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________________ ६८३ सूक्ति-माला -बल-वीर्य पुनः-पुनः दुःखावास है। प्राणी बलवीर्य का जैसे-जैसे उपयोग करता है, वैसे-वैसे अशुभ होता है । मोक्ष की ओर से जाने वाले मार्ग सम्यक् ज्ञान, दर्शन और तप हैं। इन्हें ग्रहण कर पंडित मुक्ति का उद्योग करे । (३२ ) पाणेय णाइवाएजा, अदिन्नं पियणादए । सादियं ण मुसं बूया, एस धम्मे सीमत्रो ॥१६॥ -पृष्ठ ४२ -प्राणियों के प्राणों को न हरे, बिना दी हुई कोई भी वस्तु न ले, कपट पूर्ण झूठ न बोले-आत्मजयी पुरुषों का यही धर्म है। (३३ ) कडं च कजमाणं च, श्रागमिस्सं च पावगं । सव्वं तं णाणुजाणन्ति, पायगुत्ता जिइंदिया ॥२१॥ -पृष्ठ ४२ -आत्मगुप्त जितेन्द्रिय पुरुष किसी द्वारा किये गये, किये जाते हुए तथा किये जाने वाले पाप-कर्म का अनुमोदन नहीं करता। तेसि पि न तवो सुद्धो, निक्खन्ता जे महाकुला । जं ने वन्ने वियाणन्ति, न सिलोगं पव्वे जए ॥२४॥ -पृष्ठ ४३ -जो कीर्ति आदि की कामना से तप करते हैं, उनका तप शुद्ध नहीं है, भले ही उच्च कुल में प्रव्रज्या हुई हो। जिसे दूसरे न जाने वह सच्चा तप है । तपस्वी आत्मश्लाघा न करे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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