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श्रमण-श्रमणी तब तेतलिपुत्र ने पोलिदेव के उत्तर में यह कहा-'हे देव ! इस प्रकार भयग्रस्त को प्रव्रज्या की शरण में जाना चाहिए।
इस समय शुभ परिणाम से उसे जातिस्मरणज्ञान हो गया।
उसके बाद उसे यह विचार उत्पन्न हुआ-"जम्बूद्वीप में महाविदेह क्षेत्र में पुष्कलावती नाम के विजय के विषय में, पुंडरीकिगी नाम की राजधानी में में महापद्म-नामक राजा था। उस भव में स्थविरों के पास मुंडित होकर चौदह पूर्व पढ़ कर वर्षों तक चरित्रपाल कर एक मास का अनशन कर महाशुक्र-नामक देवलोक में उत्पन्न हुआ था।
"वहाँ से च्यव कर में तेतलिपुर-नामक नगर में तेतलि-नामक आमात्य की भद्रा-नामक पत्नी की कुक्षि से उत्पन्न हुआ। मुझे पूर्व अंगीकार महाव्रत लेना ही श्रेयस्कर है।"
फिर उसने महाव्रत स्वीकार किये। प्रमदवन में अशोकवृक्ष के नीचे पृथ्वीशिलापट्टक पर विचरण करते हुए उसे चौदहपूर्व स्मरण आ गये।
बाद में उसे केवलज्ञान हो गया ।
उधर कनकध्वज राजा को विचार हुआ कि, मैंने तेतलिपुत्र का बड़ा अनादर किया । अतः वह क्षमा याचना माँगने तेतलिपुत्र के पास गया । तेतलिपुत्र ने उसे धर्मोपदेश किया और राजा ने श्रावकधर्म स्वीकार कर लिया।
अंत में तेतलिपुत्र ने सिद्धि प्राप्त की।' ३६. दशार्णभद्र-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ २१४ ४०. दीर्घदन्त-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ ४१. दीर्घ सेन-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ ४२. द्रम-देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ठ ५३ ४३. द्रमसेण---देखिए तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृष्ट ५३
१ ज्ञाताधर्मकथा सटोक, १, १४.--पत्र १६१-१---- १६६-२
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