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________________ तीर्थकर महावीर ४४. देवानन्दा--देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ २०-२४ ४५. धन्य--देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृ. ३८-४० ४६. धन्य--देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ६८ ४७. धन्य-चम्पा-नगरी में जितशत्रु-नामक राजा राज्य करता था । उस नगर में पूर्णभद्र-नामक चैत्य था। उसी नगर में धन्यनामक एक सार्थवाह रहता था। चम्पा-नगरी के उत्तर-पूर्व (पश्चिम) दिशा में अहिछत्रा-नामक समृद्धिशाली नगरी थी। उस अहिछत्रा में कनककेतु-नामक राजा राज्य करता था। उसने महाहिमवंत आदि देखा था। एक बार मध्यरात्रि के समय धन सार्थवाह को यह विचार उठा"विपुल घी, तेल, गुड़ आदि क्रयाणक लेकर अहिछत्रा जाना श्रेयस्कर है।" ऐसा विचार कर उसके गणिम, धरिम, मेज, पारिच्छेद्य आदि चारों प्रकार के क्रयाणक तैयार कराये और यात्रा के लिए गाड़ियों की व्यवस्था करायी। उसके बाद उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर कहा"हे देवानुप्रियो ! तुम लोग चम्पा-नगरी के शृंगाटक यावत् सर्व मार्गों में कहो-'हे देवानुप्रियो ! धन्य-नामक सार्थवाह विपुल घी-तेल आदि लेकर व्यापार करने के लिए अहिछत्रा जाने का इच्छुक है। अतः हे देवानुप्रियो जो कोई चरक-(धाटिभिक्षाचरः) चीरिक (रथ्यापतित चीवर परिध.नः), चर्मखंडिक (चर्मपरिधानः, चोपकरण इति चान्ये), भिक्षाण्ड ( भिक्षाभोजी सुगत शासनस्थ इत्यन्ये ), पाण्डुरागः (शैवः), गौतम (लघुराक्षमाला चर्चित विचित्र पाद पतनादि शिक्षा कलापद्वृषभ कोपायतः कणभिक्षाग्रही ), गोबतिक ( गोश्चर्यानुकारी), गृहधर्मा, गृहधर्मचिंतक, अविरुद्ध ( वैनयिक), विरुद्ध ( अक्रियावादी परलोकामभ्युपगमात् सर्ववादिभ्यो विरुद्धः), वृद्धः (तापस प्रथममुत्पन्नत्वात् प्रायो वृद्धकाले च दीक्षाप्रतिपत्तेः), श्रावक, रक्तपट ( परिव्राजक ), निर्गन्थ, पासंड-परिव्राजक अथवा गृहस्थ जो कोई धन्य-सार्थवाह के साथ अहिछत्रा-नगरी में जाना चाहे, उसे धन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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