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________________ २६८ तीर्थङ्कर महावीर में डाली जाती हो, वह डाली हुई नहीं है (निस्सरिज्जमाणे अणिसिटे)। हे आर्या ! तुम्हे दी जाती वस्तु जब तक तुम्हारे पात्र में नहीं पड़ जाती, और बीच में से ही कोई उस पदार्थ का अपहरण करले, तो वह गृहपति का पदार्थ ग्रहण करता है, ऐसा कहा जाता है । वह अपहरण करने वाला तुम्हारे पदार्थ का अपहरण नहीं करता, ऐसा माना जाता है । अतः इस रूप में तुम अदत्त ग्रहण करते हो, यावत् अदत्त की अनुमति देते हो । और इस प्रकार अदत्त ग्रहण करने से तुम यावत् एकान्त अज्ञ हो । तब भगवंतों ने कहा-" हे आर्यो, हम अदत्त ग्रहण नहीं करते, अदत्त का भोजन नहीं करते, और अदत्त की अनुमति नहीं देते । हे आर्यो ! हम लोग केवल दत्त पदार्थ को ग्रहण करते हैं, दत्त पदार्थ का ही भोजन करते हैं और दत्त की अनुमति देते हैं। इस रूप में हम त्रिविधत्रिविध संयत विरत और पापकर्म का नाश करने वाले यावत् एकान्त पंडित हैं।' अन्यतीर्थिकों ने कहा-“हे आर्यो ! तुम लोग किस कारण से दत्त को ग्रहण करते हो यावत् दत्त की अनुमति देते हो और दत्त को ग्रहण करते यावत् एकान्त पंडित हो?" स्थविर भगवंतों ने कहा- "हे आर्यो ! हमारे मत में जो दिया जा रहा है, वह दिया हुआ है (दिज्जमाणे दिन्ने ) जो ग्रहण कराया जा रहा है, वह ग्रहण किया हुआ है (पडिग्गहिज्जमाणे पडिग्गहिए ) जो वस्तु डाली जाती है, वह डाली हुई है (निस्सरिज्जमाणे निसिटे)। हे आर्यो ! दिया जाता हुआ पदार्थ जब तक पात्र में पड़ा न हो, और बीच में कोई अपहरण करे तो वह हमारे पदार्थ का अपहरण कहा जायेगा, गृहपति की वस्तु का अपहरण न कहा जायेगा, इस प्रकार हम दत्त का ग्रहण करते १-जैसा कि शतक ७ उदेज्ञा ७ सूत्र १ में कहा गया है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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