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याकोवी का स्पष्टीकरण
१७६ -आधाकर्म ग्रहण करने से जिनाज्ञा भंग होती है और शिरोलुंचन आदि निष्फल हो जाते हैं।
याकोबी का स्पष्टीकरण जैनियों के अहिंसा प्रेम पर प्रथम प्रहार डाक्टर हर्मन याकोबी के आचारांग के अंग्रेजी अनु वाद से हुआ, जो 'सेक्रेड-बुक्स आव द'ईस्ट' ग्रंथमाला में (सन् १८८४ ई०) प्रकाशित हुआ था। उस समय खीमजी हीरजी क्यानी ने उस पर आपत्ति उठायी और फिर सागरानंद सूरि तथा विजय नेमिसूरी ने उसका प्रतिवाद किया । इनके अतिरिक्त पूरा जैनसमाज याकोबी के अर्थ के विरुद्ध था। याकोबी के पास इतने प्रमाण
और विरोध-पत्र पहुँचे कि उन्हें अपना मत परिर्वतन करना पड़ा । अपने १४-२-२८ के पत्र में याकोबी ने अपनी भूल स्वीकार की और अपनी नयी मान्यता की पुष्टि की। उक्त पत्र का उल्लेख 'हिस्ट्री आव कैनानिकल लिटरेचर आव जैनाज' में हीरालाल रसिकलाल कापड़िया ने इस रूप में किया है।
There he has said that 'बहुअद्विएण मंसेण वा मच्छेग वा चहुकण्टएण' has been used in the metaphorical sense as can be seen from the illustration of नन्तरीयकत्व given by Patanjali in discussiog a vartika ad Panini (11', 3,9 ) and from Vachaspati's com. on Nyayasutra (iv, 1,54) He has conoluded : "This meaning of the passage is therefore, thata monk should not acoept in alm3 any substance of which only a purt oin be eaten and a greater part must be rejected.'
१ पष्ठ ११७, ११८
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