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________________ ६८० तीर्थंकर महावीर सूत्रकृतांग (पी० एल० वैद्य - सम्पादित ) ( २२ ) जमि जगती पुढो जगा, कम्मेहिं लुम्पति पाणिणो । सयमेव कडेहिं गाइ, यो तस्स मुच्चेज्जपुट्टयं ॥ ४ ॥ - पृष्ठ ११ । और ( स्व - जगत में प्राणी अपने कर्मों से दुःखी होता है कर्मो से ही ) अच्छी दशा प्राप्त करता है । किया हुआ कर्म फल दिये बिना पृथक नहीं होने का । ( २३ ) जइ वियना में किसे चरे, जइ विय भुञ्जय मासमंतसो । जे इह मायावि मिज्जई, श्रागन्ता गन्भाय सन्तसो || ६ || - पृष्ठ १२ - भले ही व्यक्ति चिरकाल तक नग्न रहे, भले ही कोई मास-मास के अन्तर से भोजन करे, जो माया में लिप्त होता है, वह अनन्त बार गर्भवास करता है । ( २४ ) ari वणिहि हियं, धारन्ती राइशिया इहं । एवं परमा महत्वया, अक्वाया र सराइ भोयणा ||३|| - पृष्ठ १६ - दूर देशावर के व्यापारियों द्वारा लाया हुआ रत्न राजामात्र धारण कर सकते हैं । उसी प्रकार रात्रि भोजन साथ महाव्रत कोई विरला ही धारण कर सकता है । त्याग के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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