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'चैत्य' शब्द पर विचार
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इयसुत्त' का एक गुजराती अनुवाद भी प्रकाशित कराया है, उसमें पृष्ठ ९६ पर ऐसा ही अनुवाद दिया है । स्पष्ट है कि, मूर्ति पूजक होकर भी मूर्ति - पूजा के विरोधी बेचरदास को 'जिन' और 'प्रतिमा' को समानार्थी
मानना पड़ा ।
अधिक स्पष्टीकरण के लिए 'चेइयं' शब्द की कुछ टीकाएं हम यहाँ दे रहे हैं:
( १ ) इयं - इष्टदेव प्रतिमा भग० २।१. भाग १ पत्र २४८ ( २ ) चैत्यानि - श्रईत् प्रतिमा - आवश्यक हारिभद्रीय, पत्र ५१०-१ ( ३ ) चैत्यानि - जिन प्रतिमा - प्रश्नव्याकरण, पत्र १२६-१ ( ४ ) चैत्यानि - देवतायतनानि वाई० पत्र ३. (५) चैत्यम् - इष्टदेव प्रतिमा उवाई०, पत्र १०
"
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( ६ ) वेयावत्तं – चैत्यमिति कोऽर्थ इत्याह-'अव्यक्त' मिति जीर्णं पतितप्रायम निर्द्धारितदेवताविशेषाश्रयभूतमित्यर्थः
मधारी हेमचन्द्र कृत आवश्यक टीका टिप्पण पत्र २८ - १ चैत्य पूजा स्थान था, यह बात बौद्ध ग्रन्थों से भी प्रमाणित है । बुद्ध ने वैशाली के सम्बन्ध में कहा
"... वज्जी यानि तानि वज्जीनं वज्जि चेतियानि श्रन्भन्त रानि चेव बाहिरानि च तानि सकरोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, तेसं च दिन्नपुव्वं कुतपुब्बं धम्मिकं बलिं नो परिहापेन्ती' ति...
दीघनिकाय ( महावग्ग, नालंदा-संस्करण ), पृष्ठ ६०
वज्जियों के ( नगर के ) भीतर या बाहर के जो चैत्य ( चौरादेवस्थान ) हैं, वह उनका सत्कार करते हैं, ० पूजते हैं । उनके लिए पहिले किये गये दान को, पहले की गयी धर्मानुसार बलि ( वृत्ति ) को लोप नहीं करते.."
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