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________________ अम्बड परिव्राजक २२१ भगवान्-“हे गौतम ! यह अम्बड परिव्राजक प्रकृति से भद्र यावत् विनीत है । लगातार छठ-छठ की तपस्या करने वाला है एवं भुजाओं को ऊपर करके सूर्य के सम्मुख आतापना के योग्य स्थान में आतापना लेता. है। अतः इस अम्बड परिव्राजक को शुभ परिणाम से, प्रशस्त अध्यवसानों से, प्रशस्त लेश्याओं की विशुद्धि होने से, किसी एक समय तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से ईहा', व्यूहा', मार्गण एवं गवेषण करने से वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि तथा अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया । इसके बाद उत्पन्न हुई उन वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि एवं अवधिज्ञान लब्धि द्वारा मनुष्यों को चकित करने के लिए, वह काम्पिल्यपुर में १०० घरों से भिक्षा करता है एवं उतने ही घरों में विश्राम करता है । इसी आशय से मैं कहता हूँ कि अम्बड परिव्राजक सौ घरों में अहार करता है और सौ घर में निवास करता है।" १-'ईहा' शब्द की टीका औपपातिकसूत्र में इस प्रकार की गयी है-ईहाकिमिदमित्थमुतान्यथेत्येवं सदालोचनाभिमुखा मतिः चेष्टासटीक पत्र १८८ सामान्यतः रूप स्पर्श श्रादि का प्रतिभास अवग्रह है। अवग्रह के पश्चात् वस्तु की विशेषता के बारे में सन्देह उत्पन्न होने पर उसके बारे में निर्णयोन्मुखी जो विशेष आलोचना होती है, वह ईहा है। ___ 'ईहा' का वर्णन तत्वार्था धिगमसूत्र सभाध्य सटीक (हीरालाल-सम्पादित) भाग १ पष्ठ ८०-८१ में है। २-व्यूहः-इदमित्यमेवंरूपो निश्चयः-औपपातिकसूत्र सटीक, पत्र १८८ निश्चय ३-अन्वयधर्मालोचनं यथा स्थाणौ निश्चेतत्वे इस वल्युत्सर्पणादयः प्रायः स्थाणुधर्मा घटन्त इति-औपपातिकसूत्र सटीक पत्र १८८ अन्वय धर्म का शोधन जैसे पानी को देखकर उसके सहचार धर्म की खोज लगाना। ४--गवेधणं-व्यतिरेकधर्मालोचनं यथा स्थाणावेव निश्चेतव्ये इह शिरः कण्डूयनादायः प्रायः पुरुषधर्मा न घटन्त इति तत् एषां समाहार द्वन्दः-औपपातिक सटीक पत्र १८८ । मार्गण के बाद अनुपलभ्य जीवादिक पदार्थों के सभी प्रकार से निर्णय करने का और तत्परता रूप गवेषण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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