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भक्त राजे
५६३ शतानीक ने अपने देश-विदेश में आने जाने वाले दूत से पूछा--"हे दूत ! ऐसी क्या वस्तु है, जो दूसरे राजाओं के पास है और मेरे पास नहीं है ।" उस दूत ने उत्तर दिया-“हे राजन् ! आपके पास चित्रसभा नहीं है।"
यह सुनकर, राजा ने चित्रसभा तैयार करने की आज्ञा दी । बहुत से चित्रकार एकत्र किये गये और चित्र बनाने के लिए सब ने समथल भूमि बाँट ली। उनमें एक युधक चित्रकार को अंतःपुर के निकट का भाग मिला । वहाँ रहकर चित्र बनाते समय जाली के अंदर से मृगावती देवी के पैर के अंगूठे का भाग देखने का उसे अवसर मिला । यही मृगावती हैं, यह अनुमान करके चित्रकार ने यक्ष के प्रसाद से मृगावती का रूप यथार्थ रूप से अंकित कर दिया । पीछे उसका नेत्र बनाते हुए स्याही की एक बूंद चित्र में जंघा पर पड़ गयी। चित्रकार ने उसे तत्काल पोछ दिया । फिर दूसरी बार भी स्याही की बूंद गिरी उसने उसे भी पोंछ दिया। फिर तीसरी बार बूंद गिरी । तीसरी बार बूंद गिरने पर चित्रकार को विचार हुआ कि, अवश्य इस नारी के उरु-प्रदेश में लांछन है। तो यह स्याही की बूंद है तो रहने दें । मैं इसे नहीं पोंदूंगा ।
उसके बाद उस चित्रकार ने पूर्णतः यथार्थ चित्र बना दिया । एक दिन उसकी चित्रकारिता देखने के लिए राजा वहाँ आया। अनुक्रम से देखता-देखता राजा ने मृगावती का स्वरूप भी देखा और फिर जंधे पर लांछन देखकर उसे विचार हुआ कि, अवश्य इसने मेरी पत्नी को भ्रष्ट किया है नहीं तो वस्त्र के अन्दर के इस लांछन को इसने कैसे देखा । - क्रुद्ध होकर राजा ने उसे रक्षकों के सुपुर्द कर दिया। उस समय समस्त चित्रकारों ने राजा से कहा-“हे स्वामी यह चित्रकार यदि किसी का एक अंग देख ले तो यक्ष के प्रभाव से वह उस व्यक्ति का यथावत चित्र बना देने में समर्थ है । इसमें इसका किंचित् मात्र अपराध नहीं है। उसकी परीक्षा लेने के लिए राजा ने एक कुबड़ी दासी का मुख मात्र
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