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तीर्थंकर महावीर
"इस प्रकार हे आयुष्मान् काश्यप ! १२३ वर्षों में मैंने ७ शरीरांतरपरावर्तन किया है।''
गोशाला को भगवान का उत्तर गोशाला के इस प्रकार कहने पर भगवान् बोले- "हे गोशालक ! जिस प्रकार कोई चोर हो, वह ग्राम-वासियों से पराभव पाता जैसे गड्ढ, दरी, दुर्ग, निम्नस्थल, पर्वत या विषम स्थान न मिलने से एकाध ऊन के रेशे से, सन के रेशे से अथवा रुई के रेशे से या तृण के अग्रभाग से अपने को हँक कर-न हुँका हुआ होने पर भी यह मान ले कि, मैं ढंका हुआ हूँ; उसी प्रकार तू भी दूसरा न होता हुआ—'मैं दूसरा हूँ,' कहकर अपने को छिपाना चाहता है । हे गोशालक ! अन्य न होने पर भी तुम अपने को अन्य कह रहे हो। ऐसा मत करो । ऐसा करना योग्य नहीं है।" ___श्रमण भगवान् महावीर के इस प्रकार के कथन से गोशाला एक दम क्रुद्ध हो गया और अनेक प्रकार के अनुचित वचन कहता हुआ बोला"मैं ऐसा मानता हूँ कि तुम नष्ट हो गये हो अथवा विनष्ट हो गये हो अथवा भ्रष्ट हो गये हो और कदाचित् तुम नष्ट, विनष्ट और भ्रष्ट तीनों ही हो गये हो । कदाचित् तुम आज नहीं होगे। तुम्हें मुझसे कोई सुख नहीं होनेवाला है।"
गोशाला के ऐसे कहने पर पूर्व देश में जन्में भगवान् के शिष्य . १-बाशम ने इनको गोशाला से पूर्व के श्राजीवक आचार्य माना है, ( आजीवक, पृष्ठ ३२)। ऐसा ही मत कल्याणविजय ने 'भगवान् महावीर' [ पृष्ठ २६५ ] में व्यक्त किया है । भगवती में आता है कि गोशाला अपने को इस अवसर्पिणी का २४-वाँ तीर्थकर मानता है । इसका अर्थ हुआ कि २३ तीर्थकर उससे पहले हो चुके थे। ये जो ७ बताये गये हैं, वे वस्तुतः गोशाला के पूर्वभव थे। भगवती में ही सात भवों के बाद सिद्धि-प्राप्ति की बात कही गयो है। ___ २-यहाँ मूल शब्द 'पाईण जणवए' है। इसकी टीका करते हुए टीकाकार ने लिखा है
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