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श्रावक-धर्म
४१५ --अथवा कुछ न्यून तीसरी पौरुषी में या चतुर्थ और पंचम भाग न्यून पौरुषी में भिक्षा लाने की प्रतिज्ञा करना भी काल-सम्बन्धी ऊनोदरी तप है।
भाव सम्बन्धी उनोदरीतप के सम्बन्ध में उत्तराध्ययन में आता हैइत्थी वा पुरिसो वा, अलंकिलो वा नलंकिओ वावि । अन्नयरवयत्थो वा, अन्नयरेणं व वत्थेरां ॥२२॥ अन्नेव विसेसेणं, वणणं भावमणुमुयंते उ । एवं चरमाणो खलु, भावोमाणं मुणेयव्वं ॥२३॥
-स्त्री अथवा पुरुष, अलंकार से युक्त वा अलंकार रहित तथा किसी वय वाला और किसी अमुक वस्त्र से युक्त हो; अथवा किसी वर्ण या भाव से युक्त हो, इस प्रकार आचरण करता हुआ अर्थात् उक्त प्रकार के दाताओं से भिक्षा ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करनेवाला साधु भाव-उनोदरी तप करता है।
पर्याय-उनोदरीतप की परिभाषा उत्तराध्ययन में इस रूप में दी
दवे खेत्ते काले, भावम्मि य ाहिया उ जे भावा । एएहिं .अोमचरो, पजवचरओ भवे भिक्खु ॥२४॥
---द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जो वर्णन किया गया है, उन भावों से अवमौदार्य आचरण करनेवाले को पर्यवचरक-भिक्षु कहते हैं ।
(३) वृत्तिसंक्षेप वृत्ति-संक्षेप के सम्बन्ध में प्रवचनसारोद्धार सटीक में ( पत्र ६५-२) कहा गया है
'वित्तीसंखेवणं' ति वर्तते अनयेति वृत्तिः–भैक्ष्यं तस्याः संक्षेपणं-सङ्कोचः तच गोचराभिग्रह रूपम्, ते च गोचर विषया
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