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स्कंदक की प्रव्रज्या
८३ गौतम स्वामी स्कंदकको भगवान् के पास ले गये। ,
भगवान के दर्शन मात्र से स्कंदक संतुष्ट हो गया। उसने भगवान् की प्रदक्षिणा की और उनकी वंदना की। . भगवान् ने स्कंद से कहा-“हे मागध ! श्रावस्ती नगरी में रहने वाले पिंगल-नामक निगंथ ने तुमसे पूछा था-'यह लोक अंतवाला है या इसका अंत नहीं है ?' इस प्रकार के और भी प्रश्न उसने तुमसे पूछे थे। इन प्रश्नों के ही लिए तुम मेरे पास आये हो ? यह बात सच है न ?”
स्कंदक ने भगवान् की बात स्वीकार कर ली। फिर, भगवान् ने कहना प्रारम्भ किया- "हे स्कंदक ! यह लोक चार प्रकार का है। द्रव्य से द्रव्यलोक, क्षेत्र से क्षेत्रलोक, काल से काललोक और भाव से भावलोक ।
"इनमें जो द्रव्यलोक है, वह एक है और अंतवाला है । जो क्षेत्रलोक है, वह असंख्य कोटाकोटि योजन की लम्बाई-चौड़ाईवाला है। उसकी परिधि असंख्य कोटाकोटि योजन कही गयी है। उसका अंत अर्थात् छोर है। जो कालकोक है, वह किसी दिन न होता हो, ऐसा कोई दिन नहीं है; वह किसी दिन नहीं था, ऐसा भी नहीं था; और किसी दिन न रहेगा, ऐसा भी नहीं है। वह सदैव रहा है, सदैव रहता है और सदैव रहेगा। वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षत, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। उसका अंत नहीं है । जो भावलोक है वह अनंत वर्णपर्यवरूप है। अनंत गंध, रस, स्पर्श-पर्यवरूप है; अनंत संस्थान ( आकार ) पर्यवरूप है। अनन्त गुरु-लघु-पर्यवरूप है तथा अनंत अगुरु लघु पर्यवरूप है।
"हे स्कंदक ! इस प्रमाण से द्रव्यलोक अंतवाला है; क्षेत्रलोक अंतवाला है, काललोक बिना अंत का है और भावलोक बिना अंत का है।
यह लोक अंतवाला भी है और बिना अंतवाला भी है। . "हे स्कंदक ! तुम्हें जो यह विकल्प हुआ कि जीव अंतवाला है
या बिना अंतवाला तो उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है। यावत् द्रव से जीव एक है और अंतवाला है, क्षेत्र से जीव असंख्य प्रदेश वाला है और
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