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- तीर्थंकर महावीर इसके पश्चात् अयोध्या में उत्पन्न हुआ सुनक्षत्र-नामक अनगार गोशालक को हितवचन कहने लगा। गोशालक ने उस पर भी तेजोलेश्या छोड़ी और उसे भी जलाया । मंलिपुत्र गोशालक के तपःतेज से जला हुआ सुनक्षत्र उस स्थान पर आया, जहाँ भगवान् महावीर थे। वहाँ आकर सुनक्षत्र ने तीन बार भगवान् की प्रदक्षिणा की और वंदन-नमस्कार किया । वंदन-नमस्कार के पश्चात् सुनक्षत्र ने स्वयमेव पाँच महाव्रतों का उच्चारण किया, साधु-साध्वियों को खमाया, खमा कर आलोचना और प्रतिक्रमण करके समाधिपने को प्राप्त हुआ और अनुक्रम से काल धर्म को प्राप्त हुआ।
एक शंका और उसका समाधान कुछ लोग कहते हैं कि पहले तो भगवान् ने गोशाला को तेजोलेश्या से बचाया था ( तीर्थंकर महावीर, भाग १, पृष्ठ २१७ ) पर सर्वानुभूति
और सुनक्षत्र को उन्होंने क्यों नहीं बचाया। इसका उत्तर भगवतीसूत्र की टीका में अभयदेवसूरि ने इस प्रकार दिया है
'मेयं भगवं ! गयगयमेयं भगवं' ति अथ गतं-अवगतमेतन्यया हे भगवन् ! यथा भगवतः प्रसादादायं न दग्धः, सम्भ्रमार्थत्वाच्च गतशब्दस्य पुनः पुनरुच्चारणम् , इह च यद् गोशालकस्य संरक्षणं भगवता कृतं तत्सरागत्वेन दयैकर सत्वाद्भगवतः, यञ्च सुनक्षत्र-सर्वानुभूति मुनिपुङ्गवयोन करिष्यति तद्वीतरागत्वेन लब्ध्यनुपजीकत्वावश्यंभाविभावत्वाइत्य वसेयमिति
-भगवतीसूत्र सटीक, पत्र १२२६ ।
१-सुनक्षत्र मरकर अच्युत-नामक १२ वें देवलोक में देव-रूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ २२ सागरोपम रहने के बाद वह महाविदेह में जन्म लेगा । उसके बाद सिद्ध होगा-उपदे शमाला दोघट्टी टीका सहित, पत्र २८३ ।
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