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तीर्थंकर महावीर
लोगों में और अनेक देशों में विख्यात था । बहुत से भक्त लोग वहाँ आहुति देने, पूजा करने, बंदन करने, और प्रणाम करने के लिए आते थे । वह चैत्य बहुत से लोगों के सत्कार सम्मान एवं उपासना का स्थान था तथा कल्याण और मंगल रूप देवता के चैत्य की भाँति विनयपूर्वक पर्युपासनीय था । उसमें दैवी शक्ति थी और वह सत्य एवं सत्य उपाय वाला अर्थात् उपासकों की लौकिक कामनाओं को पूर्ण करने वाला था, और भाग नैवेद्य के रूप में अर्पण किया जाता था; दूर-दूर से आकर इस पूर्णभद्र चैत्य की अर्चा
वहाँ पर हजारों यज्ञों का इस प्रकार से अनेक लोग पूजा करते थे ।
पूर्णभद्र तो यक्ष था; वह वहाँ मरा तो था नहीं, कि उसकी चिता पर यह मंदिर बना था ।
नगर का जो वर्णक जैन- शास्त्रों में है, उसमें भी चैत्य आता है । औपपातिकसूत्र में ही चम्पा के वर्णन में
आचारवंत चेइय
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( सटीक पत्र २ ) पाठ आया है । वहाँ उसकी टीका इस प्रकार दी हुई हैकारवन्ति - सुन्दराकाराणि श्राकारचित्राणि वा यानि चैत्यानि-देवतायतनानि
रायपसेणी में भी यह पाठ आया है ( बेचरदास - सम्पादित पत्र ४ ) वहाँ उसकी टीका की है - " श्राकारवन्ति सुन्दराकाराणि चैत्यम्” रायपसेगी में हो एक अन्य प्रसंग में आता है ( सूत्र १३९ ) धूवं दाऊण जिणवराणं
इस पाठ से स्पष्ट है कि जिनवर और उनकी मूर्ति में कोई भेद नहीं है - जो मूर्ति और वही जिन !
बेचरदास ने रायपसेणी के अनुवाद ( पत्र ९३ ) में इसका अर्थ किया "ते प्रत्येक प्रतिमाओ आगल धूप कर्यो” । बेचरदास ने 'रायपसेण
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