SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 474
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०८ तीर्थङ्कर महावीर नासिकाश्लेष्मणो जल्लस्य देहमलस्य परिष्ठापनायां-परित्यागे समितिः।' समिति अर्थात् संगत प्रवृत्ति । १--गमन करते समय सम्यक् रूप से इस प्रकार चलना कि जीव हिंसा न हो इर्यासमिति है। २--दोष रहित वचन की प्रवृत्ति करना भाषासमिति है । ३-४२ दोषों से रहित भात-पानी ग्रहण करने में प्रवृत्ति करना ऐषणासमिति है। ४--आदान अर्थात् भांड, पात्र और वस्त्रादिक उपकरण के समूह को ग्रहण करते समय तथा निक्षेपण अर्थात् उनके स्थापन करते समय सही रूप में प्रतिलेखना करने की प्रवृत्ति चौथी समिति है । ५--उच्चार अर्थात् विष्टा, प्रस्रवण अर्थात् मूत्र, थूक, नासिका का श्लेष्म, शरीर का मैल इन सब के त्याग करने के समय स्थंडिलादिक के दोष दूर करने की प्रवृत्ति करनी पाँचवीं समिति है । और ३ गुप्तियाँ ठाणांगसूत्र और समवायांग सूत्र में इस प्रकार गिनायी गयी हैं:-- १ मनोगुप्ति, २ वचनगुप्ति, ३ कायगुप्ति । समवाय की टीका में उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है: गोपनानि गुप्तयः मनः प्रभृती नाम शुभ प्रवृत्तिनिरोधनानि शुभ प्रवृत्तिकरणानिचेति । १-समवायांग सूत्र सटीक, पत्रा १०-२, ११-१ । २-स्थानांगसूत्र सटीक, ठाणा ३, सूत्रा १२६ पत्रा १११-२, समवायांगसूत्र सटीक समवाय ३, पत्रा ८-१ । ३-समवायांगसूत्रा सटीक, पत्र ८-२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy