________________
( २७ ) पूर्वो का सर्वथा उच्छेद हो गया। धर्मसागर गणि-लिखित तपागच्छ पट्टावलि में (देखिए पट्टावलि समुच्चय, भाग १, पृष्ठ ५१) में पाठ आता है :श्री वीरान् वर्ष सहस्रे १००० गते सत्यमित्रे पूर्वव्यवच्छेदः
१२ उपांग श्रीचन्द्रचार्य-संकलित श्री सुबोधासमाचारी ( पत्र ३१-२, ३२-१ ) में उपांगों की गणना इस प्रकार करायी गयी है। उसमें उन्होंने यह भी बताया है कि, कौन उपांग किस अंग का उपांग है
इयाणि उबंगा-अायारे उवाइयं उवंग १, सूयगडे रायपसेणइयं २, ठाणे जीवाभिगमो ३, समवाए पन्नवणा ४, भगवईए सूरपन्नती ५, नायाणं जम्बूद्दीवपन्नत्ती ६, उवासगदसाणं चंद. पन्नत्ती ७, तिहिं तिहिं आयंबिलेहिं एक्केक्कं उवंगं वच्चइ, नवरं तयो पन्नत्तीओ कालियानो संघट्ट च कीरइ, सेसाण पंचण्हमंगाणं मयंतरेण निरावलिया सुयखंधो उबंगं, तत्थ पंच वग्गा निरयावलियाउ कप्पडिसियाऊ, पुल्फियाउ, पुष्फचूलियाउ, वहीदसाउ....
( कुछ लोग वण्हिदसा का स्थान पर द्वीपसागरप्रज्ञप्ति को १२-वाँ उपांग मानते हैं)
-आचारांग का १ औपपातिक, सूत्रकृतका २ राजप्रश्नीय, ठाणा का ३ जीवाभिगम, समवाय का ५ प्रज्ञापना, भगवती का ५ सूर्यप्रज्ञप्ति, ज्ञाता का ६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, उपासकदशा का ७ चन्द्रप्रज्ञप्ति और शेष ५ अंगों का निरयावलिया।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org