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कामदेव
४५७ पिशाच-रूपधारी देवता के ऐसा कहने पर भी श्रावक कामदेव को न किंचित् मात्र भय हुआ और न संभ्रम हुआ। उसने उसे दूसरी और नीसरी बार भी धमकाया पर कामदेव अपने विचार पर निर्भय रूप में अडिग रहा ।
क्रुद्ध होकर वह पिशाच-रूपधारी देव कामदेव के टुकड़े-टुकड़े करने लगा पर इतने पर भी कामदेव धर्म-ध्यान में स्थिर बना रहा ।
अपने पराजय से ग्लानि युक्त हुआ वह देव पौषधशाला से बाहर निकला और हाथी का रूप धारण करके पौषधशाला में गया । उसने कामदेव से कहा-“कामदेव ! यदि तू मेरे कथनानुसार काम न करेगा तो मैं तुम्हें उछाल कर दाँतों पर लोकँगा और पृथ्वी पर पटक कर पैरों से मसल डालूँगा।” पर, उस धमकी से भी कामदेव विचलित नहीं हुआ। तीन बार ऐसी धमकी देने के बावजूद जब कामदेव अपने ध्यान से विचलित नहीं हुआ, तो हाथी ने उसे उठाकर लोका दिया और दाँत पर लोक कर मसलने लगा। पर, उस वेदना को भी कामदेव शांतिपूर्वक सह गया।
निराश देव ने बाहर निकल कर सर्प का रूप धारण किया; पर सर्प भी उसे विचलित करने में असमर्थ रहा ।
अंत में हार कर उसने देवता का रूप धारण किया और कामदेव के सम्मुख जा कर बोला--"हे कामदेव ! तुम धन्य हो, मनुष्यजन्म का फल तुम्हारे लिए सुलभ है; क्योंकि तुम्हें निर्गन्थ-प्रवचन में इस प्रकार की जानकारी है । देवानुप्रिय शक्र ने अपने देव देवियों के बीच कहा—'हे देवानुप्रिय ! चम्पा-नगरी की पौषधशाला में कामदेव भगवान् महावीर की धर्म-प्रज्ञाति स्वीकार करके विचर रहा है। किसी देव यावत् गंधर्व में ऐसा सामर्थ्य नहीं है कि, वह कामदेव को पलटा सके। शक्र के कथन पर मुझे विश्वास नहीं हुआ तो मैं यहाँ आया,” ऐसा कह कर उसने क्षमा माँगी। उपसर्ग-रहित कामदेव श्रावक ने प्रतिमाएँ पूर्ण की ।
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