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________________ ३८८ तीर्थकर महावीर गण्यते-सङ्खयाते यत्तदगणिमं' (२) धरिम-जिसका व्यवहार तौल कर होता है, उसे परिम कहते हैं। यत्तुलाधृतंसद्यह्रियते' (३) मेय-माप कर जिसका व्यवहार हो वह मेय है। ज्ञाता धर्मकथा की टीका में इसके लिए कहा गया है "यत्सेतिकापल्यादिनामीयते" (४) परिच्छेदद्य-छेदकर जिसकी परीक्षा की जाती हो, उसे परिच्छेद्य कहते हैं यद् गुणतः परिच्छेद्यते-परीक्ष्यते वस्त्रमण्यादि दशवैकालिकनियुक्ति में २४ रत्न बताये गये हैं:रयणाणि चउबीसं सुवण्णतउतंब रययलोहाई। सीसगहिरण्ण पासाण वइर मणि मोति अपवालं ।। २५४ ।। संखो तिणि सा गुरु चंदणणि वत्थामिलाणि कट्ठाणि । तह चम्मदंतवाला गंधा दवोसहारं च ॥ २५५ ॥ कल्पसूत्र सूत्र २६ में निम्नलिखित १५ रत्न गिनाये गये हैं: रयणाणं वयराणं १, वेरुलियाणं २, लोहिअक्खाणं ३ मसारगल्लाणं ४, हंसगब्भाणं ५, पलयाणं ६, सोगंधिाणं ७, जोई १-अनुयोगद्वारा सटोक पत्र १५५-२। ज्ञाताधर्मकथा की टीका में आता है "गणिम-नालिकेर पूगीफलादि यद्गणितं सत् व्यवहारे प्रविशति' ( पत्र १४२-२ ) २-ज्ञाताधर्मकया सटीक पूर्वार्द्ध, पत्र १४२-२ ३-पत्र १४३-१ ४-ज्ञाताधर्मकथा सटीक, पूर्वाद्ध पत्र १४३-१ ५-दशवैकालिकसूत्र, हरिभद्र की टीका सहित, अ०६, उ० २, १६३-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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