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________________ ६८२ तोर्थकर महावीर (२८) उदगेण जे सिद्विमुदाहरन्ति, सायं च पायं उदगं फुसन्ता । उदगस्स फासेण सिया य सिद्धी, सिभिंसु पाणा बहवेदगंसि ॥१४॥ -पृष्ठ ३९ -यदि स्नान से मोक्ष मिलता हो, तो पानी में रहनेवाले कितने ही जीव मुक्त हो जायें । ( २६ ) पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहावरं । तब्भावादेसो वा वि, बालं पंडियमेव वा ॥३॥ -पृष्ठ ४१ -ज्ञानियों ने प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहा है। अतः प्रमाद होने से बलवीर्य और अप्रमाद होने से पंडित वीर्य होता है। ( ३० ) वेराई कुवई वेरी, तो वेरेहि रजई । पावोवगा य आरंभा, दुक्खफासा य अन्तसो ॥७॥ -पृष्ठ ४१ -बैरी बैर करता है । वह दूसरों के बैर का भागी होता है। इस प्रकार बैर से बैर बढ़ता जाता है। पाप को बढ़ाने वाले आरम्भ अन्त में दुःखकारक होते हैं। ( ३१ ) नेयाउयं सुयक्खायं, उवायाय समीहए। भुजो भुजो दुहावा सं, असुहत्तं तहा तहा ॥११॥ -पृष्ठ ४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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