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________________ श्रावक-धर्म --एकान्त में अर्थात् जहाँ कोई न आता-जाता हो, ऐसे स्त्री-पशु और नपुंसक रहित स्थान में शयन-आसन करना, उसे विविक्त शयानासन अर्थात् संलीनतातप कहते हैं । यह संलीनता चार प्रकार का है। उत्तराध्यन की टीका में आता है:इदियकसाय जोगे, पडुच्च संलीणया मुणेयव्वा । तह जा विवित्त चरिया पन्नत्ता वीयरागेहिं ॥ (अ) इन्द्रियसंलीनता-अशुभ मार्ग में जानेवाली इन्द्रियों को संवर के द्वारा रोकना । (आ) कषायसंलीनता--कषाय को रोकना । (इ) योगसंलीनता--अशुभ योगों से दूर रहना । (ई) विविक्तचर्यासंलीनता--स्त्री, पशु और नपुंसकवाले स्थान में न रहना। (६)प्रायश्चित प्रायश्चित के सम्बन्ध में उत्तराध्ययन में आता है : आलोयणारिहाईयं, पायच्छित्तं तु दसविहं । जं भिक्खू वहई सम्मं, पायच्छित्ततमाहियं ॥३१॥ -आलोचना के योग्य दस प्रकार से प्रायश्चित का वर्णन किया गया है, जिसका भिक्षु सेवन करता है । यह प्रायश्चित तप है। प्रायश्चित के दस प्रकारों का उल्लेख ठाणांसूत्र में इस प्रकार दिया है-- दस विधे पायच्छिते पं० तं०--१ आलोयणारिहे, २ पडिक मणारिहे, ३ तदुभयारिहे, ४ विवेगारिहे, ५ विउस्सग्गारिहे, १-उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य की टीका, पत्र ६०८-१ । ( वही ) नेमिचन्द्र की टीका, पत्र ३४१-३ २-नवतत्त्वप्रकरणसार्थ पृष्ठ १२७,१२८, सुमंगला टीका पत्र १०६-१ । २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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