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तीर्थङ्कर महावीर दिन व्यतीत करता था। एक बार कोई व्यापारी रत्नकम्बल बेचने आया। वह उन्हें बेचने श्रेणिक के पास ले गया। उन रत्नकम्बलों का मूल्य अधिक होने से श्रोणिक ने उन्हें खरीदने से इनकार कर दिया। घूमताघामता वह व्यापारी शालिभद्र के घर पहुँचा । भद्रा ने सारे रत्नकम्बल खरीद लिये।
दूसरे दिन चिल्लणा ने श्रेणिक से अपने लिए रत्नकम्बल खरीदने को कहा । राजा ने व्यापारी को बुलवाया तो व्यापारी ने भद्रा द्वारा सारे रत्नकम्बल खरीदे जाने की बात कह दी । राजा ने भद्रा के यहाँ आदमी भेजा तो भद्रा ने बताया कि उन समस्त रत्नकम्बलों का शालिभद्र की पत्नियों के लिए पैर-पोंछना बनाया जा चुका है।
राजा को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। राजा ने शालिभद्र को अपने यहाँ बुलवाया; पर शालिभद्र को भेजने के बजाय भद्रा ने 'श्रेणिक को अपने यहाँ आमन्त्रित किया ।
भद्रा ने राजा के स्वागत-सत्कार की पूरी व्यवस्था कर दी।
राजा शालिभद्र के घर पहुँचा। चौथे महले पर वह सिंहासन पर बैठा । राजा शालिभद्र का ऐश्वर्य देखकर चकित रह गया।
शालिभद्र की माता श्रेणिक के आगमन की सूचना देने शालिभद्र के पास सातवें महले पर गयी और बोली-"श्रेणिक यहाँ आया है, उसे देखने चलो।" शालिभद्र ने उत्तर दिया- "इस सम्बन्ध में तुम सब कुछ जानती हो । जो योग्य मूल्य हो दे दो। मेरे आने का क्या काम है ?' इस पर भद्रा ने कहा-"पुत्र, श्रेणिक कोई खरीदने की चीज नहीं है। वह लोगों का और तुम्हारा स्वामी है।"
८-वह नेपाल से आया था-पूर्णभद्र-रचित 'धन्य-शालिभद्र महाकाव्य, पत्र ५५, गद्यबद्ध धन्यचरित्र पत्र २१६-२
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