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तीर्थकर महावीर
अन्य स्थल पर भी साधु के आहार का अधिकार होने से उसी प्रकार ( वनस्पतिबोधक ) अर्थ लगेगा। यति के आहार के विशेषण हैं-'अरसाहारे, विरसाहारे, अंताहारे, पंताहारे' ऐसा प्रवचन है । घृतादि विकृतियों का परिभोग भी कारण से है। उस स्थिति में उसे स्थानांगसूत्र में महाविकृति के रूप में कहा गया है। ऐसा आगम में लिखा है-कुणिमाहार नरक का आयु बाँधने का हेतु है । सम्यक् वाले को उसका त्याग होने से श्रीयुत् मौनीन्द्र-शासन में प्रतिषेध होने से मांसाहार कदापि युक्तियुक्त नहीं हो सकता-ऐसा हाथ ऊँचा करके हम कहते हैं । “शुद्ध आहार की गवेपगा करने वाले के लिए मांस की भी शुद्धता से उपालम्भ में हानि नहीं है"..-इसमें भी विरोध नहीं आता-ऐसे लोग कहते हैं कि द्रव्य का भी
आमासु य पकासु य विपच्च माणासु मेसपेसीसु । उप्पज्जन्ति अगंता तव्वण्णा तत्थ जंतुणो॥ आगम से शुद्ध होने के कारण । उस कारण से लाघव से मद्य-मांस आदि के सम्बन्ध में किसी के कहने पर भी भ्रम करने योग्य नहीं है।
'पिट्ठमंसं न खाइज्जा' दशवैकालिक में ऐसा निन्दा वाक्य है । तथा 'सरसाहार' से भी मांस शब्द के अभिधेय होने से जैसा कि गौड़ ने कहा है---"आमिष का अर्थ खाद्य-पदार्थ है।" उत्तराध्ययन में आता है
सामिसं कुललं दिस्स, वज्झमाणं निरामिसे। आमिसं सव्वमुज्झित्ता, विहरिस्सामो निरामिसा॥
___'आमिष' का अर्थ शब्द को प्रसंगवश लेना चाहिए, इस सम्बन्ध में 'आमिष' शब्द ही लें । जिस प्रकार का उसका अर्थ गौड़ ने किया है, वैसा ही अर्थ अन्य
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