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गोशाला - आनन्द की वार्ता
दृष्टौ विषं येषां ते दृष्टिविषाः '
प्रज्ञापनासूत्र में सर्पों का बड़ा विस्तृत विवेचन और वर्गीकरण किया गया है । 'परिसप्पथलयर पंचिदियति रक्खयोनी' के दो भेद १ उपरि
सप्प और २ भुयपरिसप्प किये गये हैं । 'उरपरिसप्प' के ४ भेद हैं-१ अही, २ अयगरा, ३ आसालिया ४ महोरगा । 'अही' के दो भेद हैं१ दव्वीकरा २ मउलिणो । 'दव्वीकरा' के अनेक भेद हैं । यथा- -१ आसीविस २ दिििवस ३ उग्गविस ४ भोगविस ५ तयाविस ६ लालाविस, ७ निसासविस, ८ कविस ९ सेदसम्प १० काओदरा, ११ दज्झपुप्फा, १२ कोलाहा, १३ मेलिविंदा, १४ सेसिंदा । मउलिणो के भी अनेक भेद हैं-१ दिव्यागा, २ गोणसा, ३ कसाहीया ४ वइउला, ५ चित्तलिणो, ६ मंडलिणो, ७ मालिणो ८ अही, ९ अहिसलागा, १० वासपंडगा । इस प्रकार कितनी ही शाखा प्रशाखाएँ सर्पों की उस ग्रंथ में बतायी गयी हैं । "
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आनन्द द्वारा भगवान् को सूचना
गोचरी से लौटकर आनन्द ने सारी बात भगवान् से कही और पूछा""हे भगवान् ! मंखलिपुत्र गोशालक क्या अपने तपः तेज से भस्म करने में समर्थ है ?" ऐसे कितने ही प्रश्न भीत आनन्द ने भगवान् से पूछे ।
भगवान् की चेतावानी
भगवान् ने कहा- "हाँ, मंखलीपुत्र समर्थ है; परन्तु अरिहंत को भस्म करने में वह समर्थ नहीं है । वह अरिहंत को परितातना मात्र कर सकता है । जितना तपः तेज गोशाला का है, उससे अनन्तगुणा विशिष्टतर सामान्य में होता है, उससे अनन्त गुणा तपः तेज स्थविरों में होता है, और
साधु
१ - प्रज्ञापनासूत्र सटीक, पत्र ४७ - १ ।
२ - वही, पत्र ४५–२–४६-१ ।
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