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श्रावक-धर्म
३८६ रसाणं ८, अंजणाणं ६, अंजणपुलयाणं १०, जायरुवाणं ११ सुभगाणं १२ अंकाणं १३, फलिहाणं १४, रिट्ठाणं १५ तथा __इसकी टीका में उनके नाम इस प्रकार गिनाये गये हैं
हीरकाणं १, वैडूर्याणं २, लोहिताक्षाणं ३, मसारगल्लानां ४, हंसगर्भाणं ५, पुलकानां ६ सौगन्धिकानां ७, ज्योतीरसानां ८, अञ्जानानां ६, अंजनपुलकानां १०, जातरूपाणां ११, सुभगानां १२, अंकानां १३, स्फटिकानां १४, रिष्टानां १५,।
२ क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रम-अतिचार-इच्छा परिणाम से अधिक क्षेत्र-वस्तु का उपयोग क्षेत्रवस्तुप्रमाणातिक्रम-अतिचार है।
जैन-शास्त्रों में क्षेत्र की परिभाषा बताते हुए कहा गया है:सस्योत्पत्तिभूमिस्तच्च सेतु केतुतदुभयात्मक त्रिधा...' जिस भूमि में धान्य उत्पादित हो उसे क्षेत्र कहते हैं। उसके तीन प्रकार हैं सेतु-क्षेत्र, केतु-क्षेत्र और उभय-क्षेत्र । सेतु-क्षेत्र की परिभाषा इस प्रकार बतायी गयी है:
तत्रारघट्टादिजल निष्पाद्य सस्यं सेतु-क्षेत्र जिस भूमि में अरघट्ट आदि से सिंचाई करके अन्नोत्पादन किया जावे वह सेतु-क्षेत्र है।
और, "जलदनिष्पाद्यसस्यं केतुक्षेत्रं" मेघ-वृष्टि से जिसमें अन्न उपजे, वह केतु -क्षेत्र है।
१-श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र सटीक, पत्र १००-२ । प्रवचनसारोद्धार सटीक पूर्वाद्ध पत्र ७४-२ मे भी ऐसा ही उल्लेख है :
सेतु केतूभय भेदात् ___ दशवैकालिकनियुक्ति ( दशवैका लिक हरिभद्र टीका सहित ) पत्र १६३-२ में भी इसी प्रकार उल्लेख है।
२-श्राद्धप्रतिक्रमगसूत्र सटीक, पत्र १००२। प्रवचनसारोद्धार सटीक पूर्वाद्ध ७४.२ में भी ऐसा ही उल्लेख है।
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