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तीर्थकर महावीर
दीघनिकाय (हिन्दी अनुवाद) पृष्ठ ११९ वैशाली के चैत्य-पूजा का महत्त्व जैन-ग्रन्थों में भी वर्णित है। उत्तराध्ययन की टीका में वहाँ मुनि सुव्रत स्वामी के स्तूप का वर्णन आता है । ( नेमिचन्द्र को टीका, पत्र २-१ ) और कूणिक के युद्ध के प्रसंग में आता है कि जब तक वह स्तूप रहेगा, वैशाली का पतन न होगा।
घासीलाल जी ने उपासगदशांग के अपने अनुवाद में (पृष्ठ ३३९ ) लिखा है
"चैत्य शब्द का अर्थ साधु होता है, वृहत्कल्प भाष्य के छठे उद्देदो के अन्दर 'आहा आधयमकम्मे०' गाथा की व्याख्या में क्षेमकीर्तिसूरि ने 'चेत्योद्देशिकस्य' का "साधुओं को उद्देश करके बनाया हुआ अशनादि" यह अर्थ किया है।
घासीलाल ने जिस प्रसंग का उल्लेख किया है, वह प्रसंग ही दे देना चाहता हूँ, जिससे पाठक ससंदर्भ सारी स्थिति समझ जायेंगे। वहाँ मूल गाथा है
आहा अधे य कम्मे, पायाहम्मे य अत्तकम्मे य । तं पुण आहाकम्म, कप्पति ण व कप्पती कस्स ॥६३७५॥
--आधाकर्म अधःकर्म आत्मघ्नम् आत्मकर्म चेति औद्देशिकस्य साधूनुदृिश्य कृतस्य भक्तादेश्चत्वारि नामानि । 'तत् पुनः' आधाकर्म कस्य कल्पते ? कस्य वा न कल्पते ? __ वृहत्कल्प सनियुक्ति लघुभाष्य-वृत्ति-सहित, विभाग ६, पृष्ठ १६८२-१६८३
यहाँ मूल मैं कहाँ चैत्य शब्द है, जिसकी टीका की अपेक्षा की जाये। असल में लोगों को भ्रम में डालने के लिए 'चेति ( च + इति) और औदेशिकस्य' तीन शब्दों की संधि करके 'चेत्योदेशिकस्य' करके आगे से उसका मेल बैठाने की कुचेष्टा घासीलाल ने की है । उस पाठ में और टीका में कहीं भी चैत्य शब्द नहीं आया है।
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