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तीर्थंकर महावीर तेहिं नो अट्ठो-भगवतीसूत्र सटीक, पत्र १२६१
अर्थात् उसकी आवश्यकता नहीं है। तो क्यों, तेहिं नो अहो' इस पर टीकाकार ने लिखा है
बहुपापत्वात् और, बहुत पाप क्यों ? इसका स्पष्टीकरण टाणांगसूत्र में किया गया हैं । वहाँ साधु की भिक्षा में तीन प्रकार के दोष बताये गये हैं:
तिविहे उवघाते पं० तं०-उग्गभोवघाते, उघायणोवघाते, एसणोवघाते एवं विसोही --ठाणांगसूत्र सटीक पूर्वाद्ध, टा० ३, उ०४, सृ० १९४ पत्र १५९-१
इसकी टीका में उद्गम के १६, उत्पादन के १६ और ऐपणा दोष के १० भेद, इस प्रकार भिक्षा के कुल ४२ दोष बताये गये हैं । हेमचन्द्राचार्य ने 'योगशास्त्र में लिखा है-- द्विचत्वारिंशता भिक्षादोर्नित्यमदूषितम् । मुनिर्यदन्नमादत्ते सैषणासमितिर्मता ॥
-योगशास्त्र स्वोपज्ञ-टीका सहित, प्रकाश १, श्लो० ३८ पत्र ४५-१ इसमें उद्गम-दोप का पहला दोप आधाकर्म है। इसकी टीका हेमचन्द्राचार्य ने इस प्रकार दी है-- सचित्तस्या चित्तीकरणमचित्तस्यवापाको निरुक्तादाधाकर्म
-योगशास्त्र स्वोपज्ञ टीका सहित, पत्र ४५-२ अर्थात् साधु के निमित्त बनायी गयी भिक्षा लेना आधाकर्म है ।
साधु-धर्म में आधाधर्म कितना बड़ा पाप है, इसका वर्णन पिण्डनियुक्ति में इस प्रकार है:--
आहाकम्मं भुंजइ न पडिक्कमए यतस्स ठाणस्स । एमेव अउइ बोडो लुक्कविलुक्का जह कवोडो ॥२१७॥
—पिंडनियुक्ति सटीक, पत्र ७९-२
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