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तीर्थकर महावीर कुछ समय बाद कुटुम्ब जागरण करते हुए मध्यरात्रि के समय रेवती को यह विचार हुआ कि इन बारह सपत्नियों के होते मैं महाशतक के साथ उदार मनुष्य संबन्धी भोग भोगने में समर्थ नहीं हूँ। मुझे इन बारह सपत्नियों को अग्नि-प्रयोग से, शस्त्र-प्रयोग से अथवा विष-प्रयोग से मुक्त करके उनका एक-एक करोड़ हिरण्य और एक-एक व्रज लेकर महाशतक के साथ निर्बाध भोग भोगना चाहिए। अतः एक दिन उस रेवती ने ६ पत्नियों को शस्त्र प्रयोग से और ६ पत्नियों को विषप्रयोग से मार डाला और उनकी सम्पत्ति पर स्वयं अधिकार कर लिया ।
वह रेवती गृहपत्नी मांस लोलुप होकर, मांस में मूर्छित होकर यावत् अत्यन्त आसक्त होकर शलाके पर सेंका हुआ, तला हुआ और भुना हुआ मांस खाती हुई और सुरा', मधु', मेरक, मद्य, सीधु और प्रसन्ना मद्य का व्यवहार करती हुई रहने लगी।
उसके बाद राजगृह में प्राणि-वध-निषेध ( हिंसा-निवारण) की घोषण
१--काष्ठपिष्ठ निष्पन्नां-स्वासगदसाओ सटीक, पत्र ४६-१ ।
२-क्षौद्रं वही पत्र ४६-२; मधु का अर्थ उत्तराध्ययन नेमिचंद्र की टीका सहित पत्र ३६६-१ में 'मद्य विशेषौ' लिखा है।
३-मद्यविशेष उवासगदसाओ सटीक पत्र ४६.२ उत्तराध्ययन की टीका में नेमिचंन्द्र में लिखा है-'मैरेयं सरकः” पत्र ३६६.१ ।
४-गुड धातकी भवं-उदार गतस ओ सर्टक ४६-२ । ५.-तद्विशेष-उवासगदसाओ सटीक पत्र ४६-२ । ६–सुराविशेष-उपासक सशा सटीक, पत्र ४६-२ ।
सुराओं का विशेष वर्णन कल्पवृक्षों वाले प्रकरण में जम्बूद्वीपप्रशप्ति (पूर्वभाग) पत्र १६-२-१००-२ तथा जीवाजीवाभिगमसूत्र सटीक १४५.२-१४६-१ में प्राता है। जिज्ञासु पाठक वहाँ देख लें। उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका पत्र ३७-२ में कादंबरी नाम भी आता ।
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