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गोशाला को भगवान् का उत्तर
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सर्वानुभूति - नामक अनगार उठकर गोशाला के पास गये और बोले— “जो श्रमण अथवा ब्राह्मण के पास एक भी धार्मिक सुवचन सुनता है, वह उसका वंदन और नमस्कार करता है और देव के चैत्य ( मंदिर ) के समान उसकी पर्युपासना करता है । पर गोशाला तुमने तो भगवान् से दीक्षा ग्रहण की। उन्हीं से तुमने व्रत समाचार सीखे । भगवान् ने तुम्हें शिक्षित किया और बहुश्रुत किया। पर, तुमने भगवान् के साथ अनार्यपने का व्यवहार किया । हे गोशालक ! तुम ऐसा मत करो। ऐसा करना उचित नहीं है।"
गोशाला द्वारा तेजोलेश्या का प्रयोग सर्वानुभूति मुनि की बात से गोशालक का क्रोध और भड़का और तेजोलेश्या से उसने सर्वानुभूति को भस्म कर दिया । '
( पृष्ठ १२० की पादटिप्पणि का शेषांश )
'पाई जणवए' ति प्राचीन जनपदः प्राच्य इत्यर्थः '
- भगवती सूत्र १५ - वां शतक ( गौड़ी जी) पृष्ठ ६१ । पाईण- प्राचीन - का अर्थ पूर्व है, ऐसा ठाणांग की टीका ( ठाणांगसूत्र सटीक, उत्तरार्द्ध, पत्र ३५१-१ सूत्र ४६६ ) में भी लिखा हैं ।
'प्राच्य' के अर्थ में प्राचीन शब्द का प्रयोग कितने ही स्थलों पर जैन - साहित्य में हुआ है । इस 'प्राच्य जनपद' शब्द का व्यवहार कितने ही अन्य स्थलों पर भी हुआ है। 'काशिका' के अनुसार पंचाल, विदेह, और बंग इसके अन्तर्गत थे ( हिन्दूसभ्यता, पृष्ठ १२१ ) | काव्य-मीमांसा ( गायकवाड़, सिरीज ) पृष्ठ ६३ में वाराणसी से पूर्वी भाग को पूर्व देश बताया गया हैं यही परिभाषा काव्यानुशासन ( महावीर जैन विद्यालय, भाग १ ) पृष्ठ १८२ में दी हुई है । अमरकोष - टीका (का० २ भूमिवर्ग श्लोक ८ ) में सरस्वती नदी के दक्षिण-पूर्व का भाग प्राच्य जनपद बताया गया है । ओल्डेनबर्ग ने काशी, कोशल, विदेह और मगध को प्राच्य जनपद में माना है । [ नंदलाल दे लिखित ज्यागरैफिकल - डिक्शनरी, पृष्ठ १५८ ]
।
भी
१ - सर्वानुभूति मृत्यु के बाद सहस्रारकल्प [ ८-वाँ देवलोक ] में देव-रूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ वह १८ सारारोपम रहने के बाद - महाविदेह में जन्म लेने के बाद सिद्ध होगा - उपदेशमाला दोघट्टी- टीका सहित, पत्र २८३ ।
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