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श्रावक-श्राविका
४६५ उनसे अनुमति लेकर उसने वैभारगिरि के पास समचौरस, बराबर काँठे वाली, अनेक जाति के पुष्पों से सुशोभित, और पुष्पों के गंध से छिंके भ्रमर, सारस आदि अनेक जलचरों की आवाजों से गुजारित एक बड़ी पुष्करिणी बनवायी।
उसके बाद उसके पूर्व दिशा के वनखंड में अनेक स्तम्भों से सुशोभित एक मनोहर चित्रसभा बनवायी। उसे अनेक प्रकार के काष्ठकर्म ( दारुमय पुत्रिकादि निर्मापणानि) पुस्तकर्म (पुस्त-वस्त्रं ), चित्र, लेप्य, ग्रन्थि आदि से सुशोभित कराया ।
उसमें विविध प्रकार के गायक, नट आदि वेतन पर रखे गये थे । राजगृह से यहाँ आने वाले अपने आसन पर बैठे-बैटे इनके नाटक आदि का आनंद लिया करते थे।
उसके दक्षिण दिशा में पाकशाला बनवायी गयी थी। उसमें विविध प्रकार की भोजन-सामग्री तैयार होती। श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, अतिथि लोगों को वहाँ से भोजन मिलता।
पश्चिम के वनखंड में चौकोर, विपुल हवा तथा प्रकाश से युक्त एक बड़ा औषधालय बनवाया । उसमें अनेक वैद्य, तथा वैद्यपुत्र, ज्ञायक (शास्त्रानध्यायिनोऽपि शास्त्रज्ञ प्रवृत्ति दर्शनेन रोगस्वरूपतः चिकित्सावेदिनः) ज्ञायकपुत्र, कुशल (स्ववितर्काच्चिकित्सादि प्रवोणाः) कुशलपुत्र आने वाले रोगियों के रोगों का निदान करके चिकित्सा करते थे।
उत्तर दिशा में एक बड़ी अलंकारिक सभा ( नापितकर्मशाला ) बनवायी थी। उसमें अनेक अलंकारिक पुरुष रोक कर रखे गये थे। कितने ही श्रमण, अनाथ, ग्लान, रोगी तथा दुर्बल उस सभा का लाभ उठाते ।
अनेक लोग आते जाते उस पुष्करिणी में नहाते, तथा पानी पीते । राजगृह नगर भर में नंद मणिकार के इस कृति की प्रशंसा करते ।
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