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तीर्थकर महावीर अभिग्रहा अनेक रूपाः तद्यथा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः कालतो भावतश्च... इस तप के सम्बन्धमें उत्तराध्ययन मैं गाथा आती है
अट्टविहगोयरग्गं तु, तहा सतेव एसणा।
अभिग्गहा य जे अन्ने, भिक्खायरिय माहिमा ॥२५॥
-आठ प्रकार की गोचरी तथा सात प्रकार की ऐषणाएँ और जो अन्य अभिग्रह हैं, ये सब भिक्षाचरी में कहे गये हैं। इन्हें भिक्षाचरीतफ कहते हैं।
(४) रसपरित्यागतप रसपरित्यागतप के सम्बन्धमें उत्तराध्ययन में गाथा आती है--
खीर दहि सप्पिमाई, पणीयं पाणभोयणं । परिवजणं रसाणं तु, भणियं रस विवजणं ॥२६॥
–दूध, दही, घृत और पक्कान्नादि पदार्थों तथा रसयुक्त अन्नपानादि पदार्थों के परित्याग को रसवर्जन-तप कहते हैं ।
(५) कायक्लेशतप कायक्लेश-नामक तप के सम्बन्ध में उत्तराध्ययन में गाथा हैठाणा वीरासणाईया, जीवस्स उ सुहावहा । उग्गा जहा धरिजति, कायकिलेसं तभाहि यं ॥२७n
-जीव को सुख देनेवाले, उग्र वीरासनादि तथा स्थान' को धारण करना कायक्लेश तप है।
संलोनतातप सलीनतातप के सम्बन्ध में पाठ आता हैएगंतभणावाए, इत्थीपसुविवञ्जिए ।
सयणासण सेवणया, विवित्त सयणासणं ॥२८॥ १-स्थीयत एभिरिति स्थानानि कायावस्थिति भेदा । -उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य की टीका सहित, पत्र ६०७-२ ।
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