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________________ ४८६ तीर्थंकर महावीर एक दिन धर्मजागरण करते हुए श्रमणोपासक महाशतक को विचार हुआ 'इस तप से मैं कृश हो गया हूँ ।' अतः वह मरणन्तिक संलेखना से जोषित शरीर होकर भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर मृत्यु की कामना न करता हुआ, विचारने लगा । शुभ अध्यवसाय से अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया और वह महाशतक श्रमणोपासक पूर्व दिशा में लवण समुद्र में हजार योजन प्रमाण, दक्षिण और पश्चिम दिशाओं में भी उतना ही और उत्तर दिशा में चुल्ल हिमवंत वर्षधर पर्वत तक जानने और देखने लगा । नीचे वह रत्नप्रभा पृथ्वी के चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाला लोलुप-अच्युत् नाम के नरकावास को जानने-देखने लगा । एक दिन रेवती गृहपत्नि मत्त यावत् ऊपर का वस्त्र हटाकर पोषधशाला में जहाँ महाशतक श्रावक था, वहाँ आयी और " हे मशाशतक श्रमणोपासक !” आदि पूर्ववत् बोली । रेवती ने इसी प्रकार दूसरी बार कहा। पर, जब उसने तीसरी बार कहा तो महाशतक श्रमणोपासक ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया और जानकर गृहपत्नी रेवती से कहा – हे रेवती ! तुम सात दिनों के अंदर अलसक ( विषूचिका ) रोग से आर्त ध्यान की अत्यन्त परवशाता से दुःखित होकर असमाधि में मृत्यु को प्राप्त करके रत्नप्रभा पृथ्वी मे अच्चुय-नरक में चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाली नैरयिक के रूप उत्पन्न होगी ।" - रेवती ने सोचा महाशतक मुझ पर रुष्ट होगया है । अतः वह भयभीत होकर अपने घर वापस चली गयी गयी । सात रात के अंदर अलसक व्याधि से वह मर कर नरक गयी । उस समय भगवान् महावीर राजगृह पधारे । उन्होंने गौतम से महाशतक- रेवती की सम्पूर्ण घटना कह कर कहा - " हे गौतम ! महाशतक के निकट जाकर कहो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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