिरत्थु कामभोगाणि पब्वइत्ता
___-आवश्यकचूणि, उतरार्द्ध, पत्र १६६ (इ) धिरत्थु कामभोगाणंति पव्वतिया
-आवश्यक हारिभद्रीय टीका, पत्र ६७८-१
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भक्त राजे
५३५ इस प्रकार चेटक ने अपने काल के सभी प्रमुख राजाओं से पारिवारिक सम्बन्ध स्थापित करके पूरे भारत से वैशाली को सम्बद्ध कर रखा था।
कालान्तर में चेटक की इसी पुत्री चेल्लणा ने कुणिक को जन्म दिया और वह कुणिक ही श्रोणिक के बाद मगध की गद्दी पर बैठा ।
श्रेणिक ने अपने जीवन-काल में ही अपने पुत्र हल्ल-वेहल्ल को सेचनक हाथी और अहारसकं ( अट्ठारह लड़ी का ) हार दे दिया था । कृणिक की पत्नी पद्मावती ने कुणिक को इन वस्तुओं को ले लेने को उसकाया। इस पर हल्ल-वेहल्ल वैशाली चले गये । कणिक ने वैशाली-नरेश चेटक के पास दूत भेजकर अपने भाइयों को और हाथी तथा हार वापस करने को कहा । चेटक ने इसका यह उत्तर भेजा कि ये वस्तुएँ चाहते हो तो उन्हें आधा राज्य दे दो। कृणिक इस पर सेना लेकर अपने १० भाइयों के साथ चम्पा से विदेह पर चढ़ आया। चेडग भी ९ लिच्छिवि, ९ मल्लई कासी-कोसल के गण राजाओं के साथ युद्ध स्थल पर पहुँचे। दोनों ओर से भयानक युद्ध हुआ। इसका सविस्तार विवरण भगवतीसूत्र शतक ७, उद्देशा ९ में तथा निरयावलिकासूत्र में मिलता है। चेटक ने प्रतिपन्न-व्रत ले रखा था; अतः वह एक दिन में एक ही वाण चलाता था । १० दिन में उसके १० अमोघ बाणों से काल आदि कृणिक के १० भाई मारे गये । कुणिक को अपनी पराजय स्पष्ट नजर आने लगी। पर किसी छल-बल से कणिक ने वैशाली को जीत लिया । इस सम्बन्ध में विशेष विवरण उत्तराध्ययन (प्रथम अध्ययन, गाथा ३) की टीका में मिलता है ।
जय प्रत्येक बुद्धवाले प्रकरण में द्विमुख के प्रकरण में देखिए (पृष्ठ ५६३)।
जितशत्रु
जैन ग्रन्थों कई राज्यों के राजाओं का नाम जितशत्रु (प्राकृतजियसत्तृ ) मिलता है। उनमें निम्नलिखित जितशत्रु भगवान् के भक्त थे।
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तीर्थकर महावीर १--वाणियागाम-वाणियाग्राम के-भगवान् महावीर कालीनराजा का नाम जितशत्रु' था । भगवान् महावीर विहार करते हुए एक बार वाणियागाम पधारे । समवसरण हुआ। उसमें जितशत्रु भी गया। और कृणिक के समान उसने भी भगवान् की वंदना को ।। . २-चम्पा-चम्पा के भी एक राजा जितशत्रु का उल्लेख मिलता है। भगवान् महावीर एक बार चम्पा गये। समोसरण हुआ और जित शत्रु ने भगवान् की वंदना की।
३--वाराणसो-वाराणसी के तत्कालीन राजा का नाम जितशत्रु था। भगवान् जब काशी गये तो समोसरण हुआ और उसमें जितशत्रु भी भगवान् की वंदना करने गया । १-वाणियगामे नगरे जियसत्त नाम राया होत्था
-उवासगदसाओ, पी० एल० वैद्य-सम्पादित, पृष्ठ ४ २-तणं कालेणं तेणं समएणं भगवं महावीरे जाव समोसरिए । परिसा निग्गमा । कूणिए राया जहा तहा जितसत्त निग्गच्छइ २ चा जाव पज्जुवासइ ।
-उवासगदसाओ, पी० एल० वैद्य-सम्पादित, पृष्ठ २५ ३-(अ) तेणं कालेणं तेणं समरणं चंपा नामं णगरी होत्था । जियसत्त राया ।
-उवासगदसाओ, पी० एल० वैद्य-सम्पादित, पष्ठ २२ (आ) चम्पा नाम नयरी..."जियसत्त नामं राया
-नायाधम्मकहाओ, अध्ययन १२, पष्ठ १३५ ( एन० वी० वैद्य-सम्पादित ] ४-जहा आणन्दे तहा निग्गए
-उवासगदसाओ, पी० एल० वैद्य-सम्पादित, पृष्ठ २२ ५-वाराणसी नामं नगरी ।... जियसत्त राया
-उवासगदसाओ, पी० एल० वैद्य-सम्पादित, ५४ ३२ तेणं कालेणं तेषां समए णां वाणारसी नामं नगरी । "जियसत्त राया
-उपासगसाओ, पी० एल० वैद्य-सम्पादित, पृष्ठ ३८
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भक्त राजे
५३७
.४ालभिया-आलभिया के राजा का नाम भी जितशत्रु था ।' भगवान् महावीर जब वहाँ गये और समवसरण हुआ तो वह भी वहाँ वंदना करने गया।
५-कंपिलपुर-कंपिलपुर के राजा का भी नाम जितज्ञत्रु था।' महावीर जब वहाँ गये, तो जितशत्रु भी समवसरण में आया और उसने भगवान् की वंदन की।
६-पोलासपुर-पोलासपुर के राजा का नाम जितशत्रु था। भगवान् महावीर जब वहाँ गये, तो समवसरण में जितशत्रु भी गया और उसने भी भगवान् की वंदना की।
७-सावत्थी-~-श्रावस्ती के राजा का भी नाम जितशत्रु था। भगवान् के वहाँ जाने पर उसने समवसरण में जाकर भगवान् की वंदना की।
८-काकंदी-काकंदी के राजा का भी नाम जितशत्रु था।
१-पालभिया नाम नगरी..."जियसत्त राया
- उवासगदसाओ, पी० एल० वैद्य-सम्पादित, पृष्ठ ४१ २-कंपिल्लपुरे नयरे ...जियसत्त राया
- उवागदसाओ, पी० एल०वैद्य-सम्पादित, पृष्ठ ४३ ३.-पोलासपुरे नामं नयरे ''जितसत्त राया
- उवासगदसाओ, पी० एल. वैद्य सम्पादित, पृष्ठ ४७ .४-...सावत्थी नयरी...जियसत्त राया
- उवासगदसाओ, पी० एल० वैद्य-सम्पादित पृष्ठ ६६ सावत्थी नयरी...जियसतू राया
---उवासगदसाओ, पी० एल० बैद्य सम्पादित, पृष्ठ ७० ५-कागन्दी नामं नयरी होत्था ।...जियसतू राया
- ऋगुतरोववाइयदसाओ, एन० वी वैद्य सम्पादित, पृष्ठ ५१
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तीर्थकर महावीर भगवान् महावीर जब काकंदी पधारे तो उसने भी भगवान् के सम्मुख कूणिक के समान जाकर वंदना की।'
ह-लोहार्गला-लोहार्गला के राजा का भी नाम जितशत्रु था। भगवान् महावीर छद्मरूप काल में मगधभूमि से पुरिमतताल जाते हुए लोहार्गला से गुजरे तो जितशत्रु ने उनका वंदना की थी।'
दत्त'
चम्पा-नामक नगरी थी। पूर्णभद्र नामक उद्यान में पूर्णभद्र-नामक यक्ष का यक्षायतन था।
उस नगर में :दत्त-नामक राजा था। दत्तवती उसकी रानी थी। महाचन्द्र उनका कुमार था।
भगवान् का आना, सवसरण आदि पूर्ण विवरण अदीनशत्रु-सा जान लेना चाहिए।
महाचन्द्र ने पहले श्रावक-धर्म स्वीकार किया और बाद में साधु हो गया । पूरी कथा सुबाहु के समान है ।
१-तेणं कालेणं २ समणे समोसढे । परिसा निग्गाता । राया जहा कूणिश्रो तहा निग्गयो
-अणुतरोववाइयदसाओ, एन० बी० वैद्य-सम्पादित पृष्ठ ५२ २-लोहग्गलं रायहाणिं, तत्थ जियसतू राया, सोय अन्नेण राइ. णासमं निरुद्धो, तस्स चार पुरिसेहिं गहिता पुच्छिज्जत ण साहति...
-आवश्यकचूणि, पूर्वाद्ध, पत्र २६४ ३- विपाकमूत्र [ पी०एल० बैद्य सम्पादित ] श्रु० २ अ०६, पृष्ठ ८३
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भक्त राजे
दधिवाहन
भगवान् महावीर के समय में दधिवाहन चम्पा का राजा था । उसकी पत्नी का नाम पद्मावती था । वह वैशाली के महाराजा चेटक की पुत्री थी । उसकी एक अन्य पत्नी भी थी । उसका नाम धारिणी था । * आवश्यकचूर्णि में कथा आती है कि एक बार कौशाम्बी के राजा. शतानीक ने इसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। हम उसका सविस्तार वर्णन इसी ग्रंथ के प्रथम भाग में पृष्ठ २३९ पर कर आये हैं ।
इसकी पुत्री चंदना ( जिसका पहले का नाम वसुमति था ) भगवान् महावीर की प्रथम साध्वी हुई ।
इस आक्रमण के बाद भी कुछ दिनों राज्य करने के बाद दधिवाहन ने अपने पुत्र को राज्य सौंप कर स्वयं प्रव्रज्या ले ली । इसकी कथा विस्तार से प्रत्येकबुद्ध करकंड़ के चरित्र में हमने दे दिया है।
१ - परमावती चंपाए दहिवाहणस्स
२ - इहिवाहणस्स रनो धारिणी देवी
दधिवाहनभूप भार्या धारिणी
३ - आवश्यकचूर्ण, पूर्वाद्ध, पत्र ३१८
५३६
-- श्रावश्यकचूगिं, उत्तरार्द्ध, पत्र १६४
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- आवश्यकचूर्ण, पूर्वार्ड, पत्र ३१८
- कल्पसूत्र सुवोधिका टीका, पत्र ३०८
- कल्पसूत्र सुबोधिका टीका पत्र ३०८ ४ - समणस्स भगवश्रो महावीरस्स अज्जचंदापामोक्खाओ छत्तीसं ज्जिया साहस्सी उक्कोसिया अज्जिया संपया हुत्था
- कल्पसूत्र, सूत्र १३५, सुबोधिका टीका पत्र ३५६
५- दधिवाहणो पन्वइतो
- आवश्यकचूर्णि उत्तरार्ध, पत्र २०७
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तीर्थङ्कर महावीर
दशार्णभद्र
भगवान् महावीर के काल में दशार्णपुर में दशार्णभद्र नामका राजा राज्य करता था । उसे एक दिन उसके चरपुरुष ने आकर सूचित किया कि कल प्रातःकाल आपके नगर के बाहर भगवान् महावीर पधारने वाले हैं।
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चर की बात सुनकर दशार्णभद्र बड़ा प्रफुल्लित हुआ और उसने अपनी सभा के समक्ष कहा- " कल प्रातः मैं प्रभु की वंदना ऐसी समृद्धि से करना चाहता हूँ, कि जिस समृद्धि से किसी ने भी वंदना न की हो । "
उसके बाद वह अपने अंतःपुर में गया । अपनी रानियों से भी प्रभु की वंदना करने की बात कही । दशार्णभद्र पूरी रात चिन्ता में पड़ा रहा और सूर्योदय से पूर्व ही नगर के अध्यक्ष को बुलाकर नगर सजाने की आज्ञा उसने दी ।
नगर ऐसा सजा जैसे कि वह स्वर्ग का एक खण्ड हो । नगर सज जाने की सूचना मिलने के बाद राजा ने स्नान किया, अंगराग लगाया, पुष्पों की मालाएँ पहनी, उत्तमोत्तम वस्त्राभूषणों से अलंकृत हुआ और हाथी पर बैठकर प्रभु के समवसरण की ओर पूरी ऋद्धि से चला |
१ - दसण्णरज्जं मुइयं, चइत्ताणं
मुणीचरे । दसण्णभद्दो निक्खतो, सक्खं सक्केण चोइयो || - उत्तराध्ययन, शान्त्याचार्य की टीका सहित, अध्ययन १८, श्लोक ४४, पत्र ४४७-२
दशार्णभद्रो दशार्णपुर नगरवासी विश्वंभराविभुः यो भगवन्तं महावीरं दशार्णकूटनगर निकट समवसृतमुद्यान -ठाणांगसूत्र सटीक पत्र ४८३-२
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भक्त राजे
मन में दशार्ण के विमान बनाया ।
उसका गर्व देखकर इन्द्र के गर्वहरण की इच्छा हुई । अतः इन्द्र ने जलमय एक उसे नाना प्रकार के स्फटिक आदि मणियों से सुशोभित कराया । उस विमान में कमल आदि पुष्प खिले थे और तरह-तरह के पक्षी बोल रहे थे । उस विमान में बैठकर इन्द्र अपने देवसमुदाय के साथ समवसरण की ओर चला ।
पृथ्वी पर पहुँचकर इन्द्र अति सज्जित ऐरावत हाथी पर बैठ कर देवदेवियों के साथ समवसरण में आया ।
इन्द्र की इस ऋद्धि को देखकर दशार्ण के मन में अपनी ऋद्धि-समृद्धि क्षीण लगने लगी और ( अविलम्ब भगवान् के पास जाकर ) उसने अपने वस्त्राभूषण उतार कर दीक्षा ले ली ।
दशार्णभद्र को दीक्षा लेते देखकर इन्द्र को लगा कि, जैसे वह पराजित हो गया है और दशार्णभद्र के पास जाकर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करके इन्द्र लौट गया ।
उसके बाद दशार्णभद्र ने भगवान् के साथ रहकर धर्म का अध्ययन किया और साधु व्रत पालन किया ।
दशार्णभद्र की यह कथा त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र पर्व १०, सर्ग १०; उत्तराध्ययन टीका अ० १८; भरतेश्वर बाहुबली वृत्ति, ऋषिमंडल वृत्ति आदि ग्रंथों में आती है ।
ठाणांगसूत्र में आता है
अणुत्तरोववातिय दसाणं दस अज्झयणा पं तं०ईसिदास य १ धरणे त २, सुणक्खत्ते य ३, कातिते ४ । सट्टा ५, सालिभद्दे त ६, आणंदे ७, तेतली ८ ॥ १ ॥ दसन्नभद्द अतिमुत्ते १० एमेते दस श्रहिया । ......
( पत्र ५०६ - १ )
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५४२
तीर्थकर महावीर उसकी टीका (पत्र ५१०-२ ) में उसकी कथा दी गयी है । .. यद्यपि इन में से कुछ का उल्लेख अणुत्तरोववाइय में मिलता है, पर दशार्ण भद्र का उल्लेख वहाँ नहीं मिलता । अणुत्तरोववाइय में अब ३ अध्ययन हैं । प्रथम में जालि-मयालि आदि श्रेणिक के १० पुत्रों का, द्वितीय में दीदंत आदि श्रेणिक के १३ पुत्रों का और तीसरे में
धन्ने सुणक्खत्ते इसिदासे य ाहिए पेल्लए रामपुत्त य चन्दिमा पुट्टिमाइय ॥ पेढालपुत्ते अणगारे नवमे पोट्टिले इय । वेहल्ले दसमें वुत्ते इमेए दस अहिया ।।
१ धन्य, २ सुनक्षत्र, ३ ऋषिदास, ४ पेल्लक, ५ रामपुत्र, ६ चन्दिमा ७ पुहिमा, ८ पेठालपुत्र, ९ प्रोष्ठिल, १० वेहल्ल के उल्लेख मिलते हैं।
इनमें धन्य, सुनक्षत्र और ऋषिदास ये तीन ही नाम ऐसे हैं, जिनका उल्लेख ठाणांग और अणुत्तरोववाइय दोनों में है।
अणुत्तरोववाइय किसे कहते हैं, इसका उल्लेख समवायांग सटीक सूत्र १४४ ( पत्र २३५-२, भावनगर ) में आता है। इनमें लिखा है कि, जो लोग मरकर अणुत्तरलोक तक जाने वाले हैं और पुनः जन्म लेने के बाद जो सिद्ध होनेवाले हैं, ऐसे लोगों का उल्लेख अणुत्तरोववाइय में है । और ठाणांग की टीका में अभययदेवसूरि ने कहा है"परमनुत्तरोपपातिकाङ्गे नाधीतः क्वचित्सिद्धश्च श्रयते"
(पत्र ५१०-२) भरतेश्वरबाहुबलिचरित्र में भी लिखा है कि, दशार्गभद्र मर कर मुक्त हुआ। "क्रमाकर्मक्षयं कृत्वा दशार्णभद्रो मुक्तिं ययौ ॥
(प्रथम भाग, पत्र ११६-२) पर, ठाणांग में अणुत्तरोवाइय के प्रसंग में दशार्णभद्र का उल्लेख होने
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भक्त राजे
५४३ से स्पष्ट है कि दशार्णभद्र को मुक्ति नहीं हुई। यह बात समवायांग-जो चौथा अंग-और नन्दी सूत्र से भी प्रमाणित है । अणुत्तरोववाओ सुकुलपच्चायाया......
-समवायांग (भावनगर ) पत्र २३५-१ --अणुत्तर विमान में उत्पत्ति और उत्तम कुल में जन्म
-वही पत्र २३६-२ अनुत्तरोपपातिकत्वे-उपपत्तिः, सुकुलप्रत्यावृत्तयः
-नंदीसूत्र ( मुथा ) पृष्ठ १३५ अनुत्तर-सर्वोत्तम विजयादि-विमानों में औपपातिक रूप से उत्पन्न होना, मनुष्य भव में फिर श्रेष्ठ कुल को प्राप्ति आदि
-वही पृष्ठ १३६ ___इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि, अनुत्तरोपपातिक में जिनके उल्लेख आते हैं, उनको पुनः मनुष्य-भव में उत्पन्न होना होगा । तब उसके बाद मुक्ति होगी। इन अंगों के आधार पर बाद की पुस्तकों में उल्लिखित मुक्ति की बात स्वीकार नहीं की जा सकती।
-दशार्ण
दशाणं देश का उल्लेख जैनों के २५॥ आर्य-देशों में' तथा बौद्धों के १६ महाजनपदों में मिलता है। इसका उल्लेख हिन्दू-वैदिक ग्रन्थों में भी प्रचुर मिलता है :
१-देखिए तीर्थकर महावीर, प्रथम भाग, पृष्ठ ४४ २-देखिए तीर्थकर महावीर, प्रथम भाग, पृष्ठ ५३
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५४४
तीर्थकर महावीर श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में उल्लेख है कि यह नगर शत्रुघ्न के लड़के शत्रुघाती को दिया गया ।'
सुबाहुर्मधुरां लेभे शत्रुघाती त वैदिशाम् ।
- रामायण, उत्तरकाण्ड, सर्ग १८०, श्लोक ९, द्वितीय भाग पृष्ठ ४४० ।
'महाभारत' में भी दशार्ण का उल्लेख कई स्थलों पर आया हैउत्तमाश्च दशार्णाश्च मेकलाश्चोत्कलैः सह । पज्वालाः कोसलाश्चैव नैक पृष्ठा धुरन्धराः॥ -महाभारत, भीष्म पर्व, अध्याय ९, श्लोक ४१, पृष्ट १५ ।
इसके अतिरिक्त महाभारत में समापर्व ३०१५ तथा उद्योगपर्व १८९।९ में भी दशार्ण का उल्लेख आया है।
पतंजलि-भाष्य में भी दशार्ण का उल्लेख है ।' कुछ स्थलों पर इस राज्य का नाम आकर भी आया है ।
१-विमलचरण ने अपनी पुस्तक 'हिस्टारिकल ज्यागरैफी अाध ऐशेंट इंडिया' [पृष्ठ ३३६] में लिखा है कि, इस नगर को रामचन्द्र ने अपने भाई शत्रुघ्न को दिया
और पता दिया है ( उत्तर काण्ड, अध्याय १२१ ) पर वस्तुतः शत्रुघ्न के पुत्रों के सम्बन्ध में वहाँ उल्लेख है कि, सुबाहु को मथुरा और शत्रुघाता को विदिशा शत्रुघ्न ने दिये । भगवतदत्त ने अपनी पुस्कक 'भा तवर्ष का इतिहास' पृष्ट १११ पर उक्त श्लोक की ठीक व्याख्या दी है।
२-महाभाष्य : ६-१-८६-२१-६६ और देखिये 'इंडिया .इन दो टाइम श्राव पतंजलि,' पृष्ट ८५ ।
३-देखिए सिलेक्ट इंस्कृप्शंस [ दिनेशचन्द्र सरकार-सम्पादित ] भाग १, पृष्ठ १७२ जूनागढ़ का रुद्रदामन का शिलालेख और पृठ १६६ पर नासिका का वासिष्ठीपुत्र पुलूमावी का शिलालेख तथा पाठ ६० की पादटिप्पणि । मध्यभारत का इतिहास, द्विवेदी लिखित, पृष्ठ ३३ ।
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५४५ इसके अतिरिक्त कालिदास के मेघदूत' और कादम्बरी' में भी इस नगर का उल्लेख है।
प्राचीन जैन-ग्रन्थों में इस दशार्ण-राज्य की राजधानी मृतिकावती बतायी गयी है। इस मृत्तिकावती नगर का उल्लेख हिन्दू-वैदिक-ग्रन्थों में भी आया है । यादव-राज्य सात्वत के चार लड़कों में बँट गया था और वभ्र और उसके वंशज मृत्तिकावती में राज्य करते रहे। एक अन्य विवरण में आता है कि, दो भाइयों ने अपने सबसे छोटे भाई को घर से निकाल दिया तो वह नर्मदा, मेकला, मृत्तिकावती और ऋक्ष-पर्वत में अपना दिन बिताने लगा। ___मृत्तिकावती का उल्लेख पुराणों में अन्य प्रसंगों में भी आया है:मारकंडेय-पुराण के अपने अनुवाद में (पृष्ठ ३४२ ) पार्जिटर ने भोज शब्द पर पादटिप्पणि में लिखा है कि भोज लोग मृत्तिकावती में रहते थे
और पृष्ठ ३४९ पर भी मृत्तिकावती का उल्लेख पादटिप्पणि में किया है। ____ दशार्ण की ही राजधानी दशार्णपुर भी बतायी गयी है । जैन-ग्रन्थों में इस नगर का उल्लेख ठाणांग, आवश्यकचूर्णि, आवश्यक की टीका आदि ग्रन्थों में आता है। १-तेषां दिचु प्रथित विदिशा लक्षणां राजधानी,
गत्वा सद्यः फलमविकलं कामुकत्वस्य लब्धा ।
तीरोपान्तस्ततिनसुभगं पास्यसि स्वादु यस्मा। सभ्रमङ्ग मुखमिव पायो वैभवत्पाश्ललोमि-मेघदूत, पूर्वमेघ, श्लोक २४ ।
२-माल्या वेत्रवत्या परिगता विदिशामिधाना राजधान्यसीत् ३-ऐश इंडियन हिस्टारिकल ट्रटिशन पृष्ठ २७६, भारतीय इतिहास की रूपरेखा, भाग १ पृष्ठ १५६
४-ऐशेंट इडियन हिटीरिकल टेडिशन, पेज २६६ ५-ठाणांगमूत्र सटीक, उतराई, पत्र ५१०.२ ६-आवश्यकचूर्णि, उतराद्ध, पत्र १५६
कादंबरी
३५
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तीर्थकर महावीर इस दशाणपुर की पहचान विदिशा अथवा वर्तमान भिलासा से की जाती है । इसका नाम भिलसा पड़ने के कारण पर प्रकाश डालते हुए कनिंघम ने 'रिपोर्ट आव टूर्स इन बुंदेलखंड ऐंड मालवा इन १८७४-७५ ऐंड १८७६-७७' में लिखा है कि यहाँ सर्वसाधारण में विख्यात है कि राजा भीलू अथवा भिलस द्वारा बसाये जाने के कारण इसका नाम मिलसा पड़ा।
__ पर, डाक्टर हाल ने भिलसा नाम पड़ने का एक सर्वथा भिन्न कारण बताया है। उन्होंने लिखा है कि, यहाँ भाइल नामक सूर्यमंदिर राजा कृष्ण के मंत्री वाचस्पति ने बनवाया था। उस भाइल सूर्य मंदिर के ही कारण इसका नाम भिलसा पड़ा।
उदयपुर के शिलालेख में 'भाइल स्वामी-महाद्वादशकमंडल' शब्द आया है । यह शिलालेख १२२९ वि०स० का है।
डाक्टर कनिंघम ने अपनी उसी पुस्तक में भाइलस्वामी शब्द पर व्याख्या करते हुए लिखा है-'भा' का अर्थ प्रकाश होता है और 'इल' का अर्थ प्रस्फुटित करना, बिखेरना आदि हुआ। अतः भाइल का अर्थ प्रकाश विकरित करने वाला । 'भाइल' और 'ईश' मिलकर भैलेश हुआ । उसी का विकृत रूप मिलसा बना ।
भाइलस्वामी के सम्बन्ध में उल्लेख जैन-ग्रन्थों में भी आता है। विविधतीर्थकल्प में 'चतुरशीति महातीर्थ नाम संग्रहकल्प" में "भाइल
१- पृष्ठ ३४ ( बाल्यूम १०, आालाजिकल सर्वे आव इंडिया, १५८०) २-बंगाल एशियाटिक सोसाइटी जर्नल XXXI, ॥ ११२ नोट एपीग्राफिका इंडिया, वाल्यूम २४, भाग ५, अं० ३० पष्ठ २३१ ३-एपीग्राफिका इडिया वाल्यूम २४, भाग ५, पृष्ठ २३१ ४-रिपोर्ट आव टूर्स इन वुलेन्दखंड ऐंड मालवा इन १८७४-७५ पृष्ठ ३४ ५-विविधतीर्थ कल्प पृष्ठ ८६.
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स्वामिगढ़े देवाधिदेवः' आता है । सम्पादकों ने पादटिप्पणि में 'भाइल' शब्द का रूपान्तर'भायल' दिया है । विविधतीर्थंकल्प के इस उल्लेख से संकेत मिलता है कि जिनप्रभसूर के समय में नगर का नाम 'भाइलस्वामीगढ़' था । जिनप्रभसूरि की यह उक्ति कि, नगर ही भाइलस्वामी कहा जाता था, शिलालेखों से भी प्रमाणित है ( देखिये हिस्ट्री आफ द' परमार डिनेस्टी-डी० सी० गांगुली -लिखित (१९३३) पृष्ठ १६१ | अल्ब - बरूनी ने अपने ग्रन्थ में लिखा है कि, नगर का नाम भी नगर के पूज्य देवता के नाम पर था (अल्बरूनीज इंडिया, भाग १, पृष्ठ २०२ ) और जिनप्रभसूरि द्वारा बाद में गढ़ लगाने का कारण यह था कि, वह गढ़ है ( इम्पीरियल गजेटियर इंटर-सम्पादित भाग २, पृष्ठ ९३ )
भाइलस्वामी-सम्बन्धी एक कथा का उल्लेख त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र पर्व १० में कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य ने भी किया है । ' कथा है-
"एक बार विदिशपुरी में भायलस्वामी नामक एक वणिक रहता था । उसे राजा ने विद्युन्माली द्वारा प्रकाशित गोशीर्षचंदन की देवाधिदेव की प्रतिमा पूजा करने के लिए दी। एक बार भायलस्वामी को पूजासाम्रगी लिए दो अत्यंत तेजवान् पुरुष दिखलायी पड़े। उन्हें देख कर भायलस्वामी ने उनसे पूछा - " आप कौन हैं ?'
वे तेजवान पुरुष बोले- "हम लोग पाताल भवनवासी कम्बल-शम्बल नागकुमार हैं । यहाँ देवाधिदेव की पूजा करने की इच्छा से आये हैं ।" भायलस्वामी ने उनसे पाताललोक देखने की इच्छा प्रकट की । उन दोनों देवताओं ने भागलस्वामी को बात स्वीकार कर ली । पाताललोक देखने के उत्साह में भायलस्वामी देवाधिदेव की आधी पूजा करके उन देवताओं के
साथ पाताल चला ।
१ - त्रिपष्टिशलाका पुरुष चरित्र, पर्व १०, सर्ग १२, श्लोक ५४०-५५६ पेज १५४-२ से १५५-२
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- तीर्थङ्कर महावीर पाताल में उसने धरणेन्द्र से वर माँगा कि ऐसा हो कि, मेरा नाम विख्यात् हो जाय और अविचल रहे । धरणेन्द्र ने उत्तर दिया कि चंडप्रद्योत राजा तुम्हारे नाम से एक अत्यंत सुन्दर नगर बसायेगा। यहाँ आने की जल्दी में तुमने आधी पूजा की है। अतः यह प्रतिमा कितने ही काल तक मिथ्यादृष्टिवालों द्वारा पूजित होगी। और 'भायलस्वामी सूर्य के नाम से विख्यात होगी । सूर्य मंदिर के कारण यह न केवल भायलस्वामी वरन् भास्वत भी कहा जाता था, जिसका अर्थ सूर्य है (आप्टे-संस्कृतइंगलिश-डिक्शनरी, भाग २, पृष्ठ ११९७ ) देखिये-डिनेस्टिक हिस्ट्री आव नादन इंडिया, एच० सी० राय-लिखित खण्ड २, नक्शा संख्या ४)
इसका एक अन्य नाम एड़ककक्ष' भी मिलता है। यह नाम जैनग्रन्थों में भी आया है। एड़कक्ष नाम पड़ने का कारण लिखा है कि एक श्राविका को उसका पति बहुत सताता था। अतः किसी देवता ने उसके पति की आखें निकाल ली। पर वह श्राविका अपने पति के प्रति निष्ठावान थी। अतः उसने तपस्या प्रारम्भ कर दी। फिर तत्काल मरे भेड़े की आँख उसके पति को लगा दी गयी । तब से वह आदमी एड़कक्ष कहा जाने लगा और उसकी नगरी का नाम एड़कक्षपुर पड़ गया।
जैन-ग्रन्थों में इस नगरी के गजाग्रपद नाम का भी उल्लेख आता है। कथा है-“दशार्णपुर के निकट दशार्णकूट था। इसी दशार्णकूट पर भगवान् महावीर ठहरे थे। जब भगवान् वहाँ थे, तो दशार्णभद्र हाथी पर बैठ कर भगवान् के प्रति आदर प्रकट करने गये। हाथी अपने अगले पाँव पर खड़ा हो गया।
१-पेटवत्थु २०, पेटवत्थु टीका ६९-१०५ डिक्शनरी श्राव पाली प्रापर नेम्स, भाग १, पेज ४५६ । २-आवश्यकचूणि भाग २, पत्र १५६.१५७
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५४६ हाथी के पाँव के चिन्ह पर्वत पर पड़ गये। इससे उस पर्वत का नाम गजाग्रपदगिरि पड़ गया।'
इस पर्वत का नाम इन्द्रपद भी है। इस नगर का नाम बेसनगर भी आता है।
इसी का नाम रथावर्त भी था । वज्रस्वामी के निधन पर इन्द्र द्वारा रथ लेकर आने से इसका नाम रथावर्त पड़ा। यह रथावर्त भी गजानपद का ही नाम है इसका स्पष्टीकरण राजेन्द्रसूरि ने कल्पसूत्रप्रबोधिनी में स्पष्ट रूप से किया है:__ "असौ गिरिः प्रायो दक्षिण मालव देशीयां विदिशा (भिल्सां) समया किलाऽऽसीत् । आचारागनियुक्तौ 'रहावत्तनगं' इत्युल्लेखात् । प्राचाराङ्गनियुक्तिरचयिता श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामीति
१-आवश्यक नियुक्ति दीपिका भाग २, गाथा १२७५ पत्र १०७-२ आवश्य चूर्णि, पत्र १५६ ।
२-वृहत्कल्पसूत्र भाष्य , विभाग ४, पेज १२६८-१२६६, गाथा ४८४१, में आता है
"इन्द्रपदो नाम गजाग्रपदगिरिः" ३-ज्यागरैफिकल डिक्शनरी, नन्दलाल दे-लिखित, पेज २६ । .
४-आवश्यकचूर्णि पत्र ४०५, आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति ३०४-१, आवश्यक मलयगिरि की टोका, द्वितीय विभाग, पत्र ३६६-१ । ५-अट्ठावयमुज्जिते गयगपयए य धम्मचक्के य ।
पास रहावत्तनगं चमरुप्पायं च वंदामि ॥
...'"एवं रथावर्ते पर्वते वैरस्वामिना यत्र पादपोपगमनं कृतं.... -आचाराग सटीक, श्रु० २, भावनाध्ययन, नियुक्ति गाथा ३३५, पत्र
इस प्रसंग में चूणि में आया है
"प्रावचने रथावित्त"
-आचारांग चूर्णि, पत्र ३७४.२ ।
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तीर्थङ्कर महावीर मन्यते, तर्हि वज्रस्वामिनः स्वर्गमनात्प्रागपि स गिरीरथावर्त्तनामाऽऽसीदिति सङ्गच्छेत ॥'
इससे स्पष्ट है कि 'रहावत' विदिशा के पास ही था । निशीथ चूर्णि में भी ऐसा ही उल्लेख आया है।
'जैन-परम्परा नो इतिहास' नामक ग्रन्थ में लेखक ने अपनी कल्पना भिड़ाकर इसे मैसूर राज्य में बताया है और वहाँ की बड़ी मूर्ति को वज्र स्वामी की मूर्ति लिख दिया है। स्पष्ट है और प्रमाणित है कि मैसूर राज्य की वह मूर्ति बाहुबली की है। तीर्थकल्प में स्पष्ट उल्लेख है-"दक्षिणापथे गोमटदेवः श्री बाहुबलिः । लेखक ने न तो इस ओर ध्यान दिया और न शास्त्रीय उल्लेखों की ओर और वह अपनी कल्पना भिड़ा गये। उनकी दूसरी कल्पना यह है कि वज्रस्वामी का दूसरा नाम द्वितीय भद्रबाहु हैं । यह बात भी सर्वथा अप्रमाणित है । ___ रथावर्त के ही निकट वासुदेव और जरासंध में युद्ध हुआ था। रथावर्त का उल्लेख महाभारत में भी आता है। ___ आर्य महागिरि और आर्य मुहस्ति पाटलिपुत्र से यहाँ आये और जीवित प्रतिमा का वंदन करके आर्यमहागिरि गजाग्रपद तीर्थ की वंदना करने गये । बाद में आर्यमहागिरि इसी गजाग्रपदतीर्थ में अनशन करके
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१-श्रीकल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी, पेज २८२ । २-निशीथ पेज ६० । ३-पेज ३३७ । ४-विविध तीर्थ कल्प. पेज ८५ । ५-जैन-परम्परा नो इतिहास, पेज ३३७ । ६-श्रावश्यकचूर्णि, पूर्व भाग, पत्र २३५ ।
७-महाभारत ( कृष्णाचार्य व्यासाचार्य सम्पादित) वनपर्व, अध्याय ८२, श्लोक २२, पेज १४१ ।
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भक्त राजे स्वर्गवासी हुए और आर्य सुहस्ती विदिशा से उज्जयनी में जीवित प्रतिमा को वंदन करने चले गये।
अपनी महत्त्वपूर्ण स्थिति के कारण विदिशा का प्राचीन भारतीय इतिहास में बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। और, इसी कारण शताब्दियों तक वह बड़े महत्त्व का व्यापारिक केन्द्र रहा। यहाँ से व्यापार-मार्ग कौशाम्बी, काशी, पाटलिपुत्र, भरुकच्छ और सूर्पारक तक जाते थे। पालीसाहित्य में इसे पाटलिपुत्र से ५० योजन की दूरी पर बताया है। पालीसाहित्य में यहाँ से जाने वाले एक अति लम्बे मार्ग का भी एक उल्लेख आया है । बावरी नामक एक व्यक्ति ने श्राप का फल जानने के लिए अपने १६ शिष्य बुद्ध के पास भेजे । अल्लक से प्रस्थान करके वह दल प्रतिष्ठान, माहिष्मती, उज्जयिनी, गोनद्ध, होता हुआ विदिशा पहुँचा और यहाँ से बनसाय, कौशाम्बी, साकेत, श्रावस्ती, सेतव्या, कपिलवस्तु, कुशीनारा, पावा, भोगनगर, वैशाली होता हुआ राजगृह गया।
सम्राट अशोक अपने युवराजत्वकाल में यहाँ रह चुका था और उसने एक वैश्य की पुत्री से यही विवाह कर लिया था। उसी की संतान महेन्द्र राजकुमार और संघमित्रा थी।
कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में इसे मध्यम प्रकार के हाथियों के लिए
१-आवश्यक चूणि, द्वितीय भाग, पत्र १५६ -१५७ । आवश्यक हारिभद्रीय टीका तृतीय भाग, पत्र ६६६-२, ६७०-१। आवश्यक नियुक्ति दीपिका, द्वितीय भाग, पत्र १०७.१ गाथा १२७८ ।
२-डिक्शनरी आव पाली प्रापर नेम्स, भाग २, पेज ६२२ । ३-सुत्तनिपात ( हार्वाड ओरियेंटल सिरीज ) लार्ड चैमर्स-सम्पादित पृष्ठ २३८, ४-डिक्शनरी आव पाली प्रापर नेम्स, भाग २, पृष्ठ ६२२; बुद्धचर्यो, पृष्ट ५३७
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५५२
तीर्थंकर महावीर
प्रसिद्ध बताया है । ' जातकों में इस राज्य को तलवार के लिए प्रसिद्ध बताया गया है ।
कालिदास ने विदिशा के सम्बंध में लिखा है:त्वय्यासन्ने परिणतफलश्याम जम्बूवनान्ताः संपत्स्यन्ते कतिपयदिन स्थायिहंसा दशार्णाः ॥
- चारों ओर पके जामुन के फलों से लदे हुए वृक्षों से वनश्री अधिक सुहावनी दिखायी देगी, और इस आनन्द के कारण सुदूरवर्ती मानसरोवर के हंस भी वहाँ खिंचे आयेंगे चाहे वे वहाँ कुछ ही दिन क्यों न ठहरें ।
कालिदास ने जिस प्रकार हंसों और जम्बू के वृक्षों का उल्लेख किया है, ठीक वैसा ही हंस और जम्बू' का उल्लेख आवश्यक चूर्णि में भी है । विदिशा के आसपास जो खोदायी हुई है, उसमें बहुत-सी ऐसी ऐतिहासिक सामग्री मिली है, जो जैन- दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं |
बेसनगर से २ मील दक्षिण-पश्चिम की दूरी पर उदयगिरि में २० गुफाएँ हैं, उनमें दो गुफाएँ संख्या १ और २० जैन - गुफाएँ हैं । शिल्पशास्त्र की दृष्टि से गुफा नम्बर १ रोचक है; क्योंकि वह भारत में मन्दिर -
१ – कलिङ्गाङ्गगजाः श्रेष्ठाः प्राच्याश्चेति करूशजाः
-
दशाश्वापरान्ताश्च द्विपानां मध्यमा मताः सौराष्ट्रकाः पाञ्चजनाः तेषां प्रत्यवरास्स्मृताः सर्वेषां कर्मणा वीर्य जवस्तेजश्च वर्धते
कौटिलीयं अर्थशास्त्र - शामाशास्त्री सम्पादित, ५४५० २ - दसन्नकय तिखिंधारं असिम्
३ - मेघदूत ( काशीनाथ बापू-सम्पादित ) श्लोक २३, पृष्ठ १४ ४ - श्रावश्यकचूरि-पत्र ४७७
५ - आवश्यकचूर्णि पत्र ४७
- जातक III, पेज ३३८
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भक्त राजे निर्माण-शास्त्र के विकास में प्रारम्भिक रूप का प्रतिनिधित्व करती है। इस गुफा में ७ फुट x ६ फुट का एक कमरा है और ७ वर्ग फुट का एक बराम्दा है। इसमें पीछे की दीवाल की चट्टान में ही मूर्ति खोदी हुई थी। अब वह मूर्ति बहुत-ही जीर्ण शीर्ण हो गयी है।
उदयगिरि की गुफा संख्या १० को कनिंघम ने जैन-गुफा बताया है। इसका कारण उन्होंने यह बताया है कि, इसमें पार्श्वनाथ भगवान् की प्रतिमा स्थापित थी। इसमें कई कमरे हैं । इस गुफा में एक शिलालेख भी है :
नमः सिद्धेभ्यः श्री संयुतानाम् गुनतो
नगर से आधे मील की दूरी पर एक टोला है और उस टीले से आधे मील की दूरी पर बेतवा के तट पर हाथी पर चढ़े एक सवार की विशाल मूर्ति है। प्राचीन पुरातत्त्वविदों ने हाथी की मूर्ति का उल्लेख तो किया, पर जैन-साहित्य से अनभिज्ञ होने के कारण वे इसका महत्त्व न आँक सके । हम पहले इस नगर के निकट के पर्वत के गजानपद कहे जाने का उल्लेख कर चुके हैं । अतः उसे यहाँ दुहराना नहीं चाहते।
वर्तमान स्थिति यह है कि, प्राचीन विदिशा आज भिलसा के नाम से विख्यात है। भिलसा से दो मील उत्तर बेसनगर-नामक ग्राम है। विदिशा से २ मील की ही दूरी पर उदयगिरि की प्रसिद्ध गुफाएँ हैं । कनिंघम ने यहाँ के ऐतिहासिक स्थानों की परस्पर दूरी इस प्रकार दी हैं
१-कालिदास-वर्णित मध्यप्रदेश-चतुर्धाम, डाक्टर हरिहर त्रिवेदी-लिखित पृष्ठ ३८ ।
२-रिपोर्ट श्राव टूर्स इन बुंदेलखंड ऐंड मालवा १८७४-७५-१८७६.७७ पृष्ठ ४६-४७ ३-वही, पृष्ठ ५३
४-रिपोर्ट, पाव टूर्स इन बुंदेलखंड ऐंड मालवा १८७४-७५.१८७६-७७ कनिंघम लिखित, पष्ठ ४०
५-देखिए पृष्ठ ५४८ ६-मध्यप्रदेश चतुर्धाम, पृष्ठ-३५ ७-भिल्स-टोप्स, पृष्ठ ७,
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तीर्थंकर महावीर
साँची - भिलसा से ५ || मील दक्षिण-पश्चिम सोनारी - साँची से ६ मील दक्षिण-पश्चिम सतधारा - साँची से ६ || मील पश्चिम
भोजपुर- साँची से ७ मील पूर्व दक्षिण-पूर्व । भेलसा से ६ मील दक्षिण-दक्षिण-पूर्व
अंधेर – भोजपुर से ४ मील पूर्व दक्षिण-पूर्व । भिलसा से ९ मील पूर्वदक्षिण-पूर्व ।
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द्विमुख
प्रत्येकबुद्ध वाले प्रकरण में देखिए ( पृष्ठ ५६३ )
धनावह'
ऋषभपुर नामक नगर में स्तूपकरंडक - नामक उद्यान था उस उद्यान में धन्य - नामक यक्ष का यक्षायतन था ।
उस नगर में धनावह नामक राजा राज्य करता था । उसकी देवी का नाम सरस्वती था । उन्हें भद्रनन्दी नामक पुत्र था । ( जन्म, शिक्षा-दीक्षा, विवाह आदि का विवरण सुबाहुकुमार की तरह जान लेना चाहिए )
एक बार भगवान् महावीर ऋषभपुर आये । धनावह भद्रनन्दी आदि वंदना करने गये ( यहाँ समस्त विवरण अदीनशत्रु-सा समझ लेना चाहिए | ) भद्रनन्दी ने भगवान् के सम्मुख श्रावक-धर्म स्वीकार किया । कालान्तर में इसे प्रत्रजित होने का विचार हुआ और यह भी सुबाहुकुमार के समान प्रवजित हो गया ।
नग्गति प्रत्येकबुद्ध वाले प्रकरण में देखिए ( पृष्ठ ५६९ )
१ - विपाकसूत्र ( पी० एल० वैद्य-सम्पादित ), द्वितीय श्रुतस्कंध, अ०
पृष्ठ ८१
2.7
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भक्त राजे
नमि प्रत्येकबुद्धों वाला प्रकरण देखिए (पृष्ठ ५६४)
पुण्यपाल देखिए तीर्थकर महावीर भाग २ पृष्ठ २९७
प्रत्येकबुद्ध जैन ग्रन्थों में ४ प्रत्येकबुद्ध बताये गये हैं :-करकंडु, दुम्मुह, नमि और नग्गइ । प्रत्येकबुद्धों की गणना १५ प्रकार के सिद्धों में की गयी है। नन्दीसूत्र सटीक में ( सूत्र २१, पत्र १३०.१) आता है :--
से किं तं अणंतरसिद्धकेवलनाणं ? अणंतरसिद्ध केवलनाणं पण्णरसविहं पराणत्तं, तं जहा–तित्थसिद्धा (१) अतित्थ-- सिद्धा (२) तित्थयरसिद्धा (३) अतित्थयरसिद्धा (४) सयंवुद्ध सिद्धा (५) पत्तेयबुद्धसिद्धा (६) बुद्धबोहियसिद्धा (७) इथिलिंगसिद्धा (८) पुरिसलिंगसिद्धा (६) नपुंलगलिंगसिद्धा (१०), सलिंगसिद्धा (११), अन्नलिंगसिद्धा (१२) गिहिलिंगसिद्धा ( १३) एगसिद्धा (१४) अणेर सिद्धा (१५) सेतं अणंतरसिद्ध केवलनाणं
ऐसा ही नवतत्त्व-प्रकरण की ५५-वी गाथा में भी उल्लेख है। जिण, अजिण, तित्थऽतित्था, गिहिअन्नसलिंग थी नर नपुंसा । पत्तय सयंबुद्धा, बुद्ध बोहिय इक्कणिक्का य॥ ५५ ॥
-नवतत्त्वप्रकरण सुमंगाला टीका सहित, पत्र १६४-२ प्रत्येकबुद्धों के लिए कहा गया है.
"प्रत्येकबुद्धास्तु बाह्यप्रत्ययमपेक्ष्य बुध्यन्ते, प्रत्येक-बाह्य वृषभादिकं कारणमभिसमीक्ष्य बुद्धाः प्रत्येकबुद्धाः इति व्युत्पत्तेः, तथा च श्रयते-वाह्य वृषभादि प्रत्ययसापेक्षा करकंड्वादीनां
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५५६
तीर्थंकर महावीर
बोधिः बोधिप्रत्ययमपेक्ष्य च बुद्धाः सन्तो नियमतः प्रत्येकमेव विहरन्ति न गच्छ्वासिन इव संहता ।
- राजेन्द्राभिधान, भाग ७, पृष्ठ ८२८ ऐसा ही नवतत्त्व की सुमङ्गला टीका पत्र १६५-२ में भी है । विचारसारप्रकरण (मेहसाना, अनुवाद - सहित ) में पृष्ठ १५३ गा० ८४९ में भी ऐसा ही उल्लेख है ।
तत्त्वार्थाधिगम सूत्र ( भाष्य तथा टीका सहित, हीरालाल - सम्पादित, भाग २, पृष्ठ ३०४ ) में बारह बातों द्वारा सिद्धों की विशेष विचारणा की गयी है—
क्षेत्र-काल- गति लिङ्ग-तीर्थ चरित्र प्रत्येक बुद्ध बोधित-ज्ञानाऽवगाना - ऽन्तर- सख्या - ऽल्पबहुत्वतः साध्याः ॥ १०-७॥ इसमें प्रत्येकबुद्ध शब्द पर टीका करते हुए कहा गया है
तथा परः प्रत्येकबुद्ध सिद्धः प्रत्येकमेकमात्मानं प्रति केनचिन्निमित्तेन सज्जातजातिस्मरणाद् वल्कलचीरि प्रभृतयः करकरण्डवादयश्च प्रत्येकबुद्धाः
- पृष्ठ ३१०
ये प्रत्येकबुद्ध किसी बाहरी एक वस्तु को देखकर बुद्ध होते हैं ( कथा में प्रत्येक के बुद्धत्व प्राप्ति का विवरण दिया है ) वे साधु के समान विहार करते हैं; परन्तु गच्छ में नहीं रहते ।
आर्हत् दर्शनदीपिका ( मंगलविजय - लिखित, प्रो० हीरालाल कापड़ियासम्पादित तथा विवेचित, पृष्ठ ११५४ ) में प्रत्येकबुद्ध के सम्बन्ध में लिखा है
" संध्या समय के बादल जिस प्रकार रंग बदलते हैं, उसी प्रकार संसार में पौद्गलिक वस्तु क्षणभंगुर हैं, इस प्रकार विचार करके, अर्थात् किसी प्रकार वैराग्यजनक निमित्त प्राप्त करके, केवलज्ञान प्राप्त करके जो मोक्ष
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भक्त राजे
५५७
प्राप्त करे, उसे प्रत्येकबुद्ध कहते हैं— जैसे करकंडु मुनि ! इन जीवों की सिद्धिप्राप्ति में प्रस्तुत भव में गुरु के उपदेश की अपेक्षा नहीं होती, यह चात ध्यान में रखनी चाहिए ।"
और, उसकी पादटिप्पणि में लिखा है कि प्रत्येकबुद्ध और स्वयंबुद्ध में खासकर ( १ ) बोधि ( २ ) उपाधि ( ३ ) श्रुत और ( ४ ) वेष इन चार अपेक्षाओं की भिन्नता होती है ।
बौद्ध ग्रन्थों में प्रत्येक बुद्ध - बौद्धग्रन्थों में दो प्रकार के बुद्ध बताये गये हैं—- १ तथागतबुद्ध और २ प्रत्येकबुद्ध । पर, टीकाकारों ने चार प्रकार के बुद्ध गिनाये हैं—१ सबन्नुबुद्ध २ पच्चेकबुद्ध ३ चतुसच्च बुद्ध ४ सुतबुद्ध' और प्रत्येक बुद्धों के सम्बन्ध में कहा गया है :
" उन्हें स्वतः ज्ञान होता है पर वे जगत को उपदेश नहीं करते ......." - ( डिक्शनरी आव पाली प्रापर नेम्स, भाग २, पृष्ठ ६४ तथा २९४ )
और, बौद्ध ग्रन्थों में भी वे ही चार प्रत्येकबुद्ध बताये गये हैं, जिनका उल्लेख जैन-ग्रन्थों में है । ( जातक हिन्दी अनुवाद भाग ४, कुम्भकारजातक, पृष्ठ ३६ )
ये चारों प्रत्येकबुद्ध श्रावक थे और बाद में वाह्य निमित्त देखकर प्रत्येक बुद्ध हुए ।
इन चारों प्रत्येक बुद्धों का जीवनचरित्र उत्तराध्ययन ( नेमिचन्द्राचार्य की टीका सहित ) अध्ययन ९, पत्र १३३ - १ से १४५-२ तक में आती है ।
( १ )
कर कंडु
चम्पानगरी में दधिवाहन नामका राजा राज्य करता था । उनकी
१ - डिक्शनरी आव पाली प्रापर नेम्स, भाग २, पृष्ठ २६४
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५५८
तीर्थकर महावीर पत्नी का नाम पद्मावती था। वह वैशाली के महाराजा चेटक की पुत्री थीं। .
एक बार रानी गर्भवती हुई । उस समय गर्भ के प्रभाव से उन्हें यह दोहद हुआ कि, "मैं पुरुष वेश धारण करके हाथी पर चहूँ और राजा मेरे मस्तक पर छत्र लगाएँ। और, इस रीति से में आरामादिक में विचरूँ।” पर, लज्जावश रानी यह दोहद किसी से कह न सकी । अतः कृषकाय होने लगी । एक दिन राजा ने उनसे बड़े आग्रह से पूछा तो रानी ने अपने मन की बात कह दो ।
अतः राजा एक दिन रानी को हाथी पर बैठा कर उनके मस्तक पर छत्र लगा कर सेना आदि के साथ. नगर से बाहर निकल कर आराम में गये।
उस समय वर्षा ऋतु का प्रारम्भ था । छोटी-छोटी बूंदें पड़ रही थीं। अतः हाथी को विध्यक्षेत्र की अपनी जन्मभूमि का स्मरण हो आया और हाथी जंगल की ओर भागा। सैनिकों ने रोकने की चेष्टा की .. पर निष्फल रहे ।
हाथी जंगल की ओर चला जा रहा था कि, राजा को एक वटवृक्ष दिखायी दिया । राजा ने रानी से कहा-"देखो, यह सामने वटवृक्ष आ रहा है । जब हाथी वहाँ पहुँचे तो तुम उसे पकड़ लेना।" जब वृक्ष निकट आया तो राजा ने तो डाल पकड़ ली; पर रानी उसे पकड़ने में चूक गयौं । राजा ने जब वृक्ष पर रानी को नहीं देखा तो बहुत दुखी हुए।
स्वस्थमन होने पर, राजा तो चम्पा लौट आये पर हाथी रानी को एक निर्जन जंगल में ले जाकर स्वयं एक सरोवर में घुस गया। सरोवर में अवसर देखकर रानी किसी प्रकार हाथी से उतर गयीं और तैर कर किनारे आयीं।
उस जंगल की भयंकरता देखकर, रानी विलाप करने लगी। पर, . अपनी असहायावस्था जानकर हिम्मत बाँधकर एक ओर चल पड़ी। काफी दूर जाने पर उन्हें एक तापस मिला। रानी ने तापस को प्रणाम किया
जन्मभूमि का स्मरण हो आया
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भक्त राजे
और उसके पूछने पर अपना परिचय बता दिया । तापस ने रानी को आश्वासन देते हुए कहा-"मैं भी चेटक का सगोत्री हूँ। अतः चिन्ता करने की अब कोई बात नहीं है ।” उस तापस ने वन के फलों से रानी का स्वागत किया । और, कुछ दूर साथ जाकर गाँव दिखा कर बोला-"हे पुत्री हल चली भूमि पर मैं नहीं चल सकता। अतः तुम अकेले सीधे चली जाओ। आगे दन्तपुर' नामक नगर है। वहाँ दंतवक्र राजा है । उस पुरी से किसी के साथ चम्पा चली जाना।"
१-कुम्भकार-जातक ( जातक हिन्दी-अनुवाद, भाग ४, पेज ३७ ) में करकंडु को दन्तपुर का राजा बताया गया है। उक्त जातक में करकंहु का जीवन-चरित्र वस्तुतः नहीं के बराबर है । जैन-स्रोतों में करकंडु के जीवन का वर्णन बौद्ध-स्रोतों की अपेक्षा कहीं अधिक है । जैन-कथाओं से स्पष्ट है कि, करकंडु की माँ दंतपुर पहुँची थी, वहीं वह साध्वी हुई और वहीं करकंडु का जन्म हुआ। राजा तो वह बाद में कांचनपुर का हुआ।
बौद्ध स्रोतों से पता चलता है कि यह दंतपुर कलिंग की राजधानी थी (दीघनिकाय, महागोविंदसुत्त, हिन्दी-अनुवाद, पेज १४१)। उक्त सूत्र में दंतपुर के राजा का नाम सत्तभू लिखा है। वह रेणु का समकालीन था। गंगा इन्द्रवर्मन के जिर्जिगी -प्लेट में इसे अमरावती से भी अधिक सुंदर नगर बताया गया है।
( एपीग्राफिका इंडिका, जिल्द २५, भाग ६, अप्रैल १९४०, पेज २८५ )
महाभारत के उद्योगपर्व में [अ० ४७ ] में भी दंतपुर अथवा दंतकपुर नाम आता है।
इस नगर की पहचान विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न स्थलों से की हैं। कुछ राज. महेन्द्री को प्राचीन दंतकपुर बताते हैं। कुछ पुरी को प्राचीन काल का दंतपुर मानते हैं। मिलवेन लेवी ने इसकी पहचान टालेमी के पलौरा से की है। ( देखिए, 'प्रीएरियन ऐंड प्रीवेडियन इन इंडिया, पेज १६३-१७५ ), सुब्बाराय ने वंशधरा नदी के दक्षिणी तट पर चिकाकोल स्टेशन से ३ मील की दूरी पर स्थित एक किले के अवशेष को दंतपुर माना है ( हिस्टारिकल ज्यागरैफी श्राव ऐंशेंट इंडिया, पेज १४६ ।)
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तीर्थकर महावीर
पद्मावती रानी दंतपुर पहुँची । नगर में घूमते-घूमते उसने उपाश्रय में साध्वियों को देखा और उनके पास जाकर उसने वंदना की। साध्वियों ने रानी से परिचय पूछा । रानी ने उनसे अपना समस्त हाल कह दिया पर गर्भ की बात उनसे गुप्त रख ली।
रानी की कथा सुनकर साध्वियों ने उसे उपदेश दिया । उपदेश सुनकर रानी को वैराग्य हुआ और उसने दीक्षा लेली । जब रानी का गर्भ वृद्धि को प्राप्त हुआ तो साध्वियों ने पूछा--"यह क्या ?" अब रानी ने सारी बातें सच-सच कह दी। ___ गर्भ के दिन पूरे होने पर शैयातर के घर जाकर रानी ने प्रसव किया
और नवजात शिशु को रत्नकम्बल में लपेटकर पिता की नाममुद्रा के साथ स्मशान में छोड़ दिया । बच्चे की रक्षा के लिए रानी स्मशान में ही एक जगह छिप कर देखने लगी। इतने में स्मशान का मालिक चांडाल आया । वह निष्पुत्र था । उसके बच्चे को उठा लिया और उसकी पत्नी उसका पालन-पोषण करने लगी। छिप कर रानी ने उस चांडाल का घर देख लिया। रानी जब उपाश्रय में आयी तो साध्वियों ने पुनः उसके गर्भ की बात पूछी । रानी ने कहा--"मृत पुत्र हुआ था । उसे फेंक दिया ।"
पर, रानी पुत्रस्नेह के कारण अक्सर चांडाल के घर जाती और भिक्षा में मिली अच्छी वस्तु को उस बच्चे को दे देती।
जब वह बालक बड़ा हुआ तो वह अपने समान उम्र के बच्चों में राजा बनता । एक दिन वह स्मशान में था कि दो साधु चले जा रहे थे।
१-नेमिचन्द्र की टीका (पत्र १३४-१ ) में आता है कि, राजा बन कर वह समवयस्क लड़कों से कर माँगता। लड़के पूछते कर में क्या दें तो कहता मुझे खुजलाओ। ( ममं कंडुयह । ताहे से 'करकंडु' त्ति नामं कयं) इसी कारण बच्चे उमे करकंडु कहने लगे। ऐसा ही शान्त्याचार्य को टीका पत्र ३०१-२, भावविजय की टीका श्लोक ६५, पत्र २०५-१ आवश्यक हारिभद्रीय टीका पत्र ७१७२ तथा उपदेशप्रासाद, २४-३४६ में भी लिखा है।
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भक्त राजे
५६१ एक साधु ने एक बाँस दिखा कर कहा - " यह लकड़ी चार अंगुल बड़ी होने पर जो इसे धारण करेगा वहा राजा होगा ।"
एक ब्राह्मण का लड़का सुन रहा था । उसने वह बाँस जमीन के नीचे चार अंगुल तक खोदकर काट लिया । इस चांडाल के घर पले लड़के में और ब्राह्मण पुत्र में झगड़ा हो गया । दोनों न्यायाधीश के यहाँ गये 1 न्यायाधीश ने एक बाँस के लिए इतना बात बढ़ाने का कारण पूछा तो चांडाल के घर पले लड़के ने कहा - " जो यह बाँस को धारण करेगा, वह राजा होगा | यह लकड़ी मेरे स्मशान की है; अतः मुझे मिलनी चाहिए ।" न्यायाधीश ने लकड़ी उसे दिला दी और कहा - " अच्छा राज्य मिले तो इस ब्राह्मण को ध्यान में रखना उसे एक ही गाँव दे देना ।"
१- दंडों के लक्षण के सम्बंध में उत्तराध्ययन की नेमिचन्द्राचार्य की टीका में निम्नलिखित गाथाएँ दी हुई हैं:
•
एगपव्वं पसंसंति, दुपव्वा कलहकारिया | तिपव्वा लाभसंपन्ना, चउपव्वा मारणंतिया ॥ १ ॥
पंचपव्वा उ जालट्ठी, पंथे कहलनिवारिणी । छपव्वा य श्रार्यको सत्तपव्वा श्रारोगिया ॥ २ ॥ चउरंगुलपइट्ठाणा, श्रट्ठगुल समूसिया । सत्तपव्वा य जा लट्ठी, मत्तगय निवारिणी ॥ ३ ॥ श्रपव्वा श्रसंपत्ती, नवपव्वा जसकारिया | दसपव्वा उ जा लट्ठी, तहियं सव्वसंपया ॥ ४ ॥
का कीडक्खइया, चित्तलया पोल्लडा च दड्डा य । लट्ठी य उब्भसुक्का, वज्जेयव्वा पयरोणं ॥ ५ ॥ घणवद्धमाणापव्वा, निद्वावत्रेण एगवन्नाय । एमाइलक्खण जुआ, पसत्थालट्ठी मुणेयब्वा ॥ ६ ॥
३६
पत्र १३४-१
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तीर्थंकर महावीर
ब्राह्मण ने बाँस दे तो दिया पर; उसने पीछे उसे मार डालने का पड्यंत्र किया । चांडाल समाचार सुन कर अपनी पत्नी और बच्चे के साथ वहाँ से भाग निकला । और कांचनपुर चला गया । जिस दिन यह परिवार वहाँ पहुँचकर विश्राम कर रहा था, उसी दिन वहाँ का राजा मर गया था । उसे पुत्र नहीं था; अतः राजा चुनने के लिए घोड़ा छोड़ा गया था। घोड़े ने आकर चांडाल के घर पले लड़के की प्रदक्षिणा की और उसके निकट ही ठहर गया ।
अब यह करकंडु कांचनपुर का राजा हो गया, यह समाचार जान वह ब्राह्मण-पुत्र भी आया और उसने चम्पा में एक गाँव माँगा । करकंडु ने दधिवाहन के नाम एक ग्राम उस ब्राह्मण को दे देने के लिए पत्र लिखा ।
५६२
दधिवाहन इस पत्र को देखकर बड़ा क्रुद्ध हुआ । इसे अपना अपमान समझकर करकंडु ने चम्पा पर आक्रमण कर दिया ।
रानी पद्मावती ने पिता-पुत्र के बीच परिचय करा कर युद्ध बंद कराया । दधिवाहन ने इसे चम्पा का भी राज्य दे दिया और स्वयं साधु हो गया ।
इसी करकंडु ने कलिकुण्ड तीर्थ की स्थापना करायी ( विविध तीर्थकल्प, चम्पापुरीकल्प, पृष्ठ ६५ )
इस करकंडु को गौवों से बड़ा प्रेम था । एक दिन वह अपने गोकुल मैं गया था कि उसने एक अति सुंदर बछड़े को देखा । करकंडु इतना प्रसन्न हुआ कि उसने आज्ञा की । कि उस बछड़े को उसकी माँ का सब दूध पिलाया जाये |
वह बछड़ा कालान्तर में युवा हुआ और उसके भी कुछ वर्षों के बाद जब करकंडु ने गोकुल में उस बछड़े को लाने को कहा तो उसके सामने
१ - कांचनपुर कलिंग की राजधानी थी और २५ || आर्य देशों में इसकी गना थी । वसुदेग हिंडी ( पेज १११ ) में कुछ व्यापारियों का उल्लेख मिलता है जी रत्नादि लेकर लंकादीप से कांचनपुर आये थे ।
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भक्त राजे
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एक बूढ़ा बैल खड़ा कर दिया गया । इसे ही देखकर करकंडु को वैराग्य हुआ और वह प्रत्येकबुद्ध हो गया ।
( २ )
द्विमुख'
पांचाल देश में काम्पिल्य-नामक नगर में जय नामक राजा था। उनकी रानी का नाम गुणमाला था ।
एक दिन देश-देशान्तर से आये एक दूत से राजा ने पूछा - " ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो दूसरे राजाओं के पास है और मेरे पास नहीं है ।" इस प्रश्न को सुनकर दूत ने कहा - " महाराज आपके राज्य में चित्रशाला नहीं है । "
राजा ने चित्रकारों को बुला कर सुन्दर चित्र बनाने की आज्ञा दी ।
उस चित्रसभा बनाने के लिए पृथ्वी की खुदाई हो रही थी, तो पाँचवें दिन पृथ्वी में से एक रत्नमय देदीप्यमान मुकुट निकला | उस मुकुट में स्थान-स्थान पर पुतलियाँ लगी थीं ।
एक शुभ दिवस देखकर राजा ने सिंहासन पर बैठकर उस दिव्य मुकुट को धारण किया । उसे धारण करने से जय राजा द्विमुख दिखने लगे । अनुक्रम से द्विमुख राजा को सात पुत्र हुए। पर, उन्हें एक भी पुत्री नहीं थी । रानी ने मदन नामक यक्ष की मानता की । रानी को स्वप्न में पारिजात वृक्ष को मंजरी दिखलायी पड़ी । अतः जब रानी को पुत्री हुई तो रानी ने उस कन्या का नाम मदनमंजरी रखा । इस कन्या का विवाह
१ - बौद्ध ग्रन्थों में इस राजा का नाम दुर्मुख लिखा है । और वैराग्य का कारण भी भिन्न दिया है । ( देखिये कुम्भकार जातक )
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तीर्थकर महावीर बाद में चंडप्रद्योत से हुआ। हमने प्रद्योत के प्रसंग में मुकुट के लिए हुए युद्ध और कन्या के विवाह का विस्तृत विवरण दे दिया है । ___एक बार इन्द्र-महोत्सव आया । नगरवासियों ने इन्द्रध्वज की स्थापना की । वह इन्द्रध्वज, झंडियों, पुष्पों, घंटियों आदि से सज्जित किया गया । लोगों ने उसकी पूजा की। पूर्णिमा के दिन राजा भी उत्सव में सम्मिलित हुआ।
पूजा समाप्ति के बाद नगर-निवासियों ने उस ध्वज के आभूषण आदि तो निकाल लिए और काष्ठ को इसी प्रकार फेंक दिया । बच्चों ने मल-मूत्र से उस काष्ठ को अशुचि करना प्रारम्भ किया।
एक दिन राजा द्विमुख ने उस स्थिति में उस काष्ठ को देखा और उन्हें वैराग्य हो गया। अपने केशों का लोचकर वह प्रत्येकबुद्ध हो गये और मुनिवेश धारण करके पृथ्वी पर विचरण करने लगे।
नमि' मालव-देश में स्वर्ग को भी नीचा दिखाने वाला सुदर्शन-नामक नगर था । उस नगर में मणिरथ नामक राजा था। उस मणिरथ के भाई का नाम युगबाहु था । वही युगबाहु युवराज था । उस युगबाहु की पत्नी का नाम मदनरेखा था। वह मदनरेखा शीलव्रत धारण करने वाली थी। उसे चन्द्रयश-नामक एक पुत्र था ।
एक दिन मणिरथ ने मदनरेखा को देखा और कामपीड़ित हो गया । और, उसे अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए नाना भाँति के वस्त्राभूषण उसके पास दूति द्वारा भेजने लगा।
एक दिन एकान्त में मदन रेखा को देखकर मणिरथ ने कहा-'हे सुन्दरी ! यदि तुम मुझे पुरुष-रूप में स्वीकार करो तो मैं तुम्हें राज्य-लक्ष्मी
१-कुम्भकार जातक में इसका नमि न होकर निमि दिया गया है ।
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भक्त राजे
की स्वामिनी बनाऊँगा ।" इसे सुनकर मदनरेखा ने उसे समझाया"युवराज की पत्नी होने से मुझे राज्यलक्ष्मी तो स्वतः प्राप्त है। छोटे भाई की पत्नी होने से मैं आपके लिए पुत्री - तुल्य हूँ । उसकी कामना कोई नहीं करता । परस्त्री के साथ रमण करने की इच्छा मात्र दुःखदायक है | अतः हे महाराज आप इस इच्छा को त्याग दें । "
राजा को लगा कि हमारा भाई ही शत्रु-रूप में हो गया है । अतः उसके जीवित रहते मेरी दाल न गलेगी । कालान्तर में मदन रेखा गर्भवती हुई और एक दिन वह युगबाहु के साथ उपवन में गयी थी तथा रात्रि में कदलीगृह में रह गयी । भाई की हत्या का अच्छा अवसर जान कर वह कदलीगृह में गया। भाई को देखते ही युगबाहु ने उसे प्रणाम किया । राजा ने उससे कहा - " इस समय रात्रि में यहाँ रहना ठीक नहीं है ।" युगबाहु वापस चलने की तैयारी कर ही रहा था कि, मणिरथ ने खड्न से उसे मार दिया । मदनरेखा "अन्याय ! अन्याय !!" चिल्लाने लगी तो राजा बोला - " प्रमादवश हाथ से खङ्ग गिर पड़ा । भय की इसमें कोई बात नहीं है । युगबाहु का पुत्र वैद्य को ले आया । उपचार किया गया पर अधिक रक्त प्रवाह के कारण थोड़ी ही देर में युगबाहु चेष्टारहित हो गया ।
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मदन रेखा मणिरथ के कुत्सित विचारों से तो परिचित थी ही । अतः रात्रि में घर से निकल पड़ी और पूर्व दिशा की ओर चली । प्रातःकाल होते-होते वह एक गहन वन में जा पहुँची। उस भयंकर वन में चलते-चलते दोपहर में एक सरोवर के तट पर पहुँची । वहाँ मुँह-हाथ धोकर फल आदि खाकर एक कदलीगृह में साकार अनशन ( मर्यादित भोजन त्याग ) करके लेटी ।
वह इतनी थकी थी कि रात आ गयी पर उसकी नींद नहीं खुली । रात्रि होने पर उसकी नींद खुली तो बड़ी सतर्कता से जगती रही ।
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तीर्थकर महावीर मध्य रात्रि में उसके पेट का गर्भ चलायमान हुआ। पेट में बड़ी पीड़ा हुई और उसे एक पुत्र-रत्न पैदा हुआ। युगवाहु को नाम-मुद्रिका पहना कर और रत्नकम्बल में लपेट कर बच्चे को उस कदली में रखकर वह सरोवर में स्नान करने गयी। इतने में एक जलहस्ती ने उसे सूंड में पकड़ा और गेंद की तरह आकाश में उछाला ।
उस समय एक युवा विद्याधर आकाशमार्ग से नंदीश्वर द्वीप की ओर अपने साधु पिता की वंदना करने जा रहा था । उसने रानी को लोक लिया और उसे वैताव्य-पर्वत पर ले गया। वहाँ मदनरेखा अपने बच्चे के लिए रुदन करने लगी। उस विद्याधर ने भी मदनरेखा से विवाह का प्रस्ताव किया । मदनरेखा ने उससे अपने पुत्र के पास पहुँचा देने के लिए आग्रह किया तो उसने कहा-'तुम्हारे पुत्र को मिथिला का राजा पद्मरथ उठा ले गया। वह निष्पुत्र है; अतः उसने उस पुत्र को पालने के लिए अपनी पत्नी पुष्पमाला को दे दिया है।"
__ रानी मदनरेखा ने अपने पतिव्रत-धर्म की रक्षा के लिए उस विद्याधर से कहा-"पहले आप अपने पिता की वंदना कर लें; उसके बाद ही कुछ होगा।"
वह विद्याधर अपने पिता के पास गया तो उसके पिता ने उसे जो उपदेश दिया, उससे उस विद्याधर के ज्ञानचक्षु खुल गये और अपने प्रस्ताव के लिए मदनरेखा से वह क्षमायाचना करने लगा। कालान्तर में वह रानी मदनरेखा साध्वी हो गयी ।
मदनरेखा के पुत्र के प्रभाव से शत्रुराजा भी राजा पद्मरथ को नमन करने लगे। इससे प्रभावित होकर पद्मरथ ने उस पुत्र का नाम नमि
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भक्त राजे रखा। बचपन में पाँच धाइयों ने उस बालक की देखरेख को । आठ वर्षों की उम्र होने पर पद्मरथ ने उस बच्चे को कलाचार्य के पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा । युवा होने पर पद्मरथ ने इक्ष्वाकुवश के १००८ कन्याओं से उसका विवाह कर दिया। ___ उस नमि को गद्दी सौंपकर पद्मरथ ने दीक्षा ले ली और कालान्तर में मोक्षपद प्राप्त किया। ___उधर सुदर्शन-नामक नगर में घटना यह घटी कि, जिस रात्रि को मणिरथ राजा ने युगवाहु को मारा, उसी रात्रि में सर्प काटने से मणिरथ का देहांत हो गया और वह चौथे नरक में गया । मंत्रियों ने चंद्रयश को गद्दी पर बैठाया और दोनों भाइयों का अग्नि-संस्कार एक साथ ही किया । ____एक बार नमिराजा का श्वेत पट्टहस्ती उन्मत्त होकर विंध्याचल की ओर भागा। जब वह हाथी सुदर्शनपुर के पास से जा रहा था, राजा के कर्मचारियों ने इसकी सूचना राजा को दी। चंद्रयश ने बड़े परिश्रम से उस हाथी को नगर में प्रवेश कराया। ___अपने हाथी का समाचार पाकर नमि राजा ने हाथी माँगने के लिए चंद्रयश के पास दूत भेजा । पर चंद्रयश ने कहा-"जो बलवान होता है, वही रत्न धारण करता है । कोई रत्न को वापस नहीं करता।" समाचार सुनकर नमि राजा मुदर्शनपुर की ओर चला। सुदर्शनपुर का नगरद्वार बंद कर दिया गया और नमि की सेना ने सुदर्शनपुर घेर लिया। ___युद्ध का समाचार सुनकर साध्वी मदनरेखा ने जाकर नमि को समझाया कि तुम दोनों भाई परस्पर न लड़ो। नमि के न मानने पर वह चंद्रयश के पास गयी । चंद्रयश अपनी माँ को देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ ।
१-खीरधाईए, मज्जणधाईए, कीलावणधाईए, मंडणधाईए, अंकधाईए
-नायाधम्मकहानो पेज २१
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तीर्थकर महावीर माँ के कहने पर चंद्रयश स्वयं अपने छोटे भाई से मिलने गया और छोटे भाई नमि को गद्दी पर बैठाकर स्वयं उसने दीक्षा ले ली।
नमि अब दोनों राज्यों का पालन करने लगे। एक बार नमि को ज्वर हुआ। सभी चिकित्साएँ बेकार गयीं और वैद्यों ने रोग को असाध्य कह दिया। - केवल चंदन के रस से राजा को कुछ शांति मिलती। अतः उसकी शनियाँ चंदन घिसने लगी। चंदन घिसने से रानियों के कंकण से जो खटखट शब्द होता । उससे राजा को कष्ट होने लगा। यह जानकर रानियों ने एक छोड़कर अन्य कंकण उतार दिये । अब शब्द न होता सुनकर राजा को विचार हुआ कि शब्द तो सुनायी नहीं पड़ता । लगता है कि, प्रमादी रानियाँ चंदन घिस नहीं रही हैं। यह विचार जानकर मंत्री ने कहा--- "महाराज ! सबने कंकण उतार दिये हैं। केवल एक कंकण हाथ में होने से शब्द नहीं हो रहा है।"
अब राजा को विचार हुआ, बहुत समागम से दोष उत्पन्न होता है । अतः इस संसार का त्याग करके यदि अकेला रहना हो तो अति उत्तम । इस विचार से राजा ने निश्चय किया कि, यदि ज्वर समाप्त हो जाये तो मैं चरित्रग्रहण कर लूँ।" - विचार करते-करते राजा सो गया और राजा के पुण्य के प्रभाव से कार्तिक मास की पूर्णिमा की रात्रि को राजा का ६ महीने का ज्वर उतर गया ।
प्रातः होते-होते राजा ने स्वप्न देखा-"मैं मेरु-पर्वत के शिखर पर हूँ" इसी समय प्रातःकाल के बाजे आदि की ध्वनि से राजा की नींद खुल गयी।'
१-कुम्भकार-जातक में उसके प्रतिबोध की कथा भी भिन्न है। उसमें लिखा है एक सूनी दूकान से मांस का टुकड़ा लेकर एक चील उड़ी। गृद्ध आदि अन्य पक्षी उससे मांस छीनने के लिए, झपटे । उसने उसे छोड़ दिया। दूसरे ने ग्रहण किया, अब सब उस पर झपटे । यह देखकर नमि को विचार हुआ कि जो मांस का टुकड़ा ग्रहण करता है, उसे कष्ट होता है और जो उसका त्याग करता है, वही सुखी होता है। इसी प्रकार पाँच काम भोगों का परित्याग सुखद है।
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भक्त राजे .
५६६ राजा को स्वप्न में दिखे पर्वत के स्मरण से उन्हें जातिस्मरणशान हो गया और केश लोचकर वह साधु वेश में पृथ्वी पर विचरण करने लगे।
(४)
नग्गति' गांधार-देश में पुंड्रवर्द्धन नामक नगर था। उस नगर में सिंहरथनामक राजा राज्य करता था। एक बार उत्तरापथ के किसी राजा ने सिंहरथ को दो घोड़े भेंट किये । उनमें एक घोड़ा वक्र शिक्षा वाला था। राजा उस वक्र शिक्षा वाले घोड़े पर बैठा और उनका कुमार दूसरे घोड़े पर । इस प्रकार राजा सिंहरथ अपनी सेना के साथ नगर के बाहर क्रीड़ा करने निकला। - घोड़े की चाल तेज करने के लिए राजा ने उस घोड़े को जो चाबुक लगाया तो वह घोड़ा बेतहाशा भागा । घोड़े को रोकने के लिए राजा रास को जितना ही खींचता, घोड़ा उतनी ही तेजी से भागता । इस प्रकार 'भागता-भागता घोड़ा राजा को १२ योजन दूर एक जंगल में ले गया। रास खींचे-खींचे थक जाने से राजा ने घोड़े की रास ढीली कर दी । रास ढीली होते ही घोड़ा रुक गया । घोड़े के रुक जाने से राजा को यह ज्ञात हो गया कि, यह घोड़ा उल्टी शिक्षा वाला है।
राजा ने घोड़े को एक वृक्ष के नीचे बाँध दिया और फल आदि खाकर पेट भरा । उसके बाद रात बिताने की दृष्टि से, राजा पहाड़ के ऊपर चढ़ा । वहाँ उसने सात मंजिल ऊँचा एक महल देखा। राजा उस महल में
१-कुम्भकार-जातक में उसे तक्षशिला का राजा बताया गया है और नाग नग्गजी दिया है।
२-इस नगर के सम्बन्ध में हमने इस ग्रंथ के भाग १, पेज ५१-५२ पर विशेष विवार किया है।
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तीर्थकर महावीर प्रवेश कर गया । उसमें प्रवेश करते ही राजा ने एक अति सुन्दर कन्या देखी।
राजा को देखते ही वह कन्या उठकर खड़ी हो गयी और उसने राजा को उच्चासन दिया। एक दूसरे को देखते ही दोनों में प्रेम हो गया । वहाँ बैठने के बाद राजा ने उस सुन्दरी से उसका परिचय पूछा और उस एकान्तवन में वास करने का कारण जानना चाहा । पर, उस सुन्दरी ने उत्तर दिया--"पहले मेरे साथ विवाह कर लो। फिर मैं, आपको सभी बातें बताऊँगी। यह सुनकर राजा उस भवन में स्थित जिनालय में गया । उसके निकट ही एक मनोहर वेदिक थी। वहाँ जिन को प्रणाम करने के पश्चात् राजा ने उस युवती से गंधर्व-विवाह कर लिया।
रात्रि भर वहाँ रहने के पश्चात् , दूसरे दिन प्रातःकाल जिनेन्द्र की वंदना करके राजा उस भवन के सभामंडप में स्थित सिंहासन पर आसीन हुआ । रानी उनके निकट अर्धासन पर बैठी। और, फिर उसने कथा प्रारम्भ की
__"क्षितिप्रतिष्ठ-नामक नगर में जितशत्रु-नामका एक राजा था। एक बार उसने एक बड़ी भारी चित्रसभा बनवायी और नगर के चित्रकारों को बुलाकर सब को बराबर भाग बाँट कर, उस चित्रसभा को चित्रित करने का आदेश दिया। उन चित्रकारों में चित्रांगद नामक एक अति बूढ़ा चित्रकार था । उस बूढ़े चित्रकार को पुत्र नहीं था, अतः कोई उसके काम में सहायता करने वाला न था।
"उस बूढ़े चित्रकार को कनकमंजरी नामक एक कन्या थी। वह सदैव अपने पिता के लिए खाना उस चित्रसभा में लाती । एक दिन वह कन्या अपने पिता के लिए भोजन लेकर चित्रसभा की ओर जा रही थी कि, इतने में उसने देखा कि एक व्यक्ति भीड़ से भरे राजमार्ग पर घोड़ा दौड़ाते चला आ रहा था । कनकमंजरी डर गयी । किसी प्रकार वह अपने पिता के पास पहुंची, तो उसे देखकर उसका पिता बड़ा प्रसन्न हुआ । जब तक
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भक्त राजे
५७१
उसका पिता भोजन कर रहा था, तब तक बैठे-बैठे उस कनकमंजरी ने एक मयूरपिच्छ बना दिया । उस दिन सभागार देखने जब राजा आया तो मयूरपिच्छ देखकर वह उसे उठाने चला । पर, वहाँ तो चित्र था । आघात से उँगली का नख टूट गया ।
"
राजा फिर उस चित्र को देखने लगे । राजा को चित्र देखते देख कर विनोद से कनकमंजरी बोली - "अब तक तीन पाँवों वाली पलंग थी । आप जो चौथे मूर्ख मिल गये, तो अब पलंग चार पाँचों वाली हो गयी ।" यह सुनकर राजा बोला - " शेष तीन कौन हैं ? और मैं चौथा किस प्रकार हूँ ?" इसे सुनकर वह कन्या बोली - " मैं चित्रांगद नामक चित्रकार की पुत्री हूँ । सदा मैं अपने पिता के लिए भोजन लेकर आती हूँ । आज भोजन लेकर आते समय राजमार्ग में मैंने एक घुड़सवार देखा । वह पहला मूर्ख था; क्योंकि राजमार्ग में स्त्री - बालक-वृद्ध आदि आते-जाते रहते हैं । उस भीड़-भाड़ की जगह में वेग से घोड़ा चलाना कुछ बुद्धिमानी का काम नहीं है । इसलिए मूर्ख रूपी पलंग का वह पहला
पाया हुआ ।
" दूसरा मूर्ख इस नगर का राजा है, जिसने दूसरे की शक्ति और वेदना जाने बिना सभी चित्रकारों को समान भाग चित्र बनाने को दिया । घर में अन्य प्राणी होने से उनकी सहायता से दूसरे चित्रकार जल्दी-जल्दी काम कर सकने में समर्थ हैं; पर मेरे पिता तो पुत्र - रहित और दुःखी मन हैं। वे अकेले दूसरों के इतना काम कैसे कर सकते हैं ? इसलिए राजा मूर्खरूपी चौकी का दूसरा पाया है ।
"तीसरे मूर्ख मेरे पिता हैं । उनका उपार्जित धन खाते-खाते समात हो चुका है । जो बचा है, उससे ही किसी प्रकार मैं नित्य भोजन लाती हूँ । जब मैं लेकर आती हूँ, तो वह शौच जाते हैं । मेरे आने से पूर्व ही शौच नहीं हो आते; और जाते हैं तो जल्दी नहीं आते। इतने में भोजन
1
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५७२
तीर्थंकर महावीर ठंडा और नीरस हो जाता है। इसलिए मूर्ख-रूपी मंच के वह तीसरे पाये हैं।
"चौथे मूर्ख आप हैं। जब यहाँ मोर आने की कोई उम्मीद नहीं है, तो फिर मोरपंख यहाँ भला कैसे आयेगा ? और, यदि कोई मोरपंख यहाँ ले भी आया भी हो, तो हवा से उसे उड़ जाना चाहिए था ? इनकी जानकारी के बिना ही आप उसको लेने के लिए तैयार हो गये।"
राजा ने सोचा-"यह कन्या चतुर है तथा सुन्दर है। मैं इससे विवाह क्यों न कर लूँ ?” बाद में उस राजा ने उस कन्या से विवाह कर लिया ।
एक बार उस नगर में विमलचंद्र-नामक आचार्य पधारे। राजा कनकमंजरी-सहित उनकी वंदना करने गया और दोनों ने श्रावक-धर्म स्वीकार कर लिया ।
मर कर वह कनकमंजरी स्वर्ग गयी । वहाँ से च्यव कर वैताढ्य-पर्वत पर तोरणपुर-नामक नगर में दृढ़शक्ति राजा की पुत्री हुई। तब उसका नाम कनकमाला पड़ा।
और वह चित्रकार मरकर वाणमंतर-देवता हुआ।
कनकमाला ने उस देव से पूछा- "हे पिता ! इस भव में मेरा पति कौन होगा?” तो देव ने कहा-"पूर्व भव में जो जितशत्रु-नामक राजा था, वही इस भव में सिंहस्थ-नामक राजा होगा वह घोड़े पर यहाँ आयेगा।"
यह सब सुनकर सिंहरथ को भी जातिस्मरण ज्ञान हो गया।
अब राजा कुछ दिनों तक वहाँ रह गया। बाद में वह राजधानी में लौटा अवश्य; पर प्रायः पर्वत पर कनकमाला के यहाँ जाया करता । पर्वत ‘पर प्रायः रहने से ही उसका नाम नग्गति पड़ा ।'
१-तो कालेण जम्हा नगे अईइ तम्हा 'नग्गइ एस' त्ति पइठियं नामं लोएण राइणो
- उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका, पत्र १४४.२
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भक्त राजे
५७३ कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन राजा ससैन्य भ्रमण करने निकला। वहाँ नगर के बाहर एक आम्रवृक्ष देखा । राजा ने उसमें से एक मंजरी तोड़ ली। पीछे आते लोगों ने भी उस पेड़ में से मंजरी-पल्लव आदि तोड़े। लौट कर आते: हुए राजा ने देखा कि वह वृक्ष ढूँढ मात्र रह गया है।'
कारण जानने पर राजा को विचार हुआ—"अहो ! लक्ष्मी कितनी चपल है।" इस विचार से प्रतिबोध पाकर राजा प्रत्येकबुद्ध हो गया।
इस प्रकार चारों प्रत्येक बुद्ध (अपने-अपने पुत्रों को राजकाज सौंपकर) एक बार पृथ्वी पर विचरते हुए क्षितिप्रतिष्ठ-नामक नगर में आये । वहाँ चार द्वार वाला एक यक्ष चैत्य था। उस चैत्य में पूर्वाभिमुख एक यक्ष प्रतिना थी।
उस चैत्य में करकंडु पूर्व के द्वार से आये । उसके बाद द्विमुख दक्षिण द्वार से आये। उन्हें देखकर यक्ष के मन में विचार हुआ-"इस मुनि से पराङ्मुख रह सकना मेरे लिए सम्भव नहीं है।" यह विचार कर उसने दक्षिण ओर मुख कर लिया।
पीछे पश्चिम द्वार से नमि आये । उनका विचार कर यक्ष ने तीसरा मुख उनकी ओर कर लिया।
अंत में नग्गति उत्तर ओर के द्वार से आये और यक्ष ने एक मुख उधर भी कर लिया। इस प्रकार वह चतुर्मुख हो गया । ___ करकंड को बाल्यावस्था से खुजली होती थी। उन्होंने बाँस की शलाका लेकर कान खुजलाया और उस शलाका को ठीक से रख लिया। उसे देख कर द्विमुख बोले- "हे मुनि ! आपने राज्यादि सब का त्याग कर दिया फिर यह शलाका किसलिए अपने पास रखे हो ?"
१-कुम्भकार जातक में इसके प्रतिबोध का कारण कंकण की ध्वनि होना लिखा है।
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५७४
तीर्थंकर महावीर इसे सुनकर करकंडु कुछ नहीं बोले । इतने में नमि राजर्षि ने द्विमुख ने कहा- "जब आपने राज्यादि सघ का त्याग कर दिया और निर्गन्थ बने तो आप दूसरे का दोष क्यों देखते हैं ?" ___अब नग्गति बोले- "हे मुनि सर्व त्याग करके अब केवल मोक्ष के लिए उद्यम करो । अन्य की निन्दा करने में क्यों प्रवृत्त हैं ?" ___अंत में करकंडु ने कहा-"मोक्ष की आकांक्षा वाला मुनि यदि दूसरे मुनि की आदत का निवारण करे तो इसमें निन्दा किस प्रकार हुई ? जो क्रोध से अथवा ईर्ष्या से दूसरे का दोष कहे उसे निन्दा कहते हैं । ऐसी निंदा किसी मोक्षाभिलाषी को नहीं करनी चाहिए।" .. करकंडु की इस प्रकार की शिक्षा को शेष तीनों मुनियों ने स्वीकार कर लिया।
फिर ये चारो मुनि स्वेच्छा से विचरने लगे और कालान्तर में मोक्ष गये।
इन चारों प्रत्येकबुद्धों के जीवों ने पुष्पोत्तर-नामक विमान से एक साथ च्यव किया था। चारों ने पृथक-पृथक स्थानों में अवश्य चरित्र ग्रहण किया; पर चारों की दीक्षा एक ही समय में हुई और एक ही साथ सब मोक्ष गये ।
डाक्टर रायचौधरी की एक भूल डाक्टर हेमचन्द्र रायचौधरी ने 'पोलिटिकल हिस्ट्री आव ऐंशेंट इंडिया' ( पाँचवाँ संस्करण, पृष्ठ १४७ ) में इन प्रत्येकबुद्धों को पार्श्वनाथ की परम्परा का साधु मानकर उनका काल-निर्णय करने का प्रयास किया है । पर, ये तो चंडप्रद्योत के समकालीन थे, जो भगवान् का समकालीन राजा था । अतः उनका सम्बन्ध पार्श्वनाथ भगवान् से जोड़ना, वस्तुतः एक भूल है । उन्होंने दूसरी भूल यह कि, उन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया कि जैन ग्रंथों में भी उन्हें ही प्रत्येक बुद्ध बताया गया है ।
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भक्त राजे
प्रदेशी
केकयार्द्ध - जनपद की सेतव्या नामक राजधानी' में प्रदेशी' नाम का राजा राज्य करता था । इस सेतव्या के ईशान कोण में नन्दनवन के समान मृगवन नामक उद्यान था । सेतव्या का राजा प्रदेशी अधार्मिक, धर्म के अनुसार आचरण न करने वाला, अधर्म - पालक, अधर्म का प्रसार करने वाला था । उसके शील तथा आचार में धर्म का किंचित् मात्र स्थान नहीं था । वह राजा अपनी आजीविका अधर्म से ही चलाता था । वह प्रचंड क्रोधी था उसके हाथ सदा लोही रहता था ।
उसी समय में श्रावस्ती - नगर में जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। रायपसेणी में आता है :
५७५
१ - देखिए तीर्थंकर महावीर, भाग १, पेज ४४९४५ ।
इस राज्य का नाम केकयार्द्ध पढ़ने का कारण यह था कि यह मूल केकय-राज्य या उपनिवेश था। इस सम्बंध में हमने तीर्थंकर महावीर, भाग १ पेज १८६ तथा वीर विहार-मीमांसा ( हिन्दी ) पेज २३ में विशेष रूप से विचार किया है । और राजा का नाम 'पयेसी' [ प्रदेशी ] होने से भी हमारी मान्यता की पुष्टि होती है । २ - एसिकहा, रायपसेणी सटीक, पत्र २७३ - १ ।
३ - अधम्मिए अधम्मिट्टे श्रधम्मक्खाई धम्मा धम्मपलोई, अधम्मपजणणे, अधम्मसीलसमुयायारे, अधम्मेण चैव वित्ति कप्पेमाणे, 'हा' 'छिंद' 'भिंद' पवत्तए लोहियपाणी पावे चंडे रुद्दे खुद्द साहस्सीए उक्कंचण वंचण माया नियडि कूड कवड सायिसंपयोग बहुले निस्सीले निव्वए निग्गुणे निम्मेरे निप्पच्चक्खाणपोसहोव वासे बहूणं दुप्पयच उप्पयभिय पसुपक्खी सिरिसवाण घायाए वहाए उच्छायण्याए अधम्म केऊ समुट्ठिए, गुरुणं णो अब्भुट्ठेति णो विषयं पउ जइ, सयस्स विय णं जणवयस्सो सम्भं कर भरवित्तिपवतेइ |
- रायपसेणीय सटीक सानुवाद, पत्र २७६-१-२ ।
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तीर्थंकर महावीर
तत्थ णं सावत्थीए नयरीर पएसिस्स रनो अंतेवासी जियसत्त नामं राया होत्था ।
०.
५७६
रायपसेणी सटीक - - पत्र २७९-१ श्रावस्ती नगरी का राजा जितशत्रु प्रदेशी राजा का अंतेवासी राजा था । अंतेवासी' पर टीका करते हुए मलयगिरी ने लिखा है :समीपे वसतीत्येवंशीत्योऽन्तेवासी - शिष्यः । अन्तेवासी सम्यगाज्ञा विधायी इति भावः ॥
-राययसेणी सटीक, पत्र २७९-१ इस टीका से दो ध्वनियाँ निकलती हैं। एक की श्रावस्ती का राजा सेयविया का निकटवर्ती राजा था और दूसरा यह कि वह प्रदेशी का आज्ञा मानने वाला राजा था ।
पर, बौद्ध ग्रन्थों में इससे पूर्णतः विपरीत बात कही गयी है । दीर्घानि काय के पायासी राजञ्ञसुत्त ( दीघनिकाय मूल, भाग २, महावग्ग, पृष्ठ २३६ ) मैं आता है :
-
तेन खो पन समयेन पायासी राजञ्ञ सेतव्यं प्रभावसति सतुस्सद् सतिणकट्ठोदकं सध राजभोग्गं रज्ञा पसेदिना कोसलेन दिनं राज दायं ब्रह्मदेय्यं ।
- उस समय पायासी राजन्य (राजञ्ञ, मांडलिक राजा) जनाकीर्ण तृणकाष्ठ उदक धान्य सम्पन्न राज-भोग्य कोसलराज प्रसेनजित द्वारा दत्त, राज दाय, ब्रह्मदेय सेतव्या का स्वामी होकर रहता था ।
- दीघनिकाय ( राहुल - जगदीश काश्यप का अनुवाद) पृष्ठ १९९ । इसी आधार पर डिक्शनरी आव पाली प्रपार नेम्स, भाग २, पृष्ठ १८७ में पायासी को सेतव्या का 'चीफटेन' लिखा है ।
पर,
यह बौद्ध मान्यता जैन- मान्यता से बिलकुल मेल नहीं खाती और स्वयं बौद्ध - उद्धरण में परस्पर विरोधी बातें हैं । पायासो के लिए बौद्ध
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भक्त राजे 'राजन्य' शब्द का व्यवहार करते हैं। फिर अब हमें 'राजन्य' का अर्थ समझ लेना चाहिए :१-क्षत्रं तु क्षत्रियो राजा राजन्यो बहुसंभवः।
-अभिधानचिंतामणि सटीक, पृष्ठ ३४४ । २--मूर्धाभिषिक्तो राजन्यो बाहुजः क्षत्रियो विराट् । राशि राट्पार्थिवक्ष्माभन्नृपभूप मही क्षितः॥
-अमरकोष (खेमराज श्रीकृष्णदास ) पृष्ठ १४४ ।
जब राजन्य का अर्थ राजा हुआ तो फिर पायासी को 'चीफटेन' कहना पूर्णतः भूल है । 'राज होना' और 'आधीन होना' दोनों परस्पर विरोधी बातें हैं।
दूसरी बात यह कि वह पायासी क्षत्रिय था। फिर, वह ब्रह्मदेय क्यों · लेने लगा ?
बौद्ध-ग्रन्थों में श्रावस्ती के राजा का नाम प्रसेनजित आने से विमल चरण ला ने जैन-ग्रंथों में आये जितशशु और प्रसेनजित को एक मान लिया है।' पर, यह उनकी भूल है । जैन-ग्रन्थों में प्रसेनजित नाम भी आता है। ( उत्तराध्ययन, नेमिचंद्र की टीका, अष्टम अध्ययन, पत्र १२४-१।२ )। यदि प्रसेनजित और जितशजु एक ही व्यक्ति का नाम होता तो वैसा स्पष्ट उल्लेख मिलता । जब जितशत्रु और प्रसेनजित दो भिन्न नाम मिलते हैं, तो दोनों का एक में मिलाना किसी भी प्रकार उचित नहीं है।
बौद्ध-ग्रन्थों में इस जितशत्रु के सम्बन्ध में आता है कि, इसका लड़का विडूडभ इसके जीते ही गद्दी पर बैठ गया और प्रसेनजित कूणिक की
१-श्रावतीइन इडियन लिटरेचर [मेय यर्स आवद, आर्यालाजिकल समें आव इडिया संख्या ५० ] पेज ११
२ भद्दसाल-जातक हिन्दी-अनुवाद, भाग ४, पेज ३५३ । मज्मिमनिकाय [ हिन्दीअनुवाद ] पेज ६६७ की पाद-टिप्पणि डिक्शनरी आव पाली प्रापर नेम्स, भाग २ पेज १७२।
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तीर्थंकर महावीर
सहायता लेने राजगृह गया। पर, जब वह पहुँचा तो नगर का फाटक बंद था । वह बाहर एक शाला में पड़ा रहा और वहीं मर गया । ' प्रसेनजित के जीवन की इतनी महत्वपूर्ण घटना का कोई उल्लेख जितशत्रु के सम्बन्ध में नहीं मिलता । यदि दोनों एक होते तो इसका उल्लेख किसीन किसी रूप में अवश्य मिलता ।
एक अन्य स्थल पर ला महोदय ने वाराणसी, काम्पिल्य, पलासपुर, और आलभिया के जितशत्रु राजाओं को एक ही व्यक्ति मान लिया है और कहा है कि यह सब प्रसेनजित के आधीन राजे थे ।
ला ने यहाँ उवासगदसाओ का प्रमाण दिया है । पर, ला महोदय ने वह वर्णन ठीक से पढ़ा नहीं । उवासगदसाओ में उल्लेख ऐसा है कि उन नगरों में जब महावीर स्वामी गये तो वहाँ के राजे उनकी वंदना करने आये | यह सब एक ही व्यक्ति नहीं थे; बल्कि भिन्न-भिन्न थे । प्रसेनजित राजा था, वह अपना राज्य कार्य छोड़कर महावीर स्वामी के विहार में स्थल-स्थल पर क्यों घूमा करता । जैन ग्रन्थों में २५ || आर्य-देशों के उल्लेख आये हैं । उसमें वाराणसी, काम्पिल्य आदि स्वतंत्र राष्ट्र की राजधानियाँ बतायी गयी हैं । अतः सबको एक में मिलाना किसी प्रकार उचित नहीं है ।
उवासगदाओ के अनुवाद में हार्नेल ने जितशत्रु को विदेह की राजधानी मिथिला का उवासगदसाओ में उसे वनियागाम या वैशाली का दूसरी ओर महावीर के मामा चेटक को वैशाली
लिखा है " सूर्यप्रज्ञप्ति में राजा बताया गया है । यहाँ राजा बताया गया है । अथवा विदेह का राजा
१- त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ११, श्लोक ५०१ पत्र १५३-२ २ - श्रावस्ती इन इण्डियन लिटरेचर ( मेमायर्स आव द' आक्यलाजिकल सर्वे श्राव इण्डिया, संख्या ५० ) पेज 8 1
३ - उवासगदसाओ अंग्रेजी अनुवाद पेज ६ ।
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भक्त राजे
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होना लिखा है | अतः लगता है कि जितशत्रु और चेटक एक ही व्यक्ति थे ।"
वनियागाम और वैशाली को एक मान लेना हार्नेल की एक मूलभूत भूल है, जिसके कारण उन्हें कितनी ही जगहों पर भ्रम रहा । मैंने अपनी पुस्तक वैशाली (हिन्दी, द्वितीयावृत्ति, पृष्ठ ५२ ) और तीर्थङ्कर महावीर ( भाग १, पृष्ठ ९२ ) मैं इस प्रश्न पर विस्तृत विचार किया है । अतः यहाँ उनकी आवृत्ति नहीं करना चाहता !
बौद्ध-ग्रन्थों का यह उल्लेख कि, पायासी कोसल के राजा प्रसेनजित का आधीन राजा था, जैन - प्रमाणों से पूर्णतः खंडित हो जाता है ।
इस प्रदेशी राजा के पास चित्त-नामक एक सारथी था । वह चित्त प्रदेशी से ज्येष्ठ था और भाई के समान था । वह चित्त अर्थशास्त्र में, साम-दाम-दंड-भेद में कुशल और अनुभवी व्यक्ति था । उसमें औत्पात्तिकी, वैनयिकी, कर्मज और पारिणामिक' चारों प्रकार की बुद्धियाँ थीं । राजा प्रदेशी विभिन्न बातों में चित्त से परामर्श लिया करता था ।
एक बार प्रदेशी ने राजा को देने योग्य एक भेंट तैयार करायी और चित्त सारथी को बुला कर कहा - " कुणाल- देश के श्रावस्ती नगरी के जितशत्रु राजा को दे आओ ।"
चित्रा उस उपहार को लेकर श्रावस्ती गया । जितशत्रु ने उसका स्वागत किया और चित्त ने प्रदेशी का भेजा उपहार उसे दे दिया |
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- इन बुद्धियों की परिभाषा टीकाकार ने इस रूप में दी हैश्रौत्पाशिक्या अदृष्टाश्रु ताननुभूतविषयाकस्माद् भवन शीलवा वैनयिक्या -- विनयलभ्यशास्त्रार्थ संस्कारजन्यया कर्मजया - कृषि वाणिज्यादिकर्मभ्यः सप्रभावया पारिणमिक्या - प्रायोवयोविपाकजन्यया
-रायपसेणीयमुत्त सटीक, सूत्र १४५ पत्र २७७-१ ।
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तीर्थङ्कर महावीर
उसी समय पार्श्वनाथ की परम्परा के केशीकुमार ' अपने ५०० शिष्यों के साथ विहार करते श्रावस्ती नगरी में आये थे और श्रावस्ती के ईशान कोण में स्थित कोट्ठय ( कोष्ठक ) चैत्य में ठहरे थे । अपार जनसमूह उनके दर्शन को जा रहा था । उस समूह को देखकर चित्त को शंका हुई कि आज इस नगरी में इंद्रमह, स्कंदमह, मुकुंदमह, नागमह, भूतमह, यक्षमह, स्तूपमह, चैत्यमह, वृक्षमह, गिरिमह, गुफामह, कूपमह, नदीमह, सरोवर मह अथवा समुद्रमह' में कौनसा उत्सव है, जो इतना बड़ा जनसमूह एक ओर चला जा रहा है।
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चित्र - सारथी भी वहाँ गया । उसने केशी मुनि की प्रदक्षिणा करके उनकी वंदना की । केशी मुनि का उपदेश सुनकर चित्त ने पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत ( गृहिधर्मं ) स्वीकार किये और वह भ्रमणोपासक हो गया ।
कुछ दिन बाद जितशत्रु ने भी एक भेंट तैयार की और चित्त के ही हाथ वह भेंट प्रदेशी के पास भेजी ।
चित्त जत्र चलने लगा, वह पुनः केशी मुनि के पास गया और चित्त ने केशी मुनि को सेतव्या आने के लिए आमंत्रित किया । केशी मुनि ने अधार्मिक राजा के कारण पहले तो आने से इनकार किया; पर चित्त के अनुनय-विनय पर और समझाने पर वह सेतव्या 'आने को तैयार हो गये ।
सेतव्या आने के बाद चित्त ने मृगवन के रखवालों को भी केशी मुनि के आने की सूचना दे दी और आते ही स्वागत-सत्कार में किसी प्रकार की कमी न आने देने के लिए सचेत कर दिया ।
१ - यह केशीकुमार वही थे, जिनसे श्रावस्ती में गौतमस्वामी से वार्तालाप हुई थी । और बाद में वे भगवान् के तीर्थ में सम्मिलित हो गये [उत्तराध्ययन, अध्ययन २३, नेमिचंद्र का टीका सहित पत्र २८६-२-३०२-१ ।
२-- रायपतेणी सटीक, सूत्र १४५, पत्र २७७-१ ।
३ - रायपसेणी सटीक, सूत्र १५०, पत्र २६० ।
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भक्त राजे
५८१
कुछ समय बाद केशी मुनि ग्रामानुग्राम विहार करते हुए सेतव्या आये और मृगवन में ठहरे ।
उसी दिन कम्बोज से भेंट में आये घोड़ों को रथ में जोत कर चित्त प्रदेशी को घुमाने निकला । वह रथ इतनी दूर ले गया कि प्रदेशी थक गया । राजा के थक जाने पर चित्र वापस लौटा । लौटते हुए राजा मृगचन में विश्राम के लिए ठहर गया । राजा के कानों में केशी मुनि की आवाज पड़ो। उसे बड़ा बुरा लगा। पर, चित्त के कहने पर और केशी मुनि की बड़ी प्रशंसा करने पर, प्रदेशी भी केशी मुनि के पास गया । प्रदेशी और केशी मुनि में पहिले ज्ञान के सम्बन्ध में कुछ वार्ता हुई फिर प्रदेशी ने केशी कुमार से अपनी मूल शंका व्यक्त की और कहा- "श्रमणनिर्गन्थों की यह संज्ञा है, यह प्रतिज्ञा है, यह दृष्टि है, हेतु है, यह उपदेश है, यह संकल्प है, यह तुला है, प्रमाण है और यह समवसरण है कि जीव पृथक है और शरीर पृथक है; पर वे यह नहीं मानते कि जो जीव है, वही शरीर है ।" "
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यह रुचि है, यह यह मान है, यह
इस पर केशीकुमार ने कहा - "हे प्रदेशी ! मेरा विचार भी यही है कि जीव और शरीर पृथक-पृथक हैं। जो जीव है वही शरीर है, यह मेरा मत नहीं है । "
इसे सुनकर प्रदेशी बोला - " जीव और शरीर पृथक-पृथक हैं और 'जो जीव है वही शरीर है' ऐसा नहीं है, तो भंते मान लें- 'मेरे दादा अधार्मिक कार्यों के कारण मर कर नरक गये होंगे। उनका मैं पौत्र हूँ । मुझे वह बड़ा प्यार करते थे । अतः जीव और शरीर पृथकपृथक है तो मेरे दादा को आकर मुझ से कहना चाहिए कि- 'घोर पाप के कारण मैं नरक में गया । अत: तुम किंचित् मात्र पाप मत करना ।' यदि मेरे दादा आकर मुझसे ऐसा कहें तो मैं जीव और शरीर को भिन्न मान
१ - रायपसेणी सटीक १६६ पत्र सूत्र ३०६-३०७ ।
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५८२
तीर्थङ्कर महावीर सकता हूँ। नहीं तो मैं तो यह समझता हूँ कि शरीर के साथ जीव भी नष्ट हो गया ।"
इसे सुनकर केशी मुनि ने कहा-"यदि कोई कामी आपकी रानी के. साथ काम भोगता पकड़ा जाये तो क्या दंड दोगे ?
प्रदेशी ने उत्तर दिया-"हाथ-पाँव कटवा कर उसे प्राण दंड दूंगा।"
तो फिर केशी मुनि ने कहा-“यदि वह कहे कि 'दंड देने से पूर्व : जरा ठहर जाइए। मैं अपने सम्बन्धियों को जरा बताता आऊँ कि व्यभिचार का फल प्राणदंड है।' तो तुम क्या करोगे?''
"पर, वह तो मेरा अपराधी है, क्षणमात्र ढील दिये बिना, मैं उसे दंडित करूँगा।"-प्रदेशी ने कहा ।। ___ "ठीक इसी प्रकार तुम्हारा दादा नरक भोगने में परतंत्र हैं, स्वतंत्र नहीं है। इसीलिए वह तुमसे कुछ कहने नहीं आ सकता।"--केशीमुनि ने उत्तर दिया ।
इस प्रकार प्रदेशी के हर तर्क का उत्तर देकर केशीकुमार ने राजा को निरुत्तर कर दिया।
समस्त शंकाएं मिट जाने पर प्रदेशी राजा श्रमणोपासक हो गया ।'
श्रावक होने के बाद प्रदेशी ने अपने राज्य के सात हजार गाँवों को चार भागों में विभक्त कर दिया। एक भाग राज्य की व्यवस्था के लिए बलवाहन ( सेना के हाथी, घोड़ा रथ आदि ) को दे दिया, एक भाग कोष्ठागार के लिए रखा, एक भाग अंतःपुर की रक्षा और निर्वाह के लिए. रखा और चौथे भाग की आय से एक कूटागारशाला' बनवायी जहाँ १-तए णं पएसी राया समणोवासए अभिगए'...
-रायपरवेणी सटीक, सूत्र २०२, पत्र ३३२ २-कूटानि शिखराणि स्तू पिकास्तद्वन्त्य गाराणि-गेहानि-अथवा कूट-सत्त्वबन्धन स्थानं तद्वदगाराणि कूटागराणि
-~-ठाणांगसूत्र सटीक, पूर्वार्द्ध, पत्र २०५-१
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५८३
भक्त राजे श्रमण', ब्राह्मण भिक्षु प्रवासी आदि को भोजन दिया जाता। और, स्वयं शीलव्रत, गुणवत, विरमण, प्रत्याख्यान, पोषध, उपवास द्वारा जीवन व्यतीत करने लगा।
उसके बाद प्रदेशी का ध्यान राज्य कार्य और अंतःपुर की ओर कम रहने लगा।
उसे अन्यमनस्क देखकर उसकी रानी ने उसे विष देकर अपने पुत्र सूर्यकांत को गद्दी पर बैठाने का पडयंत्र किया ।
और, एक दिन रानी सूर्यकान्त ने उसे विष दे ही दिया । राजा को यह ज्ञान हो गया कि रानी ने विष दिया । पर, असह्य वेदना सहन करने के बावजूद राजा ने रानी पर किंचित् मात्र रोष नहीं किया ।
इस प्रकार अत्यंत शांत रूप में मृत्यु प्राप्त कर वह सौधर्मदेव लोक में सूर्याभदेव के रूप में उत्पन्न हुआ।
चण्डप्रद्योत भगवान महावीर के समय में उज्जैनी में चंडप्रद्योत नाम का राजा राज करता था। उसका मूल नाम प्रद्योत था, अत्यन्त क्रोधी स्वभाववाला होने से उसके नाम के पूर्व 'चंड' जोड़ कर उसका नाम लिया जाता था
१-श्रमण से यहाँ तात्पर्य जैन-साधु से नहीं है; क्योंकि जैन-साधु दानशाला में भिक्षा लेने ही नहीं जाते थे।
२-रायपसेगी सटीक, सूत्र २००, पत्र ३३२ । ३-रायपसेणी सटीक सूत्र २०४, पत्र ३३५ ।
प्रदेशी राजा और केशी मुनि का वृतांत उपदेशमाला सटीक पत्र २८४-२८४ तथा भरतेश्वर बाहुबलि वृति पूर्वाद्ध पत्र ६४-२-६७.१ में भी आता है।
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५८३
तीर्थंकर महावीर और बहुत बड़ो सेना का अधिपति होने से उसे महासेन भी कहा जाता था।
पुराणों में कथा आती है कि उसका पिता पुलिक ( अथवा पुणिक) अवंति-नरेश का अमात्य था। उसने अपने मालिक को मार कर अपने पुत्र को राजा बनाया । पुराणों के अनुसार वह अपने वंश का मूल पुरुष हुआ।
कथा-सरित्सागर में इससे भिन्न उसका वंश-वृक्ष दिया गया है । उसने महेन्द्रवर्म से उस वंश का प्रारम्भ बताया गया है। महेन्द्रवर्म के पुत्र का नाम जयसेन लिखा है और इसी जयसेन को प्रद्योत का पिता बताया है ।
मल्लिषेण ने अपने ग्रन्थ नागकुमारचरित्र में उज्जयिनी के राजा का नाम जयसेन उसकी रानी का नाम जयश्री और उसकी पुत्री का नाम मेनकी लिखा है। यह जयसेन कथासरित्सागर वाले जयसेन से भिन्न है या वही, यह नहीं कहा जा सकता।
दुल्व (तिब्बती-विनयपिटक ) में प्रद्योत के पिता का नाम अनन्तनेमि लिखा है।
तिब्बत की बौद्ध-अनुश्रुति में यह बताया गया है कि, जिस दिन उसका जन्म हुआ, उसी दिन बुद्ध का भी जन्म हुआ था। उसका नाम प्रद्योत
१-उज्जैनी इन ऐशेंट इंडिया पेज १३। भगवतीसूत्र सटीक शतक १३, उ० ६, पत्र ११३५ में उद्रायण के साथ जो महासेण का नाम आया है, वह चंडप्रद्योत के लिए है । इस महासेण का उल्लेख उद्धराध्ययन नेमिचन्द्र सूरि की टीका सहित पत्र २५२-१ में भी है।
२-कथासरित्सागर १२॥१६६ । ३-राकहिल लिखित लाइफ आव बुद्ध, पेज १७ ।
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भक्त राजे
५८५ पड़ने का कारण यह था कि, उसके जन्म लेते ही संसार में दीपक के समान प्रकाश हो गया था।' इस अनुश्रुति का यह मत है कि प्रद्योत उसी समय राज सिंहासन पर बैठा जब गौतम ने बुद्धत्व प्राप्त किया था ।
कथा-सरित्सागर में उसका नाम 'चंड' पड़ने का यह कारण दिया है कि महासेन ने चंडी की आराधना करके अजेय खड्ग और 'चंड' नाम प्रात किया था। इस कारण वह महाचंड कहलाने लगा।
बुद्धघोष ने प्रद्योत के जन्म के विषय में लिखा है कि वह एक ऋषि के नियोग से पैदा हुआ था।
पुराणों में प्रद्योत के लिए, 'नयवर्जित' शब्द का भी उल्लेख मिलता है और धम्मपद की टीका में लिखा है कि वह किसी भी सिद्धान्त का पालन करने वाला नहीं था। तथा कर्मफल पर विश्वास नहीं करता था। त्रिपष्टिशलाका पुरुष चरित्र पर्व १०, सर्ग ८ श्लोक १५० तथा १६८ में उसके लिए स्त्रीलोलुप, प्रचंड और स्त्री-लम्पट शब्द का प्रयोग किया जाता है।
उदेनवत्थु में चंडप्रद्योत की चर्चा करते हुए आता है कि, वह सूर्य की किरणों के समान शक्तिशाली था।
१-राकहिल लिखित लाइफ आव बुद्ध, पेज १७ ।। २-राक हल-लिखित लाइफ व बुद्ध पेज ३२ को पादटिप्पणि १ । ३-वही। तथा उज्जयिनी इन ऐं शेंट इं डया-विमल चरण-लिखित, पेज १३ । ४-समन्त पासादिका, भाग १, पेज २१४ । उज्जयिनी इन ऐंशेंट इण्डिया, पेज १४ । डिक्शनरी प्राव पाली प्रापर नेम्स, भाग १, पेज ८३६ ।
५-उज्जैनी इन ऐंशेंट इंडिया ला-लिखित पेज १३, मध्यभारत का इतिहास, प्रथम भाग, पेज १७५-२७६ ।
६-उज्जयिनी इन ऐंशेंट इंडिया, पेज १३ ।
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तीर्थंकर महावीर
चंद्रप्रद्योत के सम्बन्ध में जैन ग्रंथों में आता है कि उसके पास चार रत्न थे - १ लोहजंघ- नामक लेखवाहक, २ अग्निभीरु नामक रथ, ३ अनलगिरि नामक हस्ति और ४ शिवा नामक देवी । "
५८६
पाली- ग्रंथ 'उदेनवत्थु ' में प्रद्योत के एक द्रुतगामी रथ का वर्णन मिलता है । भद्रावति ( भदवतिका ) नामक हथिनी, कक्का ( पाली 'काका' ) नामक दास, दो घोड़ियाँ चेलकंठी तथा मंजुकेशी एवं नालागिरी नामक हाथी ये पाँचों उस रथ को खींचते थे । *
यह शिवा देवी वैशाली के राजा चेटक की पुत्री थी । आवश्यकचूर्णी में जहाँ चेटक की सात पुत्रियों का उल्लेख आता है, उसी स्थल पर शिवा देवी का भी उल्लेख है ।
's
चंडप्रद्योत की ८ अन्य रानियों के उल्लेख जैन ग्रंथों में मिलते हैं । वे सभी कौशाम्बी की रानी मृगावती के साथ साध्वी हो गयी थी । उनमें एक का नाम अंगारवती था। यह अंगारवती सुंसुमारपुर के राजा धुंधुमार की पुत्री थी । इस अंगारवती को प्राप्त करने के लिए प्रद्योत ने मुंसुमारपुर पर घेरा डाला था। इस अंगारवती के सम्बंध में यह भी
१ -- आवश्यकचूर्णि, भाग २, पत्र १६० पत्र ६७३-१; त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्रपर्व १०,
आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति सर्ग ११, श्लोक १७३
पत्र १४२-२
२ - धम्मपद टीका; उज्जयिनी - दर्शन, पृष्ठ १२; उज्जयिनी इन ऐंसेंट इण्डिया, पृष्ठ १५
३ - आवश्यकचूर्णि, उत्तरार्द्ध, पत्र १६४
४ – देखिए तीर्थंकर महावीर, भाग २, पृष्ठ ६७
५ - वर्तमान चुनार, जिला मिरजापुर
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भक्त राजे
५८७ आता है कि वह पक्की श्राविका थी।' कथासरित्सागर में अंगारवती को अंगारक-नामक दैत्य की पुत्री बताया गया है।
इसकी एक रानी का नाम मदनमंजरी था । वह दुम्मुह प्रत्येकबुद्ध की लड़की थी। इस विवाह का विवरण दुम्मुह के प्रसंग में सविस्तार दिया गया है।
भास ने प्रद्योत के दो पुत्रों का उल्लेख किया है.--गोपालक और पालक । और उसमें उसकी एक पुत्री का उल्लेख भी है-उसका नाम वासुदत्ता दिया है । हर्षचरित्र में उसके एक और पुत्र का उल्लेख आता है और उसका नाम कुमारसेन बताया गया है। बौद्ध-परम्परा की कथा है कि यह गोपालक की माँ एक श्रेष्ठि की पुत्री थी। उसके रूप पर मुग्ध होकर प्रद्योत ने उससे विवाह कर लिया था।
जैन ग्रंथों में खंडकम्म को प्रद्योत का एक मंत्री बताया गया है। कुछ ग्रंथों में उसके मंत्री का नाम भरत दिया गया है।
यह प्रद्योत बड़ा दम्भी राजा था । अपने निकटवर्ती प्रदेशों पर विजय प्राप्त करने बाद वह दूर-दूर तक के राजाओं से आजीवन लड़ता ही रहा ।
१-आवश्यकचूर्णि, भाग २, पत्र १९९
२-मध्यभारत का इतिहास ( हरिहरनिवास द्विवेदी-लिखित) प्रथम खंड, पृष्ठ १७५
३-जैन-ग्रंथों में भी वासवदत्ता के नाम का उल्लेख है और उसे अंगारवती का पुत्री बताया गया है। आवश्यकचूर्णि, उत्तराई पत्र १६१
आवश्यक-नियुक्ति-दीपिका, भाग २, पत्र ११०-१ गाथा १२८२ में गोपाल और पालक का उल्लेख आया है और उन्हें प्रद्योत का पुत्र बताया गया है।
४-उजयिनी इन ऐंशेंट इण्डिया, ला-लिखित, पृष्ठ १४ । मध्यभारत का इतिहास द्विवेदी-लिखित, भाग १, पृष्ठ १७५ ।
५-लाइफ इन ऐशेंट इंडिया, पृष्ठ ३९४ ६.-उज्जयिनी-दर्शन, ( मध्य भारत सरकार ) पृष्ठ १२
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तीर्थकर महावीर
चंड प्रद्योत और राजगृह एक बार इसने अपने आधीन १४ राजाओं के साथ राजगृह पर आक्रमण कर दिया। उस समय राजगृह में श्रेणिक-नामका राजा राज्य करता था और श्रेणिक का पुत्र अभयकुमार श्रेणिक का प्रधानमंत्री था । अभयकुमार ने बड़ी बुद्धि से उस युद्ध को टाल दिया और बिला लड़े ही प्रद्योत अपनी राजधानी उज्जैन भाग गया । ___ कथा है कि, अभयकुमार ने शत्रु के वास करने योग्य भूमि में स्वर्ण के सिक्के गड़वा दिये और जब प्रद्योत ने राजगृह-नगर घेर लिया तो अभयकुमार ने प्रद्योत को एक पत्र भेजा
"शिवादेवी और चिल्लणा के बीच मैं किंचित् मात्र भेद नहीं रखता हूँ। इसलिए शिवादेवी के सम्बन्ध के कारण आप भी मेरे पूज्य हैं। इसी दृष्टि से, हे उज्जयिनी नरेश, आपके एकान्त हित की दृष्टि से आपको सूचित करना चाहता हूँ कि आपकी सेना के समस्त राजाओं को श्रेणिक ने फोड़ लिया है । और, आपको अपने आधीन करने के लिए श्रेणिक ने उनके पास स्वर्ण मुद्राएँ भेजी हैं। अतः वे राजा आपको बाँध करके मेरे पिता के अधीन कर देने वाले हैं । बात पर विश्वास करने के लिए आप लोगों के वासगृह के नीचे सोने की मुद्राएँ गड़ी हैं, उसे खुदवाकर देख लीजिये ।"
इस पत्र को पढ़कर प्रद्योत ने वहाँ खुदाया और उसे स्वर्णमुद्राएँ सचमुच गड़ी मिली । बात सच देख कर प्रद्योत राजा ने वहाँ से पड़ाव उठा कर एकदम उज्जैन की ओर कूच कर दिया ।'
उज्जयिनी लौट आने के बाद प्रद्योत को इस बात का भास हुआ कि अभयकुमार ने छल से उसे भगा दिया ।
१-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ११, श्लोक १२४१३० पत्र १४०-२
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भक्त राजे
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अतः एक दिन राजसभा में उसने घोषित किया कि जो कोई अभयकुमार को बाँध कर मेरे समक्ष उपस्थित करेगा, उसे मैं प्रसन्न कर दूँगा | यह घोषणा सुनकर सभा में उपस्थित एक गणिका ने हाथ ऊँचा किया और बोली --
" इस काम को कहा - " इस काम होगी मैं दूँगा । "
उस गणिका ने पकड़ा नहीं जा सकता; सकता है । यह विचार की माँग की ।
ये तीनों स्त्रियाँ राजगृह गर्यो और नगर से बाहर एक उद्यान में ठहरीं | नगर के अन्दर के चैत्यों का दर्शन करने के लिए वे नगर में गय और बड़ी भक्ति से चैत्यों में पूजा करके मालकोश आदि राग से प्रभु की स्तुति करने लगीं । उस समय अभयकुमार भी वहाँ दर्शन करने आया था । उन कपट-श्राविकाओं की पूजा समाप्त होने के बाद अभयकुमार ने उनसे उनके बारे में पूछताछ की। एक औरत ने अभयकुमार से कहा"उज्जयिनी नगरी की एक धनाढ्य व्यापारी की मैं विधवा हूँ । ये दोनों साथ की औरतें मेरी पुत्रवधु हैं ।" अभयकुमार ने उन्हें राजमहल में भोजन के लिए आमंत्रित किया । इस पर उन कपट-श्राविकाओं ने कहा"आज हम लोगों का तीर्थोपवास है । अतः हम लोग आपके अतिथि किस प्रकार हो सकते हैं ।" इस पर अभय ने दूसरे दिन प्रातःकाल उन्हें बुलाया उसके बाद अभयकुमार जब एक बार उन कपट-: -श्राविकाओं के घर गया तो उन कपटश्राविकाओं ने चन्द्रहास- सुरा मिश्रित जल पिला कर अभवकुमार को बेहोश कर दिया और मूर्छावस्था में बाँध कर उसे लेकर उज्जयिनी चली आयीं ।
करने में मैं समर्थ हूँ ।" इसे सुनकर प्रद्योत ने को तुम करो । तुम्हें जिस प्रकार धन की आवश्यकता
विचार किया कि अभयकुमार किसी अर्थ - रूप से तो केवल धर्म का छल करने से मेरा काम सध करके उस गणिका ने राजा से दो युवती नारियों
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तीर्थंकर महावीर
उज्जयिनी में प्रद्योत ने अभयकुमार को राजहंस के समान काष्ठ के पिंजरे में रखा |
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प्रद्योत के यहाँ रहकर भी अभयकुमार ने अपनी कुशाग्रबुद्धि और दूरदर्शिता प्रदर्शित की। प्रद्योत प्रायः अपने लोहजंघ- नामक दूत को भृगुकच्छ भेजा करता था । उज्जयिनी से भृगुकच्छ २५ योजन दूर था । लोहजंत्र इस दूरी को एक दिन में तय कर लेता था । 2 उसके बार-बार आने-जाने से वहाँ के लोगों को कष्ट होता । अतः वहाँ के लोगों ने विचार किया कि उसे मार ही डालना चाहिए । इस विचार से उन लोगों ने उसे पाथेय में विष मिश्रित लड्डू दे दिये । उन्हें लेकर वह लोहजंघ उज्जयिनी की ओर चला । काफी रास्ता पार करने के बाद वह एक नदी किनारे भोजन करने बैठा । उस समय अपशकुन हुआ । उसने खाना नहीं खाया और कुछ दूर चलकर फिर खाने बैठा तो फिर अपशकुन हुआ । इस प्रकार बिला खाये ही लोहजंघ अवन्ति आ गया । अवन्ति आकर उसने चंडप्रद्योत से सारी बात कही । चंडप्रद्योत ने अभयकुमार को बुलाकर पूछा । अभयकुमार ने राजा को बताया कि इसमें द्रव्यसंयोग से दृष्टिविष सर्व उत्पन्न हो गया है । यदि लोहजंघ इसे खोलता तो वह भस्म हो जाता। पाटेली जंगल में रखवाकर खोलवायी गयी । उसके प्रभाव से एक वृक्ष ही भस्म हो गया ।
१ – त्रिपष्ठिशलाका पुरुष चरित्र पर्व १०, सर्ग ११, श्लोक १७२
पत्र १४२-१
यह पूरी कथा आवश्यकचूर्णि उत्तरार्द्ध, पत्र १५९-१६० पर भी आती है ।
२. – आवश्यकचूर्णि, उत्तरार्द्ध, पत्र १६०
३ – त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, पर्व १०, सर्ग ११, श्लोक १७३१८३, पत्र १७२
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भक्त राजे
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इसी प्रकार उज्जयिनी-नगरी में एक बार बड़ी आग लगी । प्रद्योत ने उसकी शांति का उपाय अभयकुमार से पूछा । अभय को बतायी विधि से अग्नि शान्त हो गयी । इससे भी प्रद्योत बड़ा प्रसन्न हुआ।'
एक समय उजयिनी में महामारी फैली । राजा ने उसके लिए भी अभयकुमार से उपाय पूछा। अभयकुमार ने कहा--"आपकी सभी रानियों में जो रानी आपको दृष्टि से जीत ले मुझे उसका नाम बताइए।" राजा ने शिवादेवी का नाम बताया तो अभयकुमार ने सलाह दी कि शिवादेवी चावल का बलिदान देकर भूत की पूजा करें। शिवादेवी ने तद्रूप भूतों की पूजा की। इससे महामारी शान्त हो गयी।
अभयकुमार के बुद्धि-कौशल से प्रसन्न होकर प्रद्योत ने अभयकुमार को मुक्त कर के राजगृह के लिए विदा कर दिया । चलते समय अभयकुमार ने प्रतिज्ञा की कि राजा प्रद्योत ने मुझे छल से पकड़वाया था; पर मैं उसको दिन दहाड़े नगर में "मैं राजा हूँ" यह चिल्लाता हुआ हर ले जाऊँगा।"
कुछ समय के बाद अभयकुमार एक गणिका की दो पुत्रियों के साथ बणिक का रूप धारण करके उज्जयिनी आया और राजमार्ग पर उसने एक मकान भाड़े पर ले लिया। उधर से जाते हुए एक बार राजा ने उन कन्याओं को देखा और लड़कियों ने भी विलास-पूर्वक प्रद्योत राजा को
१-आवश्यकचूर्णि उत्तरार्द्ध, पत्र १६२।
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ११, श्लोक २६६ पत्र १४.२।
२-आवश्यकचूर्ण, उत्तरार्द्ध, पत्र १६२।
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र पर्व १०, सर्ग ११, श्लोक २६९ . पत्र १४५.२ । ३-आवश्यकचूर्णि उत्तरार्द्ध पत्र १६३ ।।
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र पर्व १०, सर्ग ११, श्लोक २७७ पत्र १४५.२।
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तोर्थंकर महावीर देखा । दूसरे दिन प्रद्योत ने उनके पास एक दूती भेजा। दूती ने आकर बड़ी विनती की पर उन लड़कियों ने रोष पूर्वक उमें तिरस्कृत कर दिया। इस प्रकार दो दिनों तक वे लड़कियाँ दूती को तिरस्कृत करती रहीं। तीसरे दिन उन लड़कियों ने कहा-"यह हमारा सदाचारी भ्राता हमारी रक्षा करता है । पर, आज से सातवें दिन वह बाहर जाने वाला है । अतः उस दिन राजा गुप्त रूप से आ सकता है ।”
इधर अभयकुमार ने एक आदमी को ठीक करके उसका नाम प्रद्योत विख्यात कर दिया । और, लोगों से बताया कि यह हमारा भाई पागल हो गया है। उसे बाँधकर अभयकुमार नित्य वैद्य के पास ले जाता। वह रास्ते भर चिल्लाता जाता--"मैं प्रद्योत हूँ। यह हमें बाँध कर लिये जा रहा है।"
इस प्रकार करते-करते सातवाँ दिन आया। प्रद्योत उस दिन गणिकाकन्याओं के पास आया । अभयकुमार के चरों ने उसे बाँध लिया। और शहर के बीच से उसे उसी प्रकार ले आये, जैसे रोज नकली प्रद्योत को ले जाते थे । नगर से एक कोस बाहर निकलकर अभयकुमार ने प्रद्योत को रथ में डाल दिया. राजगृह ले आया और उसे श्रेणिक राजा के पास ले गया । श्रेणिक उसे देखते ही खङ्ग खींच कर मारने दौड़ा। पर अभयकुमार ने श्रेणिक को मना किया और वस्त्राभूषण से साम्मानित करके प्रद्योत को वहाँ से विदा कर दिया।'
चंड प्रद्योत और वत्स चंडप्रद्योत के समय में वत्स की राजधानी कोशाम्बी में शतानीक राजा राज्य करता था। लक्ष्मी-गर्वित होकर एक दिन राज-सभा में बैठा
१-आवश्यकचूर्णि, उत्तरार्द्ध, पत्र १६३ ।
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र पर्व १०, सर्ग ११, श्लोक, २९३ त्रत्र १४६-१।
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भक्त राजे
५६३ शतानीक ने अपने देश-विदेश में आने जाने वाले दूत से पूछा--"हे दूत ! ऐसी क्या वस्तु है, जो दूसरे राजाओं के पास है और मेरे पास नहीं है ।" उस दूत ने उत्तर दिया-“हे राजन् ! आपके पास चित्रसभा नहीं है।"
यह सुनकर, राजा ने चित्रसभा तैयार करने की आज्ञा दी । बहुत से चित्रकार एकत्र किये गये और चित्र बनाने के लिए सब ने समथल भूमि बाँट ली। उनमें एक युधक चित्रकार को अंतःपुर के निकट का भाग मिला । वहाँ रहकर चित्र बनाते समय जाली के अंदर से मृगावती देवी के पैर के अंगूठे का भाग देखने का उसे अवसर मिला । यही मृगावती हैं, यह अनुमान करके चित्रकार ने यक्ष के प्रसाद से मृगावती का रूप यथार्थ रूप से अंकित कर दिया । पीछे उसका नेत्र बनाते हुए स्याही की एक बूंद चित्र में जंघा पर पड़ गयी। चित्रकार ने उसे तत्काल पोछ दिया । फिर दूसरी बार भी स्याही की बूंद गिरी उसने उसे भी पोंछ दिया। फिर तीसरी बार बूंद गिरी । तीसरी बार बूंद गिरने पर चित्रकार को विचार हुआ कि, अवश्य इस नारी के उरु-प्रदेश में लांछन है। तो यह स्याही की बूंद है तो रहने दें । मैं इसे नहीं पोंदूंगा ।
उसके बाद उस चित्रकार ने पूर्णतः यथार्थ चित्र बना दिया । एक दिन उसकी चित्रकारिता देखने के लिए राजा वहाँ आया। अनुक्रम से देखता-देखता राजा ने मृगावती का स्वरूप भी देखा और फिर जंधे पर लांछन देखकर उसे विचार हुआ कि, अवश्य इसने मेरी पत्नी को भ्रष्ट किया है नहीं तो वस्त्र के अन्दर के इस लांछन को इसने कैसे देखा । - क्रुद्ध होकर राजा ने उसे रक्षकों के सुपुर्द कर दिया। उस समय समस्त चित्रकारों ने राजा से कहा-“हे स्वामी यह चित्रकार यदि किसी का एक अंग देख ले तो यक्ष के प्रभाव से वह उस व्यक्ति का यथावत चित्र बना देने में समर्थ है । इसमें इसका किंचित् मात्र अपराध नहीं है। उसकी परीक्षा लेने के लिए राजा ने एक कुबड़ी दासी का मुख मात्र
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५६४
तीर्थकर महावीर उसे दिखा दिया । मुख देखकर उस चतुर चित्रकार ने उस दासी का सम्पूर्ण रूप यथार्थ उतार दिया । उसे देखकर राजा आश्वस्त हो गया। पर, ईर्ष्या वश उसने उसके दाहिने हाथ का अँगूठा कटवा दिया ।
राजा के इस दुर्व्यवहार से चित्रकार को भी क्रोध आया। और, उसने बदला लेने का निश्चय कर लिया । ____ इस विचार से उसने अनेक आभूषणों सहित मृगावती देवी का एक चित्र अंकित किया। और, उसे लेजाकर प्रद्योत को दिखाया। चित्र देख कर प्रद्योत ने चित्र की बड़ी प्रशंसा की और पूछा “यह चित्र किसका है ?" राजा को इस प्रकार मुग्ध देखकर चित्रकार बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने कहा-“हे राजा ! यह चित्र कौशाम्बी के राजा शतानीक की पत्नी मृगावती देवी का है।" मृगावती पर मुग्ध चंडप्रद्योत ने वज्रजंघ नामक दूत को समझा-बुझाकर शतानीक के पास भेजा । उसने जाकर शतानीक से मृगावती को सौंप देने का संदेश कहा । शतानीक इसे सुनकर कड़ा क्रद्ध हुआ।
इस पर क्रुद्ध होकर चंडप्रद्योत ने कौशाम्बी पर आक्रमण कर दिया । युद्ध में चंडप्रद्योत ठहर न सका । पर, कुछ समय बाद शतानीक को अतिसार हुआ और वह मर गया ।
मृगावती देवी को विचार हुआ कि, मेरे पति तो मर गये और हमारा पुत्र उदयन तो अभी बहुत छोटा है। अतः चतुराई पूर्ण ढंग से उसने प्रद्योत को संदेश कहलाया । दूत ने जाकर प्रद्योत से कहा-"देवी मृगावती ने कहलाया है कि, मेरे पति शतानीक राजा का स्वर्गवास हो गया है। इसलिए मैं तो आपकी शरण में हूँ। लेकिन, मेरा पुत्र अभी बिलकुल बच्चा है । पिता के निधन की विपत्ति के शिकार उस बच्चे को यदि छोड़ दूं तो शत्रु राजा उसे तबाह कर डालेंगे।"
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भक्त राजे
५६५ मृगावती के इस संदेश से प्रद्योत बड़ा प्रसन्न हुआ और कहला भेजा कि, जब तक मैं रक्षक हूँ तब तक मृगावती के पुत्र को क्षति पहुँचाने की कौन चेष्टा कर सकता है ?"
प्रद्योत ने फिर उजयिनी से परम्परा से, ईटें मँगवायीं और कौशाम्बी की किलेबन्दी करायी।
इन घटनाओं के कुछ ही समय बाद महावीर स्वामी कौशाम्बी आये । और, मृगावती चंडप्रद्योत की ८ रानियों के साथ साध्वी हो गयीं। इसका वर्णन हम शतानीक के प्रसंग में दे आये हैं। भगवान् के उस समवसरण मैं जिसमें मृगावती गयी थी, प्रद्योत भी गया था। इसी प्रसंग में प्रद्योत के सम्बंध में भरतेश्वर-बाहुबलि वृत्ति में आता है :
ततश्चण्डप्रद्योतो धर्ममङ्गोकृत्य स्वपुरम् ययौ।।
शतनीक के पश्चात् उदयन के साथ भी एक बार इस चण्डप्रद्योत ने बड़े छल से व्यवहार किया।
कथा आती है कि, उसकी पुत्री वासुदत्ता ने गुरु के पास समस्त विद्याएँ सीख ली । केवल गंधर्वविद्या सिखाने के लिए उसे कोई उचित गुरु नहीं मिला। एक बार राजा ने बहुदृष्ट और बहुश्रुत मंत्रियों से घूछा-'इस कन्या को गंधर्वविद्या सिखाने के योग्य कौन गुरु है ?"
राजा का प्रश्न सुनकर मंत्री ने कहा-"महाराज! उदायन तुम्बरु ३.गंधर्व की दूसरी मूर्ति के समान है। गंधर्वकला में वह
१-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ८, श्लोक १७६, पत्र १०५-२ ।
२-भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति, द्वितीय विभाग, पत्र ३२३-२ । ३-शक्रस्य देवेन्द्रस्य गन्धर्वानीकाधीपतौ।
-स्थानांग सूत्र ठाणा ७,
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तीर्थंकर महावीर
अतिगुण वाला है । वह संगीत से मोहित करके बड़े-बड़े गजेन्द्रों को भी बाँध लेता है ।"
फिर उदयन को पकड़ कर उज्जयिनी लाने की यह विधि निश्चित की गयी कि, एक काष्ठ का हाथी बनाया जाये जो सजीव हाथी की तरह व्यवहार करे । और, काष्ठ के हाथी के अंदर सशस्त्र हाथी के यंत्रों को चलाते रहें और अवसर मिलने पर उज्जयिनी ले आयें ।
पुरुष रहें । वे उस उदयन को पकड़कर
यह विधि कारगर रही । उदयन पकड़ लिया गया और उज्जयिनी
लाया गया ।
उज्जयिनी आ जाने पर प्रद्योत ने उदयन से कहा - " मेरे एक कानी कन्या है । उसे तुम गंधर्वविद्या सिखा दो और सुखपूर्वक मेरे घर में रहो । लेकिन, कन्या कानी है इसलिए उसे देखना नहीं । यदि तुम उसे देख लोगे तो वह लजित होगी। और, अपनी पुत्री से कहा -- “तुम्हें गंधर्वविद्या सिखाने के लिए गुरु तो आ गया है, पर वह कोढ़ी है । इसलिए तुम उसे प्रत्यक्ष मत देखना ।
कन्या ने बात स्वीकार कर ली । उदयन वासवदत्ता को संगीत सिखाने लगा ।
एक दिन वासवदत्ता को पाट स्मरण करने में कुछ अन्यमनस्क जानकर उदयन ने क्रोधपूर्वक कहा - "हे कानी सीखने में तुम ध्यान नहीं देती हो । तुम दुःशिक्षिता हो ।” ऐसा सुनकर वासवदत्ता को आया । और, बोली - "तुम स्वयं कोढ़ी हो, यह तो देखते मुझे झूठे ही कानी करते हो ।"
इस प्रकार जब दोनों को अपने भ्रम का पता चल गया तो दोनों ने एक दूसरे को देखा ।
भी क्रोध नहीं और
और, बाद में यह वासवदत्ता उदयन के साथ कौशाम्बी चली गयी और वहाँ की महारानी हुई । वासवदत्ता के जाने पर पहले तो प्रद्योत क्रुद्ध
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भक्त राजे हुआ पर बाद में मंत्रियों ने समझाया कि, उदयन-सरीखा योग्य वर आपको कन्या के लिए कहाँ मिलेगा।'
चंड प्रद्योत और वीतमय चंडप्रद्योत के समय में सिंधु-सौवीर की राजधानी वीतभय में उद्रायण नामक राजा था । उस उद्रायण के पास चंदन के काष्ठ की महावीर स्वामी की एक प्रतिमा थी । उस प्रतिमा की सेवा-पूजा चंडप्रद्योत की देवदत्तानामक दासी किया करती थी।
एक बार गांधार-नामक कोई श्रावक चरित्र-ग्रहण करने की इच्छा से जिनेश्वरों के सभी कल्याणक स्थानों की वंदना करने की इच्छा से निकला। अनुक्रम से वैताढ्य पर्वत पर स्थित शाश्वत प्रतिमाओं की वंदना करने की इच्छा से उसने उस पर्वत के मूल में बैठकर उपवास किये और शासन देवी की आराधना की। उससे तुष्ट होकर देवी ने उसे उन प्रतिमाओं का दर्शन करा दिया। शासन देवी ने सभी इच्छाओं की पूर्ति कराने वाली सौ गुटिकाएँ उस भक्त को दीं। '
वहाँ से लौटते हुए चंदन की प्रतिमा का दर्शन करने वह वीतभय आया । दैव संयोग से वह वहाँ बीमार पड़ गया। उस समय देवदत्तानामक कुब्जा दासी ने पिता-सदृश उसकी सेवा की। कुछ दिनों के बाद
१-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र पर्व १०, सर्ग ११, श्लोक १८४२६५ । पत्र १४२-२-१४५-२ ।
२-उत्तराध्ययन नेमिचंद्र की टीका अ० १८ पत्र २५२-१ से
___ ३–त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र पर्व १०, सर्ग ११, श्लोक ४४५, पत्र १५१।२।
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५६८
तीर्थकर महावीर जब श्रावक स्वस्थ हुआ तो दासी की सेवा से प्रसन्न होकर सभी गुटिकाएँ दासी को देकर उसने स्वयं दीक्षा ग्रहण कर ली।
गुटिकाओं को पाकर दासी बड़ी प्रसन्न हुई । उसे विचार हुआ कि इस गुटिका के प्रयोग से मैं अत्यन्त सुन्दर और स्वर्ण-सरीखी आकृतिवाली हो जाऊँ । इस विचार से उसने एक गोली खायी और अत्यन्त मनोहर रूपवाली हो गयी । अपने स्वर्ण सरीखे सौंदर्य के कारण वह स्वर्णगुलिका नाम से विख्यात हुई।
फिर उसे विचार हुआ कि बिना पति के मेरा यह यौवन और रूप आरण्य पुष्प-सरीर का है। अतः इस विचार से उसने चंडप्रद्योत को पति के रूप में कामना की । और, उसने दूसरी गुटिका खाली । गुटिका के प्रभाव से देवी ने जाकर चंडप्रद्योत से स्वर्णगुलिका का रूप वर्णन किया । उसका रूप-वर्णन सुनकर चंडप्रद्योत ने वीतभय दूत भेजा । स्वर्णगुलिका ने उस दूत के द्वारा प्रद्योत से कहला दिया कि, मुझे ले चलना हो तो राजा को तुरत आना चाहिए ।
संदेश पाकर चंडप्रद्योत अनलगिरि हाथी पर बैठकर वीतभय आया और उसको मिला। चंडप्रद्योत को देखकर स्वर्ण गुलिका भी आसक्त हो गयी । पर, उसने अपने साथ चंदन की प्रतिमा भी ले चलने की बात प्रद्योत से कही।
चंडप्रद्योत उस चंदन की प्रतिमा की प्रतिमूर्ति तैयार कराने के विचार से अवन्ती लौट आया और दूसरी मूर्ति तैयार कराकर पुनः वीतभय गया। हाथी को बाहर रोक कर, नयी प्रतिमा लेकर वह राजमहल में गया और नयी प्रतिमा वहाँ रखकर चंदन की मूल प्रतिमा और दासी को लेकर अवंती नगरी में आ गया ।
अनलगिरि नगर के बाहर जहाँ ठहरा था वह स्थान देखकर और अवंती के रास्ते में पड़े उसके कदमों को देखकर, लोगों ने राजा को जब
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भक्त राजे
५६६ इसकी सूचना दी तो उसने तत्काल अनुमान लगा लिया कि, प्रद्योत वीतभय आया था। ___ तब तक दासियों ने सूचित किया कि स्वर्णगुलिका दासी नहीं है । यह सुनकर राजा ने यह जाँच करायी कि, प्रभु की प्रतिमा है या नहीं । प्रतिमा भी बदली होने का समाचार सुनकर उद्रायण ने प्रद्योत के पास दूत भेजा ।
उस दूत ने प्रद्योत से जाकर कहा-"मेरे राजा ने आप से कहलाया है कि चोर के समान दासी और प्रतिमा ले जाने में क्या आपको लजा नहीं लगी ? यदि दासी पर आप आसक्त हो तो उसकी आवश्यकता नहीं है, पर आप प्रतिमा वापस कर दें।"
चंडप्रद्योत इस संदेश को सुनकर दूत पर ही बिगड़ गया।
चंडप्रद्योत का उत्तर सुनकर उद्रायण दस मुकुटधारी राजाओं को लेकर अवन्ती की ओर चला । उस समय जेष्ठ का महीना था।
अवन्ती आकर उद्रायण ने चंडप्रद्योत से कहला भेजा-"अधिक आदमियों का नाश करने से क्या फल ? हम तुम में परस्पर युद्ध हो जाये।' चंडप्रद्योत ने रथ में बैठकर अकेले युद्ध करने की बात स्वीकार की।
पर, बाद में उसे भास हुआ कि रथ पर बैठकर तो मैं उद्रायण से जीत नहीं सकूँगा । अतः अनलगिरि हाथी पर बैठकर रणस्थल में गया । उसे देखकर उद्रायण ने कहा-"प्रतिज्ञा भूलकर हाथी पर बैठकर आये ?"
उद्रायण ने वाणों से हाथी के चरण बींध दिये। घायल होकर हाथी गिर पड़ा और उतरते ही प्रद्योत भी पकड़ लिया गया। राजा ने प्रद्योत के सिर पर लिखकर लगवा दिया
"यह हमारी दासी का पति है।"
लड़ाई में विजय पाने पर उद्रायण को अपनी प्रतिमा वापस मिल गयी।
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तीर्थंकर महावीर उद्रायण चंडप्रद्योत को बंदी बनाकर वीतभय की ओर चला । पर, रास्ते में वर्षा आ गयी। राजा एक जगह ठहर गया । वहाँ किलाबंदी करायी और दसो राजा उसकी रक्षा करने लगे । अतः वह विश्रामस्थल दशपुर' कहाँ जाने लगा।
उद्रायण राजा सदा प्रद्योत को अपने साथ भोजन कराता । इसी बीच पयूषणा-पर्व आया। वह दिन उद्रायण के उपवास का था । अतः रसोइया चंडप्रद्योत के पास आकर पूछने लगा-"क्या भोजन कीजियेगा ?"
किसी दिन तो प्रद्योत से भोजन की बात नहीं पूछी जाती थी । उस दिन भोजन पूछे जाने पर उसे आश्चर्य हुआ और उसने रसोइए से उसका कारण पूछा तो रसोइए ने पर्दूषणा-पर्व की बात कह दी और कहा कि श्रावक होने से महाराज उद्रायण आज उपवास करेंगे ।
इस पर चंडप्रद्योत ने रसोइए से कहा-"तन्ममाप्युपवासोऽद्य, पितरौ श्रावको हि मे"-' ____ इस पर्दूषणा-पर्व के अवसर पर उद्रायण ने चंडप्रद्योत को कारागार से मुक्त कर दिया । मुक्त करने के बाद चंडप्रद्योत
ततः प्रद्योत नो राजा जैन धर्म शुद्धमारराध
१–त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ११, श्लोक ५८९ पत्र १५६-२ ।
२–उत्तराध्ययन, भावविजय की टीका, उत्तरार्द्ध, श्लोक १८२, पत्र ३८६-२।
ऐसा ही वर्णन त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र पर्व १०, सर्ग ११, दलोक ५९७ पत्र १५६.२ में भी आता है। वहाँ भी प्रद्योत से कहलाया गया है--
"..."श्रावको पितरौ मम"
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भक्त राजे
६०१
(भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति, पत्र १७७ - १) शुद्ध चित्त से जैन-धर्म का पालन करने लगा ।
चंडप्रद्योत और पांचाल
चंप्रद्योत के समय में पांचाल देश की राजधानी काम्पिल्य में यवनामक राजा राज्य करता था । चित्रशाला बनवाते उसे एक रत्नजटित मुकुट मिला । उस मुकुट के दो मुख दिखलायी पड़ते । इस कारण, उस यव कहने लगे ।
एक बार उज्जयिनी नगरी का कोई दूत काम्पिल्यपुरी में आया । वहाँ से लौटकर उसने चंडप्रद्योत को बताया कि, यव राजा के पास एक मुकुट है। उसके प्रभाव से उसका दो मुख दिखलायी पड़ता है
I
उस मुकुट के लोभ में पड़कर चंडप्रद्योत ने दुम्मुह राजा के पास दूत भेजा और कहलाया -- " या तो मुकुट मुझे दे दो नहीं तो लड़ने के लिए तैयार हो जाओ ।"
इस पर द्विमुख ने कहादें तो मैं अवश्य मुकुट दे दूँगा ।" प्रद्योत के चारों रत्न माँग लिये ।
समय भूमि के अंदर धारण करने से उसके राजा को लोग द्विमुख
"यदि चंडप्रद्योत मेरी माँगी चीज मुझे और, दूत के पूछने पर द्विमुख ने चंड
दूत से समाचार सुनकर चतुरंगिणी सेना एकत्र करके चंडप्रद्योत सीमा पर पहुँच कर चंडप्रद्योत की सेना ने मगरव्यूह की रचना की ।
द्विमुख से लड़ने चल पड़ा । गरुड़व्यूह की और द्विमुख ने इस प्रकार दोनों दलों में भयंकर युद्ध प्रारम्भ हुआ । द्विमुख की सेना ने प्रद्योत की सेना को भगा दिया । सेना भगती देखकर प्रद्योत भी भागा। पर, द्विमुख ने उसे पकड़ लिया और उसके पैर में बेड़ी डाल दी । कुछ समय तक बंदीगृह में रखने के पश्चात् द्विमुख ने चंडप्रद्योत को मुक्त कर दिया ।
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तीर्थंकर महावीर
राजा प्रद्योत सदा द्विमुख के दरबार में जाता और द्विमुख उसे आदरपूर्वक अर्द्धआसन पर बैठाता ।
६०२
एक बार प्रद्योत ने द्विमुख की पुत्री मदनमंजरी को देख लिया और उसके विरह में प्रद्योत पीला पड़ गया । द्विमुख राजा के बहुत पूछने पर प्रद्योत ने मदनमंजरी से विवाह करने का प्रस्ताव किया और कहा" मदनमंजरी न मिली तो मैं अग्नि में कूद कर आत्महत्या कर लूँगा ।"
इस प्रस्ताव पर द्विमुख ने अपनी पुत्री का विवाह प्रद्योत से कर दिया । इन युद्धों के अतिरिक्त चंद्रप्रद्योत के तक्षशिला के राजा पुष्करसाती से युद्ध करने का उल्लेख गुणाढ्य ने किया है ।
3
प्रसन्नचन्द्र
एक बार भगवान् विहार करते हुए पोतनपुर नामक नगर में पधारे और नगर से बाहर मनोरम - नामक उद्यान में ठहरे। उनके आने का
-
१.
— उत्तराध्ययन ९ - वाँ अध्याय नेमिचंद्र की टीका १३५-२-१३६-२ २ – पोलिटिकल हिस्ट्री आव इंडिया, ५ - वाँ संस्करण, पृष्ठ २०४ | ३—त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र पर्व १०, सर्ग ९, श्लोक २१-५०
पत्र ११९-१ – १२०-१
४ - बौद्ध ग्रंथों में पोतन नगर अस्सक की राजधानी बतायी गयी है । जातकों से ज्ञात होता है कि पहले अस्सक और दंतपुर के राजाओं में परस्पर युद्ध हुआ करता था । यह पोतन कभी काशी राज्य का अंग रह चुका था । वर्तमान पैठन की पहचान पोतन से की जाती है । —ज्यागरैफी आव अर्ली बुद्धिज्मा, पृष्ठ २१; संयुक्तनिकाय हिन्दी अनुवाद, भूमिका पृष्ठ ७ ।
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भक्त राजे
६०३
समाचार सुनकर पोतनपुर का राजा प्रसन्नचन्द्र तत्काल भगवान् की वंदना करने आया। भगवान् के उपदेश से प्रभावित होकर अपने बालकुमार को गद्दी पर बैठा कर वह दीक्षित हो गया। प्रभु के साथ विहार करता रहा और उग्र तपस्या करता रहा। अनुक्रम से प्रसन्नचन्द्र समस्त सूत्रों
और उनके अर्थों में पारगामी हुआ । __एक बार भगवान् महावीर राजगृह आये । भगवान् के आने का समाचार सुनकर श्रेणिक बड़े सजधज से भगवान् की वंदना करने निकला। आगे-आगे सुमुख और दुर्मुख-नाम के दो मिथ्यादृष्टि सेनानी चल रहे थे। उन दोनों ने प्रसन्नचन्द्र को एक पैर पर खड़े होकर दोनों हाथ ऊपर करके आतापना लेते देखा । उसे देखकर सुमुख बोला-"अहो ! आतापना करने वाले इस मुनि को मोक्ष कुछ भी दुर्लभ नहीं है।" सुनकर दुर्मुख बोला-"अरे ! यह पोतनपुर का राजा प्रसन्नचन्द्र है । बड़ी-सी गाड़ी में जैसे कोई छोटा-सा बछड़ा जोत दे, वैसे ही इन्होंने अपने नन्हें-से बच्चे पर राज्य का भार डाल दिया है। यह कैसा धर्मी ? इसके मंत्री चम्पानगरी के राजा दधिवाहन से मिलकर उसके राजकुमार को राज्य भ्रष्ट करेंगे । उस पर उनकी पत्नियाँ भी कहीं चली गयी हैं । पाषंडीदर्शन वाला यह प्रसन्नचन्द्र देखने योग्य नहीं है ?"
इनकी बात सुनकर प्रसन्नचन्द्र का ध्यान टूट गया और वे विचार करने लगे---"मेरे मंत्रियों को धिक्कार है । मैंने सदा इनका सत्कार किया; पर उन लोगों ने मेरे पुत्र के साथ बुरा व्यवहार किया । यदि मैं वहाँ होता तो उनको उचित शिक्षा देता । इस संकल्प-विकल्प के कारण प्रसन्नचन्द्र अपना व्रत भूल गये। अपने को राजा-रूप में मानते हुए प्रसन्नचन्द्र मंत्रियों से युद्ध करने पर उद्यत हुए।
इतने में श्रेणिक उनके निकट पहुँचा और उसने विनयपूर्वक प्रसन्नचन्द्र की वंदना की। यह विचार कर कि अभी राजर्षि प्रसन्नचन्द्र पूर्णध्यान में हैं, श्रेणिक भगवान् के पास आया और उसने भगवान् से पूछा--
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६०४
तीर्थकर-महावीर "भगवान् ! इस समय प्रसन्नचन्द्र मुनि पूर्ण ध्यानावस्था में हैं। यदि इस समय उनका निधन हो तो किस गति में जायें ?"
यह सुनकर भगवान् बोले-"सातवें नरक में जायेंगे !" भगवान् के मुख से ऐसा सुनकर श्रेणिक को विचार उठा कि, साधु को तो नरक होता नहीं। प्रभु की कही बात बराबर मेरी समझ में नहीं आयी।"
थोड़ी देर बाद फिर श्रेणिक ने पूछा-'हे भगवन् ! यदि प्रसन्नचन्द्र का इस समय देहावसान हो तो वे किस गति को प्राप्त करेंगे ?' भगवान् ने उत्तर दिया-"सर्वार्थसिद्ध विमान पर जायेंगे।”
यह सुनकर श्रेणिक ने पूछा-"भगवन् , क्षण भर के अन्तर में आपने यह भिन्न-भिन्न बातें कैसे कहीं ?"
भगवान् ने उत्तर दिया-"ध्यान के भेद से मुनि की स्थिति दो प्रकार की थी। इसी कारण मैंने दो बातें कहीं। पहले दुर्मुख की बात से प्रसन्नचन्द्र क्रुद्ध हो गये थे और अपने मंत्रियों आदि से मन में युद्ध कर रहे थे । उसी समय आपने वंदना की । उस समय वह नरक में जाने योग्य थे। उसके बाद उनका ध्यान पुनः व्रत की ओर गया और वे पश्चाताप करने लगे । इससे वह सर्वार्थसिद्ध के योग्य हो गये। आपने दूसरा प्रश्न इसी समय पूछा था ।"
इतने में प्रसन्नचन्द्र के निकट देवदुन्दुभी आदि के स्वर सुनायी पड़े। उसे सुनकर श्रेणिक ने पूछा-"भगवन् ! यह क्या हुआ ।' भगवान् ने उत्तर दिया--"प्रसन्नचन्द्र को केवलज्ञान हो गया ? यह देवताओं के हर्ष का द्योतन करने वाली दुन्दुभी का नाद है ।
__ श्रेणिक के पूछने पर भगवान् ने प्रसन्नचन्द्र के सम्बन्ध में निम्नलिखित कथा कही
१–परिशिष्ट-पर्व, याकोबी-सम्पादित, द्वितीय संस्करण, सर्ग १, श्लोक ९२-१२८ पृष्ठ ९-१२ ।
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भक्त राजे
६०५ "पोतनपुर में सोमचन्द्र-नामक राजा राज्य करता था। उसकी पत्नी का नाम धारिणी था । एक दिन धारिणी ने सोमचन्द्र का ध्यान उनके पके बाल की ओर आकृष्ट किया। बाल देखकर गृहत्याग करने का विचार आते ही सोमचन्द्र ने राज्य अपने पुत्र प्रसन्न चन्द्र को दे दिया और दिगप्रोषित तापस के रूप में जंगल में रहने लगे। वहाँ उनके साथ उनकी पत्नी और एक धाई भी थी। __ "यहीं वन में धारिणी को एक पुत्र हुआ। उसका नाम वल्कलचीरिन् पड़ा। उसके बचपन में ही धारिणी की मृत्यु हो गयी और धाई भी मर गयी । सदा जंगल में ही रहने से तापसों को ही देखने का उसे अवसर मिलता और वह जानता भी नहीं था कि नारी क्या है ?"
"वन में अपने एक भाई होने की बात सुनकर प्रसन्नचन्द्र ने बड़े प्रयत्न से वल्कलचीरिन् को पोतनपुर मँगाया ।
"छोटे पुत्र के गुम हो जाने से सोमचन्द्र अंधे हो गये । यद्यपि उन्हें समाचार मिल गया था कि वल्कलचीरिन् अपने भाई के साथ है, पर वह बहुत दुःखी रहते।
"बारह वर्षों के बाद, एक बार प्रसन्नचन्द्र और वल्कलचीरिन् अपने पिता को देखने गये । सोमचन्द्र पुत्रों को पाने के हर्ष में रो पड़े। रोतेरोते उनकी नेत्र की ज्योति भी पुनः वापस आ गयी । ___ "वल्कलचीरिन् भी एक प्रत्येकबुद्ध हो गये। पिता से मिल कर प्रसन्नचन्द्र पोतनपुर लौटे और अपना राजकार्य सँभालते रहे और यहीं मैंने उन्हें दीक्षा दी।"
प्रियचन्द्र' कनकपुर-नामक नगर था। श्वेताश्वेत-नामक उद्यान था । उसमें वीरभद्र नामक यक्ष का यक्षायतन था ।
१विपाकसूत्र ( पी० एल० वैद्य-सम्पादित ) श्रु. २, अ० ६, पृष्ठ ८२.
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६०६
तोर्थंकर महावीर
उस नगर में प्रियचन्द्र - नामक राजा राज्य करता था । उसकी मुख्य रानी का नाम सुभद्रा था । उसके पुत्र का नाम वैश्रमण था । ( भगवान् का आना, संवसरण आदि समस्त विवरण अदीनशत्रु की तरह समझ लेना चाहिए )
इस वैश्रमण ने भी पहले श्रावक-धर्म स्वीकार किया और बाद में साधु हो गया । ( पूरी कथा सुबाहु के समान ही है )
बल'
महापुर - नामका नगर था । रक्ताशोक-नामक उद्यान था । उसमें रक्त पाक नामक यक्ष का यक्षायतन था ।
उस नगर का राजा बल था । उसकी मुख्य रानी का नाम सुभद्रा था । राजकुमार का नाम महाबल था ।
भगवान् महावीर का आगमन आदि अदीनशत्रु के विवरण के अनुरूप ही है और सुबाहु के समान महाबल ने पहले श्रावक के १२ व्रत लिए और फिर साधु हो गया
.
महाचन्द्र
साहंजणी - नामक नगरी थी । उसके उत्तरर-पूर्व दिशा में देवरमणनामक उद्यान था । उसमें अमोघ नामक यक्ष का यक्षायतन था ।
उस नगर में महाचन्द्र - नामक राजा राज्य करता था ।
जब भगवान् महावीर साहंजणी गये तो महाचन्द्र राजा भी कूणिक की भाँति उनकी वंदना करने गया था ।
१ - विपाकसूत्र ( पी० एल० वैद्य - सम्पादित ) श्रु० २, अ० ७, पृष्ठ ८२ ।
२ – विपाकसूत्र ( पी० एल० वैद्य - सम्पादित ) श्रु० १, अ० ४, पृष्ठ ३७-३८ ।
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भक्त राजे
9
महाबल
पुरिमताल-नामक नगर था । उसके उत्तरपूर्व दिशा में अमोघदर्शी - नामक उद्यान था । उस उद्यान में यश्चायतन था ।
अमोघदर्शी - नामक
यक्ष का
उस पुरिमताल - नामक नगर में महाबल - नामक राजा था । एक बार भगवान् महावीर ग्रामानुग्राम विहार करते हुए पुरिमतालनगर में आये तो महाबल भी कूणिक के समान उनकी वंदना करने गया ।
मित्र
*
६०७
वाणिज्यग्राम-नामक नगर के उत्तरपूर्व दिशा में दुइपलाश - नामक उद्यान था । उसमें सुधर्म नामक यक्ष का यक्षायतन था ।
उस वाणिज्यग्राम में मित्र-नामका राजा था । उस राजा की पत्नी का नाम श्रीदेवी था ।
एक बार भगवान् ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वाणिज्यग्राम गये तो कूणिक के समान मित्र भी उनकी वंदना करने गया ।
मित्रनन्दी
साकेत - नामक नगर में उत्तरकुरु-उद्यान था । उसमें पाशामृग-यक्ष का यक्षायतन था ।
१ - विपाकसूत्र ( पी० एल० वैद्य - सम्पादित ) श्रु० १, अ० ३, पृष्ठ २६-२७ ।
२ – विपाकसूत्र ( पी० एल० वैद्य - सम्पादित ) श्रु० १, अ० २, पृष्ठ १६-१७
३ – विपाकसूत्र ( पी० एल० वैद्य - सम्पादित ) श्रु० २, अ० १०
पृष्ठ ८३
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६०८
तीर्थङ्कर महावीर
उस नगर में मित्रनन्दी राजा था। श्रीकान्ता उनकी मुख्य देवी थी और वरदत्त कुमार था।
उस नगर में भगवान् महावीर का आना समवसरण आदि अदीनशत्रु ने समान समझ लेना चाहिए और सुबाहु के समान वरदत्त ने भी पहले श्रावक-धर्म स्वीकार किया और बाद में साधु हो गया।
वासवदत्त' विजयपुर-नामक नगर था। वहाँ नंदन-वन नामक उद्यान था। उस उद्यान में अशोक-नामक यक्ष था ।
उस नगर में वासवदत्त नामक राजा राज्य करता था। उसकी पत्नी का नाम कृष्णा था। उनको सुवासव-नामका पुत्र था । भगवान् के आने पर वासवदत्त उनके समवसरण में गया । ( यह पूरा विवरण अदीनशत्रु-सरीखा जान लेना चाहिए)
सुवासव ने पहले श्रावक-धर्म स्वीकार किया और बाद में साधु हो गया । ( सुवासव का विवरण सुबाहु-सा ही है )
विजय भगवान् महावीर के काल में पोलासपुर में विजय-नामका राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम श्री था। उस राजा विजय और रानी श्री को एक पुत्र था। उसका नाम अतिमुक्तक ( अइमुत्ते ) था ।' उस पोलासपुर नामक नगर के निकट श्रीवन-नामक उद्यान था।
१-विपाकसूत्र (पी० एल० वैद्य-सम्पादित ) श्रु० २, अ० ४, पृष्ठ ८१
२-तणं कालेणं २ पोलासपुर नयरे, सिरिवणे उज्जाणे। तत्थणं पोलासपुरे नयरे विजए नाम राया होत्था । तस्सणं विजयस्स रन्नो सिरी नामं देवी होत्था ।..."तस्स णं विजयस्स रन्नो पुत्त सिरीए देवीए अत्तए अइमुरो नाम कुमारे होत्था ।
-अंतगडदसाओ, एन० वी० वैद्य-सम्पादित, पृष्ठ ३४
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भक्त राजे
६०६
एक बार भगवान् परिवार के सहित विहार करते हुए पोलासपुर आये और श्रीवन - उद्यान में ठहरे ।
गौतम इन्द्रभूति पोलासपुर नगर में भिक्षा के लिए गये । उस समय स्नान करके षष्ठवर्षीय कुमार अतिमुक्तक लड़के-लड़कियों, बच्चों बच्चियों तथा युवक-युवतियों के साथ इन्द्रस्थान' पर खेल रहा था ।
कुमार अतिमुक्तक ने जब इन्द्रभूति को देखा तो उनके पास जाकर उसने पूछा - "आप कौन हैं ?" इस प्रश्न पर इन्द्रभूति ने उत्तर दिया"मैं निर्गथ- साधु हूँ और भिक्षा माँगने निकला हूँ ! यह उत्तर सुनकर अतिमुक्तक उन्हें अपने घर ले गया ।
गौतम इन्द्रभूति को देखकर अतिमुक्तक की माता महादेवी श्री अति प्रसन्न हुई और तीन बार उनकी परिक्रमा वंदना करके भिक्षा में उन्हें पर्याप्त भोजन दिया ।
अतिमुक्तक ने गौतम स्वामी से पूछा- आप ठहरे कहाँ हैं ?" इस पर इन्द्रभूति ने उसे बताया - " मेरे धर्माचार्य (महावीर स्वामी) पोलासपुर नगर के बाहर श्रीवन में ठहरे हैं ।” अतिमुक्तक भी भगवान् का धर्मोपदेश सुनने गया और भगवान् के धर्मोपदेश से प्रभावित होकर उसने अपने माता-पिता से अनुमति लेकर साधु होने का निश्चय किया ।
वहाँ से लौट कर अतिमुक्तक घर आया और उसने अपने माता पिता से अपना विचार प्रकट किया। इस पर उसके माता-पिता ने कहा" वत्स ! तुम अभी बच्चे हो । तुम धर्म के सम्बन्ध में क्या जानते हो ? इस पर अतिमुक्तक ने कहा - " मैं जो जानता हूँ, उसे मैं नहीं जानता और जिसे मैं नहीं जानता उसे मैं जानता हूँ ।" इस पर उसके माता-पिता
१ - यन्त्रेन्यष्टिरूव कियत
३९
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तीर्थंकर महावीर ने पूछा- "तुम यह कैसे कहते हो कि जो तुम जानते हो, उसे नहीं जानते
और तुम जिसे नहीं जानते उसे तुम जानते हो ?" __माता-पिता के प्रश्न पर अतिमुक्तक ने उत्तर दिया--"मैं जानता हूँ कि जिसका जन्म होता है, वह भरेगा अवश्य । पर, वह कैसे, कब और कितने समय बाद मरेगा, यह मैं नहीं जानता। मैं यह नहीं जानता कि किन आधारभूत कर्मों से जीव नारकीय, तिर्यच, मनुष्य अथवा देवयोनि में उत्पन्न होते हैं। पर, मैं जानता हूँ कि अपने ही कर्मों से जीव इन गतियों को प्राप्त होता है । इस प्रकार मैं सही-सही नहीं बता सकता कि, मैं क्या जानता हूँ और मैं क्या नहीं जानता हूँ। उसे मैं जानना चाहता हूँ। इसलिए गृहस्थ-धर्म का त्याग करना चाहता हूँ और इसके लिए आपकी अनुमति चाहता हूँ।"
पुत्र की ऐसी प्रबल हच्छा देखकर माता-पिता ने कहा-“पर, हम कम-से-कम एक दिन के लिए अपने पुत्र को राजसिंहासन पर बैठा देखना चाहते हैं।"
माता-पिता की इच्छा रखने के लिए अतिमुक्तक एक दिन के लिए गद्दी पर बैठा और उसके बाद बड़े धूम-धाम से भगवान् के पास जाकर उसने दीक्षा ग्रहण कर ली । अपने पुत्र की दीक्षा में भाग लेने के लिए अति-मुक्तक के पिता विजय भी सपरिवार गये और उन लोगों ने भी भगवान् की वंदना की।
अतिमुक्तक ६ वर्ष की उम्र में साधु हुआ । इस सम्बन्ध में भगवतीसूत्र की टीका में आता है :
"कुमार समणे' त्ति षड्वर्षजातस्य तस्य प्रव्रजित्वात् , आह च-"छव्वरिसो पधारो निग्गंथं रोइऊण पावयणं" ति, एतदेव चाश्चर्यमिह, अन्यथा वर्षाष्टकादारान्न प्रव्रज्या स्यादिति,
१-अंतगडदसाओ-एन० पी० वैद्य-सम्पादित पृष्ठ ३४-३७ आत्मप्रबोध-पत्र १२३-२-१२५-२
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भक्त राजे
६११
- भगवतीसूत्र सटीक ( समिति वाला ) प्रथम भाग, श० ५, उ०
४, सूत्र १८८ पत्र २१९-२
दानशेखर की टीका भी इसी प्रकार है
:–
षडवर्षजातस्य तस्य प्रव्रजितत्वाद, श्राह - "छव्वरिसो पञ्चइयो निग्गंथं रोहऊण पावयणं' ति, एतदेवाश्चर्य अन्यथा वर्षाष्टकादारान्न दीक्षा स्यात
- दानशेखर की टीका पत्र ७३-१
साधारणतः ८ वर्ष की उम्र में दीक्षा होती है; पर ६ वर्ष की उम्र में अतिमुक्तक की दीक्षा आश्चर्य है ।
अतिमुक्तक के साधु- जीवन की एक घटना भगवतीसूत्र शतक ५ उसा ४ में आयी है। एक बार जब खूत्र वृष्टि हो रही थी, ( बड़ी शंका निवारण के लिए ) बगल में रजोहरण और पात्र लेकर अतिमुक्तक बाहर निकला । जाते हुए उसने पानी बहते देखा । उसने मिट्टी से पाल बाँधी और अपने काष्ठपात्र को डोंगी की तरह चलाना प्रारम्भ किया और कहने लगा―"यह मेरी नाव है !” और, इस प्रकार वह खेलने लगा । उसे इस प्रकार खेलते स्थविरों ने देखा और भगवान् के पास जाकर पूछा - "भगवन् ! अतिमुक्तक भगवान् का शिष्य है । वह अतिमुक्तक कितने भवों के बाद सिद्ध होगा और सब दुःखों का विनाश करेगा ?”
इस पर भगवान् महावीर ने कहा - " मेरा शिष्य अतिमुक्तक इस भव को पूरा करने के पश्चात् सिद्ध होगा । तुम लोग उसकी निंदा मत करो और उस पर मत हँसो । कुमार अतिमुक्तक सब दुःखों का नाश करने वाला है और इस बार शरीर त्यागने के बाद पुनः शरीर नहीं धारण करेगा ।"
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तीर्थकर महावीर भगवान् की बात सुनकर सब स्थविर अतिमुक्तक की सार-सँभाल रखने लगे और उनकी सेवा करने लगे।'
अपने साधु-जीवन में अतिमुक्तक ने सामायिक आदि का अध्ययन किया । कई वर्षों तक साधु-जीवन व्यतीत करने के पश्चात् गुणरत्न-तपस्या करने के पश्चात् विपुल-पर्वत पर अतिमुक्तक ने सिद्धि प्राप्त की।
विजय
- मृगगाम-नगर के उत्तरपूर्व-दिशा में चंदनपादप-नामक उद्यान था। उस उद्यान में सुधर्म-नामक यक्ष का यक्षायतन था । उस ग्राम में विजयनामक राजा था । मृगा-नामकी उस राजा की रानी थी।
एक बार भगवान् महावीर ग्रामानुग्राम विहार करते हुए मृगग्राम पहुँचे। उस समय विजय राजा भी कूणिक के समान उनकी वंदना करने गया।
विजयमित्र' वर्द्धमानपुर-नामक नगर था। जिसमें विजयवर्द्धमान-नामक उद्यान था । उसमें मणिभद्र-नामक यक्ष का मंदिर था ।
उस नगर में विजयमित्र नामक राजा था।
१-भगवतीसूत्र सटीक ( समिति वाला ) श० ५, उ० ४, पत्र २१९।१-२ (प्रथम भाग) __ २–अंतगडदसाओ एन० वी० वैद्य-सम्पादित, पृष्ठ ३५
३–विपाकसूत्र (पी० एल० वैद्य-सम्पादित ) श्रु० १, अ० १, पृष्ठ ४-५
४-विपाकसूत्र (पी० एल० वैद्य-सम्पादित ) श्रु० १, अ० १०, पृष्ठ ७२
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भक्त राजे भगवान् जब ग्रामानुग्राम विहार करते वर्द्धमानपुर आये तो विजयमित्र भगवान् की वंदना करने गया ।
वीरकृष्णमित्र' वीरपुर-नामक नगर था। उस नगर में मनोरम-नामका उद्यान था। उस नगर में वीरकृष्णमित्र-नामक राजा थे। उनकी देवी का नाम श्री था। उन्हें सुजात-नामक कुमार था (जन्म, शिक्षा-दीक्षा, विवाह आदि की कथा सुबाहु कुमार के समान जान लेनी चाहिए।) ____एक बार भगवान् महावीर यहाँ पधारे। समवसरण हुआ। राजा वंदना करने गये। (सब विवरण अदीनशत्रु के समान जान लेना चाहिए ) सुजात ने पहले श्रावक धर्म स्वीकार किया और बाद में उसने प्रव्रज्या ले ली।
वीरंगय' वीरंगय कहाँ का राजा था, यह ज्ञात नहीं है। उसके जीवन के सम्बंध में अन्य जानकारियाँ भी हमें प्राप्त नहीं हैं। पर स्थानांगसूत्र, स्थान ८, उद्देश्य ३, सूत्र ६२१ में भगवान् महावीर से दीक्षा लेने वाले ८ राजाओं में वीरंगय का भी नाम दिया है ।
१-विपागसूत्र (पी० एल० वैद्य-सम्पादित ) श्रु० २, अ० ३, पृष्ठ ८१
२-समणेण भगवता महावीरेणं अट्ठ रायाणो मुंडे भवेत्ता अगारातो अणगारितं पव्वाविता, पं० २०-चीरंगय, वीरजसे, संजय, एणिजते, य रायरिसी । सेयसिवे उदायणे [ तह संखे कासिवद्धणे ]
-ठाणांग सटीक, उत्तरार्ध, पत्र ४३०-२
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६१४
तीर्थंकर महावीर
वीरयश'
वीरयश के सम्बन्ध में भी हमें कुछ जानकारी नहीं है। ठाणांगसूत्र दीक्षा लेने की बात आती है, उसमें एक नाम वीर
में आठ राजाओं के यश का भी है ।
वैश्रमणदत्त
रोहितक नामक नगर था । उसमें पृथिव्यवतंसक नामक उद्यान था, जिसमें धरण - नामक यक्ष का आयतन था
उस नगर का राजा वैश्रमणदत्त था । उसकी भार्या का नाम श्रीदेवी था और पुष्यनंदी उनका कुमार था ।
२
जब भगवान् ग्रामानुग्राम विहार करते हुए रोहितक गये तो वैश्रमणदत्त भी भगवान् की वंदना करने गया ।
शंख
मथुरा नगरी में शंख - नामक राजा राज्य करता था। उनमें परस्पर
3
१ – समणेण भगवता महाव रेणं अट्ठ रायाणी मुंडे भवेत्ता गारातो अणगारितं पच्चाविता पं० तं वीरंगय, वीरजसे, संजय, एणिज्जते, य रायरिसी । सेय सिवे उदायणे [ तह संखे कासिबद्धणे ] - ठाणांगसूत्र सटीक, ठाणा ८, उ० ३, सूत्र ६२१ पत्र ४३०-२ ( उत्तरार्द्ध )
२ - विपाकसूत्र ( पी० एल० वैद्य-सम्पादित ) श्रु० १, अ० ९, पृष्ठ ६२
३ - उत्तराध्ययन सटीक, अ० १२
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भक्त राजे
६१५
किसी प्रकार की बाधा न आये, इस रूप में वह त्रिवर्ग' की साधना करने वाला श्रावक था ।
शंख को वैराग्य हुआ और उन्होंने दीक्षा ले ली । कालान्तर में वह गीतार्थ हुए ।
एक बार विहार करते हुए शंख मुनि हस्तिनापुर गये और गोचरी के लिए उन्होंने नगर में प्रवेश किया ।
वहाँ एक गली थी जो सूर्य की गर्मी से इतनी उत्तप्त हो जाती थी कि उसमें चलने वाला व्यक्ति भुन जाता था और इस प्रकार उसकी मृत्यु हो जाती थी ।
शंख राजा जब उस गली के निकट पहुँचे तो पास के घर के स्वामी सोमदेव-नामक पुरोहित से पूछा - " इस गली में जाऊँ या नहीं ?" द्वेषवश उस पुरोहित ने कह दिया- "हाँ ! जाना हो तो जाइए ।"
-
५ – त्रिवर्गो धर्मार्थकामः तत्र यतोऽभ्युदय निःश्रेयससिद्धिः स धर्मः । यतः सर्व प्रयोजन सिद्धिः सोऽर्थः । यत श्राभिमानिकरसानुविद्धा सवेंन्द्रिय प्रीतिः स कामः । ततोऽन्योऽन्यस्य परस्परं योऽप्रतिबन्धोऽनुपधातस्तन त्रिवर्गमपि न त्वैकेकं साधयेत ।
यह विवरण हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र की स्वोपज्ञ टीका में श्रावकों के प्रकरण में दिया है ।
— योगशास्त्र सटीक पत्र ५४-१
२
- महुरा नयरीए संखो नाम राया, सोय तिवग्गसारं जिणधम्मागुट्टा परं जीवलोगसुहमणुभविऊण
-
— उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका सहित, पत्र १७३ ३ – गीतो विज्ञात कृत्याकृत्यलक्षणोऽर्थो येन स गीतार्थः । बहुश्रुते
प्रत्र० १०२ द्वार
- राजेन्द्राभिधान, भाग ३, पृष्ठ ९०२
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६१६
तीर्थंकर महावीर सोमशर्मा से ऐसा सुनकर शंख मुनि उस गली में चले। उनके चरण के स्पर्श के प्रभाव से गली बर्फ-जैसी ठंडी हो गयी । इर्यासमिति पूर्वक धीरे-धीरे मुनि को चलता देखकर पुरोहित को बड़ा आश्चर्य हुआ। ___ वह भी घर से निकला और गली में चला। गली को बर्फ-जैसी ठंडी पाकर उसे अपने कुकर्म पर पश्चाताप होने लगा और वह विचारने लगा"मैं कितना पापी हूँ कि इस अग्नि-सरीखी उत्पत्त गली में चलने के लिए मैंने इस महात्मा को कहा। यह निश्चय ही कोई बड़े महात्मा मालूम होते हैं।"
ऐसा विचार करता-करता वह सोमशर्मा शंख मुनि के चरणों में गिर पड़ा । शंख मुनि ने उसे उपदेश दिया और वह सोमशर्मा भी साधु हो गया।
शिवराजर्षि स्थानांग-सूत्र में आठ राजाओं के नाम आते हैं, जिन्होंने भगवान् महावीर से दीक्षा ले ली और साधु हो गये ।' उन आठ राजाओं के नामों में एक राजा शिवराजर्षि आता है। इस पर टीका करते हुए नवांगी वृत्तिकारक अभयदेव सूरि ने लिखा है:
१-उत्तराध्ययन नेमिचन्द्रसूरि की टीका सहित, अ० १२, पत्र १७३-१ ।
२-समणेणं भगवता महावीरेणं अट्ठ रायाणो मुंडे भवेत्ता श्रागारातो अणगारितं पव्वाविता, तं०-वीरंगय, वीरजसे, संजय एणिजते य रायरिसी । सेय सिवे उदायणे [ तह संखे कासिवद्धणे ]
- स्थानांग सूत्र, सटीक, स्थान ८, सूत्र ६२१ पत्र (उत्तरार्द्ध ) ४३०-२।
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भक्त राजे शिवः हस्तिनागपुर राजो' हस्तिनापुर के इस राजा की चर्चा भगवतीसूत्र में भी आती है।
उस समय में हस्तिनापुर नामक नगर था । उस हस्तिनापुर नगर के बाहर उत्तरपूर्व दिशा में सहस्र आम्रवन नाम का उद्यान था । वह उद्यान सब ऋतुओं के फल-पुष्प से समृद्ध था और नन्दनवन के समान रमणीक था।
उस हस्तिनापुर में शिव नाम के राजा थे। वह राजाओं में श्रेष्ठ थे । उक्त शिव राजा को पटरानी का नाम धारिणी था। धारिणी से उक्त शिव राजा को एक पुत्र था। उसका नाम शिवभद्र था ।
एक दिन राजा के मन में रात्रि के पिछले प्रहर में विचार हुआ कि हमारे पास जो इतना-सारा धन है, वह हमारे पूर्व जन्म के पुण्य का फल है । अतः पुनः पुण्य संचय करना चाहिए । इस विचार से उसने दूसरे दिन अपने पुत्र का राज्याभिषेक कर दिया और अपने सगे-सम्बन्धियों से अनुमति लेकर लोही आदि लेकर गंगा किनारे रहते तापसों के पास दीक्षा लेकर दिशाप्रोक्षक तापस हो गया और निरन्तर ६ टंक उपवास का व्रत उसने ले लिया।
पहले उपवास के पारणा के दिन शिव राजर्षि तपस्थान से नीचे आया और नीचे आकर वल्कल-वस्त्र धारण करके अन्यों की झोपड़ी के निकट गया और किठिण (साधु के प्रयोग में आने वाला बाँस का पात्र ) और
१-स्थानांगसूत्र सटीक, उत्तराद्ध पत्र ४३१-१ । २-भगवती सूत्र सटीक, शतक ११, उद्देशा ९, पत्र ९४४-९५८ । ३-विशेष परिचय के लिए देखिए-'हस्तिनापुर' (ले० विजेन्द्रसूरि)
४-इस पर टीका करते हुए अभयदेव सूरि ने लिखा है'दिसापोक्खिणो' त्ति उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फलपुष्पादि समुचिन्वन्ति ।
-भगवतीसूत्र सटीक, पत्र ५५४ ।
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तीर्थंकर महावीर
कावड़ ग्रहण करके पूर्व दिशा को प्रोक्षित करके " सोम दिशा के सोम महाराज धर्म साधन में प्रवृत्त शिव राजर्षि का रक्षण करो, और पूर्व दिशा में स्थित कंद, मूल, छाल, पांदड़ा, पुष्प, फल, बीज और हरित वनस्पतियों को लेने की आज्ञा दें” – ऐसा कह कर शिव राजर्षि पूर्व ओर चले । और,
-
लीप
कावड़ भर कर पत्र-पुष्प इत्यादि ले आया । कुटी के पीछे पहुँचने पर कावड़ को नीचे रखा, वेदिका साफ की, वेदिका को करके शुद्ध किया और डाभ - कलश लेकर गंगा नदी के तट पर आया । वहाँ स्नानआचमन करके पवित्र होकर, देव-पितृ कार्य करके, कुटी के पीछे आया । फिर दर्भ, कुश और रेती की वेदी बनायी । मथनकाष्ठ की अरणी घिस कर अग्नि प्रज्वलित की और समिधा के दक्षिण ओर निम्नलिखित सात वस्तुएं रखीं
9
,
मधु, घी
१ – सकहूं', २ वक्कल, ३ ठाणं ४ सिज्जा, भंड, ५ कमंडलु, ६ दंड, ७ आत्मा ( स्वयं दक्षिण ओर बैठा था ) । उसके बाद और चावल से आहुति दी और चरु बलि तैयार की | चरु से वैश्वदेव की पूजा की, फिर अतिथि की पूजा की और उसके पश्चात् आहार किया ।
इस प्रकार दूसरे पारणा के समय दक्षिण दिशा और उसके लोकपाल यम, तीसरे पारणा के समय पश्चिम दिशा और उसके लोकपाल वरुण; और चौथे पारणा के समय उत्तर दिशा और उसके लोकपाल वैश्रमण की पूजा आदि की ।
१ - - - तत्समय प्रसिद्ध उपकरण विशेषः - भगवतीसूत्र सटीक पत्र
९५६ ।
२ – ज्योतिः स्थानं वही ।
३ - शय्योपकरणं - वही ।
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भक्त राजे
६१६
इस प्रकार दिक्चक्रवाल - तप करने से शिवराजर्षि के आवरणभूत कर्म नष्ट हो गये और विभंग ज्ञान उत्पन्न हो गया । उससे शिवराजर्षि को इस लोक में ७ द्वीप और ७ समुद्र दिखलायी पड़े । उसने कहा उसके बाद द्वीप और समुद्र नहीं हैं ।
यह बात हस्तिनापुर में फैल गयी ।
उसी बीच महावीर स्वामी वहाँ आये । उनके शिष्य गौतम भिक्षा माँगने गये । गाँव में उन्होंने शिवराजर्षि की कही सात द्वीप और सात समुद्र की बात सुनी ।
भिक्षा से लौटने पर उन्होंने भगवान् महावीर से यह बात पूछी"भगवन् ! शिवराजर्षि कहता है कि सात ही द्वीप और सात ही समुद्र हैं । यह बात कैसे सम्भव है ?"
इस पर भगवान् महावीर ने कहा – हे गौतम ! यह आयुष्मान् ! इस तिर्यक् लोक में स्वयंम्भूरमण समुद्र पर्यन्त और द्वीप हैं ।
यह बात भी फैल गयी । उसे सुनकर शिव राजर्षि को शंका हो गयी और तत्काल उनका विभंग-ज्ञान नष्ट हो गया । फिर उसे ज्ञान हुआ कि भगवान् तीर्थङ्कर सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं । इसलिए उसने भगवान् के पास जाने का विचार किया ।
असत्य है । हे असंख्य समुद्र
वह भगवान् के पास गया और धर्म सुनकर श्रद्धायुक्त हुआ। पंचमुष्टि लोच किया और भगवान् के पास उसने दीक्षा ले ली ।
१ – तपो विशेषे च । एकत्र पारण के पूर्वस्यां दिशि यानि फलाSSदीनि तान्याहृत्यभुक्ते, द्वितीये तु दक्षिणास्यामित्येवं दिक्चक्रवालेन तत्र तपः कर्मेणिपारणक करणं तत्तपः कर्म दिक्चक्रवालमुच्यते - नि० १ ० ३ वर्ग ३ अ० ।
श्रु
- राजेन्द्राभिधान, भाग ७, पृष्ठ २५३८
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६२०
तीर्थकर महावीर
शौरिकदत्त' शौरिकपुर-नामक नगर था। उसमें शौरिकावतंसक-नामक उद्यान था, जिसमें शौरिक-नामक यक्ष का यक्षायतन था।
उस नगर में शौरिकदत्त नामक राजा था। जब भगवान् ग्रामानुग्राम में विहार करते उस नगर में आये थे, तो शौरिकदत्त भी उनकी वंदना करने गया ।
श्रीदाम' मथुरा-नामक नगरी थी। उसके उत्तर-पूर्व में भंडीर नामक उद्यान था। उसमें सुदर्शन-नामक यक्ष का यक्षायतन था ।
उस नगर में श्रीदाम-नामक राजा था और बंधुश्री उनकी भार्या थी। भगवान् जब उस नगर में गये तो श्रीदाम भी उनकी (कूणिक की भाँति ) उनकी वंदना करने गया ।
श्रेणिक भंभासार भगवान् महावीर के समय में मगध की गणना अति शक्तिशाली राज्यों में था। उसकी राजधानी राजगृह थी। उस समय वहाँ श्रेणिक भंभासार नाम का राजा राज्य कर रहा था। - १-विपाकसूत्र (पी० एल० वैद्य-सम्पादित ) श्रु०१, अ०८, पृष्ठ ५८
२-विपाकसूत्र ( पी० एल० वैद्य-सम्पादित ), श्रु० १ अ०६, पृष्ठ ४५-४६
३-वृहत् कल्पसूत्र सटीक, विभाग ३, पृष्ठ ९१३ ।
विशेष जानकारी के लिए देखिये तीर्थंकर महावीर भाग १, पृष्ठ ४२ से ५३ तक । आजकल यह राजगिर नाम से प्रसिद्ध है। यह रेलवे स्टेशन भी है और विहारशरीफ से १५ मील की दूरी पर है।
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भक्त राजे
६२१
उसका तथा उसके वंश का उल्लेख वैदिक, बौद्ध तथा जैन सभी साहित्यों में मिलता है ।
वैदिक-साहित्य में
उसके वंश का उल्लेख श्रीमद्भागवत् महापुराण में निम्नलिखित रूप में आता है :
शिशुनागस्ततो भाग्यः काकवर्णः तत्सुतः । क्षेमधर्मा तस्य सुतः क्षेत्रज्ञः क्षेमधर्मजः ॥५॥ विधिसारः सुतस्तस्या जात शत्रुर्भविष्यति । दर्भकस्तत्सुतो भावीदर्भकस्या जयः स्मृतः ॥६॥ नन्दिवर्द्धन श्रजेयो महानन्दिः सुतस्ततः । शिशुनागा दशैवेते षष्ट्युत्तर शतत्रयम् ॥७॥
इसके बाद शिशुनाग नाम का राजा होगा । शिशुनाग का काकवर्ण, उसका क्षेत्रधर्मा । क्षेत्रधर्मा का पुत्र क्षेत्रज्ञ होगा । क्षेत्रज्ञ का विधिसार, उसका अजातशत्रु, फिर दर्भक और दर्भक का पुत्र अजय होगा । अजय से नन्दिवर्द्धन, और उससे महानन्दि का जन्म होगा । शिशुनाग वंश में ये दस राजे होंगे । ये सब मिलकर कलियुग में ३६० वर्ष तक पृथ्वी पर राज्य करेंगे ।
१
श्रीमद्भागवत के अतिरिक्त वायुपुराण अध्याय ९९, श्लोक ३१५ से ३१९ तक, मत्स्यपुराण अध्याय २७२ श्लोक ५ से १२ तक, तथा विष्णु पुराण अंश ४, अध्याय २४, श्लोक १-८, पृष्ठ ३५८-३५९ में भी इस वंश का उल्लेख है 1
१ - श्रीमद्भागवत सानुवाद ( गीताप्रेस गोरखपुर ) द्वितीय खंड,
पृष्ठ ९०३ ।
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तीर्थकर महावीर इसी आधार पर इतिहासकार इस वंश का उल्लेख 'शिशुनाग-वंश' के रूप में करते हैं।
बौद्ध-ग्रन्थों में
१-पहली शताब्दि में हुए कनिष्क के समकालीन कवि अश्वघोष ने बुद्धचरित्र में इस कुल को हर्यक कुल बताया है। बुद्धचरित्र के सम्पादक तथा अनुवादक डाक्टर ई० एच० जांसन ने लिखा है कि मैं हर्यक शब्द को यंग-रूप में मानता हूँ, जो वृहद्रथ-वंश का राजा था और जिसकी महत्ता हरिवंश में वर्णित है । इस आधार पर उनका मत है कि शिशुनाग स्वयं वृहद्रथ-वंश का था।'
पर, इस कल्पना पर अपना मत व्यक्त करते हुए डाक्टर हेमचन्द्र राय चौधरी ने लिखा है कि इस 'हर्यक' शब्द का 'हयंग' शब्द से तुक बैठाने का कोई कारण नहीं है।
२-महावंस में इस कुल के लिए 'हर्यक-कुल' शब्द का उल्लेख नहीं .है । वहाँ इस कुल के लिए शिशुनाग-वंश ही लिखा है।
३–इस वंश का उल्लेख मंजुश्रीमूलकल्प में भी है, परन्तु उसमें उसके कुल के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा गया है। 1-नाश्चर्यमतेद्भवतो विधानं जातस्य हर्यक कुले विशाले । यन्मित्रपक्षे तव मित्र काम स्याद्रुत्तिरेषा परिशुद्धवृत्त ।
-बुद्धचरित्र, सर्ग ११, श्लोक २ २-बुद्धचरित्र, भाग २, पृष्ठ १४९
३-पोलिटिकल हिस्ट्री आव ऐंशेट इण्डिया (पाँचवाँ संस्करण) पृष्ठ ११६.
४-महावंस ( बम्बई-विश्वविद्यालय ) परिच्छेद २, गाथा २७-३२ पृष्ठ १०, परिच्छेद ४ गाथा १-५ पृष्ठ १४
५-इम्पीरियल हिस्ट्री आव इण्डिया ( मंजुश्रीमूलकल्प, के० पी० जायसवाल-सम्पादित ), पृष्ठ १०-११
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भक्त राजे
६२३ जैन साहित्य में
पर, जैन-साहित्य में श्रेणिक को वाहीक-कुल' का बताया गया है । यहाँ प्रयुक्त 'कुल' शब्द को समझने में लोगों ने भूल की और इस कारण जब 'वाहीक' का अर्थ नहीं लगा तो जैन-विद्वानों और ऐतिहासिकों दोनों ही ने इस उल्लेख की ही उपेक्षा कर दी।
(१) 'कुल' शब्द की टीका करते हुए 'अमरकोष' की भानुजी दीक्षित की टीका में लिखा है :
कुलं जनपदे गोत्रे सजातीयगणेऽपि . .
इसका यह अर्थ हुआ कि 'कुल' शब्द से तात्पर्य जनपद से है। जहाँ का यह वंश मूल निवासी था।
२-प्रोफेसर वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी के गोडे-कर्वे-सम्पादित वृहत् संस्करण में कुल का एक अर्थ 'रेसिडेंस आव अ फैमिली' लिखा है। और, इसके प्रमाण स्वरूप दो प्रमाण भी दिये हैं। १-ददर्श धीमान्स कपिः कुलानि
-रामायण, ५, ५, १०
१-(अ) आवश्यकचूर्णि, उत्तरार्द्ध, पत्र १६५
(आ) आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र ६७७-१ (इ) चेटकोऽप्य ब्रवीदेवमनात्मज्ञस्तवः । वाहीक कुलजो वाञ्छन् कन्यां हैहय वंशजां ॥२२६॥
–त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ६, पत्र ७८ (ई) परिभाविऊण भूवो भणेइ कन्नं हेहया अम्हे । वाहिय कुलंपि देभो जहा गयं जाह तो तुब्भे । ११०
-उपदेशमाला दोधट्टी टीका, पत्र ३३९. २-अमरकोष, निर्णय सागर प्रेस, १९२९, पृष्ठ २५० ३-भाग १, पृष्ठ ५८६.
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६२४
तीर्थंकर महावीर २-वसन्नृषि कुलेषु
-रघुवंश १२, २५. और, उसके आगे चलकर उसका एक अर्थ 'कण्ट्री' (देश-जनपद) भी दिया है।'
(३) राजेन्द्राभिधान, तृतीय भाग में कुल शब्द का अर्थ 'जनपदे', 'देश' भी दिया है।
(४) शब्दार्थ-चिन्तामणि में भी 'कुल' का अर्थ 'जनपदे' दिया है। (५) शब्द स्तोम महानिधि में 'कुल' का अर्थ 'देशे' लिखा है।
इससे स्पष्ट है कि यहाँ 'कुल' शब्द का अर्थ जनपद है और 'वाहीक कुल' उस जनपद का द्योतन करता है, जहाँ का यह वंश मूलतः रहनेवाला था । 'वाहीक' का उल्लेख महाभारत में निम्नलिखित रूप में आया है:(अ) पंचानां सिन्धुषष्ठानां नदीनां येऽन्तराश्रितः ।
__ वाहीका नाम ते देशाः.......। महाभारत ( गीता प्रेस ) कर्ण पर्व, अ० ४४, श्लोक ७, पृष्ठ ३८९३ (आ) उसी पर्व में अन्यत्र उल्लेख आया है:
वाहिश्च नाम होकश्च विपाशायां पिशाचकौ । तयोरपत्यं वाहीकाः नैषा सृष्टि प्रजापतेः ॥
१-वही, कालम २. २-राजेन्द्राभिधान, भाग ३, पृष्ठ ५९३. ३-शब्दार्थ चिन्तामणि, प्रथम भाग, पृष्ठ ६३६.
४-शब्दस्तोम महानिधि, तारानाथ तर्कवाचस्पति भट्टाचार्यसम्पादित, पृष्ठ ११६.
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भक्त राजे
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- महाभारत ( गीता प्रेस ) कर्णपर्व अध्याय ४४, श्लोक ४२ पृष्ठ
३८९५ ।
इस जनपद का उल्लेख पतंजलि' ने भी किया है । डाक्टर वासुदेवशरण अग्रवाल ने अपने ग्रंथ 'पाणिनीकालीन भारतवर्ष' में उसकी सीमा के सम्बन्ध में कहा है:
"सिन्धु से शतद्रु तक का प्रदेश वाहीक था । इसके अंतर्गत भद्र, उशीनर, और तिगर्त तीन मुख्य भाग थे । *
इसका उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में भी आता है ।
वंश - निर्णय
ऊपर दिये प्रमाणों के अतिरिक्त 'गर्ग संहिता' ( युगपुराण ) में भी इस वंश को शिशुनाग का ही वंश होना लिखा है:
-
ततः कलियुगे राजा शिशुनागात्प्रजो बली । उदधी (व्यी) नाम धर्मात्मा पृथिव्यां प्रथितो गुणैः ॥
४
अतः स्पष्ट है कि सभी पौराणिक ग्रन्थों में इस वंश को शिशुनाग वंश लिखा है । बौद्ध ग्रन्थों में इसे हर्यक कुल का लिखा है और जैन ग्रन्थों में इस कुल को वाहीकवासी लिखा गया है ।
१-४-२-१०४; १-१-१५; ४ - १०८ - ३५४; ४-२-१२४ । अन्य प्रसंगों के लिए देखिये महाभाष्य शब्दकोष, पृष्ठ ९६८ । २– पाणिनीकालीन भारतवर्ष, पृष्ठ ४२ ।
३--१-७-३८ ।
४–'जरनल आव द' बिहार ऐंड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी, सितम्बर १९२८, वाल्यूम १४, भाग ३, पृष्ठ ४०० । ( हिस्टारिकल डाटा इन गर्ग संहिता )
४०
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६२६
तीर्थकर महावीर 'हरि' शब्द का एक अर्थ 'सर्प' भी होता है।' और 'अंक' का अर्थ 'चिह्न' होता है। अतः शिशुनाग—छोटा नाग-वंश और हर्यक कुल वस्तुतः एक ही लक्ष्य की ओर संकेत करते हैं। नागों के देश का मुख्य नगर तक्षशिला था और तक्षशिला वाहीक-देश में था। अतः जैन-ग्रन्थों में आये 'वाहीक-कुल' से भी उसी ओर संकेत मिलता है।।
शिशुनाग-वंश का उल्लेख अब मूर्ति पर भी मिल जाने से इस वंश के मूल पुरुष के सम्बन्ध में कोई शंका नहीं की जा सकती। एक लेख पर उल्लेख है:
नि भ द प्र श्रेणी अ ज (1) सत्रु राजो (सि) र (१) ४, २० (थ), १० (ड)८ (हि या ह्न) के चिह्न ।
श्रेणी के उत्तराधिकारी स्वर्गवासी अजातशत्रु राजा श्री कूणिक शेगसिनाग मागधों के राजा । ३४ ( वर्ष ) ८ ( महीना ) ( शासन काल) ।
नाम जैन-ग्रन्थों में श्रेणिक के दो नाम मिलते हैं-श्रोणिक और भंभासार ।
श्रेणिक शब्द पर टीका करते हुए हेमचन्द्राचार्य ने अभिधान-चिंतामणि की स्वोपज्ञ टीका में लिखा है:
श्रेणीः कायति श्रेणिको मगधेश्वरः १-आप्टेज संस्कृत-इंग्लिश-डिक्शनरी, भाग ३, पृष्ठ १७४९ । २-वही, भाग १, पृष्ठ २२ ।
३-'जनरल आव द' बिहार ऐंड उड़ीसा रिसर्ज सोसाइटी । दिसम्बर १९१९, वाल्यूम ५, भाग ४, पृष्ठ ५५० ।। : ४-'श्रेणिकस्तु भंभासारो'-अभिधान चिंतामणि, मयंकांड, श्लोक ३७६, पृष्ठ २८५ ।
५-वही ।
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६२७ — जो श्रेणी का अधिपति है और श्रेणी को संग्रह करता है, वह श्रेणिक है | जैन-ग्रन्थों में श्रेणियों की संख्या अठारह बतायी गयी है । ' और, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति की टीका में उन्हें इस प्रकार गिनाया गया है:
अष्टादश श्रेणयश्चेमा :- "कुंभार १, पट्टइल्ला २, सुवण्णकारा ३, सूवकारा य ४ । गंधव्वा ५, कासवगा ६, मालाकारा ७, कच्छकरा८ ॥ १ ॥ तंबोलिया ६ य ए ए नवप्पयारा य नारुश्रा भणिना । अह णं णवप्पयारे कारुवराणे पवक्खामि ॥ २॥
चम्मरु १, जंतपीलग २, गंछित्र ३, छिपाय ४, कंसारे ५, य । सीवग ६, गुनार ७, भिल्ला ८, धीवर ६, वरणइ अट्ठदस ॥ ३ ॥
●
-१ कुम्हार, २ रेशम बुनने वाला, ३ सोनार, ४ रसोईकार, ५ गायक, ६ नाई, ७ मालाकार, ८ कच्छकार ( काछी ), ९ तमोली, १० मोची, ११ तेली ( जंतपीलग ), १२ अंगोछा बेचने वाले ( गंछी ), १३ कपड़े छापने वाले, १४ ठठेरा ( कंसकार ), १५ दर्जी ( सीवग ), १६ ग्वाले (गुआर ), १७ शिकारी ( भिल्ल ), १८ मछुए ।
डाक्टर जगदीशचंद्र जैन ने ' पट्टइल्ल' से गुजराती शब्द 'पटेल' का अर्थ लिया है । यही अर्थ हरगोविंददास टी० सेठ ने अपने कोष 'पाइअसद्दमहण्णवों' में दिया है। सुपासनाह चरिय में पट्टइल्ल का संस्कृत रूप 'प्रदेश' दिया है ।' पर, यह उनकी भूल है । 'पट्ट' शब्द जैन तथा अन्य
सेणीप्पणी - ज्ञाताधर्मकथा,
१ – 'अट्ठारस
पत्र ४० ।
२ - जम्बूद्वीप प्रज्ञति सटीक, वक्षस्कार ३, पत्र १९३ ! ३ - लाइफ इन ऐंशेंट इण्डिया, पृष्ठ १०६ ।
४ - पाइअसद्द महण्णवो, पृष्ठ ६३२ ।
५ - सुपासमाहचरियं, पृष्ठ २७३,३६१
•
भाग
1
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तीर्थकर महावीर धर्मों की पुस्तकों में रेशमी कपड़े के लिए प्रयुक्त हुआ है । अणुयोगद्वार सटीक सूत्र ३७, वृहत्कल्पसूत्र सटीक विभाग ४, गाथा ३६६२, पृष्ठ १०१८, आचारांग सटीक श्रु० २, चूलिका १, अध्याय १४, गाथा ३८८ पत्र ३६१-२ आदि प्रसंगों से स्पष्ट है कि 'पट्ट' का अर्थ क्या है। ____ बौद्ध-ग्रन्थ 'महावस्तु' में भी श्रेणियों के नाम गिनाये गये हैं:१ सौवर्णिक, २ हैरण्यिक, ३ चादर बेचने वाले (प्रावारिक ), ४ शंख का काम करने वाले (शांखिक), ५ हाथी दाँत का काम करने वाले (दन्तकार), ६ मणिकार, ७ पत्थर का काम करने वाले, ८ गंधी, ९ रेशमी कपड़े वाले, १० ऊनी कपड़े वाले (कोशाविक ), ११ तेली, १२ घी बेचने वाले (घृतकुंडिक), १३ गुड़ बेचने वाले ( गौलिक), १४ पान बेचने वाले ( बारिक ), १५ कपास बेचने वाले (कार्पासिक) १६ दही बेचने वाले ( दध्यिक), १७ पूये बेचने वाले (पूयिक), १८ खांड बनाने वाले (खंडकारक ), १९ लड्डू बनाने वाले (मोदकारक), २० कन्दोई ( कण्डुक), २१ आटा बनाने वाले ( सपितकारक), २२ सत्त, बनाने वाले ( सक्तुकारक), २३ फल बेचने वाले (फलवणिज), २४ कंदमूल बेचने वाले (मूलवाणिज), २५ सुगंधित चूर्ण और तैल बेचने वाले, २६ गुड़पाचक, २७ खांड बनाने वाले, २८ सोट बेचने वाले, २९ शराब बनाने वाले ( सीधु कारक) ३० शक्कर बेचने वाले (शर्कर वणिज ) ।
श्रेणियों की संख्या १८ ही बौद्ध-ग्रंथों में भी बतायी गयी
१-पट्टे-त्ति पट्टसूत्रं मलयम्-पत्र ३५-१ । २-'पत्ति पट्टसूत्रजम् । ३-पट्टसूत्र निष्पन्नानि पट्टानि । ४-महावस्तु भाग ३, पृष्ठ ११३ तथा ४४२-४४३ ।
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है।' श्रेणियों का उल्लेख करते हुए डाक्टर रमेशचंद्र मजूमदार ने 'कार. पोरेट लाइफ इन ऐंशेंट इंडिया' में लिखा है कि ये १८ श्रेणियाँ कौन थीं, यह बताना सम्भव नहीं है। यदि डाक्टर मजूमदार ने जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति देखी होती तो उनकी कठिनाई दूर हो गयी होती । कहीं एक साथ श्रेणियों का उल्लेख न पा सकने के कारण श्री मजूमदार ने अपनी पुस्तक में विभिन्न स्थलों से एवं संगृहीत श्रेणियों की एक स्वतंत्र तालिका दो है । हम वह तालिका नीचे दे रहे हैं। ( साथ ही कोष्ठ में उनका संदर्भ भी दिया है)
१ लकड़ी पर काम करने वाले ( जातक ६, पृष्ठ ४२७), २ धातुओं का काम करने वाले ( वही), ३ पत्थर का करने वाले, ४ चमड़े का काम करने वाले (वही), ५ हाथी दाँत पर काम करने वाले ६ आदेयांत्रिक (नासिक-इंस्कृप्शन, ल्यूडर्स, ११३७ ), ७ वासकार (जुन्नार-इंस्कृष्शन, ल्यूडस ११६५), ८ कसकार ( वही ) ९ जौहरी, १० जुलाहे ( ना० ई० ११३३), ११ कुम्हार (ना० इ० ११३७ ), १२ तेली ( वही ), १३ टोकरी बनाने वाले, १४ रंगरेज, १५ चित्रकार (जातक ६, पृ० ४२७ ) १६ धान्निक (जु० इ०, ११८० ), १७ कृषक (गौतम-धर्मसूत्र ९, २१), १८ मछवाहे, १९ पशु वध करने वाले २० नाई २१ माली
१-मूगपक्ख जातक। जातक के हिन्दी-अनुवाद, भाग ६. पृष्ठ २४ में भदंत आनंद कौसल्यापन ने सेणी का अर्थ 'सेना' कर दिया है । यह उनकी भूल है । बंगला-अनुवाद ठीक है उसमें वर्ण तथा श्रेणी ठीक रूप में लिखा है (देखिये जातक का बंगला अनुवाद, भाग ६, पृष्ठ १४) यह श्रेणी शब्द वैदिक ग्रंथों में भी आता है। मनुस्मृति ( ८-४२ मेधातिथि टीका, पृष्ठ ५७८ ) में एक कार्यापन्ना वणिक' आया है । यह शब्द श्रीमद्भागवत् में ( स्कंध २, अ० ८, श्लोक १८ गीताप्रेस संस्करण भाग १, पृष्ठ १८३) तथा रामायण ( भाग १, २-२६-१४ पृष्ठ १२२ ) में भी आया है ।
२-कार्पोरेट लाइक इन ऐंशेंट इंडिया, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ १८
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तीर्थंकर महावीर ( जातक ३, ४०५ ), २२ जहाजी ( जातक ४, १३७ ), २३ ढोर चराने वाले ( गौ० ध० सू० ९, २१), २४ सार्थवाह ( वही, जातक १, ३६८; जातक २, २९५ ), २५ डाकू ( जातक ३, ३८८; ४, ४३०), २६ जंगल में नियुक्त रक्षक (जातक २, ३३५), २७ कर्ज देने वाले (गौ० ध० शा० २१ तथा रीसडेविस की बुद्धिस्ट इण्डिया पृष्ठ ९०)
श्रेणिक का नाम श्रेणी का अधिपति होने से ही 'श्रेणिक' पड़ा, यह बात अब बौद्ध-सूत्रों से भी प्रमाणित है। विनयपिटक के गिलगिट-मांस्कृप मैं आता है :
स पित्राष्टादशसु श्रेणीष्ववतारितः। अतोऽस्य श्रेण्यो बिम्बिसार इति ख्यातः।'
'डिक्शनरी आव पाली प्रापर नेम्स' में उसके श्रेणिक नाम पड़ने के दो कारण दिये हैं
महतीया सेनाय समन्नागोतत्त वा सेनिय गोत्त ता वा'
(१) या तो महती सेना होने से उसका नाम सेनिय पड़ा (२) या सेनिय गोत्र का होने से वह श्रेणिक कहलाता था।
जैन ग्रंथों में उसका दूसरा नाम मंभासार मिलता है । इसका कारण स्पष्ट करते हुए त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में कहा गया है कि श्रेणिक जब छोटा था तो एक बार राजमहल में आग लगी । श्रेणिक उस समय भंभा लेकर भागा । तब से उसे भंभासार कहा जाने लगा। ___भंभा बाजे के ही कारण उसका नाम भंभासार पड़ा, इसका उल्लेख
१-इण्डियन हिस्टारिकल काटर्ली, वाल्यूम १४, अंक २, जून १९३८, पृष्ठ ४१५
२-डिक्शनरी आव पाली प्रापर नेम्स, भाग २, पृष्ठ २८९ तथा १२८४
३–त्रिषष्टिशालाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ६, ३लोक १०९-११२ पत्र ७४।२ से ७५।१ तक
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६३१ उपदेशमाला सटीक, ऋषिमंडलप्रकरण', श्री भरतेश्वर-बाहुबलि वृत्ति, आवश्यकचूर्णि आदि ग्रंथों में थोड़े हेर-फेर से है।
'भभा' शब्द पर टीका करते हुए अभिधान-चिंतामणि की टीका में लिखा है
भंभा जय ढक्कैव समारमस्य भम्भासार
और 'भंभा' शब्द का स्पष्टीकरण करते हुए भगवतीसूत्र में आया है :
१–भम्भा भेरीति २-भंभा-ढक्का, भेरी'ति महाढक्का देशीनाम माला में 'भम्भा भेरी" लिखा है और उसकी टीका में 'भम्भा तुर्य विशेषः
लिखा है। शब्दार्थ-चिंतामणि में भेरी का अधिक अच्छा स्पष्टीकरण है :
वितस्ति त्रयदीर्घाताम्रनिर्मिता चर्मच्छन्ना
१-उपदेशमाला सटीक, पत्र ३३४ २-ऋषिमंडल प्रकरण, पत्र १४३-२ ३--श्रीभरतेश्वर बाहुबलिवृत्ति, प्रथम विभाग पत्र २२-२ ४–आवश्यकचूर्णि उत्तरार्द्ध पत्र १५८ ५–अभिधान-चिंतामणि, कांड ३, श्लोक ३७६, पृष्ठ २८५ ६-अभिधान राजेन्द्र, भाग ५, पृष्ठ १३३९ ७-भगवतीसूत्र सटीक शतक ५, उद्देशा ४, पत्र २१७ ८-देशी नाम माला वर्ग ६, श्लोक १०० ९—वही
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तीर्थकर महावार . चतुर्विशत्यंगुलबदनद्वयाभेरोति कश्चित् । अन्तस्तन्त्रोका ढक्का भेरोति स्वामी ॥'
उसका नाम भंभा के ही कारण भंभासार पड़ा, इसका उल्लेख स्थानांग को टीका में भी है :'भंभा' त्ति ढक्का सा सारो यस्य स भंभासारः' और, उपदेशमाला सटीक में भी ऐसा ही आता है सेणिय कुमरेण पुणो जयढक्का कड्ढिया पविसिऊणं । पिऊण तु?णतो, मणिओ सो भंभासारो॥ ऐसा उल्लेख आवश्यकचूर्णि उत्तरार्द्ध पत्र १५८-२ में भी है।
दलसुख मालवणिया ने स्थानांग-समवायांग के गुजराती-अनुवाद में बिम्बिसार लिखा है । पर, श्रेणिक का यह नाम किसी जैन-ग्रन्थ में नहीं मिलता। अपनी उसी टिप्पणी में उन्होंने 'भिंभिसार" नाम दिया है। पाइअसहमहण्णवो में 'भंभसार', 'भिंभिसार' और 'भिभसार तीन शब्द आये हैं । पर ये सब अशुद्ध हैं। हमने ऊपर कितने ही प्रमाण दिये हैं, जिनसे स्पष्ट है कि 'भंभा' शब्द तो है, पर 'भिंभ', 'भिंभि', आदि
१---शब्दार्थचिंतामणि, भाग ३, पृष्ठ ४६६ २-स्थानांग सटीक उत्तरार्द्ध पत्र ४६१-१ ३-उपदेशमाला पत्र ३३४-१ ४-स्थानांग-समवायांग (गुजराती ), पृष्ठ ७४० ५-वही ६-पाइअसहमहण्णवो पृष्ठ ७९४ ७-वही, पृष्ठ ८०७ ८-वही पृष्ट ८०७
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शब्द ही नहीं हैं। रतनचन्द्रजी ने 'अर्धमागधी कोष' में भंभसार शब्द दिया है । वह भी अशुद्ध है।
बौद्ध-ग्रन्थों में श्रेणिक का दूसरा नाम बिंबिसार मिलता है। इसका कारण बताते हुए लिखा है कि सोने सरीखा रंग होने से उसे बिंबिसार कहा जाता था। तिब्बती-ग्रन्थों में आता है कि श्रेणिक की माँ का नाम 'बिम्बि' था। अतः उसे बिम्बिसार कहा जाने लगा। - इन नामों के अतिरिक्त हिन्दू पुराणों में उसके कुछ अन्य नाम विधिसार, विंध्यसेन तथा सुविंदु भी मिलते हैं ।
माता-पिता
जैन ग्रन्थों में श्रेणिक के पिता का नाम प्रसेनजित बतलाया गया है । दिगम्बरों के उत्तरपुराण में आता है :
१-अर्द्धमागधी कोष, वाल्यूम ४, पृष्ठ ४ २-बिम्बि ति सुवण्णाण सार सुवरण सदिस वएणताय
-पाली इंग्लिश डिक्शनरी, पृष्ठ ११० ३-महिप्यां बिम्बास्तनयः अतो अस्य बिम्बिसार इति नाम कार्यम् ___-इंडियन हिस्टारिकल कार्टली, वाल्यूम १४, अंक २, पृष्ठ ४१३
४-श्रमद्भागवत, सानुवाद स्कंध १२, अध्याय १, पृष्ट ९०३ (गोरखपुर)
५-भारतवर्ष का इतिहास-भगवदत्त-लिखित पृष्ठ २५२ ६-वही ७-पुहईस पसेणइणो, तणुबभवो सेणियो अासि
-उपदेश माला सटीक, पत्र ३३३ इसके अतिरिक्त यह उल्लेख आवश्यकचूर्णि, उत्तराद्ध पत्र १५८, आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति पत्र ६७१-१, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक १, पत्र ७१-१, ऋषिमंडलप्रकरण पत्र १४३-१ भरतेश्वर बाहुबलि चरित्र, प्रथम विभाग, पत्र २१-१ आदि ग्रन्थों में भी आया है।
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तीर्थकर महावीर सूनुः कुणिकभूपस्य श्रीमत्यां त्वमभूरसौ।
अथान्यदा पिता तेऽसौ मत्पुत्रेषु भवेत्पतिः ॥ --'' 'और यहाँ राजा कुणिक की श्रीमती रानी से तू श्रेणिक नाम का पुत्र हुआ है।' दिगम्बर-पुराण का यह उल्लेख सर्वथा अशुद्ध और इतिहास-विरुद्ध है । कुणिक श्रेणिक का पुत्र था न कि, बाप ! ।
पर, दिगम्बर-शास्त्र और ग्रंथों में भी मतिवैभिन्य है। हरिषेणाचार्य के वृहत्कथा-कोष में श्रेणिक के पिता का नाम उपश्रेणिक और उसकी माता का नाम प्रभा लिखा है।'
अन्य ग्रन्थों में श्रेणिक के पिता के विभिन्न नाम मिलते हैं-भट्टीयो (भट्टीय बोधिस), महापद्म, हेमजित, क्षेत्रौजा, क्षेत्प्रोजा।।
गिलिट मांस्कृष्ट में श्रोणिक के पिता का नाम महापद्म लिखा है।
श्रेणिक के पिता का क्या नाम था, इस सम्बन्ध में अन्य धर्मग्रन्थों में तो मतभेद है, पर श्वेताम्बर ग्रन्थ सर्वथा एक मत से उसका नाम प्रसेनजित ही बताते हैं।
१-उत्तरपुराण, चतुःसप्ततितमं पर्व, श्लोक ४१८, पृष्ठ ४७१ । २-तथास्ति मगधे देशे पुरं राजगृहं परम् ।
तत्रोपश्रेणिको राजा तद्भार्या सुप्रभा प्रभा ॥१॥ तयोरन्योन्यसंग्रीतिसंलग्नमन सोरभूत् । तनयः श्रोणिको नाम सम्यक्त्व कुतभूषणः ॥
-वृहत्कथाकोष, श्रेणिक कथानकम, पृष्ठ ७८. ३–पोलिटिकल हिस्ट्री आव ऐंशेंट इंडिया, (५-वाँ संस्करण) पृष्ठ २०५.
४-इंडियन हिस्टारिकल क्वार्टली, खंड १४, अंक २, पृष्ठ ४१३ ।
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भक्त राजे उनके सम्बन्ध में भरतेश्वर-बाहुबली-वृत्ति में आता है :तत्र तस्य राज्ञो राज्ञीनां शतमभूत । तासां मुख्या कलावती।'
—अर्थात् उस राजा को १०० रानियाँ थीं। जिनमें कलावती मुख्य थी। और, उपदेशमाला सटीक में श्रेणिक की माँ का उल्लेख करते हुए लिखा है :
सिरिवीर सामिणो अग्गभूमिभूयंमि रायगिह नयरे।
आसि पसेणइ राया, देवी से धारिणी नाम ॥१॥ तग्गब्भसंभवो दब्भसुब्भसुब्भरजसोऽभिराम गुणो । पुहईसपसेणइणो तणुब्भवो सेणिो असि ॥२॥
इस गाथा से पता चलता है कि श्रेणिक की माता का नाम धारिणी था।
और, प्रसेनजित के धर्म के संबंध में त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में आता है।
श्रीमत्पार्श्वजिनाधीश शासनांभोजषट्पदः
सम्यग्दर्शन पुण्यात्मा सोऽणुव्रतधरोऽभवत् ॥ -श्रीपार्श्वनाथ प्रभु के शासन-रूप कमल में भ्रमर के समान सयम्कदर्शन से पुण्य हो वे अणुव्रतधारी थे।
राजधानी जैन-ग्रन्थों में आता है कि मगध की प्राचीन राजधानी कुशाग्रपुर १-भरतेश्वर बाहुबली वृत्ति, प्रथम विभाग, पृष्ठ २१-१ । २-उपदेश माला सटीक, पत्र ३३३ ।
३-त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक ८, पत्र ७१-१
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६३६
तीर्थकर महावीर थी।' कुशाग्रपुर का उल्लेख मंजुश्रीमूलकल्प' (बौद्ध-ग्रन्थ ) और छैनसांग के यात्रा-ग्रंथ में भी आया है ।
जैन-ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि आग लगने से कुशाग्रपुर भस्म हो जाने के बाद उससे एक कोस की दूरी पर राजगृह बसी । उसका नाम राजगृह क्यों पड़ा इसका कारण बताते हुए हेमचन्द्राचार्य ने लिखा है कि पीछे लोग परस्पर पूछते कि कहाँ जा रहे हैं ? तो उत्तर मिलता राजगृह ( राजा के घर ) जा रहा हूँ । इस प्रकार प्रसेनजित राजा ने वहाँ राजगृहनामक नगर बसाया । यह राजगृह बौद्ध-ग्रंथों में बुद्धकाल के ६ प्रमुख
नि
१-तत्थ कुसग्गपुरं जातं, तंमि य काले पसेणइ राया
-आवश्यक चूर्णि, उत्तरार्ध, पत्र १५८ कुशाग्रीयमतिरभूत प्रसेनजिदिलापतिः
–त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र पर्व १०, सर्ग ६, पत्र ७१-१ इसी प्रकार का उल्लेख ऋषिमंडलप्रकरण पत्र १४३-१, आदि ग्रन्थों में भी है।
२-ऐन इम्पीरियल हिस्ट्री आव इंडिया, मंजुश्रीमूलकल्प, पृष्ठ १७
३-'आन युवान् च्याङ् ट्रैवेल्स इन इंडिया' ( वाटर्स कृत अनुवाद भाग २, पृष्ठ १६२ ४-इति तत्याज नगरं तद्राजा सपरिच्छदः । क्रोशेनैकेन च ततः शिविरं स न्यवेशयत ॥ ११ ॥
–त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, प० १०, स० ६, पत्र ७५-१ ५-(अ) सञ्चरन्तस्तदा चैवं वदन्ति स्म मिश्रो जनाः ।
क्वनु यास्य श्र यास्यामो वयं राजगृहं प्रति ॥ ११६ ॥
-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ६, पत्र ७५-१ (आ) कश्चित् पृच्छति यासिक्व ? सोऽवग् राजगृहं प्रति ।
आगतोऽसि कुतश्चान्यः ? सोऽवग राजगृहादिति ॥२६॥
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भक्त राजे
६३७ नगरों में गिना जाता था। और, जैन-ग्रन्थों में इसकी गणना १० प्रमुख राजधानियों में की गयी है। ___ मगध की राजधानी के रूप में कई नगरों के बसाये जाने का उल्लेख जैन-ग्रंथों में मिलता है । विविधतीर्थ कल्प में जिनप्रभसूरि ने 'वैभारगिरिकल्प' मैं उन सब नामों का उल्लेख किया है :
क्षितिप्रतिष्ठ चणकपुर-र्षभपुराभिधम् ।
कुशाग्रपुर सहं च क्रमाद्राजगृहाह्वयम् ॥ ऋषिमंडलप्रकरण में अधिक विस्तृत रूप में इसका उल्लेख आया है :
अतीतकाले भरतक्षेत्रे क्षत्रकुलोद्भवः । जितशत्रुरभूद् भूपः, पुरे क्षितिप्रतिष्ठिते ॥१॥ कालात् तत्पुरवास्तूनां क्षयाद् वास्तु विशारदैः। पश्यद्भिश्चनकक्षेत्रं दृष्टं फलित-पुष्पितम् ॥ २॥ तत्राऽऽसीत् चनकपुरं कालाद् वास्तुक्षयात् पुनः ।
वास्तु विद्भिर्वने दृष्टो, बलिष्टो वृषभोऽन्यदा ॥३॥ (पृष्ठ ६३६ की पादटिप्पणि का शेषांश) ततो राजगृहाख्यं-तत्, पुरं कालान्तरेऽभवत् ।
...................|| -ऋषिमण्डल प्रकरण वृत्ति, पत्र १४३-२
(इ) कहिं वञ्चह ? श्राह रायगिह, कतो एह ? रायगिहातो, __ एवं नगरं रायगिहं जातं ।
-आवश्यक चूर्णि, उत्तरार्द्ध, पत्र १५८ १-डिक्शनरी आव पाली प्रापर नेम्स, भाग २, पृष्ठ ७३३ २-स्थानांग सूत्र सटीक ठाणा १०, उ०, सूत्र ७१८ पत्र ४७७-२ ३-विविध तीर्थकल्प, पृष्ठ २२
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तीर्थकर महावीर स जीयते वृषैर्नान्यः शूरः क्षेत्रवशात् ततः । तत्रर्षभपुरं न्यस्तमात्मानो वृद्धि मिच्छुभिः ॥ ४॥ क्रमात् तस्मिन्नपि क्षीणे कुशस्तम्बाङ्किताऽऽस्पदे । समस्त वस्तुविस्तीर्ण न्यस्तं कुशाग्रपत्तनम् ॥ ५॥'
श्रेणिक का परिवार पत्नियाँ - बौद्ध-ग्रंथों में श्रेणिक को ५०० पत्नियाँ बतायी गयी हैं, पर जैनग्रन्थों में उसकी २५ रानियों के उल्लेख मिलते हैं। अन्तगडदसाओ में उसकी निम्नलिखित रानियों के उल्लेख है :
१ नंदा, २ नंदमई, ३ नंदुत्तरा, ४ नंदिसेणिय, ५ मरुय, ६ सुमरुय, ७ महामरुय, ८ मरुदेवा, ९ भद्दा, १० सुभद्दा, ११ सुजाया, १२ सुमणा, १३ भूयदिण्णा ।
-अन्यत्र आता है।
४-काली, सुकाली, महाकाली, कण्हा, सुकण्हा, महाकण्हा, वीरकण्हा, य बोधव्वा रामकण्हा तहेव य ।। पिउसेण कण्हा नवमो दसमी महासेण कण्हा य ।
-अंतगडदसाओ, म० च० मोदी सम्पादित,
१-ऋषिमण्डल प्रकरण वृत्ति, पत्र १४३-१ २–महाबग्गा ८-१-१५ ३-नंदा तह नंदवई नंदुत्तर नंदिसेणिया चेव ।
मरुय सुमरुय महसरुय मरुदेवा य अट्ठमा । भद्दा य सुभद्दा य सुजाया सुमणा वि य भूयदिण्णा य बोधवा सेणिय भज्जाणं नामाई ॥ -अंतगडदसाओ, सत्तमवग्ग, म० च० मोदी-सम्पादित पृ० ५२
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भक्त राजे
६३६ उसी ग्रन्थ में अन्यत्र उसकी १० अन्य रानियों की चर्चा है :
-१४ काली, १५ सुकाली, १६ महाकाली, १७ कण्हा, १८ सुकण्हा, १९ महाकण्हा, २० वीरकहा, २१ रामकण्हा, २२ पिउसेणकण्हा, २३ महासेणकण्हा ।
इनके अतिरिक्त श्रोणिक की एक पत्नी वैशाली के राजा चेडग की पुत्री चेल्लणा थी । इसका विवाह कैसे हुआ इसकी विस्तृत चर्चा आवश्यक चूर्णि उत्तरार्द्ध', त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, उपदेशमाला , आदि कितने ही जैन-ग्रन्थों में आती है । विवाह के प्रस्ताव पर चेडग ने श्रेणिक को अपने से नीच कुल का कहकर इनकार कर दिया था। इस पर अपने पुत्र अभय की सहायता से श्रेणिक ने चेल्लणा को चेटक के महल से निकलवा लिया। इसी चेल्लणा का पुत्र कूणिक बाद में राजगृह की गद्दी पर बैठा । __निशीथचूर्णि में श्रेणिक की एक पत्नी का नाम अपतगंधा आया है।
नंदा से श्रेणिक के विवाह का भी बड़ा विस्तृत वर्णन जैन-ग्रंथों में मिलता है । जब श्रेणिक भागकर वेन्नायड ( वेण्णातट ) चला गया था तो वहीं उसने नंदा से जो एक व्यापारी की पुत्री थी, विवाह कर लिया
१-आवश्यकचूर्णि उत्तराद्ध पत्र १६४-१६६ । २-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक १८६-२२६। ३-उपदेशमाला सटीक पत्र ३३८-३४०।।
४-यह 'कूणिक' शब्द 'कूणि' से बना है। आप्टेज संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी, भाग १, पृष्ठ ५८० में 'कूणिका' अर्थ 'हिटलो' दिया है। बचपन में कूणिक की उँगली में जख्म होने से लोग उसे कूणिक कहने लगे।
५-निशीथचूर्णि सभाष्य, भाग १, पृष्ठ १७ ।
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૪૦
तीर्थंकर महावीर
था । वह गर्भवती थी तभी श्रेणिक राजगृह वापस लौट आया । और, बाद में उसके पिता नंदा को राजगृह पहुँचा गये। इसी नंदा से अभयकुमार का जन्म हुआ जो कालान्तर में श्रेणिक का प्रधानमंत्री बना ।
वेण्णातट
यहाँ वेण्णातट का प्रसंग आया है तो उसकी भी पहचान कर लेनी चाहिए । खारवेल के हाथीगुम्फा - शिलालेख में 'कन्हवेंणा" नाम आया है । इसके अतिरिक्त मारकंडेय पुराण में वेण्या शब्द आया है । उस स्थल पर पादटिप्पणि में पार्जिटर ने विभिन्न पुराणों में आये इसके नामों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि इस नदी का नाम महाभारत वनपर्व, अध्याय ८५, श्लोक १८० १, भीष्म पर्व अ०९, ३३५, अनुशासन पर्व १६५, ७६४७, हरिवंश १६८, ९५०९-११ में आया है । पार्जिटर द्वारा दिये गये उपर्युक्त प्रसंगों के अतिरिक्त इस नदी का उल्लेख भागवत पुराण ( ५, : १९, १८ ), वृहत्संहिता ( १४-४ ), योगिनीतंत्र ( २-५ पृष्ठ १३९-१४० ), रामायण किष्किंधाकाण्ड ४१-९, अग्निपुराण अध्याय ११८ आदि ग्रन्थों में आया है ।
१ - आवश्यकचूर्णि, पूर्व भाग, पत्र ५४६ ।
२ - आलाजिकल सिरीज आव इंडिया, न्यू इम्पीरियल सिरीज, वाल्यूम ५१, लिस्ट आव ऐंसेंट मानूमेंट्स इन द' प्राविंस आव बिहार ऐंड उड़ीसा, मौलवी मुहम्मद हमीद कुरैशी - लिखित, १९३१ ई०,
पृष्ठ २६५ ।
प्राचीन भारतवर्ष समीक्षा, आचार्य विजयेन्द्रसूरि लिखित ( अप्रकाशित) पृष्ठ २ ।
३~मारकण्डेय पुराण- एफ० ई० पार्जिटर-कृत अनुवाद, १९०४, पृष्ठ ३०० ।
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भक्त राजे
૩૪
संखपाल - जातक में वर्णित कण्ह पेण्णा नदी भी वस्तुतः वही है । और, इसी को खारवेल के शिलालेख में कण्हवेण्णा कहा और वेण्णा दोनों नदियों के मिल जाने के बाद उसकी लिए कृष्णवेणी' तथा कण्णवण्णा, कण्णपेण्णा या कृष्णवेर्णा जैन ग्रन्थों में जिस रूप में यह वेण्णा शब्द मिलता है, ठीक उसी रूप में वह भागवत महापुराण में भी है।
૪
इस नदी की पहचान पहले महाराष्ट्र के भंडारा जिले में मिलने वाली वेण्णा ( वेण गंगा ) से की जाती थी; पर अब विद्वत्-समाज इस बात पर एकमत है कि कण्ण वेण्णा वस्तुतः कृष्णा नदी ही है, जो बम्बई प्रांत के सतारा जिले में महाबलेश्वर स्थान के उत्तर खड़ी पहाड़ी के नीचे एक मंदिर के कुण्ड के गोमुख से निकली है । और दक्षिण भारत के पठार पर से बहती हुई, पूर्वी घाट पार करके बंगाल की खाड़ी में गिरी है ।
गया है । ' कृष्णा
संयुक्त धारा के नाम आया है ।
खारवेल के शिलालेख में कृष्णा-वेण्णा के तट पर मूसिक नगर स्थित होने का उल्लेख है । कृष्णा की एक सहायक नदी मूसी भी है; जिसके तट पर हैदराबाद बसा है । अतः कल्पना करनी चाहिए कि मूषिक नगर मूसी और कृष्णा के संगम के आस ही पास रहा होगा ।
१ — हिस्टारिकल ज्यागरैफी आय ऐंशेंट इंडिया, पृष्ठ १६८ । २– द ज्यागरैफिकल डिक्शनरी, नंदलाल द- सम्पादित पृष्ठ १०४ । ३ – भारतीय इतिहास की रूपरेखा, भाग २, पृष्ठ ७१७ । ४ - वही, भाग २, पृष्ठ ७१६-७१७ ।
ज्यागरैफिकल डिक्शनरी, पृष्ठ १०४ । हिस्टारिकल ज्यागरैफी, पृष्ठ १६८ । इपिग्राफिका इ ंडिका, वाल्यूम २०, संख्या
५ - भारत की नदियाँ, पृष्ठ १२४ । ६—हिस्टारिकल ज्यागरैफी आव इंडिया, पृष्ठ १६८ ।
४१
७, पृष्ठ ८३ ।
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કર
तीर्थकर महावीर
वेण्णा की स्थिति का स्पष्टीकरण करते हुए जैन ग्रन्थों में आता है आभीर विसर कण्हाए वेण्णाए '
'वेण्णायड' वेण्णा के तट पर था, इसका अधिक स्पष्ट उल्लेख मूलदेव की कथा से हो जाता है । उसमें आता है कि एक सार्थवाह फारस से जहाज में माल भर कर वहाँ आता है । इससे स्पष्ट है कि यह वेण्णातट जहाँ समुद्र में कृष्णानदी मिलती है, स्थित रहा होगा । मंडित चोर के - प्रकरण में भी इस नगर का उल्लेख है ।
इस नदी का नाम प्राकृत ग्रन्थों में कण्ह वेण्णा आया है । 'कण्ह' से 'संस्कृत रूप 'कृष्ण' तो ठीक हुआ; पर 'वेण्णा' शब्द को संस्कृत रूप देने में - सभी ने भूल की है। भागवत में वह प्राकृत- सरीखा ही 'वेण्णा' लिख दिया है"; पर अन्य पुराणों के लिपिकारों ने 'ण्ण' की प्रकृति पर ध्यान दिये बिना ही एक 'ण' लिखकर उसे 'वेणा' बना दिया । पर, 'ण' ही ठीक है, यह बात शिलालेख, जातक, जैनग्रन्थों और भागवत से सिद्ध है । प्राकृत शब्द 'वण्ण' का संस्कृत रूप 'वर्ण' होता है, 'कण्ण' का संस्कृत रूप 'कर्ण' होता है । अतः वेण्णा का संस्कृत रूप वेर्णा होगा वेण्णा नहीं ।
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इस कण्हा-वेण्णा का उल्लेख भाष्य अवचूरी सहित पिंडनियुक्ति में आया है । 'कण्हा-वेण्णा' पर टीका करते हुए उसमें उल्लेख आया है :
१- आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र ४१२-२
२ – उत्तराध्ययन नेमिचंद्रसूरि की टीका पत्र ६४-२ हिन्दू टेल्स मेयर - लिखित पृष्ठ २१५-२१६ ३ – 'षट्खंडागम' में पाठ आता है.. अंध विसयवेण्णायणादो पेसिदा ..... इससे भी हमारी कल्पना की पुष्टि हो जाती है ।
४ -- उत्तराध्ययन नेमिचंद्र की टीका, पत्र ९५ - १ ५ - हिस्टारिकल ज्यागरैफी आव ऐंशेंट इंडिया, पृष्ठ १६८
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६४३
भक्त राजे अचलपुरप्रत्यासन्ने द्वै नद्यौः'
इस अचलपुर का उल्लेख नन्दिसूत्र की स्थविरावलि में भी है। और, ऐसा ही उल्लेख कल्पसूत्र की सुबोधिका टीका में भी है।
__ इस आभीर-देश की स्थिति का स्पष्टीकरण वृहत्कथा-कोष में निम्नलिखित रूप में है :
तथास्ति वसुधासारो दक्षिणा पथ गोचरः।। आभीर विषयो नाम धन-धान्य समन्वितः॥४
-अर्थात् यह आभीर विषय दक्षिणा पथ में था। इनके अतिरिक्त जैन-ग्रंथों में भंभास.र को एक और पत्नी का नाम आता है-धारिणी । उसका पुत्र मेघकुमार था, जो बाद में साधु हो गया।
१-पिंडनियुक्ति भाष्य सहित, पत्र ९२-२ २-नन्दिसूत्र, गाथा ३२, पत्र ५१-१ ३-कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, पत्र ५१३ ४-हरिषेणाचार्य-रचित वृहत्कथा कोष, पृष्ठ ३२६ ५----तस्स णं सेणियस्स रन्नो धारिणी नामं देवी होत्था
-ज्ञाताधर्मकथा, प्रथम भाग, पत्र १४-१ श्रा-तत्थ य सेणियनामा नरनाहो जो दढोऽवि सम्मत्ते ।
भिच्छं विप्पडिवन्नो सिरिवीरजिणंदसमएसु ॥३॥ तस्स य रन्नो भञ्जा धारिणी नामा इमा य कइया वि ।
.
.
...
.
..
-भवभावना, उत्तरार्द्ध, पत्र ४९० इ-श्रेणिकधारिण्योः सुतो मेघकुमारः
-कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका, पत्र ५५
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तीर्थकर महावीर
अभयकुमार
बौद्ध-ग्रन्थों में अभय को उज्जैनी की एक नर्तकी पद्मावती का पुत्र बताया गया है।' गिलगिट-मांस्कृष्ट, भाग ३ में प्रकाशित 'विनयवस्तु' के आधार पर डाक्टर जगदीशचन्द्र जैन ने नन्दा और आम्रपाली को एक मानने का प्रयास किया है तथा डाक्टर विमलचरण ला ने लिखा है कि, जैन-ग्रन्थों में अभय को आम्रपाली का पुत्र बताया गया है। __पर, ये सभी धारणाएँ निर्मूल हैं। जैन-ग्रन्थों में नन्दा का बड़ा विस्तृत विवरण है। उसके माँ-बाप का और निवासस्थान का उल्लेख है। अतः उनको रहते हुए किसी तरह की शंका निर्मूल है। और, स्थल-स्थल पर यह उल्लेख मिलता है कि, वह नंदा का पुत्र था। नीचे हम कुछ प्रमाण दे रहे हैं:
१-तस्सणं सेणियस्स पुत्ते नंदाए देवीए अत्तए अभयं नाम कुमारे होत्था
___-ज्ञाताधर्मकथा सटीक, प्रथम विभाग, पत्र १२ २-तस्स णं सेणियस्स रन्नो नन्दाए देविए अत्तए अभयं नाम कुमारे होत्था .
–निरयावलिका ( गोपाणी-चौकसी-सम्पादित ) पृष्ठ ८ . ३-सुनन्दा पुत्रमसूत । तस्याभयकुमार इति नाम ददौ ।
-भरतेश्वर-बाहुबल-वृत्ति, प्रथम भाग, पत्र ३७-२ इनके अतिरिक्त निम्नलिखित स्थानों पर भी अभय को नंदा का पुत्र बताया गया है :
१-डिक्शनरी आव पाली प्रापर नेम्स, भाग १, पृष्ठ १२७ २–लाइफ इन ऐंशेंट इण्डिया, पृष्ठ ३७९ की पादटिप्पणि १२ ३-ट्राइब्स इन ऐशेंट इण्डिया, पृष्ठ ३२८
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भक्त राजे
१ – आवश्यकचूर्णि, प्रथम भाग, पत्र ५४७ - आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र ४१८ - १ ३ – उपदेशमाला सटीक, पत्र ३३५-३३६ ४ - ऋषिमंडल प्रकरण वृत्ति पत्र १४४-१
,
५ – त्रिषष्टिशला कापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक १२०
१४३ पत्र ७५-१–७६-१
जैन-ग्रन्थों में जब स्पष्ट लिखा है कि, अभय कुमार की माता श्रेष्ठीपुत्री थी और उसके पिता वेन्नातट के रहने वाले थे, तो फिर उसका सम्बंध उज्जयिनी अथवा वैशाली से जोड़ना वस्तुतः एक बहुत बड़ी भूल है । और, विमलचरण लाने तो बिला कुछ सोचे-समझे लिख दिया कि, जैन ग्रंथों में अभयकुमार को आम्रपाली का पुत्र लिखा है ।
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पुत्र
जैन-ग्रन्थों में श्रेणिक के पुत्रों का भी बहुत विस्तृत उल्लेख है । 'अणुत्तरोवाइयमुत्त' में उसके निम्नलिखित १० पुत्रों के नाम आये हैं :
१ जाली, २ मयाली, ३ उवयाली, ४ पुरिससेण, ५ वारिसेण, ६ दिहदंत, ७ लट्ठदंत, ८ वेहल्ल, ९ वेहायस, १० अभयकुमार ।'
इनमें से प्रथम ७ धारिणी के पुत्र थे । हल्ल और वेहायस चेल्लणा के थे और अभयकुमार नंदा के ।
१ - जालि मयालि उवयाली पुरिससेणे य वारिसेणे य । दीदंते य लट्ठते य वेहल्ले वेहायसे अभए इ य कुमारे ॥ - अंतगडाणुत्तरोववाइयदसाओ (म० चि० मोदी - सम्पादित ) पृष्ठ ६६ २ -- नवरं छ धारिणी सुश्रा - अणुत्तरोववाइयसुत्त ।
- अंतगडाणुत्तरोववाइयदसाओ ( वही ) पृष्ठ ६८. ३ – हल्ल-वेहायस चेल्लाए - उपर्युक्त ग्रंथ, पृष्ठ ६८. ४ – अभयस्स नाणत्तं रायगिहे नयरे सेखिए राया नंदा देवी
- वही, पृष्ठ ६८.
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तीर्थकर महावीर
उसी ग्रन्थ में श्रेणिक के अन्य १३ पुत्र गिनाये गये हैं :
१ दीहसेण, २ महासेण, ३ लट्ठदंत, ४ गूढ़दंत, ५ सुद्धदंत, ६ हल्ल, ७ दुम, ८ दुमसेण, ९ महादुमसेण, १० सीह, ११ सीहसेण, १२ महासिहसेण, १३ पुण्णसेण ।
निरमावलिया में श्रेणिक के १० अन्य पुत्रों के नाम दिये हैं :१-काली रानी से कालीकुमार ।"
२ – सुकाली रानी से सुकालकुमार । ३ - महाकाली से महाकालकुमार । ४ - कण्हा से कण्हकुमार ।
५ - सुकण्हा से सुकण्हकुमार |
६ – महाकण्हा से महाकण्हकुमार । ७ -- वीरकण्हा से वीरकण्हकुमार | - रामकण्हा से रामकण्हकुमार |
८
९ से कहा से सेणकण्हकुमार |
१० - महासेणकण्हा से महासेणकण्हकुमार ।
१ - दीहसेो महासेणे लट्ठदंते य गूढ़दंते य सुद्धदंते य । हल्ले दुमे दुमसेणे महादुमसे य श्राहिए ।
सी य सीहसेो य महासीहसेणं य आहिए । पुराण सेणे य बोधव्वे तेरसमे होइ अज्कयणे ।
वही, पृष्ठ ६६
२ - तीसेणं कालीए देवीए पुत्ते काले नाम कुमारे होत्था — निरमावलिका ( पी० एल० वैद्य सम्पादित ) पृष्ठ ५
३ - सुकाली नामं देवी होत्था सुकुमाला । तीसे गं सुकालीए देवीए पुत्ते सुकाले नामं कुमारे होत्था अभयरणा नेयव्वा पढमसरिसा, नवरं माया
एवं सेसा हि श्रहि श्र सरिस नामाओ ।
— निरयावलिया ( वैद्य - सम्पादित ), पृष्ठ ३०.
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भक्त राजे
૬૭
चेल्लणा से उसे एक पुत्र था कूणिक | जैन ग्रन्थों में कूणिक का दूसरा नाम अशोकचंद्र' मिलता है ।
इनके अतिरिक्त श्रेणिक के अन्य पुत्र नन्दिषेण का भी उल्लेख जैनग्रन्थों में है ।'
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3
श्रेणिक को धारिणी से एक पुत्री भी थी । उसका नाम सोमश्री था । आवश्यकचूर्णि में आता है कि श्रेणिक ने अपनी एक पुत्री का विवाह राजगृह के कृतपुण्यक सेठ से किया था । कृतपुण्यक ने उसके हाथी सेचनक का प्राण मगर से बचाया था ।
भरतेश्वर बाहुबलि सज्झाय में उसकी एक लड़की का नाम मनोरमा दिया है ।"
जैन-ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है कि श्रेणिक ने अपने प्रधानमंत्री
१ – असोगवण चंद्र उत्ति सोगचंदुत्ति नामं च से कतं, तत्थ य कुक्कुडपिच्छेणं काणंगुली से विद्धा सुकुमालिया, साय पाउणति सा कुणिगा जाता, ताहे से दासा स्वेहिं कतं नामं कुणिश्रोत्ति । —आवश्यक चूर्णि, उत्तर भाग, पत्र १६७
२– त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक ३२०,
पत्र ८२-१
३ - राज्ञा निजपुत्र्याः सोमश्री इति नाम कृतन् ।
- कथा - कोष ( जगदीशलाल शास्त्री - सम्पादित ) पृष्ठ ६० कथाकोष - टानी - कृत अनुवाद पृष्ठ ८२
४ - आवश्यक चूर्णि - भाग १, पत्र ४६८
५ - प्रतिक्रमणसूत्र प्रबोध टीका, भाग २, पृष्ठ ५५८ तथा ५७३ ।
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तीर्थकर महावीर अभयकुमार के परामर्श पर अपनी एक कन्या का विवाह मेतार्यमुनि से किया था।
श्रेणिक को एक बहन थी । उसका नाम सेणा था । एक विद्याधर से उसका विवाह श्रोणिक ने कर दिया था। विद्याधरों ने उसे मार डाला तो उसकी पुत्री श्रेणिक के यहाँ भेज दी गयी। जब वह कन्या युवती हुई तो श्रेणिक ने उसका विवाह अभयकुमार से कर दिया।
श्रेणिक किस धर्म का अवलम्बी था?
श्रोणिक किस धर्म का अवलम्बी था, इस सम्बन्ध में तरह-तरह के विवाद प्रायः होते रहते हैं । बौद्ध-ग्रन्थों में उसे बौद्ध बताया गया है । दलसुख मालवणिया ने 'स्थानांग-समवामांग' के गुजराती-अनुवाद में लिख डाला-"मुझे लगता है कि पहले श्रेणिक भगवान् महावीर का भक्त रहा होगा। पीछे भगवान् बुद्ध का भक्त हो गया होगा। सम्भवतः इसी के फलस्वरूप जैन-कथा-ग्रन्थों में उसे नरक में जाने का उल्लेख मिलता है। पर, जैन-ग्रन्थों में उसका जिस रूप में उल्लेख मिलता है, उससे उसके जैन-श्रावक होने के सम्बन्ध में किंचित् मात्र शंका नहीं रह जाती । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में उसके पिता के सम्बन्ध में आता है ।
१-उपदेश माला सटीक, पत्र २७५ । भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति , प्रथम भाग, पत्र ६०-२ । आवश्यक मलयगिरि-टीका, तृतीय भाग, पत्र ४७८-१ । आवश्यक हारिभद्रीय टीका, पत्र ३६८-२ आवश्यकचूर्णि पूर्वार्द्ध पत्र ४९४ । २-आवश्यकचूर्णि, उत्तरार्द्ध, पत्र १६० । ३--डिक्शनरी आव पाली प्रापर नेम्स, भाग २, पृष्ठ २८५ । ४---स्थानांग-समवायांग (गुजराती), पृष्ठ ७४१ ।
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भक्त राजे
६४६ श्रीमत्पार्श्व जिनाधीशशासनांभोजषट्पदः । सम्यग्दर्शन पुण्यात्मा सोऽणुव्रतधरोऽभवत् ॥' इससे स्पष्ट है कि श्रेणिक का वंश ही जैन श्रावक था ।
जैन-साहित्य में उसके उल्लेख की चर्चा से पूर्व बौद्ध-साहित्य में आये उसके प्रसंग का भी उल्लेख कर दूँ। महावग्ग में आता है कि सम्यक् सम्बुद्ध होने के बाद बुद्ध राजगृह आये तो बुद्ध के उपदेश से प्रभावित होने के बाद श्रेणिक उनसे बोला___"एसाहं भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि, धम्म च, भिक्ख संघं च । उपासकं मं भंते भगवा धारेतु... 'पे० स्वातनाय भत्तंसिद्धि भिक्खुसंघेना ति ।
-महावग्ग, पृष्ठ ३७ । -इसलिए मैं भगवान् की शरण लेता हूँ-धर्म और भिक्षु-संघ की भी। आज से भगवान् मुझे हाथ जोड़ शरण में आया उपासक जानें। भिक्षु-संघ सहित कल के लिए मेरा निमंत्रण स्वीकार करें।
-विनयपिटक (हिन्दी), पृष्ठ ९७ । इस प्रसंग से अधिक-से-अधिक इतना माना जा सकता है कि बीच में वह बौद्ध-धर्म की ओर आकृष्ट हुआ था। पर, वह प्रभाव बहुत दिनों तक उस पर नहीं रहा, यह बात जैन-प्रसंगों से पूर्णतः प्रमाणित है।
उत्तराध्ययन में मंडिकुक्षि-चैत्य में अनाथी ऋषि से श्रेणिक के भेंट होने का उल्लेख आया है । जैन ग्रन्थों में जिसे 'मंडिकुक्षि' कहा गया है, उसका उल्लेख बौद्ध-ग्रंथों में मद्दकुच्छि' नाम से किया गया है। मंडिकुक्षि पर टीका करते हुए उत्तराध्ययन से टीकाकार ने लिखा है
१-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक ८ पत्र ७१-१ । २-राजगहे विहरामि महकुच्छिस्मि मिगदाये
-दीघनिकाय, भाग २, पृष्ठ ९१
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६५०
तीर्थंकर महावीर राजगृहे नगराद् बहिः क्रीडार्थ मण्डित कुक्षि वने
-राजेन्द्राभिधान, भाग ६, पृष्ठ २३ । जैन और बौद्ध दोनों सूत्रों से स्पष्ट है कि, यह वन राजगृह से कुछ दूरी पर था ।
'मंडि' का संस्कृत रूप मंडित होता है। मंडित का अर्थ हुआ'सजाया हुआ-भूषित ( वृहत् हिन्दी कोष, प्रथम संस्करण, पृष्ठ ९९१ ) और कुक्षि का अर्थ हुआ किसी वस्तु का आन्तरिक भाग ( इण्टीरियर आव एनी थिंग आप्टेज संस्कृत-इंग्लिश-डिक्शनरी, भाग १, पृष्ठ ५७७ ) अतः मंडिकुक्षि का अर्थ हुआ कि जिसके अंदर का भाग रमणीक हो ।
इस मंडिकुक्षि में श्रोणिक विहार-यात्रा के लिए गया था। इस 'विहार-यात्रा' को टीका नेमिचन्द्रजी ने इस प्रकार की है :
"विहार यात्रा' क्रीडार्थश्व वाहनिकादि रूपया
जाल काटियर ने स्वसम्पादित उत्तराध्ययन में 'विहार-यात्रा' का अर्थ 'प्लेजर एक्सकरशन' अथवा 'हंटिंग एक्सपिडिशन दिया है। पर, उत्तराध्ययन की किसी भी टीका में 'विहार-यात्रा' का अर्थ 'शिकारयात्रा' नहीं दिया है । और, किसी कोष में भी उसका यह अर्थ नहीं मिलता । हम यहाँ इसके कुछ प्रमाण दे रहे हैं :
१-विहार यात्रा-ए प्लेजर वाक ( महाभारत )
१-'वण' त्ति वनानि नगर विप्रकृष्टानि
-भगवतीसूत्र सटीक भाग १, श० ५, उ० ७, पत्र ४३० . २-उत्तराध्ययन सटीक पत्र २६८-१ । ३-उत्तराध्ययन ( अंग्रेजी-खंड ) पृष्ठ ३५ । ४-मोन्योर-मोन्योर, विलियन्स संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी पृष्ठ
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भक्त राजे
२ -- विहार यात्रा - ए प्लेजर वाक'
यदि प्रोफेसर महोदय ने 'विहार' शब्द पर भी ध्यान दिया होता तो उन्हें यह शंका न हो पाती । शब्दार्थ चिन्तामणि, भाग ४, पृष्ठ ४०३ में 'विहार' का अर्थ दिया है
क्रीडार्थ पद्भयांसञ्चरणे । परिक्रमे । भ्रमणे ।
1
इनमें प्रोफेसर महोदय ने शिकार कैसे जोड़ लिया यह नहीं कहा जा सकता । कार्पेटियर ने 'हंटिंग' के बाद कोष्ठ में कौटिल्य अर्थशास्त्र का नाम लिखा है । कौटिल्य अर्थशास्त्र में १३ - वें अधिकार के २ अध्याय में यात्रा विहार शब्द आया है । वहाँ उल्लेख है :
यात्रा विहारे रमते यत्राक्रीडति वाऽम्भसि
और, जहाँ शिकार का प्रसंग है, वहाँ कौटिल्य अर्थशास्त्र में 'मृगया४ शब्द लिखा है । यदि कार्पेटियर ने 'चैत्य' शब्द पर ध्यान दिया होता तो शिकार - यात्रा की कल्पना ही न उठती ।
3
डाक्टर याकोबी ने उसका ठीक अर्थ 'प्लेजर एक्सकरशन" किया है । इस यात्रा में श्रेणिक ने एक वृक्ष के नीचे एक संयमशील साधु को देखा । और उनके निकट जाकर
तस्म पाए उ वन्दिता, काऊण य पयाहिणं ।
नाइद्रमणासन्ने
पंजली
६५१
पडिपुच्छई ॥
ε
१ - आटेज संस्कृत-इ ंग्लिश डिक्शनरी, भाग ३, पृष्ठ १४८५ । २ - शब्दार्थ चिंतामणि - भाग ४, पृष्ठ ४०३ ।
३ – कौटिल्य अर्थशास्त्र, शामाशास्त्री सम्पादित, पृष्ठ ३९९ । ४ -- वही, पृष्ठ ३२९ ।
५- सेक्रेड बुक्स आव द' ईस्ट, वाल्यूम ४५, पृष्ठ १०० ।
६ - उत्तराध्ययन, नेमिचन्द्र की टीका, अध्ययन २०, गाथा ७,
पत्र २६८- १ ।
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६५२
अति
तोर्थंकर महावीर
-राजा उनके चरणों की वंदना करके, उनकी प्रदक्षिणा करके न और न अति निकट रहकर हाथ जोड़कर पूछने लगा ।
दूर
इस वर्णन से ही स्पष्ट है कि श्रेणिक जैन परम्परा से परिचित था ।
अनाथी ऋषि से उसकी जो वार्ता हुई, उसका विषद वर्णन उत्तरा
१
' में है । और, उस वार्ता के पश्चात् तो
एवं थुणित्ताण स रायसीहो, अणागार सोहं परमाए भत्तिए । सश्रोरोहोय सपरियणो य, धम्मागुरत्तो विमलेण चेयसा ॥ *
- इस प्रकार राजाओं में सिंह के समान श्रेणिक राजा अणगार सिंह मुनि की स्तुति करके परम भक्ति से अपने अंतःपुर के साथ परिजनों और भाइयों के साथ निर्मल चित्त से धर्म में अनुरक्त हो गया ।
मंडिकुक्षि में श्र ेणिक के धर्मानुरक्त होने का उल्लेख डाक्टर राधाकुमुद मुखर्जी ने भी किया है, पर उन्होंने लिखा है कि, वहाँ श्रेणिक की भेंट अणगार सिंह महावीर स्वामी से हुई थी । उत्तराध्ययन में उस ऋषि ने स्वयं अपना परिचय दिया है :
१ – उत्तराध्ययन, नेमिचन्द्र की टीका, अध्ययन २०, पत्र २६७-२
-- २७३-१
२ - वही, अध्ययन २०, गाथा ५८ पत्र २७३ -१
३ - ( अ ) हिन्दू सिविलाइजेशन, पृष्ठ १८७
( आ ) भारतीय विद्याभवन द्वारा प्रकाशित हिस्ट्री ऐंड कलर आव 'द' पीपुल', खंड २ (द' एज आव इम्पीरियल यूनिटी ) में 'द' राइज आव मगधन इम्पीरियलिज्म' पृष्ठ २१
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भक्त राजे कोसंबो नाम नयरी, पुराण पुरभेयणी। .. तत्थ श्रासो पिया मझ पभूयधणसंचओ ॥'
-कौशाम्बी-नामा अति प्राचीन नगरी में प्रभूतसंचय नाम वाले मेरे पिता निवास करते थे।
डाक्टर मुखर्जी ने इस कथन की ओर किंचित् मात्र ध्यान नहीं दिया अन्यथा उनसे यह भूल न हुई होती।
अनाथी मुनि के अतिरिक्त श्रेणिक पर चेल्लणा का भी प्रभाव कुछ कम नहीं पड़ा। वह यावज्जीवन श्रेणिक को जैन-धर्म की ओर आकृष्ट करती रही।
इसके अतिरिक्त महावीर स्वामी से जीवन-पर्यंत श्रेणिक का जैसा सम्बंध था और जिस रूप में वह महावीर स्वामी के पास जाता था उससे भी स्पष्ट है कि उसका धर्म क्या है। महावीर स्वामी के सम्पर्क में पहली बार आते ही वह अवृत्ति सम्यक् दृष्टि श्रावक बन गया।
श्रोणिक के बहुत से निम्नलिखित पुत्र जैन-साधु हो गये थे :
१ जाली, २ मयाली, ३ उववाली, ४ पुरिससेण, ५ वारिसेण, ६ दीहदंत, ७ लहदंत, ८ वेहल्ल, ९ वेहायस, १० अभयकुमार, ११ दीहसेण, १२ महासेण, १३ गूढ़दंत, १४ सुद्धदंत, १५ हल्ल, १६ दुम, १७ दुमसेण
१-उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका, अध्ययन २०, गाथा १८, पत्र २६८-२ ___ २–त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक ३७६ पत्र ८४२
३-अणुत्तरोववाइयदसाओ, पढम वग्ग ( मोदी-सम्पादित) पृष्ठ ६५-६९
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६५४
तीर्थङ्कर महावीर १८ महादुमसेण, १९ सीह, २० सीहसेण, २१ महासीहसेण, २२ पुण्णसेण, २५ मेह
इनमें से अधिकांश श्रेणिक के जीवन-काल में ही उसकी अनुमति लेकर साधु हुए। इन पुत्रों के अतिरिक्त उसकी कितनी ही रानियाँ भी साध्वी हुई थीं । इससे भी स्पष्ट है कि वह किस धर्म का मानने वाला था।
जिनेश्वरसूरि-कृत कथाकोष में उसके सम्बंध में आया है 'जिण सासणाणुरत्तो अहेसि
आवश्यकचूर्णि पूर्वाद्ध पत्र ४९५ में आता है कि, श्रोणिक सोने के १०८ यव से नित्यप्रति चैत्य की अर्चना करता था।
श्रेणिक का अंत साधारणतः इतिहासकार यही मानते हैं कि कूणिक ने श्रोणिक को मार डाला और स्वयं गद्दी पर बैठ गया। पर, जैन-ग्रन्थों में इससे भिन्न कथा है।
जब तक अभयकुमार साधु नहीं हुआ था और प्रधानमंत्री था, तब तक कुणिक की एक नहीं चली । अभयकुमार के साधु होने के बाद कणिक को खुलकर अपना खेल खेलने का अवसर मिला । उसने काली आदि अपने दस भाइयों को यह कहकर मिला लिया कि, यदि मुझे राज्य करने का अवसर मिले तो मैं इस राज्य का उचित अंश तुम सभी को बाँट दूंगा।
१-वही, द्वितीय वग्ग, पृष्ठ ६९-७० २-नायाधम्मकहा अध्ययन १ ३-कथाकोश प्रकरण, पृष्ठ १०४ (सिंधी जैन ग्रंथमाला)
४-सेणियस्स अट्ठसतं सोवरिणयाण जवाण करेति चेतियअच्चणितानिमित्तं
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भक्त राजे
दसों भाई राज्य के लोभ में आ गये । कूणिक ने श्रोणिक को बंदी बना कर पिंजरे में डाल दिया और स्वयं अपना राज्याभिषेक करके गद्दी पर बैठ गया ।
कूणिक ने अपने पिता को भोजनादि का नाना प्रकार से कष्ट दिया; पर चेल्लणा सदा अपने पति की सेवा में लीन रही और छिपा कर श्रेणिक को भोजनादि पहुँचाती रही ।
एक दिन अपने पुत्र-स्नेह का ध्यान करके कृणिक ने अपनी माँ से पूछा-"क्या और कोई अपने पुत्र को इतना स्नेह करता है ?' इस पर माता ने कहा-"पुत्र, तुम्हारे पिता क्या तुम्हें कुछ कम स्नेह करते थे ? बचपन में तुम्हारी उँगली में व्रण था। उससे तुम्हें पीड़ा होती थी। तुम्हारी पीड़ा नष्ट करने के लिए, तुम्हारे पिता तुम्हारी व्रण वाली उँगली मुख में रखकर चूसते थे। इससे तुम्हें सुख होता था ।"
माता द्वारा स्वपितृस्नेह की कथा सुनकर, कुणिक को अपने किये का पश्चाताप होने लगा और कुराँट लेकर अपने पिता का पिंजरा तोड़ने चला ।
श्रोणिक ने कृणिक को कुराँट लेकर आता देखकर समझा कि इस दुष्ट ने अब तक मुझे नाना कष्ट दिये । अब न जाने क्या कष्ट देने आ रहा है । इस विचार से श्रोणिक ने तालपुट विष खाकर आत्महत्या कर ली।
जब कूणिक पिता के पास पहुँचा तो उसे पिता का निर्जीव शरीर मिला । इस पर कुणिक बहुत दुःखी हुआ। पिता के निधन पर कूणिक
१-तालमात्र व्यापत्ति करे उपविषे
___ राजेन्द्राभिधान, भाग ४, पृष्ठ २२२९ तालपुट विषं सद्योघातित्वेन ।
-उत्तराध्ययन, अ० १६, गा० १६, नेमिचन्द्र की टीका पत्र २२४.१
२-आवश्यकचूर्णि, उत्तराद्ध, पत्र १७२
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तीर्थंकर महावोर
को दुखी होने का उल्लेख एक बौद्ध-ग्रन्थ मंजुश्रीमूलकल्प में भी मिलता है ।'
यदि कूणिक ने स्वयं हत्या की होती तो उसे इस प्रकार विलाप करने का कोई कारण नहीं था । इसी आत्मग्लानि के कारण कूणिक ने अपनी राजधानी राजगृह से बदल कर चम्पा कर ली थी।
*
श्रेणिक की मृत्यु की कथा बड़े विस्तार से निरयावलिकासूत्र में आती है ।
यह श्रेणिक मर कर नरक गया और अगली चौवीसी में प्रथम तीर्थकर होगा । इस सम्बंधी स्वयं भगवान् महावीर ने सूचना दी थी ( देखिए, पृष्ठ ५१-५२ ) । नरक जाने का कारण स्पष्ट करते हुए देवविजय गणि-रचित पाण्डवचरित्र ( पृष्ठ १४७ ) में पाठ आता है
मांसात् श्रेणिकभूपतिश्च नरके चौर्याद् विनष्टा न के ?
तद्रूप ही उल्लेख सूक्तमुक्तावलि में भी है । हम उसका पाठ पृष्ठ १५४ पर दे चुके हैं। श्रेणिक का भावी तीर्थङ्कर जीवन विस्तार से ठाणांगसूत्र सटीक ठा० ९, उ० ३ सूत्र ६९३ पत्र ४५८-२ – ४६८-१ में आया है ।
साल
पृष्ठ चम्पा -- - नामक नगर में साल-नामक राजा राज्य करता था । उसका भाई महासाल था । वही युवराज पद पर था । इनके पिता का
१- ऐन इम्पीरियल हिस्ट्री आव इंडिया जयसवाल सम्पादित, मंजुश्री मूलकल्प - ( भूमिका पृष्ठ ९ ), श्लोक १४०-१४५ पृष्ठ ११ २ - आवश्यकचूर्णि, उत्तरार्द्ध, पत्र १७२
३ – यह पृष्ठचम्पा भी चम्पा के निकट ही थी ।
-
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भक्त राजे
नाम प्रसन्नचन्द्र था। उन दोनों भाइयों को यशोमति-नामक बहन थी। उसके पति का नाम पिठर था। यशोमति को एक पुत्र था, उसका नाम गागलि था।
एक बार महावीर स्वामी विहार करते हुए पृष्ठ चम्पा आये। उनके आने का समाचार सुनकर साल और महासाल सपरिवार भगवान् की वंदना करने गये।
भगवान् ने अपनी धर्मदेशना में कहाः
"हे भव्य प्राणियों ! इस संसार में मनुष्य-भव के बिना धर्म-साधन की सामग्री मिलना अत्यन्त कठिन है। मिथ्यात्व अविरति आदि धर्म का प्रबंधक है।
महा आरंभ नरक का कारण है। यह संसार जन्म, जरा, मरण आदि अनेक दुःखों से भरा है। क्रोधादिक कषाय संसार-भ्रमण के हेतु-रूप हैं। उन कषायों के त्याग से मोक्ष-प्राप्ति होती है।”
धर्मदेशना सुनकर दोनों भाई अपने-अपने स्थान पर वापस चले गये ।
घर आने के पश्चात् साल ने अपने भाई महासाल से कहा-"हे भाई ! भगवान् की देशना सुनकर मुझे वैराग्य हो गया है। मैं दीक्षा ग्रहण करने जा रहा हूँ। यह राज्य अब तुम सँभालो।”
इसे सुनकर महासाल बोला-"भाई ! दुर्गति का कारण-रूप यह राज्य आप मुझे क्यों सौंप रहे हैं ? मुझे भी वैराग्य हो गया है। मैं भी आपके साथ दीक्षा ग्रहण करूँगा। मुझे अपने साथ रखकर दुर्गति से मेरा उद्धार करें।"
अतः उन दोनों ने अपने भांजे गागलि को राज्य सौंप कर उत्सव पूर्वक दीक्षा ग्रहण कर ली और भगवान् के साथ विचरते हुए उन दोनों
२-उपदेशपद सटीक गा० ७, पत्र ११६-१ ।
४२
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तीर्थंकर महावीर
मुनियों ने ग्यारहो अंगों का अध्ययन किया । कालान्तर में इन दोनों को केवलज्ञान हो गया ।
सिद्धार्थ
पाटलिषंड - नामक नगर था । उसमें वनषंड नामक उद्यान था, जिसमें
उम्बरदत्त नामक यक्ष का यक्षायतन था ।
उस नगर में सिद्धार्थ - नामक राजा था ।
जब पाटलिषंड-नामक नगर में भगवान् गये तो, सिद्धार्थ भी उनकी वंदना करने गया था ।
सेय
स्थानांग - सूत्र में भगवान् महावीर से दीक्षा लेने वाले ८ राजाओं के नाम मिलते हैं; उनमें एक राजा से भी था । इस पर टीका करते हुए अभय - देवसूरि ने लिखा है:--
सेये आमलकल्पानगर्याः स्वामी, यस्यां हि सूर्याभो देवः सौधर्मात् देव लोकाद् भगवतो महावीरस्य वन्दनार्थमवततार
१ -- उत्तराध्ययन सटीक, अध्ययन १० ।
२ - विपाकसूत्र ( पी० एल० वैद्य - सम्पादित ) श्र० १, पृष्ठ ५१ ।
३ – समणेां भगवता महावीरेणं अट्ठ रायाणो मुंडे मुंडे भवेत्ता आगारात अणगारितं पव्वाविता; तं ० वीरगंय, वीरजसे, संजम ए-ि ज्जते य रायरिसी । सेय सिवे उदायणे [ तह संखे कासिबद्धणे ] ।
1
— स्थानांग सूत्र सटीक, स्थान ८, सूत्र ६२१ पत्र ( उत्तरार्द्ध )
४३०–२ ।
अ० ७,
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भक्त राजे
६५६ नाट्य विधि चोपदर्शयामास, यत्र च प्रदेशिराज चरितं भगवता प्रत्यपादीति'..
इस राजा का उल्लेख रायपसेणी सुत्त में बड़े विस्तार से आता है।
एक समय भगवान् श्रमण महावीर आमलकप्पा नगरी में आये। उस समय आमलकप्पा नगरी में स्थान-स्थान पर शृंगाटक ( सिंघाडग), त्रिक ( तिय ), चतुष्क (चउक्क), चत्वर (चच्चर), चतुर्मुख (चउम्मुह), महापथ ( महापह ) पर बहुत-से लोग, यह कहते सुने गये कि, हे देवानुप्रियो ! आकाशगत छत्र इत्यादि के साथ संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए, भगवान् महावीर यहाँ आये हैं। भगवंत का नाम-गोत्र भी कान में पड़ने से महा फल होता है। उनके पास जाने से, उनकी वंदना करने से, उनके पास जाकर शंकाएं मिटाने से, पर्युपासना-सेवा का अवसर मिले तो बड़ा फल मिलता है।
भगवान् महावीर के आने का समाचार सुनकर उग्र, उग्रपुत्र, भोग, भोगपुत्र, राजन्य, राजन्यपुत्र, क्षत्रिय, क्षत्रियपुत्र, भट, भटपुत्र, योद्धा, योद्वापुत्र, प्रशस्ता, लिच्छिवि, लिच्छिविपुत्र, और अन्य बहुत से मांडलिक राजा, युवराज, राजमान्य अन्य बहुत से अधिकारी जहाँ भगवान् थे वहाँ जाने के लिए निकल पड़े।
१-स्थानांग सूत्र सटीक, स्थान ८, सूत्र ६२१ पत्र ४३१-१ । रायपसेणी में आता है।
[तत्थ णं आमलकप्पाए नयरीए ] सेश्रो राया [...] धारिणी [नामं ] देवी...'
पत्र २३-२७ ।
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तीर्थङ्कर महावीर इसी अवसर पर आमलकप्पा के राजा सेय अपनी रानी धारिणी के साथ वंदना करने गया।'
राजा सेय और देवी धारिणी भगवान् की देशना सुनकर अति आनंदित हुई। उन लोगों ने भगवान् की वंदना करके और नमन करके कितने ही शंकाओं का समाधान किया और भगवान् के यश का गुणगान करते हुए लौटे।
संजय काम्पिल्यपुर नगर में संजय नामका एक राजा रहता था। एक दिन वह सेना और वाहन आदि से सज्ज होकर शिकार के लिए निकला
और घोड़े पर आरूढ़ राजा केसर-नामक उद्यान में जाकर डरे हुए और श्रांत मृगों को व्यथित करने लगा।
उस केसर-उद्यान में स्वाध्याय ध्यान से युक्त एक अनागार परम तपस्वी द्राक्षा और नागवल्ली आदि लताओं के मंडप के नीचे धर्मध्यान कर रहा था। उस मुनि के समीप आये मृगों को भी राजा ने मारा ।
१-तए णं से सेए राया नयणमाला सहस्सेहिं पेच्छिज्जमाणे पेच्छिज्जमाणे जाव सा णं धारिणी देवी जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छिता जाव समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो
आयाहिणपयाहिणं करेंति वंदति णमंसंति सेअरायं पुरो कह जाव विणएस पञ्चलिकडाओ पज्जुवासंति
-रायसेणी, बेचरदास-सम्पादित, सूत्र १०, पत्र ४२ २-तएणं से सेय राया सा धारिणी देवी समणस्स भगवश्री महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्ठ जाव हियया उठाए उ8ति उहिता सुक्खाए णं भन्ते । निग्गन्थे पावयण एवं जामेव दिसिं पाउब्भूयात्रो तामेव दिसिं पडिगयायो ।
-रायपसेणी बेचरदास-सम्पादित, सूत्र ११, पत्र ४३
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भक्त राजे
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घोड़े पर आरूढ़ राजा वहाँ भी आया और उसने जब मरे हुए मृगों के निकट हो उस अनागार को देखा तो मुनि को देख कर वह भयग्रस्त हो गया । राजा अविलम्ब घोड़े से उतरा और मुनि के निकट जाकर उनकी वंदना करता हुआ क्षमायाचना करने लगा ।
उस अनागार ने राजा को कुछ भी उत्तर नहीं दिया। मुनि के उत्तर न देने से राजा और भी भयग्रस्त हुआ और उसने अपना परिचय चताते हुए कहा – “हे भगवन् ! मैं संजय - नामका राजा हूँ । आप मुझे उत्तर दें; क्योंकि कुपित हुआ अनागार अपने तेज से करोड़ो मनुष्यों को भस्म कर देता है । "
राजा के इन वचनों को सुनकर उस मुनि ने कहा - " हे पार्थिव ! तुझे अभय है। तू भी अभय देने वाला हो । अनित्य जीवलोक में तू हिंसा में क्यों आसक्त हो रहा है ?
"हे राजन् ! यह जीवन और रूप जिसमें तू मूर्छित हो रहा है विद्युत्सम्पात के समान अति चंचल है ! परलोक का तुझको बोध भी नहीं है ।
"स्त्री-पुत्र -मित्र और बांधव सब जीते के साथी हैं और मरे हुए के साथ नहीं जाते |
" हे पुत्र ! परम दुखी होकर मरे हुए पिता को लोग घर से निकाल देते हैं । इसी प्रकार मरे हुए पुत्र को पिता तथा भाई को भाई घर से निकाल देता है |
"फिर हे राजन उस व्यक्ति द्वारा उपार्जित वस्तुओं का दूसरे ही लोग उपभोग करते हैं ।
" मनुष्य तो शुभ अथवा अशुभ अपने कर्मों से ही संयुक्त परलोक में जाता है । "
उस अनागार मुनि के धर्म को सुनकर वह राजा उस अनागार के
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तीर्थकर महावीर पास महान् संवेग और निर्वेद को प्राप्त हो गया । और, राज्य को छोड़कर गर्दभालि-अनागार के पास जाकर जिन-शासन में दीक्षित हो गया।
इस प्रकार दीक्षित हो जाने के बाद संजय को एक दिन एक क्षत्रियसाधु मिला और उसने संजय से कहा--"जिस प्रकार तुम्हारा रूप बाहर से प्रसन्न दिखता है, उसी प्रकार तुम्हारा मन भी प्रसन्न प्रतीत होता है । तुम्हारा नाम क्या है ? तुम्हारा गोत्र क्या है ? किसलिए माहण ( साधु ) हुए हो ? किस प्रकार तुम बुद्धों की परिचर्या करते हो? तुम किस प्रकार विनयवान कहे जाते हो ?' ___इन प्रश्नों को सुनकर उसने कहा--"मेरा नाम संजय है और मैं गौतम गोत्र का हूँ । गर्दभालि मेरे आचार्य हैं। वे विद्या और चरित्र के पारगामी हैं ।"
संजय के इस उत्तर को सुन कर उस क्षत्रिय-साधु ने क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद के सम्बन्ध में संजय को उपदेश किया और बताया कि विद्या और चरित्र से युक्त, सत्यवादी, सत्य पराक्रमवाले बुद्ध ज्ञातृपुत्र श्री महावीर स्वामी ने किस प्रकार इन तत्त्वों को प्रकट किया है।
इस प्रकार उपदेश देते हुए उस क्षत्रिय ने अपनी पूर्वभव की कथा बतायी और चक्रवर्तियों' की कथाएँ बतायीं। दशार्णभद्र, नमि, करकंडू, द्विमुख, नग्गति (चार प्रत्येक बुद्ध) के प्रसंग कहे कि किस प्रकार संयम को पालकर वे मोक्ष गये ।
उस मुनि ने संजय को सिंधु-सौवीर के राजा उद्रायन का भी चरित्र सुनाया।
१-टीका में यहाँ भरत चक्रवर्ती, सगर चक्रवर्ती, मघवा चक्रवर्ती, सनत्कुमार चक्रवर्ती, शांतिनाथ चक्रवर्ती, कुंथुनाथ चक्रवर्ती, अर चक्रवर्ती, महापद्म चक्रवर्ती, हरिषेण चक्रवर्ती, जय चक्रवर्ती, की विस्तार से कथा आती है।
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भक्त राजे
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और, काशिराज ( नंदन बल्देव ), विजय, महाबल आदि के तथा कुछ अन्य चरित्र भी संजय को बताये ।
काम्पिल्य
इस काम्पिल्य का उल्लेख जैन ग्रन्थों में दस राजधानियों में किया गया है ।
जम्बूदोके भरहवासे दस रायहाणिश्रो पं० तं० - चंपा १, महुरा २, वाणारसी ३, य सावत्थी ४ तहत सातेतं ५, हत्थिणाउर ६ कंपिल्लं ७, मिहिला ८, कोसंबि ६, रायगिह -ठाणांगसूत्र, ठाणा १०, उद्देशः ३, सूत्र ७१९, पत्र ४७७-२ यह आर्य-क्षेत्र में था और पांचाल की राजधानी थी । विविधतीर्थकल्प में जिनप्रभ सूरि ने काम्पिल्य के सम्बन्ध में कहा है :
अस्थि इहेव जंबुद्दीवे दक्खिण भारह खंडे पुवदिसाए पंचाला नाम जणव । तत्थ गंगानाम महानई तरंगभंगपक्खालिजमाण पायारभित्तिश्रं कंपिल्लपुरं नाम नयरं
( पृष्ठ ५० ) इसी कंपिलपुर का राजा संजय था । इसका भी उल्लेख विविधतीर्थकल्प में है :
इत्थ संजयो नाम राया हुत्था । सो अ पारद्धीए गये केसरुजाणे मिए हए पासंति तत्थ गद्दभालिं ऋणगारं पासिन्ता संविग्गो पव्वइत्ता सुगई पत्तो ।
इस नगर का नाम संस्कृत ग्रंथों में काम्पिल और बौद्ध ग्रंथों में कम्पिल्ल मिलता है | रामायण आदिकांड सर्ग ३३ श्लोक १०, पृष्ठ ३७ में इस नगर को इन्द्र के वासस्थान के समान सुन्दर बताया गया है । महाभारत १. - उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका सहित अध्ययन १८, पत्र २२८-१-२५९-२
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तीर्थकर महावीर ( आ०, १४८ । ७८ ) में इसे दक्षिण पांचाल की राजधानी कहा गया है
और द्रुपद को यहाँ का राजा बताया गया है। यहीं द्रौपदी का स्वयंवर हुआ था। विविधतीर्थकल्प में भी इसका उल्लेख है। जातक में उत्तर पांचाल में इसकी स्थिति लिखी है । पाणिनी में भी इस नगर का उल्लेख आता है ( पाणिनी कालीन भारतवर्ष, पृष्ठ ८७, संकाशादिगण ४।२।८०) इसी नगर में १३ वें तीर्थंकर विमलनाथ का जन्म हुआ था। इसलिए यह जैनों का एक तीर्थ है । प्रत्येक बुद्ध दुम्मुह भी यहीं का राजा था (विविध तीर्थ कल्प, पृष्ठ ५० )।
नंदलाल दे ने लिखा है कि उत्तरप्रदेश के फरुखाबाद जिले में स्थित फगहगढ़ से यह स्थान २८ मील उत्तर-पूर्व में स्थित है। कायमगंज रेलवे स्टेशन से यह केवल ५ मील की दूरी पर स्थित है ( नंदलाल दे लिखित ज्यागरैफिकल डिक्शनरी, पृष्ठ ८८, कंनिघम्स ऐशेंट ज्यागरैफी, द्वितीय संस्करण पृष्ठ ७०४ )
ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती भी इसी काम्पिल्य का था।
कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि विख्यात ज्योतिषाचार्य वाराह मिहिर का जन्म इसी नगर में हुआ था। (विमलचरण ला.वाल्यूम, भाग २, पृष्ठ २४० )
हस्तिपाल देखिए पृष्ठ २९४-३०१
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सूक्ति-माला
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सोच्चा जाणइ कल्लाणं सोच्चा जाणइ पावगं । उभयं यि जाणइ सोच्चा, जं छेयं तं समायरे ॥५॥
—दशवैकालिकसूत्र, अ० ७, गा०८ -सुनकर ही कल्याण का मार्ग जाना जाता है। सुनकर ही पाप का मार्ग जाना जाता है। दोनों ही मार्ग सुनकर जाने जाते हैं। बुद्धिमान् साधक का कर्तव्य है कि पहले श्रवण करे और फिर अपने को जो श्रेय मालूम हो, उसका आचरण करे ।
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सूक्ति-माला
( १ )
जैन आगमों में स्थल-स्थल पर 'यावत्' करके समवसरण में भगवान् द्वारा धर्मकथा कहने का उल्लेख आता है । उस धर्मकथा का पूरा पाठ ('यावत्' का वर्णक ) औपपातिक सूत्र सटीक ( सूत्र ३४ पत्र १४८ - १५५ ) में आता है । पाठकों की जानकारी के लिए हम यहाँ मूल पाठ और उसका अर्थ दे रहे हैं ।
भगवान् अपने समवसरण में अर्द्धमागधी ( लोकभाषा ) में भाषण करते थे और उनकी भाषा की यह विशेषता थी कि जिन-की वह भाषा नहीं भी होती, वे भी उसे समझते थे । उसमें सभी - चाहे वह आर्य हो या अनार्य- -जा सकते थे ।
―
अस्थि लोए त्थि अलोए एवं जीवा जीवा बंधे मोक्खे पुराणे पावे आसवे संवरे वेयणा खिज्जरा अरिहंता चक्कवही बलदेवा वासुदेवा नरका भोरइया तिरिक्खजोखिना तिरिक्खजोगिणी माया पिया रिसी देवा देवला सिद्धी सिद्धा परिणिव्वाणं परिशिष्या अस्थि पाणाइवाए मुसावा दिरणादाणे मेहुणे परिग्गहे अस्थि कोहे माणे माया लोभ जाव मिच्छाद सण सल्ले | ग्रत्थि पाणइवायवेरमेणे मुसावायवेरमाणे श्रदिरणादाणवेरमणे मेहुणवेरमणे परिग्गहवेरमणे जाव मिच्छादंसण सल्ल विवेगे सव्वं अस्थिभावं स्थित्ति वयति, सव्वं रात्थिभावं रात्थित्ति वयति, सुचिर कम्मा सुचिणफला भवंति, दुचिरणा कम्मा दुचिरणफला भवंति, फुसइ पुरणपावे, पच्चायंति जीवा, सफले कल्लाएपावए । धम्म-माइक्खइ - इणमेव णिग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवलए संसुद्ध
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तीर्थंकर महावीर पडिपुण्णे णे पाऊण सल्लकत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे णिव्वाणमग्गे ज्जिामग्गे अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे इहटिया जीवा लि. उति बुज्झति मुच्चंति परिणिव्वायंति सव्वदुक्खणमंत करंति । एगच्चा पुण एगे भयंतारो पुवकम्मावसेसेणं अण्ण्यरेसु देवलोएसु उववत्तारो भवन्ति, महड्डी एसु जाव महासुक्खेसु दूरंगइएसु चिरट्रिईएसु, ते णं तत्थ देवा भवंति महडीए जाव चिरहिईश्रा हारविराइयवच्छा जाव पभासमाणा कप्पोवगा गति कल्लाणा अागमेसिभद्दा जाव पडिरूवा, तमाइक्खइ एवं खलु चउहिं ठाणेहिं जीवा णेरइअत्ताए कम्मं पकरंति, णेरइयत्ताए कम्मं पकरेत्ता रणेरइसु उववज्जंति, तंजहा'महारंभयाए, महापरिगहयाए, पंचिदियवहेणं, कुणिमाहारेणं, एवं एएणं अभिलावेणं तिरिक्खजोणिएसु माइल्लयाए णिअडिल्लाए अलिअवयोणं उक्कंचणचाए वंचणयाए, मणुस्सेसु पगतिभद्दयाए पगति विणीतताए साणुक्कोसयाए अमच्छरियताए, देवेसु सरागसंजमेणं संजमासंजमेणं अकामणिज्जराए बालतवो कम्मेणं तमाइक्खइ
जह णरगा गम्भेति जे णरगा जा य वेचणा गरए । सरीरमाणसाई दुक्खाई तिरिक्ख जोणीए ॥१॥ माणुस्सं च अणिच्चं वाहिजरामरणवेयणा पउरं । देवे अ देवलोए देविyि देवसोक्खाई ॥२॥ गरगं तिरिक्ख जोणि माणुसभावं च देवलोमं च । सिद्ध अ सिद्धवसहिं छज्ज वणियं परिकहेइ ॥३॥ जह जीवा बज्झति मुच्चंति जह य परिकिलिस्संति । जह दुक्खाणं अंतं करंति केइ अपडिबद्धा ॥४॥ अदृदुहट्टिय चित्ता जह जीवा दुक्खसागा भुविति । जह वेरग्गमुवगया कम्म समुग्गं विहाडंति ॥५॥ जहा रागेण कडाणं कम्माणं पावगो फल विवागो । जह य परिहीणकम्मा सिद्धा सिद्धालयभुवेंति ॥६॥
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सुक्ति-माला तमेव धम्म दुविहं प्राइक्खइ। तं जहा–अगारधम्म अणगारधम्म च, अणगारधम्मो ताव इह खलु सव्वश्रो सन्चत्ताए मुंडे भवित्ता अगारातो अपगारियं पव्वयइ सव्वाश्रो पाणाइवायाश्रो वेरमणं मुसावाय. अदिण्णादाण० मेहुण० परिग्गह. राईभोयणाउ वेरमणं अयमाउसो ! अणगारसामइए धम्मे पण्णत्ते, एअस्स धम्मस्स सिक्खाए उवट्ठिए निग्गंथे वा निग्गंथी वा विहरमाणे आणाए आराहए भवति । आगारधम्म दुवालसविहं प्राइक्खइ, तं जहा-पंच अणुव्वयाई तिरिण गुणवयाई चत्तारि सिक्खावयाइं पंच अणुव्वयाइं, तंजहा-थूलाग्रो पाणाइवायायो वेरमणं, थूलायो मुसावायाश्रो वेरमणं, थूलामो अदिन्नादारणाश्रो वेरमणं, सदारसंतोसे, इच्छापरिणामे, तिषिण गुण व्वयाई तंजहा-अणत्थदंडवेरमणं दिसिन्वयं, उवभोगपरिभोगपरिमाणं चत्तारि सिक्खावयाई तंजहा-सामाइअं, देसावगासियं, पोसहोववासे अतिहिसंयअस्स विभागे, अपच्छिमा मारणंतित्रा संलेहणा जूसणाराहणा अयमाउसो ! अगार सामइए धम्मे पण्णत्ते, अगार धम्मस्स लिखाए उवट्ठिए समणोवासए समणोवासिया वा विहरमाणे आणाइ श्राराहए भवति ।
-औपपातिकसूत्र सटीक, सूत्र ३४, पत्र १४८-२५५ लोक है । अलोक है । जीव है। अजीव है । बंध है । मोक्ष है । पुण्य है । पाप है। आश्रव है। संवर है। वेदना है। निर्जरा है । अर्हन्त है । चक्रवर्ती है। बलदेव है । वासुदेव है। नरक है। नारक है। तियच योनिवाला है। तियेच योनि वाली मादा है। माता है । पिता है । ऋषि है । देव है। देवलोक है । सिद्धि है। सिद्ध है। परिनिर्वाण है । परिनिवृत्त जीव है। १ प्राणातिपात ( हिंसा) है । २ मृषावाद है। ३ अदत्तादान है । ४ मैथुन है। ५ परिग्रह है। ६ क्रोध है। ७ मान है। ८ माया है । ९ लोभ है । १० प्रेम है। ११ द्वेष है। १२ कलह
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तीर्थङ्कर महावीर है। १३ असत्य दोषारोपण है। १४ पेसुण्ण ( पीठ पीछे दोष प्रकट करना) है। १५ परपरिवाद (दूसरे की निन्दा करना) है। १६ अरति रति है। १७ माया मृपावाद है और १८ मिथ्या दर्शन शल्य है । प्राणातिपात विरमण ( अहिंसा) है । मृषावाद विरमण है । अदत्तादान विरमण है। मैथुन विरमण है । परिग्रह विरमण है यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक सब ( अस्ति-भाव ) है । व्रत है । सब में नास्ति भाव है । व्रत नहीं है। सत्कर्म अच्छे फल वाले होते हैं । दुष्कर्म बुरे फल वाले होते हैं। पुण्य-पाप का स्पर्श करता है ( जीव अपने कर्मों से )। जीव अनुभव करता है । कल्याण और पाप सफल हैं। धर्म का उपदेश किया-यह निथथ-प्रवचन ही सत्य है। यह अनुत्तर ( इससे उत्कृष्ट कोई नहीं) है (क्योंकि ) केवलज्ञानी द्वारा प्रणीत है। यह सम्यक रूप से शुद्ध है। यह परिपूर्ण है। यह न्याय से बाधा रहित है। यह शल्य का कर्तन करने वाला है। सिद्धि, मुक्ति, निर्वाण तथा बाहर निकलने का यह मार्ग है। अवितथ तथा बिना बाधा के पूर्व और अपर में घटित होने वाला है। सर्व दुःखों का जिसमें "अभाव हो, उसका यह मार्ग है । इसमें स्थित जीव सिद्ध होते हैं । बुद्ध होते हैं, मोचन करते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त करते हैं और समस्त दुःखों का अन्त करते हैं । (इस निगथ-प्रवचन पर विश्वास करने वाले) भक्त पुनः एक बार मनुष्य शरीर धारण करते हैं । पूर्व कर्म के शेष रहने से, अन्यतर देवलोक में देवता-रूप में उत्पन्न होते हैं । महान् सम्पत्ति वाले, यावत् महासुख वाले दूर गये हुए चिरकाल तक स्थित होते हैं । वे तब वहाँ देव होते हैं-महर्द्धिक वाले यावत् चिरकाल तक स्थित रहने वाले। इनका वक्षस्थल हार से सुशोभित रहता है यावत् प्रकाशमान होते हैं । कल्पोपग, कल्याणकारी गति वाले, आगमिष्यद्भद्र, या वत् असाधारण रूप
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सुक्ति-माला
६७१
वाले होते हैं । अधोदृष्टि वाले चार स्थानों से जीव नैरयिक कर्म को पकड़ता है । नैरयिक का कर्म पकड़कर वह नरक में उत्पन्न होता है । सो यह है - १ महा आरम्भ, २ महा परिग्रह, ३ पंचिन्द्रिय वध और ४ मांसाहार । तिर्यच गति में उत्पन्न होने के इसी प्रकार चार कारण हैं – १ मायाचरण-कपटाचरण, २ असत्य भाषण, ३ मिथ्या प्रशंसा और ४ वंचना । मनुष्य गति में जीव इन चार कारणों से उत्पन्न होता है - १ प्रकृति से भद्र होने से, २ प्रकृति से विनीत होने से, ३ दयालु होने से और ४ अमत्सरी होने से । चार कारणों से देवलोक में उत्पन्न होते हैं-१ सराग संयम से, २ देशविरति से, ३ अकाम निर्जरा से और ४ बालतप से ।
जीव जिस प्रकार नरक गमन करता है, वहाँ जो नारकी हैं, एवं उन्हें जो वेदना भोगनी पड़ती है, यह सब बतलाया । तिर्यंचयोनि में जो शारीरिक और मानसिक दुःख होते हैं, यह भी ( स्पष्ट किया ) |
मानव-पर्याय अनित्य है । व्याधि, जरा, मरण एवं वेदना से भरा है । देव और देवलोक देवर्द्धि और देवसौख्य ( का वर्णन किया ) ||२||
नरक, तिर्यंच योनि, मनुष्य-भाव और देवगति का कथन किया। सिद्ध, सिद्धस्थान और षट्जीव निकायों का वर्णन किया ||३||
जिस प्रकार जीव बँधते हैं, बंधन से छूटते हैं, जिस प्रकार संक्लेशों को भोगते हैं, जिस प्रकार दुःखों का अन्त करते हैं, कितने अप्रतिबद्ध हैं— उनका वर्णन किया || ४ ||
आर्तध्यान से पीड़ित चित्त वाले प्राणी जीव किस प्रकार
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तीर्थङ्कर महावीर दुःख सागर में डूबते हैं और वैराग्य से कर्मराशि नष्ट करते हैं, बताया ॥५॥
जिस प्रकार राग कृत कर्म पाप फल विपाक प्राप्त करते हैं, ( उसे कह कर भगवान् ने) जिस प्रकार परिहीन कर्म वाले सिद्ध. सिद्धालय पहुँचते हैं ( कहा )॥६॥
भगवान् ने धर्म दो प्रकार के बताये-१ अगारधर्म ( गृहस्थधर्म ) और २ अणगार धर्म ( साधु-धर्म)। अणगार-धर्म वही पालन करते हैं, जो सब प्रकार से मुंडित हो जाते हैं। प्रव्रजित अणगार सर्व रूप से, प्राणातिपात विरमण, मृषावाद विरमण, अदत्तादान विरमण, मैथुन विरमण, परिग्रह विरमण, रात्रि भोजन विरमण ( स्वीकार करता है)। हे आयुष्मन् ! अनगारसामायिक धर्म कहता हूँ--इस धर्म अथवा शिक्षा में उपस्थित निगथ अथवा निगथी आज्ञा का आराधक होता है।
आगार धर्म १२ प्रकार का कहा-५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रत ।
पाँच अणुव्रत ये हैं-१ स्थूल प्राणातिपात विरमण, २ स्थूल मृषावाद विरमण, ३ स्थूल अदत्तादान विरमण, ४ स्वदार संतोष
और ५ इच्छा परिमाण तीन गुणव्रत हैं-१ अनर्थदंड विरमण, २ दिग्व्रत विरमण, ३ उपभोग परिभोग-परिमाण । चार शिक्षाव्रत है-१ सामायिक, २ देशावकाशिक, ३ पौषधोपवास, ४ अतिथिसंविभाग । अपश्चिम मरणांतिक संलेखना, जूसणा ( सेवा ) आराधना (भगवान् ने बताये )। आयुष्मनों ! आगार सामायिक धर्म कहता हूँ । आगार शिक्षा में उपस्थित ( जो) श्रमणोपासकश्रमण्येपासिका विचरण करता है वह आराधक होता है।
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सूक्ति-माला
आचाराङ्गसूत्र सटीक
( २ )
पहूय एजस्स दुगुञ्छणाए । आयंकसी 'अहियं' ति नच्चा ॥ जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाएइ, जे बहिया जाणइ से अत्यं जाइ, एयं तुल्लं अन्नेसिं । इह सन्तिगया दविया नाचकंखन्ति जीविउ
६७३
--पत्र ६८-२
- मनुष्य विविध प्राणों की हिंसा में अपना अनिष्ट देख सकने में समर्थ है, और वह उसका त्याग करने में समर्थ है।
जो मनुष्य अपने दुःख को जानता है, वह बाहर के दुःख को भी जानता है, जो बाहर का दुःख जानता है, वह अपने दुःख को भी जानता है । शांति प्राप्त संयमी ( दूसरे की हिंसा कर के) असंयमी जीवन की इच्छा नहीं करते ।
( ३ )
से वसुमं सञ्च समण्णागयपण्णाणेणं, अप्पा कर णिज्जं पावं कम्मं को असि ।
- पत्र ७१-२ - संयमधनी साधक सर्वथा सावधान और सर्वप्रकार से ज्ञानयुक्त होकर न करने योग्य पापकर्मों में यत्न न करें ।
( ४ )
जे गुणे से मूलद्वाणे, जे मूलट्ठासे से गुणे । इति से गुणड्डी महता परियाने वसे पमत्ते, तं जहा - माया से, पिया मे, भाया मे, भइणी मे, भज्जा में, पुत्ता मे, धूया मे, सुरहा मे, सहिसयासंगंथसंधुया मे, विवितोवगरण परियट्टण भोयणच्छायणं मे इच्चत्थं गटिए लोए वसेपमत्ते... ॥
- पत्र ८९-१
४३
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६७४
तीर्थंकर महावीर
— जो शब्दादि विषय हैं, वही संसार के मूल कारण हैं; जो संसार के मूलभूत कारण हैं, वे विषय हैं । इसलिए विषयाभिलाषी प्राणी प्रमादी बनकर ( शारीरिक और मानसिक ) बड़े-बड़े दुःखों का अनुभव कर सदा परितप्त रहता है । मेरी माता, मेरे पिता, मेरे भाई, मेरी बहिन, मेरी पत्नी, मेरी पुत्री, मेरी पुत्रबधू, मेरे मित्र, मेरे स्वजन, मेरे कुटुम्बी, मेरे परिचित, मेरे हाथीघोड़े-मकान आदि साधन, मेरी धन-सम्पत्ति, मेरा खान-पान, मेरे वस्त्र इस प्रकार के अनेक प्रपंचों में फँसा हुआ यह प्राणी आमरण प्रमादी बनकर कर्मबन्धन करता रहता है ।
(*)
इच्चेवं समुट्ठिए होविहाराए अन्तरं च खलु इमं संपेहाए धीरे मुहुत्तमवि णो पमायए । वयो ऋच्चेति जोव्वणं च ।
- पत्र ९६-२
- इस प्रकार संयम के लिए उद्यत होकर इस अवसर को विचार कर धीर पुरुष मुहूर्त मात्र का भी प्रमाद न करे – अवस्था बीतती है, यौवन भी ।
( ६ )
3
जाणित्त दुक्खं पत्तेयं सायं प्रणभिक्कतं च खलु वयं संपेहाए ख जाहि पंडिए ।
- पत्र ९८-२, ९९-१
- प्रत्येक प्राणी अपने ही सुख और दुःख का निर्माता है और स्वयं ही सुख-दुःख का भोक्ता है । यह जानकर तथा अब भी कर्त्तव्य और धर्म अनुष्ठान करने की आयु को शेष रही हुई जानकर, हे पंडित पुरुष ! अवसर को पहिचानो !
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सूक्ति-माला
६७५
. से प्रायबले, से नाइबले, से मित्त बले, से पिञ्चबले, से देवबले, से रायबले, से चोरबले, से अतिहिबले, से किविणबले, से समणबले, इच्चेहिं निरूव वरूवेहिं कज्जेहिं दंडसमायाणं संपेहाए भया कजाइ, पावमुक्खुत्ति मन्नमाणे, अदुवा प्रासंसाए ।
-पत्र १०३-२
-~-शरीरबल, जातिबल, मित्रबल, परलोकबल, देवबल, राजबल, चोरबल, अतिथिबल, भिक्षुकबल, श्रमणबल आदि विविध बलों की प्राप्ति के लिए यह अज्ञानी प्राणी विविध प्रकार की हिंसक प्रवृत्ति में पड़कर जीवों की हिंसा करता है। कई बार इन कार्यों से पापों का क्षय होगा अथवा इस लोक और परलोक में सुख मिलेगा, इस प्रकार की वासना से भी अज्ञानीपुरुष सावध (पाप) कर्म करता है।
(८) से अबुज्झमाणे होवहए जाईमरणं अणुपरियट्ठमाणे
-पत्र १०९-१ -अज्ञान जीव राग से ग्रस्त तथा अपयशवंत होकर जन्ममरण में फसता रहता है।
ततो से एगया रोग समुप्पाया समुप्पति
-~-पत्र ११३-२ --कामभोग से भोगी के असाता वेदनीय के उदय से रोगों का प्रादुर्भाव होता है।
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तीर्थंकर महावीर
(१०) प्रासं च छंदं च विगिंच धीरे । तुमं चेव तं सल्लमाह१ ।
-पत्र ११४-२ --हे धीर पुरुषो ! तुम्हें विषय की आशा और लालच से दूर रहना चाहिए। तुम स्वयं अपने अंतःकरण में इस काँटे को स्थान देकर अपने ही हाथों दुःखी बन रहे हो।
जहा अंतो तहा बाहिं जहा बाहिं तहा अंतो, अंतो अंतो पूतिदेह तराणि पासति पुढोविसवंति पंडिए पडिलेहए।
--पत्र १२४-१ -जिस प्रकार शरीर बाहर असार है, उसी प्रकार अंदर से असार है। और जिस प्रकार अंदर से असार है, उसी प्रकार बाहर से असार है । बुद्धिमान इस शरीर में रहे हुए दुर्गन्धियुक्त पदार्थों को और शरीर के अन्दर की अवस्थाओं को देखता है कि इनमें से मलादिक निकलते रहते हैं। यह देखकर पंडित पुरुष इसके सच्चे स्वरूप को समझकर इस शरीर का मोह न रखे ।
(१२) से तं संबुज्झमाणे अायाणीयं समुट्ठाय तम्हा पावकम्म नेव कुज्जा न करावेज्जा।
-पत्र १२७-१ --पूर्वोक्त वस्तु-स्वरूप को समझकर साधक का यह कर्तव्य है कि न स्वयं पापकर्म करे न कराये।
(१३) जे मयाइयमई जहाइ से चयइ ममाइय, से हु दिट्टपहे मुखी जस्स
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सूक्ति-माला
६७७ नत्थि ममाइयं, तं परिन्नाय मेहावी विइत्ता लोग, वंता लोगसन्नं से मइमं परिक्कम्मिज्जासि त्ति वेमि !
-पत्र १२९-१ -जो ममत्त्व बुद्धि का त्याग करता है, वह ममत्व का त्याग करता है। जिसको ममत्त्व नहीं है, वही मोक्ष के मार्ग का जानकार मुनि है। ऐसा जाननेवाला चतुर मुनि लोक-स्वरूप को जानकर लोक-संज्ञाओं को दूर कर विवेकवंत होकर विचरता है।
से मेहावी जे अणुग्वायणस्स खेयन्ने, जे य बन्धपमोक्ख मन्नेसिं
--पत्र १३२-२ -जो अहिंसा में कुशल है, और जो बंध से मुक्ति प्राप्त करने के प्रयास में है, वह ही सच्चा बुद्धिमान है।
अणेग चित्ते खलु अयं पुरिसे : से केयण अरिहइ पूरइत्तए
-पत्र १४७-२ -जगत के लोक की कामना का पार नहीं है। यह तो चंलनी में पानी भरने के समान है।
पुरिसा ! तुममेव तुमं-मित्तं, कि बहिया मित्तमिच्छसी ? पुरिसा ! अत्ताणमेव अभिनिगिज्झ एवं दुक्खा पमोक्खसि ।
--पत्र १५२-१ -हे पुरुष ! तू ही तेरा मित्र है। बाहर क्यों मित्र की खोज करता है ? हे पुरुष अपनी आत्मा को ही वश में कर । ऐसा करने से तू सर्व दुःखों से मुक्त होगा।
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तीर्थंकर महावीर
( १७ )
सव्व पमत्तस्स भयं सव्वश्री अपमत्तस्स नत्थि भयं ।
2
६७८
- पत्र १२५-२
- प्रमादी को सभी प्रकार का डर रहता है । अप्रमत्तात्मा को किसी प्रकार का डर नहीं रहता ।
(१८)
जे एगं नामे से बहुं नामे, जे बहुं नामे से एगं नामे
- पत्र १५५-२
- जो एक को नमाता है, वह अनेक को नमाता है और जो अनेक को नमाता है, वह एक को नमाता है ।
( 9ε ) पत्तेयं,
पुव्वं
निकायसमयं
दुक्खं
हं भो ! पवाइया किं भे सायं समिया पडवणे यावि एवं सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं, सव्वेसिं जीवाण
बूया -
सव्वेसिं सत्ताणं, असायं परिनिव्वाणं महब्भयं दुक्खं ।
पुच्छि सामि
असाय ?
- पत्र ९६८-१ करता हूँ -- "हे
- प्रत्येक दर्शन को पहले जानकर मैं प्रश्न वादियों ! तुम्हें सुख अप्रिय है या दुःख अप्रिय है ?” यदि तुम स्वीकार करते हो कि दुःख अप्रिय है तो तुम्हारी तरह ही सर्व प्राणियों को सर्व भूतों को सर्व जीवों को और सर्व तत्त्वों को दुःख महाभयंकर अनिष्ट और अशांतिकर है ।
( २० )
इमेण चैव जुज्झाहि किं ते जुज्भेण वज्झाओ जुद्धारिहं खलु दुल्लभं ।
-पत्र १६०-२
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सूक्ति-माला
६७६ -हे प्राणी ! अपनी आत्मा के साथ ही युद्ध कर । बाहरी युद्ध करने से क्या मतलब ? दुष्ट आत्मा के समान युद्ध योग्य दूसरी वस्तु दुर्लभ है।
तुमंसि नाम सच्चेव जं हतब्बं ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं अज्जावेयव्वं ति मन्नसि । तुमंसि नास सच्चेव जं परियावेयचं ति मन्नसि तुमंसि नाम सच्चेव ज परिधित्तव्यं ति मन्नसि । तुमंसि नाम सच्चेव जं उद्दवेयव्वं ति मन्नसि, अंजू चेय पडिबुद्धिजीवी तम्हा न हंता न वि घायए अणुसंवेयणमप्पाणेणं जं हंतवं नाभि पत्थए ।
पत्र २०४-१ -हे पुरुष ! जिसे तू मारने की इच्छा करता है, वह तेरे ही जैसा सुख-दुःख का अनुभव करनेवाला प्राणी है; जिस पर हुकूमत करने की इच्छा करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है, जिसे दुःख देने का विचार करता है, वह तेरे जैसा ही प्राणी है, जिसे अपने वश में रखने की इच्छा करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है, जिसके प्राण लेने की इच्छा करता है-विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है।
सत्पुरुष इसी तरह विवेक रखता हुआ, जीवन बिताता है और न किसी को मारता है और न किसी का घात करता है।
जो हिंसा करता है, उसका फल वैसा ही पीछे भोगना पड़ता है, अतः वह किसी भी प्राणी की हिंसा करने की कामना न करें।
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६८०
तीर्थंकर महावीर
सूत्रकृतांग (पी० एल० वैद्य - सम्पादित )
( २२ )
जमि जगती पुढो जगा, कम्मेहिं लुम्पति पाणिणो । सयमेव कडेहिं गाइ, यो तस्स मुच्चेज्जपुट्टयं ॥ ४ ॥
- पृष्ठ ११ । और ( स्व
- जगत में प्राणी अपने कर्मों से दुःखी होता है कर्मो से ही ) अच्छी दशा प्राप्त करता है । किया हुआ कर्म फल दिये बिना पृथक नहीं होने का ।
( २३ )
जइ वियना में किसे चरे, जइ विय भुञ्जय मासमंतसो । जे इह मायावि मिज्जई, श्रागन्ता गन्भाय सन्तसो || ६ ||
- पृष्ठ १२
- भले ही व्यक्ति चिरकाल तक नग्न रहे, भले ही कोई मास-मास के अन्तर से भोजन करे, जो माया में लिप्त होता है, वह अनन्त बार गर्भवास करता है ।
( २४ )
ari वणिहि हियं, धारन्ती राइशिया इहं । एवं परमा महत्वया, अक्वाया र सराइ भोयणा ||३||
- पृष्ठ १६
- दूर देशावर के व्यापारियों द्वारा लाया हुआ रत्न राजामात्र धारण कर सकते हैं । उसी प्रकार रात्रि भोजन साथ महाव्रत कोई विरला ही धारण कर सकता है ।
त्याग के
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सूक्ति-माला
६८१ ( २५ ) मा पच्छ असाधुता भवे, अच्चेही अणुसास अप्पगं । अहियं च असाहु , सोयई से थणई परिदेवई बहु ॥७॥
-पृष्ठ १६ -परभव में असाधुता न हो, इस विचार से आत्मा को विषयों से दूर रखकर अंकुश में रखो। असाधु कर्म के कारण तीव्र दुर्गति में गया हुआ जीव सोच करता है, आक्रन्दन करता है और विलाप करता है।
( २६ ) गारं पि य श्रावसे नरे, अणुपुच पाणेहि संजए । समता सव्वत्थ सुब्बए, देवाणं गच्छे सलोग यं ॥१३॥
-पृष्ठ १७ -गृह में निवास करता हुआ भी जो मनुष्य प्राणियों के प्रति यथाशक्ति समभाव रखनेवाला होता है, वह सुब्रती देवताओं के लोक में जाता है।
(२७ ) जेहिं काले परिकन्तं न पच्छा परितप्पए । ते धीरा बन्धणुमुक्का, नावकंखन्ति जीवियं ॥१५॥
-पृष्ठ २४
-जो योग्य समय पर पराक्रम करता है, वह पीछे परितप्त नहीं होता। वे धीर पुरुष बंधनों से उन्मुक्त और जीवित में आसक्ति बिना होते हैं।
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६८२
तोर्थकर महावीर
(२८) उदगेण जे सिद्विमुदाहरन्ति, सायं च पायं उदगं फुसन्ता । उदगस्स फासेण सिया य सिद्धी, सिभिंसु पाणा बहवेदगंसि ॥१४॥
-पृष्ठ ३९ -यदि स्नान से मोक्ष मिलता हो, तो पानी में रहनेवाले कितने ही जीव मुक्त हो जायें ।
( २६ ) पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहावरं । तब्भावादेसो वा वि, बालं पंडियमेव वा ॥३॥
-पृष्ठ ४१ -ज्ञानियों ने प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहा है। अतः प्रमाद होने से बलवीर्य और अप्रमाद होने से पंडित वीर्य होता है।
( ३० ) वेराई कुवई वेरी, तो वेरेहि रजई । पावोवगा य आरंभा, दुक्खफासा य अन्तसो ॥७॥
-पृष्ठ ४१ -बैरी बैर करता है । वह दूसरों के बैर का भागी होता है। इस प्रकार बैर से बैर बढ़ता जाता है। पाप को बढ़ाने वाले आरम्भ अन्त में दुःखकारक होते हैं।
( ३१ ) नेयाउयं सुयक्खायं, उवायाय समीहए। भुजो भुजो दुहावा सं, असुहत्तं तहा तहा ॥११॥
-पृष्ठ ४१
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सूक्ति-माला -बल-वीर्य पुनः-पुनः दुःखावास है। प्राणी बलवीर्य का जैसे-जैसे उपयोग करता है, वैसे-वैसे अशुभ होता है । मोक्ष की ओर से जाने वाले मार्ग सम्यक् ज्ञान, दर्शन और तप हैं। इन्हें ग्रहण कर पंडित मुक्ति का उद्योग करे ।
(३२ ) पाणेय णाइवाएजा, अदिन्नं पियणादए । सादियं ण मुसं बूया, एस धम्मे सीमत्रो ॥१६॥
-पृष्ठ ४२ -प्राणियों के प्राणों को न हरे, बिना दी हुई कोई भी वस्तु न ले, कपट पूर्ण झूठ न बोले-आत्मजयी पुरुषों का यही धर्म है।
(३३ ) कडं च कजमाणं च, श्रागमिस्सं च पावगं । सव्वं तं णाणुजाणन्ति, पायगुत्ता जिइंदिया ॥२१॥
-पृष्ठ ४२ -आत्मगुप्त जितेन्द्रिय पुरुष किसी द्वारा किये गये, किये जाते हुए तथा किये जाने वाले पाप-कर्म का अनुमोदन नहीं करता।
तेसि पि न तवो सुद्धो, निक्खन्ता जे महाकुला । जं ने वन्ने वियाणन्ति, न सिलोगं पव्वे जए ॥२४॥
-पृष्ठ ४३ -जो कीर्ति आदि की कामना से तप करते हैं, उनका तप शुद्ध नहीं है, भले ही उच्च कुल में प्रव्रज्या हुई हो। जिसे दूसरे न जाने वह सच्चा तप है । तपस्वी आत्मश्लाघा न करे ।
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तीर्थकर महावीर -जो आकांक्षाओं का अन्त करता है, वह पुरुष ( जगत के लिए) चक्षुरूप है । छुरा अपने अन्त पर चलता है, चक्र भी अपने किनारों पर ही चलता है। धीर पुरुष भी अन्त का ही सेवन करते हैं और वे ही ( जीवन-मरण का ) अन्त करने वाले होते हैं।
( ४२ ) धम्मं कहन्तस्स उ पत्थि दोसो, खन्तस्स दन्तस्स जिइन्दियस्स। भासाय दोसे य विवजगस्स, गुणे य भासाय णिमेवगस्स ॥५॥
__ -पृष्ठ ११८ -धर्म कहने मात्र से दोष नहीं लगता-यदि उसका कथन करने वाला क्षांत हो, दांत हो, जितेन्द्रिय हो, वाणी के दोप का त्याग करने वाला हो और वाणी के गुण का सेवन करने वाला हो।
ठाणांगसूत्र सटीक
( ४३ ) दोहिं ठाणेहिं ऋणगारे संपन्ने अणादीयं अणवयगं दीहमद्धं चाउरंत संसारकतारं वीतिवतंजा-तंजहा विजाए चेव चरणेण चेण ।
-ठा० २, उ० १, सूत्र ६३, पत्र ४४-१ -विद्या और चारित्र इन दो वस्तुओं के होने से साधु अनादि और दीर्घकालीन चार गति वाले संसार से तर जाता है।
( ४४ ) अज्झवसाणनिमित्ते पाहारे वेयणाराघाते । फासे श्राणापाणू , सत्तविहं भिज्जए ग्राऊं ॥१७॥
-ठा० ७, उ० ३, सूत्र ५६१ पत्र ३६-२
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सूक्ति-माला
६८७ -सात प्रकार से आयु का क्षय होता है-१ ( भयानक ) अध्यवसाय से, २ ( दण्ड-लकड़ी-कुशा-चाबुक आदि ) निमित्त से, ३ (अधिक ) आहार से, ४ ( शारीरिक ) वेदना से, ५ ( कूएँ में गिरना) पराघात से, ६ स्पर्श (साँप-विच्छी आदि के डंक से ), ७ श्वास-उच्छास ( के निरोध से )।
णवविधे पुन्ने पं० तं०-अन्नपुन्ने १, पाणपुरणे २, वत्थपुण्णे ३, लेणपुराणे ४, सयणपुगणे ५, मणपुगणे ६, वतिपुराणे ७, कायपुरणे ८, नमोक्कारपुण्णे है ।
-ठा० । सू० ६७६ पत्र ४५०-२ -पुण्य ६ कहे गये हैं-१ अन्नपुण्य, २ पानपुण्य, ३ वस्त्रपुण्य, ४ लेणपुण्य (आवास), ५ शयनपुण्य, ६ मनपुण्य (गुणीजन को देखकर मन में प्रसन्न होना), ७ वचनपुण्य ( गुणीजन के वचन की प्रशंसा करने से प्राप्त पुण्य ), ८ कायपुण्य ( सेवा करने से प्राप्त पुण्य ), ९ नमस्कार पुण्य ।
दस विहे दोसे ५० तं0-तजातदोसे १, मतिभंगदोसे २, पसत्थारदोसे ३, परिहरण दोसे ४, सलक्खण ५, कारण ६, हेउदोसे ७, संकामणं ८, निग्गह , वत्थुदोसे १० । . -सटीक ठा० १०, उ० ३, सूत्र ७४३ पत्र ४९२-१
-दोष दश प्रकार के हैं-१ तज्जातदोष, २ मतिभंगदोष, ३ प्रशास्तृदोष, ४ परिहरणदोष, ५ स्वलक्षणदोष, ६ कारणदोष, ७ हेतुदोष, ८ संक्रामणदोष, ६ निग्रहदोष, १० वस्तुदोष ।
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तीर्थंकर महावीर
समवायांगसूत्र सटीक (80)
सत्त भट्ठाणा पन्नत्ता तं जहा — इहलोगभए, परलोगभए, श्रदाण - भए, अकम्हाभए, आजीवभए, भरणभए, असिलोगभए ।
දියස
- पत्र १२-२
-भय के सात स्थान कहे गये हैं - १ इस लोक सम्बन्धीभय, २ परलोक-सम्बन्धी भय, ३ आदान भय, ४ अकस्मात् भय, ५ आजीविका भय, ६ मरण भय, ७ अकीर्ति भय ।
( 85 )
सविहे समम्मे पन्नत्ते, तं० जहा — खंती, मुत्ती, श्रज्जवे, मद्दत्रे,, लाघवे, सच्चे, संजमे, तवे, चियाए, बंभचेरवासे ।
- पत्र १६-१
- दस प्रकार का साधु-धर्म कहा गया है - १ क्षांति, २ मुक्ति ( निर्लोभता ), ३ आर्जव, ४ मार्दव, ५ लाघव, ६ सत्य, ७ संयम, ८ तप, ९ त्याग, ९० ब्रह्मचर्यवास |
भगवती सूत्र सटीक
( ४६ )
( प्र० कह णं भंते ! जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ? ) (उ०-) गोयमा ! तिहिं ठाणेहिं तं जहा - पाणे इवात्ता, मुखं वाइत्ता, तहारुवं समणं वा, माहणं वा, अफासुरणं, सखिज्जेणं, ग्रा-पाण खाइम - साइमेणं पडिलामेता, एवं खलु जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरेंति । - भगवतीसूत्र श० ५० ६ - हे गौतम! तीन कारणों से जीव अल्पायु कारणभूत कर्म पकड़ता है - १ प्राणों को मार कर, २ मृपा बोलकर, ३ तथारूप
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सूक्ति-माला
६८६ श्रमण-ब्राह्मण को अप्रासुक, अनेषणीय खान, पान, खादिम तथा स्वादिम पदार्थो का प्रतिलाभ करा कर ।
ज्ञाताधर्मकथा ( एन० वी० वैद्य-सम्पादत)
देवाणुप्पिया ! गंतव्वं चिट्ठितब्बं णिसीयव्वं तुयट्टियव्वं भुंजियवं भासियवं, एवं उठाए उट्ठाय पाणेहिं भूतेहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमेणं संजमितव्वं अस्सिं च णं अट्ठ णो पमादेयव्वं । —पृष्ठ १०३
-हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार पृथ्वी पर युग ( शरीर-प्रमाण मात्र) मात्र दृष्टि रखकर चलना, शुद्ध भूमि पर खड़े रहना, भूमि का प्रमार्जन करके बैठना, सामायिक आदि का उच्चारण करके शरीर की प्रमार्जना करके संस्तारक और उत्तरपट्ट पर अपनी भुजा को सिर के नीचे लगा कर बायीं ओर शयन करना, वेदनादि के कारण अंगारादिक दोष-रहित भोजन करना, हित, मित और मधुर वचन बोलना। इस प्रकार उठ-उठ करके प्रमाद
और निद्रा को दूर कर बोध प्राप्त करके प्राण, भूत, जीव और सत्य-सम्बन्धी संयम के लिए सम्यक् प्रकार से यत्न करना । इसमें और प्राणादिक की रक्षा करने में किंचित् मात्र प्रमाद मत करना।
(११) सोइंदिय दुहृत-त्तणस्स अह एत्तिश्रो हवति दोसो । दीविगरुयमसहतो, वहबंधं तित्तिरो पत्तो। -पृष्ठ २०६.
-श्रोत्रेन्द्रिय के दुर्दातपने के कारण इतना दोष होता है कि जैसे पराधीन पिंजरे में पड़े तीतर के शब्द को न सहन कर पाने के कारण, वन में रहने वाले तीतर पक्षी बध और बंधन को
४४
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६६०
तीर्थङ्कर महावीर प्राप्त होते हैं ( वैसे श्रोत्रेन्द्रिय के आश्रयी भी बध-बंधन प्राप्त करते हैं।)
(१२) चक्खिदियदुदंत-त्तणस्स अह एत्तिो भवति दोसो। जं जलणम्मि जलते, पडसि पयंगो अबुद्धिो ॥
-पृष्ठ २०६ -चक्षुरिन्द्रिय के दुर्दुरान्तपने से पुरुष में इतना दोष होता है कि, जैसे मूर्ख पतंग जलते अग्नि में कूद पड़ते हैं ( वैसे ही वे दुःख प्राप्त करते हैं)।
घाणिदिय दुईतत्तणस्स अह एत्तिो हवह दोसो । जं अोसहि गंधेण बिलाश्रो निद्धावई उरगो ॥६॥
-पृष्ठ २०६ -जो मनुष्य घ्राणेन्द्रिय के आधीन ( अनेक प्रकार के सुगंध में आसक्त) होते हैं, वे उसी प्रकार बंधित होते हैं) जैसे ओषधि के गंध के कारण बिल से निकलने पर सर्प पकड़ लिया जाता है।
जिभिदि य दुइंतत्तणस्स अह एत्तिो हवइ दोसो। जं गललग्गुक्खित्तो फुरइ थल विरेल्लिो मच्छो ॥७॥
__ -पृष्ठ २०६ -जो जिह्वेन्द्रिय के वश में होता है, वह गले में काँटा लगा कर पृथ्वी पर पटकी हुई मछली की तरह तड़पता है (और मरण पाता है।)
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सूक्ति-माला
(५५) फासिंदियदुइंतत्तणस्स अह एत्तिो हवइ दोसो। जं खणइ मत्थयं कुंजरस्स लोहंकुसो तिक्खो ॥१०॥
-पृष्ठ २०६ -जो मनुष्य स्पर्शेन्द्रिय के वशीभूत होते हैं वे हाथी के समान पराधीन होकर अंकुश से मस्तक पर बिंधे जाने की पीड़ा भोगते हैं।
प्रश्न व्याकरण सटीक
तस्स य नामाणि इमाणि गोण्णाणि होति तीसं, तंजहा-पाणवहं १, उम्मूलणा सरीरात्रो २, अवीसंभो ३, हिंसा विहिंसा ४, तहा अकिच्चं च ५, धायणा ६, मारणा य ७, वहणा ८, उद्दवणा ६, तिवायणा य १० श्रारंभसमारंभो ११, श्राउयकम्मस्सुववो भेयणि वणगालणा य संवट्टगसंखेवो १२, मच्चू ११, असंजमो १४, कडगमद्दणं १५, वोरमणं १६, परभव संकामकारो १७, दुग्गतिप्पवायो १८, पावकोवो य १६, पावलोभो २०, छविच्छेो २१, जीवियंत करणो २२, भयंकरो २३, अणकरो य २४, वज्जो २५, परितावणअण्हो २६, विणासो २७, निज्जवणा २८, लुंपणा २६, गुणाणं विराहणत्ति ३०, विय तस्स एवमादीणि णाम धेज्जाणि होति तीसं पाणवहस्स कुलसस्स कडुयफलदेसगाई। .
-पत्र ५-२ -पूर्वोक्त स्वरूप वाले उस प्राणवध के नाम गुणों से होने वाले तीस होते हैं-१ प्राणवध, २ उन्मूलना शरीरात (जीव को शरीर से अलग करना), ३ अविश्रम्भ ( अविश्वास का कारण होने से इसे अविश्रम्भ कहते हैं ), ४ हिस्य-विहिंसा (जीवों की
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तीर्थकर महावीर हिंसा अथवा प्रमादी जीवों से विशेष रूप में होने के कारण इसे हिंस्र-बिहिंसा कहते हैं), ५ अकृत्य, ६ घातना, ७ मारणा, ८ वधणा, ९ उपद्रवण, १० त्रिपातना (मन, वाणी और काया का अथवा देह, आयु और इन्द्रिय रूप प्राणों से जीव का पतन कराने से इसे 'त्रितापना' कहते हैं ), ११ आरम्भ-समारम्भ, १२ आयुः
-कर्मणउपद्रव, भेदनिष्ठापन गालना तथा संवर्तकसंक्षेप (आयुकर्म का उपद्रव या उसी का भेद या उस आयु का अन्त करना
और आयु को गालना, खुटाना, आयु को संक्षेप करना), १३ मृत्युः १४ असंयम, १५ कटक-मर्दन, १६ व्युपरमणम् (प्राणों से जीव के अलग करने के कारण यह व्युपरमण कहलाता है), १७ परभवसंक्रमकारक, १८ दुर्गति प्रपातः, १९ पाप-कोप, २० पाप लोभ, २१ छविच्छेद, २२ जीवितान्तकरण, २३ भयङ्कर, २४ ऋणकर, २५ वर्ण्य, २६ परितापनाश्रव, २७ विनाश, २८ निर्यापना, २९. लोपना, ३० गुणों की विराधना ।
इस प्रकार इस पाप-रूप प्राणबध के कटु फल बताने वाले तीस नाम कहे गये हैं।
तस्स य णामाणि गोण्णाणि होति तीसं, तंजहा–अलियं १, सदं २, अणज्जं ३, मायामोसो ४, असंतकं ५, कूडकवउमवत्थुगं च ६, निरत्थयमवत्थयं च ७, विहेसगरहणिज्ज ८, अणुज्जुकं ६, कक्कणाय १०, वंचणाय ११, मिच्छापच्छाकडं च १२, साती उ १३, उच्छन्नं १४, उक्कूलं च १५, अहं १६, अब्भक्खाणं च १७, किब्बिसं १८, वलयं १६, गहणं च २०, मम्मणं च २१, नूम २२, निययी २३, अप्पच्चा श्रो २४, असमश्रो २५, असच्चसंधत्तणं २६, विवक्खो २७, श्रवहीयं २८, उवहि
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सूक्ति-माला
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असुद्ध २६, श्रवलोवोत्ति ३०, अविय तस्स एयाणि एवभादीणि नामधे - ज्जाणि होति तीसं सावज्जस्स वइ जोगस्स अणे गाईं ।
- पत्र २६-२ उस ( मृषावाद ) के गुणनिष्पन्न ३० नाम हैं जैसे १ अलीक २ शठम् ( शठस्य- मायिनः कर्मत्वात् ), ३ अनार्यम्, ४ मायामृषा, ५ असत्क, ६ कूट कपटाऽवस्तुकञ्ज ( परवञ्चनार्थं न्यूना - धिकभाषणं कपटं भाषाविपर्ययकरणं अविद्यमानं वस्तु-अभिधेयोऽर्थो यत्र तद्वस्तु, पदत्रयस्याप्ये तस्य कथञ्जित्समानार्थत्वेनैकतमस्यैव गुणनादिमेकं नाम ), ७ निरर्थकापार्थक (निष्प्रयोजन होने से तथा सत्यहीन होने से ), ८ विद्वेष गर्हणीय (विद्वेष तथा निन्दा का कारण होने से ) ९ अनृजुकम् ( कुटिल होने से ) १० कल्कना ( मायामय होने से ), ११ वञ्चना ( ठगने का कारण होने से ), १२ मिथ्या पश्चात्कृतम् ( झूठ समझ कर न्यायवादी उसे पीछा कर देते हैं ), १३ सातिस्तु ( अविश्वासकारक होने से उसे साति कहते हैं ) १४ अपच्छन्नम् ( अपने दोष को व परगुणों के ढक देने कारण यह 'अपच्छन्न' है, १५ उत्कूल १६ आर्त, १७ अभ्याख्यान, १८ किल्विष, १९ बलय, २० गहन २१ मन्मन, २२ नूम ( सत्य को ढकनेवाला ), २३ निकृति २४ अप्रत्यय, २५ असमय, २६ असत्य सन्धत्व, २७ विपक्ष, २८ अपधीक - आज्ञातिग, २९ उपध्यशुद्ध, ३० अवलोप ।
उस मृषावाद के इस प्रकार ये तीस नाम हैं जो मृषावाद सावद्य सपाप और अलीक है तथा वचन का व्यापार है, उसके ऐसे अनेक नाम है ।
(१८)
तस्स य णामाणि गोन्नाणि होंति तीसं, तं जहा चोरिक १, परहर्ड २, दत्तं ३, कूरिकर्ड ४, परलाभो ५, संजमो ६, परधरांमिगेही ७.
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तीर्थकर-महावीर लोलिक, तक्कर नणंति य ६, अवहारो १०, हत्थलहुत्तणं ११, पावकम्म करणं १२, तेणिक्कं १३, हरणविप्पणासो १४, अादियणा १५, लुंपणा धणाणं १६, अप्पञ्चरो १७, अवीलो १८, अवखेवो १६, खेवो २०, विक्खेवो २१, कूडया २२, कुलमसी य २३, कंखा २४, लालप्पणपत्थणा य २५, अाससणाय वसणं २६, इच्छापुच्छा य २७, तण्हागेहि २८, नियडिकम्म २६, अपरच्छतिविय ३० तस्स एयाणि एवमादीणि नामधेज्जाणि होति तीसं अदिन्नादाणस्स पावकलिकलुस-कम्म बहुलस्स अणेगाई।
-पत्र ४३-१ उस चौर्य-कर्म के गुणनिष्पन्न तीस नाम हैं-१ चोरी, २ परहृतम, ३ अदत्तम्, ४ ऋरिकृतम्, ५ परलाभः, ६ असंयम, ७ परधन गृद्धि, ८ लौल्य, ९ तस्करत्व, १० अपहार, ११ हस्तलघुत्व, १२ पापकर्मकरण, १३ स्तेनिका, १४ हरण-विम्रणाश, १५ आदीयना (परधन का ग्रहण होने से ), १६ धनलुम्पना, १७ अप्रत्यय, १८ अवपीडय (पीड़ा पहुँचाना), १९ आक्षेप, २० क्षेप, २१ विक्षेप, २२ कूटता, २३ कुलमषी, २४ कांक्षा, २५ लालपन-प्रार्थना, २६ आशंसना-व्यसन २७ इच्छमूर्छा, २८ तृष्णागृद्धि, २९ निकृतिकर्म, ३० अपरोक्ष
उस अदत्तादान के उपरोक्त ये तीस नाम होते हैं। और पाप तथा कलह से मलिन मित्रद्रोह आदि कर्म की अधिकता वाले अदत्तादान के अनेक नाम हैं।
तस्स य णामाणि गोन्नाणि इमाणि होति तीसं, तंजहा-अबंभं १, मेहुणं २, चरंतं ३, संसग्गि ४, सेवणा-धिकार ५, संकप्य ६, बाहणापदाणं ७, दप्पो ८, मोहो ६, मणसंखेवो १०, अणिगाहो ११, वुग्गहो १२, विद्याश्रो १३, विभंगो १४, विब्भमो १५, अधम्मो १६, असीलया
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सूक्ति-माला
६६५ १७, गामधम्मतित्ती १८, रती १६, रागकाम भोगभारो २१, वेरं २२ रहस्सं २३, गुज्झं २४, बहुमायो २५, बंभचेरविग्यो २६, वावत्ति २७, विराहणा २८, पसंगो २६, कामगुणो ३० । त्तिविय तस्स एयाणि एवमादीणि नामधेज्जाणि होति तीसं
-सूत्र १४ पत्र ६६-२ -उस अब्रह्म के गुणनिष्पन्न तीस नाम होते हैं-१ अब्रह्म, २ मैथुन, ३ चरत्,४ संसर्गि, ५ सेवनाधिकार, ६ संकल्प, ७ वाधना, ८ दर्प, ९ मोह, १० मनसंक्षोभ, ११ अनिग्रह, १२ विग्रह, १३ विघातं १४ विभङ्ग, १५ विभ्रम, १६ अधर्म, १७ अशीलता, १८ ग्रामधर्मतृप्ति, १९ रति, २० राग, २१ कामभोगमारः, २२ वैर, २३ रहस्य, २४ गुह्य, २५ बहुमान, २६ ब्रह्मचर्यविघ्न, २७ व्यापत्ति, २८ विराधना, २९ प्रसङ्ग, ३० कामगुण इस प्रकार उनके तीस नाम हैं।
(६०) तम्स य नामाणि गोण्णाणि होति तीसं, तंजहा-परिग्गहो १, संचयो २, चयो ३, उवचो ४, निहाणं ५, संभार ६, संकरो ७, आयारो ८, पिंडो , दव्वसारो १० तहा महिच्छा १५, पडिबंधो १२, लोहप्पा १३, महद्दी १४, उवकरणं १५, संरक्खणा य १६, भारो १७, संपाउप्पायको १८, कलिकरंडो १६, पवित्थरो २०, अणत्थो २१, संथवो २२, अगुत्ती २३, श्रायासो २४, अविनोगो २५, अमुत्ती २६, तण्हा २७, अणत्थको २८, आसत्ती २६, असंतोसोत्तिविय ३० । तस्स एयाणि एवमादीणि नामधेज्जाणि होति तीसं ॥
-सूत्र १८ पत्र ९२-२ -इस परिग्रह के तीस नाम हैं-१ परिग्रह, २ सञ्चय, ३ चय, ४ उवचय, ५ निधान, ६ सम्भार, ७ सङ्कर, ८ आदर,
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६६६
तीर्थकर महावीर ९ पिंड, १० द्रव्यसार, ११ महेच्छा, १२ प्रतिबन्ध, १३ लोभात्मा, १४ महार्दि, १५ उपकरण, १६ संरक्षण, १७ भार, १८ सम्पातोत्पादक, १९ कलिकरण्ड, ·० प्रविस्तर, २१ अनर्थ, २२ संस्तव, २३ अगुप्ति, २४ आयास, २५ अवियोग, २६ अमुक्ति, २७ तृष्णा, २८ अनर्थक, २९ आसक्ति, ३० असंतोप । इस प्रकार परिग्रह के ये तीस नाम अन्वर्थक-सार्थक हैं।
औपपातिक सूत्र
(६१) जह जीवा बज्झति, मुच्चति जह य परिकिलिस्संति । जह दुक्खाण अंतं, करेंति केई अपडिबद्धा ॥
__ --पृष्ठ ५५ -जैसे कई जीव कर्मों से बंधते हैं, वैसे ही मुक्त भी होते हैं । और, जैसे कर्मों की वृद्धि होने से महान् कष्ट पाते हैं। वैसे ही दुःखों का अंत भी कर डालते हैं । ऐसा अप्रतिबद्ध विहारी निगंथों ने कहा है।
(६२) अट्टाहहिय चित्ता जह, जीवा दुक्खसागर नुवति । जह बेरग्ग वगया, कम्मतमुग विहाडे ति ॥
-पृष्ठ ५५ -जो जीव वैराग्यभाव से रहित हैं, वे आर्तरौद्र ध्यान से विकल्प चित्त हो जैसे दुःख सागर को प्राप्त होते हैं, वैसे ही वैराग्य को प्राप्त हुए जीव कर्म-समूह नष्ट कर डालते हैं।
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सूक्ति-माला
६६७ अनुयोगद्वार सटीक
( ६३ ) जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ, इह केवली भासियं ॥
___-पत्र २५६-१ -जो त्रस और स्थावर-सर्व जीवों के प्रति समभाव रखता है, उसी को सच्ची सामायिक होती है--ऐसा केवली भगवान् ने कहा है।
दशाश्रुतस्कंध
(६४) सुक्कमूले जहा रुक्खे, सिञ्चमाणे ण रोहंति । एवं कम्मा ण रोहन्ति, मोहणिज्जे खयंगए ॥ १४ ॥
-पत्र २७-१ -जैसे वृक्ष जो सूखा हुआ है, उसको सींचने पर भी वह नहीं लहलहाता है उसी प्रकार मोहनीय कर्म क्षय हो जाने पर पुनः कर्म नहीं उत्पन्न होते हैं ।
जहा दद्धाणं बीयाणं, ण जायंति पुणंकुरा । कम्म बीएसु दड्ढेसु, न जायंति भवंकुरा ॥ १५ ॥
-पत्र २७-१ -जैसे दग्ध बीजों के पुनरंकुर नहीं उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार दग्ध कर्म बीजों में से भवरूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होते।
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६६८
तीर्थकर महावीर उत्तराध्ययन ( वडेकर तथा एन् वी. वैद्य-सम्पादित)
(६६ ) जहा सुणी पूइकन्नी, निक्कसिञ्जई सम्बसो । एवं दुस्सीलपडिणीए मुहरी निक्कसिञ्जई ॥ ४ ॥
-अध्ययन १, पृष्ठ १ -जैसे सड़े कानों वाली कुतिया निवास योग्य स्थान से निकाल दी जाती है, उसी प्रकार दुःशील, प्रत्यनीक, वाचाल निकाला जाता है।
वरं मे अप्पा दन्तो, संजमेण तवेण य । माहं परेहिं दम्मतो, बंधणेहिं वहेहि य ॥ १६ ॥
--अ० १, पृष्ठ २ -संयम और तप के द्वारा स्वयं ही आत्मा का दमन करना मुझे वरेण्य है ( ताकि ) वध और बंधनों के द्वारा औरों से आत्म-दमन न हो।
चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जन्तुणो । माणुसत्तं, सुई, सद्धा, संजयमम्मि य वीरियं ॥ १ ॥
-अ०३, पृष्ठ ८ -इस संसार में जीव को चार प्रधान अंग दुर्लभ हैं१ मनुष्यत्व २, श्रुति-श्रवण ३ श्रद्धा और ४ संयम में वीर्य ।
पाणे य नाइवाएज्जा, से समीय त्ति वुच्चई ताई । तश्रो से पावयं कम्मं, निज्जाइ उदगं व थलामो ॥ ६ ॥
. -अ०८, पृष्ठ १७
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सूक्ति-माला
६६६ -जो पुरुष किसी प्राणी का वध न करे वह समित (अर्थात् समिति वाला) कहलाता है फिर उससे पाप-कर्म उसी प्रकार चला जाता है, जिस प्रकार स्थल से पानी चला जाता है।
कसिणंपि जो इमं लोयं, पडिपुण्णं दल्लेज्ज इक्कस्स । ताणावि से ण संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे पाया ॥ १६ ॥
-अ०८, पृष्ठ १८ -धन-धान्य से भरा हुआ लोक भी यदि कोई किसी को दे देवे, तो इससे भी लोभी जीव सन्तोष को प्राप्त नहीं होता, इसलिए यह आत्मा दुष्पूर है अर्थात् इसकी तृप्ति होना अत्यन्त कठिन है।
(७१) जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्डई । दोमासकयं कज्जं, कोडीए वि न निट्ठियं ॥ १७ ॥
--अ०८, पृष्ठ १८ -जहाँ लाभ होता है, वहाँ लोभ होता है । लाभ लोभ को परिवर्द्धित करता है। दो मासक का कार्य कोटि से भी निष्पन्न न हो सका।
जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिए। एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जो ॥ ३४ ॥
अ० ९, पृष्ठ २० -दुर्जय संग्राम में सहस्र-सहस्र शत्रुओं को जीतने की अपेक्षा अपनी आत्मा पर जय पाना सर्वोत्कृष्ट जप है।
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७००
तीर्थंकर महावीर
( ७३ )
अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्यो । अप्पाणामेवमप्पा,
जइत्ता
सुहइ ॥ ३५ ॥
--
- अ० ६, पृष्ठ २०
से
।
- हे शिष्य ! तू आत्मा से ही युद्ध कर तुझे क्या काम ? आत्मा को आत्मा से ही जीत प्राप्त करता है ।
( ७४ )
सल्लकामा विसं कामा, कामा श्रासीविसोवमा | कामे य पत्येमाणा, अकामा जंति दोग्गई ॥ ५३ ॥
--अ० ९, पृष्ठ २२ - काम शल्य है, काम विष है, काम आशीविष है । भोगों की प्रार्थना करते-करते जीव विचारे उनको प्राप्त किये बिना ही दुर्गति में चले जाते हैं ।
बाहर के युद्ध करके जीव सुख
( ७३ ) कुसग्गे जह ओस बिंदुए, थोवंचिट्टइ लंबमाणए ।
एवं भणुयाण जीवियं, समयं गोयम मा पमायए || २ |
अ० १०, पृष्ठ २३
-जैसे कुशा के अग्रभाग का ओस का बिन्दु अपनी शोभा को धारण किये हुए थोड़े काल पर्यन्त ठहरता है, इसी प्रकार मनुष्य-जीवन है । अतः हे गौतम! समय मात्र के लिये प्रमाद मत कर ।
( ७६ ) तवो जोई जीवो जोइ ठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्मेह संजमजोगसन्ती, होमं हुणामि इ सिणं पसस्थं ॥ ४४ ॥
-अ० १२, पृष्ठ ३१
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सूक्ति-माला
७०१
-तप अग्नि है, जीव अग्निस्थान है, तीनों योग स्रुव शरीर करोषांग है; कर्म ईंधन है, संयम शांति ( पाठ । है । इस प्रकार के होम से मैं अग्नि को प्रसन्न करता हूँ । ऋषियों ने इसकी प्रशंसा की है ।
( ७७ )
जह सीहो व मियं गहाय, मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले । न तस्स माया व पिया व भाया, कालम्मि तम्मिसहरा भवंति ॥ २२ ॥ -अ० १३, पृष्ठ ३३
— जैसे सिंह मृग को पकड़ लेता है, वैसे ही मृत्यु मनुष्य को पकड़ती है । काल में माता, पिता, भ्राता आदि कोई भागीदार नहीं होते ।
( ७८ )
अभयं पत्थिवा तुम्भं, अभयदाया भवाहि य ।
अणिच्चे जीव लोगम्मि, किं हिंसाए पसज्जसी ।। ११ ।।
-- अ० १८, पृष्ठ ४५
- हे पार्थिव ! तुझे अभय है । तू भी अभय देने वाला हो । अनित्य जीवलोक में हिंसा में क्यों आसक्त हो रहा है ।
( ७६ )
अप्पा नई बेयरणी, श्रप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नन्दणं वर्णं ।। ३६ ।। अ० २०, पृष्ठ ५७ -आत्मा वैतरणी नदी है । मेरी आत्मा कूटशाल्मलि वृक्ष है । आत्म कामदुधा धेनु है । मेरी आत्मा नन्दनवन है ।
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७०२
तीर्थंकर महावीर
(50)
अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहारण य सुहाण य । अप्पा मिश्रममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुपट्टिश्रो ॥ ३७ ॥
-अ० २०, पृष्ठ ५७ - आत्मा ही दुःख और सुख का कर्ता और विकर्ता है । एवं यह आत्मा ही शत्रु और मित्र है, सुप्रस्थित मित्र और दुःप्रस्थित शत्रु है ।
(58)
एगप्पा जिए सत्तू,
कसाया इन्द्रियाणि य ।
ते जिखित्तु जहानायं विहरामि श्रहं मुणी ॥ ३८ ॥
>
- श्र० २३, पृष्ठ ६७ - वशीभूत न किया हुआ आत्मा शत्रुरूप है - कषाय और इन्द्रियाँ भी शत्रुरूप हैं । उनको न्यायपूर्वक जीत कर मैं विचरता हूँ ।
( ८२ )
उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पई ।
भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चई ॥ ४१ ॥
- अ० ६५, पृष्ठ ७५ - भोग से कर्म पर आलेपन होता है, भोगी संसार का भ्रमण करता है । अभोगी पर आलेपन नहीं होता और अभोगी संसार पार कर जाता है ।
( ८३ )
रोगो य दोसो विय कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । कम्मं च जाई मरणस्स मूलं, दुक्खं च जाई
मरणं वयंति ॥ ७ ॥ -अ० ३२, पृष्ठ ९६.
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सूक्ति-माला
७०३ -रागद्वेष दोनों कर्म के बीज हैं। मोह कर्म से उत्पन्न होता है। कर्म जन्म और मरण का मूल है। जन्म और मृत्यु दुःख के हेतु कहे गये हैं।
(८४) दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हो जस्स न होइ तण्हा । तएहा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हो जस्स न किंचणाई ॥ ८ ॥
-अ०३२, पृष्ठ ९६ -जिसे मोह नहीं है, उसने दुःख का नाश कर दिया, जिसको तृष्णा नहीं, उसने मोह का अंत कर दिया, जिसने लोभ का परित्याग किया उसने तृष्णा का क्षय कर डाला और जो अकिंचन है, उसने लोभ का विनाश कर डाला।
(८५) अञ्चणं रयणं चेव, वन्दणं पूअणं तहा । इड्ढीसक्कार सन्माणं, मणसाऽवि न पत्थए ।। १८ ॥
---अ० ३५, पृष्ठ ११० --अर्चा, रत्न, वन्दन, पूजन, ऋद्धि, सत्कार, सम्मान इन सबकी मुमुक्षु मन से भी इच्छा न करे।
(८६ ) कंदप्पभाभियोगं च, किबिसियं मोहमासुरत्तं च । एयाड दुग्गई ओ, मरणम्मि विराहिया होति ॥ २५५ ।।
-अ०३६, पृष्ठ १२८ --कंदर्प-भावना, अभियोग-भावना, किल्विष-भावना, मोहभावना, और आसुरत्व-भावना, ये भावनाएँ दुर्गति की हेतुभूत होने से दुर्गति-रूप कही जाती हैं। मरण के समय इन भावनाओं से जीव विराधक हो जाते हैं।
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तीर्थंकर महावीर दशवैकालिकसूत्र ( हरिभद्र की टीका सहित )
अायावयाही च य सोगमल्ल कामे कमाही कमियं खु दुक्खं । छिदाहि दोसं विणएञ्ज रागं, एवं सुही होहिसि संपराए ॥५॥
-अ० २, पत्र ६५-१ -आतापना ले, सौकुमार्य-भाव को छोड़, काम भोगों को अतिक्रमकर । दुःख निश्चय ही अतिक्रान्त हो जाता है। द्वष को छेदन कर, राग को दूर कर-इस प्रकार करने से तू संसार में सुखी हो जायेगा।
(८८) अजयं भासमाणो अ, पाणभूयाइं हिंसइ । बंधइ पावयं कम्म, तं से होइ कडुअं फलं ॥६॥
-अ० ४, पत्र १५६-२ -अयत्नपूर्वक बोलता हुआ जीव, प्राणी और भूतों की हिंसा करता है और पाप-कर्म बाँधता है। उसका फल उसे कटु मिलता है।
(८६) कहं चरे कहं चिट्ठ, कहमासे कहं सए । कह भुंजतो भासंतो, पावकम्मं न बंधइ ॥७॥ जयं चरे जयं चिट्ठ, जयमासे जयं सए। जयं भुजंतो भासतो, पावकम्मे न बंधइ ॥८॥
-दशवकालिक अ० ४ पत्र १५६-२ -हे भगवन् ! जीव किस प्रकार से चले ? किस प्रकार से खड़ा हो ? किस प्रकार बैठे ? किस प्रकार सोवे ? किस प्रकार
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सूक्ति-माला से भोजन करे ? और किस प्रकार से बोले ? जिससे उसे पापकम का बन्धन न हो।
-यत्नपूर्वक चले, यत्नपूर्वक खड़ा होवे, यत्नपूर्वक बैठे, यत्नपूर्वक सोवे, यत्नपूर्वक भोजन करता हुआ और भाषण करता हुआ पाप-कर्म को नहीं बाँधता।
सव्वभूयप्पभूअस्स, सम्मं भूयाइ पासो। पिहियासवस्स दंतस्स, पावकम्मं न बंधइ ॥६॥
-अ०४, पत्र १५६-२ -जो सब जीवों को अपने समान समझते हैं, जो जगत को समभाव से देखते हैं, कर्मों के आने के मार्ग को जिसने रोक दिया हो और जो इन्द्रियों का दमन करने वाला हो, उसे पापकर्म का बंधन नहीं होता।
पढमं नाणं तो दया, एवं चिट्ठइ सव्व संजए । अन्नाणी किं काही ? किं वा नाही सेयपावगं ॥१०॥
-अ० ४, पत्र १५७-२ -पहले ज्ञान, उसके बाद दया । इसी प्रकार से सब संयत वर्ग (साधु) स्थित है। अज्ञानी क्या करेगा ? और पुण्य-पाप के मार्ग को वह क्या जानेगा।
(१२) जो जीवे वि न याणेइ, अजीवे वि न याणइ । जीवाजीवे अयाणतो, कहं सो नाहीइ संजमं ॥१२॥
---अ०४, पत्र १५७-२
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तीर्थकर महावीर -जो जीव को नहीं जानता, अजीव को नहीं जानता, जीवाजीव को नहीं जानता वह संयम को किस प्रकार जानेगा ?
तवे तेणे वयतेणे, रूवतेणे य जे नरे । अायारभावतेणे य, कुम्वइ देवकिविसं ॥४६॥
-अ० ५, उ० २, पत्र १८९-२ -जो तप का चोर, वचन का चोर, रूप का चोर, आचार का चोर, भाव का चोर होता है, वह अगले जन्म में अत्यन्त नीच योनि किल्विष-देवों में उत्पन्न होता है।
तथिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसि । अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमो ॥८
--अ० ६, पत्र १९६-२ --(अठाहरह ठाणों में ) प्रथम स्थानक अहिंसा महावीरस्वामी ने उपदेशित किया । अहिंसा सब सुख देने वाली है। अतः सर्व भूतों को इसका संयम रखना चाहिए ।
अप्पणट्टा परट्टा वा कोहा वा जइ वा भया । हिंसगं न मुसं वूश्रा, नोवि अन्नं वयावए ॥११॥
---अ०६, पत्र १९७-१ -क्रोध, मान, माया, लोभ तथा भय के कारण से अपने लिए तथा दूसरों के लिए साधु न तो स्वयं मृषा भाषण करे और न करवाए।
चित्तमंत मचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं । दंतसोहणमित्वं वि, उग्गहसि अजाइया ।।१३।।
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सूक्ति-माला तं अप्पणा न गिणहंति, नो वि गिण्हावए परं । अन्नं वा गिण्हमाणं वि, नाणु जाणंति संजया ॥१४॥
---अ० ६, पत्र १९७-२ -पदार्थ सचित्त हो या अचित्त, अल्पमूल्य का हो या बहुमूल्य, दंतशोधन ( तृण ) मात्र पदार्थ भी जिस गृहस्थ के अधिकार में हो, उसकी आज्ञा लिए बिना न तो स्वयं ग्रहण करते हैं, । दूसरों से करवाते हैं और न दूसरों द्वारा ग्रहण किया जाना नच्छा समझते हैं।
जा य सच्चा अवत्तव्या, सच्चामोसा अजा मुसा । जा य बुद्ध हिं नाइन्ना, न तं भासिञ्ज पन्नवं ।।२।।
-अ०७, उ० २, पत्र २१३-१ -जो भाषा सत्य है परन्तु (सावध होने से ) बोलने योग्य नहीं है, जो सत्या-मृषा है, जो मृषा है, (जो असत्यमृषा भाषा ३) तीर्थकर द्वारा अनाचरित है, उस भाषा को प्रज्ञावान न बोले।
(१८) तहेव काणं काणत्ति, पंडगं पंडगति वा । वाहिग्रं वावि रोगित्ति, तेणं चोरति नो वए ।।१२।।
-अ० ७, उ० २, पत्र २१५-१ --काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोरी करने वाले को चोर न कहे ।
भासाइ दोसे य गुणे य जाणिया, तीसे अ दुढे परिवज्जए सया । छसु संजए सामणिए सया जय, वइज्ज बुद्ध हियमाणुलोमियं ॥५६॥
-अ० ७, उ० २, पत्र २२३-१
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__तोर्थकर महावीर -षट्काय के जीवों की रक्षा करने वाला, तथा स्वीकृत संयम में पुरुषार्थ रत रहने वाला सम्यक ज्ञानधारी मुनि; पूर्व कथित भाषा के गुण और दोषों को भली-भाँति जानकर स्व-पर वंचक दुष्ट भाषा को तो छोड़ दे और काम पड़ने पर केवल स्वपर हितकारी एवं सुमधुर भाषा को हो बोले ।
(१००) तेसिं अच्छण जोएण, निच्चं होयव्वयं सिया। मणसा कायवक्केण, एवं हवइ संजए ॥३॥
--अ०८, पत्र २२७-२ -मन, वचन और काया में किसी एक के द्वारा भी किसी प्रकार के जीवों की हिंसा न हो, ऐसा व्यवहार ही संयमी (साधु) जीवन है। नित्य ( ऐसा) अहिंसा-व्यापार वर्तना उचित है।
(१०१) से जाणम जाणं वा, कट टु अाहम्मिग्रं प यं । संबरे खिप्पमप्पाणं, बी ग्रं तं न समायरे ॥३१।।
-अ०८, पत्र २३२-२ -जानते हुए या न जानते हुए यदि कोई अधार्मिक कार्य बन पड़े तो शीघ्र ही उस पाप से अपनी आत्मा का संवरण करे और भविष्य में वह कार्य कभी न करे।
( १०२ ) कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयनासणो । माया मित्ताणि नासेइ, लोभी सव्वविणासणो ॥ ३८ ॥
-दशवैकालिक अ०८, पत्र २३३-१ -क्रोध से प्रीति का नाश होता है, मान से विनय का नाश
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सूक्ति-माला
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होता है, माया से मित्रता का नाश होता है और लोभ सभी सद्गुणों का नाश करने वाला है ।
( १०३ )
उवसमेण हणे कोहं, माणं महवया जिणे ।
मायं च यज्जवभावेश, लोभं संतोसओ जिणे ॥ ३६ ॥ - उ० ८, पत्र २३३-१ - शान्ति से क्रोध को, नम्रता से, मान को, सरलता से माया को, एवं संतोष से लोभ को जीत कर समूल नष्ट करना चाहिए ।
( १०४ )
श्रणिग्गहीश्रा, माया अ लोभो अ पवड्ढमाणा ।
कोहो अमाणो चत्तारि एए कसिया कसाया सिंचित्ति मूलाई पुणब्भवस्स ॥ ४० ॥
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- अ० ८, पत्र २३३-१ -अनिगृहीत क्रोध और मान, तथा प्रवर्द्धमान माया और लोभ, ये चारों ही क्लिष्ट-कपाय पुनर्जन्म-रूप विपवृक्ष की जड़ों का सिंचन करने वाले हैं ।
( १०५ )
अपत्ति जेण सिश्रा, श्रासु कुप्पिञ्ज वा परो ।
सव्वसो तं न भासिज्जा, भासं हिश्रगामििं ॥ ४८ ॥
- अ० ८, पत्र २३४-२ जिस भाषा के बोलने से अप्रीति हो और दूसरा क्रुद्ध हो, ऐसी उभयलोक विरुद्ध अहितकारिणी भाषा का भाषण सभी प्रकार से त्याज्य है ।
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तीर्थंकर महावीर
( १०६ ) जहाहियग्गी जलणं नमसे, नाणा हुई मंतपयाभिसितं । एवायरियं उवचिएज्जा, अणंतनाणोवगोऽवि संतो ॥११॥ -अ० ९-उ० १, पत्र २४५-१
- जिस प्रकार अग्निहोत्री ब्राह्मण, मधु, घृत आदि की आहुति से एवं मंत्रों से अभिषिक्त अग्नि की नमस्कार आदि से पूजा करता है, ठीक उसी प्रकार अनन्तज्ञान सम्पन्न हो जाने पर भी शिष्य को आचार्यश्री की नम्र भाव से उपासना करनी चाहिए ।
( १०७ )
जे य चण्डे मिए श्रद्ध, दुब्वाई नियडी सढे ।
gues से विणीअप्पा, कटं सो गयं जहा ॥ ३ ॥
- अ० ९ उ० २ पत्र २४७-१ -जो क्रोधी, अज्ञानी, अहंकारी, कटुवादी, कपटी और अविनीत पुरुष होते हैं, वे जल-प्रवाह में पड़े काष्ठ के समान संसार - समुद्र में बह जाते हैं ।
( १०८)
न जाइमत्ते न य रूवमते, न लाभमत्ते न सु मत्ते ।
भयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता, धम्मज्झाणरए से य भिक्खु ॥ १६॥ - दशवैकालिक अ० १०, पत्र २६८-१
- जो जातिमद नहीं करता, रूप का मद नहीं करता, लाभ का मद नहीं करता, श्रुत का मद नहीं करता, इस प्रकार सब मदों को विवर्जन कर जो धर्मध्यान में सदा रत रहता है, वह सच्चा भिक्षु है ।
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तीर्थंकर महावीर
भाग १ पर
कुद्ध सम्मतियाँ आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय, कोल्हापुर It is a valuable treatise full of well-documented ioformation. You deserve all praise for the pains you have taken in collecting so much information and presenting it in a systematic form. डा. वासुदेवशरण अग्रवाल, हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
तीर्थङ्कर महावीर (भाग १) पुस्तक पुण्यात्मा विद्वान के विद्यावदात तप का फल है । देखकर चित्त प्रसन्न हुआ, विशेषतः यह देखकर कि इस आयु में उनका ज्ञानसत्र प्रचलित है। पुस्तक शोध-सामग्री से युक्त और सर्वथा उपादेय है।
पं० बनारसोदास चतुर्वेदी एम० पी०, नयी दिल्ली ग्रंथ मेरे लिए उपयोगी सिद्ध होगा।
डा० शिवनाथ, शान्ति निकेतन भगवान महावीर सम्बन्धी ऐतिहासिक प्रमाणों से पुष्ट इस ग्रन्थ के समान अन्य ग्रन्थ दृष्टिगोचर नहीं होगा। विद्या को तपस्या के रूप में ग्रहण कर महाराज जी ने जो यह ग्रन्थ प्रस्तुत किया है उसके कारण वे साहित्य-जगत में अमर रहेंगे।
माईदयाल जैन, दिल्ली पुस्तक ऐतिहासिक पद्धति पर लिखी गयी है। अतः एक नये ढंग की चीज है। मैंने इसे पढ़ने की अपने कई मित्रों से प्रेरणा की है।
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दैनिक 'हिन्दुस्तान' ( नयी दिल्ली)
"परन्तु ऐतिहासिक दृष्टिकोण से इन मान्यताओं को कसौटी पर कसने और उनका विवेचन करने का साहस किसी भी लेखक ने नहीं किया । भगवान महावीर स्वामी के जीवन को ऐतिहासिक कसौटी पर कसकर प्रस्तुत करने का प्रथम प्रयास इस पुस्तक में किया गया है और हमें विश्वास है कि इतिहास की इस परम्परा को अन्य लेखक भी अपनाना चाहेंगे और इस ढंग का ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिक जीवन-चरित्र प्रस्तुत करने का आयोजन करेंगे ।
प्रस्तुत ग्रन्थ के विद्वान लेखक ने वर्षों के ऐतिहासिक अनुसंधान द्वारा जो निष्कर्ष निकाले हैं, उन्हें एक नियमित क्रम देकर ग्रन्थाकार प्रकाशित करना शुरू किया है और यह उन निष्कर्षों का प्रथम भाग है ।
..."इस प्रकार के प्रमाण-पुष्ट ऐतिहासिक विवेचन के कारण ऐसी नवीन सामग्री भी इस पुस्तक में देखने को मिलती है जिससे तत्कालीन इतिहास को फिर से जाँचने की आवश्यकता प्रतीत होती है ।
दैनिक 'आज' (वाराणसी) अबतक जितने जीवन-चरित्र महावीर स्वामी के प्रकाशित हुए हैं, वे या तो कथा के रूप में लिखे गये हैं या साधारण पाठक के लिए। प्रस्तुत पुस्तक का उद्देश्य इन दोनों से भिन्न है। यह खोज के क्षेत्र में काम करनेवाले विद्यार्थियों के लिए लिखी गयी है। शंकास्पद स्थलों पर तत्सम्बन्धी सभी प्रमाण एकत्र कर दिये गये हैं तथा स्थान निर्णय में बौद्ध
और वैदिक ग्रन्थों की भी सहायता ली गयी है । इनके अतिरिक्त इस दशा में काम करनेवाले देशी-विदेशी विद्वानों ने जो भूलें की है, उनका भी मग्रमाण स्पष्टीकरण करने का प्रयास किया गया है।
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