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________________ अन्य तीर्थकों का शंका-समाधान २६६ हैं, दत्त का ही भोजन करते हैं और दत्त की ही अनुमति देते हैं । इस प्रकार हम लोग त्रिविध-त्रिविध संयत् यावत् एकान्त पंडित हैं। पर हे आर्यो ! तुम लोग त्रिविध-त्रिविध असंयत् यावत् एकान्त बाल हो ।” अन्यतीर्थिकों ने पूछा-"हम लोगों को आप क्यों त्रिविध-विविध यावत् एकान्त बाल कहते हैं ?'' स्थविर भगवन्तों ने कहा--" हे आर्यो ! तुम लोग अदत्त ग्रहण करते हो, अदत्त का भोजन करते हो और अदत्त की अनुमति देते हो । अदत्त को ग्रहण करते हुए यावत् एकान्त बाल हो।” फिर अन्यतीथिकों ने पूछा- "ऐसा आप क्यों कहते हो ?' स्थविर भगवन्तों ने कहा-" हे आर्यो ! तुम्हारे मत में दी जाती वस्तु दी हुई नहीं है (दिज्जमाणे अदिन्ने )। अतः वह वस्तु देने वाले की होगी, तुम्हारी नहीं । इस प्रकार तुम लोग अदत्त ग्रहण करने वाले यावत् एकान्त बाल हो।" फिर अन्यतीर्थिकों ने कहा-"आप लोग त्रिविध-त्रिविध असंयत यावत् एकान्त बाल हैं ?' स्थविर भगवन्तों ने कारण पूछा तो उन लोगों ने कहा-"आर्यो ! चलते हुए तुम जीव को दबाते हो, हनते हो पदाभिघात करते हो, और दिलष्ट ( संघार्पित) करते हो, संघहित ( स्पर्शित) करते हो, परितापित करते हो, क्लान्त करते हो, इस प्रकार पृथ्वी के जीव को दबाते हुए यावत् मारते हुए तुम त्रिविध त्रिविध असंयत अविरत और यावत् एकान्त बाल समान हो। तब स्थविर भगवंतों ने अन्यतीर्थिकों से कहा--" हे आर्यो ! गति करते हुए हम पृथ्वी के जीव को दबाते नहीं हैं, हनन नहीं करते हैं यावत् मारते नहीं है । हे आर्यों ! गति करते हम शरीर के कार्य के आश्रयी, योग For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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