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पूर्व
स्पूर्वाणीति भणितानि, गणधराः पुनः आचार क्रमेण रचयन्ति स्थापयन्ति च - सूत्रार्थः पूर्वमर्हता भाषितो गणधरैरपि रचितं पश्चादाचारादि'
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श्रुत रचनां विदधाना मान्तरेण तु पूर्वगतपूर्वगत श्रुतमेव पूर्व
इसी आशय की टीका नन्दीसूत्र की टीका में भी दी हुई है ।" ठाणांग सूत्र में दृष्टिवाद के १० नाम दिये हुए हैं वहाँ 'पूर्वगत' की टीका में आता है
सर्व श्रुतात्पूर्व क्रियत इति पूर्वाणि - उत्पाद पूर्वादीनि चतुर्दश तेषु गतः - अभ्यन्तरीभूतस्तत्स्वभाव इत्यर्थः पूर्वगतः...
जैन शास्त्रों में पूर्वो की संख्या १४ बतायी गयी है और उनके नाम इस प्रकार बताये गये हैं: - १ - उत्पादपूर्व, २ अग्रायणीयपूर्व, ३ वीर्यप्रवाद पूर्वं, ४ अस्तिनास्ति प्रवादपूर्व, ५ ज्ञानप्रवादपूर्व, ६ सत्यप्रवादपूर्व, ७ आत्मप्रवादपूर्व, ८ कर्मप्रवादपूर्व, ९ प्रत्याख्यान, १० विद्या-नुप्रवाद पूर्व, ११ अबंधपूर्व, १२ प्राणायुः पूर्व, १३ क्रियाविशालपूर्व -१४ लोकबिन्दुसारपूर्व * ।
यह 'पूर्व' शब्द जैन - साहित्य में पारिभाषिक शब्द है । इस रूप में ""पूर्व' का व्यवहार न तो वैदिकों में मिलता है और न बौद्धों में । डाक्टर - बरुआ ने 'पूर्व' का अर्थ परम्परागत किया है। पर, यह उनकी भूल है ।
१ - समवायांग सूत्र सटीक, समवाय १४७ पत्र १२१-२
२ - नंदीसूत्र सटीक, पत्र २४०-२
३ --ठाणांगसूत्र सटीक, ठाणा १०, उद्देशा ३, सूत्र ७४२ पत्र ४६१-२
४ - समवायांग सूत्र सटीक, समवाय १४, पत्र २५ - १, समवाय १४७ पत्र११६१ तथा नन्दीसूत्र सटीक, सूत्र ५७, पत्र २३६ - २ -- २३७-१
पष्ठ
५ - जर्नल आव द' डिपार्टमेंट आव लेटर्स, कलकत्ता विश्वविद्यालय, ii, ४१, आजीवक ( बाशम - लिखित ) पृष्ठ २१४
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