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तीर्थङ्कर महावीर जितना तपःतेज स्थविरों में होता है, उससे अनन्तगुणा अरिहन्त भगवन्त में होता है; क्योंकि वह क्षान्ति (क्षमा) वाले होते हैं ।
_ "इसलिए हे आनन्द ! तुम गौतमादि श्रमण-निर्गथों के पास जाओ. और कहो कि मंखलिपुत्र गोशालक ने श्रमण-निर्गथों के साथ अनार्यपना. अंगीकार किया है । इसलिए उसके यहाँ आने पर उसके साथ धर्मसम्बन्धी प्रतिचोदना ( उसके मत से प्रतिकूल वचन) मत करना, प्रतिसारणा ( उसके मत से प्रतिकूल अर्थ का स्मरण) मत कराना और उसका प्रत्युपचार (तिरस्कार) मत करना ।” आनन्द ने जाकर सप्रसंग सब बातें गौतमादि से कहीं।
गोशाला का आगमन इधर ये बातें चल रही थी कि, उधर गोशालक आजीवक-संघ के साथ हालाहला-कुम्भकारिन को भांडशाला से निकला और श्रावस्ती-नगरी के मध्य से होता हुआ कोष्ठक चैत्य में आया । भगवान् के सम्मुख जाकर वह बोला-"ठीक है, आयुष्मान काश्यप ! अच्छा है, तुमने मेरे बारे में यह कहा है कि, 'मंखलिपुत्र गोशाला मेरा शिष्य है। जो मंस्खलिपुत्र गोशाला तेरा धर्म का शिष्य था, वह शुक्लशुक्लाभिजात बनकर काल के अवसर मैं कालकर किसी देवलोक में देव-रूप उत्पन्न हुआ है । कुंडियायन-गोत्रीय उदायी नामवाले मैंने अर्जुन गौतमपुत्र का शरीर छोड़कर मंखलिपुत्र गोशाला के शरीर में प्रवेश किया है । इस तरह प्रवेश करते मैंने सातवाँ शरीर धारण किया है । आयुष्मान् काश्यप ! जो कोई गत काल में सिद्ध हुए, वर्तमान में सोझते हैं और अनागत में सीझेंगे, वे सब हमारे शास्त्रानुसार वहाँ पर चौरासी लाख महाकल्प पर्यन्त सुख भोगते हैं। ऐसे ही सात देव, सात संज्ञी मनुष्य के भव भोगकर-शरीरान्तर में प्रवेश करते हैं । सात संज्ञी गर्भान्तर पश्चात्
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