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________________ 'चैत्य' शब्द पर विचार ४४७ (३) चैत्य :-देवतरौ, देवावासे, जिनबिम्बे, जिनसभातरौ, जिनसभायां देवस्थाने । -शब्दार्थचिंतामणि, भाग २, पृष्ठ ९४४ । (४) चैत्यः-देवस्थाने । -शब्दस्तोम महानिधिः, पृष्ठ १६० । जैन-साहित्य में कितने ही ऐसे स्थल हैं, जहाँ इसका अर्थ किसी भी प्रकार अन्य रूप में लग ही नहीं सकता । एक पाट है कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेजा यह पाट सूत्रकृतांग ( बाबूवाला) पृष्ठ १०१४, ठाणांगसूत्र सटीक पूर्वाद्ध पत्र १०८-२, १४२-२; भगवतीसूत्र ( सटीक सानुवाद ) भाग १, पृष्ठ २३२, ज्ञाताधर्मकथा सटीक, उत्तराद्ध पत्र २५२-२ में तथा औपपातिकसूत्र सटीक पत्र ८-२ आया है। अब इनकी टीकाएं किस प्रकार की गयी हैं, उनपर भी दृष्टि डाल लेना आवश्यक है। (१) मंगलं देवतां चैत्यमिव पयुसते -दीपिका, सूत्रकृतांग बाबू वाला, पृष्ठ १०१४ (२) चैत्यमिव-जिनादि प्रतिमेव चैत्य श्रमणं -ठाणांगसूत्र सटीक, पूर्वाद्ध, पत्र १११-२ (३) चैत्यम-इष्ट देवता प्रतिमा-औपपातिक सटीक, पत्र १०.२ (४) वेचरदास ने भगवतीसूत्र और उसकी टीका को सम्पादित और अनूदित किया है। उसमें टीका के गुजराती-अनुवाद में बेचरदास ने लिखा है.---"चैत्यनी-इष्टदेवनी मूर्तिनी-पेठे" बेचरदास ने 'जैन साहित्य मां विकार थवाथी थएली हानि" में कल्पना की है कि, 'चैत्य' शब्द चिता से बना है और इसका मूल अर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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