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तीर्थकर महावीर असंख्य प्रादेशिक है; पर उसका भी अंत है; काल के विचार से 'जीव किसी दिवस न रहा हो', ऐसा नहीं है इस रूप में वह नित्य है और उसका अंत नहीं है; भाव से जीव ज्ञान-पर्याय-रूप है, अनन्त दर्शनरूप अनंत गरुलधुपर्याय रूप है और उसका अंत नहीं है। इस प्रकार, हे स्कंदक! द्रव्य जीव अंतवाला है, क्षेत्रजीव अंतवाला है, काल जीव बिना अंत का है और भावजीव बिना अंतवाला है।
"हे स्कंदक ! तुम्हें यह विकल्प हुआ कि, सिद्धि अंतवाली है या बिना अंतवाली है। इसका उत्तर यह है-द्रव्य से सिद्धि एक है और अंतवाली है, क्षेत्र से सिद्धि की लम्बाई-चौड़ाई ४५ लाख योजन है और उसकी परिधि १ करोड ४२ लाख ३० हजार २४९ योजन से थोड़ा अधिक है। पर, उसका छोर है, अंत है। काल की दृष्टि से यह नहीं कह सकते कि किसी दिन सिद्धि नहीं थी, नहीं है अथवा नहीं रहेगी। और, भाव से भी वह अंत वाली नहीं है। अतः द्रव्य तथा क्षेत्र सिद्धि अंतवाली है और काल तथा भाव-सिद्धि अनन्तवाली है। ___ "हे स्कंदक ! तुम्हें शंका हुई थी कि सिद्ध अंतवाला है या बिना अंतवाला है। द्रव्यसिद्ध एक है और अंतवाला है, क्षेत्रसिद्ध असंख्य प्रदेश में अवगाढ़ होने के बावजूद अंतवाला है, कालसिद्ध आदिवाला तो है पर बिना अंतवाला है, भावसिद्ध ज्ञानपर्यवरूप और दर्शनपर्यवरूप है और उसका अंत नहीं है।
"हे स्कंदक ! तुम्हें शंका थी कि किस रीति से मरे कि उसका संसार घटे या बढ़े। हे स्कंदक ! उसका उत्तर इस प्रकार है। मरण दो प्रकार का है-(१) बालमरण और (२) पंडितमरण ।"
१-समवायांग सूत्र सटीक समवाय १७ पत्र ३१-१ तथा उत्तराध्ययन ( शांत्याचार्य की टीका ) नियुक्ति गाथा २१२-२१३ पत्र २३०-२ में भी मरण के प्रकार दिये हैं।
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