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तीर्थङ्कर महावीर
".. ऐसी परिस्थिति में हम पतंजलि - महाभाष्य और न्यायसूत्र के वाचस्पति कृत तात्पर्य-मीमांसा के आधार पर नीचे दिये रूप में सम्बन्ध जोड़ सकते हैं :--
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"पतंजलि और उनके पीछे कम-से-कम ९०० वर्ष बाद हुए, वाचस्पति ने जिसका अधिकांश भाग त्याज्य हो, उसके साथ नान्तरीयकत्व-भाव धारण करनेवाले पदार्थ के रूप में मत्स्य का उदाहरण दिया है; क्योंकि मत्स्य ऐसा पदार्थ है कि जिसका मांस तो खाया जा सकता है, पर काँटा आदि खाया नहीं जा सकता ।
"आचारांग के इस पाठ में इसी उदाहरण के रूप में प्रयोग हुआ है । इस पाठ को देखते हुए यहाँ यही अर्थ करना विशेष अनुकूल दिखायी देता है, क्योंकि जब गृहस्थ पूछता है कि - 'बहुत अस्थि वाला मांस आप लेते हैं ?' तो साधु उत्तर देता है— 'बहु अस्थि वाला मांस मुझे नहीं कल्पता ।' यदि गृहस्थ प्रकट रूप में मांस ही देता होता तो साधु तो यही कहता कि, "मुझे नहीं चाहिए; क्योंकि मैं मांसाहारी नहीं हूँ ।" परन्तु, ऐसा न कहकर वह कहता है कि, 'बहुत अस्थिमय मांस मुझे मत दो यदि तुम्हें मुझे वही देना ही हो तो पुझे मुद्गल मात्र दो । अस्थि मत दो ।' यहाँ इस बात की ओर विशेष ध्यान देना उचित समझायी पड़ता है कि, गृहस्थ द्वारा दी जाती वस्तु का निषेध करते हुए साधु उदाहरण रूप प्रचलित 'बहु कंटकमय मांस का प्रयोग नहीं करता है । परन्तु भिक्षा-रूप में वह क्या ग्रहण कर सकता है, इसे सूचित करते हुए वह अलंकारिक प्रयोग न करके वस्तुवाचक 'पुद्गल' शब्द का प्रयोग करता है । इस रूप में भिन्न शब्द का प्रयोग करने का तात्पर्य यह है कि, प्रथम प्रयोग अलंकारिक है और वह भ्रम उत्पन्न कर सकता है, यह बात वह जानता है ।
"इस कारण इस विवादग्रस्त पाठ का अर्थ मैं यह करता हूँ कि जिस
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