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________________ २२२ तीर्थकर महावीर गौतम स्वामी--- "हे भंते ! क्या यह अम्बड परिव्राजक आपके पास मुंडित होकर आगार अवस्था से अनागार-अवस्था को धारण करने के लिए समर्थ है ?" भगवान्- "हे गौतम ! इस अर्थ के लिए वह समर्थ नहीं है । वह अम्बड परिव्राजक श्रमणोपासक होकर जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष का ज्ञाता होता हुआ अपनी आत्मा को भावित करता विचर रहा है । परन्तु, इतना मैं अवश्य कहता हूँ कि अम्बड परिव्राजक स्फटिकमणि की राशि के समान निर्मल है और ऐसा है कि, उसके लिए सभी घरों का दरवाजा खुला रहता है । अति विश्वस्त होने के कारण राजा के अन्तःपुर में बेरोक-टोक आता-जाता है। ___ "इस अम्बड परिव्राजक ने स्थूलप्राणातिपात का यावजीव परित्याग किया है, इसी प्रकार स्थूलमृषावाद का, स्थूलअदत्तादान का, स्थूल परिग्रह का यावजीव परित्याग किया है। परन्तु, स्थूल रूप से ही मैथुन का परित्याग नहीं किया है; किन्तु इसका तो उसने समस्त प्रकार से जीवन पर्यन्त परित्याग किया है । यदि अम्बड परिव्राजक को विहार करते हुए, मार्ग में अकस्मात् गाड़ी का धुरा प्रमाण जल ओ जाये तो उसमें उसे उतरना नहीं कल्पता है; परन्तु विहार करते हुए यदि अन्य रास्ता ही न हो तो बात अलग। इसी प्रकार अम्बड परिव्राजक को शकट आदि पर चढ़ना भी नहीं कल्पता । उसे केवल गंगा की ही मिट्टी कव्यती है । इस अम्बड परिव्राजक के लिए आधाकर्मी' उद्दशिय, मिश्रजात, आहार ग्रहण करना नहीं कल्पता । इसी प्रकार १ आधाकर्म--'आधा अर्थात् साधु को चित्त में धारण करके साधु के निमित्त किया कर्म-'कर्म' अर्थात् सचित्त को अचित्त करना और अचित्त को पकाना अर्थात् साधु के निमित्त बना भोजन-धर्मसंग्रह गुजराती अनुवाद सहित, पृष्ठ १०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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