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आयंबिल स्थानीयानि, पृथक लवणं चाकल्प्यं उत्प्तर्गेऽनुक्तत्वात् । एकैकं ओदनादि त्रिविधं स्यात् । जघन्यं, मध्यम, उत्कृष्ट स्यात्
___-पत्र ४०-२ इस आचाम्ल-व्रत में विकृति-रहित सूखा उबला हुआ अथवा भुना हुआ अन खाया जाता है । 'हिस्ट्री आव जैन मोनाचिज्म' में डाक्टर शान्ताराम बालचन्द्र देव ने (पृष्ठ १९५ ) केवल 'उबला हुआ' लिखा है । यह भूल जैन-शास्त्रों से उनके अपरिचित होने के कारण हुई। इसी प्रकार उन्होंने केवल 'चावल' का उल्लेख किया है । ऊपर की टीकाओं में चावल, कुल्माष, सत्त आदि का स्पष्ट उल्लेख है। विकृतियाँ दूध, दही, घी, गुड़, पक्कान आदि हैं।
संसट्टा दूसरा शब्द 'संसट्ट' आया है।
प्रवचन-सारोद्धार-सटीक, द्वार ९६ गाथा ७४० पत्र २१५-२ में भिक्षा के प्रकार दिये हैं। उसमें आता है--
तं मि य संसट्ठा हत्थमत्तएहिं इमा पढम भिक्खा इसकी टीका इस प्रकार की गयी है
'तं मि' ति प्राकृतत्वात्तासु भिक्षासु मध्ये संसृष्टा हस्तमात्रकाभ्यां भवति, कोऽर्थः ? संसृष्टेन-तक्रतीमनादिना खरण्टितेन हस्तेन संसृष्टेनैव च मात्रकेण--करोटिकादीना गृह्णतः साधो संसृष्टा नाम भिक्षा भवति, इयं च द्वितीयाऽपि मूल गाथोक्तक्रमापेक्षया प्रथमा, अत्र च संसृष्टासंसृष्ट सावशेष निरवशेषद्रव्यैरष्टौ भङ्गाः तेषु चाष्टमो भङ्गः संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्रं सावशेपं द्रव्यमित्येपगच्छनिर्गतानां सूत्रार्थहान्यादिकं कारणमाश्रित्य कल्पन्त इतिः .....
-खरंटित हाथ अथवा कलछुल से दी गयी भिक्षा
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