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महाशतक
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हुई। तब उस मांस-लोलुप ने कौलगृहिक (मैके के पुरुषों को बुलाया और बुलाकर कहा-“हे देवानुप्रिय ! तुम मेरे पितृगृह के व्रजों में से प्रतिदिन प्रातःकाल दो बछड़ा मार कर मुझे दिया करो।” वे नित्य दो बछड़े का बध करते । इस प्रकार रेवती मांस तथा मदिरा के व्यवहार में लिप्त रहने लगी।
महाशतक श्रमणोपासक को शीलवत के साथ आत्मा को भावित करते १४ वर्ष व्यतीत हो गये। तब उसने अपने ज्येष्ठ्य पुत्र को अपने स्थान पर गृहकार्य का भार सौंप कर पोषधशाला में भगवान् के समीप की धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार करके रहने लगा । एक दिन रेवती गृहपत्नी मत्तउन्मत्त होकर, नशे में डगमगाती हुई, केश को विक्षिप्त किये हुए, उत्तरीय को दूर करती हुई, शृंगार किये हुए, पोषधशाला में पहुँची और महाशतक के निकट पहुँच कर मोहोन्माद उत्पन्न करनेवाली और शृंगार रस वाला स्त्रीभाव प्रदर्शित करती हुई महाशतक श्रमणोपासक से बोली"धर्म की इच्छा वाले, स्वर्ग की इच्छा वाले, मोक्ष की इच्छा वाले, धर्म की आकांक्षा वाले, धर्म की पिपासावाले हे महाशतक श्रमणोपासक ! तुम्हारे धर्म, पुण्य और स्वर्ग अथवा मोक्ष का क्या फल है, जो तुम मेरे साथ उदार यावत् भोगने योग्य भोग नहीं भोगते ?"
श्रमणोपासक महाशतक ने रेवती के कहे पर ध्यान नहीं दिया और धर्म ध्यान करता विचरण करता रहा । अतः रेवती जिधर से आयी थी, उधर ही वापस चली गयी।
महाशतक श्रमणोपासक ने प्रथम उपासक प्रतिमा को स्वीकार करके विधिपूर्ण रूप में उसे पूरा किया । इस प्रकार उसने ग्यारहों प्रतिमाएँ पूरी की। इन घोर तपों से महाशतक श्रमणोपासक कृश और दुर्बल हो गया और उसकी नस-नस दिखने लगी।
१-राजगृह में उस समय श्रेणिक राजा था। हिंसा निवारण की यह घोषण वस्तुतः उस पर भगवान् महाबीर के उपदेश के प्रभाव का प्रतिफल था।
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