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भक्त राजे
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कुछ समय बाद केशी मुनि ग्रामानुग्राम विहार करते हुए सेतव्या आये और मृगवन में ठहरे ।
उसी दिन कम्बोज से भेंट में आये घोड़ों को रथ में जोत कर चित्त प्रदेशी को घुमाने निकला । वह रथ इतनी दूर ले गया कि प्रदेशी थक गया । राजा के थक जाने पर चित्र वापस लौटा । लौटते हुए राजा मृगचन में विश्राम के लिए ठहर गया । राजा के कानों में केशी मुनि की आवाज पड़ो। उसे बड़ा बुरा लगा। पर, चित्त के कहने पर और केशी मुनि की बड़ी प्रशंसा करने पर, प्रदेशी भी केशी मुनि के पास गया । प्रदेशी और केशी मुनि में पहिले ज्ञान के सम्बन्ध में कुछ वार्ता हुई फिर प्रदेशी ने केशी कुमार से अपनी मूल शंका व्यक्त की और कहा- "श्रमणनिर्गन्थों की यह संज्ञा है, यह प्रतिज्ञा है, यह दृष्टि है, हेतु है, यह उपदेश है, यह संकल्प है, यह तुला है, प्रमाण है और यह समवसरण है कि जीव पृथक है और शरीर पृथक है; पर वे यह नहीं मानते कि जो जीव है, वही शरीर है ।" "
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यह रुचि है, यह यह मान है, यह
इस पर केशीकुमार ने कहा - "हे प्रदेशी ! मेरा विचार भी यही है कि जीव और शरीर पृथक-पृथक हैं। जो जीव है वही शरीर है, यह मेरा मत नहीं है । "
इसे सुनकर प्रदेशी बोला - " जीव और शरीर पृथक-पृथक हैं और 'जो जीव है वही शरीर है' ऐसा नहीं है, तो भंते मान लें- 'मेरे दादा अधार्मिक कार्यों के कारण मर कर नरक गये होंगे। उनका मैं पौत्र हूँ । मुझे वह बड़ा प्यार करते थे । अतः जीव और शरीर पृथकपृथक है तो मेरे दादा को आकर मुझ से कहना चाहिए कि- 'घोर पाप के कारण मैं नरक में गया । अत: तुम किंचित् मात्र पाप मत करना ।' यदि मेरे दादा आकर मुझसे ऐसा कहें तो मैं जीव और शरीर को भिन्न मान
१ - रायपसेणी सटीक १६६ पत्र सूत्र ३०६-३०७ ।
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