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तीर्थंकर महावीर
सूत्रकृतांग (पी० एल० वैद्य - सम्पादित )
( २२ )
जमि जगती पुढो जगा, कम्मेहिं लुम्पति पाणिणो । सयमेव कडेहिं गाइ, यो तस्स मुच्चेज्जपुट्टयं ॥ ४ ॥
- पृष्ठ ११ । और ( स्व
- जगत में प्राणी अपने कर्मों से दुःखी होता है कर्मो से ही ) अच्छी दशा प्राप्त करता है । किया हुआ कर्म फल दिये बिना पृथक नहीं होने का ।
( २३ )
जइ वियना में किसे चरे, जइ विय भुञ्जय मासमंतसो । जे इह मायावि मिज्जई, श्रागन्ता गन्भाय सन्तसो || ६ ||
- पृष्ठ १२
- भले ही व्यक्ति चिरकाल तक नग्न रहे, भले ही कोई मास-मास के अन्तर से भोजन करे, जो माया में लिप्त होता है, वह अनन्त बार गर्भवास करता है ।
( २४ )
ari वणिहि हियं, धारन्ती राइशिया इहं । एवं परमा महत्वया, अक्वाया र सराइ भोयणा ||३||
- पृष्ठ १६
- दूर देशावर के व्यापारियों द्वारा लाया हुआ रत्न राजामात्र धारण कर सकते हैं । उसी प्रकार रात्रि भोजन साथ महाव्रत कोई विरला ही धारण कर सकता है ।
त्याग के
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