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________________ ४४८ तीर्थकर महावीर देवमंदिर अथवा प्रतिमा नहीं, बल्कि चिता पर बना स्मारक है । पर, जहाँ तक 'चैत्य' शब्द के जैन-साहित्य में प्रयोग का प्रश्न है, वहाँ इस प्रकार की कल्पना लग नहीं सकती; क्योंकि जहाँ चिता पर निर्मित स्मारक का प्रसंग आया है, वहाँ 'मडय चेइयेसु' शब्द का प्रयोग हुआ है । ( आचारांग सटीक २, १०, १९ पत्र ३७८-१)। और, जहाँ घुमट-सा स्मारक बना होता है। उसके लिए 'मडयथूभियासु' शब्द आया है । ( आचारांग राजकोट वाला, पृष्ठ ३४३ ) स्पष्ट है कि, चैत्य का सर्वत्र अर्थ मृतक के अवशेष पर बना स्मारक करना सर्वथा असंगत है । बेचरदास का कहना है, कि टीकाकारों ने मूर्तिपरक जो अर्थ किया, वह वस्तुतः उनके काल का अर्थ था—मूल अर्थ नहीं । पर, ऐसा कहना भी बेचरदास की अनधिकार चेष्टा है। औपपातिकसूत्र में चैत्य का वर्णन है। औपपातिक आगम-ग्रन्थों में हैं और उस वर्णक को पढ़कर पाठक स्वयं यह निर्णय कर सकते हैं कि जैन-साहित्य में चैत्य से तात्पर्य किस वस्तु से है । तीसे णं चंपाए णयरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसिभाए पुण्णभद्दे णामं चेहए होत्था, चिराइए पुब्बपुरिसपण्णत्त पोराणे सद्दिए कित्तिए णाए सच्छत्ते सज्झए सघंटे सपड़ागे पड़ागाइपड़ागमंडिए सलोम हत्थे कयक्यडिए लाइय उल्लोइय महिए गोसीस सरस रत्त चंदण ददर दिण्ण पंचगुलितले उवचिय १-निशीथ चूर्णि सभाष्य में भी 'मय थूभियंसि' पाठ पाया है। वहाँ थूम की टीका में लिखा है 'इट्टगादिचिया विञ्चा थूभो भएणति' -सभाष्य निशीथ चूर्णि, विभाग २, उ० ३, सूत्र ७२, पृष्ठ २२४-२२५ यह स्तूप और चैत्य दोनों ही पूजा-स्थान अथवा देवस्थान होते थे । रायपसेणी सटीक सूत्र १४८ पत्र २८४, में स्तूप की टीका में लिखा है 'स्तूपः- चैत्य-स्तूपः' । जहाँ इनका सम्बंध मृतक से होता था, वहाँ 'मडय' शब्द उसमें जोड़ देते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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