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________________ सूक्ति-माला ६८१ ( २५ ) मा पच्छ असाधुता भवे, अच्चेही अणुसास अप्पगं । अहियं च असाहु , सोयई से थणई परिदेवई बहु ॥७॥ -पृष्ठ १६ -परभव में असाधुता न हो, इस विचार से आत्मा को विषयों से दूर रखकर अंकुश में रखो। असाधु कर्म के कारण तीव्र दुर्गति में गया हुआ जीव सोच करता है, आक्रन्दन करता है और विलाप करता है। ( २६ ) गारं पि य श्रावसे नरे, अणुपुच पाणेहि संजए । समता सव्वत्थ सुब्बए, देवाणं गच्छे सलोग यं ॥१३॥ -पृष्ठ १७ -गृह में निवास करता हुआ भी जो मनुष्य प्राणियों के प्रति यथाशक्ति समभाव रखनेवाला होता है, वह सुब्रती देवताओं के लोक में जाता है। (२७ ) जेहिं काले परिकन्तं न पच्छा परितप्पए । ते धीरा बन्धणुमुक्का, नावकंखन्ति जीवियं ॥१५॥ -पृष्ठ २४ -जो योग्य समय पर पराक्रम करता है, वह पीछे परितप्त नहीं होता। वे धीर पुरुष बंधनों से उन्मुक्त और जीवित में आसक्ति बिना होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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