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________________ मत्स्य-मांस परक अर्थ आगम-विरोधियों की देन १८९ हम यहाँ यह कहना चाहेंगे कि, याकोबी ने जैन-आगमों की प्राचीनता तर्कों से और भाषा के परीक्षण से सिद्ध किया; जब कि सुखलाल को न तो भाषा का महत्त्व समझ पड़ा, न शैली का; उन्हें एक ऐसा तर्क समझ पड़ा जो तर्क ही नहीं है । हम लिख चुके हैं कि, न केवल जैनों के बल्कि अन्य धर्मों की पुस्तकों में भी जैनों की अहिंसा का उल्लेख मिलता है और मांसाहार का निषेध न केवल जैन-आगमों में आता है बल्कि अन्य मतावलम्बियों के ग्रंथों में भी आता है कि जैन मांसाहार को घृणित समझते थे। यदि जैनों के व्यवहार में जरा भी कचाई होती तो जब बुद्ध सिंह सेनापति के घर मांसाहार करने गये, तो जैन खुले आम उसका विरोध करने की हिम्मत न करते। ( देखिए विनयापिटक, हिन्दी-अनुवाद, पृष्ठ २४४ वही पृष्ठ १२, १३ की पादटिप्पणि)। हम यहाँ इतना मात्र कहेंगे कि, सुखलाल ने इन अनर्गल तर्कों को उपस्थित करके गैर जानकार लोगों में भ्रम फैलाने का प्रयास कर कुछ अच्छा नहीं किया। सुखलाल के मन का मांसाहार वाला पाप काफी पुराना है। वस्तुतः तथ्य यह है कि, जिस समय उन्होंने तत्वार्थसूत्र का हिन्दी-अनुवाद संवत् २००० में प्रकाशित कराया, उस समय उन्होंने पूज्यपाद के श्रुतावण में मांस-प्रकरण छोड़कर केवल अन्यों की ही गिनती करायी। यह वस्तुतः भूल नहीं थी; पर सुखलाल ने उसे जान बूझ कर छोड़ा था। तत्वार्थसूत्र जैन-संस्था प्रकाशित करने वाली थी। अतः सुखलाल की यह हिम्मत नहीं पड़ी कि वहाँ मांस-प्रकरण का कुछ उल्लेख करते । जब उन्हें अपनी स्वयं की संस्था मिली तो १९४७ में उन्होंने अपने मन का गलीज उलटा । उनके मन का यह पाप पुराना है, यह १५ जुलाई १९४७ के प्रबुद्धजैन में प्रकाशित एक लेख से भी व्यक्त है। कौशाम्बी जी के मतके विरुद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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