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तोर्थकर महावीर
(२८) उदगेण जे सिद्विमुदाहरन्ति, सायं च पायं उदगं फुसन्ता । उदगस्स फासेण सिया य सिद्धी, सिभिंसु पाणा बहवेदगंसि ॥१४॥
-पृष्ठ ३९ -यदि स्नान से मोक्ष मिलता हो, तो पानी में रहनेवाले कितने ही जीव मुक्त हो जायें ।
( २६ ) पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहावरं । तब्भावादेसो वा वि, बालं पंडियमेव वा ॥३॥
-पृष्ठ ४१ -ज्ञानियों ने प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहा है। अतः प्रमाद होने से बलवीर्य और अप्रमाद होने से पंडित वीर्य होता है।
( ३० ) वेराई कुवई वेरी, तो वेरेहि रजई । पावोवगा य आरंभा, दुक्खफासा य अन्तसो ॥७॥
-पृष्ठ ४१ -बैरी बैर करता है । वह दूसरों के बैर का भागी होता है। इस प्रकार बैर से बैर बढ़ता जाता है। पाप को बढ़ाने वाले आरम्भ अन्त में दुःखकारक होते हैं।
( ३१ ) नेयाउयं सुयक्खायं, उवायाय समीहए। भुजो भुजो दुहावा सं, असुहत्तं तहा तहा ॥११॥
-पृष्ठ ४१
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