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युक्तिप्रबोध-नाटक का स्पष्टोकरण
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निरामिसं । ग्रामिसं सव्वमुज्झित्ता विहरिस्लामो निरामिसा ॥' इत्युत्तराध्ययने अभिष्वङ्गहेतोर्धनधान्यादेरपि श्रमिषत्वेन भणनं, तेन भ्रमस्यास्य भवभ्रमणहेतु तेत्यन्यत्र विस्तरः ॥’
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- यह मांस प्रकरण भोले-भोले जीवों को ठगने मात्र के लिए है । 'दशवैकालिक' में आता है— 'अमज्जमंसासिय मच्छरीया' । सूत्रकृतांग में लिखा है— अमज्जमंसासिगो' ऐसा आगम में है । मुनि का स्वरूप जहाँ वर्णित है, वहाँ उसका निषेध कहा गया है । फिर भी किसी ठिकाने मांसाहार दिखायी देता है । वहाँ दशवैकालिक में आये 'महु घयं व भुजिज्जा संजये' इत्यादि प्रकरण में 'मधु' शब्द से खांड आदि के समान सर्वत्र अर्थान्तर ही प्रतिपादित दिखलायी पड़ता है—ऐसा प्राचीन पंडितों ने कहा है । अर्थान्तर न करना असंगत है । 'रत्नमाला' ग्रन्थ में ज्योतिषियों ने भी अर्थान्तर करण किया है । वहाँ आता है
अष्टम्यादिषु नद्या व ऊर्ध्वगतीच्छुः कदाचिदपि विद्वान् । शीर्षकपालान्त्राणि नखचर्म तिलस्था
क्रमशः ॥
यहाँ 'शीर्ष' से अर्थ 'तुम्बी', 'अंत्राणि' से 'महती मुद्गरिका', 'नख' से 'वाल', 'चर्म' से 'सेल्लरक' (निर्मटिका ) अर्थ लेना ही समर्थित है। आगम में भी प्रज्ञापना में आये 'एगडिया य बहुबीयगा' में अस्थि का अर्थ बीज है ।
तथा 'वत्थल पोरग मजार पोई बिल्ली व पालका दगपिप्पली य दवी मच्छिय ( सोत्तिय ) साए तब मडुंकी' तथा 'विंटं मंसं कडाई एआई हवन्ति एग जोवस्सेति' सूत्र के ये अंश बिलकुल स्पष्ट हैं । वनस्पति का अधिकार होने से यहाँ वैसा अर्थ नहीं है ( जैसा कि प्रकटतः लगता है ) ।
१ – उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका सहित श्र० १४, गा० ४६, पत्र २१२-२ २- युक्तिप्रबोध पत्र १९६ - २००
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