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श्रावक-धर्म
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१-सचित्त निक्षेर--न देना पड़े, इस विचार से सचित सजीव, घृथ्वी, जल, कुम्भ, ईधन आदि के ऊपर रख छोड़े । अथवा यह विचार कर कि अमुक वस्तु तो साधु लैगा नहीं, परन्तु निमंत्रण करने से मुझे पुण्य प्राप्त होगा।
२-सचित्त पीहण-अतिचार-न देने के विचार से देय वस्तु को सूरन फलादि से ठक छोड़े।
३-कालातिकम-अतिचार--साधु के भिक्षाकाल से पहले अथवा साधु के भिक्षा कर चुकने के बाद आहार का निमंत्रण दे ।
४-मत्सर-अतिचार--साधु के मांगने पर क्रोध करना अथवा न देना । या इस विचार से देना कि, अमुक ने यह दिया तो मैं क्यों न हूँ।
५-परव्यपदेश-अतिचार--न देने के विचार से अपनी वस्तु को दूसरे की कहना।
संलेखना के ५ अतिचार प्रवचनसारोद्धार-सटीक (पूर्वभाग, गाथा २६४, पत्र ६१.१) में संलेखना के ५ अतिचार इस प्रकार गिनाये गये हैं :--
इह पर लोया संसप्पयोग मरणं च जोविप्रासंसा । कामे भोगे व तहा मरणंते च पंच हयारा ॥
१-इहलोकाशंसा--मनुष्य यदि मनुष्य-भव की आकांक्षा करे या यह विचार करे कि, इस अनशन से अगले भव मैं मैं राजा अथवा धनवान हूँगा।
२-परलोकाशंसा--इस भव में रह कर इन्द्रादि देवता होने की प्रार्थना करने को परलोकाशंका-अतिचार कहते हैं ।
३-मरणाशंसा-शरीर में कोई बड़ा रोग उत्पन्न होने पर अंत:करण में खेद प्राप्त करके यह विचार करे कि, मृत्यु आये तो बहुत अच्छा, यह मरणाशंसा-अतिचार है।
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