________________
१०६
तीर्थकर महावीर
'पूर्वो' के सम्बंध में हम जो कुछ ऊपर लिख आये हैं, उससे अधिक कुछ स्पष्टीकरण के लिए अपेक्षित नहीं है ।
गोशाला जिन बना श्रावस्ती में ही गोशाला ने तेजोलेश्या की प्राप्ति की और वहीं निमित्तादि का ज्ञान प्राप्त करके गोशाला अपने को " 'मैं जिन' हूँ,' 'मैं अर्हत्' हूँ,' 'मैं केवली हूँ,' 'मैं सर्वज्ञ हूँ' " कहकर विचरने लगा और आजीवक-सम्प्रदाय का धर्माचार्य बन गया ।
उसने अपना चौमासा श्रावस्ती में बिताया था । वह उसका चौबीसवाँ चौमासा था । चौमासे के बाद भी गोशाला हालाला कुम्भकारिन की भांडशाला में ठहरा था।
भगवान् श्रावस्ती में इसी समय भगवान् विहार करते हुए श्रावस्ती पहुँचे और श्रावस्ती के ईशान-कोण में स्थित कोष्ठक-चैत्य में ठहरे । भगवान् की आज्ञा लेकर भगवान् के मुख्य गणधर इन्दभूति गौतम गोचरी के लिए श्रावस्ती नगरी में गये । श्रावस्ती-नगरी में विचरते हुए इन्द्रभूति ने लोगों के मुख से सुना-"गोशालक अपने को 'जिन' कहता हुआ विचर रहा है।" १-राग-द्वेष-जेता
-कल्पसूत्र सुबोधिका टीका सहित, पत्र ३२२ २-अंरिहननात् रजोहननात् रहस्याभावाच्चेति वा पृषोदरादित्वात्
-अभिधान चिंतामणि सटीक, देवाधिदेव कांड, श्लोक २४, पष्ठ 8 ३-सर्वथावरण विलये चेतनस्वरूपाविर्भावः केवलं तदस्यास्ति केवली
-अभिधान चिन्तामणि सटीक, पृष्ठ १०. ४-सर्व जानाति इति सर्वज्ञः
-अभिधानचिंतामणि, सटीक पृष्ठ १० ५-सभष्य-चूर्णि निशीथ में कुम्भकार की पाँच शालाओं का उल्लेख पाता है:
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org